क्या मुग़ल सम्राट हिन्दू धर्म विरोधी थे -Religious policy of Mughal emperors from Babar to Aurangzeb

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वर्तमान में भारत की राजनीतिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए इस लेख को लिखने का विचार मन में आया। हमें आज तमाम लोग यह कहते दिख जायेंगे कि मुगलों ने हिन्दुओं और हिन्दू धर्म को बहुत क्षति पहुंचाई। इनमें से अधिकांश लोग किसी राजनितिक दल विशेष के अंध समर्थक होंगे या फिर वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ। लेकिन हम यह भी नहीं मान सकते कि मुग़ल धार्मिक रूप से धर्मसहिष्णु थे। इस लेख में हम ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर मुगलों की धार्मिक नीति का निष्पक्ष विश्लेषण करेंगे और वास्तविक स्थिति को पाठकों के सामने प्रस्तुत करेंगे। 

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क्या मुग़ल सम्राट हिन्दू धर्म विरोधी थे -Religious policy of Mughal emperors from Babar to Aurangzeb
 

मुग़ल कौन थे ?

भारत में मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर था जिसे बाबर के नाम से जाना जाता है। वंश क्रम में वह पिता की ओर से तैमूर से छठे तथा माता की ओर से चंगेज से पन्द्रहवें स्थान पर आता था। इस प्रकार वह तैमूर और चंगेज खां दोनों परिवारों से संबंधित था और उसमें मध्य एशिया के दो बड़े विजेताओं का रक्त मिला हुआ था। बारह वर्ष की आयु में बाबर के पिता सुल्तान उम्रशेख मिर्जा की मृत्यु हो गयी और बाबर फरगना ( उज्बेकिस्तान का मध्य प्रान्त ) का राजा बन गया। 

भारत पर मुगलों का अधिकार

पानीपत का युद्ध 1526- पूरी तैयारी करने के पश्चात् बाबर भारत को विजय करने निकल पड़ा। सबसे पहले उसे दौलत खान से युद्ध करना पड़ा, जिसने अलाउद्दीन को लाहौर से निकाल दिया था। उसको पराजित करने के पश्चात् बाबर सरहिन्द के रास्ते से दिल्ली की ओर बढ़ा। इब्राहिम लोदी बाबर से युद्ध करने के लिए दिल्ली से बाहर आ गया। विरोधी सेनाएं पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में आमने-सामने आ गईं। बाबर के पास विशिष्ट सुविधाएं थीं। उसके तोपखाने ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  इब्राहिम लोदी की पराजय हुई। फलस्वरूप दिल्ली और आगरे पर बाबर का अधिकार हो गया। 

डा. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार “पानीपत के युद्ध ने दिल्ली के साम्राज्य को बाबर के हाथों में सौंप दिया। लोदी वंश की शक्ति चूर-चूर हो गई और भारत वर्ष की सत्ता चग़ुताई तुर्कों हाथों में चली गई।”

मुगलों का राज्य सोलहवीं सदी में प्रारम्भ हुआ। उस समय की भारत की अवस्था ने उनकी धार्मिक नीति पर प्रभाव डाला। मुगलों से पहले भारत में सुल्तानों का शासन था। उन सुल्तानों ने हिन्दुओं के प्रति उदारता का बर्ताव नहीं किया। हिन्दुओं को विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किया गया शासन सत्ता में उनका कोई स्थान नहीं था। हिन्दुओं को जबरन मुसलमान  बनाया गया। परन्तु मुगलों ने सुल्तानों की धार्मिक नीति से सबक लेते हुए उस नीति को बदला और सत्लतनत के मुक़ाबले अधिक स्थायित्व के साथ साम्राज्य की नींव रखी। 

मुग़ल सम्राटों की धार्मिक नीति 

बाबर की धार्मिक नीति – यह भलीभांति ज्ञात है कि बाबर में चंगेज खां और तैमूर का रक्त था। उसमें धार्मिक कट्टरता लेशमात्र भी नहीं थी। तैमूर भी चंगेज का संबंधी था। उसमें भी धार्मिक कट्टरता नहीं थी। वह सुन्नी और सिया में कोई अंतर नहीं समझता था। वह कभी जिहाद करने वाला गाजी और कभी इस्लामेत्तर धर्मों का अनुयायी था। ऐसी ही परम्परा उसके वंशजों में थी। 

बाबर को खुदा में बहुत विश्वास था। बाबर का मानना था कि यदि सच्चे दिल से प्रार्थना की जाये तो वह अवश्य ही स्वीकार होती है और खुदा वैसा  ही करता है जैसा प्रार्थना करने वाला मांगता है। बाबर नमाज पढता था और रोजे भी रखता था।  अपनी अकांक्षाओं को पूरा करने के लिए वह शिया बन गया। वह धार्मिक आडंबरों को कोई महत्व नहीं देता था। उसने एक शिया महिला से विवाह किया और उसे सबसे अधिक प्यार किया। उसने शिया पत्नी के पुत्र हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी भी बनाया। इन सब बातों का यह प्रभाव था कि उसने किसी वर्ग पर भी अत्याचार नहीं किया।

यद्यपि वह कट्टर सुन्नी था।परन्तु गजनी के महमूद की तरह धर्मांध नहीं था। उसने हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा-भाव से लिखा है और उनके विरुद्ध जिहाद को वह एक पवित्र कर्तव्य मानता था।उसने फतेहपुर सीकरी और चंदेरी में हिन्दुओं की खोपड़ियों का एक बुर्ज निर्माण करने की आज्ञा दी थी।

हुमायूं की धार्मिक नीति- हुमायूँ की धार्मिक नीति भी बाबर के समान थी। उसे धार्मिक मामलों में बड़ी रुचि थी। अकबर की माता शिया थी। बैरम खां भी शिया था। शाह अबुल माली जो हुमायूँ का विशेष कृपापात्र था, वह भी शिया था। बहुत समझाने  और बुझाने पर हुमायूँ ने शिया धर्म स्वीकार किया। उसने सूफियाना ढंग से दरबार का गठन किया। उसने अपने-आपको सूर्य और अपने दरबारियों को ग्रह-नक्षत्र और तारे बताया। 

अकबर की धार्मिक नीति – अकबर की माता ( हमीदा बानू बेगम ) शिया थी जिसका संबंध एक सूफी परिवार से था। उसका जन्म एक राजपूत की छत्रछाया में अमरकोट के स्थान पर हुआ था।  उसके शिक्षक  शिया थे या सुलह-कुल की नीति में विश्वास रखने वाले थे। उसने अपना राज्य का कार्य पंजाब से शुरू किया जहां गुरु नानक ने हिन्दुओं और मुसलमानों में धार्मिक सहिष्णुता का उपदेश दिया था।  उस बातावरण ने भी अकबर पर प्रभाव डाला होगा। 

अकबर की धार्मिक नीति का स्वरूप तथा उद्देश्य 

इतिहासकारों ने अकबर की धार्मिक नीति और उद्देश्यों के विषय में परस्पर विपरीत मत प्रस्तुत किये हैं। विन्सेंट स्मिथ तथा के० ए० निजामी के मत में वह पैगम्बर-शासक का रूतवा (पद ) प्राप्त करने की चेष्टा कर रहा था। उन्होंने अकबर के इस कार्य की निंदा की है। दूसरी ओर अतहर अली आदि कुछ इतिहासकारों  के अनुसार अकबर  का उद्देश्य एक धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना करना था।

एक अन्य मत जिसके प्रतिपादक मुख्यतः आई. एच. कुरेशी हैं, अकबर परम्परावादी इस्लाम का उत्पीड़न कर रहा था, जबकि इक्तिदार आलम खां के अनुसार अकबर की धार्मिक नीति का उद्देश्य अभिजात प्रशासक वर्ग में, जिसका गठन विभिन्न जातियों, वर्गों, तथा धर्मों द्वारा किया गया था , संतुलन पैदा करना था।

अकबर के व्यक्तिगत धार्मिक विचार क्या थे और उन्होंने अकबर की धार्मिक नीति को किस हद तक प्रभावित किया, इस विषय पर भी भारी मतभेद हैं। अकबर की धार्मिक नीति की समीक्षा के लिए हमें उसका अध्ययन एक व्यापक परिप्रेक्ष में करना होगा। 

अकबर की धार्मिक विचारधारा के विभिन्न चरण हैं जिसके क्रमबद्ध अध्ययन से उसके उद्द्देश्य सुस्पष्ट हो जाते हैं —

प्रथम चरण – 1562-1574 

अकबर ने अपने शासन के प्रारंभिक चरण में ऐसी कई उदारवादी नीतियां अपनाईं जिन्हें मुग़ल साम्राज्य को एक नवीन सैद्धांतिक आधार प्रदान करने की दिशा में प्रथम आयाम माना जा सकता है। उसने युद्ध में  मारे गए या बंदी बनाये गए लोगों के परिवारों को दास बनाए जाने की प्रथा समाप्त कर दी। इस संबंध में अबुल फजल का कथन है : यदि पति धृष्टतापूर्ण व्यवहार करते हैं तो इसमें पत्नियों का क्या दोष? इसी प्रकार यदि पिता विरोध का मार्ग अपनाते हैं तो इसमें बच्चों का क्या दोष है? यही नहीं, ऐसे लोगों की पत्नियां तथा भोले-भाले बच्चे युद्ध की सामग्री का हिस्सा नहीं हैं। 

धार्मिक कर की समाप्ति

   1563 में अकबर ने धार्मिक यात्रा कर को समाप्त कर दिया। अबुल फजल बताता है कि इस कर से प्रतिवर्ष एक करोड़ की आय होती थी। अबुल फजल के अनुसार अकबर ने अपने कार्य को इस प्रकार उचित ठहराया : “यद्यपि किसी सम्प्रदाय-विशेष ( गैर मुसलमान ) में ज्ञानाभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है, किन्तु उस सम्प्रदाय-विशेष के अनुयायियों से जिन्हें यह एहसास ही नहीं कि वे गलत राह पर हैं, पैसा वसूल करना तथा इस प्रकार अद्वैत के अलौकिक प्रवेश द्वार के मार्ग में, जो उन्होंने अपनी समझ-बूझ के अनुसार अपनाया है तथा जिसे वे कर्ता की उपासना का माध्यम समझते हैं, रोड़ा अटकाने के कार्य को विवेकसम्मत बुद्धिजीवियों ने नापसंद किया है तथा इसको ईश्वर की इच्छा का पालन न करने का चिह्न समझा है।”

जजिया कर की समाप्ति 

अकबर द्वारा जजिया कर समाप्त करने की तिथि के विषय में कुछ मतभेद हैं। जजिया कर वह कर था जो मुस्लिम राज्य में रहने वाली गैर-मुस्लिम प्रजा से लिया जाने वाला व्यक्तिगत कर ( poll-tax ) था। अबुल फजल ने इसकी समाप्ति की तिथि मार्च 1564 बताई है। उसका कहना है कि पहले के शासक इस कर को अन्य धर्मों को शक्तिहीन बनाने तथा उसके प्रति अपनी घृणा प्रदर्शित करने का एक साधन समझते थे।

किन्तु अकबर धर्मों के मध्य भेदभाव नहीं करता था व उसे अतिरिक्त राजस्व की भी आवश्यकता नहीं थी। इसलिए उसने इस कर को समाप्त कर दिया। किन्तु बदायूंनी ने जजिया कर की समाप्ति का वर्ष 1579 ईस्वी बताया है। वह इस विषय में कोई विशेष विवरण नहीं देता। 

उद्देश्य: अकबर द्वारा किये गए उपर्युक्त उपायों के विषय में इक्तिदार आलम का मत है कि यह राजपूतों को वश में करने की नीति का एक हिस्सा था जो उसने उज्बेकों की शक्ति को प्रति-संतुलित करने की निति थी। वह राजपूतों की शक्ति का प्रयोग उज्बेकों के विरुद्ध करना चाहता था। यह भी सम्भव है कि ये कार्य अकबर के उदार तथा मानवतावादी दृष्टिकोण से प्रेरित हुए हों तथा मुग़ल साम्राज्य को नवीन सैद्धांतिक आधार प्रदान करने की दिशा में आरंभिक उपाय हों।

यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि शासन के आरम्भिक वर्षों में अकबर राज्य के परम्परावादी इस्लाम-प्रधान स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करना चाहता था। 1568 में चित्तौड़ की विजय के बाद जारी किए जाने वाले फतहनामा में चित्तौड़ की विजय को काफिरों के प्रति जिहाद कहा गया। विजय का उद्देश्य बहुदेववाद की समाप्ति  था।

1569 में इस्फ़हान के मिर्जा मुकीम तथा कश्मीर के मीर याकूब को उलमा की सम्मति से शिया-सुन्नी आधार पर मौत की सजा दी गई। अकबर ने बाद में स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है कि पहले वह इस्लाम को न मानने वालों का उत्पीड़न करता था तथा इसी को इस्लाम समझता था। जैसे-जैसे मेरा ज्ञान बढ़ा मैं यह सोच-सोच कर शर्मिंदा हुआ। 

द्वतीय चरण – 1575-1579 

इबादतखाना का निर्माण – अकबर की धार्मिक नीति के विकास का दूसरा आयाम 1575 ईस्वी में इबादतखना की स्थापना से प्रारम्भ होता है जो धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद के उद्देश्य से बनवाया गया था। पिछले दशक में मुग़ल साम्राज्य के प्रभुत्व की स्थापना में आश्चर्यजनक सफलता मिलने के कारण अकबर यह विश्वास करने लगा था कि उसे दैवी अनुकम्पा विशेष रूप से प्राप्त है जिसके कारण धार्मिक विषयों के प्रति उसकी स्वाभाविक जिज्ञासा जाग्रत होने लगी थी।

बदायूंनी का कथन है “पादशाह को कई वर्षों तक युद्धों में उल्लेखनीय व अपार सफलता प्राप्त होती रही थी।  साम्राज्य के स्वरूप में दिन-प्रतिदिन विस्तार हो रहा था……. ( पादशाह ) अब अपना समय “ईश्वर के वचन” व “पैगम्बर के वचनों” की चर्चा में व्यतीत करते थे। पादशाह सलामत की रुचि सूफी मत से संबंधित प्रश्नों,विद्वतापूर्ण चर्चा, दर्शन तथा फ़िक़्ह की गूढ़ताओं  के विषय में जिज्ञासा-समाधान आदि में अधिकाधिक बढ़ती जा रही थी। 

अकबर अपनी अतीतकालीन सफलताओं के लिए कृतज्ञता की भावना से द्रवित होकर वह सुबह के समय घंटों प्रार्थना व चिंतन में अपना समय व्यतीत करता था। अकबर वाद-विवाद के दौरान स्वयं वह उद्देश्य व्यक्त किया था “हे ज्ञानियों तथा मुल्लाओं मेरा एकमात्र उद्देश्य सत्य की जाँच करना तथा वास्तविकता का पता लगाना है, ( अतः ) आपको सत्य को छुपाना नहीं चाहिए और न ही अपनी मानवीय कमजोरियों के प्रभाववश ऐसी कोई बात करनी चाहिए जो सत्य के विपरीत हो। अगर आप ऐसा करेंगे तो आप अपनी कर्तव्य-शून्यता के परिणामों के लिए ईश्वर के सम्मुख स्वयं उत्तरदायी होंगे।”

उलेमाओं के प्रभाव को समाप्त करने उद्देश्य से अकबर ने 26 जून 1579 को फतेहपुर सिकरी की जामा मस्जिद में स्वयं खुतबा पढ़ने का साहस दिखाया। इसी दौरान उसने इस तथ्य भी बल दिया कि उसने अर्थात पादशाह ने अपनी सत्ता ईश्वर से प्राप्त की है। यद्यपि अकबर द्वारा किसी अन्य अवसर पर खुतबा पढ़े जाने का कोई संदर्भ नहीं मिलता किन्तु खुतबा पढ़ने की कार्यवाही का महत्व है क्योंकि इसके द्वारा अकबर ने उलमा को अपनी शक्ति के अधीन करने का दृढ़ संकल्प प्रस्तुत कर दिया था। 

अकबर द्वारा धार्मिक व भौतिक सत्ता को अपने हाथ में केंद्रित करने का विधिवत कार्य अगस्त-सितम्बर 1579 में महजर नामक दस्तावेज द्वारा हुआ। महजर जारी करने की प्रेरणा शेख-मुबारक तथा उसके पुत्र फैजी व अबुल फजल द्वारा दी गयी थी। उलमा ने इन दोनों पर महदवी व शिया होने का आरोप लगाकर उनका उत्पीड़न किया था। वे उलमा की शक्ति में कटौती का मौका पाकर खुश थे।

शेख मुबारक ने अकबर से कहा “पादशाह सलामत इस दौर के इमाम तथा मुज्तहिद ( जो शरअ की व्याख्या करने में सक्षम हो ) हैं.” आपको धर्मेत्तर विषयों में इन उलमा की सहायता की क्या आवश्यकता है?” महजर ने अकबर को यह अधिकार दिया कि उलमा में किसी विषय पर मतभेद होने की दशा में वह साम्राज्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए किस एक विचार को, जिसे वह सर्वोत्तम समझें, मान्यता दे सकता है। 

सैयद ए० ए० रिज़वी के मतानुसार “महजर का उद्देश्य उन सभी विषयों को, जो अकबर की हिन्दू-मुसलिम प्रजा से संबंधित थे, पादशाह के प्रत्यक्ष नियंत्रण में लाना था।” सम्भतः यह मत ही सबसे उपयुक्त लगता है। 

अंतिम चरण 1579-1605 

1579 के बाद के  काल में मुग़ल साम्राज्य के लिए अकबर ने उदार सैद्धांतिक आधार तैयार करने का कार्य संपन्न किया। इस कार्य में अबुल फजल ने प्रमुख भूमिका निभाई।  उसने अकबर की मुग़ल साम्राज्य की सैद्धांतिक आधार संबंधी अवधारणा को भली-भांति समझ लिया था तथा उसे एक विस्तृत व जटिल विचार पद्धति में ढाल दिया। आईने अकबरी तथा अकबरनामा इस विचार पद्धति की विवेचना की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे इस्लाम के विकल्प का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

दीन-इलाही ( 1581 ) – 1581 ईस्वी में अकबर ने अपने धार्मिक विश्वासों के अनुकूल एक धर्म की स्थापना की जो इतिहास में दीन-इलाही के नाम से विख्यात है। अकबर का एकमात्र ध्येय धार्मिक समन्वय स्थापित करना था।  यह घोषणा उसने सभी धर्मों के विचारकों की एक सभा में की। उसमें सभी धर्मों के सिद्धांतों का सार मौजूद था। 

अबुल फजल ने दीन-ए-इलाही के विभिन्न रीति-रिवाजों की चर्चा की है। उस नए संप्रदाय/धर्म  का सदस्य बनने के लिए जिन-जिन नियमों का पालन आवश्यक था, उनकी व्याख्या भी अबुल फजल ने की है। दीन-ए-इलाही को स्वीकार करने के लिए अकबर से दीक्षा लेनी पड़ती थी और उसको गुरु मानना पड़ता था।

जो दीक्षा लेता था उससे आशा की जाती थी कि वह सम्राट के अनुकरण द्वारा अपना सुधार करे और आवश्यकता के अनुसार उससे मौखिक शिक्षा ग्रहण करे। जब दीन-ए-इलाही के दो सदस्य आपस में मिलते थे तो वह एक दूसरे का अल्लाह हू अकबर और जल्ला जलालहू द्वारा अभिवादन करते थे इत्यादि । 

यह बात ध्यान रखने योग्य है कि अकबर ने कभी भी दूसरे धर्म प्रचारकों की तरह जोर डालकर किसी को दीन ए इलाही का सदस्य ना बनाया। अपने धर्म को किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया।  उसके सारे दरबार में से केवल 18 व्यक्ति ऐसे थे जो दीन ए इलाही के अनुयाई बने। जिन लोगों ने नया धर्म स्वीकार किया उनके कुछ नाम थे शेख मुबारक, अबुल फजल, फैजी, मिर्जा जानी, अजीज कोका, राजा बीरबल आदि। बदायूंनी  जैसे कट्टर मुसलमानों ने इसकी कड़ी आलोचना की है।

वी० ए० स्मिथ ने लिखा है कि दीन ए इलाही अकबर की घोर मूर्खता का परिचायक था उसकी बुद्धिमत्ता का नहीं। निष्पक्ष इतिहासकारों ने अकबर की सूझबूझ की प्रशंसा की है। वान नोअरर इतिहासकार ने दीन-ए-इलाही के विभिन्न सिद्धांतों की व्याख्या की है और बदायूंनी की निंदा की है और स्पष्ट शब्दों में घोषणा की है कि मानवता के साधकों के बीच इतिहास में अकबर का ऊंचा रहेगा और आने वाली पीढ़ियां मानवता के पुजारी को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगी और सम्मान से याद करेंगी।

यह कहा जाता है कि दीन-ए-इलाही का राजनीतिक महत्व धार्मिक महत्व से अधिक प्रभावशाली था। इससे सारे मुगल साम्राज्य में राजनीतिक एकता स्थापित हो सकी। जिस प्रकार अकबर ने एक नए विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी, उसी प्रकार वह एक नए धर्म की स्थापना करना चाहता था। जिस प्रकार उसने धीरे-धीरे एक-एक प्रांत को जीतकर एक नए विशाल साम्राज्य को जन्म दिया था, उसी प्रकार वह सभी धर्मों के सिद्धांतों का सार निकाल कर एक स्थान पर इकट्ठा करना चाहता था।

परंतु अकबर अपने उत्साह में यह भूल गया कि साम्राज्य की स्थापना की भांति धर्म का निर्माण नहीं होता और विभिन्न तत्वों को भिन्न-भिन्न स्थानों से लाकर छोड़ा नहीं जा सकता। जिन लोगों ने धर्मों की स्थापना की, उन्होंने ऐसा करने की कभी चेष्टा न की। 

मानवता के प्रति प्रेम भावना से प्रेरित होकर उन्होंने सत्य, ईश्वर और जीवन के रहस्यों को अपने व्यक्तिगत अनुभव और साधना के आधार पर जनसमुदाय के बीच रक्खा, और उन पर  अपने ढंग से प्रकाश डाला और बाद में उनके अनुयायी विभिन्न दलों अथवा सम्प्रदायों में सिद्धांत के आधार पर बँट गये। इस प्रकार बिना उनके प्रयासों से नए-नए संप्रदायों का जन्म हुआ।

अकबर ने जो कुछ किया वह इसके विपरीत था। उसने मूलभूत सिद्धांतों की घोषणा पहले की और फिर अपने धर्म को सुनियोजित करने की व्यवस्था की। यही कारण है कि अकबर की मृत्यु के साथ दीन-ए-इलाही की मृत्यु हो गई। परंतु यह मानना पड़ेगा कि दीन-ए-इलाही का देश की राजनीति पर बड़ा प्रभाव पड़ा।

अपनी धार्मिक सहिष्णुता और उदारता की नीति द्वारा अकबर ने यह सिद्ध कर दिया कि इस्लाम और हिंदू धर्म में कोई मौलिक अंतर नहीं है। यदि अंतर है तो केवल कर्मकांड में। दीन-ए-इलाही द्वारा उसने ऐसे धर्म की व्यवस्था करनी चाही जिसमें सभी धर्मों के सत्य सम्मिलित हों। निश्चय ही यह एक साहसिक कदम था। साथ ही हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता की दिशा में क्रांतिकारी प्रयास भी हुआ। धार्मिक क्षेत्र में हिंदू और मुसलमानों के बीच एकता स्थापित करके अकबर राजनीतिक क्षेत्र में भी उन दोनों के बीच मैत्री का वातावरण तैयार करना चाहता था।

राजनीतिक क्षेत्र में कुछ हद तक अकबर अपने उद्देश्य में सफल भी हुआ परंतु धार्मिक क्षेत्र में नहीं। फिर भी दीन-ए-इलाही मानव द्वारा धार्मिक शक्तियों की खोज की दिशा में इतिहास में अपना एक अभूतपूर्व स्थान रखता है।

  अकबर की धार्मिक नीति के संबंध में कहा जा सकता है कि कट्टरपंथी मुसलमानों ने उसकी कठोर आलोचना की। वे नहीं चाहते थे कि इस्लाम के अलावा और किसी धर्म को प्रमुखता दी जाए। उनकी दृष्टि में दूसरे धर्मों  पर अत्याचार न करना इस्लाम के सिद्धांतों की अवज्ञा थी।

अकबर ने उलेमा के जीवन की जांच कराई और जो ठीक न पाए गए उनको उनके पद अथवा दान से वंचित कर दिया गया। इससे मुसलमानों में असंतोष फैल गया। अकबर ने मांसाहार पर कुछ प्रतिबंध लगाए जिनको मुसलमानों ने धार्मिक अत्याचार ठहराया। मुसलमानों ने अकबर की कई इस्लाम-विरोधी चीजों की निंदा की।

इसके विपरीत वे सब लोग जिन पर धार्मिक असहिष्णुता के कारण अत्याचार होते आए थे, उन्होंने अकबर की धार्मिक नीति का स्वागत किया। हिंदू , जैन, पारसी आदि उसकी धार्मिक नीति से संतुष्ट हुए और वे मुगल साम्राज्य के सेवक और समर्थक बन गये।  लोगों ने अकबर की सब प्रकार से सहायता की और अपना पूरा सहयोग दिया। वे उसकी सेना में भर्ती होकर मुगल साम्राज्य के लिए लड़े। उन्होंने सरकार की नौकरी की और प्रशासन को अच्छी प्रकार चलाया। जब तक अकबर की धार्मिक नीति उसके उत्तराधिकारियों ने अपनाई मुगल साम्राज्य की नींव मजबूत रही। जब उसकी धार्मिक नीति त्याग दी गई तो उसके परिणाम भयंकर निकले। मुगल साम्राज्य का विस्तार और पतन हो गया।

जहांगीर की धार्मिक नीति-

जहांगीर की माता राजपूतनी थी। उसका बचपन इबादत खाना के वातावरण में गुजरा था उसका शिक्षक अब्दुर्रहीम खानखाना वैष्णव विचारों से प्रभावित था। जहांगीर को पंडितों, पादरियों और जैन विद्वानों से मिलने-जुलने का अवसर मिला था। अकबर के दरबार और राज महल में धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का वातावरण था।

  जहांगीर इस्लाम का बड़ा आदर करता था और यह भावना उसके जीवन के अंत तक रही। उसने इस्लाम स्वीकार करने वालों को इनाम और इस्लाम छोड़ने वालों को दंड दिया। उसने शराब का खुलेआम बिकना रोका और उसने संपत्ति की जब्ती से प्राप्त धन का चौथा भाग मस्जिदों के निर्माण में खर्च किया।

  उसकी धार्मिक नीति अपने पिता की अपेक्षा कठोर और पक्षपातपूर्ण थी। उसने कांगड़ा विजय के बाद ज्वालामुखी का मंदिर तुड़वा दिया। उसने अजमेर में वाराह का मंदिर तुड़वा दिया। जहांगीर को यह संदेह हुआ कि जैनियों ने उसके पुत्र खुसरो का समर्थन किया था। इसलिए उसने जैनियों को अपने साम्राज्य से बाहर निकलने का आदेश दिया। उसने आरोप लगाया कि गुरु अर्जुन देव ने खुसरो की सहायता की थी।गुरु अर्जुन पर एक लाख का जुर्माना किया गया।

जब गुरु अर्जुन ने जुर्माना देने से इनकार किया, तो राजद्रोह के अपराध में गुरु अर्जुन को मृत्युदंड दिया गया। जहांगीर ईसाइयों की नीतियों से नाराज हुआ और उनके गिरजाघर को बंद करवा दिया।

जहांगीर ने इस बात का ध्यान नहीं किया कि उसके किसी कार्य से कोई परेशान होता है अथवा दुखी होता है। उसके  कार्यों का प्रभाव व्यक्तियों और स्थान विशेष तक सीमित रहा। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उसने असहिष्णुता की नीति अपनाई परंतु उसने असहिष्णुता की नीति की पृष्ठ्भूमि अवश्य तैयार की। जितना वह मुसलमानों का ख्याल रखता था उतना दूसरों का नहीं।

शाहजहां की धार्मिक नीति-

शाहजहां जन्म की दृष्टि से तीन चौथाई राजपूत था। परंतु आरंभ से ही उसने इस्लाम के प्रति अधिक कट्टरता दिखाई। वह नमाज और रोजा का पक्का था। जब वह राजधानी में होता, रोजे में नागा नहीं करता था। वह इस्लामी वेश में रहता था।

शाहजहां ने अपने राज्य-काल के प्रारंभिक वर्षों में धार्मिक असहिष्णुता और इस्लाम के प्रति पक्षपात की नीति अपनाई। उसने सिजदा बंद करा दिया। सम्राट के चित्र को पगड़ी या टोपी में लगाने की मनाही कर दी।  उसने इलाही संवत बंद कर दिया और हिजरी संवत चलाया। उसने हिंदुओं को मुसलमान दास-दासी खरीदने, मुस्लिम वेश में रहने और मुस्लिम स्त्रियों से विवाह करने की मनाही कर दी। उसने यह भी आदेश दिया कि जिन व्यक्तियों ने मुसलमान स्त्रियों से विवाह किए हुए हैं वे या तो अपनी पत्नियों को छोड़ दें अथवा आप मुसलमान बनकर मुसलमानों के ढंग से मुसलमान स्त्रियों से निकाह करें।

सरहिंद निवासी दलपतराय ने इस आदेश का उल्लंघन किया और उसका यह परिणाम हुआ कि उसे बहुत यातनाएं देने के बाद उसकी बोटी-बोटी करवा कर उसकी हत्या कराई गई। 1633 ईस्वी में यह आदेश दिया कि सारे नए मंदिर तोड़ दिया जाएं। उस आदेश के अनुसार काशी में 72 मंदिर तोड़े गए। गुजरात, कश्मीर और प्रयाग में कई मंदिर तोड़े गए।  ओरछा में भी कई मंदिर तोड़े गये और कुछ मंदिरों को मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया गया।

शाहजहां ने रमजान के माह में प्रतिवर्ष 30 हज़ार रुपया दान दिया। उसने प्राय: 40-50 हज़ार रुपया प्रति वर्ष दान के लिए मक्का भेजा। उसने एक ऐसा विभाग बनाया जिसका काम लोगों को मुसलमान बनाना था। उस  विभाग द्वारा इस्लाम का प्रचार किया गया। किसी हिंदू को उस प्रचार का विरोध करने का अधिकार नहीं था।

कई लोग मुसलमान बन गए और उन्हें धन भी दिया गया और नौकरियां भी। राजसिंह कछवाहा का पुत्र बख्तावर सिंह मुसलमान बन गया और उसे दो हज़ार रुपए का इनाम दिया गया।  शाहजहां ने  एक ऐसा कानून बनाया कि यदि कोई हिंदू मुसलमान बन जाए तो उसे अपनी पैतृक संपत्ति का भाग उसी समय दिलवा दिया जाए। कई स्थानों पर लोगों को जबरदस्ती मुसलमान बनाने की चेष्टा की गई ऐसा जुझार सिंह के परिवार के साथ किया गया।

 कहा जाता है कि इसके बावजूद शाहजहां ने धार्मिक अत्याचार और पक्षपात की नीति का पालन स्थाई रूप से नहीं किया। उसने जजिया दुबारा नहीं लगाया। यद्यपि उसने तीर्थयात्रा कर लगाना चाहा तथापि काशी के पंडित कविंद्र आचार्य के कहने पर उसने उसे बंद कर दिया। उसके शासन-काल के पिछले वर्षों में मंदिरों के तोड़ने की घटनाएं न हुईं।  उसने हिंदुओं को अनेक पदों से न हटाया। राजा जसवंत सिंह छ: का मनसबदार था। राय रघुनाथ सरकार का दीवान था।

लगभग 20 से 25% सरकारी नौकरी हिंदुओं के पास थीं।  हिंदू कवियों, कलाकारों और विद्वानों को पहले की तरह सरकार की ओर से प्रोत्साहन मिलता रहा। सुंदरदास, चिंतामणि, कविंद्र आचार्य, महाकवि राय पंडित जगन्नाथ और सुखसेन  को सरकार से सहायता और प्रोत्साहन मिला। शाहजहाँ ने चिंतामणि के मंदिर को फिर से बनाने की आज्ञा दे दी।

खंभात के नागरिकों ने शाहजहाँ से प्रार्थना की और उसने गो-वध बंद कर दिया। उड़ीसा में मयूर-बध करने वालों को कोड़े लगवाए गए। यह कहा जाता है कि शाहजहाँ हिंदुओं से घृणा नहीं करता था। उसने उपेक्षा, अत्याचारों, और घृणा की नीति को नहीं अपनाया।

औरंगजेब की धार्मिक नीति- 

औरंगजेब ने राजसिंहासन पर बैठने से पहले साम्राज्य में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर दो दल बन गए थे। एक दल दारा के उदार भावों का समर्थक था और दूसरा दल औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता का समर्थक था। कट्टरपंथी मुसलमानों ने औरंगजेब का समर्थन किया। मेवाड़ के राणा ने भी औरंगजेब का साथ दिया। राठौरों, कछवाहों  और बुंदेलों ने दारा का समर्थन किया और औरंगजेब का विरोध।

औरंगजेब पक्का मुसलमान था। वह रोजे रखता था और नमाज पढ़ता था। वह शराब नहीं पीता था। उसका चरित्र निष्कलंक था। वह अल्लाह पर पूरा विश्वास रखता था। वह कुरान शरीफ पढ़ता ही नहीं था बल्कि नकल भी करता था। उसका जीवन सादा  था। वह सादा खाता था और सादा पहनता था। वह मुस्लिम आदर्शों का भक्त था। वह खिलाफत के आदर्शो पर चलकर शासन करना चाहता था। वह हिंदुओं और मुसलमानों में भेदभाव करता था। वह मुसलमानों को हिंदुओं से श्रेष्ठ समझता था। वह हिंदुओं को जिम्मी के सब अधिकार देने को तैयार था परंतु इस्लामी शासन के प्रधान की हैसियत से इस्लाम का विस्तार करना अपना परम कर्तव्य समझता था।

सिंहासन पर बैठने के बाद औरंगजेब ने उन सब प्रथाओं को बंद करने का आदेश दिया जिनको अकबर या जहांगीर ने चलाया था और जो औरंगजेब के विचार में इस्लाम के सिद्धांतों के विरुद्ध थीं। इस प्रकार औरंगजेब ने सिक्कों पर कलमे का खुदवाना, झरोखा दर्शन, तुला दान करना और मादक वस्तुओं का प्रयोग बंद कर दिया। उसने मुहतसिब  के अधिकार बढ़ा दिए। आगे के लिए मुहतसिब  का यह कर्तव्य होना था कि वह मुसलमानों को इस्लाम के सिद्धांतों के नियमों के अनुसार चलने के लिए बाध्य करे।

मुहतसिब की सहायता के लिए औरंगजेब ने सैनिक और अहादि भी नियुक्त किए। औरंगजेब ने हिंदू विधि के अनुसार नमस्कार करना और हिंदू राजाओं के तिलक करना बंद कर दिया। उसने संगीत का बहिष्कार कर दिया। उसने नौरोज के उत्सव को बंद कर दिया। कब्रों  को छत से ढकने की प्रथा बंद कर दी। महिलाओं का मजार पर जाना बंद कर दिया। औरंगजेब ने पुरानी मस्जिदों की मरम्मत कराई और उनके नये इमाम आदि नियुक्त किये। 

औरंगजेब ने सड़कों पर होली खेलना और होली के लिए पैसा या लकड़ी मांगना बंद कर दिया। उसने सती प्रथा को बंद कर दिया। हिंदू पाठशालाओं, मेलों और धार्मिक उत्सवों पर प्रतिबंध लगाए गए।

1665 ईस्वी  में औरंगजेब ने राजपूतों के अतिरिक्त अन्य हिंदुओं का हथियार लेकर चलना और हाथी या अच्छी जाति के घोड़े और पालकी पर चढ़ना बंद कर दिया।

1665 ईस्वी में औरंगजेब ने पशुओं और मनुष्यों की मूर्तियां बनाना बंद करवा दिया। उसी समय औरंगजेब ने नए बने हुए या मरम्मत किए हुए गुजरात के सब मंदिर तुड़वा दिए। 1666 ईस्वी में मथुरा के केशवराय मंदिर कापत्थर का घेरा तुड़वा दिया गया।

1669 ईस्वी में यह आदेश दिया गया कि सारे मुगल साम्राज्य में नए मंदिर गिरवा दिए जाएं। मथुरा का केशवराय मंदिर तोड़ दिया गया। प्रयाग, काशी, अयोध्या, हरिद्वार इत्यादि हिंदुओं के तीर्थ स्थानों पर सहस्रों मंदिर तोड़ दिए गए।

ऐसा लिखा है कि वेणीमाधव के मंदिर के पास बनी हुई मस्जिद के संबंध में स्थानीय हिंदुओं और मुसलमानों में डटकर युद्ध हुआ। हिंदुओं ने मस्जिदों को तोड़ डाला और जब मुगल सेना आई तो उसने पुराने मंदिर भी गिरा दिए। ऐसा प्रतीत होता है जहां हिंदुओं का विरोध प्रबल था अथवा जहां सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत देकर खुश कर लिया गया वहां के कुछ मंदिर बच गए।

हिंदुओं को मुसलमान बनाने के लिए औरंगजेब ने कई कदम उठाए। 1665 ईस्वी  औरंगजेब ने आदेश दिया कि आयात और निर्यात कर हिंदुओं से मुसलमानों की अपेक्षा दुगना लिया जाए। दो वर्ष बाद यह आदेश दिया गया कि मुसलमानों को न आयात कर न निर्यात कर देना होगा।

1671 ईसवी में औरंगजेब ने आदेश दिया कि जो हिंदू दीवान, करोड़ी अथवा पेशकार के पदों पर थे, उन्हें हटा दिया जाये और उनके स्थान पर मुसलमानों की नियुक्ति की जाए। जब औरंगजेब ने देखा कि ऐसा करने से सरकार का काम नहीं चल सकता तो उसने मुसलमानों की नियुक्तियां 50% कर दीं। यह भी आदेश दिया गया कि यदि कोई हिंदू जो अपने पद से हटा दिया गया है मुसलमान बन जाए तो उसे उसकी पुरानी नौकरी वापस कर दी जाये।

ऐसे कई प्रमाण मिलते हैं जिनमें लिखा है कि उनको नौकरी इसलिए दी गई क्योंकि वे मुसलमान बन गए। 1679 ईस्वी में औरंगजेब ने हिंदुओं पर फिर से जजिया कर लगा दिया गया। मनूची का कहना है कि जजिया से बचने के लिए कई निर्धन हिंदू मुसलमान बन गए और ऐसा देखकर औरंगजेब बहुत खुश हुआ। उसने उन नये मुसलमान बने हिंदुओं को धन भी दिया, नौकरियां भी दीं और सम्मान के साथ हाथियों पर भी चढ़ाया। 

उसने  गुरु तेग बहादुर के कत्ल का आदेश दिया। गुरु गोविंद सिंह के बेटों को मुसलमान न बनने पर मरवा दिया गया। शिवाजी के लड़के शंभूजी और कविकलश को मुसलमान बनाने के लिए कई सुविधाएं पेश की गईं।

यह ठीक है कि औरंगजेब ने अपनी धार्मिक नीति से भारत में इस्लाम का प्रचार किया और कई हिंदुओं को मुसलमान भी बनाया परंतु अंत में उसकी धार्मिक नीति मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। चारों और उपद्रव हुए। जाटों ने विद्रोह किया। सतनामियों ने विद्रोह किया। ग्रामीणों ने विद्रोह किया।

राजपूतों ने विद्रोह किया और मराठों ने विद्रोह किया। उन सब विद्रोह को दबाता हुआ 1707 में औरंगजेब मर गया। सर बुलजले हेग ने ठीक ही लिखा है कि औरंगजेब की धार्मिक नीति विनाशकारी सिद्ध हुई। जो कुछ अकबर ने बनाया था, वह नाश हो गया। औरंगजेब एक कट्टरपंथी मुसलमान था। उसने हिंदुओं की, जो भारत में बहुसंख्या में थे, धार्मिक भावनाओं की परवाह न की और इस प्रकार मुगल साम्राज्य को क्षति पहुंचाई। 

निष्कर्ष 

 इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सभी मुग़ल सम्राट धर्मसहिष्णु नहीं थे उनमें औरंगजेब जैसा कटटरपंथी भी था जिसने असंख्य मंदिर तोड़े और हिन्दुओं पर अत्याचार किये। प्ररम्भिक मुग़ल बाबर और हुमायूँ भी धर्मांध थे लेकिन उन्हें शासन का ज्यादा समय नहीं मिला इसलिए उन्होंने अपनी धार्मिक नीति का पालन धर्मसहिष्णु के रूप में किया। अकबर जिसने बहुत जल्द यह जान लिया था कि हिंदुस्तान में हिन्दुओं के सहयोग के बिना एक मजबूत और स्थाई साम्राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता। अतः अकबर ने हिन्दुओं के साथ कठोर व्यवहार नहीं किया। लेकिन जहांगीर और शाहजहां ने इस्लाम के कट्टर स्वरुप का पालन व्यक्तिगत रूप से उन्हीं हिन्दू शासकों के विरुद्ध किया जो मुग़ल साम्राज्य को चुनौती देते थे। इस प्रकार हम मुग़ल साम्राज्य का एक मिला-जुला रूप देखते हैं।


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