सूफीवाद, जिसे इस्लामी रहस्यवाद के रूप में भी जाना जाता है, इस्लाम के प्रारम्भिक काल में मध्य पूर्व एशिया में उत्पन्न हुआ और भारत सहित दुनिया के विभिन्न भागों में फैल गया। भारत में सूफीवाद का इतिहास लगभग एक हज़ार साल पुरना रहा है और माना जाता है कि इसे सूफी संतों द्वारा भारत में लाया गया था, जिन्होंने 8 वीं शताब्दी की शुरुआत में भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की थी।
भारत में सूफीवाद की उत्पत्ति
इसके क्रमिक और जैविक विकास के कारण भारत में सूफीवाद की सटीक उत्पत्ति का पता लगाना एक कठिन कार्य है, लेकिन कई सिद्धांत और ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हैं जो इसके प्रारंभिक विकास पर रोशनी डालते हैं। नीचे कुछ प्रमुख कारक हैं जिन्होंने भारत में सूफीवाद के उद्भव और विकास में योगदान दिया:
सूफी संतों का आगमन: ऐसा माना जाता है कि कई प्रसिद्ध सूफी संत, जिन्हें “वली” या “पीर” के नाम से जाना जाता है, इस्लाम के प्रारम्भिक दिनों में मध्य पूर्व से भारत आए थे। उन्होंने अपनी शिक्षाओं और नवीन उदार प्रथाओं के माध्यम से इस्लाम के संदेश को फैलाया, जिसमें इस्लाम के आंतरिक, आध्यात्मिक सिद्धांतों पर बल दिया गया, जैसे कि प्रेम, भक्ति और आत्म-शुद्धि के माध्यम से अल्लाह (ईश्वर) से निकटता की तलाश करना।
स्थानीय संस्कृतियों के साथ तालमेल: सूफी संत भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विशेषकर दिल्ली और गुजरात में बस गए, उन्होंने स्थानीय संस्कृतियों और परंपराओं के साथ तालमेल किया, उन्हें अपनाया और स्वीकार किया। उन्होंने अपनी शिक्षाओं में भारतीय दर्शन, संगीत, कविता और अन्य स्थानीय रीति-रिवाजों के तत्वों को शामिल किया, जिससे इस्लाम और भारतीय रहस्यवाद का एक अनूठा मिश्रण तैयार हुआ जिसे “इंडो-इस्लामिक सूफीवाद” के रूप में जाना जाने लगा।
समन्वयवाद और समावेशिता: भारत में सूफीवाद को अक्सर इसकी समावेशी और समन्वयात्मक प्रकृति की विशेषता रही है। सूफी संतों ने सभी क्षेत्रों के लोगों को गले लगाया, भले ही उनकी धार्मिक, सामाजिक या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो। उन्होंने मानवता की एकता और प्रेम और सहिष्णुता के महत्व पर बल दिया, जिसने भारत में हिंदुओं, सिखों और अन्य लोगों सहित विभिन्न धर्मों के लोगों से अपील की।
इस्लामी प्रसार में भूमिका: सूफीवाद ने भारत में इस्लाम के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सूफी संत अपनी मिशनरी गतिविधियों के लिए जाने जाते थे, और उन्होंने “खानकाह” (सूफी मठ) की स्थापना की, जो इस्लाम के प्रसार और जनता को आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान करने के केंद्रों के रूप में कार्य करता था। सूफी संतों के प्रेम, विनम्रता और मानवता की सेवा के संदेश ने लोगों को आकर्षित किया, और उन्होंने कई अनुयायियों को आकर्षित किया, जिससे भारत में सूफी आदेशों (तारिकों) का विकास हुआ।
सांस्कृतिक और राजनीतिक संरक्षण: भारत में सूफीवाद को इस्लाम स्वीकार करने वाले विभिन्न शासकों और अमीरों से भी संरक्षण प्राप्त हुआ। इन संरक्षकों ने सूफी संतों और उनकी संस्थाओं को वित्तीय सहायता, भूमि अनुदान और सुरक्षा प्रदान की। इसने सूफीवाद को फलने-फूलने दिया और खुद को भारतीय समाज और संस्कृति के अभिन्न अंग के रूप में स्थापित किया।
समय के साथ, भारत में सूफीवाद ने अपनी अनूठी विशेषताओं को विकसित किया, सूफी संतों के अलग-अलग आदेशों और वंशों के साथ, जैसे कि चिश्ती, कादिरी, नक्शबंदी, और सुहरावर्दी, अन्य। आज, सूफीवाद भारत में एक जीवंत और प्रभावशाली परंपरा बना हुआ है, जिसमें मुस्लिम और गैर-मुस्लिम समान रूप से अनुयायी हैं, जो भारतीय उपमहाद्वीप की समृद्ध सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उन्नति में योगदान करते हैं।
वहदत-उल-वुजूद का सिद्धांत क्या है?
वहदत-उल-वुजुद, जिसे अस्तित्व की एकता के सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है, एक दार्शनिक अवधारणा है जो इस्लामी सूफीवाद के भीतर उत्पन्न हुई, विशेष रूप से 13 वीं शताब्दी के फारसी सूफी रहस्यवादी और कवि, जलालुद्दीन रूमी और उनके अनुयायियों की शिक्षाओं से जुड़ी हुई है।
वहदत-उल-वुजूद के सिद्धांत को शेख मुही-उद्दीन इब्न-उल-अरनी ( 1165-1240) ने प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत को भारत के सूफी संतों ने स्वीकार किया। और बहुत से हिन्दुओं को इस्लाम में परिवर्तित किया।
वहदत-उल-वुजुद का सिद्धांत यह मानता है कि केवल एक परम शक्ति है, जो ईश्वर या अल्लाह है, और अस्तित्व में बाकी सब कुछ उस विलक्षण वास्तविकता का प्रकटीकरण या प्रतिबिंब है। इस सिद्धांत के अनुसार, सारी सृष्टि का रचयिता अल्लाह है और प्रत्येक चीज के पीछे है। स्वाभाविक रूप से सबकुछ अल्लाह से जुड़ा है और उस पर निर्भर है। भौतिक दुनिया और इसकी सभी विविधता, जिसमें मनुष्य और अन्य सभी प्राणी शामिल हैं, को ईश्वर के गुणों और उनके दिव्य प्रकाश के प्रतिबिंबों की अभिव्यक्ति माना जाता है।
वहदत-उल-वुजुद सभी अस्तित्व की एकता और सद्भाव पर जोर देता है, निर्माता और सृष्टि के बीच के अंतर को धुंधला करता है, और यह सुझाव देता है कि दुनिया की स्पष्ट बहुलता और विविधता एक भ्रम है। यह दैवीय सर्वव्यापकता के विचार पर जोर देता है, जहां ईश्वर को वर्तमान के रूप में देखा जाता है और इससे अलग और दूर होने के बजाय सृष्टि में सब कुछ व्याप्त है।
हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि वहादत-उल-वुजुद की अवधारणा इस्लामी रहस्यवाद के भीतर व्याख्या और बहस का विषय रही है, और सभी सूफी परंपराएं या विद्वान इसे उसी तरह से स्वीकार या वर्णित नहीं करते हैं। कुछ आलोचकों ने सिद्धांत में संभावित सर्वेश्वरवादी या सर्वेश्वरवादी निहितार्थों के बारे में भी चिंता जताई है, जिसे पारंपरिक इस्लामी एकेश्वरवाद के साथ परस्पर विरोधी के रूप में देखा जा सकता है।
सूफी शब्द किस शब्द से बना है?
“सूफी” शब्द अरबी शब्द “सुफी” (صُوفِيّ) से लिया गया है, जो “ṣuf” (صُوف) से लिया गया है जिसका अर्थ है “ऊन।” शब्द “सूफी” मूल रूप से मुस्लिम संतों के लिए संदर्भित है, जो सांसारिक इच्छाओं और भौतिकवाद से अलग होने के प्रतीक के रूप में मोटे ऊनी वस्त्र पहनते थे। सूफीवाद विभिन्न सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं से प्रभावित रहा है, और इसने साहित्य, संगीत और कला की एक समृद्ध परंपरा का निर्माण किया है।
खानकाह किसे कहते हैं?
“खानकाह” इस्लामी संस्कृति में इस्तेमाल किया जाने वाला एक शब्द है जिसका उपयोग पूजा स्थल या सूफी मुसलमानों के लिए आध्यात्मिक वापसी के लिए किया जाता है। इसे “खानकाह” या “खानकाह-ए-सूफिया” के नाम से भी जाना जाता है। खानकाह आमतौर पर सूफी आदेशों या तारिकों से जुड़े होते हैं, जो इस्लामी रहस्यमय और तपस्वी बिरादरी हैं जो प्रार्थना, ध्यान और अन्य आध्यात्मिक प्रथाओं के माध्यम से ईश्वर के प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव पर जोर देते हैं।
खानकाह में, सूफी साधक एक सूफी गुरु या आध्यात्मिक नेता के मार्गदर्शन में इकट्ठा होते हैं, जिन्हें “पीर” या “शेख” के रूप में जाना जाता है, जो सूफी पथ पर मार्गदर्शन और निर्देश प्रदान करते हैं। खानकाह सूफी शिष्यों के लिए सांप्रदायिक पूजा, ईश्वर की याद और आध्यात्मिक चिंतन में संलग्न होने के स्थान के रूप में कार्य करता है। यह सामुदायिक सेवा, धर्मार्थ गतिविधियों और शिक्षा के केंद्र के रूप में भी कार्य कर सकता है।
पूजा और आध्यात्मिक अभ्यास के स्थानों के रूप में सेवा करने के अलावा, खानका सूफी परंपराओं को संरक्षित करने, इस्लामी आध्यात्मिकता को बढ़ावा देने और सूफी चिकित्सकों के बीच समुदाय की भावना को बढ़ावा देने में भी भूमिका निभाते हैं। उन्हें सूफीवाद के भीतर महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक संस्थान माना जाता है, जो इस्लाम के भीतर एक समृद्ध और विविध रहस्यमय परंपरा है।
भारत में सूफीवाद का इतिहास
भारत में सबसे पहले कौनसे सूफी संत आये
महमूद गजनवी के पंजाब विजय करने के बाद कई सूफी संत भारत में आये। दो प्रमुख नाम जिनका अक्सर उल्लेख किया जाता है, वे हैं शेख इस्माईल था जो लाहौर आया। उसके बाद शेख अली बिन उस्मान अल हजबैरी था। वह दातागंज बख्स के नाम से प्रसिद्ध है। उसका मक़बरा लाहौर में है। उसे भारत में सूफी मत का संस्थापक भी माना जाता है। इसके बाद हज़रत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और हज़रत शेख शराफुद्दीन बू-अली कलंदर का नाम आता है। एक और प्रमुख संत सैयद अहमद सुल्तान सखी सर्बर था। उसको ‘लखदाता’ भी कहा जाता था।
हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, जिन्हें ख्वाजा गरीब नवाज के नाम से भी जाना जाता है, एक फारसी सूफी संत थे, जिनके बारे में माना जाता है कि वे 12वीं शताब्दी के अंत में भारत आए और अजमेर, राजस्थान में बस गए। उन्हें दक्षिण एशिया में सबसे सम्मानित और प्रभावशाली सूफी संतों में से एक माना जाता है, और अजमेर में उनका दरगाह मुसलमानों और अन्य धर्मों के लोगों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थान है।
दूसरी ओर, हजरत शेख शराफुद्दीन बू-अली कलंदर, एक फारसी सूफी संत थे, जिनके बारे में माना जाता है कि वे 11वीं शताब्दी के दौरान भारत आए और उस क्षेत्र में बस गए, जिसे अब कर्नाटक के रूप में जाना जाता है। उन्हें शुरुआती सूफी संतों में से एक माना जाता है जिन्होंने दक्षिण भारत में इस्लाम और सूफीवाद का प्रसार किया।
चिश्ती सिलसिले (Chishti Order ) –
सूफियों के दो सिलसिले भारत में जम गये । उनके नाम ये चिश्ती और सुहरावर्दी सिलसिले । चिश्ती ‘सिलसिले’ की स्थापना ख्वाजा अब्दुल चिश्ती ने हेरात में की। इस ‘सिलसिले’ को ख्बाजा म्यून- उद्दीन चिश्ती (११४१-१२३६) भारत लाया । वह भारत के सूफियों में सबसे बड़ा नाम था । जनका जन्म मध्य एशिया में हुआ। बचपन से ही वह ईश्वर का भक्त था । उसने घर छोड़कर पवित्र स्थानों का भ्रमण करना शुरू किया और समरकन्द, बगदाद, मक्का आदि पवित्र स्थानों की यात्रा की।
ख्बाजा म्यून- उद्दीन गजनी से ११६१ ई० में लाहौर आया और अन्त में उसने अजमेर को अपना प्रधान केन्द्र बना लिया। उसने निम्न जाति के लोगों में अधिकतर काम किया । उसका विश्वास था कि सबसे उच्च कोटि की भक्ति लोगों की सेवा है। उसकी बड़ी प्रसिद्धि हुई और आज भी प्रति वर्ष हजारों यात्री श्रद्धा से अजमेर शरीफ जाते हैं।
ख्वाजा म्यूनउद्दीन चिश्ती के कई शिष्य और अनुयायी थे उनमें से शेख हमीद-उद्दीन और शेख कुतुबउद्दीन बख्तयार काकी थे। शेख काकी इल्तुतमिश के शासन- काल में दिल्ली आया । सुल्तान उससे बड़ा प्रभावित हुआ और उसे अपने महल के नजदीक रहने की प्रार्थना की परन्तु शेख काकी ने वह प्रार्थना स्वीकार न की और शहर के बाहर एक खानकाह में रहा। उसने “शेख -उल-इस्लाम” का पद लेने से इन्कार कर दिया । यद्यपि उसने राजनीतिक कामकाज में कोई रुचि न ली, तथापि उसकी खानकाह पर सब प्रकार के लोगों ने आना शुरू कर दिया। उसका जीवन पवित्र और सादा था । उसकी मृत्यु १५ नवम्बर, १२३३ ई० को हुई।
काका साहब का शिष्य शेख फरीदउद्दीन मसऊद गंजेशाकर (११७४-१२६५) था। वह बाबा फरीद शकरगंज के नाम से विख्यात है। वह अफगानिस्तान के राज- वंश से था । उसका दादा मुल्तान आया था और वहाँ रहने लग गया था। उसने हांसी और अजोधन में काम किया।
शेख फरीद के धार्मिक कार्यों के कारण चिश्ती सिलसिले को भारत में व्यापक लोकप्रियता प्राप्त हुई। उसने अपने कई शिष्यों का प्रशिक्षिण किया। उसने कई खानकाहें बनाई। वह इतना लोकप्रिय था कि उसके शिष्य और यात्री हर वक्त उसे घेरे रखते थे। जितनी उसकी प्रतिष्ठा भारत में थी उतनी और किसी सूफी सन्त की न थी।
उसे एकान्त अच्छा लगता था। उसका विश्वास था कि सम्राटों और अमीरों से दूर रहना चाहिए क्योंकि जो दरवेश उनसे मित्रता करता है, अंत में उसको दुःख होता है। उसने निम्न वर्गों और दीन-दुखियों के लिए प्यार और उदारता के द्वार खोल दिये। उसको अपने जीवनकाल में ही आध्यात्मिक और मानसिक शान्ति प्राप्त हो गई।
उसने असंख्य पथ भ्रष्ट और पददलित मनुष्यों को सत्य और आस्था का प्रकाश दिया। उसकी वाणी में समाज और राजनीति के कटु यथार्थ की ध्वनि सुनाई देती थी। उसने मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति का स्वर बुलन्द किया। उसका सन्देश हिन्दू और मुसलमान दोनों को प्रिय था। उस सन्देश में कर्मकांड और आडम्बरों को त्यागकर दोनों जातियों को एक सूत्र में बांधने की भावना प्रबल थी।
उसने घृणा, हिंसा और वैरभाव को त्यागकर सहानुभूति और पारस्परिक प्रेम का पाठ पढ़ाया। आपका व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली, विनम्र, उदार और मधुरभाषी था। आपने सारी “वाणी” में किसी भी धर्म का खंडन नहीं किया। फलस्वरूप आज भी आपकी समाधि सबके लिए तीर्थस्थान बनी हुई है।
हजरत निजामुद्दीन औलिया. (1230-1325) बाबा फरीद का शिष्य और उत्तराधिकारी था । वह 1258 ई० में दिल्ली आया और वहां उसने लगभग ६० वर्ष धार्मिक काम किया। उस काल में दिल्ली सल्तनत के कई सुल्तान बने परन्तु औलिया साहब किसी की भी कचहरी अथवा दरबार में न गए। उनका विचार था कि सुल्तान के पास जाना ठीक न था। उसने अलाउद्दीन खिलजी से मिलने से इन्कार कर दिया।
उस समय उलेमा का सुल्तानों पर अधिकार था और औलिया साहिब सुल्तानों से इसलिए भी नहीं मिलते थे ताकि उनका कट्टर उलेमा से झगड़ा न हो जाये । औलिया साहिब से कट्टर उलेमा घृणा करते थे परन्तु साधारण जनता उनकी प्रशंसा करती थी। लोग उनको “महबूब इलाही” के नाम से पुकारते थे। आध्यात्मिक जगत् में उनका बड़ा स्थान था । उनके अनुयायी सारे भारत में फैल गये। उनके व्यक्तित्व ने चिश्ती सिलसिले को लोकप्रिय बना दिया।
मुहम्मद तुगलक उनका प्रिय शिष्य या और सुल्तान ग्यासुद्दीन तुगलक उनसे अप्रसन्न था । औलिया साहिब में धार्मिक और सामाजिक कट्टरता लेशमात्र भी न थी। उनकी विचारधारा में मानव मात्र के लिये अनेक उपयोगी और कल्याणकारी तत्त्व थे। उन्होंने समाज सेवा और मानव-विकास पर बड़ा जोर दिया। उन्होंने अपने उपदेशों से मानव हृदय को शान्ति प्रदान की।
वे मनुष्यमात्र की एकता के सच्चे प्रतीक थे औलिया साहिब अपने पास कुछ भी नहीं रखते थे । इसलिए कई बार उन्हें भूखा भी रहना पड़ता था । तब वे कहा करते थे, “मैं ईश्वर का अतिथि हूँ”। उन्होंने ईश्वर भक्ति और ईश्वर से प्यार पर बड़ा जोर दिया। उनकी समाधि निजामुद्दीन (जो कि नई दिल्ली में है) में है। हजारों श्रद्धाल प्रति वर्ष अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करने के लिये वहां जाते हैं।
शेख हमीद-उद्दीन नागौरी (१११२-१२७४) ने नगौर के स्थान पर एक महत्व पूर्ण चिश्ती सिलसिले का केन्द्र बनाया। वह वहां एक साधारण राजस्थानी खेतिहर के समान रहा। वह उन लोगों से पीछे हट कर रहा जिनका सरकार से सम्बन्ध था उसने गजली की पुस्तकों का पूरे ध्यान से अध्ययन किया। उसने हिन्दवी भाष अपनाई और उसके उत्तराधिकारियों ने बहुत सी फारसी में लिखी हुई पुस्तकों क हिन्दवी में अनुवाद कराया। कई पद तो नगौरी साहिब के लिखे हुए प्रतीत होते हैं
शेख नासिर-उद-दीन महमूद चिश्ती सम्प्रदाय के एक महान सूफी संत थे, उन्हें “दिल्ली का चिराग (प्रकाश)” भी कहा जाता है। वह 25 वर्ष की आयु में संत बन गए। उन्होंने अपना पूरा जीवन पढ़ने, ध्यान और प्रार्थना करने के लिए समर्पित कर दिया। 25 वर्ष की आयु में वे शेख निजामुद्दीन औलिया से मिलने दिल्ली गए और उनके शिष्य बन गए। उन्होंने अपना जीवन औलिया साहब की शिक्षाओं के अनुसार बनाया और बहुत ही सादा जीवन व्यतीत किया। वह शाही दरबार में नहीं गया।
उन्होंने औलिया साहब की जगह ली और अपने गुरु की परंपरा को आगे बढ़ाया। कुतुब-उद-दीन मुबारक (1316-1320) ने शेख महमूद को मिरी मस्जिद में आने और नमाज़ करने के लिए कहा। चूंकि उसने इनकार कर दिया, इसलिए उसके लिए एक बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई लेकिन बादशाह मुबारक की मृत्यु के कारण वह बच गया। मोहम्मद तुगलक के साथ भी उसके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। वे चिश्ती सम्प्रदाय के एक महान संत थे जिन्होंने अखिल भारतीय ख्याति प्राप्त की।
सिराज-उद-दीन अली सिराज ने बंगाल में चिश्ती आदेश की शुरुआत की। उनका केंद्र ध्यान था। 1357 में उनकी मृत्यु हो गई। उनके उत्तराधिकारी नूर-कुतुब-ए-आलम थे, जिनकी मृत्यु 1410 में हुई थी। उन्होंने पांडुआ में खानखान बनाए।
शेख अलाउद्दीन अली अहमद समीर बाबा फरीद के शिष्य थे। 1291 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। उनके दो उत्तराधिकारी पानीपत में रहे। अहमद-बिन-अब्दुलहक की मृत्यु 1434 ई. में हुई। उसने अपना खानकाह रुदौली नामक स्थान पर बनवाया जो लखनऊ से लगभग पचास मील पूर्व में है। शेख अब्दुल कुद्दुस (1455-1536) ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के गंगोह स्थल पर अपना खानकाह बनवाया।
सैयद मुहम्मद गेसू दराज (1320-1422) ने गुलवर्गा को अपने गतिविधियों का केंद्र बनाया, जो बहमनी साम्राज्य की पहली राजधानी थी। कई चिश्ती संत, जिन्हें मुहम्मद तुगलक ने दिल्ली छोड़ने के लिए मजबूर किया और दौलताबाद में रहने के लिए कहा, ने भी दक्षिण भारत में चिश्ती सिलसिले का प्रचार किया।
मुगलों के शासन काल में चिश्ती सम्प्रदाय का पहले जैसा प्रभाव नहीं रहा क्योंकि उस काल में निजामुद्दीन औलिया जैसा कोई धर्मगुरु नहीं था। कई मुसलमान उनसे नाराज हो गए क्योंकि उन्होंने एक ईश्वर के सिद्धांत का पूरी तरह से पालन नहीं किया। चूंकि वे राज्य से अलग रहते थे, इसलिए लोग उनके प्रति उदासीन हो गए।
शेख सलीम चिश्ती सम्प्रदाय के संत थे जिनका केन्द्र फतेहपुर सीकरी था। कहा जाता है कि जहांगीर का जन्म शेख सलीम के आशीर्वाद से हुआ था। बादशाह अकबर स्वयं उनके पास गए और उनसे पुत्र की याचना की। शेख सलीम की बड़ी ख्याति थी। उनकी मृत्यु अकबर के जीवनकाल में ही हो गई थी। और उन्हें फतेहपुर सीकरी में ही दफनाया गया था और उस स्थान पर एक मकबरा बनाया गया था। शेख सलीम के बेटे और पोते मुगल सरकार के कर्मचारी बन गए।
शेख निज़ामुद्दीन फ़ारूक़ी थानेश्वरी चिश्ती सम्प्रदाय के एक महान संत थे। उन्होंने जहांगीर के पुत्र खुसरो को आशीर्वाद दिया। इस कारण बादशाह जहाँगीर ने उसे अपने राज्य से निकाल दिया। शाहजहाँ के शासनकाल में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रभाव बढ़ा। चिश्ती संतों ने घोषणा की कि वे मुग़ल बादशाह और मुग़ल साम्राज्य के समर्थक हैं।
औरंगजेब के शासन काल में चिश्ती सम्प्रदाय के एक पंथ, जिसके नेता शाह कलीमुल्लाह ज़हरवाड़ी थे, ने उपदेश दिया कि सुन्नी मुसलमानों, शिया मुसलमानों और हिन्दुओं को भारत में एक साथ रहना चाहिए।
चिश्ती सम्प्रदाय के संत सादगी और पवित्रता का जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने स्वेच्छा से गरीबी को स्वीकार किया। वे व्यक्तिगत संपत्ति को आध्यात्मिक प्रगति और विकास के मार्ग में बाधक मानते थे। उनके आवास प्राय: पत्थर के बने होते थे। हालाँकि उनमें से अधिकांश विवाहित थे, फिर भी उन्होंने बाद के जीवन को नहीं छोड़ा।
उन्होंने सुल्तानों से अपने लिए कोई उपाधि स्वीकार नहीं की। लोगों द्वारा अपनी मर्जी से दिए गए चंदे से उनका गुजारा होता था। हालाँकि कभी-कभी ये संत भूख से मरने लगे, लेकिन उन्होंने अमीरों या सुल्तानों से भीख नहीं माँगी।
- निजामुद्दीन ओलिया की जिंदगी में ऐसे कई मौके आए जब उन्हें रात भर भूखा रहना पड़ा।
- वह अपनी इच्छाओं को दबाने के लिए उपवास रखता था। उनके कपड़े साधारण थे।
- वह फटे-पुराने कपड़े पहनकर गरीबों के बीच रहना पसंद करता था।
- उनका मानना था कि भावनाओं पर नियंत्रण होना चाहिए। आचरण और विचार शुद्ध रखने चाहिए।
- बाबा फरीद सुबह जल्दी उठकर नमाज अदा करने के बाद समाधि पर चले जाते थे। रात्रि में पूजा के बाद वे ध्यान में लीन रहते थे।
- सूफी संत मन की पवित्रता में विश्वास करते थे। ईश्वर-प्राप्ति के लिए उन्होंने “अहंकार” को मिटाना आवश्यक समझा।
चिश्ती संत उदार विचारों के थे। वह ईश्वर के प्रति प्रेम और मानव जाति की सेवा में विश्वास करते थे। वे अद्वैतवाद में विश्वास करते थे। वे मानव सेवा को भक्ति से बढ़कर मानते थे। वे दीन दुखियों की सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे। वह निजी संपत्ति में विश्वास नहीं करता था। चूँकि वह अपनी समाधि में लीन था, इसलिए वह अपने बच्चों की देखभाल नहीं कर सकता था। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके बच्चों को संसार की बातों का ज्ञान तो हो गया पर उनकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हुई।
सुहरावर्दी आदेश
सुहरावर्दी सिलसिले की स्थापना शेख शहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1145-1234) ने की थी। उन्होंने अपने शिष्यों को भारत भेजा और वे भारत के उत्तर-पश्चिम भागों में बस गए। उनमें से एक शेख बहाउद्दीन जकारिया सुहरावर्दी (1182-1263) थे। उसने मुल्तान में खानकाह बनवाया और वहां लगभग 50 वर्षों तक काम किया।
वह गरीबी के जीवन में विश्वास नहीं करता था। वह आराम और खुशी के जीवन में विश्वास करते थे। उन्होंने अपना जीवन संतुलित तरीके से जिया। उनका विचार था कि इस्लाम के सभी रीति-रिवाजों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। उन्होंने हिंदुओं को सलाम करने के तरीके का विरोध किया। उन्होंने देश की राजनीति में पूरा हिस्सा लिया और सुल्तानों और अमीरों के साथ बातचीत की।
उसने कुबाचा के साथ लड़ाई में इल्तुतमिश का पक्ष लिया। उन्हें यह पुरस्कार मिला कि उन्हें “शेख-उल-इस्लाम” की उपाधि दी गई। वह आम लोगों से नहीं मिलते थे। उनके संपर्क ऐसे लोगों से थे जो धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों में बड़े थे। इसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में धनी लोग उनके अनुयायी बन गए। उसने सम्राटों और अमीरों से वस्तुओं और भूमि के रूप में अनेक उपहार प्राप्त किए। कहा जाता है कि वे मध्यकालीन भारत के सबसे धनी संत थे।
उनकी मृत्यु के बाद, सुहरावर्दी श्रृंखला दो भागों में विभाजित हो गई। एक का कार्यक्षेत्र मुल्तान था और दूसरे का सिंध। शेख जकरिया सुहरावर्दी के पुत्र बद्र उद्दीन आरिफ मुल्तान शाखा के प्रमुख बने।
जलालुद्दीन सुरख बुखारी उच्च शाखा के अध्यक्ष बने। बद्रदीन आरिफ ने करीब 23 साल तक उसकी शाखा में काम किया। वह एक मामले में अपने पिता से अलग थे। उनका विचार या धन का संचय आध्यात्मिक प्रगति में बाधा डालता है। उन्होंने अपने पिता से सात लाख टंका प्राप्त किया था। उन्होंने उन टंका को गरीबों को दान के रूप में दिया और खुद एक साधारण जीवन व्यतीत किया। जलालुद्दीन सुरखी ने उच्छ में सुहरावर्दी बिलसिला का विस्तार किया। उसने बड़ी संख्या में हिंदुओं को इस्लाम में परिवर्तित किया।
शेख जलालुद्दीन तब्रेजी ने लखनौती में खानकाह और लंगर बनवाया। ऐसा ही उसने देवताल्ला में किया जो बंगाल में पांडुआ के पास है। उन्होंने बड़ी संख्या में बंगालियों को इस्लाम में परिवर्तित भी किया। सुहरावर्दी सिलसिले ने पंजाब, सिंध और बंगाल में तीन महत्वपूर्ण केंद्र बनाए। मुहवर्दी संतों ने हिन्दुओं को मुसलमान बनाने पर जोर दिया और इस कार्य के लिए उन्हें अनेक स्रोतों से सहायता मिली। मखदूम जहानियां (1308-84) और उनके भाई राजू कट्टल ने हिंदुओं को इस्लाम में परिवर्तित करने में बहुत योगदान दिया।
चिश्ती सम्प्रदाय और सुहरावर्दी सम्प्रदाय में कुछ अन्तर और मैलिक फर्क था। सुहरावर्दी संत सुल्तानों और अमीरों के साथ जुड़ते थे लेकिन चिश्ती संत उनसे दूर रहते थे। बहाउद्दीन जकारिया ने हर तरह से धन इकट्ठा किया। चिश्ती संतों ने जो धन प्राप्त किया या अपने पास नहीं रखा। इसे वे लोगों में बांट देते थे।
चिश्तियों के जमातखाने में हर तरह के लोग आ सकते थे। वे सब एक साथ एक बड़े हॉल में रहते थे। सुहरावर्दी सम्प्रदाय के लोगों को अलग रहने का स्थान दिया जाता था। बहाउद्दीन जकारिया ने लोगों को भुला दिया और अपना ध्यान केवल अमीरों पर रखा। लोगों से मिलने के लिए कुछ समय निर्धारित किया गया था। लोग उनसे असंतुष्ट थे।
फिरदौसी सिलसिले –
फिरदौसी सिलसिला सुहरावर्दी सिलसिला की एक शाखा थी और इसका कार्यक्षेत्र बिहार था। इस श्रृंखला को शेख शरीफ उद्दीन याह्या ने लोकप्रिय बनाया था। वह ख्वाजा निजामुद्दीन फिरदौसी के शिष्य थे। उन्होंने इस्लाम के सिद्धांतों का आधुनिकीकरण किया। उन्होंने इस्लाम के एकेश्वरवाद को इस्लाम के सिद्धांतों के साथ मिलाने की कोशिश की।
उनका मत था कि ईश्वर से मिलन का अर्थ एक शरीर से मिलना और एक वस्तु को दूसरे से स्पर्श करना नहीं है। इसका अर्थ है संसार के प्रति त्याग की भावना। वह एक महान लेखक थे। वह एक सांसारिक व्यक्ति भी थे। मकतूबत और मालफुजत के अलावा उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए अन्य पुस्तकों की रचना की। उन्होंने मानव सेवा पर बहुत बल दिया।
वे अपने अनुयायियों से कहा करते थे कि हमें उपदेश, कलम, धन और पद से लोगों की सेवा करनी चाहिए। ईश्वर से मिलने का सबसे छोटा रास्ता निम्न वर्ग के लोगों की मदद करना और दूसरों की जरूरत को भी पूरा करना है। उनका विचार था कि शासक का वास्तविक कर्तव्य भोजन करना, अपने नग्न शरीर को कपड़े से ढकना और उन लोगों की मदद करना है जो दुखी और असहाय हैं।
कादिरी आदेश
कादिरी सम्प्रदाय के संस्थापक बगदाद के शेख अब्दुल कादिर जिलानी (1077-1166) थे। यह श्रृंखला पंद्रहवीं शताब्दी में भारत पहुंची। शाह न्यामतुल्लाह और मखदूम मुहम्मद जिलानी ने भारत में इस श्रृंखला को लोकप्रिय बनाया। शेख अब्दुल हक मुहद्दिस (1551-1642) के कादिरी मास्टर थे। मियां मीर (1550-1635) ने उपदेश दिया कि हमें लोगों के प्रति दयालु होना चाहिए। उन्होंने जहाँगीर और शाहजहाँ दोनों से कहा कि वे अपनी प्रजा के सभी वर्गों का ध्यान रखें।
उन्होंने कहा कि मुसलमानों और काफिरों (गैर-इस्लामिक) और स्वर्ग और नरक के बीच अंतर करना बेमानी है। सच्ची प्रार्थना वह है जो परमेश्वर की इच्छा को पूरा करे। उनके शिष्य मुल्लाशाह थे जो एक कवि और दार्शनिक भी थे। उसने सोचा कि जो भगवान तक पहुँचता है और उसे भी देखता है वह अच्छा है और जो ऐसा नहीं कर सकता वह काफिर है। मुल्लाशाह दारा शिकोह के शिक्षक या गुरु थे।
कादिरी सम्प्रदाय के अनुयायी गायन और वादन के विरुद्ध थे। हरी पगड़ी बांधते थे। दारा शिकोह इसी श्रृंखला के अनुयायी थे। प्रारंभ में यह श्रृंखला उच्छ (सिंह) तक ही सीमित थी लेकिन बाद में यह आगरा तथा अन्य स्थानों पर भी फैल गई।
नक्शबंदी आदेश –
यह सिलसिला भारत में ख्वाजा पीर मुहम्मद के अनुयायियों द्वारा चलाया जाता था। इसे ख्वाजा बाकी बिल्लाह (1563-1603) ने लोकप्रिय बनाया था। इसके अनुयायी शरिया पर जोर देते थे और नई चीजों का विरोध करते थे। इस सीरीज के लोग म्यूजिक के खिलाफ थे। उन्होंने एकेश्वरवाद के सिद्धांत को भी चुनौती दी। शेख अहमद सर ख्वाजा बाकी बिल्लाह के शिष्य थे। उन्होंने ऐसी विचारधारा को बढ़ावा दिया. जिसका उद्देश्य सूफीवाद और वहदत-उल-वुजूद के सिद्धांत का विरोध करना था।
उनके अनुसार मनुष्य और ईश्वर के बीच का सम्बन्ध एक दास और उसके स्वामी के समान है। वह रिश्ता एक पुरुष और एक महिला को एक दूसरे से प्यार करने जैसा नहीं है। उन्होंने अपने शिष्यों और अनुयायियों को कई पत्र लिखे जिनके संग्रह का नाम मुकुतबाद-रहमानी है। उसने कट्टर मुसलमानों और सूफियों को एक स्थान पर लाने का प्रयास किया।
उसने अकबर के उदारवाद का विरोध किया और शरीयत पर जोर दिया। उनके अनुसार उलेमा का शासन में उच्च पद होना चाहिए। उन्होंने कहा कि सूफियों के सिद्धांतों को शरीयत के साथ मिला देना चाहिए। 1616-20 में सम्राट जहांगीर ने उसे ग्वालियर के किले में कैद कर दिया।
वह शाह वलीउल्लाह (1702-1062) नक्सबंदी क्रम के एक संत थे। वहदत उल-वुजूद और वहदत उश-शहुद के सिद्धांतों को मिलाने की कोशिश की। उनका विचार था कि इन दोनों सिद्धांतों में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। ईश्वर ही एकमात्र ऐसी चीज है जिसका अपना अस्तित्व है। दुनिया में सब कुछ अल्लाह द्वारा बनाया गया है। शाह बली उल्लाह एक महान विद्वान थे। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। उनकी बहुत तेज बुद्धि थी जिसके कारण वे बहुत उच्च सूफी बन गए।
ख्वाजा मीर दर्द नक्शबंदी के एक महान संत थे। वह फारसी और उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र पर कई पुस्तकें लिखीं। उपरोक्त वर्णित सिलसिला के अलावा, भारत में सूफियों के कई अन्य सिलसिले थे। उनके नाम मर्दरिया, तबकातिया गुजनमार, सोहगिया, जलिलिया मूसा और वहाबी थे। लेकिन इन सिलसिलों का कोई असर नहीं हुआ।
औरंगजेब के धार्मिक और राजनीतिक विचार सूफियों से भिन्न थे। सूफ़ी भी शाही दरबार से प्रभावित थे जहाँ सांसारिक लालच और विलासिता थी। अच्छे संतों को निष्कासित कर दिया गया और भ्रष्ट दरबारियों को नियुक्त कर दिया गया। सूफी संत भी धन संग्रह करने लगे। परिणाम यह हुआ कि भारत में सूफीवाद विलुप्त हो गया।
दक्षिण भारत में सूफीवाद
सूफीवाद दक्षिण भारत में भी फैला। सुल्तानों द्वारा दक्षिण की विजय से पहले ही, सूफी संत दक्षिण भारत चले गए थे और वहां के लोगों को प्रभावित किया था। प्रोफ़ेसर खालिक अहमद निज़ामी का मत है कि दक्षिण में चिश्ती सम्प्रदाय की नींव शेख बुरहान दीन ग़रीब ने रखी थी जो निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य थे। उसने दौलताबाद को अपना स्थायी केन्द्र बना लिया। हाजी रूमी ने बीजापुर में खानकाह की स्थापना की।
दक्षिण में शेख हुसैनी गेसूदराज के आने के बाद चिश्ती सम्प्रदाय को प्रोत्साहन और महत्व प्राप्त हुआ। वे एक महान साधक थे। उन्हें शरीयत और तारिक़त का जानकार माना जाता था। उनके प्रयासों से इस्लामी ज्ञान के प्रसार के लिए गुलबर्गा में एक विशाल मदरसा स्थापित हुआ, जो दो सौ वर्षों तक टी सिलसिला का केंद्र बना रहा।
यह उनके प्रचार का ही प्रभाव था कि बहमनी राज्य के अनेक शासकों ने उदारवादी नीति का अनुसरण किया। दक्षिण भारत और बीजापुर के सूफी दरगाह सभी वर्गों के लोगों के लिए खुले थे। सूफी आंदोलन ने बहमनी साम्राज्य को नैतिक शक्ति प्रदान की।
मुहम्मद तुगलक और फिरोज तुगलक के शासनकाल में सूफीवाद का विकास हुआ। उन सुल्तानों ने सूफियों की इसी तरह निंदा की। सूफीवाद मुगल शासन के दौरान आगे नहीं बढ़ सका क्योंकि उस समय सूफियों में निजामुद्दीन औलिया जैसा संत नहीं था।
कट्टर मुसलमान भी सूफीवाद के खिलाफ हो गए। चूंकि सूफी संत सरकार से अलग रहते थे, इसलिए दरबार में उनका कोई प्रभाव नहीं था। चूंकि मानचित्रण की प्रक्रिया सरकारी दरबार और अमीरों के साथ मिश्रित थी, इसलिए यह लोगों के बीच लोकप्रिय नहीं थी। शेख अहमद सिरहिन्दी (1463-1624) ने अकबर के धार्मिक विचारों की आलोचना की। जहांगीर ने उसे बंदी बना लिया। औरंगजेब ने भी सूफीवाद का विरोध किया। धीरे-धीरे सूफीवाद का प्रभाव कम होता गया।
भारत में विभिन्न सूफी सम्प्रदायों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि उनमें परस्पर ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा नहीं थी। आपसी सम्मान और समझौता उनके मुख्य आधार थे। किसी भी मुसलमान को किसी भी शृंखला में दीक्षा दी जा सकती थी। भारत में दिल्ली, अजमेर, मुल्तान, सिंध, फतेहपुर सीकरी और दक्षिण में कई स्थानों पर सूफी संतों के मकबरे अलग-अलग लोगों से प्रतिष्ठा प्राप्त करते रहे हैं।
सूफी ईश्वर को सृष्टि के कण-कण में विद्यमान मानते हैं। ईश्वर को एक व्यापक इकाई के रूप में स्वीकार करें। ईश्वर एक है और उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। धर्मों का आंतरिक और बाहरी भेदभाव व्यर्थ है। प्राम। वही ईश्वर का साक्षात रूप है। सूफी साधना की नींव प्रेम के माध्यम से ईश्वर को पाना है। रास्ते में आने वाली कठिनाइयों का सामना करना हमारा कर्तव्य है। सूफी साधक की इस यात्रा को सूफी साधना में शारिकत तारिकत, मरीफत और यथार्थ के नाम से समझा गया है। इस साधना से साधक को आई मजाजी से इश्ककीकी की प्राप्ति होती है.
भारत में सूफीवाद का प्रभाव
सूफीवाद के प्रभावों के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। डॉ ए एल श्रीवास्तव का मत है कि यद्यपि सूफीवाद ने अंत में हिंदुओं पर एक बड़ा प्रभाव डाला, शुरुआत में हिंदू सूफियों से अलग रहे। निम्न वर्ग के लोग भले ही सूफी संतों के संपर्क में आए हों, लेकिन अधिकतर वे उनसे दूर ही रहे (मध्यकालीन भारतीय संस्कृति, पृ. 77)।
डा० आर० सी० मजूमदार का भी वैसा ही विचार है । उसने लिखा है कि जिन हिन्दुओं पर प्रभाव भी पड़ा वह स्थाई सिद्ध न हुआ। हिन्दू मुसलमान एक दूसरे से दूर रहे। इसलिए घनिष्ठ सम्बन्ध पैदा न हुए ।
यूसुफ हुसैन का मत है कि सूफी सन्त कुरान शरीफ की शिक्षाओं पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने शुद्ध तथा पवित्र जीवन पर बल दिया । उन्होंने लोगों को मन की शान्ति प्रदान की । डा० ताराचन्द का विचार है कि शंकराचार्य के अद्वैतवाद और रामानन्द की भक्ति भावना पर इस्लाम के सम्पर्क का गहरा प्रभाव पड़ा। इस विचार का विरोध करने वाले विद्वान लिखते हैं कि बारहवीं शताब्दी से पूर्व इस्लाम तथा हिन्दू धर्म का सम्पर्क न था । इसलिए वे एक दूसरे से प्रभावित न हुए।
उसके बाद के काल में मुस्लिम राजसत्ता और सामाजिक संगठन अपना प्रभाव दिखा सका। यह कहना कठिन है कि सूफी मत का भक्ति आन्दोलन पर कितना प्रभाव पड़ा । प्रोफेसर अजीज महमद लिखते हैं कि भक्ति आन्दोलन के बुनियादी विचार भारतीय परम्परा में ही मौजूद रहे हैं।
यह कहना ठीक नहीं कि भारत में रहस्यवाद और भक्ति भावना का विकास सूफी साधना के द्वारा हुआ। भारत का सम्पूर्ण उपनिषद् साहित्य रहस्यवाद से गोत-प्रोत है। भगवद्गीता में भी भक्ति भावना पाई जाती है। जाति प्रथा और ब्राह्मणों के आडम्बरों की आलोचना बौद्ध धर्म में भी मिलती है।
भारतीय संस्कृति और साधना के सम्पर्क में आने पर सूफियों ने इस संस्कृति से बहुत कुछ ग्रहण किया। बाबा फरीद ने पंजाबी साहित्य को अनूठी देन दी । कुतुबन, मन्झन, जायसी और नूर मुहम्मद जैसे सूफी कवियों का साहित्य अवधी भाषा में है। सूफी मत और सूफियों ने बदलते हुए सामाजिक और धार्मिक वातावरण में रहने की शक्ति प्राप्त की।
सूफियों के प्रयत्नों का यह फल था कि इस्लाम में उदार और गतिशील तत्त्वों को प्रेरणा मिली। सूफी सन्त अधिक से अधिक जनसाधारण के सम्पर्क में आए । उन्होंने गरीबों की सेवा करना अपना कर्त्तव्य समझा। भारत में खानकाहों का उदार वातावरण हिन्दू-मुसलमानों को प्यार देने में सफल रहा। सूफियों ने अहिंसा और शान्ति से समस्याएं सुलझाने के लिए जनता को प्ररणा दी। जनता का ध्यान बार-बार भाईचारे की ओर दिलाया।
मध्यकालीन भारत में जमाखोरी तथा दास प्रथा, काला बाजारी, शराब, वेश्यावृत्ति इत्यादि बहुत-सी सामाजिक बुराइयाँ आ गई थीं। उनको दूर करने के लिए सूफी सन्तों ने प्रयत्न किया।
सूफी सन्तों ने महत्वपूर्ण काव्य और साहित्य भारत को दिये जो कि आध्यात्मिक रहस्थमय भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। सूफी मत के प्रभाव से उर्दू काव्य में मन्दिर-मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान आदि का भेद-भाव दिखायी नहीं देता । इसका कारण यह है कि सूफी साहित्य इस्लामी शरीयत का नहीं बल्कि मनुष्य मात्र की एकता का प्रतिपादक थे। जफर, मीर दर्द, गालिब आदि उदार कवियों ने अपनी कविताओं में मनुष्य की वास्तविकता को पहचानने का प्रयास किया है।
युसूफ हुसैन कहते हैं कि सूफियों ने सामूहिक जीवन को एक नए स्तर पर रखने का प्रयास किया जिसमें सभी वर्गों के लोग अपनी मानसिक और आध्यात्मिक प्रगति कर सकें। प्रोफेसर रिजवी लिखते हैं कि सूफियों के उदार विचारों ने समय की वास्तविकता को धार्मिक औचित्य प्रदान किया। उन्होंने लोगों को विश्व प्रेम का पाठ पढ़ाया।
विस्तृत अध्ययन के लिए निम्नलिखित पुस्तकों का अध्ययन कर सकते हैं
- अर्बेरी, जे.: सूफियों का सिद्धांत, कैम्ब्रिज, 1935
- बनर्जी, ए.सी.: मध्यकालीन भारत का नया इतिहास, नई दिल्ली,
- कारपेंटर, जे.ई. 1983. : थीज्म इन मिडिवल इंडिया, लंदन, 1926।
- दास गुप्ता, एस.एन.: हिस्ट्री ऑफ इंडियन फिलॉसफी, 5 खंड। कैम- ब्रिज, 1932-35।
- हसरद, बी.जे.: दारा शिकुह, विश्वभारती, 1953।
- हुसैन, यूसुफ: मध्यकालीन भारतीय संस्कृति की झलक, बॉम्बे, 1962।
- कृष्णा, एल.आर.: पंजाबी सूफी पोएट्स, 1938।
- मजूमदार, आर. सी. (संपा.): द दिल्ली सल्तनत, बॉम्बे, 1980।
- निज़ामी, के.ए.: थर्टीन्थ सेंचुरी, बॉम्बे, 1961 के दौरान भारत में धर्म और राजनीति के कुछ पहलू।
- ओमान, जे.सी.: मिस्टिक्स, तपस्वियों, और भारत के संत, लंदन, 1903।
- पांडे, ए.बी.: द फर्स्ट अफगान एम्पायर इन इंडिया, कलकत्ता, 1956।
- रिजवी, एस.ए.ए.: मुस्लिम रिवाइवलिस्ट मूवमेंट्स इन नॉर्दर्न इंडिया इन द सिक्सटीन्थ एंड सेवेंटींथ सेंचुरीज़, आगरा, 1965।
- सेन, क्षितिमोहन: भारत में मध्यकालीन रहस्यवाद। एम. घोष द्वारा अनुवादित, लंदन, 1936।
- शर्मा, एस.आर.: द रिलीजियस पॉलिसी ऑफ द मुगल एम्परर्स, लंदन, 1962।
- शस्टरी, ए.एम.ए.: आउटलाइन्स ऑफ इस्लामिक कल्चर, 1954।
- https://studyguru.org.in
- http://www.histortstudy.in