पानीपत का तीसरा युद्ध इतिहास में मराठों के विनाश के रूप में देखा जाता है। इस युद्ध ने मराठा शक्ति और दम्भ को चूर-चूर कर दिया। लेकिन यह इतिहास का एक पक्षीय आकलन है क्या वास्तव में मराठे इस युद्ध के बाद पूर्णतया निर्वल और शक्तिहीन हो गए थे ? यह सब हम तभी जान सकते हैं जब इस युद्ध के कारण और परिणामों का निष्पक्ष रूप से अध्ययन करेंगे। हम इस ब्लॉग में पानीपत के तृतीय युद्ध के विषय में विस्तारपूर्वक अध्ययन कर वास्तविक तथ्यों को पाठकों के सामने प्रस्तुत करेंगे। उम्मीद है यह लेख आपकी शंकाओं का समाधान कर सकेगा और इतिहास के साथ न्याय होगा।
पानीपत के तृतीय युद्ध के कारण
पानीपत के युद्ध के कारण कोई अचानक नहीं उपजे बल्कि यह इस युद्ध से एक दशक पहले मिलते हैं। औरंगजेब की मृत्यु के बाद निर्वल और अयोग्य मुग़ल सम्राटों के पतन से उत्तरी भारत में शक्ति शून्य उत्पन्न हो गया था। नादिरशाह का उत्तराधिकारी अहमदशाह अब्दाली भी अपने पूर्वज की भांति भारत को लूटने को उत्सुक था। दूसरी ओर हिन्दू-पद पादशाही की भावना से ओत-प्रोत मराठे दिल्ली पर अधिकार करने का स्वप्न संजोय हुए थे। मराठे स्वयं को मुग़ल साम्राज्य का बाह्य तथा आंतरिक रक्षक समझते थे।
1752 ईस्वी में नवाब वजीर सफ़दर जंग ने मराठों के साथ एक संधि की जिसके अनुसार कुछ शर्तों के अतिरिक्त मरठों को पंजाब, सिंध तथा दोआब से चौथ प्राप्त करने का अधिकार दे दिया गया। उसके बदले में मराठों को मुग़ल साम्राज्य की आंतरिक तथा बाह्य खतरों से रक्षा करनी थी।
मराठों को मुग़ल सम्राट के साथ संधि की कोई औपचारिक स्वीकृति नहीं मिली थी लेकिन फिर भी इस संधि ने मराठों के अंदर उत्तर में राज्य स्थापित करने की पिपासा को जग्रत कर दिया। परिणामस्वरूप मराठों तथा अहमदशाह अब्दाली के मध्य संघर्ष अनिवार्य हो गया।
1757 में अब्दाली नजीबुद्दौला को दिल्ली के मीर बख्शी के रूप में कार्यभार सौंप कर बापस चला गया, यद्यपि जाते समय अब्दाली नजीबुद्दौला को वज़ीर इमादुल्मुल्क की महत्वकांक्षाओं के विरुद्ध चेतवनीं दे गया।
मुग़ल सम्राट आलमगीर द्वितीय ने अनुभव किया कि वज़ीर इमादुल्मुल्क नीच कुल में उत्पन्न एक अशिष्ट व्यक्ति था। इस पर वज़ीर ने मराठों से नजीब के विरुद्ध सहायता मांगी।
मई 1757 में मराठा सरदार रघुनाथ राव दिल्ली आये। वज़ीर गाजीउद्दीन को अपनी ओर मिला लिया तथा नजीब को नजीबाबाद लौटने पर बाध्य कर दिया। अदीनाबेग की मृत्यु के पश्चात् संभाजी सिंधिया ने ये पद संभाल लिया।
मार्च 1758 ईस्वी में रघुनाथन राव पंजाब की ओर बढ़ा और अब्दाली के पुत्र राजकुमार तैमूर को पंजाब से निकाल दिया। इसके बाद कुछ ही महीनों में मराठे अटक तक पहुँच गए। उन्होंने अदीनाबेग खां को 75 लाख रुपया वार्षिक कर के बदले पंजाब का गवर्नर नियुक्त कर दिया।
मराठों की पंजाब विजय पठानों के समक्ष सीधी चुनौती थी तथा अब्दाली ने इस चुनौती को स्वीकार किया। दूसरी और नजीब और बंगस पठानों ने अब्दाली को दिल्ली से काफिरों को निकालने क लिए उकसाया। अब्दाली ने भी नजीब को पूर्ण सहायता का वचन दिया।
नजीब ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा रुहेला सरदार हाफिज रहमत खां सदुल्ला खां तथा दुंदी खां का समर्थन भी दिलवाया, दूसरी ओर गाजीउद्दीन ने 30 नवम्बर, 1759 को सम्राट आलमगीर द्वितीय का वध कर दिया जिससे अहमद शाह अब्दाली के प्रबंध अस्तव्यस्त हो गए। वह दिल्ली आकर अपराधी को दण्डित करना चाहता था।
सिडनी ओवन के अनुसार अहमदशाह सम्राट तथा विजेता ही नहीं अपितु अफगान था। अतएव वह रुहलों से सहानभूति रखता था और एक कट्टर मुस्लमान होने के नाते वह मराठों के मुसलमानों पर आक्रमण का विरोधी था। अतएव उसने युद्ध करने का निश्चय किया।
14 जनवरी, 1761 पानीपत का तीसरा युद्ध
- सबसे पहले अहमद शाह अब्दाली ने 1759 के अंत में सिंध नदी को पार किया तथा पंजाब को रौंद डाला।
- साबाजी तथा दत्ताजी सिंधिया अब्दाली को रोकने में असफल रहे और दिल्ली लौट गए।
- दिल्ली के उत्तर में लगभग 10 मील दूर बराड़ी घाट के एक छोटे से युद्ध में दत्ता जी भी स्वर्ग सिधार गए।
- जनकोजी सिंधिया तथा मल्हार राव होल्कर भी अब्दाली को रोकने में विफल रहे।
उत्तर में मराठा शक्ति के पुनः स्थापना हेतु पेशवा सदाशिव भाऊ को दिल्ली भेजा। भाऊ ने 22 अगस्त 1760 को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। 7 अक्टूबर को उसने कुंजपुरा जित लिया ताकि आक्रमणकारी को उत्तर की ओर खदेड़ दे तथा दिल्ली अपर दबाव काम हो जाये।
नवम्बर 1760 में दोनों सेनाएं पानीपत के मैदान में आमने-सामने आ गयीं। दोनों ही शिविरों में आपूर्ति की कठिनाइयां थीं और एक दूसरे से सन्धि करने के विषय में सोच रहे थे। लेकिन कोई अंतिम निर्णय नहीं हो सका था। अंत में 14 जनवरी, 1761 को युद्ध हुआ। मैदान अहमदशाह अब्दाली के हाथ लगा। इस युद्ध में लगभग 75000 मराठे वीरगति को प्राप्त हुए।
इस युद्ध के परिणाम पर प्रसिद्ध इतिहासकार जे. एन. सरकार ने टिप्पणी करते हुए लिखा है “महाराष्ट्र में सम्भवतः ही कोई परिवार ऐसा होगा जिसने कोई न कोई संबंधी न खोया हो तथा कुछ परिवारों का तो सर्वनाश ही हो गया।”
पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय और अफगानों की विजय के कारणों की समीक्षा
अहमदशाह अब्दाली की विजय और मराठों की पराजय के बहुत से कारण थे जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं—-
अहमदशाह अब्दाली के पास भाऊ से अधिक सेना थी। जदुनाथ सरकार ने अनुमानित किया है कि अब्दाली के पास ६०००० हज़ार सेना थी जबकि भाऊ के पास 45 हज़ार सेना थी।
दिल्ली जाने वाले मार्ग के कट जाने के कारण मराठा शिविर में अकाल पड़ा हुआ था। मराठा सैनिकों और घोड़ों के लिए राशन की व्यवस्था नहीं थी। मराठा शिविर में मनुष्यों और घोड़ों की लाशें बिखरी पड़ी थीं और सड़न से मराठा शिविर नरक बना हुआ था।
मराठा शिविर का हाल इस वाक्य से समझा जा सकता है– 13 जनवरी को अधिकारी तथा सैनिक भाऊ के पास पहुंचे और कहा “दो दिन से हमें अन्न का एक दाना भी नहीं मिला है।दो रूपये सेर भी अन्न नहीं मिलता है।–हमें भूख से तो न मरने दो।हमें शत्रु के विरुद्ध एक प्रयत्न तो करने दो और फिर जो भाग्य में है होने दो।” भाऊ की सेना हवा पर जिन्दा थी।इसके विपरीत अफगान सेना की आपूर्ति के सरे विकल्प खुले हुए थे। अकाल के कारण ही भाऊ को यह आक्रमण करना पड़ा।
उत्तरी भारत के समस्त मुस्लिम सरदार अब्दाली के साथ मिल गए। दूसरी तरफ मराठे अकेले ही लड़ रहे थी क्योंकि अधिकांश हिन्दू शासक मराठों की लूट से अप्रसन्न थे।
मराठा सरदारों में भी आपस मे फूट थी। भाऊ मल्हार राव को एक व्यर्थ वृद्ध व्यक्ति समझता था तथा उसने उसके सैनिकों के सामने उसे अपमानित कर दिया था।मल्हार राव ने क्रोध में आकर यह कहा कि यदि शत्रु इस पुणे के ब्राह्मण को नींचा नहीं दिखायेगा तो हम से तथा अन्य मराठा सरदारों से ये लोग कपडे धुलवाएंगे। इस प्रकार आपसी कलह और वैमनस्य तथा द्वेष की भावनाओं के कारण मराठे कमजोर हो चुके थे।
अहमदशाह अब्दाली की सेना अत्यंत अनुशासित और संगठित थी और योजनाबद्ध तरिके से युद्ध के मैदान में उतरी थी।
अब्दाली ने बंदूकों का प्रयोग किया जबकि मराठे अब भी भाले और तलवारों से युद्ध लड़ रहे थे। मरठों का तोपखाना जो इब्राहिम खां गर्दी के अधीन था किसी काम नहीं आया। जबकि अब्दाली का तोपखाना ऊंट पर रखा था और चरों ओर तबाही मचा रहा था जिसने मराठों कला सर्वनाश कर दिया।
कशी राज पंडित ने साक्षी तथा शांति वार्ता में भाग लेने के नाते इस हार के लिए भाऊ को दोषी ठहराया है। भाऊ एक घमण्डी और अपनी शक्ति का दुरूपयोग करने वाला व्यक्ति था।
भाऊ ने भरी सभा में मल्हार राव होल्कर जैसे अनुभवी और वयोवृद्ध का अपमान किया था और उन जैसे अनुभवी और प्रभावशाली लोगों को परिषद् की बैठकों में बुलाना बंद कर दिया था।
राजा सूरजमल जाट ने भाऊ को सलाह दी थी कि वह स्त्रियां तथा बच्चे जी सैनिकों के साथ थे तथा भारी तोपखाने तथा अन्य ऐश्वर्य की सामग्री झाँसी अथवा ग्वालियर में ही छोड़ दे। उसने भाऊ से कहा कि “आपकी सेना शेष भारतीय सेना से अधिक हल्की तथा तीव्रगमी है परन्तु दुर्रानियों की आपसे भी अधिक।”
मल्हार राव की राय भी कुछ इसी प्रकार की थी कि तोपखाने की गाड़ियां तो शाही सेना के अनुरूप थीं परन्तु मराठा युद्ध प्रणाली तो लूटमार की थी। उन्हें व्ही पद्धति अपनानी चाहिए थी जिससे वे अधिक परिचित थे।
भाऊ को यह भी परामर्श दिया गया था कि वह युद्ध को वर्षा तक लटकाये रखे जब अब्दाली लौटने पर बाध्य हो जाये। लेकिन भाऊ ने सभी की सलाह की अनदेखी की और अपनी ही मर्जी से युद्ध किया। जाट सरदार उसका साथ छोड़ गए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि एक ब्राह्मण सेनापति का दर्प तथा अहंकार तथा अति आत्मविश्वास मराठों की हार का मुख्य कारण था।
भाऊ के विपरीत अहमदशाह अब्दाली अपने समय का एशिया का सर्वोत्तम सेनापति था जो नादिरशाह का वास्तविक उत्तराधिकारी था। अब्दाली एक अनुभवी योद्धा था।अब्दाली उत्तम युद्ध निति तथा दांव पेच में माहिर था अतः अब्दाली विजय रहा।
अहमद शाह अब्दाली |
पानीपत के तीसरे युद्ध का राजनितिक महत्व
मराठा इतिहासकार लिखते हैंकि मैराथन ने 75 हजार व्यक्तियों के अतिरिक्त राजनैतिक महत्व का कुछ भी नहीं खोया। अब्दाली को भी इससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।
जी.एस. सरदेसाई लिखते हैं कि “युद्ध स्थल में मराठों के सैन्य बल की इतनी अधिक क्षति हुई, इसके अतिरिक्त इस युद्ध ने कुछ भी निर्णय नहीं किया।इस जाती के दो प्रमुख व्यक्तियों नानाजी फडणवीस तथा महदजी सिंधिया ने जो भगय से इस घटक दिन मृत्यु के हाथों से बच गए थे, मराठों की शक्ति को पुनः पुनर्जिवित किया तथा मराठा शक्ति को पुनः स्थापित किया। पानीपत की युद्ध केबाद मराठा पहले की तरह ही उठे और अगले 40 वर्षों तक एक प्रमुख शक्ति बने रहे।जब तक अंग्रेजों ने अपनी सर्वोच्चता स्थापित नहीं की तब तक मराठे एक शक्ति के रूप में जमे रहे। पानीपत की दुर्घटना एक प्राकृतिक घटना की तरह थी। जिसमें जनहानि अधिक थी और राजनैतिक महत्व कुछ नहीं था”
सरदेसाई के विपरीत जदुनाथ सरकार का मत इस प्रकार है “मराठा इतिहासकारों की एक परम्परा बन गयी हैकि पानीपत के युद्ध के राजनैतिक परिणामों को कमतर आंकना, परन्तु भारतीय इतिहास का वास्तविक सर्वेक्षण स्पष्ट बतलाता है कि यह दावा केवल उग्र राष्ट्रवाद ( chauvinistic ) ही है। यह ठीक है कि मराठा सेना ने 1772 में निर्वासित मुग़ल सम्राट को पुनः सिंहासन पर बैठा दिया परन्तु सम्राट निर्माता अथवा मुग़ल साम्राज्य के नाम मात्र मंत्रियों तथा सेनापतियाँ के वास्तविक स्वामी के रूप में नहीं। यह गौरवमय पद तो महादजी सिंधिया को 1789 में प्राप्त हुआ तथा अंग्रेजों को 1803 में।”
इस प्रकार जदुनाथ सरकार का मत अधिक निष्पक्ष और तार्किक लगता है क्योंकि मराठों की एक लाख व्यक्तियों की जनहानि हुयी और यह इतनी बड़ी थी कि 3 महीने तक पेशवा को हानि का ठीक से अनुमान ही नहीं लगा। पेशवा इस महान हानि के शोक में चल बसे।
जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि “इस युद्ध के फलस्वरूप बालाजी बाजीराव सहित लगभग सभी प्रमुख मराठा नेता समाप्त हो गए तथा रघुनाथ राव जो मराठा इतिहास का सबसे निकृष्ट व्यक्ति था, की स्वार्थलिप्सा के लिए द्वार खुल गए। दूसरी हानियां तो समय के साथ-साथ पूरी हो सकती थीं। परन्तु पानीपत की पराजय का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यही था।”
यद्पि यह भी सत्य है की इस युद्ध के बाद मराठे पूर्णतया खत्म नहीं हुए बल्कि एक नए अनुभव और युक्ति के साथ पुनः उठ खड़े हुए। जैसा कि सिडनी ओवन ने कहा है “इससे मराठा शक्ति, कुछ समय के लिए चूर-चूर हो गयी। यद्यपि वह बहुमुखी दैत्य मरा नहीं परन्तु इतनी अच्छी तरह कुचला गया कि यह लगभग सोया रहा जब जगा तो अंग्रेज इससे निबटने के लिए तैयार थे तथा अंत में इसे जीतने तथा समाप्त करने में सफल हुए।”
इस युद्ध ने अंग्रेजों के लिए विजय के द्वार खोल दिए। मुगलों और मराठों का खोखलापन सामने आ गया था। इस प्रकार अंग्रेज एक नए प्रतिद्व्न्दी के रूप में सामने आये और अंत में वे सफल रहे।