इस्लाम का उदय कब हुआ ? The Rise Of Islam In Hindi

इस्लाम धर्म अथवा रेगिस्तान का धर्म जिस प्रकार उभरा वह आश्चर्यजनक तो था ही लेकिन उससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक उसका तेजी से संसार में फैलना था। प्रसिद्ध इतिहासकार सर वुल्जले हेग ने ठीक ही कहा है कि इस्लाम का उदय इतिहास के चमत्कारों में से एक है। इस ब्लॉग के माध्यम से हम ‘इस्लाम का उदय कब हुआ, विषय के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करेंगे।

इस्लाम का उदय कब हुआ ? The Rise Of Islam In Hindi

इस्लाम का उदय

इस्लाम एक अभिव्यक्ति धर्म है जो 7वीं सदी में मुहम्मद नामक एक नबी द्वारा स्थापित किया गया था। इस्लाम के अनुयायी मुसलमान कहलाते हैं। इस्लाम का मतलब है “समर्पण” या “आत्मसमर्पण” जो आलोचनात्मक ध्यान के विरुद्ध होता है। इस्लाम धर्म में एक ईश्वर होता है, जिसे अल्लाह कहा जाता है।

622 ईसवी में एक पैगंबर ने मक्का को छोड़कर मदीना की शरण ली, और फिर उसके एक शताब्दी बार उसके उत्तराधिकारियों और उसके अनुयायियों ने एक ऐसे विशाल साम्राज्य पर शासन करना शुरू किया जिसका विस्तार प्रशांत महासागर से सिंधु तक और कैस्पियन से नील तक था।  क्या यह सब कुछ अचानक हुआ? यह सब कुछ कैसे हुआ? यह एक शिक्षाप्रद कहानी है। परंतु उस कहानी हो जानने से पहले हमें यह जानना उचित होगा वह कौन-से स्रोत हैं जिनसे हमें इस्लाम के साथ-साथ दिल्ली सल्तनत का इतिहास जानने में भी सहायता मिलेगी।

मध्यकालीन भारत का इतिहास जानने के प्रमुख स्रोत कौन-कौन से हैं

मध्यकालीन भारत का इतिहास जानने के लिए हमारे पास बहुत अधिक संख्या में मौलिक पुस्तके हैं जिनसे हमें महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। हमें ईलियट और डौसन के अनुवादों से ऐसी सामग्री भरपूर मात्रा में मिल सकती है।

1-चाचनामा-  

चाचनामा आरंभ में अरबी भाषा में लिखा गया ग्रन्थ है। मुहम्मद अली बिन अबूबकर कुफी ने बाद में नसिरुद्दीन कुबाचा के समय में उसका फारसी में अनुवाद किया।  डॉक्टर दाऊद पोता ने उसे संपादित करके प्रकाशित किया है। यह पुस्तक अरबों द्वारा सिंध की विजय का इतिहास बताती है।  यह हमारे ज्ञान का मुख्य साधन होने की अधिकारिणी है।

2 -तवकात-ए-नासरी-  

तबकात-ए-नासिरी का लेखक मिनहाज-उस-सिराज था। राबर्टी ने उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया । यह एक समकालीन रचना है और 1260 ईस्वी में यह रचना पूर्ण हुई। दिल्ली सल्तनत का 1620 ईस्वी तक का इतिहास और मोहम्मद गौरी कि भारत विजय का प्रत्यक्ष वर्णन इस पुस्तक में मिलता है।  इस पर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मिनहाज-उस-सिराज एक पक्षपात रहित लेखक ने था उसका झुकाव मुहम्मद गौरी, इल्तुतमिश और बलबन की ओर अधिक था। 

3- तारीख-ए-फिरोजशाही-

तारीख-ए-फिरोजशाही का लेखक जियाउद्दीन बरनी था। यह लेखक गयासुद्दीन तुगलक, मुहम्मद तुगलक और फीरोज तुगलक का समकालीन था। बरनी ने बलबन से लेकर फीरोज तुगलक तक का इतिहास लिखा है। उसने दास वंश, खिलजी वंश और तुगलक वंश के इतिहास का बहुत रोजक वर्णन किया है।

यह पुस्तक, जो अब बंगाल की एशियाटिक सोसायटी ने प्रकाशित की है, 1339 ईस्वी में पूर्ण हुई। यह पुस्तक इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखी गई है, जो शासन में उच्च पद पर नियुक्त था और जिसे शासन का वास्तविक ज्ञान था। लेखक ने भूमि-कर प्रबंध का विस्तार से वर्णन किया है। परन्तु बरनी भी एक पक्षपात रहित लेखक नहीं था इसके अतिरिक्त उसकी लेखनी बहुत गूढ़ है। 

4- तारीख-ए-फिरोजशाही- 

शम्मस-ए-सिराज अफीफ ने अपनी पुस्तक ‘तारीख-ए-फिरोजशाह’ में फीरोज तुगलक का इतिहास लिखा है। लेखक स्वयं फीरोज तुगलक के दरबार  सदस्य  था। निश्चित ही  यह एक उच्च कोटि की पुस्तक है। 

5- ताज-उल-मासिर-

     इस पुस्तक का लेखक हसन निजामी है।  इस पुस्तक में 1162-से- 1228 ईस्वी तक का दिल्ली सल्तनत का इतिहास वर्णित हैं। लेखक ने कुतुबुद्दीन ऐबक के जीवन और इल्तुतमिश के राज्य के प्रारम्भिक वर्षों का वर्णन किया है। एक समकालीन वृतांत होने के कारण यह उत्तम कोटि का ग्रन्थ है। 

6- कामिल-उत-तवारीख- 

शेख अब्दुल हसन ( जिसका उपनाम इब्नुल आमिर था ) ने ‘कामिल-उत-तवारीख’ की रचना की। इसकी रचना 1230 ईस्वी में हुई। इसमें मुहम्मद गौरी की विजय का वृतान्त मिलता है। यह भी एक समकालीन वर्णन है और यही इसके उपयोगी होने का कारण है।

पैगम्बर मुहम्मद साहब का जन्म कब हुआ

 इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगंबर मुहम्मद साहब थे। अरब के एक नगर मक्का में उनका जन्म 570 ईसवी में हुआ। दुर्भाग्य से उनके पिता की मृत्यु उनके जन्म से पूर्व ही हो गई और जब वह केवल 6 वर्ष की अवस्था के थे तब उनकी माता की भी मृत्यु हो गई।

मुहम्मद साहब का पालन पोषण किसने किया 

माता-पिता की मृत्यु के बाद मुहम्मद साहब का पालन पोषण उनके चाचा अबू तालिब ने किया। मुहम्मद साहब का बचपन अत्यंत गरीबी में गुजरा। उन्होंने भेड़ों के एक समूह की देख-भाल की व व्यापार कार्य में अपने चाचा का हाथ बटाया.

मुहम्मद साहब की पत्नी का क्या नाम था  

मुहम्मद साहब का वैवाहिक जीवन बहुत सरल और आदर्शवादी था। वे खुद एक आदर्श वैवाहिक जीवन जीते थे और लोगों को एक सुदृढ़ वैवाहिक सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित किया था।

मुहम्मद साहब का पहला विवाह उनकी जवाहिर बिंते खुज़ैमा से हुआ था। उन्हें उससे बहुत प्यार था और वे उसे “खादीजा” के नाम से जानते थे। वे उम्र में मुहम्मद साहब से बहुत बड़ी थीं और उन्हें विधवा होने के बाद सम्बन्ध बनाने का विचार आया था। खादीजा के साथ मुहम्मद साहब के 25 साल तक के सुखद वैवाहिक जीवन का जीता जागता उदाहरण दिया जाता है।

उन्होंने खादीजा के बाद और भी कई वैवाहिक सम्बन्ध बनाए, जिनमें एक बेहतरीन सम्बन्ध था जो उनकी दूसरी पत्नी आइशा के साथ था। वे आइशा को अपनी आखिरी और सबसे प्यारी पत्नी मानते थे।

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प्रथम मुस्लिम आक्रमणकारी जिसने भारत की धरती पर कदम रखा-मुहम्मद-बिन-कासिम

सर वुल्जले हेग ने ठीक कहा है कि इस्लाम का उदय इतिहास के चमत्कारों में से एक है। सन 622 ईस्वी में एक पैगम्बर ने मक्का छोड़ कर मदीना की शरण ली। एक शताब्दी बाद उस शरणागत के उत्तराधिकारी और अनुयायी एक ऐसे साम्राज्य पर शासन करने लगे जिसका विस्तार प्रशांत महासागर से सिंधु तक और कैस्पियन से नील तक था। भारत पर मुसलमानों के आक्रमण से पूर्व भारत की दशा कैसी थी ? अरबों द्वारा सिंध विजय पर विचार करने से पूर्व आठवीं शताब्दी के आरम्भ में भारत की दशा पर संक्षिप्त प्रकाश डालना आवश्यक है। 

sindh par arbon ki vijay

 

प्रथम मुस्लिम आक्रमणकारी

आठवीं शताब्दी में भारत की राजनीतिक दशा 

 राजनीतिक रूप से भारत में कोई केंद्रीय शक्ति नहीं थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय से अफगानिस्तान भारत का अंग था। हृवेनसांग के अनुसार काबुल की घाटी में एक क्षत्रिय राजा का शासन था और उसके उत्तराधिकारी नवीं शताब्दी तक शासन करते रहे। इसके पश्चात् लालीय की अधीनता में एक ब्राह्मण वंश की स्थापना हुयी।मुस्लमान लेखकों ने इस वंश को हिन्दुशाही साम्राज्य अथवा काबुल या जाबुल का साम्राज्य कहा है। अरबों के आक्रमण के समय अफगानिस्तान के शासकों के नाम अनभिज्ञ हैं। 

सातवीं शतब्दी में कश्मीर में दुर्लभवर्मन ने हिदुवंश की स्थापना की। हृवेनसांग ने उसके शासनकाल में कश्मीर की यात्रा की। उसके उत्तराधिकारीप्रतापदित्य ने प्रतापपुर की नींव रखी।ललितादित्य मुक्तापीड़ जो 724 ईस्वी में सिंहासन पर बैठा, पंजाब, कन्नौज, दर्दिस्तान और काबुल का विजेता सिद्ध हुआ। वह अपने वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था।उसके समय में सूर्य देवता  के लिए मार्तण्ड मंदिर बनवाया गया। 740 ईस्वी के लगभग उसने कन्नौज के राजा यशोवर्मन को परजित किया। 

 सातवीं शताब्दी में नेपाल, जिसके पूर्व में तिब्बत व् दक्षिण में कन्नौज का राज्य था, हर्ष के साम्राज्य में मध्यवर्ती राज्य था।  अंशुवर्मन ने ठाकुरी वंश की नींव रखी।  उसने तिब्बत के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये। आ उसने अपनी कन्या का विवाह तिब्बत के शासक के साथ किया।  हर्ष की मृत्यु के बाद तिब्बत व नेपाल की सेना ने चीन के राजदूत वांग ह्युन्सी ( wang-hieun -tse ) को कन्नौज के सिंहासन का अपहरण करने वाले अर्जुन के विरुद्ध सहायता प्रदान की। 730 ईस्वी  में नेपाल स्वतंत्र हो गया। 

हर्ष के समय असम में भास्करवर्मन का शासन था। हर्ष की मृत्यु के पश्चात् उसने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। परन्तु वह एड्ज अधिक समय तक स्वतंत्र न रह सका और शिलास्तंभ ( एक म्लेच्छ ) ने भास्करवर्मन को पराजित किया और लगभग 300 वर्षों तक असम म्लेच्छों की अधीनता में रहा। 

हर्ष की मृत्यु के पश्चात् अर्जुन ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। उसने चीन के राजदूत वान ह्यूंगसे  का विरोध किया जो हर्ष की मृत्यु के उपरंत वहां पहुंचा था। उसके कुछ साथियों को कारावास में डाल दिया गया अथवा कुछ की हत्या कर दी गई और उनकी संपत्ति भी लूट ली गयी। वान ह्यूंगसे किसी प्रकार बचकर नेपाल पहुँच गया और असम, तिब्बत व नेपाल की सहायता लेकर लौटा।अर्जुन पराजित हुआ और चीन ले जाया गया। आठवीं शताब्दी के आरम्भ में कन्नौज के सिंहासन पर यशोवर्मन बैठा। उसने कन्नौज का पुराना गौरव लौटाया। वह सिंध के राजा दाहिर का समकालीन था। 

सिंध में शूद्र वंश का राज्य था। सिंध पर हर्ष ने विजय प्राप्त की थी परन्तु हर्ष की मृत्यु के उपरंत सिंध स्वतंत्र हो गया। शूद्र वंश का अंतिम शासक साहसी था। उसकी मृत्यु के उपरांत उसके ब्राह्मण मंत्री छाछ ने उसके राज्य पर अधिकार कर  नए वंश की नींव रखी। छाछ के पश्चात् चंद्र व चंद्र के पश्चात् दाहिर गद्दी सी  पर बैठा। इसी दाहिर ने सिंध में अरबों का सामना किया। 

बंगाल में शशांक हर्ष का समकालीन था। इसकी मृत्यु के पश्चात् बंगाल में अराजकता फ़ैल गई।  750 ईस्वी में प्रजा ने गोपाल को अपना शासक चुना। गोपाल ने 750-770 ईस्वी तक शासन किया। गोपाल द्वारा स्थापित किये गए वंश ने 12 वीं शताब्दी तक शासन किया। धर्मपाल, देवपाल व महिपाल इस वंश के प्रसिद्ध शासक हुए। 

केंद्रीय राजपुताना में मंडोर के स्थान पर प्रतिहारों का सबसे पुराना व प्रसिद्ध राज्य था।  हरिश्चंद्र के परिवार ने यहाँ शासन किया।  उनकी एक शाखा दक्षिण में कन्नौज की ओर स्थापित हो गई।  राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ने गुर्जर नेता को पराजित किया।  यह बताया जाता है कि कन्नौज की विजय से पूर्व प्रतिहार अवन्ति के स्वामी थे।  

यह भी बताया जाता है कि नागभट्ट प्रथम ने म्लेच्छ राजा की विशाल सेनाओं को नष्ट कर किया। उसने अरबों से पश्चिमी भारत की रक्षा की।

नागभट्ट व दन्ति दुर्ग दोनों ने अरबों के आक्रमणों  उत्पन्न अशांति में लाभ उठाने का प्रयास किया। यद्यपि आरम्भ में दन्तिदुर्ग को कुछ लाभ हुआ किन्तु वह लाभ स्थायी न रहा। आरम्भ में असफलता होने पर भी नागभट्ट ने मृत्यु समय एक शक्तिशाली साम्राज्य छोड़ा जिसमें मालवा, राजपुताना, व गुजरात के कुछ भाग सम्मिलित थे। 

           चालुक्य वंश का सबसेप्रतापी राजा पुलकेशिन द्वतीय हर्ष का समकालीन था। 665 ईस्वी से 681 ईस्वी तक विक्रमादित्य ने राज्य किया।उसके पुत्र विनयादित्य ने 681 ईस्वी से 689 ईस्वी तक शासन किया। उसका उत्तराधिकारी विजयादित्य हुआ जिसने 689 से 733 ईस्वी तक शासन किया। उसने कांची पर  प्राप्त करके पल्लव राजाओं से कर प्राप्त किया। वह अरबों के  आक्रमण के समय राज्य कर रहा था। 

          अरबों के आक्रमण के समय पल्लवों का शासक नरसिंहवर्मन द्वितीय था। उसने 695 से 722 ईस्वी तक राज्य किया। उसने ‘राजसिंह’ ( राजाओं में सिंह ), ‘आगमप्रिय’ ( शास्त्रों का प्रेमी ) और ‘शंकरभक्त’ ( शिव का उपासक ) की उपाधियाँ धारण कीं। उसने कांची में कैलाशनाथ का मंदिर बनवाया। 

         उपरोक्त अध्य्यन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सिंध पर अरबों के  समय ऐसा एक भी शक्तिशाली राज्य नहीं था जो सफलतापूर्वक मुसलमानों के आक्रमण को रोक पाता। भारतीय शासक संकट के समय भी एक न हो सके।  देशभक्ति  पूर्णतया अभाव था। भारतीय शासक व्यक्तिगत विजयों के लिए ही लड़ते थे। 

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शासन-प्रबन्ध – उस समय राजतन्त्र था।  ज्येष्ठाधिकार का पालन होता था। कभी-कभी शासकों का चुनाव भी होता था।  गोपाल जिसने पालवंश स्थापना की थी, प्रसिद्ध राजनीतिक दलों द्वारा चुना  गया था। राजा कार्यपालिका का प्रधान, सेना का मुख्य सेनापति और न्याय का स्रोत होता था। कुछ शासक निरंकुश भी होते थे परन्तु उनसे धर्मानुसार शासन की आशा की जाती थी। 

    राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी। जिसमें – संधिविग्रहिक, सुमंत, महादण्डनायक, महाबलाधिकृत, अमात्य, अक्षपटाधिकृत आदि मंत्री होते थे। इसके अतिरिक्त एक पुरोहित भी होता था जो धर्म विभाग का अधिकारी होता था। मंत्रिपद पैतृक होते थे। 

       उत्तर भारत के राज्य कई प्रांतों ( भुक्ति ) में बंटे थे दक्षिण में इन्हें मंडल कहा जाता था। इनके लिए कहीं-कहीं राष्ट्र अथवा देश शब्द का किया गया है। प्रत्येक राज्य उपरिक के अधीन था। प्रत्येक प्रान्त कई जिलों में विभक्त था जिन्हें ‘विषय’ कहा जाता था। इनका अधिकारी विषयपति होता था। जिलों में कई गांव के समूह थे और शासन-प्रबंध की इकाई था।

प्रत्येक गांव में एक मुखिया और गांव के वृद्ध व्यक्तियों की एक पंचायत होती थी। प्रत्येक पंचायत में विभिन्न छोटी-छोटी समितियां होती थीं जो गांवों की आवश्यकताओं की देखभाल करती थीं। गांव का अध्यक्ष ( अधिकारी ) ‘अधिकारिन’ कहलाता था। नगर का प्रबंध नगरपति के अधीन था  जिसकी सहायता के लिए कई नगरों में नागरिकों द्वारा चुनी हुई सभा थी।

राज्य की आय का मुख्य साधन राजकीय भूमिकर, अधीनस्थ राजाओं से भेंट, चुंगी कर, सिंचाई कर, सड़कों व नावों व खानों आदि पर कर थे।  इसे ‘भाग’ कहते थे। 

धार्मिक दशा ( Religious Condition ) इस समय बौद्ध धर्म अवनति पर था, किन्तु फिर भी बिहार में पाल व बंगाल में सेन राजाओं के समय तक इस धर्म के अनुयायी मिलते थे।  धर्मपाल ने, जिसने 780 ईस्वी से 810 ईस्वी तक शासन किया, एक विशाल बौद्ध विश्विद्यालय विक्रमशिला ( जिसमें 107 मंदिर व 6 विद्यालय थे ) की स्थापना की।  जैन धर्म अधिक समय तक चलता रहा और विशेषकर दक्षिण के लगभग सभी राज्यों में जैन धर्म का थोड़ा बहुत प्रभाव शेष था।

राष्ट्रकूट, चालुक्य, गंग और होयसल राज्यों में वैष्णव और शैव धर्म की स्थापना के पहले जैन धर्म चरम पर रह चुका था।  कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य, रामानुज और माधवाचार्य जैसे प्रसिद्ध धार्मिक उपदेशकों ने हिन्दू समाज की धार्मिक मनोवृत्ति में परिवर्तन किया।  सुधरा हुआ हिन्दू धर्म एक शक्तिशाली धर्म बन गया।  अधिकांश शासक हिन्दू धर्म के अनुयायी थे, किन्तु वे अन्य धर्मों के प्रति भी सहनशील थे। उस समय किसी प्रकार के धार्मिक अत्याचार नहीं किये जाते थे। 

सामाजिक दशा ( social condition ) जाति प्रथा पहले से अधिक कठोर हो चुकी थी। इस समय ब्राह्मणों के सैनिक और क्षत्रियों के व्यापरी बनने के उदाहरण भी मिलते हैं लेकिन शूद्रों के लिए व्यवसाय बदलना असम्भव था। यद्यपि वैश्यों और शूद्रों ने शक्तिशाली राज्यों का शासन भी संभाला। 

        अंतर्जातीय विवाह निषिद्ध थे और अधिकांश लोग अपनी ही जाति में विवाह करते थे। अधिकांश सवर्ण लोग शाकाहारी थे और वे प्याज व लहसुन तक का प्रयोग नहीं करते थे। अस्पृश्यता चार्म पर थी। हिन्दू समाज में बहुविवाह की प्रथा थी प्रचलित थी, परन्तु स्त्रियों के लिए पुनर्विवाह वर्जित था। सती प्रथा भी प्रचलित थी। शिक्षा सिर्फ उच्च वर्ग में प्रचलित थी। हर तरफ अन्धविश्वास का बोलवाला था। सम्पूर्ण हिंदू समाज जातियों में बिखरा एक कमजोर समाज था जो मुसलमानों के आक्रमणों को रोकने में पूर्णतया असमर्थ था। 

 यह ठीक है कि वास्तव में सिंध को अरबों ने 722 ईस्वी में विजय किया परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उससे पूर्व कोई  कोशिश न हुई थी। खलीफा उमर के समय 636-637 ईस्वी में बम्बई के निकट थाना ( Thana ) की विजय के लिए एक मुस्लिम नाविक अभियान भेजा गया परन्तु वह असफल रहा।

दूसरा प्रयास 644 ईस्वी में स्थल मार्ग द्वारा मकरान के तट से पश्चिमी सिंध में किया गया।  यह अभियान अब्दुल्ला-बिन-अमर के नेतृत्व में खलीफा उस्मान ने भेजा था। वह सिस्तान की विजय करके मकरान की ओर अग्रसर हुआ। उसने मकरान और सिंध के शासकों को हराया। सिंध को विजय करके भी उसको राज्य में मिलाना उपयुक्त न समझा गया।

खलीफा को बतया गया कि सिंध में पानी और फलों की कमी है और वहां के डाकू बड़े साहसी हैं। यदि थोड़े सैनिकों को भेजा गया तो उनकी हत्या कर दी जाएगी और यदि भूतों को भेजा गया तो वे भूखे मर जायेंगे। ऐसा होते हुए भी अरब लोग सिंध के सीमावर्ती क्षेत्रों पर स्थल मार्ग से आक्रमण करते रहे।

अल-हरीस ने सन 659 ईस्वी में प्रारम्भ में कुछ सफलता प्राप्त की परन्तु अंत में वह हार गया और 662 ईस्वी में मारा गया। अल-मुहल्लब ने 664 ईस्वी में फिर हिम्मत की परन्तु वह हार गया। अब्दुल्ला इस काम को करता हुआ मारा गया। अंत में अरबों ने आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मकरान विजय कर लिया।  इस प्रकार सिंध की विजय का मार्ग प्रशस्त हुआ। 

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क्या मुग़ल सम्राट हिन्दू धर्म विरोधी थे -Religious policy of Mughal emperors from Babar to Aurangzeb

वर्तमान में भारत की राजनीतिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए इस लेख को लिखने का विचार मन में आया। हमें आज तमाम लोग यह कहते दिख जायेंगे कि मुगलों ने हिन्दुओं और हिन्दू धर्म को बहुत क्षति पहुंचाई। इनमें से अधिकांश लोग किसी राजनितिक दल विशेष के अंध समर्थक होंगे या फिर वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ। लेकिन हम यह भी नहीं मान सकते कि मुग़ल धार्मिक रूप से धर्मसहिष्णु थे। इस लेख में हम ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर मुगलों की धार्मिक नीति का निष्पक्ष विश्लेषण करेंगे और वास्तविक स्थिति को पाठकों के सामने प्रस्तुत करेंगे। 

क्या मुग़ल सम्राट हिन्दू धर्म विरोधी थे -Religious policy of Mughal emperors from Babar to Aurangzeb 

मुग़ल कौन थे ?

भारत में मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर था जिसे बाबर के नाम से जाना जाता है। वंश क्रम में वह पिता की ओर से तैमूर से छठे तथा माता की ओर से चंगेज से पन्द्रहवें स्थान पर आता था। इस प्रकार वह तैमूर और चंगेज खां दोनों परिवारों से संबंधित था और उसमें मध्य एशिया के दो बड़े विजेताओं का रक्त मिला हुआ था। बारह वर्ष की आयु में बाबर के पिता सुल्तान उम्रशेख मिर्जा की मृत्यु हो गयी और बाबर फरगना ( उज्बेकिस्तान का मध्य प्रान्त ) का राजा बन गया। 

भारत पर मुगलों का अधिकार

पानीपत का युद्ध 1526- पूरी तैयारी करने के पश्चात् बाबर भारत को विजय करने निकल पड़ा। सबसे पहले उसे दौलत खान से युद्ध करना पड़ा, जिसने अलाउद्दीन को लाहौर से निकाल दिया था। उसको पराजित करने के पश्चात् बाबर सरहिन्द के रास्ते से दिल्ली की ओर बढ़ा। इब्राहिम लोदी बाबर से युद्ध करने के लिए दिल्ली से बाहर आ गया। विरोधी सेनाएं पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में आमने-सामने आ गईं। बाबर के पास विशिष्ट सुविधाएं थीं। उसके तोपखाने ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  इब्राहिम लोदी की पराजय हुई। फलस्वरूप दिल्ली और आगरे पर बाबर का अधिकार हो गया। 

डा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार “पानीपत के युद्ध ने दिल्ली के साम्राज्य को बाबर के हाथों में सौंप दिया। लोदी वंश की शक्ति चूर-चूर हो गई और भारत वर्ष की सत्ता चग़ुताई तुर्कों हाथों में चली गई।”

मुगलों का राज्य सोलहवीं सदी में प्रारम्भ हुआ। उस समय की भारत की अवस्था ने उनकी धार्मिक नीति पर प्रभाव डाला। मुगलों से पहले भारत में सुल्तानों का शासन था। उन सुल्तानों ने हिन्दुओं के प्रति उदारता का बर्ताव नहीं किया। हिन्दुओं को विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किया गया शासन सत्ता में उनका कोई स्थान नहीं था। हिन्दुओं को जबरन मुसलमान  बनाया गया। परन्तु मुगलों ने सुल्तानों की धार्मिक नीति से सबक लेते हुए उस नीति को बदला और सत्लतनत के मुक़ाबले अधिक स्थायित्व के साथ साम्राज्य की नींव रखी। 

मुग़ल सम्राटों की धार्मिक नीति 

बाबर की धार्मिक नीति – यह भलीभांति ज्ञात है कि बाबर में चंगेज खां और तैमूर का रक्त था। उसमें धार्मिक कट्टरता लेशमात्र भी नहीं थी। तैमूर भी चंगेज का संबंधी था। उसमें भी धार्मिक कट्टरता नहीं थी। वह सुन्नी और सिया में कोई अंतर नहीं समझता था। वह कभी जिहाद करने वाला गाजी और कभी इस्लामेत्तर धर्मों का अनुयायी था। ऐसी ही परम्परा उसके वंशजों में थी। 

बाबर को खुदा में बहुत विश्वास था। बाबर का मानना था कि यदि सच्चे दिल से प्रार्थना की जाये तो वह अवश्य ही स्वीकार होती है और खुदा वैसा  ही करता है जैसा प्रार्थना करने वाला मांगता है। बाबर नमाज पढता था और रोजे भी रखता था।  अपनी अकांक्षाओं को पूरा करने के लिए वह शिया बन गया। वह धार्मिक आडंबरों को कोई महत्व नहीं देता था। उसने एक शिया महिला से विवाह किया और उसे सबसे अधिक प्यार किया। उसने शिया पत्नी के पुत्र हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी भी बनाया। इन सब बातों का यह प्रभाव था कि उसने किसी वर्ग पर भी अत्याचार नहीं किया।

यद्यपि वह कट्टर सुन्नी था।परन्तु गजनी के महमूद की तरह धर्मांध नहीं था। उसने हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा-भाव से लिखा है और उनके विरुद्ध जिहाद को वह एक पवित्र कर्तव्य मानता था।उसने फतेहपुर सीकरी और चंदेरी में हिन्दुओं की खोपड़ियों का एक बुर्ज निर्माण करने की आज्ञा दी थी।

हुमायूं की धार्मिक नीति- हुमायूँ की धार्मिक नीति भी बाबर के समान थी। उसे धार्मिक मामलों में बड़ी रुचि थी। अकबर की माता शिया थी। बैरम खां भी शिया था। शाह अबुल माली जो हुमायूँ का विशेष कृपापात्र था, वह भी शिया था। बहुत समझाने  और बुझाने पर हुमायूँ ने शिया धर्म स्वीकार किया। उसने सूफियाना ढंग से दरबार का गठन किया। उसने अपने-आपको सूर्य और अपने दरबारियों को ग्रह-नक्षत्र और तारे बताया। 

अकबर की धार्मिक नीति – अकबर की माता ( हमीदा बानू बेगम ) शिया थी जिसका संबंध एक सूफी परिवार से था। उसका जन्म एक राजपूत की छत्रछाया में अमरकोट के स्थान पर हुआ था।  उसके शिक्षक  शिया थे या सुलह-कुल की नीति में विश्वास रखने वाले थे। उसने अपना राज्य का कार्य पंजाब से शुरू किया जहां गुरु नानक ने हिन्दुओं और मुसलमानों में धार्मिक सहिष्णुता का उपदेश दिया था।  उस बातावरण ने भी अकबर पर प्रभाव डाला होगा। 

अकबर की धार्मिक नीति का स्वरूप तथा उद्देश्य 

इतिहासकारों ने अकबर की धार्मिक नीति और उद्देश्यों के विषय में परस्पर विपरीत मत प्रस्तुत किये हैं। विन्सेंट स्मिथ तथा के० ए० निजामी के मत में वह पैगम्बर-शासक का रूतवा (पद ) प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा था। उन्होंने अकबर के इस कार्य की निंदा की है। दूसरी ओर अतहर अली आदि कुछ इतिहासकारों  के अनुसार अकबर  का उद्देश्य एक धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करना था।

एक अन्य मत जिसके प्रतिपादक मुख्यतः आई. एच. कुरेशी हैं, अकबर परम्परावादी इस्लाम का उत्पीड़न कर रहा था, जबकि इक्तिदार आलम खां के अनुसार अकबर की धार्मिक नीति का उद्देश्य अभिजात प्रशासक वर्ग में, जिसका गठन विभिन्न जातियों, वर्गों, तथा धर्मों द्वारा किया गया था , संतुलन पैदा करना था।

अकबर के व्यक्तिगत धार्मिक विचार क्या थे और उन्होंने अकबर की धार्मिक नीति को किस हद तक प्रभावित किया, इस विषय पर भी भारी मतभेद हैं। अकबर की धार्मिक नीति की समीक्षा के लिए हमें उसका अध्ययन एक व्यापक परिप्रेक्ष में करना होगा। 

अकबर की धार्मिक विचारधारा के विभिन्न चरण हैं जिसके क्रमबद्ध अध्ययन से उसके उद्द्देश्य सुस्पष्ट हो जाते हैं —

प्रथम चरण – 1562-1574 

अकबर ने अपने शासन के प्रारंभिक चरण में ऐसी कई उदारवादी नीतियां अपनाईं जिन्हें मुग़ल साम्राज्य को एक नवीन सैद्धांतिक आधार प्रदान करने की दिशा में प्रथम आयाम माना जा सकता है। उसने युद्ध में  मारे गए या बंदी बनाये गए लोगों के परिवारों को दास बनाए जाने की प्रथा समाप्त कर दी। इस संबंध में अबुल फजल का कथन है : यदि पति धृष्टतापूर्ण व्यवहार करते हैं तो इसमें पत्नियों का क्या दोष? इसी प्रकार यदि पिता विरोध का मार्ग अपनाते हैं तो इसमें बच्चों का क्या दोष है? यही नहीं, ऐसे लोगों की पत्नियां तथा भोले-भाले बच्चे युद्ध की सामग्री का हिस्सा नहीं हैं। 

धार्मिक कर की समाप्ति

   1563 में अकबर ने धार्मिक यात्रा कर को समाप्त कर दिया। अबुल फजल बताता है कि इस कर से प्रतिवर्ष एक करोड़ की आय होती थी। अबुल फजल के अनुसार अकबर ने अपने कार्य को इस प्रकार उचित ठहराया : “यद्यपि किसी सम्प्रदाय-विशेष ( गैर मुसलमान ) में ज्ञानाभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है, किन्तु उस सम्प्रदाय-विशेष के अनुयायियों से जिन्हें यह एहसास ही नहीं कि वे गलत राह पर हैं, पैसा वसूल करना तथा इस प्रकार अद्वैत के अलौकिक प्रवेश द्वार के मार्ग में, जो उन्होंने अपनी समझ-बूझ के अनुसार अपनाया है तथा जिसे वे कर्ता की उपासना का माध्यम समझते हैं, रोड़ा अटकाने के कार्य को विवेकसम्मत बुद्धिजीवियों ने नापसंद किया है तथा इसको ईश्वर की इच्छा का पालन न करने का चिह्न समझा है।”

जजिया कर की समाप्ति 

अकबर द्वारा जजिया कर समाप्त करने की तिथि के विषय में कुछ मतभेद हैं। जजिया कर वह कर था जो मुस्लिम राज्य में रहने वाली गैर-मुस्लिम प्रजा से लिया जाने वाला व्यक्तिगत कर ( poll-tax ) था। अबुल फजल ने इसकी समाप्ति की तिथि मार्च 1564 बताई है। उसका कहना है कि पहले के शासक इस कर को अन्य धर्मों को शक्तिहीन बनाने तथा उसके प्रति अपनी घृणा प्रदर्शित करने का एक साधन समझते थे।

किन्तु अकबर धर्मों के मध्य भेदभाव नहीं करता था व उसे अतिरिक्त राजस्व की भी आवश्यकता नहीं थी। इसलिए उसने इस कर को समाप्त कर दिया। किन्तु बदायूंनी ने जजिया कर की समाप्ति का वर्ष 1579 ईस्वी बताया है। वह इस विषय में कोई विशेष विवरण नहीं देता। 

उद्देश्य: अकबर द्वारा किये गए उपर्युक्त उपायों के विषय में इक्तिदार आलम का मत है कि यह राजपूतों को वश में करने की नीति का एक हिस्सा था जो उसने उज्बेकों की शक्ति को प्रति-संतुलित करने की निति थी। वह राजपूतों की शक्ति का प्रयोग उज्बेकों के विरुद्ध करना चाहता था। यह भी सम्भव है कि ये कार्य अकबर के उदार तथा मानवतावादी दृष्टिकोण से प्रेरित हुए हों तथा मुग़ल साम्राज्य को नवीन सैद्धांतिक आधार प्रदान करने की दिशा में आरंभिक उपाय हों।

यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि शासन के आरम्भिक वर्षों में अकबर राज्य के परम्परावादी इस्लाम-प्रधान स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करना चाहता था। 1568 में चित्तौड़ की विजय के बाद जारी किए जाने वाले फतहनामा में चित्तौड़ की विजय को काफिरों के प्रति जिहाद कहा गया। विजय का उद्देश्य बहुदेववाद की समाप्ति  था।

1569 में इस्फ़हान के मिर्जा मुकीम तथा कश्मीर के मीर याकूब को उलमा की सम्मति से शिया-सुन्नी आधार पर मौत की सजा दी गई। अकबर ने बाद में स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है कि पहले वह इस्लाम को न मानने वालों का उत्पीड़न करता था तथा इसी को इस्लाम समझता था। जैसे-जैसे मेरा ज्ञान बढ़ा मैं यह सोच-सोच कर शर्मिंदा हुआ। 

द्वतीय चरण – 1575-1579 

इबादतखाना का निर्माण – अकबर की धार्मिक नीति के विकास का दूसरा आयाम 1575 ईस्वी में इबादतखना की स्थापना से प्रारम्भ होता है जो धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद के उद्देश्य से बनवाया गया था। पिछले दशक में मुग़ल साम्राज्य के प्रभुत्व की स्थापना में आश्चर्यजनक सफलता मिलने के कारण अकबर यह विश्वास करने लगा था कि उसे दैवी अनुकम्पा विशेष रूप से प्राप्त है जिसके कारण धार्मिक विषयों के प्रति उसकी स्वाभाविक जिज्ञासा जाग्रत होने लगी थी।

बदायूंनी का कथन है “पादशाह को कई वर्षों तक युद्धों में उल्लेखनीय व अपार सफलता प्राप्त होती रही थी।  साम्राज्य के स्वरूप में दिन-प्रतिदिन विस्तार हो रहा था……. ( पादशाह ) अब अपना समय “ईश्वर के वचन” व “पैगम्बर के वचनों” की चर्चा में व्यतीत करते थे। पादशाह सलामत की रुचि सूफी मत से संबंधित प्रश्नों,विद्वतापूर्ण चर्चा, दर्शन तथा फ़िक़्ह की गूढ़ताओं  के विषय में जिज्ञासा-समाधान आदि में अधिकाधिक बढ़ती जा रही थी। 

अकबर अपनी अतीतकालीन सफलताओं के लिए कृतज्ञता की भावना से द्रवित होकर वह सुबह के समय घंटों प्रार्थना व चिंतन में अपना समय व्यतीत करता था। अकबर वाद-विवाद के दौरान स्वयं वह उद्देश्य व्यक्त किया था “हे ज्ञानियों तथा मुल्लाओं मेरा एकमात्र उद्देश्य सत्य की जाँच करना तथा वास्तविकता का पता लगाना है, ( अतः ) आपको सत्य को छुपाना नहीं चाहिए और न ही अपनी मानवीय कमजोरियों के प्रभाववश ऐसी कोई बात करनी चाहिए जो सत्य के विपरीत हो। अगर आप ऐसा करेंगे तो आप अपनी कर्तव्य-शून्यता के परिणामों के लिए ईश्वर के सम्मुख स्वयं उत्तरदायी होंगे।”

उलेमाओं के प्रभाव को समाप्त करने उद्देश्य से अकबर ने 26 जून 1579 को फतेहपुर सिकरी की जामा मस्जिद में स्वयं खुतबा पढ़ने का साहस दिखाया। इसी दौरान उसने इस तथ्य भी बल दिया कि उसने अर्थात पादशाह ने अपनी सत्ता ईश्वर से प्राप्त की है। यद्यपि अकबर द्वारा किसी अन्य अवसर पर खुतबा पढ़े जाने का कोई संदर्भ नहीं मिलता किन्तु खुतबा पढ़ने की कार्यवाही का महत्व है क्योंकि इसके द्वारा अकबर ने उलमा को अपनी शक्ति के अधीन करने का दृढ़ संकल्प प्रस्तुत कर दिया था। 

अकबर द्वारा धार्मिक व भौतिक सत्ता को अपने हाथ में केंद्रित करने का विधिवत कार्य अगस्त-सितम्बर 1579 में महजर नामक दस्तावेज द्वारा हुआ। महजर जारी करने की प्रेरणा शेख-मुबारक तथा उसके पुत्र फैजी व अबुल फजल द्वारा दी गयी थी। उलमा ने इन दोनों पर महदवी व शिया होने का आरोप लगाकर उनका उत्पीड़न किया था। वे उलमा की शक्ति में कटौती का मौका पाकर खुश थे।

शेख मुबारक ने अकबर से कहा “पादशाह सलामत इस दौर के इमाम तथा मुज्तहिद ( जो शरअ की व्याख्या करने में सक्षम हो ) हैं.” आपको धर्मेत्तर विषयों में इन उलमा की सहायता की क्या आवश्यकता है?” महजर ने अकबर को यह अधिकार दिया कि उलमा में किसी विषय पर मतभेद होने की दशा में वह साम्राज्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए किस एक विचार को, जिसे वह सर्वोत्तम समझें, मान्यता दे सकता है। 

सैयद ए० ए० रिज़वी के मतानुसार “महजर का उद्देश्य उन सभी विषयों को, जो अकबर की हिन्दू-मुसलिम प्रजा से संबंधित थे, पादशाह के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लाना था।” सम्भतः यह मत ही सबसे उपयुक्त लगता है। 

अंतिम चरण 1579-1605 

1579 के बाद के  काल में मुग़ल साम्राज्य के लिए अकबर ने उदार सैद्धांतिक आधार तैयार करने का कार्य संपन्न किया। इस कार्य में अबुल फजल ने प्रमुख भूमिका निभाई।  उसने अकबर की मुग़ल साम्राज्य की सैद्धांतिक आधार संबंधी अवधारणा को भली-भांति समझ लिया था तथा उसे एक विस्तृत व जटिल विचार पद्धति में ढाल दिया। आईने अकबरी तथा अकबरनामा इस विचार पद्धति की विवेचना की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे इस्लाम के विकल्प का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

दीन-इलाही ( 1581 ) – 1581 ईस्वी में अकबर ने अपने धार्मिक विश्वासों के अनुकूल एक धर्म की स्थापना की जो इतिहास में दीन-इलाही के नाम से विख्यात है। अकबर का एकमात्र ध्येय धार्मिक समन्वय स्थापित करना था।  यह घोषणा उसने सभी धर्मों के विचारकों की एक सभा में की। उसमें सभी धर्मों के सिद्धांतों का सार मौजूद था। 

अबुल फजल ने दीन-ए-इलाही के विभिन्न रीति-रिवाजों की चर्चा की है। उस नए संप्रदाय/धर्म  का सदस्य बनने के लिए जिन-जिन नियमों का पालन आवश्यक था, उनकी व्याख्या भी अबुल फजल ने की है। दीन-ए-इलाही को स्वीकार करने के लिए अकबर से दीक्षा लेनी पड़ती थी और उसको गुरु मानना पड़ता था।

जो दीक्षा लेता था उससे आशा की जाती थी कि वह सम्राट के अनुकरण द्वारा अपना सुधार करे और आवश्यकता के अनुसार उससे मौखिक शिक्षा ग्रहण करे। जब दीन-ए-इलाही के दो सदस्य आपस में मिलते थे तो वह एक दूसरे का अल्लाह हू अकबर और जल्ला जलालहू द्वारा अभिवादन करते थे इत्यादि । 

यह बात ध्यान रखने योग्य है कि अकबर ने कभी भी दूसरे धर्म प्रचारकों की तरह जोर डालकर किसी को दीन ए इलाही का सदस्य ना बनाया। अपने धर्म को किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया।  उसके सारे दरबार में से केवल 18 व्यक्ति ऐसे थे जो दीन ए इलाही के अनुयाई बने। जिन लोगों ने नया धर्म स्वीकार किया उनके कुछ नाम थे शेख मुबारक, अबुल फजल, फैजी, मिर्जा जानी, अजीज कोका, राजा बीरबल आदि। बदायूंनी  जैसे कट्टर मुसलमानों ने इसकी कड़ी आलोचना की है।

वी० ए० स्मिथ ने लिखा है कि दीन ए इलाही अकबर की घोर मूर्खता का परिचायक था उसकी बुद्धिमत्ता का नहीं। निष्पक्ष इतिहासकारों ने अकबर की सूझबूझ की प्रशंसा की है। वान नोअरर इतिहासकार ने दीन-ए-इलाही के विभिन्न सिद्धांतों की व्याख्या की है और बदायूंनी की निंदा की है और स्पष्ट शब्दों में घोषणा की है कि मानवता के साधकों के बीच इतिहास में अकबर का ऊंचा रहेगा और आने वाली पीढ़ियां मानवता के पुजारी को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगी और सम्मान से याद करेंगी।

यह कहा जाता है कि दीन-ए-इलाही का राजनीतिक महत्व धार्मिक महत्व से अधिक प्रभावशाली था। इससे सारे मुगल साम्राज्य में राजनीतिक एकता स्थापित हो सकी। जिस प्रकार अकबर ने एक नए विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी, उसी प्रकार वह एक नए धर्म की स्थापना करना चाहता था। जिस प्रकार उसने धीरे-धीरे एक-एक प्रांत को जीतकर एक नए विशाल साम्राज्य को जन्म दिया था, उसी प्रकार वह सभी धर्मों के सिद्धांतों का सार निकाल कर एक स्थान पर इकट्ठा करना चाहता था।

परंतु अकबर अपने उत्साह में यह भूल गया कि साम्राज्य की स्थापना की भांति धर्म का निर्माण नहीं होता और विभिन्न तत्वों को भिन्न-भिन्न स्थानों से लाकर छोड़ा नहीं जा सकता। जिन लोगों ने धर्मों की स्थापना की, उन्होंने ऐसा करने की कभी चेष्टा न की। 

मानवता के प्रति प्रेम भावना से प्रेरित होकर उन्होंने सत्य, ईश्वर और जीवन के रहस्यों को अपने व्यक्तिगत अनुभव और साधना के आधार पर जनसमुदाय के बीच रक्खा, और उन पर  अपने ढंग से प्रकाश डाला और बाद में उनके अनुयायी विभिन्न दलों अथवा सम्प्रदायों में सिद्धांत के आधार पर बँट गये। इस प्रकार बिना उनके प्रयासों से नए-नए संप्रदायों का जन्म हुआ।

अकबर ने जो कुछ किया वह इसके विपरीत था। उसने मूलभूत सिद्धांतों की घोषणा पहले की और फिर अपने धर्म को सुनियोजित करने की व्यवस्था की। यही कारण है कि अकबर की मृत्यु के साथ दीन-ए-इलाही की मृत्यु हो गई। परंतु यह मानना पड़ेगा कि दीन-ए-इलाही का देश की राजनीति पर बड़ा प्रभाव पड़ा।

अपनी धार्मिक सहिष्णुता और उदारता की नीति द्वारा अकबर ने यह सिद्ध कर दिया कि इस्लाम और हिंदू धर्म में कोई मौलिक अंतर नहीं है। यदि अंतर है तो केवल कर्मकांड में। दीन-ए-इलाही द्वारा उसने ऐसे धर्म की व्यवस्था करनी चाही जिसमें सभी धर्मों के सत्य सम्मिलित हों। निश्चय ही यह एक साहसिक कदम था। साथ ही हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता की दिशा में क्रांतिकारी प्रयास भी हुआ। धार्मिक क्षेत्र में हिंदू और मुसलमानों के बीच एकता स्थापित करके अकबर राजनीतिक क्षेत्र में भी उन दोनों के बीच मैत्री का वातावरण तैयार करना चाहता था।

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नादिरशाह: दिल्ली पर आक्रमण 1738-39 | Nadirshah invaded Delhi 1738-39

फारस (ईरान) के शासक नादिर शाह ने 1738 में भारत पर आक्रमण किया और 1739 में दिल्ली पर कब्जा कर लिया। आक्रमण मुगल सम्राट मुहम्मद शाह और लाहौर प्रांत के गवर्नर के बीच विवाद का परिणाम था, जिसने नादिर शाह की मदद मांगी थी। सत्ता संघर्ष में। नादिर शाह ने इसे भारत पर आक्रमण करने और इसके धन को जब्त करने के अवसर के रूप में इस्तेमाल किया।

नादिर शाह का आक्रमण मुगल साम्राज्य के लिए विनाशकारी था। उसने दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों को लूटा, हजारों लोगों को मार डाला और मुगल सम्राट के प्रसिद्ध मयूर सिंहासन सहित अपार संपत्ति छीन ली। आक्रमण ने भारत में मुगल युग के अंत को चिह्नित किया और अंग्रेजों के लिए अपना शासन स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया।

हालाँकि नादिर शाह विशाल धन के साथ फारस लौट आया, लेकिन आक्रमण ने उसके साम्राज्य को कमजोर कर दिया और अंततः 1747 में उसकी हत्या कर दी गई।

नादिरशाह

1707 में अंतिम शक्तिशाली मुग़ल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु  पश्चात् मुग़ल साम्राज्य शिथिल और कमजोर हो गया था, क्योंकि उत्तर पश्चिमी सीमा पर सुरक्षा के इंतज़ाम बिलकुल ढीले कर दिए थे। उत्तरकालीन मुग़ल शासक उत्तराधिकार की लड़ाई में सीमाओं की सुरक्षा से विमुख हो गए थे। इससे पूर्व औरंगजेब ने उत्तर-पश्चिम से लगी सीमाओं की सुरक्षा और प्रांतों के प्रशासन पर विशेष ध्यान दिया था। इसके विपरीत काबुल  के शासक अपने राज्य को बहुत मजबूती से चला रहे थे, वे आर्थिक रूप से भी ज्यादा मजबूत थे क्योंकि लोग  कर ठीक ढंग से चूका रहे थे।

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सल्तनत कालीन प्रशासन | Saltanat Kalin Prashasan

भारत पर मुस्लिम साम्राज्य स्थापित होने के पश्चात् एक नए प्रकार की शासन व्यवस्था ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया।  भारतीय राजा जहां उदारवादी दृश्टिकोण रखते थे वहीँ ये अरब और अफगानिस्तान से सम्बंधित कट्टर इस्लाम को मानने वाले सुल्तान कहीं ज्यादा कट्टर और दैवीय अधिकारों में विश्वाश करते थे। इस्लाम वास्तव में  कबिलाई संस्कृति … Read more

भारत में भूमि कर व्यवस्था: मौर्य काल से ब्रिटिश काल तक

भूमि व्यवस्था एक ऐसा विषय रहा है जिसने प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल और ब्रिटिश काल तक शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भू-राजस्व सरकार की आय का एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है चाहे राजतंत्र हो या प्रजातंत्र। हर काल और परिस्थिति में भू-राजस्व को अपनी सुविधा और मांग के अनुसार परिवर्तन से गुजरना … Read more

विजयनगर साम्राज्य: इतिहास, शासक, शासन व्यवस्था और महत्व

विजयनगर साम्राज्य एक शक्तिशाली दक्षिण भारतीय साम्राज्य था जो 14वीं से 17वीं शताब्दी तक अस्तित्व में था। इसकी स्थापना 1336 में ऋषि विद्यारण्य के मार्गदर्शन में हरिहर प्रथम और उनके भाई बुक्का राय प्रथम ने की थी। साम्राज्य वर्तमान कर्नाटक में विजयनगर (अब हम्पी) शहर में केंद्रित था, और यह दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों में फैल गया। विजयनगर साम्राज्य अपनी प्रभावशाली वास्तुकला, जीवंत संस्कृति और मजबूत सेना के लिए जाना जाता था। यह एक हिंदू राज्य था, लेकिन इसमें अच्छी खासी मुस्लिम आबादी भी थी। 16वीं शताब्दी में साम्राज्य का पतन हो गया, और अंततः 1565 में मुस्लिम सल्तनतों के गठबंधन द्वारा इसे जीत लिया गया।

विजयनगर साम्राज्य: इतिहास, शासक, शासन व्यवस्था और महत्व 

विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति– 

विजयनगर का प्रारंभिक इतिहास स्पष्ट नहीं है। “ए फॉरगॉटेन एंपायर” के प्रसिद्ध लेखक सीवेल (Sewell) ने विजयनगर की उत्पत्ति के विषय में बहुत सी परंपरागत कथाओं पर प्रकाश डाला है और उन्होंने यह विचार प्रकट किया है कि, “शायद अत्यधिक न्याय संगत विवरण तभी मिल सकता है जबकि हिंदुओं की किवदंतियों का सामान्य प्रवाह ऐतिहासिक तथ्यों की निश्चितता में मिश्रित कर दिया जाए।”

सीवेल ने उस परंपरा को स्वीकार किया है जिसके अनुसार संगम के पांच पुत्रों ने ( जिनमें से दो का नाम हरिहर व बुक्का था ) तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी तट पर उसके उत्तरी तट वाले अनागोंडी दुर्ग के सामने विजयनगर की नींव डाली थी। संगम के पुत्रों की इस आवश्यकता को प्रेरणा देने का उत्तरदायित्व उस समय के दो महान विद्वान सायण व माधव विद्यारण्य पर है।

विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों के उद्भव से संबंधित तीन मुख्य विचारधाराएं प्रचलित हैं—

(क)- तेलुगू, आंध्र या काकतीय उद्भव,
(
ख)- कर्नाट (कर्नाटक) या होयसल उद्भव,
(
ग)-कम्पिली उद्भव,

प्रथम विचारधारा के अनुसार हरिहर और बुक्काअंतिम काकतीय शासक प्रताप रूद्रदेव काकतीय के कोषाधिकारी (प्रतिहार) थे।तुगलक सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक द्वारा काकतीय राज्य की विजय के पश्चात ये दोनों भाई विजयनगर के वर्तमान स्थान पर पहुंचे जहां एक वैष्णव संत विद्यारण्य ने उन्हें अपना संरक्षण प्रदान किया तथा उन्हें विजयनगर नामक नगर तथा साम्राज्य की स्थापना करने के लिए अनुप्रेरित किया। इस मान्यता की पुष्टि मुख्यत: कालज्ञान ग्रंथों विशेषकर विद्यारण्य कालज्ञान तथा कुछ अन्य स्रोतों से होती है।

विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों के तेलुगु या काकतीय उद्भव की मान्यता का समर्थन करने वाले आधुनिक विद्वानों ने अपनी मान्यता के समर्थन में यह भी तर्क प्रस्तुत किया है कि विजयनगर नरेशों ने अपने राज्य चिन्ह और प्रशासकीय प्रभावों को काकतीय से ग्रहण किया था। इसके अतिरिक्त विजयनगर नरेशों ने तेलुगु भाषा और साहित्य को अत्यधिक संरक्षण प्रदान किया था।

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महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण: महमूद गजनवी का इतिहास

यह सत्य है की की भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुस्लिम आक्रमणकारी  मुहम्मद-बिन-कासिम था।  जिसने 711 ईस्वी में भारत पर आक्रमण किया। उसके आक्रमण का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि वह भारत की पश्चिमी सीमा तक ही आया था। परंतु उसके आक्रमण के लगभग 300 वर्ष पश्चात एक और दुर्दांत आक्रमणकारी भारत में आया जिसने भारत पर लगभग 17 बार आक्रमण किए और भारत को बुरी तरह लूटा। उसने विभिन्न मंदिरों को लूटा और लोगों कीहत्याएं कीं। उस दुर्दांत आक्रमणकारी का नाम महमूद गजनबी था।

महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण: महमूद गजनवी का इतिहास

अरबों का आरंभ किया हुआ कार्य तुर्कों ने पूर्ण कर दिया। आठवीं और नवीं शताब्दियों में तुर्कों ने बगदाद के खलीफा की शक्ति हथिया ली। तुर्कों और अरबों में असमानता थी तुर्क, अरबों से अधिक क्रूर थे और उन्होंने बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार किया। वे योद्धा थे और उनमें अपार साहस था। उनका दृष्टिकोण पूर्णतः भौतिक था। वे महत्वकांक्षी भी थे। पूर्व में सैनिक साम्राज्य की स्थापना के लिए सब गुण उनमें विद्यमान थे। डॉ० लेनपूल ने तुर्कों के प्रसार को “10वीं और 11वीं शताब्दियों में मुसलमानों के साम्राज्य के लिए अद्वितीय आंदोलन का रूप दिया है।”

महमूद गजनवी

जन्म 2 नवम्बर 971 गजनी अफगानिस्तान,
शासनावधि 997 -1030,
पिता सुबुक्तगीन,
राज्याभिषेक 1002, गजनी अफगानिस्तान,
मृत्य 30 अप्रैल 1030 गजनी अफगानिस्तान।

गजनी वंश का संस्थापक

अलप्तगीन

अलप्तगीन पहला तुर्क आक्रमणकारी था जिसका संबंध मुसलमानों की भारत विजय की कहानी से है। वह असाधारण योग्यता और साहस का स्वामी था वह बुखारा के समानी शासक अब्दुल मलिक का दास था। अपने परिश्रम से वह हजीब-उल-हज्जाब के पद पर नियुक्त हुआ। 956 ईसवी में उसे खुरासान का शासन भार सौंप दिया गया। 962 ईसवी में अब्दुल मलिक के देहांत के पश्चात उसके भाई और चाचा में सिंहासन के लिए युद्ध हुआ।

अलप्तगीन ने उसके चाचा की सहायता की परंतु अब्दुल मलिक का भाई मंसूर सिंहासन पाने में सफल हुआ। इन परिस्थितियों में अलप्तगीन ने अपने 800 व्यक्तिगत सैनिकों के साथ अफगान प्रदेश के गजनी नगर में निवास किया। उसने मंसूर के प्रयासों को उसे गजनी से बाहर निकालने के लिए असफल किया और इस शहर और उसके पड़ोसी भागों पर अधिकार स्थापित रखा।

महमूद गजनवी का पिता

सुबुक्तगीन

सुबुक्तगीन महमूद गजनबी का पिता था जिसने 977 ईसवी में अलप्तगीन की मृत्यु के पश्चात गजनी का सिंहासन को प्राप्त किया था। सुबुक्तगीन गजनी का शासक बन गया। सुबुक्तगीन प्रारंभ में एक दास था। नासिर-हाजी नामक व्यापारी से जो उसे तुर्किस्तान से बुखारा लाया था, अलप्तगीन ने उसे खरीदा। उसकी प्रतिभा को देखकर अलप्तगीन ने उसे एक के बाद एक दूसरे उच्च पदों पर नियुक्त किया। सुबुक्तगीन को अमीर-उल-उमरा की उपाधि उपाधि दी गई।
अलप्तगीन ने अपनी कन्या का विवाह उससे किया। सिंहासनारूढ़ होने के पश्चात उसने आक्रमणों का जीवन प्रारंभ किया, जिससे उसे पूर्वी संसार में प्रसिद्धि मिली।

सुबुक्तगीन द्वारा भारत पर आक्रमण

 सुबुक्तगीन एक महत्वाकांक्षी शासक था इसलिए उसने अपना सारा ध्यान धन और मूर्ति-पूजकों से परिपूर्ण भारत की विजय की ओर लगाया। उसकी शाही वंश के राजा जयपाल, जिसका राज्य सरहिंद से लमगान (जलालाबाद) और कश्मीर से मुल्तान तक था, से सबसे पहले भेंट हुई। शाही शासकों की राजधानियां क्रमशः  ओंड, लाहौर और भटिंडा थीं।
986-87 ईसवी में सुबुक्तगीन ने प्रथम बार भारत की सीमा में आक्रमण किया और उसने अनेक किलों अथवा नगरों को विजय किया “जिसमें इससे पहले विधर्मियों (हिन्दुओं) के अतिरिक्त और कोई न रहता था और जिन्हें मुसलमानों के घोड़ों और ऊंटों ने कभी भी पददलित नहीं किया था। जयपाल यह सहन न कर सका। वह अपनी सेना को एकत्रित कर लमगान की घाटी की ओर बढ़ा, जहां सुबुक्तगीन और उसके बेटे (महमूद गजनवी) से उसका सामना हुआ। युद्ध कई दिन तक होता रहा। जयपाल की सभी योजनाएं बर्फ के तूफान के कारण असफल हुईं। उसने संधि के लिए प्रार्थना की।

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भारत का इतिहास 1206-1757 The Indian History From 1206-1757

आज के समय में प्रतियोगी छात्रों को ध्यान में रखकर मैंने यह ब्लॉग बनाने का प्रयास किया है। जिसमें 1206 ईस्वी से लेकर 1757 ईसवी तक के इतिहास को समेटने का प्रयास किया गया है। इस ब्लॉग के माध्यम से हम दास वंश से लेकर लोदी वंश तक के सल्तनत काल और संपूर्ण मुगल काल से लेकर उत्तर मुगलकालीन राजनीति, बक्सर तथा प्लासी के युद्ध का  अध्ययन करेंगे।

 

भारत का इतिहास 1206-1757 The Indian History From 1206-1757

भारत का इतिहास 1206-1757

भारत में तुर्क राज्य की स्थापना शिहाबुद्दीन उर्फ मुईनुद्दीन मुहम्मद गोरी ने की। 1194 ईस्वी में चंदावर के प्रसिद्ध युद्ध में गहड़वाल शासक जयचंद को पराजित करने के पश्चात अपने विजित  प्रदेशों की जिम्मेदारी कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप कर वापस गजनी चला गया। 13 मार्च 1206 को मुहम्मद गोरी की हत्या के बाद उसके गुलाम सरदार कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1206 ईस्वी में गुलाम वंश की स्थापना की। 1206 से 1290 के मध्य दिल्ली सल्तनत पर दास या गुलाम वंश का शासन माना जाता है।

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दिल्ली सल्तनत का इतिहास

दिल्ली सल्तनत भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो 1206 से 1526 ई. के बीच उत्तरी भारत में स्थापित हुई थी। यह एक वें शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में विखंडित और स्वतंत्र राज्यों के ताक में एक मुख्य शक्ति बनी थी।

दिल्ली सल्तनत की शुरुआत 1206 ई. में सुल्तान कुतुब-उद-दीन ऐबक द्वारा की गई थी, जो दिल्ली को अपनी राजधानी बनाने वाले पहले सल्तान थे। उनके बाद उनके बेटे और पोते ने भी सल्तानती सत्ता धारण की, जैसे कि सुल्तान इल्तुतमिश, सुल्तान रुक्नुद्दीन फख्रौद्दीन, सुल्तान बलबन और सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक। इनके शासनकाल में दिल्ली सल्तनत ने विभिन्न क्षेत्रों में आक्रमण किए और विस्तृत सत्ता क्षेत्र को आपूर्ति किया।


 1-गुलाम वंश या दास वंश 1206-1290

     

 कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210)

▪️ दिल्ली सल्तनत का पहला शासक कुतुबुद्दीन ऐबक था, जिसने 1206 से 1210 ईस्वी तक शासन किया।
▪️ ऐबक ने अपना राज्य अभिषेक जून 1206 से में लाहौर में करवाया।
▪️ इसने अपने नाम से न तो कोई सिक्का चलाया और न ही कभी खुतबे पढ़वाए।
▪️ अपनी दानता तथा उदारता के कारण ऐबक को लाख बख्स (लाखों का दानी) कहा गया।
▪️ इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज ने उसकी दानशीलता के कारण ही उसे (ऐबक) को हातिम द्वितीय की संज्ञा दी।
▪️ ऐबकके दरबार में प्रसिद्ध विद्वान हसन निजामी तथा फक्र-ए-मुदब्बिर को संरक्षण प्राप्त था।
▪️ अपने शासनकाल के 4 वर्ष बाद 1210 ईस्वी में लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिरने के कारण ऐबक की मृत्यु हो गई।

  • कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद 1191 ईस्वी में दिल्ली में बनबाई। 
  • अढ़ाई दिन का झोपड़ा 1200 ईस्वी में अजमेर में बनवाया।  
  • क़ुतुब मीनार का निर्माण  भी ऐबक ने शुरू कराया।
क़ुतुब मीनार का निर्माण  भी ऐबक ने शुरू कराया

 इल्तुतमिश 1210 से 1236

▪️कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद लाहौर के तुर्क अधिकारियों ने ऐबक के विवादित पुत्र आरामशाह को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया। परंतु दिल्ली के तुर्क अधिकारियों एवं नागरिकों के विरोध के कारण ऐबक के दामाद इल्तुतमिश को दिल्ली आमंत्रित कर राज्य सिंहासन पर बैठाया गया।
▪️शासक बनने के पहले इल्तुतमिश बदायूं का सूबेदार था।
▪️विद्रोही सरदारों का दमन करने के उद्देश्य से इल्तुतमिश ने अपने गुलाम 40 सरदारों का एक गुट बनाया, जिसे तुर्कान-ए-चहालगानी का नाम दिया गया।
▪️1215 में इल्तुतमिश ने यल्दौज को तराइन के मैदान में पराजित किया और 1217 में नासिरुद्दीन  कुबाचा ने इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली।
▪️फरवरी 1229 में बगदाद के खलीफा से सम्मान का चोगा प्राप्त हुआ। सम्मान का चोगा प्राप्त होने के बाद इल्तुतमिश वैध सुल्तान एवं दिल्ली सल्तनत एवं दिल्ली सल्तनत एक वैध स्वतंत्र राज्य बन गया।
▪️इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलवाए। इसने सल्तनतकालीन दो महत्वपूर्ण सिक्के चांदी का टंका (लगभग 175 ग्रेन का), तथा तांबे का जीतल चलवाया।
▪️इल्तुतमिश ने  इक्ता व्यवस्था का प्रचलन किया तथा राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानांतरित किया।
▪️कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुतुब मीनार के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। भारत में पहला मकबरा निर्मित करने का श्रेय भी इल्तुतमिश को जाता है।

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रजिया सुल्तान 1236-1240


▪️इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी बनाया था पर उसकी मृत्यु के बाद उसके बड़े पुत्र  रुकनुद्दीन फिरोज को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया गया।

▪️फिरोज एवं उसकी मां शाह तुर्कान के अत्याचारों से तंग आकर जनता ने रजिया सुल्तान को दिल्ली का शासक बना दिया।
▪️रजिया सुल्तान भारत की प्रथम मुस्लिम महिला थी जिसने दिल्ली पर शासन किया।
▪️रजिया सुल्तान ने लाल वस्त्र धारण कर (लाल वस्त्र पहनकर ही न्याय की मांग की जाती थी) जनता से शाह तुर्कान के विरुद्ध सहायता मांगी।
▪️ 1240 ईस्वी में इल्तुतमिश के तीसरे पुत्र बहरामशाह ने कैथल के समीप रजिया की हत्या करवा दी।


बहराम शाह 1240-42

▪️मुईजुद्दीन बहरामशाह इल्तुतमिश का तीसरा पुत्र था।

▪️बहरामशाह को बंदी बनाकर मई 1242 ईसवी में उसकी हत्या कर दी गई।


अलाउद्दीन मसूद शाह 1242-46

▪️ वह सुल्तान रुक्नुद्दीन फिरोजशाह का पुत्र और इल्तुतमिश का पौत्र था।
▪️नसीरुद्दीन महमूद और उसकी माता ने एक षड्यंत्र के द्वारा 1246 ईस्वी में मसूद शाह का अंत कर दिया।


नसीरुद्दीन महमूद 1246-66

▪️इल्तुतमिश का पौत्र नासिरुद्दीन महमूद 10 जून 1246 ईसवी को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। इसके सिंहासन पर बैठने के बाद अमीर सरदारों और सुल्तान के बीच शक्ति के लिए चल रहा संघर्ष समाप्त हो गया।
▪️नासिरुद्दीन ने राज्य के समस्त शक्ति बलबन को सौंप दी। बलबन को 1249 ईस्वी में उलुग खाँकी उपाधि प्रदान की। तदुपरांत उसे अमीर-ए-हाजीब बनाया गया।
▪️ 1249 में ही सुल्तान नासिरुद्दीन ने अपनी बेटी का विवाह बलबन के साथ कर दिया।
▪️इमामुद्दीन रेहानके बढ़ते प्रभाव के कारण बलबन को अमीर-ए-हाजीबपद से हाथ धोना पड़ा (1253 ईस्वी में) तथा उन्हें हाँसी भेज दिया गया।
▪️1254 ईस्वी में तुर्की सरदारों के सहयोग से बलवान ने रेहान को पदच्युत कर पुनः अपने पद को प्राप्त कर लिया।


बलबन1266-1286

▪️ 1266 ईस्वी में नासिरुद्दीन महमूद की अकस्मात मृत्यु के बाद बलबन उसका उत्तराधिकारी बना। क्योंकि महमूद के कोई पुत्र नहीं था।
▪️बलवन इल्बरी जाति का तुर्क सरदार था।
▪️इल्तुतमिश ने ग्वालियर जीतने के उपरांत बहाउद्दीन( बलबन का वास्तविक नाम) को खरीद लिया।(1232)
▪️अपनी योग्यता के कारण बलबन इल्तुतमिश के समय में खासकर रजिया के समय में अमीर-ए-शिकार, बहराम शाह के समय में अमीर-ए-आखूर और महमूद शाह के समय में अमीर-ए-हाजिब, एवं सुल्तान नसीरुद्दीन के समय में अमीर-ए-हाजीब, नायब के रूप में राज्य के संपूर्ण शांति का केंद्र बन गया।
▪️पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत पर मंगोल आक्रमण के भय को समाप्त करने के लिए सैन्य विभाग दीवान-ए-अर्ज की स्थापना की।
▪️बलबन सल्तनत काल का पहला शासक था जिसने अपने सैनिकों को नगद वेतन देने की प्रथा प्रारंभ की।
▪️इसने लौह एवं रक्त की नीति का अनुसरण करते हुए तुर्क-ए-चहलगानी का अंत कर दिया।
▪️सिजदा (लेट कर नमस्कार करना) व पायबोस (पांव का चुंबन लेना) की प्रथा का प्रचलन किया
▪️नवरोज प्रथा प्रचलित की

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▪️बलबन दिल्ली सल्तनत का पहला ऐसा सुल्तान था जिसने अपने राजतत्व सिद्धांत की विस्तारपूर्वक व्याख्या की।
▪️बलवान ने फारसी रीति-रिवाज पर आधारित उनके राजाओं के नाम की तरह अपने पुत्रों के नाम रखे इनका दरबार ईरानी परंपरा के अंतर्गत सजाया गया था।
▪️बलबन ने खलीफा के महत्व को स्वीकारते हुए अपने द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर खलीफा के नाम को अंकित कराया तथा उसके नाम से खुतबे भी पढ़ें।


कैकूबाद- 1287-90

 

▪️अपनी मृत्यु से पूर्व बलबन ने अपने पौत्र कायखुसरो (राजकुमार मुहम्मद के पुत्र) को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था।
▪️किंतु दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन ने बलबन के नामनिर्देशन को ठुकरा दिया और बुगरा खाँ के पुत्र कैकूबाद को गद्दी पर बैठा दिया। इस नए सुल्तान ने मुइजुद्दीन कैकुबाद की उपाधि ग्रहण की।
▪️कैकुबाद के शासनकाल में मंगोल ने चढ़ाई कर दी। गजनी का तामर खाँ उनका सरदार था।


2-खिलजी वंश-1290-1320

खिलजी वंश भारतीय इतिहास में मुग़ल साम्राज्य से पहले के एक प्रमुख राजवंश था, जो 1290 ई. से 1320 ई. तक उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में शासन करता था। खिलजी वंश बालबन के बाद से लेकर जलालुद्दीन फ़िरोजशाह तक के चार प्रमुख शासकों की श्रृंखला को संघटित करता है।


जलालुद्दीन खिलजी 1290-96

▪️ 13 जून 1290 को जलालुद्दीन फिरोज खिलजी दिल्ली के सिंहासन पर बैठा उसने किलोखरी को अपनी राजधानी बनाया।
▪️ किलोखरी एक नया नगर था जिसे कैकूबाद ने दिल्ली से कुछ मिल दूरी पर बनवाया था।
▪️जलालुद्दीन ने अपने राज्य अभिषेक के एक वर्ष बाद दिल्ली में प्रवेश किया।
▪️दिल्ली के सिंहासन पर खिलजी वंश का अधिपत्य हो जाने से भारत में तुर्कों की श्रेष्ठता समाप्त हो गई।
▪️जलालुद्दीन के समय 1290 में कड़ा-मानिकपुर के सूबेदार मलिक छज्जू ने विद्रोह किया था।
▪️इनके समय में दिल्ली का कोतवाल फखरुद्दीन था।
▪️इसी के समय में ईरानी फकीर सिद्धि मौला का विद्रोह हुआ था, जिसे बाद में सुल्तान ने हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया था।
▪️इन्होंने 1290 में रणथंभौर पर आक्रमण किया जो असफल रहा। 1292 में मंडौर पर आक्रमण कर उसे दिल्ली में मिला लिया।
▪️ 1296 ईस्वी में जलालुद्दीन की हत्या उसके भतीजे (दामाद) अलाउद्दीन ने कर दी तथा अपने आप को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया।

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अलाउद्दीन खिलजी 1296-1316

▪️अलाउद्दीन खिलजी जलालुद्दीन फिरोज का भतीजा था। चूँकि अलाउद्दीन पिताहीन था इसलिए जलालुद्दीन ने बड़ी चिंता के साथ उसका पालन-पोषण किया और बाद में उसे अपना दामाद बना लिया।
▪️अलाउद्दीन खिलजी पहला सल्तनतकालीन शासक था जिसने शासन में इस्लाम के सिद्धांतों का पालन नहीं किया।
▪️अलाउद्दीन खिलजी ने अपने राज्याभिषेक के बाद यामीन-उल-खिलाफत नासिरी अमीर मुमनिन‘ (खलीफा का नायब) की उपाधि ग्रहण की थी।

▪️अलाउद्दीन स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश सुल्तान था। दिल्ली का कोतवाल अला-उल-मुल्क ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति था, जिससे अलाउद्दीन ने शासन के विषय में सलाह-मशवरा  किया अथवा जो उसे सलाह देने का साहस कर सका।

▪️अलाउद्दीन ने प्रशासन एवं राजस्व के क्षेत्र में सर्वथा नवीन उपाय लागू किए।
▪️अलाउद्दीन मध्यकाल का पहला शासक था जिसने अपने शासनकाल में आर्थिक विनिमयन को लागू किया। आर्थिक विनिमयन के अंतर्गत खाद्यान्न एवं दैनिक उपयोग की सभी वस्तुएं शासक द्वारा तय दामों पर उपलब्ध थी।
▪️अलाउद्दीन ने बकाया लगान की वसूली के लिए दीवान-ए-मुस्तखराज नामक विभाग की स्थापना की।
▪️सल्तनत काल में अलाउद्दीन स्थायी सेना गठित करने वाला पहला सुल्तान था।
▪️अलाउद्दीन ने अपनी सेना का केंद्रीयकरण किया और साथ ही सैनिकों की सीधी भर्ती एवं नगद वेतन देने की प्रथा प्रारंभ की।
▪️इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार अलाउद्दीन के पास लगभग 4,75,000 सैनिक थे।
▪️अलाउद्दीन खिलजी के शासन के समय मंगोलों के एक दर्जन से ज्यादा आक्रमण हुए।
▪️अलाउद्दीन ने दागया घोड़ों पर निशान लगाने और विस्तृत सूचीपत्रों की तैयारी के लिए हुलियाप्रथा प्रचलित की।
▪️अलाउद्दीन के समय में राज्य गोदामों में अनाज का भंडार किया जाता था।
▪️अलाउद्दीन खिलजी अपनी बाजार व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध है। उसके समय में यदि कोई व्यापारी सामान कम  तौलता था, तो उसकी जांघ से उतना ही मांस निकाल लिया जाता था।
▪️राजस्व सुधारों के अंतर्गत अलाउद्दीन ने सर्वप्रथम मिल्क, इनाम, वक्फ के अंतर्गत दी गई भूमि को वापस लेकर उसे खालसा (राजकीय भूमि)  भूमि में बदल दिया। साथ ही स्थानीय जमीदारों के विशेष अधिकारों को समाप्त कर।
▪️ 2 जनवरी 1316 को अलाउद्दीन की मृत्यु जलोदर रोग से हो गई। कहा जाता है कि विष के मिश्रण में काफूर का हाथ था और इसी से सुल्तान की मृत्यु जल्दी हो गई।
▪️अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद मलिक काफूर ने 36 दिन तक शासन की बागडोर अपने हाथ में रखी। परंतु उसके बाद उसकी हत्या कर दी गई।

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कुतुबुद्दीन मुबारक शाह 1316-20

 

▪️मलिक काफूर के प्रभाव में अलाउद्दीन ने खिज्रखां को उत्तराधिकार से वंचित करके शहाबुद्दीन उमर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। जब अलाउद्दीन की मृत्यु हुई उस समय इस बालक की आयु लगभग 6 वर्ष की थी। मलिक काफूर ने उसे सिंहासन पर बैठा दिया और स्वयं उसका संरक्षक बन गया। उसने खिज्रखां व शादीखाँ को अंधा करा दिया।

 

▪️मुबारकखाँ जो उस समय 17 या 18 वर्ष की आयु का था, उसे बंदी बना लिया गया और मलिक काफूर ने उसकी आंखें निकाल लेने के लिए अपने नौकर भेजे, किंतु मुबारक ने उन नौकरों को इतनी घूस दी कि उन्होंने मुबारक को अंधा करने के स्थान पर वापस जाकर मलिक काफूर की हत्या कर दी।

 

▪️मलिक काफूर की मृत्यु के बाद शिहाबुद्दीन उमर के संरक्षक का पद मुबारक को प्राप्त हुआ। लगभग दो महीने बाद मुबारक ने शिहाबुद्दीन उमर को गद्दी से उतार दिया और उसे अंधा करके स्वयं सिंहासनारूढ़ हो गया। यह घटना 1 अप्रैल 1316 को घटित हुई। मुबारक ने कुतुबुद्दीन मुबारक शाह की उपाधि ग्रहण की।


▪️ 14 अप्रैल 1320 की रात्रि में खुसरो की सेनाएं राजमहल में घुस आईं और उन्होंने राजमहल के संरक्षकों का वध कर दिया। खुसरो ने स्वयं अपने हाथों से मुबारक शाह के बाल पकड़ लिए और उसके एक साथी झरिया ने उसके पेट में कटारी भोंक कर उसकी हत्या कर दी। मुबारक शाह का सिर काटकर राजमहल के  सहन में फेंक दिया गया।


नासिरुद्दीन खुसरो शाह 1320

▪️मुबारक शाह की हत्या के बाद सरदारों की सहायता से खुसरो का 15 अप्रैल 1320 ईस्वी को सिंहासनारोहण हुआ। 5 सितंबर 1320 ईसवी तक उसका शासन चलता रहा।

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▪️उसने नासिरुद्दीन खुसरो शाह की उपाधि ग्रहण की। बहुत से पुराने अधिकारियों व सरदारों को उनके पद पर रहने दिया गया। कुछ की हत्या भी कर दी गई। खुसरो शाह ने खिज्र खां की विधवा देवल देवी के साथ विवाह कर लिया।


▪️खुसरो शाह की हत्या 5 सितंबर 1320 ईस्वी को कर दी गई इस प्रकार भारत में 30 वर्ष के शासन के बाद खिलजी वंश का अंत हो गया।


3-तुगलक वंश 1320-1414

तुगलक वंश भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण शासक वंश था, जो मुग़ल शासन के पूर्व भाग में भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन करता था। यह वंश 14वीं से 15वीं सदी तक मुग़ल साम्राज्य की स्थापना करने वाले सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के परिवार से था। तुगलक वंश के शासक दिल्ली सल्तनत के उच्चकोटि और उप-उच्चकोटि शासक थे.

तुगलक वंश के शासकों ने भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापार, संस्कृति, कला, और वैज्ञानिक गतिविधियों का प्रोत्साहन किया था। उनकी शासनकाल में मुग़ल शासन के आधार सिमित होते थे लेकिन वे बिना शासन की परिधि के बढ़ावे के लिए जाने जाते हैं।


गयासुद्दीन तुगलक 1320-1325

▪️गयासुद्दीन तुगलक या गाजी मलिक तुगलक वंश का संस्थापक था।। यह वंश करौना तुर्क के वंश के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि गयासुद्दीन तुगलक का पिता करौना तुर्क था।
▪️कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी की हत्या कर नासिउद्दीन खुशखशाह 1320 ईस्वी में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। 4 महीने बाद गाजी मलिक ने एक युद्ध में खुशखशाह को पराजित कर मार डाला तथा गयासुद्दीन तुगलक के नाम से सत्ता संभाली। इसके साथ ही सल्तनत काल में तुगलक वंश की नींव पड़ी।
▪️गयासुद्दीन तुगलक दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था जिसने गाजीया काफिरों का घातककी उपाधि ग्रहण की।
▪️गयासुद्दीन ने सिंचाई के लिए नेहरों एवं कुओं का निर्माण करवाया। नहरों का निर्माण करने वालों में गयासुद्दीन प्रथम सुल्तान था।
▪️गयासुद्दीन तुगलक ने अपने शासनकाल में करीब 29 बार मंगोलों के आक्रमण को विफल किया।
▪️इसने लगान के रूप में उपज का 1/10  हिस्सा ही लेने का आदेश दिया।
▪️बंगाल अभियान से लौटते समय उसके पुत्र जूना खाँ ( मुहम्मद तुगलक) द्वारा निर्मित लकड़ी के महल के गिरने से 1325 ईस्वी में सुल्तान की मृत्यु हो गई।


मुहम्मद बिन तुगलक 1325-1352
  • ▪️गयासुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जूना खाँ मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर बैठा।
    ▪️मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद बिन तुगलक सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था।
    ▪️राज्यारोहण के बाद मुहम्मद बिन तुगलक ने कुछ नवीन योजनाओं का निर्माण कर उन्हें क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया जैसे–

    दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि- 1326-27
  • राजधानी परिवर्तन –1326-27 (दिल्ली से दौलताबाद)
  • सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन-1329-30
  • खुरासान एवं कराचिल अभियान- 1330-31▪️मुहम्मद बिन तुगलक ने कृषि विकास के लिए अमीर-ए-कोही (दीवाने कोही) नाम के एक नवीन विभाग की स्थापना की।
    ▪️इसके शासनकाल में 1333 ईस्वी में अफ्रीकी यात्री इब्न-बतूता भारत आया। सुल्तान ने इसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया। इब्नबतूता ने अपनी भारत से संबंधित जानकारियों को रेहलानामक पुस्तक में लिपिबद्ध किया।
    ▪️यह एकमात्र सल्तनतकालीन शासक था जो हिंदुओं के प्रमुख त्योहार होली में भाग लेता था।
    ▪️मुहम्मद तुगलक ने अफ्रीकी यात्री  इब्न-बतूता को अपना राजदूत बनाकर चीन भेजा।
    ▪️ 20 मार्च 1351 को थट्टा (सिन्ध) में एक विद्रोह दबाने के दौरान सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु हो गई।
    इसकी मृत्यु पर इतिहासकार बदायूनी ने इस प्रकार कहा- ” और इस प्रकार सुल्तान को अपनी प्रजा से एवं प्रजा को अपने सुल्तान से मुक्ति मिल गई।”

फिरोजशाह तुगलक 1351-1388

▪️फिरोजशाह,मुहम्मद बिन तुगलक का चचेरा भाई एवं सिपहसालार रजब का पुत्र था। इसकी मां बीवी जैला राजपूत सरदार रणमल की पुत्री थी।
▪️ 23 मार्च 1351 ईस्वी को थट्टा के निकट एक डेरे में फिरोज का सिंहासनारोहण हुआ।
▪️ 1359 में फिरोज ने बंगाल पर चढ़ाई की थी लेकिन वह सफलता प्राप्त नहीं कर सका।
▪️ 1360 में सुल्तान फिरोज ने जाजनगर (उड़ीसा) पर आक्रमण किया तथा वहां पुरी के जगन्नाथ मंदिर को ध्वस्त किया।
▪️1361 में फिरोज ने नगरकोट पर आक्रमण कर वहां के शासक को परास्त कर प्रसिद्ध ज्वालामुखी मंदिर को पूर्णत: ध्वस्त कर दिया।

▪️फिरोज ने अपने शासनकाल में 24 कष्टकारी करों को समाप्त कर केवल चार कर– खराज, खुम्स, जजिया एवं जकात को वसूल करने का आदेश दिया।
▪️सुल्तान ने सिंचाई की सुविधा के लिए यमुना नदी से पांच बड़ी नहरें बनवाई।
▪️इन्होंने मुस्लिम अनाथ स्त्रियों, विधवाओं एवं लड़कियों की सहायता हेतु दीवान-ए-खैरात नामक एक नये विभाग की स्थापना की।
▪️फिरोज ने दासों की देखभाल के लिए दीवाने-ए-बंदगान नामक एक विभाग की स्थापना की।  इनके शासनकाल में दासों की संख्या 1.80 लाख तक पहुंच गई थी।
▪️दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था, जिसने इस्लामी नियमों का कड़ाई से पालन करते हुए उलेमा वर्ग को प्रशासनिक कार्यों में महत्व दिया।
▪️फिरोजशाह ने जियाउद्दीन बरनी एवं शम्स-ए-शिराज अफीफ जैसे इतिहासकारों को संरक्षण प्रदान किया।
▪️फिरोज ने अपनी आत्मकथा फतुहात-ए-फिरोजशाही की रचना की।
▪️फिरोज शाह ने मुद्रा व्यवस्था के अंतर्गत बड़ी संख्या में चांदी एवं तांबे के मिश्रण से निर्मित सिक्के चलाए, जिसे अद्धा एवं बिख जाता था।
▪️फिरोज प्रथम सुल्तान था जिसने ब्राह्मणों पर जजिया कर लगाया।
▪️फिरोज को निर्माण का सबसे अधिक चाव था। उसने फिरोजाबाद (दिल्ली का आधुनिक फिरोज शाह कोटला)फतेहाबाद, हिसार, जौनपुर और फिरोजपुर (बदायूं के निकट) उसी के द्वारा स्थापित हुए थे।
▪️फिरोजशाह तुगलक ने 4 मस्जिदें, 30 महल, 200 कारवां सराय, 5 जलाशय, 5 अस्पताल, 100 मकबरे, 10 स्नानागार, 10 स्मारक स्तंभ और 100 पुल बनवाए।
▪️फिरोज ने सिंचाई के लिए पांच नेहरे खुदवाईं, उसने दिल्ली के आसपास 1200 उद्यान लगवाए।
▪️फिरोज शाह का मुख्य वास्तुकार मलिक गाजी सहना था। जिसे अपने कार्य में अब्दुल हक की सहायता मिलती थी।
▪️फिरोजशाह तुगलक ने अशोक के 2 स्तंभों को मेरठ व टोपरा (अब अंबाला जिले में) से दिल्ली लाया गया। टोपरा वाले स्तंभ को महल तथा फिरोजाबाद की मस्जिद के निकट पुनः स्थापित कराया गया। मेरठ वाले स्तंभ को दिल्ली के वर्तमान बाड़ा हिंदू राव अस्पताल के निकट एक टीले कश्के शिकार या आखेट-स्थान के पास पुनः स्थापित कराया गया।
▪️फिरोज शाह ने खैराती अस्पताल जिसे दारुल शफा कहते हैं की भी स्थापना की।
▪️ 80 वर्ष की आयु में फिरोज तुगलक की 20 सितंबर 1388 को मृत्यु हो गई। मोरलैंड के मतानुसार फिरोज की मृत्यु से एक युग समाप्त हो गया। कुछ ही वर्षों में साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध में भारत में एक भी प्रभावशाली मुस्लिम शक्ति न रही।


4 सैयद वंश 1414-1451

खिज्र खां 1414-1422 

▪️तुगलक वंश के अंतिम शासक नासिरुद्दीन महमूद शाह की मृत्यु के बाद खिज्र खाँ ने दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर एक नए राजवंश सैयद वंश की नींव डाली।
▪️खिज्र खाँ ने जीवन पर्यंत 1414 से 1421 सुल्तान की उपाधि न धारण कर अपने को रैयत-ए-आला की उपाधि से प्रसन्न रखा।
▪️खिज्र खाँ अपने को तैमूर के लड़के शाहरुख का प्रतिनिधि बताता था साथ ही उसे नियमित कर भेजा करता था।
▪️ 20 मई 1421 ईसवी को खिज्र खां की मृत्यु हो गई।

For Full Detailsसैय्यद वंश: प्रमुख शासक, इतिहास और महत्व


मुबारक शाह 1421-34

▪️ 20 मई 1421 को खिज्र खाँ का लड़का मुबारक शाह गद्दी पर बैठा। इसने प्रसिद्ध विद्वान एवं इतिहासकार याहिया-बिन-अहमद सरहिंदी को अपना राज्याश्रय प्रदान किया। इसके ग्रंथ तारीख-ए-मुबारक शाही में मुबारक शाह के शासनकाल के विषय में जानकारी मिलती है।
▪️ 20 फरवरी 1434 को मुबारक शाह की हत्या कर दी गई।


मुहम्मद शाह 1434-44

▪️जब मुबारक शाह का वध हुआ, उसके कोई पुत्र नहीं था। अतः अमीरों व सरदारों ने मुहम्मद शाह को गद्दी पर बिठाया जो उसके भाई फरीद का पुत्र था।


आलमशाह 1444-51

▪️जब 1444 में मुहम्मद शाह की मृत्यु हुई तो उसका पुत्र अलाउद्दीन गद्दी पर बैठा ,जिसने आलम शाह की उपाधि धारण की।
▪️यह नया सुल्लान अपने पिता से भी अधिक कमजोर निकला।
▪️19 अप्रैल 1451 को बहलोल लोदी ने दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा कर लिया। और लोदी वंश की स्थापना की।


5 –लोदी वंश 1451-1526  

यह वंश दिल्ली सल्तनत की इतिहास में 1451 से 1526 ईस्वी तक शासन करता रहा। लोदी वंश के शासक बह्लौल लोदी, सिकन्दर लोदी, इब्राहिम लोदी थे। लोदी वंश का संचालन दिल्ली सल्तनत की घोर राजनीतिक और सामरिक परिस्थितियों के दौरान हुआ। लोदी शासकों ने मुग़ल साम्राज्य के प्रति धीरे-धीरे कमजोरी दिखाई दी और वे अपने संघर्षों में कुछ सफलता भी प्राप्त नहीं कर सके।


बहलोल लोदी 1451-1489 
  • बहलोल लोदी ने लोदी वंश( प्रथम अफगान राज्य) स्थापना की।
  • इसके शासन की प्रमुख विशेषता थी जौनपुर का एक बार फिर से दिल्ली में शामिल होना।
  • बहलोल अपने सरदारों को मकसद-ए-अली कहकर पुकारता था।
  • इन्होनें अपने शासन काल में बहलोली सिक्के का प्रचलन करवाया जो अंग्रेजों केसमय तक चलता रहा।
  • बहलोल लोदी का पुत्र एवं उत्तराधिकारी निज़ाम खां 17 जुलाई 1489 में सिकंदर शाह की उपाधि लेकर दिल्ली के सिंघासन पर बैठा।
  • 1505 में सिकंदर लोदी ने आगरा शहर की नींव डाली।
  • सिकंदर लोदी नेभूमि की मापग के लिए एक प्रामाणिक पैमाना गज-ए-सिकंदरी  प्रचलन किया।
  • इन्होने आगरा को 1506 में अपनी नई राजधानी बनाया।
  • 21 नवंबर 1517 को इब्राहिम लोदी आगरा के सिंहासन पर बैठा।
  • 21 अप्रैल 1526 को पानीपत के मैदान में हुए भीषण युद्ध में बाबर के हाथों पराजित होना पड़ा  और अंत में उसकी हत्या कर दी गयी।
  • इब्राहिम कीमृत्यु के साथ ही दिल्ली सल्तनत का भी अंत हो गया। बाबर ने भारत में एक नए वंश ( मुग़ल ) की नींव रखी


मुगल साम्राज्य


मुग़ल साम्राज्य भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण शासनकाल था जो 1526 से 1857 तक विचार गया। यह एक बादशाही साम्राज्य था जिसकी स्थापना बाबर ने की थी जो एक चाग़ताई तुर्की शासक थे। मुग़ल साम्राज्य के शासक अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, और आउरंगज़ेब उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से को शासित करते थे।


बाबर 1526-30
  • जहीरूद्दीन मोहम्मद बाबर भारत में मुगल वंश का संस्थापक था। उसका जन्म 14 फरवरी 1483 को फरगना में हुआ था। उसके पिता मिर्जा उमर शेख फरगना के शासक थे।
  • बाबर अपने पिता पक्ष से तैमूर का पांचवा तथा मातृ पक्ष से चंगेज खाँ का चौदहवां वंशज था। वस्तुतः बाबर को  ‘तुर्क-चुगताईवंश परंपरा से संबंधित माना जाता है।
  • मध्य एशिया व अफगानिस्तान की दुर्बल राजनीतिक व आर्थिक स्थिति, भारत की संसाधन संपन्नता तथा भारत में दिल्ली सल्तनत की अस्थिर राजनीतिक स्थिति ने बाबर को भारत पर आक्रमण करने की प्रेरणा दी। बाबर ने भारत पर 5 बार आक्रमण किया।
  • 1519 ईसवी में बाबर ने अपने प्रथम अभियान में हिंदुस्तान के प्रवेश द्वार भीरा और बाजौर के किले पर अधिकार किया। यह अभियान युसूफ जाति के विरुद्ध था जिसमें बाबर ने पहली बार तोपखाने का प्रयोग किया था।
  • बाबर ने चौथे अभियान 1524 ईस्वी में लाहौर एवं दीपालपुर पर अधिकार कर लिया। इसी अभियान के समय दौलत खाँ, राणा सांगा ने बाबर को दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।
  • पानीपत का प्रथम युद्ध बाबर के पांचवें अभियान की परिणति थी जिसमें अफगान शासक इब्राहिम लोदी (लोदी वंश) की मृत्यु हो गई और दिल्ली सल्तनत का अंत हो गया।
  • पानीपत के युद्ध में बाबर ने उज्बेकों (मंगोलों) की तुलुग्मा युद्ध व्यूह नीतिका प्रयोग किया था, तथा इसमें तोपखाने का संचालन निशानेबाज उस्ताद अली एवं मुस्तफा ने किया
  • पानीपत के युद्ध में लूटे गए धन को बाबर ने अपने सैनिक अधिकारियों, रिश्तेदारों सहित नौकरों में बांटा और काबुल के प्रत्येक निवासी को चांदी का एक-एक सिक्का प्रदान किया इस उदारता के कारण बाबर को कलंदर की उपाधि दी गई।
  • पानीपत विजय के बाद बाबर ने अपने सबसे प्रिय पुत्र हुमायूं (बाबर के 4 पुत्र थे—हुमायूं, कामरान, अस्करी तथा हिंदाल ) को प्रसिद्ध कोहीनूर हीरा दिया। जिसे उसने ग्वालियर के राजा विक्रमाजीत से छीना था।
  • बाबर ने अपनी आत्मकथा तजुके-बाबरी तुर्की भाषा में लिखी। इस पुस्तक में बाबर ने भारत की भूमि, लोग, पशु-पक्षी, धनसंपदा और राज्यों का विस्तार से वर्णन करते हुए दक्षिण भारत के विजयनगर के राजा (कृष्णदेव राय) का विशेष उल्लेख किया है और उसे क्षेत्र एवं सेना की दृष्टि से काफिर नृपतियों में सर्वाधिक शक्तिशाली कहा है।
  • खानवा का युद्ध बाबर और मेवाड़ के शासक राणा सांगा के बीच 1527 ईस्वी में लड़ा गया। इस युद्ध के समय बाबर ने मुसलमानों से तमगा करन लेने की घोषणा और राणा सांगा के विरुद्ध जेहाद का ऐलान किया। इस युद्ध में विजय के पश्चात बाबर ने गाजीकी उपाधि धारण की।
  • 26 जनवरी 1528 को बाबर ने चंदेरी पर आक्रमण किया और चंदेरी के युद्ध में राणा सांगा के मित्र और राजपूत शासक मेदिनीराय को पराजित किया।
  • घाघरा का युद्ध 6 मई 1529 को हुआ, जिसमें बाबर ने बिहार के अफगान शासक और बंगाल के शासक नुसरत शाह की सेना को संयुक्त रूप से पराजित किया।
  • बाबर को गद्य लेखन की शैली मुबइयानका जन्मदाता माना जाता है। उसकी मृत्यु 27 दिसंबर 1530 को आगरा में हुई। उसे आगरा के आरामबाग में दफनाया गया जिसे बाद में काबुल ले जाया गया।
  • बाबर ने दिल्ली के सुल्तानों की परंपरा को तोड़कर खलीफा के प्रभुत्व को अस्वीकार किया और 1507 में पादशाह की पदवी धारण की।
  • बाबर की आत्मकथा तुजुके-बावरी का तुर्की से फारसी भाषा में अनुवाद अब्दुर्रहीम खानखाना और प्यादाखाँ ने किया जोबाबरनामाके नाम से जाना जाता है।
  • पानीपत का युद्ध–1526
    खानवा का युद्ध—1527
    चन्देरी का युद्ध—-1528
    घाघरा का युद्ध—-1529
    बाबर की मृत्यु—–1530
  • बाबर का प्रधानमंत्री निजामुद्दीन खलिफा था।
    बाबर ने अपने दरबार का गठन फारसी रीति-रिवाज से किया।
    1826  ईस्वी में लेयडन और इर्सकिन ने तजुक-ए-बाबरी का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया।

हुमायूं 1530-56
भाग्यशाली हुमायूं बाबर का जयेष्ठ पुत्र था उसके तीन भाई कामरान, असकरी और हिंदाल थे।
हुमायूं का जन्म 6 मार्च 1508 में काबुल में हुआ था। उसकी माता का नाम महिम बेगम था जो संभवत: शिया थी।
  • 12 वर्ष की अवस्था में हुमायूं को बाबर ने उत्तराधिकारी घोषित किया और वदख्शां का गवर्नर बनाया।
    30 सितंबर 1530 को हुमायूं आगरा के सिंहासन पर बैठ गया। उस समय उसकी आयु 23 वर्ष की थी।
  • अपने पिता की वसीयत के मुताबिक हुमायूं ने अपने भाई कामरान को काबुल तथा कंधार, अस्करी को संभल और हिंदाल को अलवर तथा मेवात की जागीरें दीं।
  • गुजरात के अफगान शासक बहादुरशाह के विरोध को दबाने के लिए हुमायूं ने 1532 ईस्वी में कालिंजर पर आक्रमण किया। लेकिन बिहार के शासक महमूद लोदी के जौनपुर की तरफ बढ़ने की सूचना पाकर उसने कालिंजर का घेरा उठा लिया और यह सैन्य अभियान असफल रहा।
  • हुमायूं की सेना और महमूद लोदी की सेना के बीच 1532 ईस्वी मेंदौहरिया का युद्धहुआ जिसमें हुमायूं को विजय मिली और उसने जौनपुर पर अधिकार कर लिया।
  • हुमायूं ने 1533 ईसवी में मित्रों एवं शत्रुओं को प्रभावित करने और विरोधी शासकों के आक्रमण से बचने के उद्देश्य से दिल्ली के नजदीक दीन-पनाहनामक नगर की स्थापना की। वस्तुतः यह एक आपातकालीन राजधानी थी।
  • बिहार में 1534 ईसवी में जमान मिर्जा एवं मुहम्मद सुल्तान मिर्जा के विद्रोह को दबाने में हुमायूं सफल रहा.
  • गुजरात के शासक बहादुर शाह ने तुर्की के कुशल तोपची रूमी खां की सहायता से एक बेहतर तोपखाने का निर्माण करवाया लेकिन हुमायूं द्वारा घेरे जाने के बाद बहादुर शाह को इस श्रेष्ठ तोपखाने को स्वयं नष्ट कर भागना पड़ा। परंतु इसके बाद तोपची रूमी खां हुमायूं की सेवा में चला गया।
  • शेरखाँ के व्यवहार से नाराज होकर 1537 ईस्वी में हुमायूं ने चुनार पर दूसरा घेरा डाला। पहला घेरा 1532 ईस्वी में डाला गया था जिसमें 4 महीने पश्चात शेरखाँ ने हुमायूं की अधीनता स्वीकार कर ली थी। तोपची रूमी खाँ के तोपखाने के कुशल संचालन के कारण और कूटनीति द्वारा हुमायूं चुनार के किले पर कब्जा करने में सफल रहा।
  • 26 जून 1539 को हुमायूं एवं शेरखाँ की सेनाओं के बीच चौसा का युद्ध हुआ। जिसमें हुमायूं की पराजय हुई। हुमायूं ने एक भिश्ती(सक्का) की मदद से गंगा नदी पार कर अपनी जान बचाई।
  • 17 मई,1540 को हुमायूं ने अपने भाइयों असकरी और हिन्दाल की सहायता से सेनाएं एकत्रित कर शेरशाह पर आक्रमण किया। लेकिन कन्नौज या बिलग्राम की इस लड़ाई में हुमायूं की निर्णायक पराजय हुई और वह भागकर सिंध चला गया।
  • निर्वासन के समय हुमायूं ने हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरु फारसवासी शिया मीर बाबा दोस्त उर्फ मीर अली अकबर जामी की पुत्री हमीदा बानो से 29 अगस्त, 1541 को निकाह किया। अकबर का जन्म हमीदा बानो बेगम से ही हुआ (1543)
  • ईरान के शासक तहमास्प ने हुमायूं को शरण दी और 1544 में दोनों में संधि हुई, जिसके अनुसार हुमायूं ने कंधार ईरान को दे दिया और बदले में हुमायूं को काबुल और गजनी पर अधिकार पाने में सहायता का आश्वासन मिला।
  • ईरान (शाह तहमास्प) द्वारा काबुल व गजनी पर अधिकार करने में मदद नहीं देने पर हुमायूं ने 1545 ईस्वी में ईरानियों से कंधार छीन लिया। 1545 में ही उसने काबुल पर कब्जा कर लिया।
  • सूर शासक इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद हुमायूं  ने लाहौर पर आक्रमण किया और 1558 ईस्वी में लाहौर पर कब्जा कर लिया।
  • अफगान शूर शासक सिकंदर शाह सूर से मच्छीवारा का युद्ध (15 मई 1555) तथा सरहिंद का युद्ध (22 जून, 1555) जीतने के बाद 23 जुलाई, 1555 को हुमायूं ने पुनः दिल्ली की गद्दी प्राप्त की।
  • हुमायूं की मृत्यु 26 जनवरी 1556 को दीन-पनाह किले में स्थित पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर हो गई।

     

  • लेनपूल के अनुसार हुमायूं ने जिस प्रकार लुढ़क-पुढ़ककर जीवन व्यतीत किया उसी प्रकार वह उन मुसीबतों से बाहर निकल आया। लेनपूल के कहने का आशय यह था कि पहले हुमायूं ने सबकुछ खो दिया और बाद में उसने पुनः प्राप्त कर लिया।
  • उसकी मृत्यु पर लेनपूल ने कहा कि वह जीवन भर लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाकर ही उसकी मृत्यु हो गई।
    हुमायूं का ज्योतिष में अत्यधिक विश्वास था। इसलिए उसने सप्ताह के सातों दिन सात रंग के कपड़े पहनने के नियम बनाएं।
  • हुमायूं के जीवन वृत्त हुमायूंनामाकी रचना उसकी बहन गुलबदन बेगम ने की।कालिंजर का युद्ध— 1531
    दौराहा का युद्ध ——-1532
    चुनार का घेरा——- 1532
    बहादुरशाह के साथ युद्ध-1535-36
    शेरखाँ के साथ युद्ध 1537-39
    चौसा का युद्ध——– 1539
    कन्नौज का युद्ध—-    1540

शूरवंश 1540-1555

शेरशाह सूरी 1540-1545 ईसवी

शेरशाह ने उत्तर भारत में सूर् वंश के अंतर्गत द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की। उसके बचपन का नाम फरीद था और पिता हसन खाँ जौनपुर राज्य के अंतर्गत सहसराम बिहार के जमींदार थे।

  • फरीद ने जौनपुर में शिक्षा ग्रहण की थी और वहां 3 वर्षों तक अरबी और फारसी का ज्ञान प्राप्त किया।
  •  1497 ईस्वी 1528 ईसवी तक निरंतर 21 वर्ष तक फरीद ने अपने पिता की जागीर की देखभाल की और शासन का अनुभव प्राप्त किया।
  • फरीद ने भारत में दक्षिण बिहार के सूबेदार बाहर खाँ लोहानी के यहां नौकरी कर ली। वहां एक शेर को मारने के कारण फरीद को शेर खाँकी उपाधि दी गई।
  • एक समय शेर खां बाबर की सेवा में चला गया था, जहां उसने मुगलों के सैनिक संगठन और रणनीति को समझा। वह 1528 ईसवी में चंदेरी के युद्ध में शामिल हुआ था।
  • 1528 में बंगाल के शासक नुसरत शाह ने दक्षिण बिहार पर आक्रमण किया परंतु शेर खां ने उसे परास्त कर दिया। शेर खां की बढ़ती शक्ति से भयभीत होकर लोहानी सरदार जलाल खां को लेकर बंगाल भाग गए। इसी अवसर पर शेर खां ने हजरत-ए-आलाकी उपाधि ग्रहण की और वह दक्षिण बिहार का वास्तविक स्वामी बन बैठा।
  • 1530 इसमें उसने चुनार के किलेदार जातखां की विधवा लाड मलिका से विवाह किया और चुनार के शक्तिशाली किले पर अधिकार के साथ-साथ अकूत संपत्ति प्राप्त की।
  • 1532 ईसवी में दौहरिया का युद्ध महमूद लोदी के नेतृत्व में अफ़गानों ने हुमायूं से किया। इसमें शेर खां ने भी भाग लिया था जिसमें अफ़गानों की पराजय हुई थी।
  • 1534 ईस्वी में बंगाल के शासक महमूद शाह ने दक्षिणी बिहार पर आक्रमण किया, जिसे शेर खां ने सूरजगढ़ा के युद्धमें पराजित किया।
  • 1539 में चौसा का युद्ध हुमायूं और शेर खां के बीच हुआ जिसमें हुमायूं पराजित हुआ। इस विजय के पश्चात शेर खां ने शेरशाह सुल्तान-ए-आदिल की उपाधि ग्रहण की और वह बंगाल और बिहार का सुल्तान बन गया।
  • 1540 में शेरशाह ने कन्नौज या बिलग्राम के युद्ध में हुमायूं को पुनः पराजित किया और उसके बाद आगरा, दिल्ली, संभल, ग्वालियर, लाहौर आदि सभी स्थान पर अधिकार कर लिया।
  • 1541 ईस्वी में शेरशाह ने पश्चिमोत्तर सीमा के गक्खरों पर आक्रमण किया। गक्खर जाति मुगलों के प्रति वफादार थी।
  • पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा व्यवस्था के लिए शेरशाह ने वहां एक दृढ़ किला बनवाया जिसका नाम रोहतास गढ़ रखा।
  • 1541 में ही खिज्र खां नामक सूबेदार ने बंगाल में विद्रोह किया, जिसे शेरशाह ने स्वयं जाकर दबाया।
  • शेरशाह ने बंगाल के प्रशासनिक व सैन्य शक्ति का पुनर्गठन कर एक सैनिक अधिकारी को नव सृजित पद आमीन-ए-बंगलाअथवा अमीर-ए-बंगाल पर नियुक्त किया। सर्वप्रथम काजी फजीलात नामक व्यक्ति को यह पद दिया गया।
  • 1542 ईस्वी में शेरशाह ने मालवा को कादिर शाह से और 1543 ईसवी में रायसीन को पूरनमल से जीत लिया। चालाकी, धोखे और विश्वासघात के करण रायसीन की विजय को शेरशाह के नाम पर गहरा धब्बा माना जाता है।
  • 1543 में ही शेरशाह ने मुल्तान और 1544 ईस्वी में मारवाड़ पर विजय प्राप्त की। मारवाड़ विजय भी शेरशाह की कूटनीतिक चालों और चालाकी का परिणाम था। मारवाड़ के राजपूतों के शौर्य से प्रभावित हो उसने कहा : मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिंदुस्तान के साम्राज्य को प्रायः खो चुका था।
  • 1545 ईस्वी में बुंदेलखंड के कालिंजर के किले पर किया गया अभियान शेरशाह का का अंतिम अभियान था। गोला बारूद के ढेर में आग लग जाने के कारण शेरशाह बुरी तरह जख्मी हो गया। उसकी मृत्यु के पूर्व कालिंजर को जीत लिया गया था।
  • शेरशाह की मृत्यु 22 मई 1545 ईस्वी को हुई।
  • शेरशाह महान शासन प्रबंधक था उसे अकबर का अग्रणी माना जाता है।
  • पंजाब के फौजदार या हाकिम हैबत खां को शेरशाह ने मसनद-ए-आलाकी उपाधि प्रदान की थी।
  • शेरशाह की लगान-व्यवस्था मुख्यतः रैयतवाड़ी थी। जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष संपर्क किया गया था। मुल्तान के अतिरिक्त राज्य के सभी भागों में यह लागू की गयी थी।
  • न्याय करना धार्मिक कार्य में सर्वश्रेष्ठ है और इसे सभी काफिर और मुसलमान बादशाह स्वीकार करते हैं। -यह कथन शेरशाह का है।
  • शेरशाह ने दामनामक ताँबे के नए सिक्के चलाए।
  • शेरशाह की मृत्यु के बाद उसका छोटा लड़का जलाल खां 27 मई 1545 ईसवी को इस्लामशाह के नाम से सिंहासन पर बैठा।
  • 1553 इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद फिरोजशाह गद्दी पर बैठा लेकिन उसके मामा मुबारिज खां ने उसकी हत्या कर दी और मुहम्मद आदिलशाह के नाम से शासक बना। हेमू इसी का सेनापति था।

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Establishment of British rule in Bengal-बंगाल में अंग्रेजी शासन की स्थापना | प्लासी, बक्सर का युद्ध

बंगाल भारत का सबसे समृद्ध राज्य था जो अपने समुद्री व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। औपनिवेशिक शासकों ने बंगाल के आर्थिक महत्व को समझा और बंगाल अपने व्यापार की जड़ें जमाई। बंगाल से शुरू हुआ हुआ ये व्यापार का खेल कब सत्ता के खेल में बदल गया भारतीय शासक समझने में विफल रहे। आज इस लेख में हम ‘बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना’ शीर्षक के अंतर्गत प्लासी और बक्सर युद्धों के साथ इलाहबाद की संधि के महत्व और उनकी पृस्ठभूमि को को भी समझेंगे। यह लेख पूर्णतया ऐतिहासिक विवरणों और प्रामाणिक पुस्तकों की सहायता से तैयार किया गया है। कृपया लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
Establishment of British rule in Bengal-बंगाल में अंग्रेजी शासन की स्थापना | प्लासी, बक्सर का युद्ध

         

British rule in Bengal-बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना

अंग्रेजों की प्रारम्भिक स्थिति और नीतियों को देखकर कह सकते हैं कि बंगाल में अंग्रेजी शक्ति का उदय आकस्मिक और परिस्थितिजन्य घटनाओं के कारण हुआ था। तत्कालीन बंगाल के नवाब (सिराजुद्दौला) और उसकी कमजोरी के कारण बंगाल में अंग्रेजों को पैर जमाने का अवसर प्राप्त हो गया, जिसका उन्होंने भरपूर लाभ उठाया। भारत की गुलामी की दास्तां बंगाल से ही शुरू हुई। इस ब्लॉग के माध्यम से हम बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के उदय और बंगाल की गुलामी के विषय में जानेंगे।

British rule in Bengal-बंगाल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-

बंगाल में अंग्रेजों के आने से पूर्व की स्थिति को जानना आवश्यक है ताकि औपनिवेशिक शासकों की नीतियों को आसानी से समझा सके।

समकालीन बंगाल में आधुनिक पश्चिमी बंगाल प्रांत, संपूर्ण बांग्लादेश, बिहार और उड़ीसा सम्मिलित थे। बंगाल मुगलकालीन भारत का सबसे संपन्न राज्य था। 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जहां शेष भारत में हर तरफ पतन, पराजय और दिवालिएपन के बादल मंडरा रहे थे अकेला बंगाल प्रांत ही ऐसा था जहाँ साधन संपन्नता और समृद्धि की झलक दिखाई पड़ती थी और मुगल शासन के लिए यही एकमात्र चांदी की खान रह गया था। सौभाग्य से बंगाल को योग्यतम शासक मिले.


1700 ई० में मुर्शिद कुली खां बंगाल का दीवान नियुक्त हुआ और मृत्युपर्यंत (1727 ईस्वी तक) बंगाल की बागडोर संभाले रहा। इसके बाद उसके दामाद शुजा ने 14 वर्ष तक बंगाल पर शासन किया। इसके पश्चात 1 वर्ष के अल्प समय के लिए शासन मुर्शिद कुली खां के निकम्मे बेटे के हाथ में आ गया लेकिन शीघ्र ही अलीवर्दी खाँ ने उसका तख्तापलट कर सत्ता हथिया ली और 1756 तक बंगाल पर शासन किया। ये तीनों ही शासक बड़े समर्थ और सबल थे, इनके शासनकाल में बंगाल इतना अधिक समृद्ध हो गया था कि इसे बंगाल, स्वर्ग कहा जाने लगा।

कुशल प्रशासन के अतिरिक्त बंगाल को अन्य लाभ भी थे– एक ओर जहां शेष भारत सीमावर्ती युद्धों,मराठा आक्रमणों और जाट विद्रोह से ग्रस्त था और उत्तरी भारत नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों से विनष्ट हो चुका था, वहीं बंगाल में कुल मिलाकर शांति बनी रही। यहां व्यापार, वाणिज्य, उद्योग धंधे और कृषि, सभी पर्याप्त रूप से समृद्ध थे।

कोलकाता की आबादी, 1706 में 15,000 थी, 1750 में बढ़कर एक लाख तक पहुंच गई और ढाका तथा मुर्शिदाबाद घनी आबादी वाले नगर बन गए लेकिन समृद्धि की जगमगाहट के पीछे की दशा इतनी अधिक निराशाजनक और नाजुक थी कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह समृद्धि कच्ची-ईंटों की दीवार की भांति है जो तूफान के एक छोटे से झोंके से भरभराकर गिरकर समुद्र में विलीन हो जाएगी। बंगाल के अहंकारी नवाब शासक और अरसे से शोषित उनकी प्रजा अभी भी एक-दूसरे के माया जाल से बंधे रहने के लिए अभिशप्त थे।

  • 1690 में जॉन चारनॉक ने अंग्रेज बस्ती के रूप में कोलकाता की स्थापना की।
  • 1697 में फोर्ट विलियम नाम से एक किलेबन्द फैक्ट्री बनाई जिसने एक नए प्रांत का रुप ले लिया। और 1700 में इसे औपचारिक रूप से बंगाल में फोर्ट विलियम प्रांत (प्रेसीडेंसी) कहा गया।
  • सुतनौती, कलिकाता और गेाविन्दपुर को मिलाकर आधुनिक नगर कलकत्ता(कोलकता) का विकास हुआ।

British rule in Bengal-बंगाल में अंग्रेजों का आगमन

बंगाल में अंग्रेजों की बस्तियों की स्थापना से पूर्व का इतिहास अनेक सुस्पष्ट चरणों में विभाजित है।
सन 1633 से 1663 ईसवी के मध्य बंगाल में अंग्रेजों की बस्तियों और फैक्ट्रियों की स्थापना मुगल शासन के अधीन केवल शांतिपूर्वक व्यापार करने के लक्ष्य को लेकर की गई थी। उस समय उनका कोई अन्य लक्ष्य नहीं था।
1633 से पूर्व अंग्रेजों का आगमन उस समय हुआ जब उड़ीसा के मुगल सूबेदार ने उन्हें हरिहरपुर (महानदी के मुहाने के समीप) और उत्तर में बालासोर में अपनी फैक्ट्रियाँ खोलने की अनुमति दी और अंग्रेजों ने उड़ीसा में 1641 में अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं। 
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी ने जड़ें जमाने से पूर्व भारत के सबसे समृद्ध राज्य बंगाल में अपनी प्रथम कोठी 1651ई० में तत्कालीन बंगाल के सूबेदार शाह जहान के दूसरे पुत्र शाहशुजा की अनुमति से बनाई। उसी वर्ष एक राजवंश की स्त्री की डॉक्टर बौटन (Dr.Boughton) द्वारा चिकित्सा करने पर उसने अंग्रेजों को RS-3000 वार्षिक में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में मुक्त व्यापार की अनुमति दे दी। शीघ्र ही अंग्रेजों कासिम बाजार, पटना तथा अन्य स्थान पर कोठियां बना लीं।
1698 में सूबेदार अजीमुशान ने उन्हें सूतानती, कालीघाट तथा गोविंदपुर ( जहाँ आज कोलकाता बसा है) की जमींदारी दे दी जिसके बदले उन्हें केवल RS-1200 पुराने मालिकों को देने पड़े। 1717 में सम्राट फर्रूखसियर ने पुराने  सूबेदारों द्वारा दी गई व्यापारिक रियायतों की पुनः पुष्टि कर दी तथा उन्हें कोलकाता के आस-पास के अन्य क्षेत्रों को भी किराए पर लेने की अनुमति दे दी।

1741 में बिहार का नायब सूबेदार अलीबर्दी खाँ बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के नायब सरफराज खाँ से विद्रोह कर, उसे युद्ध में मार कर स्वयं इस समस्त प्रदेश का नवाब बन गया। अपनी स्थिति को और भी सुदृढ़ करने के लिए उसने सम्राट मुहम्मद शाह से बहुत से धन के बदले एक पुष्टि पत्र (confermation) प्राप्त कर लिया। परंतु उसी समय मराठा आक्रमणों ने विकट रूप धारण कर लिया तथा अलीवर्दी खां के शेष 15 वर्ष उनसे भिड़ने में व्यतीत हो गए।
मराठा आक्रमण से बचने के लिए अंग्रेजों ने नवाब की अनुमति से अपनी कोठी जिसे अब फोर्टविलियम की संज्ञा दे दी गई थी, के चारों ओर एक गहरी खाई (moat) बना ली। अलीवर्दी खां का ध्यान कर्नाटक की घटनाओं की ओर आकर्षित किया गया जहां विदेशी कंपनियों ने समस्त सत्ता हथिया ली थी। अंग्रेज बंगाल में जड़ न पकड़ लें, इस डर से उसे कहा गया कि वह अंग्रेजों को बंगाल से पूर्णरूपेण निष्कासित कर दे।
नवाब ने यूरोपियों को मधुमक्खियों की उपमा दी थी। कि यदि उन्हें छेड़ा जाए  तो वे शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो काट-काट कर मार डालेंगी। शीघ्र ही यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो गई।