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बंगाल भारत का सबसे समृद्ध राज्य था जो अपने समुद्री व्यापार के लिए प्रसिद्ध था।
औपनिवेशिक शासकों ने बंगाल के आर्थिक महत्व को समझा और बंगाल अपने व्यापार की जड़ें जमाई। बंगाल से शुरू हुआ हुआ ये व्यापार का खेल कब सत्ता के खेल में बदल गया भारतीय शासक समझने में विफल रहे। आज इस लेख में हम ‘
बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना’ शीर्षक के अंतर्गत प्लासी और
बक्सर युद्धों के साथ इलाहबाद की संधि के महत्व और उनकी पृस्ठभूमि को को भी समझेंगे। यह लेख पूर्णतया ऐतिहासिक विवरणों और प्रामाणिक पुस्तकों की सहायता से तैयार किया गया है। कृपया लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
British rule in Bengal-बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना
अंग्रेजों की प्रारम्भिक स्थिति और नीतियों को देखकर कह सकते हैं कि बंगाल में अंग्रेजी शक्ति का उदय आकस्मिक और परिस्थितिजन्य घटनाओं के कारण हुआ था। तत्कालीन बंगाल के नवाब (सिराजुद्दौला) और उसकी कमजोरी के कारण बंगाल में अंग्रेजों को पैर जमाने का अवसर प्राप्त हो गया, जिसका उन्होंने भरपूर लाभ उठाया। भारत की गुलामी की दास्तां बंगाल से ही शुरू हुई। इस ब्लॉग के माध्यम से हम बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के उदय और बंगाल की गुलामी के विषय में जानेंगे।
बंगाल में अंग्रेजों के आने से पूर्व की स्थिति को जानना आवश्यक है ताकि औपनिवेशिक शासकों की नीतियों को आसानी से समझा सके।
समकालीन बंगाल में आधुनिक पश्चिमी बंगाल प्रांत, संपूर्ण बांग्लादेश, बिहार और उड़ीसा सम्मिलित थे। बंगाल मुगलकालीन भारत का सबसे संपन्न राज्य था। 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जहां शेष भारत में हर तरफ पतन, पराजय और दिवालिएपन के बादल मंडरा रहे थे अकेला बंगाल प्रांत ही ऐसा था जहाँ साधन संपन्नता और समृद्धि की झलक दिखाई पड़ती थी और मुगल शासन के लिए यही एकमात्र चांदी की खान रह गया था। सौभाग्य से बंगाल को योग्यतम शासक मिले.
1700 ई० में मुर्शिद कुली खां बंगाल का दीवान नियुक्त हुआ और मृत्युपर्यंत (1727 ईस्वी तक) बंगाल की बागडोर संभाले रहा। इसके बाद उसके दामाद शुजा ने 14 वर्ष तक बंगाल पर शासन किया। इसके पश्चात 1 वर्ष के अल्प समय के लिए शासन मुर्शिद कुली खां के निकम्मे बेटे के हाथ में आ गया लेकिन शीघ्र ही अलीवर्दी खाँ ने उसका तख्तापलट कर सत्ता हथिया ली और 1756 तक बंगाल पर शासन किया। ये तीनों ही शासक बड़े समर्थ और सबल थे, इनके शासनकाल में बंगाल इतना अधिक समृद्ध हो गया था कि इसे बंगाल, स्वर्ग कहा जाने लगा।
कुशल प्रशासन के अतिरिक्त बंगाल को अन्य लाभ भी थे– एक ओर जहां शेष भारत सीमावर्ती युद्धों,मराठा आक्रमणों और जाट विद्रोह से ग्रस्त था और उत्तरी भारत नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली के आक्रमणों से विनष्ट हो चुका था, वहीं बंगाल में कुल मिलाकर शांति बनी रही। यहां व्यापार, वाणिज्य, उद्योग धंधे और कृषि, सभी पर्याप्त रूप से समृद्ध थे।
कोलकाता की आबादी, 1706 में 15,000 थी, 1750 में बढ़कर एक लाख तक पहुंच गई और ढाका तथा मुर्शिदाबाद घनी आबादी वाले नगर बन गए लेकिन समृद्धि की जगमगाहट के पीछे की दशा इतनी अधिक निराशाजनक और नाजुक थी कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह समृद्धि कच्ची-ईंटों की दीवार की भांति है जो तूफान के एक छोटे से झोंके से भरभराकर गिरकर समुद्र में विलीन हो जाएगी। बंगाल के अहंकारी नवाब शासक और अरसे से शोषित उनकी प्रजा अभी भी एक-दूसरे के माया जाल से बंधे रहने के लिए अभिशप्त थे।
- 1690 में जॉन चारनॉक ने अंग्रेज बस्ती के रूप में कोलकाता की स्थापना की।
- 1697 में फोर्ट विलियम नाम से एक किलेबन्द फैक्ट्री बनाई जिसने एक नए प्रांत का रुप ले लिया। और 1700 में इसे औपचारिक रूप से बंगाल में फोर्ट विलियम प्रांत (प्रेसीडेंसी) कहा गया।
- सुतनौती, कलिकाता और गेाविन्दपुर को मिलाकर आधुनिक नगर कलकत्ता(कोलकता) का विकास हुआ।
British rule in Bengal-बंगाल में अंग्रेजों का आगमन
बंगाल में अंग्रेजों की बस्तियों की स्थापना से पूर्व का इतिहास अनेक सुस्पष्ट चरणों में विभाजित है।
सन 1633 से 1663 ईसवी के मध्य बंगाल में अंग्रेजों की बस्तियों और फैक्ट्रियों की स्थापना मुगल शासन के अधीन केवल शांतिपूर्वक व्यापार करने के लक्ष्य को लेकर की गई थी। उस समय उनका कोई अन्य लक्ष्य नहीं था।
1633 से पूर्व अंग्रेजों का आगमन उस समय हुआ जब उड़ीसा के मुगल सूबेदार ने उन्हें हरिहरपुर (महानदी के मुहाने के समीप) और उत्तर में बालासोर में अपनी फैक्ट्रियाँ खोलने की अनुमति दी और अंग्रेजों ने उड़ीसा में 1641 में अपनी बस्तियाँ स्थापित कीं।
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी ने जड़ें जमाने से पूर्व भारत के सबसे समृद्ध राज्य बंगाल में अपनी प्रथम कोठी 1651ई० में तत्कालीन बंगाल के सूबेदार शाह जहान के दूसरे पुत्र शाहशुजा की अनुमति से बनाई। उसी वर्ष एक राजवंश की स्त्री की डॉक्टर बौटन (Dr.Boughton) द्वारा चिकित्सा करने पर उसने अंग्रेजों को RS-3000 वार्षिक में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में मुक्त व्यापार की अनुमति दे दी। शीघ्र ही अंग्रेजों कासिम बाजार, पटना तथा अन्य स्थान पर कोठियां बना लीं।
1698 में सूबेदार अजीमुशान ने उन्हें सूतानती, कालीघाट तथा गोविंदपुर ( जहाँ आज कोलकाता बसा है) की जमींदारी दे दी जिसके बदले उन्हें केवल RS-1200 पुराने मालिकों को देने पड़े। 1717 में सम्राट फर्रूखसियर ने पुराने सूबेदारों द्वारा दी गई व्यापारिक रियायतों की पुनः पुष्टि कर दी तथा उन्हें कोलकाता के आस-पास के अन्य क्षेत्रों को भी किराए पर लेने की अनुमति दे दी।
1741 में बिहार का नायब सूबेदार अलीबर्दी खाँ बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के नायब सरफराज खाँ से विद्रोह कर, उसे युद्ध में मार कर स्वयं इस समस्त प्रदेश का नवाब बन गया। अपनी स्थिति को और भी सुदृढ़ करने के लिए उसने सम्राट मुहम्मद शाह से बहुत से धन के बदले एक पुष्टि पत्र (confermation) प्राप्त कर लिया। परंतु उसी समय मराठा आक्रमणों ने विकट रूप धारण कर लिया तथा अलीवर्दी खां के शेष 15 वर्ष उनसे भिड़ने में व्यतीत हो गए।
मराठा आक्रमण से बचने के लिए अंग्रेजों ने नवाब की अनुमति से अपनी कोठी जिसे अब फोर्टविलियम की संज्ञा दे दी गई थी, के चारों ओर एक गहरी खाई (moat) बना ली। अलीवर्दी खां का ध्यान कर्नाटक की घटनाओं की ओर आकर्षित किया गया जहां विदेशी कंपनियों ने समस्त सत्ता हथिया ली थी। अंग्रेज बंगाल में जड़ न पकड़ लें, इस डर से उसे कहा गया कि वह अंग्रेजों को बंगाल से पूर्णरूपेण निष्कासित कर दे।
नवाब ने यूरोपियों को मधुमक्खियों की उपमा दी थी। कि यदि उन्हें छेड़ा जाए तो वे शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो काट-काट कर मार डालेंगी। शीघ्र ही यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो गई।
सिराजुद्दौला का परिचय
अलीवर्दी खाँ की मृत्यु (9-4-1756 ) के पश्चात उसका धैवता (बेटी का बेटा) उसका उत्तराधिकारी बना, जिसे सिराजुद्दौला के नाम से जाना जाता है। नए नवाब को अपने प्रतिद्वंदी पूर्णिया के नवाब शौकतजंग और अपनी मौसी घसीटी बेगम के अतिरिक्त अंग्रेजों से भी निबटना था। दूसरी ओर अंग्रेजों को आंगल-फ्रांसीसी युद्ध की आशंका थी अतएव उन्होंने कोलकाता में फोर्ट विलियम की किलेबंदी (Fortifications) कर ली तथा उसके परकोटे पर तोपें चढ़ा दीं।
उधर अंग्रेजों ने घसीटी बेगम को प्रत्यक्ष रूप से समर्थन दिया तथा बंगाल के भगोड़ों को भी शरण दी। जब सिराज ने अंग्रेजों को इन जघन्य कार्यों से रोका तो उन्होंने टालमटोल की। सिराज ने देखा कि उसकी आज्ञा का उसी के राज्य में उल्लंघन हो रहा है तो उसने अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान किया।
फिलिप बुडरफ का यह कथन कि नवाब का फोर्ट विलियम पर आक्रमण का मुख्य उद्देश्य लूटमार करना था, पूर्णता असत्य है।
15 जून 1756 को फोर्ट विलियम घेर लिया गया 5 दिन पश्चात उसने आत्मसमर्पण कर दिया। गवर्नर रोजर ड्रेक. तथा अन्य प्रमुख नागरिक प्रष्ठ द्वार से निकल भागे। नवाब कोलकाता को मानिकचंद के हाथ देकर स्वयं मुर्शिदाबाद लौट गया।
ब्लैक होल की घटना -20 June 1756
सिराजुद्दौला के पास अंग्रेजों से निपटने के लिए उचित कार्यवाही करने का समुचित आधार था। उसके आदेशानुसार ही कासिम बाजार फैक्ट्री पर आक्रमण करके उस पर कब्जा कर लिया गया और लूटा गया। मई 1756 को उसने कोलकाता पर आक्रमण का नेतृत्व किया और थोड़े से प्रतिरोध से ही नगर पर अधिकार हो गया।
जून 1756 गवर्नर रोजर ड्रैक और अन्य अंग्रेज अधिकारियों को जब यह लगा कि नगर का पतन सुनिश्चित है तो उन्होंने बड़ी निर्दयतापूर्ण ढंग से नगर को उजाड़ दिया और स्वयं फुल्ता भाग गए। युद्ध की आम प्रणाली के अनुसार अंग्रेजी बंदियों को जिनमें स्त्रियां तथा बालक भी सम्मिलित थे, एक कक्ष में बंद कर दिया गया।
कहा जाता है कि 18 फुट लंबे तथा 14 फुट 10 इंच चौड़े कक्ष में 146 बंदी बंद कर दिए। 20 जून की रात्रि को ये बंद किए गए तथा अगले प्रातः उनमें से केवल 23 व्यक्ति ही बच पाए। शेष उस जून की गर्मी तथा घुटन अथवा एक दूसरे से कुचले जाने के कारण मर गए थे ।
सिराजुद्दौला को इस घटना के लिए उत्तरदायी माना जाता है। जे० जैड० हॉलबैल जो शेष जीवित रहने वालों में से एक थे तथा इस कथा के रचयिता माने जाते हैं, ने इस घटना में मरने वालों के नाम नहीं दिए संभवत उन्हें रक्षक कक्ष (guard room) अथवा दुर्ग की जेल में ही बंद किया गया था।
दूसरे इन बंदियों को एक निम्न स्तरीय अधिकारी ने ही बंद किया होगा अतएव नवाब इसके लिए उत्तरदायी कैसे हो सकता है। नवाब का इतना दोष अवश्य था कि उसने दोषी व्यक्ति को दंड नहीं दिया। उसने जीवित व्यक्तियों के प्रति भी कोई विशेष दया या नहीं दिखाई।
इस घटना को कोई महत्व नहीं दिया गया था था समकालीन मुस्लिम इतिहासकार गुलाम हुसैन ने अपनी पुस्तक ‘सियार-उल-मुत्खैरीन’ में इसका कोई उल्लेख नहीं किया। परन्तु ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस घटना को नवाब के विरुद्ध लगभग 7 वर्ष तक चलते रहने वाले आक्रमक युद्ध के लिए प्रचार का कारण बनाए रखा तथा अंग्रेजी जनता का समर्थन प्राप्त कर लिया। यह घटना इसके पश्चात होने वाले प्रतिकार के लिए विशेष महत्व रखती है । अंग्रेज इतिहासकारों ने इसे “कालकोठरी की त्रासदी बताया है“( Black Hole Tragedy)।
प्लासी का युद्ध 23 जून 1757
प्लासी के युद्ध की पृष्ठभूमि
कोलकाता के विनाशकारी पतन का समाचार मद्रास में अगस्त 1756 में पहुंचा। बंगाल में मानसून के महीनों में सैनिक कार्यवाही कठिन होने के कारण अक्टूबर 1756 में मद्रास से एक सैनिक अभियान कोलकाता भेजा गया। रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व वाला यह विशाल सैनिक दस्ता कर्नाटक युद्ध में अपना रण कौशल दिखा चुका था। उसके साथ एडमिरल वॉटसन को सहायक के रूप में भेजा गया। यह फौज दिसंबर में हुगली पहुंच गई और किलपैट्रिक, जो अगस्त में ही मद्रास से फुल्ता पहुंच चुका था वह भी इस अभियान में शामिल हो गया।
क्लाइव ने नदी के पूर्वी छोर से आगे बढ़ना प्रारंभ किया और बज पर अधिकार करते हुए कोलकाता को पुनः (2 जून 1757) अपने अधिकार में ले लिया। हुगली को लूट लिया गया। क्लाइव ने कोलकाता के उत्तर में बड़नगर के समीप किलाबंदी करके अपना शिविर डाल दिया।
सिराज भी हुगली के रास्ते (3 फरवरी 1757) कोलकाता पहुंचा और नगर के उत्तरी उपनगर में अपना पड़ाव डाल दिया। क्लाइव ने अचानक आक्रमण कर दिया जिससे नवाब को अंग्रेजों की तुलना में काफी अधिक क्षति हुई इस घटना के 4 दिन बाद 9 फरवरी 1757 नवाब और अंग्रेजों के मध्य अलीनगर ( नवाब द्वारा दिया कोलकाता का नया नाम) की संधि हुई।
इस संधि के अनुसार अंग्रेजों को व्यापार के पुराने अधिकार मिल गए जिसमें कोलकाता की किलेबंदी करने की अनुमति भी प्राप्त हो गई। उनकी क्षतिपूर्ति का भी प्रण किया गया। अब अंग्रेज आक्रांता की भूमिका में थे। नवाब के प्रमुख अधिकारी उससे असंतुष्ट थे। क्लाइव ने इसका लाभ उठाकर एक षड्यंत्र रचा जिसमें—
- नवाब का प्रधान सेनापति मीर जाफर।
- बंगाल का एक प्रभावशाली साहूकार जगत सेठ।
- राय दुर्लभ तथा
- अमीचंद
ये चारों एक बिचौलिए के रुप में सम्मिलित हुए निश्चय हुआ कि मीरजाफर को नवाब बना दिया जाए और वह इसके लिए कंपनी को कृतार्थ करेगा तथा उसकी हानि की क्षतिपूर्ति भी करेगा।
प्लासी का युद्ध
अंग्रेजों ने मार्च 1757 में फ्रांसीसी वस्ती चंद्र नगर को जीत लिया। नवाब इससे बहुत क्रुद्ध हुआ। एक ऐसे समय जब नवाब को उत्तर-पश्चिम की ओर से अफ़गानों तथा पश्चिम की ओर से मराठों का भय था, ठीक उसी समय क्लाइव ने सेना सहित नवाब के विरुद्ध मुर्शिदाबाद की ओर प्रस्थान किय।
23 जून 1757 को प्रतिद्वंदी सेनाएं मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील की दूरी पर स्थित प्लासी गांव में आमों के निकुंज में टकराईं। अंग्रेजी सेना में 950 यूरोपीय पदाति, 100 यूरोपीय तोपची, 50 नाविक तथा 2100 भारतीय सैनिक थे। नवाब की 50,000 सेना का नेतृत्व विश्वासघाती मीरजाफर कर रहा था।
नवाब की एक अग्रगामी टुकड़ी जिसके नेता मीर मदान तथा मोहनलाल थे अंग्रेजों से बाजी ले गई और उसने क्लाइव को वृक्षों के पीछे शरण लेने पर बाध्य कर दिया। अचानक एक गोली से मीर मदान मारा गया। नवाब सिराजुद्दौला ने अपने प्रमुख अधिकारियों से मंत्रणा की। मीर जाफर ने उसे पीछे हटने को कहा तथा यह भी कहा कि सिराज को सेना का नेतृत्व जनरैलों के हाथों में छोड़, युद्ध क्षेत्र से चला जाना चाहिए। चाल चल गई सिराज 2000 घुड़सवारों सहित मुर्शिदाबाद लौट गया।
फ्रांसीसी टुकड़ी जो अभी तक जमी हुई थी, शीघ्र ही हार गई। मीरजाफर केवल देखता रहा। मैदान क्लाइव के हाथ रहा। मीर जाफर ने क्लाइव को बधाई दी। मीर जाफर 25 जून को मुर्शिदाबाद लौट गया तथा उसने अपने आप को नवाब घोषित कर दिया। सिराज को बंदी बना लिया गया था उसकी हत्या कर दी गई।
- मीर जाफर ने अंग्रेजों को उनकी सेवाओं के लिए 24 परगनों की जमीदारी से पुरस्कृत किया और क्लाइव को 234000 पाऊंड की निजी भेंट दी।
- 50 लाख रुपया सेना तथा नाविकोंको पुरस्कार के रुप में दिए गए। बंगाल की समस्त फ्रांसीसी बस्तियां अंग्रेजों को दे दीं। यह भी निश्चित हुआ कि भविष्य में अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी बस्तियां अंग्रेजों को दे दीं।
- यह भी निश्चित हुआ कि भविष्य में अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी नहीं देनी होगी। इस प्रकार 1756 में हुई हानि के लिए अंग्रेजों की पर्याप्त क्षतिपूर्ति की गई।
प्लासी के युद्ध का महत्व
प्लासी के युद्ध का सामरिक महत्व कुछ भी नहीं था यह छोटी सी झड़प थी जिसमें कंपनी के कुल 65 व्यक्ति तथा नवाब के 500 व्यक्ति काम आये। अंग्रेजों ने किसी विशेष सामरिक योग्यता तथा चातुर्य का प्रदर्शन नहीं किया। नवाब के साथ में विश्वासघात किया मीर मदान के वीरगति प्राप्त करने के पश्चात विश्वासघातियों का ही बोलबाला था। यदि मीर जाफर तथा राज दुर्लभ राजभक्त रहते तो युद्ध का परिणाम भिन्न होता।
प्लासी के युद्ध के परिणाम का विवेचन करते हुए सर जदुनाथ सरकार का कथन है कि “23 जून 1757 को भारत में मध्यकालीन युग का अंत हो गया और आधुनिक युग का शुभारंभ हुआ। एक पीढ़ी से भी कम समय में या प्लासी के युद्ध के 20 वर्ष बाद ही देश धर्मतंत्री शासन के अभिशाप से मुक्त होने लगा।”
ल्यूक स्क्राफ्ट्न, जो नवाब के दरबार में प्लासी के युद्ध के बाद कंपनी का रेजिडेंट रहा था,. का विचार था कि “प्लासी के युद्ध से अंग्रेजों को वही स्थिति प्राप्त हो गई जो उन्हें (सिराजुद्दौला द्वारा) कोलकाता पर अधिकार से पूर्व प्राप्त थी। नवाब का अपने प्रदेश पर पहले जैसा अधिकार बना रहा और अंग्रेजों को अपनी वाणिज्यिक स्थिति फिर से प्राप्त हो गई।”
के. एम. पन्निकर के अनुसार यह सौदा था जिसमें बंगाल के धनी सेठों तथा मीर जाफर ने नवाब को अंग्रेजों के हाथों बेच डाला.
वैधानिक रूप से अंग्रेज 1757 में बंगाल के राजनीतिक स्वामी नहीं बन पाए। इसके कुछ वर्ष उपरांत कोलकाता के सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि केवल कोलकाता के निवासी ही अंग्रेजी शासन के प्रजाजन हैं। अन्य ब्रिटिश फैक्ट्री क्षेत्रों के निवासी इस स्थिति का दावा नहीं कर सकते थे। अतः सैद्धांतिक रूप से प्लासी के बाद भी अंग्रेजों का भारत में “वाणिज्यिक स्वरूप” बना रहा।
प्लासी के युद्ध नें अंग्रेजो को तत्काल सैनिक एवं वाणिज्यिक लाभ प्रदान किए। उन्होंने “कृषि उत्पादन और दस्तकारियों के क्षेत्र में अग्रणी तीन राज्यों बिहार, बंगाल और उड़ीसा में राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।” बंगाल से फ्रांसीसियों के निष्कासन से दक्षिण भारत में आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष में अंग्रेजों की स्थिति सुदृढ़ हो गई । लगभग 1759 में क्लाइव ने लंदन में शाही शासन के प्रमुख सदस्य पिट द एल्डर को सुझाव दिए कि राजशाही को कंपनी के अधीन बंगाल के प्रदेश के सीधे नियंत्रण में ले लेना चाहिए।
बंगाल के नवाब के रूप में मीरजाफर
नया नवाब मीर जाफर अपनी रक्षा तथा पद के लिए अंग्रेजों पर निर्भर था। उनकी 6000 सेना उसकी रक्षा के हेतु बंगाल में स्थित थी। शनै: शनै: समस्त शक्ति कंपनी के हाथों में चली गई। उसकी असमर्थता का अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि वह दीवान राय दुर्लभ तथा रामनारायण को उनके विश्वासघात के लिए दंडित करना चाहता था परंतु कंपनी ने उसे रोक दिया। अंग्रेज रेजिडेंट वाटसन का विशेष प्रभाव था।
मुसलमान इतिहासकार गुलाम हुसैन लिखता है कि “पदोन्नति के लिए केवल अंग्रेजों का समर्थन आवश्यकता था। शीघ्र ही मीर जाफर अंग्रेजों के जुए(hone) से दुखी हो गया। वह डच लोगों से मिलकर अंग्रेजों को बाहर निकालने का षड्यंत्र रचने लगा।
क्लाइव ने इस षड्यंत्र को नवंबर 1759 में लड़े, बेदारा के युद्ध में डच लोगों को परास्त कर विफल कर दिया। जब मीर जाफर ने भावी घटनाओं को समझने से इंकार कर दिया तो उसे 1760 में कंपनी के मनोनीत व्यक्ति मीर कासिम के लिए स्थान छोड़ना पड़ा।
मीर जाफर ने वचन दिया था कि युद्ध के लिए वह एक लाख रू० मासिक कंपनी को देगा। कंपनी को कोलकाता के आस-पास तथा मीर जाफर द्वारा दिए गए क्षेत्रों से 5-6 लाख रूपया वार्षिक की आय थी। नवाब ने इसके अतिरिक्त 2 वर्ष के लिए (अप्रैल 1758 से मार्च 1760 तक) बर्दवान तथा नादिया जिले के कुछ क्षेत्रों भी कंपनी को दे दिए थे। परंतु इन जिलों की आय पर्याप्त नहीं थी। दूसरे नवाब भी अपनी वचनबद्ध राशि का भुगतान समय पर नहीं कर सकता था तथा बकाया धन बढ़ता जाता था।
1760 तक मीर जाफर पर कंपनी का 25 लाख रूपया बकाया हो गया। पहली अगस्त होने से आरंभ होने वाले वित्तीय वर्ष में कंपनी के व्यय का अनुमान सेना के 18 लाख और मद्रास परिषद के लिए 10 लाख था तथा व्यापारिक तथा अन्य सामान्य मामलों के लिए व्यय इसके अतिरिक्त था। दूसरी ओर कुल आय का अनुमान 37.5 लाख था जिसमें 25 लाख नवाब पर बकाया सम्मिलित था।
यद्यपि हॉलवैल ने जो स्थापन्न गवर्नर था, मीर जाफ़र पर यह आरोप लगाया था कि वह अंग्रेज विरोधी गतिविधियों में लगा है तथा डच लोगों से मुगल राजकुमार अलीगौहर (जो बाद में सम्राट शाह आलम द्वितीय बना) के साथ मिलकर अंग्रेज विरोधी षड्यंत्र रच रहा है, नवाब का मुख्य अपराध धन का ना देने था।
अगस्त 1760 में कर्नल कैलॉड को गवर्नर वेनसिटार्ट नहीं ने यह सुझाव दिया कि यदि मीर जाफर वर्तमान तथा नादिया जिले जिन से लगभग 50 लाख रुपया वार्षिक की आय हो सकते थी, अंग्रेजों को दे दे तो वह मीर जाफर को ही समर्थन देता रहेगा। मीर जाफर ने फिर भी तथ्यों को समझने का प्रयत्न नहीं किया।
क्लाइव की सेवा मुक्ति 1760
फरवरी 1760 में क्लाइव इंग्लैंड लौट गया। 1758 तक बंगाल में अंग्रेजों के मध्य उसकी अधिकारिक स्थिति कुछ निश्चित नहीं थी। तकनीकी रूप से तो वह मद्रास का गवर्नर और मद्रास की काउंसिल की सेवा में था। इसी वर्ष उसे बंगाल के गवर्नर का दायित्व सौंप दिया गया। उसके बंगाल पहुंचने के समय सिराजुद्दौला के भाग्य का सितारा बुलंदी पर था, क्लाइव को यहां अंग्रेजों की प्रभावपूर्ण स्थिति स्थापित करने के अपने लक्ष्य को पाने के तीन वर्ष (दिसंबर,1756 से फरवरी 1770) का समय लगा।
क्लाइव ने अपनी बुद्धि चातुर्य, राजनीतिक युद्ध कौशल और सैनिक संसाधनों के बल पर स्वयं को राज्य के प्रशासन का वास्तविक नियंत्रक बना लिया, लेकिन इससे न तो किसी नई व्यवस्था का ही उदय हुआ और न ही नवाब एवं उसके अंग्रेज संरक्षकों के मध्य शक्ति का संतुलन स्थापित हो सका। किसी बाह्य खतरे का अभाव अंग्रेजों की सबसे बड़ी सुरक्षा थी। वैदेशिक युद्ध (1761 ) में डचों को कुचल दिया गया था।
बंडीवास का युद्ध (1760 ) और पांडिचेरी के आत्मसमर्पण (1761) ने अंग्रेजों को फ्रांसीसी संकट से मुक्त कर दिया था। पानीपत के तृतीय युद्ध (1761 ) ने अनेक वर्षों, के लिए मराठों को भी शक्तिहीन बना दिया था। शाह आलम अभी भी बिहार की सीमा पर जमा हुआ था लेकिन उसकी राजनीतिक पूंजी केवल मुगल बादशाहत का वह ताज था जो मात्र एक उपाधि बनकर रह गया था। उसके आर्थिक संसाधन किसी भी सफल आक्रमण के लिए अपर्याप्त थे।
मीर कासिम से संधि ( सितंबर 1760)
मीर जाफर के जमाता मीर कासिम के लिए सुअवसर था और उसने इसका लाभ उठाया। वह चालाक था, उसने अपने आप को अंग्रेजों का मित्र तथा नवाबी के प्रत्याशी के रूप में प्रस्तुत किया। दूसरे उसने अंग्रेजों की वित्तीय कठिनाइयों में भी सहायता देने का वचन दिया। 27-9-1760 को मीर कासिम तथा कोलकाता काउंसिल के बीच निम्नलिखित संधि पर हस्ताक्षर किए गए—
- मीर कासिम ने कंपनी को वर्धमान, मिदनापुर तथा चटगांव के जिले देना स्वीकार किया।
- सिल्हट के चूने के व्यापार में कंपनी का आधा भाग होगा।
- मीर कासिम कंपनी को दक्षिण में अभियानों के लिए 5 लाख रूपया देगा।
- मीर कासिम कंपनी के मित्र अथवा शत्रु को अपना मित्र अथवा शत्रु मानेगा।
- दोनों एक दूसरे के आसामीयों को अपने प्रदेश में बसने की अनुमति देंगे।
- कंपनी आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी तथा नवाब को सैनिक सहायता देगी।
संधि को कार्यान्वित करने के लिए वेनसिटार्ट तथा कैलोड 14-10-1760 को मुर्शिदाबाद पहुंचे। जब मीर जाफर ने देखा कि उसके महल को अंग्रेजों ने घेर लिया है तो उसने तुरंत मीर कासिम के पक्ष में अपनी गद्दी छोड़ दी। मीर जाफर ने 15000 रूपया मासिक की पेंशन पर कोलकाता में रहना अधिक उचित समझा। मीर जाफर ने सिराज से विश्वासघात किया था ठीक उसी प्रकार उसके साथ भी वही हुआ।
नवाब बनते ही मीर कासिम ने कंपनी के प्रमुख अधिकारियों को पुरस्कृत किया वेनसिटार्ट को 5 लाख, हॉलबैल को 2,70000, कर्नल कैलोड को 2 लाख तथा अन्य व्यक्तियों को लगभग 7 लाख रूपया दिया गया। इस प्रकार इन अधिकारियों ने कंपनी की वित्तीय कठिनाई को दूर करने के बहाने अपने लिए 17 लाख रुपया प्राप्त किया।
मीर कासिम बंगाल के शासक के रूप में
अलीवर्दी खाँ के अनुवर्ती नवाबों में मीर कासिम सबसे योग्य था। वह पहले ही पूर्णिया तथा रंगपुर के फौजदार के रूप में अपनी योग्यता दर्शा चुका था। वह राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर ले गया। संभवत वह मुर्शिदाबाद के षड्यंत्रमय वातावरण तथा कोलकाता से दूर रहना चाहता था ताकि अंग्रेजों का हस्तक्षेप अधिक न हो।
मीर कासिम ने सेना का गठन यूरोपीय पद्धति पर करने का निश्चय किया। मुंगेर में तोपों तथा तोड़ेदार बंदूकों बनाने की व्यवस्था की गई। नवाब को शहजादा अलीगौहर, जो अभी तक बिहार में था, से भी बचना था। दूसरे वह नेपाल की ओर अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। वह बंगाल तथा बिहार के उद्दंड जमीदारों का भी दमन करना चाहता था। जिन्होंने कई बार नवाब की आज्ञाओं का उल्लंघन किया था।
बिहार का उप-सूबेदार राम नारायण नवाब की सत्ता के विरुद्ध अंग्रेजों से समर्थन की आशा करता था। रामनारायण नें तो मीर जाफर की सत्ता को स्वीकार भी नहीं किया। केवल क्लाइव के हस्तक्षेप के कारण ही मीर जाफर से बचा रहा। वह मीर कासिम के प्रति निष्ठावान नहीं था।
नवाब की बार-बार आज्ञा पर भी उसने बिहार की आय का ब्यौरा नहीं दिया। मीर कासिम अपनी सत्ता के इस स्पष्ट उल्लंघन को सहन नहीं कर सका। उसने गवर्नर वेनासिटार्ट की सहमति से पहले राम नारायण को निलंबित किया, फिर सेवा से हटा दिया तथा मार डाला।
मीर कासिम तथा ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच झगड़ा
कंपनी ने समझा था कि मीर कासिम भी कठपुतली है। वह कंपनी की आर्थिक मांगों को अधिक सफलता से पूरा कर सका था। वास्तव में कंपनी समझदार तथा भीरू शासक चाहती थी। वॉरेन हेस्टिंग्ज ने भी उसके प्रशासन की प्रशंसा की यद्यपि वह उसके भीरूपन की स्पष्टत: खिल्ली भी उड़ाता था।
हैरी वेरेल्स्ट ने जो 1767 से 69 तक फोर्ट विलियम कोलकाता का गवर्नर था तथा जिसने ( a view of the rise, progress and present state of the English government in Bengal) नाम की पुस्तक भी लिखी है, मीर कासिम तथा कंपनी के बीच झगड़े के कारणों को दो भागों में बांटा है: तात्कालिक तथा वास्तविक…
उसके अनुसार तात्कालिक कारण तो आंतरिक व्यापार था परंतु वास्तविक कारण इस नवाब की राजनैतिक महत्वकांक्षाएं थीं। वह कहता है “यह असंभव था कि मीर कासिम अपनी सरकार की नींव हमारे समर्थन पर ही निर्भर रहने दे। आत्मरक्षा ने उसे स्वाधीनता की ओर खींचा।”
वेरेल्स्ट के विश्लेषण को ध्यान में रखते हुए प्रोफेसर एच.एच. डॉडवैल तथा डॉक्टर नंदलाल चैटर्जी ने नवाब की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं तथा आंतरिक व्यापार के प्रश्नों के बीच एक स्पष्ट रेखा खींची है।
डॉडवैल लिखते हैं कि “स्थिति की प्रमुख बात यह थी कि अंग्रेजों तथा नवाब के हित एक-दूसरे के विरोधी थे। स्थिति में स्थिरता उस समय तक नहीं आ सकती थी जब तक नवाब अपने आप को स्वतंत्र मानता रहता है तथा अंग्रेज वे अधिकार मांगते रहते जो स्वतंत्र परिस्थिति के अनुरूप नहीं थे।”
डॉक्टर चैटर्जी लिखते हैं “निजी आंतरिक व्यापार पर लगे करों का झगड़ा लड़ाई का केवल एक मात्र अथवा प्रमुख कारण नहीं था। जब उसने युद्ध की इच्छा की तो उसके संकल्प भिन्न थे।” ……आगे लिखते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं कि नवाब की इच्छा अंग्रेजों से पूर्ण रुप से स्वतंत्र होने की थी तथा वह शनै: शनैः 1757 में स्थापित अंग्रेजी सत्ता को समाप्त करना चाहता था। उसका उद्देश्य यूरोपीय व्यापारियों की विशेष शक्ति को समाप्त कर,निष्कण्टक तथा निरंकुश सूबेदारी स्थापित करना था।”
मीर कासिम तथा कंपनी का झगड़ा आंतरिक व्यापार पर लगे करों को लेकर आरंभ हुआ। वेनसिटार्ट ने आंतरिक व्यापार की परिभाषा “राज्य में एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल को लाने तथा ले जाने” को माना है। कंपनी को 1717 में फर्रूखसियर ने एक फरमान द्वारा आयात तथा निर्यात कर से छूट दे दी थी। उस पर कोई बहस नहीं थी। नवाब ने केवल उस दस्तक का प्रश्न उठाया जो कलकत्ता कौंसिल के प्रधान ने दी हुई थी तथा उसके अनुसार कर की छूट होती थी तथा जिसकी सहायता से कंपनी के अधिकारी अपना निजी व्यापार करते थे तथा नवाब को कर से वंचित रखते थे। यही नहीं अब इन अधिकारियों ने यह दस्तक धन लेकर भारतीय व्यापारियों को भी देना आरंभ कर दी थी। जिससे शेष मिलने वाला कर भी समाप्त हो गया था।
इस आंतरिक व्यापार के दुरुपयोग से नवाब की आय बहुत कम हो गई थी तथा भारतीय प्रजा असहाय हो गई थी। कंपनी के अधिकारियों ने कड़ा रुख अपनाया तथा गतिरोध को दूर करने के सभी प्रयास असफल हो गए। अंत में वेनसिटार्ट, वारेन हेस्टिंग तथा काउंसिल का एक अन्य सदस्य नवाब को मुंगेर में मिले।
एक समझौता किया गया। नवाब ने अंग्रेज व्यापारियों को आंतरिक व्यापार में भागीदार बनाना स्वीकार कर लिया– इस शर्त पर कि वे वस्तुओं के क्रय मूल्य पर 9% कर दे दें तथा नवाब को ही दस्तक देने का अधिकार होगा। परंतु अधिक महत्वपूर्ण बात यह स्वीकार हुई कि नवाब को ही सब मामलों में निर्णय करने का अधिकार होगा, परंतु दुर्भाग्यवश कलकत्ता परिषद नें बहुमत से समझौते को अस्वीकार कर दिया।
एच.एच. विल्सन के अनुसार, वेनसिटार्ट तथा हेस्टिंग्स को छोड़कर कलकत्ता परिषद के सभी सदस्य केवल लालचपूर्ण तथा अन्याय और तर्क रहित बात कर रहे थे। यही नहीं, कलकत्ता परिषद के उन सदस्यों ने जो इस व्यापार से लाभ उठा रहे थे, मीर कासिम से झगड़े का स्वागत किया, क्योंकि नए नवाब से उन्हें पहले की भांति बहुत सा धन प्राप्त होने की आशा थी।
अंततोगत्वा मीर कासिम ने कठोर कार्यवाही की तथा सभी आंतरिक कर हटा लिए। अब भारतीय व्यापारी भी अंग्रेज व्यापारियों के समान हो गए। नवाब ने कोई अन्यायपूर्ण काम नहीं किया था वेनसिटार्ट तथा वॉरेन हेस्टिंग्ज का विश्वास था कि नवाब ने अपनी प्रजा पर एक अनुग्रह कर दिया है तथा हमारे पास इसका विरोध करने का कोई तर्क नहीं है।
अब मीर कासिम की बारी थी। उसने अपने ससुर के विरुद्ध षड्यंत्र रचा था, अब उसके पाप उसके सिर आ पड़े। वह अपनी इच्छानुसार राज्य नहीं कर सकता था। लोग उस पर हंसते थे तथा विवश होकर उसने बक्सर का युद्ध किया। परास्त हुआ था बेघर होकर भागते हुए 7 जून 1777 को उसकी मृत्यु हो गई।
बक्सर का युद्ध 1764 तथा उसका परिणाम
कंपनी तथा नवाब में युद्ध 1763 में ही आरंभ हो गया। कई झड़पें हुईं तथा मीर कासिम ने हार खाई। बचकर वह अवध पहुंचा तथा अवध के नवाब तथा मुगल सम्राट से मिलकर अंग्रेजों को बंगाल से बाहर निकालने की योजना बनाई। इन तीनों की संयुक्त सेना, जिसमें 40 से 50000 के बीच सैनिक थे की टक्कर कंपनी के सेना हुई।
कंपनी की सेना में 7027 सैनिक थे तथा उसकी कमान मेजर मुनरो के हाथ में थी। युद्ध बक्सर के स्थान पर 22 अक्टूबर 1764 को हुआ। दोनों दलों की क्षति अत्यधिक हुई परंतु मैदान अंग्रेजों के हाथ रहा।
बक्सर के युद्ध का परिणाम
युद्ध घमासान हुआ अंग्रेजों के 847 सैनिक घायल अथवा मारे गए तथा दूसरी और 2000 घायल अथवा मारे गए। प्लासी का युद्ध, युद्ध-कौशल से नहीं जीता गया था। वहाँ विश्वासघात हुआ था, परंतु यहां दोनों ओर से डटकर युद्ध किया गया।
बक्सर ने प्लासी के निर्णयों पर मुहर लगा दी। अब भारत में अंग्रेजों को चुनौती देने वाला कोई दूसरा नहीं रह गया था। अब नया नवाब उनकी कठपुतली था।
अवध का नवाब उनका आभारी तथा मुगल सम्राट उनका पेंशनर था। इलाहाबाद तक का प्रदेश अंग्रेजों के चरणों में आ गया तथा दिल्ली का मार्ग खुला था। इसके पश्चात बंगाल तथा अवध नें अंग्रेजों के अधिकार से बाहर आने का प्रयत्न नहीं किया तथा उनका फंदा और भी सुदृढ़ होता चला गया।
प्लासी के युद्ध ने बंगाल में अंग्रेजों की शक्ति को सुदृढ़ किया तथा बक्सर के युद्ध ने उत्तरी भारत में, तथा अब वे समस्त भारत पर दावा करने लगे थे।
इसके पश्चात मराठों तथा मैसूर ने कुछ चुनौती देने का प्रयत्न किया। परंतु भारत की दासता अब स्पष्ट थी केवल समय का प्रश्न था। बक्सर का युद्घ निर्णायक सिद्ध हुआ।
जी.बी. मालेसन के अनुसार “चाहे आप इसे देसी तथा विदेशियों के बीच द्वंद युद्ध समझे अथवा ऐसी सारगर्भित घटना जिसके परिणाम स्थायी तथा विशाल थे, बक्सर को सबसे निर्णायक युद्ध में गिना जाएगा। विजय से न केवल बंगाल ही मिला, न केवल इसने अंग्रेजी सीमा इलाहाबाद तक पहुंचा दीं, अपितु इससे अवध के शासक विजयी शक्ति से, कृतज्ञतापूर्ण निर्भरता, विश्वास के बंधनों से बंध गए जिसने आने वाले 94 वर्ष तक उनको मित्रों के मित्र तथा शत्रुओं के शत्रु बनाए रखें।
इलाहाबाद की संधि 1765
जब बक्सर की विजय का समाचार इंग्लैंड पहुंचा तो सबका मत यह था कि जिस व्यक्ति ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव रखी है उसे ही उस साम्राज्य को सुदृढ़ बनाने के लिए भेजा जाए। अतः क्लाइव को भारत में अंग्रेजी प्रदेशों का मुख्य सेनापति तथा गवर्नर बनाकर भेजा गया।
यहां आकर क्लाइव नें देखा कि उत्तरी भारत की समस्त राजनैतिक प्रणाली अनिर्णयात्मक अवस्था में है। बंगाल का प्रशासन पूर्णतया गड़बड़ था। कंपनी के कार्यकर्ता धन के लोभ तथा उससे उत्पन्न हुए अवगुणों में इतने जकड़े हुए थे कि कंपनी का व्यापार ठप्प हो रहा था तथा जनता पर अत्याचार हो रहा था।
अवध से संधि- क्लाइव का प्रथम कार्य परास्त शक्तियों के साथ संबंधों को निश्चित करना था। वह अवध गया तथा अवध के नवाब वजीर शुजाउद्दौला से इलाहाबाद के स्थान पर भेंट की तथा इलाहाबाद की संधि (16 अगस्त 1765 ) की। इसके अनुसार शुजाउद्दौला को उसके प्रदेश निम्नलिखित शर्तों पर लौटा दिए गए—
- नवाब इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले सम्राट शाह आलम को दे दे।
- वह युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए कंपनी को 50 लाख रूपया दे।
- वह बनारस के जागीरदार बलवंत सिंह को उसकी जागीर में प्रस्थापित करे।
इसके अतिरिक्त उसने कंपनी के साथ आक्रमण तथा रक्षात्मक संधि की जिससे उसे कंपनी के आवश्यकतानुसार नि:शुल्क सहायता करनी होगी तथा कंपनी नवाब की सीमाओं के रक्षार्थ उसे सैनिक सहायता देगी जिसके लिए नवाब को धन देना होगा।
शाह आलम से संधि-इलाहाबाद की दूसरी संधि ( अगस्त 1765 ) के अनुसार भगोड़े सम्राट शाह आलम को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया गया तथा उसे इलाहाबाद में रखा गया। इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले जो नवाब ने छोड़ दिए थे, शाह आलम को मिले।
शाह आलम ने अपने 12 अगस्त के फरमान द्वारा कंपनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी स्थाई रूप से दे दी। जिसके बदले कंपनी सम्राट को 26 लाख रुपया देगी तथा निजामत के व्यय के लिए 53 लाख रुपया देगी।
बंगाल की द्वैध शासन प्रणाली
बक्सर के युद्ध के उपरांत अंग्रेजों ने अपने कठपुतली नवाब मीर जाफर को बंगाल की गद्दी पर बैठाया, जिसने बंगाल की सेना की संख्या कम करने से संबंधित अंग्रेजों के प्रस्ताव को स्वीकार करके, स्वयं को सैनिक दृष्टि से पंगु कर लिया। उसकी चारित्रिक कमजोरी, जो पूर्व राजनीतिक अनुभवों के कारण और अधिक बढ़ गई थी, एवं शारीरिक रूप से अशक्त कर देने वाली उसकी (कोढ़ की) बीमारी के कारण राजनीतिक एवं प्रशासन में किसी प्रभावशाली भूमिका निर्वाह कर पाना उसके लिए बिल्कुल असंभव था।
अंग्रेजों द्वारा बक्सर की विजय और उसके कुछ माह उपरांत मीर जाफर की मृत्यु (फरवरी 1765) में बंगाल में कंपनी की सत्ता को पूरी तरह स्थापित कर दिया। अंग्रेजों ने मीर जाफर के अल्प आयु पुत्र नजमुद्दौला को उसका उत्तराधिकारी चुना और उसे (फरवरी 1765) में एक ऐसी संधि स्वीकार करने के लिए सहमत कर लिया , जिसके द्वारा बंगाल का शासन कंपनी के नियंत्रण में आ गया।
अल्पायु नवाब ने मुहम्मद रजा खाँ को अपना नायब सूबेदार या डिप्टी गवर्नर नियुक्त किया। उसे समस्त प्रशासनिक मामलों का प्रधान व्यवस्थापक बनाया।
द्वैध शासन प्रणाली का स्वरूप-1765 में इलाहाबाद की संधि बंगाल के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना थी, क्योंकि इसने उन प्रशासकीय परिवर्तनों को जन्म दिया जिन्होंने भारत में ब्रिटिश प्रशासानिक व्यवस्था के प्रचलन के आधार भूमि तैयार की। इससे नवाब की सत्ता का अंत हो गया और एक ऐसी व्यवस्था को जन्म दिया जिसमें अधिकारों की बड़ी चतुराई से उत्तरदायित्व से मुक्त रखा गया था।
दीवानी और निजामत
बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था का विवेचन से पूर्व दो शब्दों दीवानी और निजामत को स्पष्ट करना आवश्यक है मुगल प्रांतीय प्रशासन में दो प्रकार के अधिकारी होते थे सूबेदार या गवर्नर, जो निजामत (सैनिक प्रतिरक्षा, पुलिस और न्याय प्रशासन) कार्यो का निष्पादन करता था और दीवान प्रांतीय राजस्व एवं वित्त व्यवस्था का प्रभारी होता था, यह दोनों अधिकारी मुगल केंद्रीय प्रशासन के प्रति उत्तरदायी होते थे और एक-दूसरे पर नियंत्रण का प्रयोग करते थे, परंतु औरंगजेब की मृत्यु के समय मुर्शीद अली खाँ दोनों पदों पर एक साथ कार्य कर रहा था।
अंग्रेजों ने शाह आलम द्वितीय के साथ इलाहाबाद की संधि करके बंगाल के दीवानी अधिकार प्राप्त कर लिए और इसके बदले में कंपनी ने मुगल सम्राट को 26 लाख रुपए सालाना देने का वचन दिया और 53 लाख रुपए का प्रावधान निजामत कार्यों के लिए रखा गया।
इस संधि से पूर्व फरवरी 1765 में अंग्रेजों ने नवाब नजमुद्दौला के साथ एक अन्य संधि की जिसमें समस्त निजामत, अधिकार अर्थात सैनिक प्रतिरक्षा और वैदेशिक संबंध कंपनी को समर्पित कर दिए। इस प्रकार कंपनी ने बंगाल के दीवानी अधिकार मुगल सम्राट से और निजामत शक्तियाँ नवाब से प्राप्त कर लीं।
कंपनी दीवानी और निजामत कार्यों का निष्पादन अपने एजेंटों जो भारतीय होते थे के माध्यम से करती थी, परंतु वास्तविक शक्तियां कंपनी के हाथों में रही। कंपनी और नवाब दोनों द्वारा प्रशासन की व्यवस्था को बंगाल का द्वैध या दोहरा प्रशासन कहा जाता है।
इस समय कंपनी सीधे कर संग्रह करने का भार न तो लेना चाहती थी और न ही उसके पास ऐसी क्षमता थी। कंपनी ने दीवानी कार्य के लिए दो उप दीवान-
- बंगाल के लिए मोहम्मद रजा खां तथा
- बिहार के लिए राजा सिताब राय नियुक्त कर दिए ।
मोहम्मद रजा खां उपनिजाम के रूप में भी कार्य करते थे। इस प्रकार समस्त दीवानी तथा निजामत का कार्य भारतीयों द्वारा ही चलता था यद्यपि उत्तरदायित्व कंपनी का था। इस व्यवस्था को दोहरी प्रणाली की संज्ञा दी गई और दो राजे, कंपनी तथा नवाब व्यवहारिक रूप में यह व्यवस्था खोखली सिद्ध हुई क्योंकि समस्त शक्ति तो कंपनी के पास थी तथा भारतीय अधिकारी केवल बाहरी मुखौटा ही मात्र थे।
बंगाल की दौहरी शासन व्यवस्था का प्रभाव
बंगाल की इस दोहरी शासन प्रणाली द्वारा प्रशासनिक व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न होने लगा। अपनी धन की लोलुपता के कारण कंपनी के अधिकारी ईमानदार भारतीयों को अपने कर्मचारी के रूप में प्रयोग नहीं करते थे। भ्रष्ट भारतीय अपने मालिकों का अनुसरण करते थे।
सर जॉर्ज कॉर्नवाल ने कहा था “मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि 1765-84 तक ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार से अधिक भ्रष्ट, झूठी तथा बुरी सरकार संसार के किसी भी सभ्य देश में नहीं थी।” कृषि का ह्रास होने लगा, बंगाल में कृषि पर भूमि कर अधिक होता था तथा उसके संग्रह करने में भी बहुत कड़ाई होती थी।
विलियम बोल्ल्स जो कंपनी के एक कार्यकर्ता थे के अनुसार इन निर्धन लोगों को कई बार तो अपने बच्चे तक बेचने पड़ जाते थे तथा भूमि छोड़कर भाग जाना पड़ता था। 1770 में एक अकाल पड़ा जिससे अत्यधिक जान तथा माल की हानि हुई। उसे देख कंपनी के एक पदाधिकारी ने इस प्रकार लिखा था “आज जो करूणामय दृश्य देखने को मिलता है उसका वर्णन करना मनुष्य की शक्ति से परे है यह निश्चित है कि कुछ प्रदेशों में लोगों नें मृतकों को खाया है।”
इसी प्रकार व्यापार तथा वाणिज्य का विघटन हो गया। 1717 से बंगाल में अंग्रेजों को कर के बिना व्यापार करने की अनुमति थी। उसके अनुसार कंपनी के कलकत्ता स्थित गवर्नर की आज्ञा से कोई भी माल बिना निरीक्षण तथा बेरोकटोक इधर-उधर जा सकता था।
कर सम्बन्धि आज्ञा से सरकार को हानि हुई तथा भारतीय व्यापार भी नष्ट हो गया। इसी प्रकार उद्योग तथा दक्षता का ह्रास हुआ। बंगाल के कपड़ा उद्योग की बहुत हानि हुई। कंपनी ने बंगाल के रेशम के उद्योग को निरूत्साहित करने का प्रयत्न किया क्योंकि इससे इंग्लैंड के रेशम के उद्योग को क्षति पहुंचती थी।
बंगाली समाज का नैतिक पतन भी आरंभ हो गया। कृषक ने अनुभव किया कि यदि वह अधिक उत्पादन करता है तो ज्यादा कर देना पड़ता है तब केवल इतना ही उत्पादन करो जिसमें गुजर बसर हो सके।https://www.onlinehistory.in/
निष्कर्ष
इस प्रकार दो दशक से भी कम समय में बंगाल के वास्तविक प्रशासनिक तथा राजनीतिक शक्ति बंगाल के नवाब के हाथों से ईस्ट इंडिया कंपनी को हस्तांतरित हो गई। भारत का यह समृद्ध और औद्योगिक रूप से सर्वाधिक विकसित प्रांत भयंकर गरीबी और आपदापूर्ण कष्टों, जो अकालों और महामारियों के कारण और अधिक उग्र रूप धारण कर लेते थे, के गर्त में चला गया। अंग्रेजों द्वारा बंगाल पर अधिकार के तत्काल बाद ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के लिए भारत के सिंहद्वार उन्मुक्त हो गए, जिसके परिणामस्वरुप देश की समृद्ध अर्थव्यवस्था औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गई जिसकी चर्चा और विवेचन हम पहले ही कई लेखों में कर चुके हैं।
FAQs
1- प्रश्न: प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की जीत के प्रमुख कारक क्या थे?
उत्तर: 1757 में प्लासी की लड़ाई में ब्रिटिश जीत का श्रेय कूटनीतिक चालबाजी और सैन्य रणनीति के संयोजन को दिया जा सकता है। मीर जाफ़र के विश्वासघात और अंग्रेजों के साथ सहयोग, सिराजुद्दौला की सेना के भीतर आंतरिक असंतोष के साथ मिलकर, नवाब की स्थिति को काफी कमजोर कर दिया। इसने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को राजनीतिक स्थिति का फायदा उठाने और निर्णायक जीत हासिल करने की अनुमति दी।
2- प्रश्न: प्लासी की लड़ाई के बाद अंग्रेजों द्वारा लागू की गई आर्थिक नीतियों का बंगाल पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बंगाल में लागू की गई आर्थिक नीतियों, विशेषकर दोहरी प्रणाली और स्थायी बंदोबस्त का गहरा प्रभाव पड़ा। इन नीतियों का उद्देश्य क्षेत्र से अधिकतम राजस्व निकासी करना था, जिससे आर्थिक शोषण हो। दोहरी प्रणाली में भारतीय मध्यस्थों के माध्यम से राजस्व का संग्रह शामिल था, जबकि स्थायी निपटान ने भूमि राजस्व को अक्सर उच्च दरों पर तय किया, जिससे बंगाल की कृषि अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ा और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं में योगदान हुआ।
3- प्रश्न: भारत में ब्रिटिश विस्तार के संदर्भ में बक्सर की लड़ाई का क्या महत्व था?
उत्तर: 1764 में बक्सर की लड़ाई एक महत्वपूर्ण लड़ाई थी जिसने उत्तरी भारत पर ब्रिटिश नियंत्रण को मजबूत किया। मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय, अवध और अवध के नवाबों के ट्रिपल गठबंधन का सामना करते हुए ब्रिटिश सेना विजयी हुई। इसके बाद हुई इलाहाबाद की संधि ने आत्मसमर्पण की शर्तों को औपचारिक रूप दिया, जिससे बंगाल, बिहार और अवध पर ब्रिटिश प्रभाव बढ़ गया और भारत में उनके क्षेत्रीय विस्तार में एक महत्वपूर्ण चरण चिह्नित हुआ।
4- प्रश्न: प्लासी के बाद ब्रिटिश द्वारा शुरू किए गए प्रशासनिक सुधारों ने बंगाल में शासन को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर: प्लासी की जीत से बंगाल में महत्वपूर्ण प्रशासनिक सुधार हुए। अंग्रेजों ने नवाबी व्यवस्था को अपने स्वयं के प्रशासनिक ढांचे से बदल दिया और ब्रिटिश अधिकारियों को सत्ता के प्रमुख पदों पर बिठा दिया। इस पुनर्गठन का उद्देश्य ब्रिटिश हितों की बेहतर सेवा के लिए शासन को सुव्यवस्थित करना था। इन परिवर्तनों का बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य पर दूरगामी प्रभाव पड़ा, जिसने ब्रिटिश शासन को मजबूत करने में योगदान दिया।
5- प्रश्न: औपनिवेशिक काल के दौरान बंगाल में ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप कौन से दीर्घकालिक सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन हुए?
उत्तर: बंगाल में ब्रिटिश शासन की स्थापना के स्थायी सामाजिक-सांस्कृतिक परिणाम थे। अंग्रेजों ने क्षेत्र के सांस्कृतिक ताने-बाने को प्रभावित करते हुए पश्चिमी शिक्षा, कानूनी प्रणाली और प्रशासनिक प्रथाओं की शुरुआत की। शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को लागू करने और ईसाई धर्म के प्रसार ने बंगाल के सामाजिक परिदृश्य में क्रमिक परिवर्तन में योगदान दिया। इन परिवर्तनों ने बाद के वर्षों में भारतीय और पश्चिमी संस्कृतियों के संलयन के लिए आधार तैयार किया।
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