उत्तरवर्ती मुगल सम्राट, भारत में मुगल साम्राज्य के शासकों का उल्लेख करते हैं, जिन्होंने सम्राट औरंगजेब (1658-1707 तक शासन किया), तथाकथित “महान मुगलों” में से अंतिम थे। बाद के मुग़ल बादशाहों को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिनमें राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक गिरावट और क्षेत्रीय शक्तियों के साथ संघर्ष शामिल थे, जिसके परिणामस्वरूप मुग़ल साम्राज्य का क्रमिक पतन हुआ।
उत्तरकालीन मुगल सम्राट
18 वीं शताब्दी के आरंभ में मुग़ल साम्राज्य अवनति की ओर जा रहा था। औरंगजेब का राज्यकाल मुगलों का संध्याकाल था। साम्राज्य को अनेक व्याधियों ने घेर रखा था और यह रोग शनै: शनै: समस्त देश में फैल रहा था। बंगाल, अवध और दक्कन आदि प्रदेश मुगल नियंत्रण से बाहर हो गए।
उत्तर-पश्चिम की ओर से विदेशी आक्रमण होने लगे तथा विदेशी व्यापारी कंपनियों ने भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया। परंतु इतनी कठिनाइयों के होते हुए मुगल साम्राज्य का दबदबा इतना था कि पतन की गति बहुत धीमी रही। 1737 में बाजीराव प्रथम और 1739 में नादिरशाह के दिल्ली पर आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य के खोखले पन की पोल खोल दी और 1740 तक यह पतन स्पष्ट हो गया।
उत्तरकालीन मुगल सम्राट – Later Mughal Emperors
बहादुर शाह प्रथम ( शाह बेखबर )-1707-12– मार्च 1707 में औरंगजेब की मृत्यु उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के युद्ध का बिगुल था
- मुहम्मद मुअज़्ज़म(शाह आलम)
- मुहम्मद आजम और
- कामबख्स
उपरोक्त तीनों में से सबसे बड़े पुत्र मुहम्मद मुअज्जम की विजय हुई। मुहम्मद मुअज़्ज़म उत्तराधिकार की लड़ाई में विजयी रहा और ‘बहादुर शाह’ के नाम से गद्दी पर बैठा। वह उत्तरवर्ती मुगलों में पहला और अंतिम शासक था जिसने वास्तविक प्रभुसत्ता का उपयोग किया जब वह सिंहासन पर बैठा तो उसकी आयु काफी हो चुकी थी लगभग(67वर्ष)।
इस मुगल सम्राट ने शांतिप्रिय नीति अपनाई। यद्यपि यह कहना कठिन है कि यह नीति उसके शिथिलता की द्योतक थी अथवा उसकी सोच समझ का फल था। उसनें शिवाजी के पौत्र साहू को जो 1689 से मुगलों के पास कैद था, मुक्त कर दिया और महाराष्ट्र जाने की अनुमति दे दी।
राजपूत राजाओं से भी शांति स्थापित कर ली और उन्हें उनके प्रदेशों में पुनः स्थापित कर दिया। परंतु बहादुर शाह को सिक्खों के विरुद्ध कार्यवाही करनी पड़ी क्योंकि उनके नेता बंदा बहादुर ने पंजाब में मुसलमानों के विरुद्ध एक व्यापक अभियान आरंभ कर दिया था। बंदा लोहगढ़ के स्थान पर हार गया। मुगलों ने सरहिंद को 1711 में पुनः जीत लिया। परंतु यह सब होते हुए भी बहादुर शाह सिक्खों को मित्र नहीं बना सका और ना ही कुचल सका।
बहादुर शाह उदार, विद्वान और धार्मिक था लेकिन धर्मांध नहीं था। वह जागीरें देने तथा पदोन्नतियाँ देने में भी उधार था। उसने आगरा में जमा वह खजाना भी खाली कर दिया जो 1707 उसके हाथ लगा था। मुगल इतिहासकार खाफी खाँ ने उसके बारे में कहा है, “यद्यपि उसके चरित्र में कोई दोष नहीं था लेकिन देश की सुरक्षा प्रशासन व्यवस्था में उसने इतनी आत्मसंतुष्टि और लापरवाही दिखाई कि परिहास और व्यंग करने वाले व्यक्तियों ने द्वयार्थक रूप में उसके राज्यरोहण के तिथि-पत्र को ‘शाह बेखबर’ के रूप में उल्लेखित किया है।
जहांदार शाह ( लम्पट मूर्ख ) 1712-1713— किस सम्राट को लम्पट मूर्ख कहा जाता है?
उत्तराधिकार की लड़ाई में जहांदार शाह के तीन भाई— अजीम-उस-शान, रफी-उस-शान और जहान शाह मारे गए। जहांदार शाह, असद खाँ के पुत्र जुल्फिकार खाँ द्वारा प्रदत्त समर्थन के कारण सफल हुआ था, जिसे नए बादशाह ने अपने वजीर के रूप में राज्य के सर्वोच्च पद पर नियुक्त किया। अत्यंत भ्रष्ट नैतिक आचरण वाले जहाँदार शाह पर उसकी रखैल ‘लाल कुँवर’ का पूर्ण नियंत्रण था। उसने “नूरजहां के अनुरूप व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया।” उसके संबंधियों ने मुगल साम्राज्य को लूटा तथा उसके निम्नजातीय सहयोगियों ने साम्राज्य के सर्वोच्च प्रतिष्ठित लोगों को अपमानित और त्रस्त किया।
परिणामस्वरूप लोगों की दृष्टि में शाही ताज की प्रतिष्ठा धूलिसात हो गई और समाज में प्रशासन अशिष्टता के गर्त में चले गए।” वज़ीर जुल्फिकार खाँ ने अपने समस्त प्रशासकीय दायित्व अपने कृपापात्र एवं चाटुकार सुभग चंद नामक व्यक्ति के हाथों में दे दिए, जिसके मिथ्याभिमान और आडंबरों से शीघ्र ही सारे लोग त्रस्त हो गए।
अजीम-उस-शान का पुत्र फर्रूखसियर अपने पिता के पतन के समय पटना में था। उसने अप्रैल 1712 में स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। उसने सैयद बंधुओं— सैयद हुसैन अली और सैयद अब्दुल्लाह खाँ का समर्थन प्राप्त किया, जिन्हें अज़ीम-उस-शान ने अपने अधीन बिहार और इलाहाबाद का उप-सूबेदार नियुक्त किया था। उसने सेना एकत्र करके आगरा की ओर कूच किया और 10 जनवरी 1713 को नगर के बाहर जहांदार शाह को परास्त कर दिया। इस पराजय के बाद जहांदार शाह दिल्ली भाग गया जहां असद खाँ और जुल्फिकार खाँ ने उसके साथ धोखा किया और फर्रूखसियर के आदेश से जेल में उसकी हत्या कर दी।
- तूरानी
- ईरानी
- अफगानी और
- हिंदुस्तानी
इनमें पहले तीन मध्य एशियाई, ईरानी और अफगान सैनिकों के वंशज थे जिन्होंने भारत को जीता था और यहां राज्य स्थापित करने में सहायता दी थी। उनकी संख्या औरंगजेब के अंतिम 25 वर्षों में बहुत बढ़ गई थी, विशेषकर जब वह दक्षिण में युद्ध में व्यस्त रहा। इनके वंशज भारत के भिन्न-भिन्न भागों में सैनिक और असैनिक पदों पर नियुक्त थे।
इनमें ऑक्सस नदी के पार वाले तूरानी और खुरासान के अफगान, प्रायः सुन्नी थे और ईरानी अधिकतर शिया थे। इस मुगल अथवा विदेशी दल के विपरित एक भारतीय दल था जिसमें वे लोग थे जिनके पूर्वज बहुत पीढ़ियों पहले भारत में बस गए थे अथवा हिंदुओं से मुसलमान बन गए थे। इस दल को राजपूत, जाट तथा शक्तिशाली हिंदू जमींदारों का समर्थन भी प्राप्त था। छोटे-छोटे पदों पर नियुक्त हिंदू भी इसी दल का समर्थन करते थे। परंतु यह भी कहना ठीक नहीं होगा कि ये दल केवल रक्त, जाति और धर्म पर ही आधारित थे।
“यह चारणों, गायकों, नर्तकों और नाट्यकर्मियों के सभी वर्गों के लिए बहुत अच्छा समय था। योग्य, विद्वान और प्रतिभाशाली व्यक्तियों को दरबार से निकाल दिया गया और विवेकहीन, चाटुकार और झूठे किस्से गढ़नें वाले लोग चारों ओर मंडराने लगे” समकालीन इतिहासकारों ने इसे अव्यवस्थित स्थिति का बड़ा सजीव वर्णन करते हुए लिखा है, “सेना को मामूली वेतन दिया जाता था जमीदार विद्रोही हो गए थे और अधिकारी भ्रष्ट और निष्ठाहीन हो गए थे। पूर्णत: अव्यवस्था की इस रेल-पेल में जहांदार शाह को सैयद बंधुओं ने षड्यंत्र करके मौत के घाट उतार दिया और फर्रूखसियर को सिंहासनारूढ़ कर दिया।
सैयद बंधुओं का परिवार मेरठ और सहारनपुर के बीच ऊपरी गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में बाराहा का निवासी था। अपनी वीरता और सैन्य नेतृत्व करने की क्षमता के कारण इस परिवार के सदस्यों ने युद्ध में शाही सेना का नेतृत्व करने का गौरव प्राप्त किया था। औरंगजेब के शासनकाल में सैयद हुसैन अली ने महत्वपूर्ण युद्धों में सेनाओं का नेतृत्व किया था और जाजू में अपनी सेवाओं के कारण बहादुर शाह से पदोन्नति प्राप्त की थी। बाद में उनको शाही समर्थन नहीं मिला लेकिन अज़ीम-उस-शान ने उन्हें अपने पक्ष में कर लिया और उन्हें दो प्रांतों ( इलाहाबाद और बिहार ) का प्रभार सौंप दिया।
सैयद बंधुओं द्वारा फर्रूखसियर को प्रदत्त समर्थन के लिए उन्हें भली-भांति पुरस्कृत किया गया और इस काल में उन्होंने मुगल दरबार में अपने लिए विशेष स्थान अर्जित कर लिया। परंतु सम्राट इतना अस्थिर बुद्धि व्यक्ति था कि उसे सैयद बन्धुओं पर भरोसा नहीं था और स्वयं व्यक्तिगत सत्ता के प्रयोग के लिए नितांत अक्षम ।
फर्रूखसियर ( घृणित कायर ) 1713-1719—किस मुगल स्म्राट को घृणित कायर कहा जाता है?
फर्रुखसियर (आर। 1713-1719): वह बहादुर शाह प्रथम का पोता था और जहांदार शाह को उखाड़ फेंकने के बाद मुगल सम्राट बना। हालाँकि, उनके शासनकाल को अदालती साज़िशों और रईसों के बीच सत्ता के लिए संघर्षों से जूझना पड़ा, जिससे साम्राज्य में अस्थिरता और गिरावट आई। मुग़ल सम्राट फर्रुख़सियार भारतीय इतिहास में एक मुग़ल सम्राट थे, जिन्होंने 1713 ईसा से 1719 ईसा तक मुग़ल साम्राज्य की गद्दी संभाली थी। उनका वास्तविक नाम रफ़ी उद-दरजात था और उन्हें फ़र्रुख़सियार (फ़र्रुख़ सीदी) के नाम से भी जाना जाता है।
फ़र्रुख़सियार का जन्म 1683 ईसा में हुआ था और उनके पिता आज़ीमुश्शान थे, जो मुग़ल सम्राट और बादशाह बहादुर शाह I के बेटे थे। फ़र्रुख़सियार ने अपने चाचा बहादुर शाह I की मौत के बाद 1713 ईसा में मुग़ल सम्राज्य की गद्दी पर कब्ज़ा किया। उनकी शासनकालीन प्रमुख घटना थी जब उन्होंने बंगाल में सिकंदर जंग को हराकर बादशाह शाहजहाँ II को कैद कर दिया था।
फर्रुखसियर के आदेश से जुल्फीकार खाँ को धोखा देकर मार डाला गया और उसकी संपत्ति को ज़ब्त कर लिया गया। असद खाँ 1716 में अपनी मृत्यु पर्यन्त दु:ख झेलता रहा। “औरंगजेब के महान काल के अंतिम प्रतिष्ठित व्यक्ति को समाप्त करना” एक भयंकर राजनीतिक भूल थी।
सम्राट फर्रूखसियर ने इस आशंका से मुक्ति पाने के लिए कि सैयद बंधु उसे राजसिंहासन से हटाकर किसी अन्य मुगल शहजादे को राज सिंहासनारूढ़ न कर सकें, अतः उसने कैद में पड़े मुगल राजपरिवार के कुछ प्रमुख सदस्यों का अंधा करवा दिया। उसने मीर जुमला जैसे अपने कुछ विशेष कृपापात्रों को सैयद बंधुओं की अवहेलना करने की अनुमति दे दी।
मार्च 1713 से ही सम्राट फर्रूखसियर और सैयद बंधुओं से में पारस्परिक झगड़े प्रारंभ हो गए। परंतु चूँकि सम्राट में उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही करने का साहस नहीं था, अतः उसने उनके साथ समझौता कर लिया तथापि इस समझौते के बावजूद वह सैयद बंधुओं को शक्तिहीन करने के लिए उनके विरुद्ध मूर्खतापूर्ण एवं विश्वासघाती चालें चलता रहा।
सैयद हुसैन अली ने अजीत सिंह विरुद्ध चढ़ाई की और उसे शांति संधि करने के लिए बाध्य किया। सिक्ख नेता बंदा बहादुर को हराने के बाद उसे पकड़ लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई(19 जून 1716)। 1717 में सम्राट ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बहुत सी व्यापार संबंधी रियायत ने दे दीं। इनसे बिना सीमा शुल्क के बंगाल के रास्ते व्यापार भी किया जा सकता था।
चूड़ामन जाट के नेतृत्व में हुए जाटों के एक विद्रोह को दबाने के लिए अंबेर के सवाई जयसिंह ने एक सैन्य अभियान किया, जिसका अंत समझौते में हुआ। 1719 में हुसैन अली ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ के साथ समझौता (दिल्ली की सन्धि) किया, जिसके द्वारा उसने दिल्ली में प्रभुसत्ता के लिए चल रहे संघर्ष में मराठों को अपनी सक्रिय सैन्य सहायता देने के बदले में बहुत-सी रियायतें प्रदान कीं।
सैयद बंधुओं और सम्राट फर्रूखसियर के मध्य मतभेदों का अत्यंत दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण अन्त हुआ। सम्राट को धक्के देकर राजसिंहासन से उतार दिया गया। नंगे पैर अगर नंगे सर सम्राट पर लगातार घूँसों और सबसे गंदी गालियों की बौछार की गई। तदुपरांत उसे बंदी बना लिया गया, भूखों मारा गया, अन्धा किया, जहर दिया गया और अंततः गला घोंटकर मार डाला गया।”
फर्रूखसियर को गद्दी से हटाने के बाद (अप्रैल 1719) सैयद बंधुओं ने रफी-उश-शान (बहादुर शाह के द्वितीय पुत्र) के पुत्र रफी-उद्-दरजात, को गद्दी पर बैठाया। “वह सैयद बंधुओं के कैदी के रूप में जिया और मरा।” तदुपरांत उन्होंने उसके बड़े भाई रफी-उद-दौला को, शाहजहां द्वितीय की उपाधि देकर सिंहासनारूढ़ किया। वह अफीम का आदि एक बीमार युवक था।
सितंबर 1719 में उसकी भी मृत्यु हो गई। अब सैयद बंधुओं ने शाहजहां द्वितीय के पुत्र (बहादुर शाह के चौथे पौत्र) का चयन किया। उसे सितंबर 1719 में मुहम्मद शाह की उपाधि देकर सिंहासन पर बैठाया गया।
मुहम्मद शाह (रंगीला/रंगीले) 1719-48— किस मुगल स्म्राट को रंगीला कहा जाता है?
मुग़ल सम्राट मुहम्मद शाह उर्फ़ रंगीला, जिन्हें वास्तविक नाम खुर्रम शाह था, एक मुग़ल सम्राट थे जो 1719 ईस्वी में त्रिपुरा की लड़ाई में शासन को हराने वाले थे। उनके शासनकाल में 1719 से 1748 ईस्वी तक रहा था। वे बहुत ही प्रसिद्ध थे क्योंकि उनके शासनकाल में कला, संस्कृति, और विज्ञान के क्षेत्र में मुग़ल साम्राज्य की विस्तृतता को बढ़ावा मिला।
वे एक प्रतिभाशाली कला प्रेमी थे और खुशामदी के लिए भी प्रसिद्ध थे। उन्होंने शौक के लिए अपना वैयक्तिक नाम “रंगीला” अपनाया था, जिसका अर्थ रंगों को प्रेम करने वाला होता है। वे आपूर्ति चक्र के परिवर्तन और आर्थिक सुख को बढ़ावा देने वाले नए आर्थिक नीतियों की गठन की बात की गई थी।
मुहम्मद शाह उर्फ़ रंगीला की सर्वाधिक यात्राएँ और वैज्ञानिक, कला, और साहित्यिक गतिविधियों की समर्थन ने उन्हें एक सम्राट के रूप में मशहूरी प्राप्त करवाई। हालांकि, उनके शासनकाल में धन और सामर्थ्य की समस्याएँ भी बढ़ गई थीं। उनके प्रभावकारी मंत्रिमंडल में आपसी कलह और विवाद होते थे जो राजनीतिक स्थिरता को कम कर दिया था। वे आपूर्ति चक्र को तोड़ने वाली नीतियों के कारण आर्थिक तंगी का सामना कर रहे थे।
सैयद बंधुओं के पतन के बाद दरबार में षड्यंत्र की बाढ़ आ गई और मुगल साम्राज्य का शीघ्रता से पतन होना शुरू हो गया। यह स्थिति सम्राट के चरित्र के कारण और खराब हो गई जो गद्दी पर बैठने के समय केवल 17 साल का किशोर था। वह अपना समय महल की चारदीवारी के भीतर हरम की स्त्रियों और हिजड़ो के साथ व्यतीत करता था।
वह असंयत आचरण वाला सर्वाधिक बिलासप्रिय शासक था और इसलिए उसको मोहम्मद शाह रंगीला अथवा रंगीले कहा जाता है। सैयद बंधुओं के पतन के बाद वह अपनी प्रेमिका एवंपत्नी रहमत-उन-निसा कोकी जिऊ, हाफिज खिदमतगार खाँ नामक एक हिजड़े और दरबार के अन्य अमीरों के चंगुल में फंस गया।
महान मुगलों के अधीन वजीर सम्राट का प्रमुख प्रशासक होता था जिसे सम्राट अपनी इच्छानुसार नियुक्त अथवा निलंबित कर सकता था एवं वह सम्राट की नीतियों को कार्यान्वित करने के लिए एक साधन हुआ करता था।
सैयद बंधुओं ने “सर्वशक्तिमान वजीर पद के सिद्धांत” का सृजन किया जिसके अधीन सम्राट, वजीर के हाथों की कठपुतली बन कर रह गया। मुगल शासन व्यवस्था में यह नवीन परिवर्तन मुहम्मद शाह के शासनकाल में एक स्थापित परंपरा बन गया।
जनवरी 17 से 21 में मुहम्मद अमीन खान की मृत्यु के बाद, यह पद निज़ाम-उल-मुल्क को सौंपा गया, जिसने एक वर्ष के बाद पदभार संभाला, उनका कार्यकाल बहुत छोटा था, हालांकि वह मूर्ति लिड में वायसराय के रूप में अपनी स्थिति को मजबूत करना चाहते थे और वह उसने साम्राज्य को पुनर्जीवित करने के लिए जोरदार प्रयास किया, उसने प्रसाद के सुधारों के लिए एक योजना तैयार की, जिसका उद्देश्य प्रशासनिक दक्षता और दक्षता को बहाल करना और वित्तीय व्यवस्था में सुधार करना था, लेकिन इन सुधारों ने कई प्रभावशाली लोगों और सम्राट के स्वास्थ्य को समर्थन देने के बजाय प्रभावित करना शुरू कर दिया। उसकी योजना, उसने अप्रत्यक्ष रूप से उसके लिए मुसीबत खड़ी कर दी।
अभिजात वर्ग के विभिन्न गुटों ने, आपसी कृतियों से ग्रस्त होकर, एक व्यक्ति के हाथों में सत्ता के केंद्रीकरण का विरोध किया, जो उनके अनन्य अधिकारों, निज़ाम का अतिक्रमण कर रहा था। निज़ाम-उल-मुल्क को दक्कन के वायसराय के पद से हटाने का असफल प्रयास भी हुआ, ऐसी स्थिति में निजाम को लगने लगा कि बादशाह और धनिक वर्ग दोनों प्रसाद के सुधारों के विरोधी हैं, इसलिए उसने वजीर का पद छोड़ दिया और दक्कन की ओर चला गया।
निज़ाम-उल-मुल्क ने सैन्य विजय द्वारा अक्टूबर 1724 में हैदराबाद में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की, फिर मुहम्मद अमीन खान, क़मरुद्दीन बज़ीर के पुत्र बने। वह एक अकर्मण्य और शराबी था। वह अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने और जितना संभव हो उतना कम काम करने के लिए दृढ़ थे। जब रानी गुड की शक्ति को बाधित करना आवश्यक समझा गया, तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया, उनके उत्तराधिकारी रोशन उजाला को भारी मात्रा में धन की हेराफेरी का दोषी पाया गया, उनके स्थान पर खन्ना को वजीर के रूप में नियुक्त किया गया।
नवीन राज्यों का उदय
विभिन्न स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना सम्राट मुहम्मद शाह के शासनकाल के प्रारंभिक दो दशकों में मुगल साम्राज्य का तेजी से विघटन हुआ। मुगल प्रांतों में, मुर्शिद कुली खां की सूबेदारी (1717-27) के काल में ही बंगाल लगभग पूर्ण रुप से स्वतंत्र हो गया। 1722 में अवध सूबे पर शआदत खान की सूबेदार के रूप में नियुक्ति के बाद उसने भी यही रास्ता अपनाया और दक्कन में निजाम-उल-मुल्क पहले ही स्वतंत्र हो गया था।
मालवा और गुजरात में मराठों के आक्रमणों और इन दोनों मुगल प्रांतों के शाही सूबेदार के मध्य ईर्ष्यालु झगड़ों ने इन दोनों प्रांतों से मुगल सत्ता का सफाया कर दिया। क्रमशः 1737 एवं 1741 में इन दोनों प्रांतों पर मराठों ने अधिकार कर लिया। अंतर्राज्यीय संघर्षों से बुरी तरह और विदीर्ण और मराठों के लूटपाटपूर्ण आक्रमणों से संत्रस्त राजस्थान भी मुगल प्रभाव क्षेत्र से मुक्त हो गया।
बुंदेलखंड, जो शाहजहां के शासन काल से ही मुगलों के विरुद्ध संघर्षरत था, पर 1731 के बाद मराठों ने अधिकार कर लिया। बदनसिंह के नेतृत्व में थुरा और भरतपुर के क्षेत्र में जाटों ने अपनी स्वतंत्र सत्ता.स्थापित कर ली। गंगा-यमुना के दोआब में कटेहर के रूहेलों और फर्रुखाबाद के बंगश नवाबों ने अपने स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना की।
1737 में बाजीराव प्रथम केवल 500 घुड़सवार लेकर दिल्ली पर चढ़ आया। सम्राट डर कर भागने को उद्यत था। 1739 में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया और मुगल साम्राज्य को अंधा और जख्मी बना कर छोड़ गया। दूसरी ओर मुगल दरबार परस्पविरोधी चार प्रमुख गुटों—तुरानी, ईरानी, अफगान और हिंदुस्तानी में विभाजित थे।
अहमद शाह 1748-54
मुहम्मद शाह की मृत्यु के उपरांत उसका एकमात्र पुत्र अहमद शाह उसका उत्तराधिकारी बना। अहमद शाह का जन्म एक नर्तकी से हुआ था जिसके साथ बादशाह ने विवाह कर लिया था। उसकी अतिशय दुश्चरित्रा के कारण उसका निकम्मा पर और अधिक बढ़ गया। उसके बचपन और जवानी में महल की औरतें एवं हिजड़े ही उसके केवलमात्र साथी रहे थे। राजमाता ने स्वयं बड़े-बड़े राजविरुद धारण किए जिनमें किबला-ए-आलम की उच्चतम उपाधि एवं 5000 सवारों का मनसब भी शामिल थे।
राजमाता का भाई मान खाँ, जो एक आवारा, बदमाश और पेशेवर नर्तक था को मुतकात-उद-दौला की उपाधि और 6000 का मनसब प्रदान किया गया। इस अवधि के दौरान, अवध का नवाब सफदरजंग साम्राज्य का वजीर या प्रधानमंत्री था। वह एक बहुत अयोग्य सेनानायक और असंयत व्यक्ति था। जावेद खाँ और तुर्कों (तुरानियों) द्वारा नियंत्रित दरबारी गुट उससे घृणा करते थे क्योंकि सफदरजंग एक ईरानी था।
अहमद शाह के शासनकाल में अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर दो बार 1749 और 1752 में आक्रमण किए थे। 1752 में है दिल्ली तक बढ़ आया। अहमद शाह ने शांति बनाए रखने और दिल्ली को विनाश से बचाने के लिए पंजाब और मुल्तान अब्दाली को दे दिए। दूसरी और जाट और मराठे भी मुगल दरबार की राजनीति में बार-बार हस्तक्षेप कर रहे थे।
अहमद शाह के अंतिम दिनों में मुगलों का खजाना इतना खाली हो गया था कि “शाही मालखाने की वस्तुएं दुकानदारों और पटरीवालों को बेची गईं और अधिकांश धन जो इस तरह एकत्र किया गया था, उससे सैनिकों को वेतन अदा किया गया।” अगले सम्राट आलमगीर द्वितीय के शासनकाल में सैनिकों द्वारा अपने बकाया वेतन वसूल करने के लिए सैनिक विद्रोह कर देना एक आम बात हो गई।
आलमगीर द्वितीय 1754-49
अहमद शाह को गद्दी से हटाने के बाद जहांदार शाह के पौत्र अज़ीजुद्दीन को आलमगीर द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठाया गया। शाही सेना और महल के कर्मचारियों को 3 वर्षों में 15 दिन का वेतन प्राप्त नहीं हुआ था। भूख से मरते सैनिकों के दंगे और उपद्रव आलमगीर के शासनकाल की दिन-प्रतिदिन की घटनाएं थीं। राजधानी की दयनीय स्थिति का स्वभाविक प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों पर पड़ा। मई 1755 में वज़ीर इमाद के अपने ही सैनिकों ने उस पर प्रहार किए और बुरी तरह घसीटा गया जिसके कारण उसके वस्त्र चिथले हो गए।
इसी समय अहमद शाह अब्दाली ने 1755 में भारत पर चौथी बार आक्रमण किया। वह दिल्ली से 1757 में वापस गया। इसके तुरंत बाद इमाद ने मराठों को दिल्ली तथा पंजाब में आमंत्रित किया। नवंबर 1759 में आलमगीर द्वितीय की उसके वज़ीर इमाद ने हत्या कर दी और उसकी नंगी लाश को लाल किले के पीछे बहती यमुना नदी में फेंक दिया गया। वज़ीर को इस हत्या से कोई लाभ नहीं हुआ। देश में हर जगह अराजकता व्याप्त थी और देशद्रोही इमाद के लिए “दिल्ली अब उसकी शरणस्थली नहीं रह गई थी।”
शाह आलम द्वितीय 1759-1806—
यह आलमगीर द्वितीय का पुत्र था और इसका वास्तविक नाम अली गौहर था। अपने पिता की हत्या के समय वह बिहार में था जहां इसने शाह आलम द्वितीय की उपाधि धारण करके स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया (22 दिसंबर 1759)। इसी बीच दिल्ली में इमाद और अमीरों ने मिलकर कामबख्स के पौत्र मुही-उल-मिल्लर को शाहजहां द्वितीय के नाम पर राजसिंहासन पर बैठा दिया।
इस प्रकार आलमगीर द्वितीय की हत्या के उपरांत मुगल साम्राज्य में दो बादशाह दो पृथक स्थानों में— शाह आलम द्वितीय पटना में और शाहजहां द्वितीय सिंहासनारुढ़। हुए इन परिस्थितियों के कारण शाह आलम द्वितीय को 1772 तक (अगले 12 वर्ष) निर्वासित के रूप में बिताने पड़े एवं उसे अंग्रेजों तथा मराठों की कठपुतली बनना पड़े।
इसी बीच अहमद शाह अब्दाली पांचवीं बार भारत आया जिसके फलस्वरूप पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ। इन घटनाओं का वर्णन हम अगले ब्लॉग्स में करेंगे। अंततः जनवरी 1772 में मराठों ने शहालम को दिल्ली की गद्दी पर पुनर्स्थापित किया। इससे पहले अंग्रेज प्रभुसत्ता की ओर तेजी से बढ़ रहे थे और उन्होंने प्लासी के युद्ध (1757) में बंगाल के नवाब को तथा बक्सर के युद्ध (1764) में शाह आलम द्वितीय और उसके बजे व शुजा-उद्-दौला को हरा दिया और उन्होंने मुगल बादशाह को बंदी बना लिया।
शाह आलम द्वितीय का संपूर्ण जीवन आपदाओं से ग्रस्त रहा। उसे 1788 में अन्धा कर दिया गया। 1803 में अंग्रेजों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और शाह आलम द्वितीय और उसके दो उत्तराधिकारी अर्थात मुगल सम्राट अकबर द्वितीय (1806-37) और बहादुर शाह द्वित्य (1837-1857) ईस्ट इंडिया कंपनी के पेंशनभोगी मात्र बनकर रह गए।
निष्कर्ष
अंत में, बाद के मुगल बादशाहों को महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ा और अक्सर मिश्रित राय के साथ उनका मूल्यांकन किया जाता है। जबकि उनमें से कुछ ने औरंगज़ेब की नीतियों को उलटने और साम्राज्य में स्थिरता बहाल करने का प्रयास किया, उनके शासनकाल को कमजोर शासन, भ्रष्टाचार, अदालती साज़िशों और धार्मिक असहिष्णुता से प्रभावित किया गया।
मुगल साम्राज्य ने अपने शासनकाल के दौरान अपनी शक्ति और प्रभाव में गिरावट देखी, क्षेत्रीय राज्यपालों को अधिक स्वायत्तता प्राप्त हुई और गुटबाजी उग्र हो गई। बाद के मुगल सम्राटों की विशाल और विविध साम्राज्य को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने में असमर्थता ने 18 वीं शताब्दी में भारत में मुगल शासन के एक युग के अंत को चिह्नित करते हुए अंततः इसके पतन में योगदान दिया।
FAQ-अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
ज़रूर! यहां लगातार मुगल सम्राटों पर 15 बहुत ही छोटे प्रश्न और उत्तर दिए गए हैं:
Q=भारत का पहला मुगल बादशाह कौन था?
उत्तर: बाबर।
Q-भारत का दूसरा मुगल बादशाह कौन था?
उत्तर: हुमायूँ।
Q-भारत का तीसरा मुगल बादशाह कौन था?
उत्तर: अकबर महान।
Q-भारत का चौथा मुगल बादशाह कौन था?
उत्तर: जहाँगीर।
Q-भारत के पांचवें मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर: शाहजहाँ।
Q-भारत का छठा मुगल बादशाह कौन था?
उत्तर: औरंगजेब।
Q-भारत के सातवें मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर बहादुर शाह प्रथम।
Q-भारत के आठवें मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर: जहाँदार शाह।
Q-भारत के नौवें मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर : फर्रुखसियर।
Q-भारत के दसवें मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर: रफी उद-दरजात।
Q-भारत के ग्यारहवें मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर: शाहजहाँ II।
Q-भारत के बारहवें मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर: मुहम्मद शाह।
Q-भारत के तेरहवें मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर: अहमद शाह बहादुर।
Q-भारत के चौदहवें मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर : आलमगीर द्वितीय।
Q-भारत के पंद्रहवें और अंतिम मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर बहादुर शाह द्वितीय, जिसे बहादुर शाह जफर के नाम से भी जाना जाता है।