साम्प्रदायिकता को अक्सर लोग हिन्दू-मुस्लमान के बीच नफ़रत को समझते हैं, लेकिन सम्प्रद्यिकता धर्माधारित भेदभाव अथवा उससे उत्पन्न तनाव को सांप्रदायिकता के रूप में देखते हैं। आज इस लेख में हम जानेंगे कि भारत में साम्प्रदायिकता का उदय किस कारण हुआ, उसके लिए कौनसी परिस्थितियां जिम्मेदार थीं? लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।
भारत में सांप्रदायिकता का उदय और विकास
सांप्रदायिकता का उदय इस धारणा के साथ होता है कि किसी समुदाय विशेष के लोगों के, एक सामान्य धर्म के अनुयायी होने के नाते राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक हित भी एक जैसे ही होते हैं। इस मत के अनुसार भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख तथा ईसाई अलग-अलग संप्रदाय से संबंधित हैं।
इनके गैर-धार्मिक हित भी उस संप्रदाय के सदस्यों के बीच समान हैं तथा भारतीय लोगों में सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक मामलों में भेद ऐसी धार्मिक इकाइयों के आधार पर ही किया जाना चाहिए। इस प्रकार भारतीय समाज की मूलभूत इकाई धार्मिक संप्रदाय है— वर्ग , जातीयताएं ( Nationalities ), भाषाई- सांस्कृतिक समूह, राष्ट्र अथवा प्रांत या राज्य जैसी प्रादेशिक इकाइयाँ नहीं।
सांप्रदायिकता किसे कहते हैं?
यद्यपि सांप्रदायिकता की शुरुआत हितों की पारस्परिक भिन्नता से होती है किंतु सामान्यता इसका अंत विभिन्न धर्मानुयायियों में पारस्परिक विरोध तथा शत्रुता की भावना में होता है।
जहां सांप्रदायिकता के मूल में प्राचीन तथा मध्यकालीन विचारधाराओं के अनेक तत्व निहित हैं और वह उन तत्वों को उपयोग में लाती है वहीं यह भी सत्य है कि यह मूलतः एक आधुनिक विचारधारा तथा राजनीतिक प्रवृत्ति है जो आधुनिक सामाजिक समूहों, वर्गों और शक्तियों की राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उठ खड़ी हुई है। इसके सामाजिक लक्ष्यों की भांति इसकी सामाजिक जड़ें भी भारतीय इतिहास के आधुनिक काल में ही विकसित हुई हैं।
सांप्रदायिकता के अध्ययन में जो कठिनाई एकदम सामने आती है वह यह है कि अक्सर इसका विश्लेषण या इसका अध्ययन-मनन करने वाले व्यक्तियों ने ( भले ही अनजाने में ) बहुत-सी सांप्रदायिक मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को स्वीकार नहीं किया है। सांप्रदायिकता का अध्येता जब तक स्वयं इन मान्यताओं को अपने अंदर खोजने का प्रयास प्रयास नहीं करता तब तक उसका यह अध्ययन मूलत: निरर्थक हो जाता है।
ऐसी स्थिति में यह बहुत जरूरी है कि सांप्रदायिकता के अध्ययन के साथ-साथ सांप्रदायिक विचारधारा का आलोचनात्मक विवेचन-विश्लेषण भी किया जाए।
इस तरह वस्तुतः धर्म को छोड़कर अन्य कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जहां हिंदुओं तथा मुसलमानों या ईसाइयों या सिक्खों के अलग से अपने-अपने सामूहिक हित हों। अधिकतर स्तरों पर हिंदुओं तथा मुसलमानों के आर्थिक तथा राजनीतिक हित एक ही थे। इस अर्थ में अखंड समुदाय की कौन कहे, वे अलग-अलग समुदाय भी नहीं थे। हिन्दुओं और मुसलमानों आदि के रूप में तथा धार्मिक समूहों के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर उनका सामूहिक आर्थिक जीवन तथा हित, सामूहिक राजनीतिक जीवन तथा हित आदि एक-दूसरे से अलग नहीं थे।
इस पहलू को हम दूसरे रूप से भी देख सकते हैं । कभी-कभी यह कहा जाता है कि सांप्रदायिकतावादी वह व्यक्ति होता है जो स्वयं अपने संप्रदाय के हितों या स्वार्थों की रक्षा करता है जबकि एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति व्यापक राष्ट्रीय हितों अथवा सभी संप्रदायों के हितों को ध्यान में रखता है।
जहां सांप्रदायिक दृष्टिकोण इस विचार को मान्यता देता है कि हिंदू हित या मुसलमान हित जैसी चीजों का वास्तविक जीवन में महत्व है वहां एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के मतानुसार संप्रदायवादी स्वयं अपने संप्रदाय के हितों या अपने सहधर्मियों के हितों की पूर्ति नहीं करता क्योंकि ऐसा कोई हित वस्तुतः मौजूद ही नहीं होता।
सांप्रदायिक हितों के नाम पर वह जाने-अनजाने उन्हीं अन्य हितों की सिद्धि करता है। इसलिए वह या तो दूसरों को धोखा देता है या फिर स्वयं अपने आप को धोखा देता है।
क्या भारत में सांप्रदायिकता के उदय के लिए औपनिवेशिक शासक जिम्मेदार थे ?
आधुनिक भारत में सांप्रदायिक चेतना अथवा विचारधारा का जन्म औपनिवेशिक प्रभाव के अंतर्गत भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था तथा राजनीति के रूपांतरण के फलस्वरुप हुआ। विभिन्न अंचलों, क्षेत्रों तथा देश के बढ़ते हुए एकीकरण ने सामूहिक हितों को देखते हुए नए तरीकों की मांग की है। विशेष रूप से 19वीं शताब्दी के अंत में आधुनिक राजनीति का जन्म हुआ जिसे भारतीय जनता के बृहत् से बृहत्तर खंडों के राजनीतिकरण और गतिशीलता पर आधारित होना था।
भारतीय जनता को नए उभरते हुए राजनीतिक यथार्थ को समझना था। किंतु जिन नए विचारों से उस नए यथार्थ तथा नए सामाजिक संबंधों को समझना था उनको ग्रहण करना था तथा उनका प्रचार-प्रसार भी वस्तुतः अपनी नवीनता के कारण ही कठिन प्रक्रिया थी। विशेषतया इन उभरते हुए तथा विकासशील किस्म के नए यथार्थों, उनके उपनिवेश-विरोधी हितों तथा नए सामाजिक वर्गों और संस्तरों के प्रचार-प्रसार के लिए व्यापक संघर्षों, निष्ठाओं तथा व्यापक पहचान की जरूरत थी। उनके लिए जरूरी था कि राष्ट्रीयतावाद तथा वर्ग-संघर्ष के आधुनिक विचारों का विस्तार हो।
ऐसे विचार धीरे-धीरे उत्पन्न भी हुए। किंतु जहां कहीं भी उनका विकास धीमा और आंशिक था वहां लोगों ने नए यथार्थ को धर्म, जाति तथा आंचलिक पहचान के पुराने सुपरिचित-प्रयत्नों के साथ समझने का प्रयास किया है। यह भारतीय इतिहास या सामाजिक-राजनीतिक विकास का एक नया लक्षण था।
संपूर्ण विश्व में इस प्रकार की परिस्थितियों में ऐसा ही हुआ है। किंतु बहुधा ऐसी पुरानी अनुपयुक्त तथा मिथ्या धारणाएं नई धारणाओं के लिए मार्ग प्रशस्त करती है और धीरे-धीरे लुप्त हो जाती हैं।
समय के साथ-साथ वे पुरानी अस्मिताएँ , जिनसे नए यथार्थ को समझने का प्रयास किया गया है, राष्ट्रीयता तथा वर्ग की आधुनिक तथा अधिक उपयुक्त अस्मिताओं के लिए द्वार खोलती है। यह प्रक्रिया भारत में भी घटित हुई है जिससे धीरे-धीरे धर्म जाति तथा क्षेत्र की पुरानी चेतना गौण हो गई और राजनीतिक तथा आर्थिक प्रयोजनों की वजह से उनका स्थान राष्ट्र और वर्ग की चेतना ने ले लिया। किंतु समस्त भारतीय जनता के साथ यह प्रक्रिया एकसमान रूप से घटित नहीं हुई। खासतौर से देश के कुछ भागों में तथा जनता के कुछ वर्गों में धार्मिक चेतना ने सांप्रदायिक चेतना का रूप ले लिया।
ऐसा इसलिए हुआ कि इससे समाज के कुछेक वर्गों और कुछेक सामाजिक तथा राजनीतिक शक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। किंतु इस बात को स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि सांप्रदायिकता और उसकी उत्पत्ति भारतीय समाज या राजनीति में अंतर्निहित नहीं थी अपितु यह ऐतिहासिक रूप से विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों का परिणाम थी। यह सत्य नहीं है कि जहां कहीं भी विभिन्न धर्म एक साथ विद्यमान होते हैं वहां सांप्रदायिकता अनिवार्य रूप से उत्पन्न होनी ही चाहिए।
यह तय है कि सांप्रदायिकता सांप्रदायिक विचारधारा की ठीक उसी प्रकार उपज है जैसे यह मत जातिवाद की उपज है कि बहुसमूहमूलक समाज में जातिवाद का होना अनिवार्य है।
इस प्रकार सांप्रदायिकता हिंदुओं अथवा मुसलमानों के बीच मूलभूत पारस्परिक विरोध का या मध्ययुग के दौरान उनके तथाकथित संघर्ष का या उनकी संस्कृतियों के बुनियादी टकराव का या ‘दो’ अलग-अलग तथा एक-दूसरे से भिन्न सभ्यताओं की मौजूदगी का या हिंदू-मुसलमान के बीच ‘सामाजिक असामंजस्य का परिणाम नहीं है।
यह तथा इसी प्रकार के अन्य कार्य कारण वाले सिद्धांत वास्तव में सांप्रदायिक विचारधारा के ही विभिन्न पहलू हैं अभी हाल ही में पंजाब में हिंदू तथा सिक्ख ( वर्तमान में हम दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों जिसमें हिंदू और मुसलमान सम्मिलित थे का जिक्र भी कर सकते हैं ) संप्रदायिकता के उदय से यह बात भली-भांति स्पष्ट हो गई है। स्पष्ट रूप से इस घटना के लिए कोई ऐसे कोई कार्य-कारण नहीं प्रस्तुत किए जा सकते।
सांप्रदायिकता को प्रभावित करने वाले विभिन्न तत्व
(क) सर्वप्रथम सांप्रदायिकता भारतीय अर्थव्यवस्था के औपनिवेशिक स्वरूप, औपनिवेशिक पिछड़ेपन तथा भारतीय अर्थव्यवस्था को विकसित करने में उपनिवेशवाद की अक्षमता का उप-उत्पाद थी। इसके परिणामस्वरूप जो आर्थिक गतिरोध उत्पन्न हुआ और उसका जनजीवन विशेषकर– मध्यम वर्ग के जीवन–पर जो प्रभाव पड़ा उसने ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न किया जो भारतीय समाज के अंदर विभाजन और विरोध पैदा करने में सहायक बनीं।
संपूर्ण बीसवीं शताब्दी में आधुनिक औद्योगिक विकास तथा सामाजिक और सांस्कृतिक सेवाओं के विकास के अभाव में, विशेषकर शिक्षित मध्यवर्ग तथा निम्न मध्यवर्ग के लिए आर्थिक अवसरों का ह्रास होता गया। साथ ही यह कर्ग कृषि कार्य की ओर वापस नहीं जा सकता था। यह आर्थिक अवसर 1928 के बाद की भारी मंदी के दौरान और भी कम होते गए।
बड़ी भारी मात्रा में बेरोजगारी फैली हुई थी। फलतः विशेष रूप से निम्न मध्यम वर्ग ने सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में निरंतर गिरावट के दुष्परिणाम झेले। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीयवादी आंदोलन अन्य लोकप्रिय आंदोलनों तथा वामपक्ष ने साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने तथा सामाजिक व्यवस्था के पुनर्गठन के लिए संघर्ष करके सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के दीर्घकालिक हल प्रस्तुत किए।
किंतु जिनमें व्यापक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक समझ नहीं थी उन्होंने तात्कालिक निजी स्वार्थों और वैयक्तिक समस्याओं के अल्पकालिक समाधान को ही देखा। आर्थिक गतिरोध के कारण लोगों में सरकारी नौकरियों, विधि तथा चिकित्सा-शास्त्र जैसे व्यवसायों तथा उपभोक्ताओं और बाजारों के लिए व्यापार को लेकर बड़ी भारी प्रतिस्पर्धा चल पड़ी।
इस प्रतिस्पर्धा में मध्य वर्ग के लोगों ने भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार आदि का खुलकर इस्तेमाल किया। लेकिन उन्होंने जाति, प्रांत और धर्म जैसी अन्य सामूहिक समानताओं का इस्तेमाल भी किया जिससे जाति या प्रांतीय धार्मिक समूह के नाम पर या उस के माध्यम से मध्य वर्गीय व्यक्ति की प्रतियोगिता में भाग लेने की क्षमता को बढ़ा सकें।
इस प्रकार मध्यवर्ग के कुछ व्यक्ति कुछ समय के लिए सांप्रदायिकता से लाभ उठा सकते थे और उन्होंने यह लाभ उठाया भी। यदि विभिन्न नौकरियों, व्यवसायियों और व्यापारों में किसी धार्मिक समूह या संप्रदाय विशेष के हिस्से को सांप्रदायिक नारों तथा सांप्रदायिक राजनीति के माध्यम से बढ़ाया जा सकता था तो मध्यवर्गीय व्यक्ति उनका लाभ उठाने के अवसर पाने की संभावनाएँ बढ़ा सकते थे। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि शिक्षा तथा नौकरियों में मुसलमानों के पिछड़ेपन के फलस्वरुप ऐसा हुआ।
किंतु वास्तव में यह सही नहीं है। पहली बात तो यह है कि भारत में मजदूर और किसान पिछड़ेपन तथा गरीबी के शिकार थे, चाहे वे हिंदू हो या मुसलमान या सिक्ख। दूसरे, जहां तक मुसलमान मध्यवर्ग का संबंध था, बंगाल में या कुछ हद तक पंजाब में रहने वाला मुस्लिम है मध्यवर्ग पिछड़ा वर्ग हुआ करता था, उत्तर प्रदेश या देश के अन्य भागों में रहने वाला नहीं। इसके अतिरिक्त, पश्चिमी पंजाब में बड़े जमीदार अधिकतर मुसलमान ही थे।
यहां अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मध्यम वर्ग के लोगों में कठिनाई के हालात में प्रतिद्वंदिता होती ही, चाहे वे पिछड़े मध्य वर्गों और संप्रदायों के हो या उच्च वर्ग के। इस प्रकार पंजाब में या देश के कई अन्य भागों में न केवल मुस्लिम मध्यवर्ग बल्कि कई आगे बढ़े हुए हिंदू मध्यवर्ग भी उतने ही सांप्रदायिक थे। मध्यवर्ग में प्रतिद्वंदिता की भावना हर हालत में पैदा होगी ही। यह तो प्रतिद्वंदिताओं पर लेबल लगाने और इन प्रतिद्वंद्विताओं को बढ़ाने के लिए कुछ वर्गीय समूहों को खोजने का प्रश्न था।
आर्थिक गतिरोध तथा सीमित आर्थिक अवसरों के औपनिवेशिक हालात में कोई भी मुसलमान यह सोच सकता था कि यदि सरकारी नौकरियों तथा व्यवसायों आदि में मुसलमानों का हिस्सा अधिक हो जाए तो उसके अपने आर्थिक अवसर भी बढ़ जाएंगे। इसी तर्क के आधार पर मध्यवर्गीय हिंदू यह सोचता था कि मुसलमानों की हिस्सेदारी बढ़ने पर उसके अपने अवसर कम हो जाएंगे।
इस प्रकार ये दोनों ही एक-दूसरे को अपना प्रतिद्वंदी समझने लगेंगे और संप्रदायिकता की भावना विकसित होने लगेगी और अपनी जड़ें जमाने लगेंगी। नौकरियों आदि की कमी के कारण, प्रत्येक नियुक्ति सांप्रदायिक तथा अनुचित दिखाई देगी तथा सांप्रदायिकता का पोषण करेगी। परिणाम यह हुआ कि मध्य वर्ग ही सांप्रदायिकता के फलने-फूलने के लिए उर्वर समाजिक भूमि बन गया।
औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का एक अन्य पक्ष भी था जिसने सांप्रदायिक राजनीति को प्रोत्साहित किया। आधुनिक उद्योग, बैंकिंग, वाणिज्य, सामाजिक सेवाओं के अभाव में तथा संगीत, रेडियो, रंगमंच, ललित कलाओं, सिनेमा आदि में मनोरंजन और सांस्कृतिक सुअवसरों के अभाव में सरकारी सेवा ही मध्यवर्ग के लिए रोजगार की प्रमुख मांग थी।
यहां तक कि 1951 तक केवल 1200000 लोग फैक्ट्री अधिनियम के अंतर्गत आते थे, जबकि 33 लाख लोग सरकारी नौकरियों में लगे हुए थे। व्यवसायिक महाविद्यालय में सांप्रदायिक आधारों पर नौकरियां तथा सीटें आरक्षित करने तथा आवंटित करने के लिए और सरकार पर दबाव डालने के लिए सांप्रदायिक राजनीति का इस्तेमाल किया जा सकता था।
इसलिए यह कोई आकस्मिक बात नहीं थी कि 1937 तक सांप्रदायिक राजनीति को सरकारी नौकरियों तथा व्यवसायिक महाविद्यालयों में प्रवेश तथा राजनीतिक पदों — विधान परिषदों तथा नगरपालिका समितियों — की मांगों के इर्द-गिर्द संगठित किया जाता था, जिससे इनके माध्यम से इस संबंध में सरकार पर दबाव डाला जा सके।
इस संबंध में इस बात पर गौर करना भी बड़ा रोचक होगा कि अपने संप्रदायों के नाम पर बोलते हुए संप्रदायवादी अन्य किन्हीं मुद्दों को नहीं उठाते थे। वे ऐसे किसी भी विषय को नहीं लेते थे जो आम जनता या मध्य वर्गेत्तर सामाजिक समूहों के हितों से संबद्घ हों। इस प्रकार जिस बात को मध्य वर्ग अपनी मांगों के माध्यम से सांप्रदायिक राजनीति में लाया उसे आम जनता धार्मिक अनुरोध के माध्यम से लाई।
(ख) दूसरी ओर सांप्रदायिकता ने समाज के वर्गों तथा समूहों के मध्य संघर्ष के रूपांतरित या विकृत रूप को प्रस्तुत किया। जहां समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों तथा भिन्न-भिन्न धर्मानुयायी समूहों के संघर्ष पर सांप्रदायिक रंग चढ़ा दिया गया। जहां हितों आदि का टकराव वास्तविक था, वहां इसे सांप्रदायिक हितों अथवा संघर्ष पर आधारित घोषित करते हुए इसकी गलत तस्वीर प्रस्तुत की गई।
इस तरह बंगाल तथा मालाबार में जमीदार तथा कृषक वर्ग के बीच के संघर्ष को तथा पंजाब में कृषक वर्ग तथा कर्जदार और साहूकार के बीच के संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में चित्रित किया गया, जमीदार-साहूकार के अत्याचार को हिंदुओं के द्वारा मुसलमानों पर अत्याचार के रूप में सामने लाया गया, तथा ग्रामीण धनी वर्ग पर आक्रमण को मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर आक्रमण कहा गया।
कृषक वर्ग का अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष वस्तुतः निश्चित था। प्रश्न यह था कि क्या इसे एक सुसंगत और वैज्ञानिक वैचारिक राजनीतिक मोड़ दिया जा सके या फिर इसे सांप्रदायिक धाराओं की ओर मोड़ दिया जाए। यहां यह उल्लेखनीय है कि आज पंजाब में जमीदारों तथा संपन्न कृषक वर्ग और खेतिहर मजदूरों के बीच संघर्ष को संप्रदायिक मोड़ दिया जाने की कोशिश की जा रही है तथा देश के अन्य कई भागों में से जातिवाद का मोड़ दिए जाने का प्रयास किया जा रहा है।
वर्तमान संदर्भ में हम वर्तमान कृषक आंदोलन के विषय में भी चर्चा कर सकते हैं, जिसमें विशेषकर पंजाब से आए किसान सम्मिलित हैं ऐसा सरकार का दावा है। परंतु निष्पक्ष रुप से देखने पर इसमें विभिन्न प्रांतों से आए हुए किसान सम्मिलित हैं। इन किसानों के संबंध में सरकार की सोच संप्रदायिकता के साथ-साथ जातीयता भी प्रकट करती है।
विभिन्न राजनीतिक संगठन भी इन कृषको के साथ हैं। परंतु सरकार समर्थित संगठन और आधुनिक तथाकथित मीडिया किसानों के इस आंदोलन को किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराती है और इसके पीछे यहां तक कि विदेशी ताकतों का हाथ भी बताने से नहीं चूकती। र्वामान सरकार ने ऐसे तमाम आंदोलनों को अपने सांप्रदायिक और हिंसक कार्यों से खत्म कराया है जो भी सरकार की नीतियों के विरुद्ध हो रहे हैं। अतः वर्तमान कृषक आंदोलन को भी सरकार इसी प्रकार हिंसक और संप्रदायिक रूप देकर खत्म कराने का प्रयास कर रही है।
इस संदर्भ में इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि बंगाल में हिंदुओं ने जमीन पर कब्जा हिंदुओं के रूप में प्राप्त नहीं किया बल्कि बंगाल में इस्लाम के प्रसार की ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ऐसा किया गया। 18वीं शताब्दी के आरंभ में मुर्शीद वली खाँ के शासनकाल में बंगाल में हिंदू जमीदारों तथा व्यापारी वर्ग ने भूमि तथा पूंजी पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।
1793 के स्थायी बंदोबस्त ने बड़ी संख्या में पुराने हिंदू और मुस्लिम परिवारों को हटाकर उनके स्थान पर हिंदू व्यापारी वर्ग को रखकर इस प्रवृत्ति को और अधिक मजबूत किया। इस प्रकार महाजन, व्यापारी तथा साहूकार वर्ग में हिंदुओं की प्रधानता के कारण भी मध्यकाल में ही देखे जा सकते हैं जबकि अधिकतर भारतीय शासक मुस्लिम धर्मानुयायी रहे थे।
किंतु उनकी सामाजिक भूमिका अभी प्रभुत्वपरक नहीं थी। वह हिंदू संप्रदायवाद की उपज नहीं थी। बल्कि वह तो भारतीय अर्थव्यवस्था के उपनिवेशीकरण तथा साहूकारों की उस महत्वपूर्ण भूमिका की उपज भी जो उन्होंने शोषण की औपनिवेशिक पद्धति में अपनाई थी। दूसरे शब्दों में, उपनिवेशवाद के इतिहास ने वणिक-साहूकारों के विकास का आश्वासन दिया तथा मध्यकालीन इतिहास इस तथ्य का गवाह है कि यह वर्ग हिंदू था। उन्होंने खुलेआम अपने हितों की रक्षा करने में कठिनाई महसूस की और इसलिए जब कभी उन्हें शोषितों के आक्रोश या आंदोलन का सामना करना पड़ा तो उन्होंने हिंदुत्व खतरे में होने की आवाज उठाई।
कुछ मामलों में सांप्रदायिकता उच्च वर्गों में शक्ति, विशेषाधिकारों तथा आर्थिक सुविधाओं के लिए किए गए संघर्ष की अभिव्यक्ति भी थी जिसे सांप्रदायिक रूप दे दिया गया। उदाहरण के लिए पश्चिमी पंजाब में सांप्रदायिकता के मामलों में ऐसा ही हुआ। जहां मुस्लिम जमीदारों ने हिंदू साहूकारों का विरोध किया तथा पूर्वी बंगाल में भी ऐसा हुआ जहां मुस्लिम जोतदारों ने हिंदू जमीदारों का विरोध किया।
(ग) इन सबसे बढ़कर महत्वपूर्ण बात यह है कि सांप्रदायिकता आर्थिक तथा राजनीतिक दृष्टि से प्रतिक्रियावादी सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों, अर्ध सामंती जमीदारों तथा भूतपूर्व अधिकारी-तंत्र तथा औपनिवेशिक सत्ताधारियों के अस्त्र के रूप में विकसित हुई। जमीदारों ने जानबूझकर सांप्रदायिकता को प्रोत्साहित किया ताकि वे अपने स्वयं के वर्गीय हितों की रक्षा को छिपा सके तथा अपने पीछे सार्वजनिक समर्थन तैयार कर सकें।
इसके अतिरिक्त विस्तारशील अर्थव्यवस्था में राजनीतिक संघर्षों का विकसित होना तथा निरंतर भीषण होते जाना अनिवार्य है। उनका उग्र साम्राज्यवाद-विरोधी रुख अख्तियार करना भी अनिवार्य है। साम्राज्यवाद में संप्रदायिकता का इस्तेमाल राष्ट्रवादी शक्तियों को विभाजित करने तथा भीतर से कमजोर बनाने के लिए राष्ट्रीय तथा आर्थिक दोनों ही दिशाओं में उनकी एकता के मार्ग में बाधा डालने के लिए किया था। यदि हिंदुओं तथा मुसलमानों को एक दूसरे के विरुद्ध कर दिया जाता है तो ऐसी स्थिति में वे परस्पर मिलकर साम्राज्यवाद के विरुद्ध नहीं लड़ सकते थे।
इसके अतिरिक्त भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बनाए रखने के लिए हिंदू-मुस्लिम फूट को लगातार प्रमुख औचित्य के रूप में प्रस्तुत किया गया। औपनिवेशिक सत्ताधारियों ने वस्तुतः संप्रदायिकता को कृत्रिम रूप से ‘निर्मित’ नहीं किया और न वे ऐसा ही कर सकते थे। किंतु उन्होंने संप्रदायिकता को प्रोत्साहन दिया और यथा अवसर कभी उनके प्रति उपेक्षा का रुख अपनाकर और कभी उसे प्रकटतः सहयोग देकर उन्होंने उसका दुरुपयोग किया।
वस्तुत: अंग्रेजों की ‘फूट डालो तथा राज्य करो’ नीति का एकमात्र रूप संप्रदायिकता ही नहीं था। उन्होंने भारतीय समाज को अन्य रूपों में विभाजित करने में भी बढ़ावा दिया। इस तरह उन्होंने एक प्रांत को दूसरे प्रांत के, एक जाति को दूसरी जाति के, एक भाषा के दूसरी भाषा के, यहां तक कि एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुद्ध कर दिया। किन्तु प्रमुख रूप से उन्होंने धार्मिक विभाजन का आश्रय लिया।
अंत तक आते-आते संप्रदायिकता उपनिवेशवाद का प्रमुख सहारा बन गई। दूसरी ओर यदि संप्रदायिकता को औपनिवेशिक शासन का शक्तिशाली समर्थन न प्राप्त होता तो इतना विकसित न हो पाता कि देश का विभाजन कर सके।
भारत में सांप्रदायिकता का प्रारंभ कब हुआ?
भारत में सांप्रदायिकता की पहले पहल शुरुआत 19वीं शताब्दी के अंत में हुई थी। मुस्लिम सांप्रदायिकता की नींव 1830 के दशक में सैयद अहमद खाँ द्वारा उस समय रखी गई थी जब उन्होंने इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन के वज़न पर रखा।
यद्यपि सैयद अहमद एक महान् शिक्षाशास्त्री तथा समाज-सुधारक थे, किंतु राजनीतिक क्षेत्र में वे रूढ़िवादी तथा निष्ठावान व्यक्ति थे। 1885 के बाद जब राष्ट्रीय कांग्रेस लोकप्रिय हुई तो उन्होंने प्रमुख रूप में इसका इस आधार पर विरोध करने का निश्चय किया कि यह ब्रिटिश-विरोधी तथा जनतांत्रिक थी। वाराणसी के राजा शिवप्रसाद तथा भींगा के राजा के साथ उन्होंने 1887 में उत्तर प्रदेश में एक संस्था का गठन किया। उच्चवर्ग-उच्चजाति मनोभावों का आग्रह करते हुए 1887 में उन्होंने कहा:—-
“यह बहुत जरूरी है कि वायसराय कि वाइसराय की कौंसिल के सदस्य उच्च सामाजिक स्तर के हों। मैं आपसे पूछता हूं, क्या हमारा अभिजात तंत्र यह पसंद करेगा कि निचली जाति या महत्वहीन मूल का कोई व्यक्ति, भले ही वह बी.ए. या एम.ए. हो तथा अपेक्षित योग्यता रखता हो, उनसे ऊपर के अधिकारी के पद पर आसीन हो तथा ऐसे कानून बनाने की सामर्थ्य रखता हो जो उनके जीवन तथा संपत्ति को प्रभावित करते हो? कभी नहीं। कोई व्यक्ति इसे पसंद नहीं करेगा। वायसराय की कौंसिल में सीट भारी सम्मान और प्रतिष्ठा का पद है। केवल अभिजात वर्ग के व्यक्ति को ही वायसराय अपने सहयोगी के रुप में ले सकता है, उसके साथ भाई जैसा व्यवहार कर सकता है और उसे उन अतिथ्य-सत्कार के अवसरों पर आमंत्रित कर सकता है जब उसे ड्यूकों तथा अर्लों के साथ भोज कर
जब उन्होंने देखा कि इस उच्च वर्गीय जमींदार-आधारित विपक्ष को जनसमर्थन प्राप्त नहीं हो रहा है तो वह सांप्रदायिकता की ओर उन्मुख हुए तथा मुसलमानों को मुस्लिम धर्मानुयायियों के रूप में राष्ट्रीय कांग्रेस के विरूद्ध करने का निश्चय किया। उन्होंने इस बात का अधिकाधिक प्रचार करना शुरू किया कि यदि प्रतिनिधिमूलक जनतांत्रिक सरकार बन गई और ब्रिटिश शासन का अंत हो गया और शक्ति भारतीयों को हस्तांतरित कर दी गई तो हिंदू लोग मुसलमानों पर शासन करेंगे।
इस प्रयास में वे ज्यादा सफल भी हुए। इसका एक कारण यह भी है कि सामान्यतया मुसलमान लोगों के बीच और यहां तक कि मुसलमान मध्यवर्ग के बीच भी जमीदारों तथा अभिजात वर्ग की महत्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका रही है। जब पारसियों तथा हिन्दुओं के बीच विज्ञान, जनतंत्र तथा राष्ट्रीयता पर जोर देने वाला आधुनिक बुद्धिजीवी वर्ग अधिकाधिक बौद्धिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रभाव पा रहा था तब मुसलमानों में प्रतिक्रियावादी जमीदारों तथा मुल्लाओं का प्रभाव जारी था।
जमींदार तथा पारंपरिक धार्मिक पुरोहित, भले ही वे हिंदू हों या मुसलमान, रूढ़िवादी तथा प्रतिष्ठित उपनिवेशी सत्ताधिकारी वर्ग के समर्थक थे। किंतु जब हिंदुओं में वे धीरे-धीरे अगुआ के रूप में अपनी प्रतिष्ठा खो रहे थे तब भी मुसलमानों में उनका प्रभुत्व जारी था।
सैयद अहमद तथा सांप्रदायिक निष्ठावान व्यक्तियों ने अपने राजनीतिक कार्यकलाप को मूलतः मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन से दूर रहने तक ही सीमित रखा। उन्होंने कोई विरोधी सांप्रदायिक संगठन निर्मित नहीं किया, क्योंकि अंग्रेज भारतीय लोगों के किसी भी राजनीतिकरण पर अप्रसन्नता प्रकट करते थे। किंतु एक बार जब बंगाल- विभाजन विरोधी आंदोलन से भारतीय जन सामान्य के बीच राजनीति का प्रवेश हो गया तो अंग्रेज सरकार को सांविधानिक रियायतें देने के लिए मजबूर होना पड़ा और संप्रदायवादियों को राजनीतिक कार्यक्षेत्र में प्रवेश की अनुमति दे दी गई।
1906 में ढाका के नवाब आगा खां तथा नवाब मोशिन-उल-मुल्क जैसे बड़े जमीदारों तथा अभिजात व्यक्तियों के नेतृत्व में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना की गई। लीग ने बंगाल के विभाजन का समर्थन किया और मुसलमानों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्रों तथा सरकारी सेवा में सुरक्षित स्थानों की मांग की। इसके कार्यकलापों को राष्ट्रीय कांग्रेस तथा हिंदुओं के विरुद्ध प्रेरित किया गया, औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध नहीं। इस प्रकार आरंभ से ही लीग राष्ट्रीय आंदोलन विरोधी तथा औपनिवेशिक शासन का अवलंब गई।
इसके साथ-ही-साथ हिंदू सांप्रदायिकता भी जन्म ले रही थी। 1870 से आरंभ होने वाले दशक से हिंदू जमीदार, साहूकारों तथा मध्यवर्गीय व्यवसायियों ने मुस्लिम विरोधी नारे लगाना आरंभ कर दिया था। भारतीय इतिहास की उपनिवेशी मनोवृत्ति को पूरी तरह स्वीकार करते हुए उन्होंने मध्यकाल में मुसलमानों के ‘अत्याचारी’ शासन तथा मुस्लिम ‘दमन’ से हिंदुओं का बचाव करने में अंग्रेजों की ‘विमुक्तिकारी’ भूमिका की चर्चा की।
उत्तर प्रदेश और बिहार में उन्होंने हिंदी के प्रश्न को भी उठाया और हिंदी को हिंदुओं की तथा उर्दू को मुसलमानों की भाषा ठहराते हुए उन्होंने इस प्रश्न को सांप्रदायिक मोड़ दिया। 1920 से आरंभ होने वाले दशक में सारे उत्तरी भारत में सांप्रदायिकता-विरोधी सभाओं की स्थापना हुई जिन के मुख्य कार्य-कलापों को अंग्रेजों के विरुद्ध प्रवृत्त न करके मुसलमानों के विरुद्ध प्रवृत्त किया गया।
पंजाब हिंदू सभा की स्थापना 1907 में हुई किंतु इसका अस्तित्व रुग्ण-सा था। हिंदू महासभा भी एक राजनीतिक शक्ति के रूप में 1920 वाले दशक में ही जाकर प्रतिष्ठित हुई। लालचंद तथा यू०एन० मुखर्जी जैसे आरंभिक हिंदू सांप्रदायिक नेताओं ने भी भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने के प्रयास के लिए राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति तथा मुसलमानों के प्रति अपना आक्रोश जाहिर किया।
सांप्रदायिकता के उद्भव-स्रोत तथा इतिहास की चर्चा करते समय एक भूल से बचना चाहिए। बहुधा संप्रदायवादी यह विचार व्यक्त करते हैं कि दूसरों के संप्रदायिकता के दृष्टांत पर या उनके विरूद्ध प्रतिक्रिया के फलस्वरुप उनकी अपनी संप्रदायिकता का उदय हुआ। और अब भी वे ऐतिहासिक लेखन में ऐसा ही मानते हैं।
इस प्रकार ‘मूल’ दोष दूसरों की सांप्रदायिकता पर लगाया गया और एक प्रकार से अपनी अधिकांश संप्रदायिकता की सफाई पेश की गई। इस प्रकार हिंदू, मुसलमान तथा सिख संप्रदायवादियों नें अपनी-अपनी संप्रदायिकता की भावनाओं को यह तर्क देते हुए न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया है कि वे दूसरों द्वारा आरंभ की गई संप्रदायिकता की भावना के विरूद्ध अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते रहे।
सांप्रदायिकता के विकास में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की क्या भूमिका थी?
आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता के विकास के लिए खास तौर पर अंग्रेजी साम्राज्य की ‘फूट डालो और राज्य करो’ की नीति जिम्मेदार है, हालांकि जैसा कि हमने बार-बार कहा है ब्रिटिश नीति की सफलता हमारी आंतरिक सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों के कारण ही मिली। विदेशी शासक यह कठिन भूमिका मुख्यतया इसलिए अदा कर सका कि उसके हाथ में सत्ता की शाक्ति थी जो कि किसी भी राजनीतिक विचारधारा या आंदोलन के राजनीतिक भाग्य की निर्णायक होती है।
सांप्रदायिकता उन महत्वपूर्ण अस्त्रों में से एक थी जिनके माध्यम से अंग्रेज बढ़ते हुए राष्ट्रीय आंदोलन तथा एक राष्ट्र के रूप में एकजुट होती हुई भारतीय जनता के विरोध का मुकाबला कर सके और उनकी शक्तियों को क्षीण कर सके। वस्तुतः यह है ऐसा एकमात्र अस्त्र नहीं था। उन्होंने जाति, भाषा और यहां तक कि वर्ग के आधार पर भी भारतीयों के बीच दरार डालने की कोशिश की। 1937 तक यह सभी प्रयास असफल होने लगे थे और संप्रदायिकता ही अकेले ऐसे साधन के रूप में रह गई थी, जो कि अभी तक कामयाब थी। उन्होंने इन सभी को इसकी बाज़ी पर रख दिया।
इस संबंध में अंग्रेजों की नीति की प्रकृति और स्वरूप क्या था? सर्वप्रथम यह स्पष्ट रूप से देखा जाना चाहिए कि यह, जैसा कि हिन्दू सम्प्रदायवादी इसे बता रहे थे, मुस्लिम-समर्थक नीति नहीं थी?
प्रथम-इसका उद्देश्य मुसलमानों का पक्ष लेना नहीं था बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन को तथा भारतीयों के एक देश या एक राष्ट्र के रूप में संगठित होने की प्रक्रिया को विघटित करना था।
दूसरा- यह नीति किसी रूपरेखा या सुविचारित योजना के आधार पर विकसित नहीं हुई थी। इसका विकास औपनिवेशिक प्रशासन की बदलती हुई जरूरत का सामना करने के लिए परीक्षण-प्रणाली ( Trial and error method ) के माध्यम से समय के साथ धीरे-धीरे हुआ था।
तीसरे-इसे इस तथ्य से बहुत अधिक मदद मिली कि उपनिवेशवाद तथा सांप्रदायिकता दोनों ही का सामाजिक आधार समान था— अर्थात जमींदार तथा उच्च वर्गीय नौकरशाही तत्व।
चौथे-अंग्रेजों की नीति बड़ी जटिल थी तथा इसमें एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में काफी भिन्नता थी। पंजाब में सांप्रदायिकता को 1945 तक नियंत्रित रखा गया, उत्तर प्रदेश में 1937 तक धर्म-निरपेक्ष जमीदारों पर आधारित राजनीति का आश्रय लिया गया। जमीदारों के कांग्रेस का डटकर सामना करने में असफल होने के बाद ही उपनिवेशी शासकों ने मुस्लिम लीग को भरपूर समर्थन प्रदान किया।
1885 से 1905 के दौरान कांग्रेस के नरम लहजे के बावजूद उनकी किसी भी मांग को स्वीकार नहीं किया गया, किंतु मुस्लिम सांप्रदायिक मांगों को 1906 में वाइसराय के सम्मुख रखते ही स्वीकृति दे दी गई। इसी प्रकार 1935 में सांप्रदायिक निर्णय द्वारा लगभग वह सब कुछ प्रदान कर दिया गया जिसकी मांग मुसलमान संप्रदायवादी कर रहे थे।1939 से 1946 तक मुसलमानों को हिंदुओं के साथ किसी भी राजनीतिक समझौते पर पूर्ण वीटो प्रदान किया गया।
इसी दौरान जब महात्मा गांधी ने राजगोपालाचारी के कहने पर जिन्ना के साथ 1944 में बातचीत शुरू की तो सांप्रदायिक नेताओं ने यह प्रचार शुरू कर दिया कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को मुसलमानों का प्रतिनिधि मान लिया है। कांग्रेसका यह कहना था कि वे मुस्लिम लीग को मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं बल्कि एक बड़ी पार्टी—- जिसके साथ अधिकतर मुसलमान थे—- मानती है। कांग्रेस की इस मान्यता का अधिक असर नहीं हुआ क्योंकि एक तरफ सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा था, दूसरी तरफ अँग्रेज शासक इस अवसर का फायदा उठाने के लिए हमेशा तैयार थे।
ब्रिटिश शासकों ने सांप्रदायिक नेताओं को उनके संप्रदायों का प्रवक्ता खुशी से स्वीकार किया, जबकि राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं को विरल अल्पमत वाले, विशिष्ट-वर्गीय आदि समझा गया। छठे, अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों ने सांप्रदायिक राजनीति के विकास के लिए महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में कार्य किया। 1909 में आरंभ की गई इस पद्धति के अंतर्गत, मुस्लिम मतदाताओं तथा बाद में सिक्ख तथा हिंदू मतदाताओं को अलग-अलग चुनाव क्षेत्र में रखा गया, जिससे हिंदू, मुसलमान और सिक्ख अपने-अपने वोट डाल सकते थे।
अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों ने चुनावों तथा विधान मंडलों को संकटपूर्ण और नगरपालिका तथा स्थानीय सरकारी संस्थाओं को सांप्रदायिक जटिलता का अखाड़ा बना दिया। चूँकि मतदाता और प्रत्याशी दोनों केवल एक ही धर्म के अनुयायी थे, प्रत्याशियों को सांप्रदायिक अनुरोध खुले तौर पर करने का अवसर मिला और धीरे-धीरे मतदाताओं को सांप्रदायिक ढंग से सोचने की शिक्षा दी गई।
विधानमंडलों, सरकारी सेवाओं, शिक्षा संस्थाओं आदि में सीटों के आरक्षण तथा इस पर दिए जाने वाले जोर से भी ऐसे ही परिणाम निकले। इस नीति ने लोगों के बीच आर्थिक प्रतिस्पर्धा की भावना को सांप्रदायिकता की भावना में बदलने में निर्णायक भूमिका अदा की। अन्त में, सांप्रदायिकता के विरुद्ध कोई कार्यवाही न करने की नीति अपनाकर सरकार ने भी सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया।
सांप्रदायिकता के विकास पर नियंत्रण रखने के लिए आवश्यक कुछेक सुनिश्चित उपाय ऐसे थे जो केवल सरकार द्वारा ही किए जा सकते थे। इन उपायों के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी सरकार द्वारा न लिए जाने के कारण सांप्रदायिक शक्तियाँ और मजबूत हुईं। सरकार ने विषाक्त सांप्रदायिक विचारों और सांप्रदायिक आदतों के प्रेस, पैम्फ़लेटों साहित्य, इतिहास, पाठ्य पुस्तकों तथा अन्य मंचों के माध्यम से प्रचार-प्रसार के विरुद्ध कदम उठाने को अस्वीकार कर दिया।
सांप्रदायिक दंगों के प्रति कार्यवाही में अंग्रेज प्रशासकों ने अपेक्षाकृत निष्क्रिता की तथा उत्तरदायित्वहीनता की नीति अपनाई, और राष्ट्रीय वे करते थे या उनकी रोकथाम के जितने उपाय करते थे उतनी तैयारी या रोकथाम के उपाय साम्प्रदायिक तनाव की स्थितियों का मुकाबला करने के लिए शायद ही कभी उन्होंने किए हों।
हिंदू एवं मुस्लिम सांप्रदायिक प्रचार
एक और कारण जिसने सांप्रदायिकता की वृद्धि में प्रभावशाली ढंग से सहयोग दिया, वह था बीसवीं शताब्दी के आरंभ में अधिकांश राष्ट्रीय चिंतन पर हिंदुत्व का गाढ़ा रंग चढ़ना और इसका प्रचार होना। इस हिंदू रंग के परिणामस्वरूप मुसलमान लोग राष्ट्रीय आंदोलन से विमुख होकर अलग हट गए और सांप्रदायिक दृष्टिकोण की ओर आकृष्ट हुए। इसके अतिरिक्त हिंदी प्रतीकों और मुहावरों के इस्तेमाल के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता आंदोलन में एक स्पष्ट हिंदू वातावरण फैल गया।
वस्तुतः कुल मिलाकर राष्ट्रीय आंदोलन मूलतः अपने दृष्टिकोण तथा विचारधारा में धर्मनिरपेक्ष था, और युवा मुस्लिम राष्ट्रवादियों को इसे स्वीकार करने तथा आंदोलन में शामिल होने में ज्यादा कठिनाई नहीं हुई। हिंदुत्व का यह आवरण सांप्रदायिकता को बढ़ाने के लिए इतना उत्तरदायी नहीं है जितना कि इसकी वृद्धि पर रोक लगाने में राष्ट्रवादियों की असफलता के लिए उत्तरदायी है।
ऐसा इसलिए हुआ कि इससे सरकार और मुसलमान संप्रदायवादियों को मुसलमानों को आतंकित करने के लिए तथा उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध करके इसका इस्तेमाल करने में मदद मिली।इस हिन्दुत्व के आवरण का इस्तेमाल उन्होंने मुसलमानों में यह भावना भरने के लिए किया कि राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता का मतलब होगा देश में ‘हिंदुओं का आधिपत्य’ स्थापित होना।
मुस्लिम सांप्रदायिक प्रचार ने भी एक निश्चित प्रगति की, क्योंकि भारत में मुसलमान धर्मानुयायी एवं अल्पसंख्यक थे। विश्व भर में अल्पसंख्यकों की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि उन्हें यह खतरा रहता है कि बहुसंख्यक लोग उन पर हावी ना हो जाएँ, भले ही ऐसा महसूस करने के कोई वास्तविक आधार मौजूद न हो।
इस संबंध में बहुसंख्यको का विशेष दायित्व होता है। उन्हें एक निश्चित उदारता के साथ व्यवहार करना चाहिए, जिससे कि अल्पसंख्यकों का यह भय धीरे-धीरे जाता रहे। दुर्भाग्यवश हिंदू सांप्रदायिकता ने इसके विपरीत भूमिका अदा की। उन्होंने अल्पसंख्यकों को भयमुक्त करने के लिए उनको पर्याप्त सुरक्षा तथा आश्वासन देने की नीति का सक्रिय रुप से विरोध किया। उन्होंने भारत को हिंदुओं की भूमि कहा और घोषित किया कि हिंदुओं का यह एक अलग राष्ट्र है।
इतिहास को कक्षा में पढ़ाने तथा उसे कक्षा से बाहर को एक मिथक बनाने के कार्य ने सांप्रदायिकता के प्रसार में बड़ा योगदान दिया। इसकी शुरुआत 19वीं शताब्दी के आरंभ में ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स मिल द्वारा की गई थी, जिसने भारतीय इतिहास के मध्यकाल को मुस्लिम काल नाम दिया। अन्य ब्रिटिश तथा भारतीय इतिहासकारों ने संबंध में उसका अनुसरण किया। इसके अतिरिक्त मुस्लिम आम जनता उतनी ही गरीब, शोषित और दलित थी जितनी कि हिंदू आम जनता और मुसलमानों के साथ-साथ हिंदू जमीदार सामंत तथा राजा भी थे, किंतु इन लेखकों ने कहा कि सभी मुसलमान शासक वर्ग के थे और सभी हिंदू शासित वर्ग के।
इस तरह राजनीति का मूलस्वरूप केंद्रीय शासक के धर्म के साथ एकीकृत कर दिया गया। ( अभिन्न समझ लिया गया)। बाद में संस्कृति और समाज को भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति और समाज कहां गया। इसके अलावा यह मिथक भी फैलाए गए कि ‘मुस्लिम’ शासक हिंदू विरोधी थे और हिंदुओं पर अत्याचार करते थे और मध्य ( मुस्लिम ) काल, प्राचीन काल में उन्नति के ‘पराकाष्ठा’ को पहुंचे भारतीय समाज तथा संस्कृति के पतन या अपकर्ष का सूचक है।
हिन्दू साम्प्रदायिक इतिहासकारों, लेखकों तथा प्रचारकर्ताओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था तथा शिल्प-विज्ञान धर्म तथा दर्शन कला तथा साहित्य, संस्कृति तथा समाज के विकास में मध्ययुग के मूलभूत योगदान को स्वीकार नहीं किया। मुस्लिम संप्रदायवादियो ने मध्यकालीन इतिहास को अपने ही ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने इस धारणा को स्वीकार किया कि सभी मुसलमान शासक थे या कम से कम तथाकथित मुस्लिम शासकों के साथ थे। वे सभी मुस्लिम शासकों की– यहां तक कि औरंगजेब जैसे कट्टर धर्मांन्धों की भी—- गौरव- गरिमा के गान की ओर प्रवृत्त हो गए ।
कुछ लेखकों के अनुसार सांप्रदायिकता के विकास का एक बड़ा कारण भारत में बहुत से धर्मों का होना भी है। किंतु हम इससे सहमत नहीं हैं। भारत में सांप्रदायिकता का आधारभूत या मूल कारण धर्म नहीं था। यहां हमें धर्म के दो रूपों में अंतर करना चाहिए। धर्म का एक रूप तो वह है जिसे लोग आस्था के रूप में— अपनी व्यक्तिगत श्रद्धा के अंग के रूप में अपनाते हैं तथा दूसरा रूप वह है जिसे धार्मिक अस्मिता के सिद्धांतवाद के रूप में अपनाते हैं। धर्म का यह दूसरा रूप ही सांप्रदायिकता है।
जहां धर्म सांप्रदायिकता का एक कारण है वह संप्रदायवादियो ने सांप्रदायिकता को धर्म के भेदों पर ( वैशिष्टियों पर ) आधारित किया। इस वैशिष्ट्य का इस्तेमाल अन्य सामाजिक जरूरतों, आकांक्षाओं, संघर्षों आदि को व्यक्त करने या छिपाने के लिए किया जाता है । धर्म संप्रदायिकता में उसी सीमा तक आता है जहां तक यह धर्म के अतिरिक्त अन्य क्षेत्र में पैदा होने वाली राजनीति के लिए उपयोगी होता है।
जैसा कि डब्ल्यू० सी० स्मिथ ने कहा है कि सांप्रदायिक राजनीति का “धार्मिक विषयों से केवल वहीं तक सम्बन्ध है जहां तक कि उनका इस्तेमाल इन प्रयोजनों के लिए किया जा सके।” धार्मिक अंतरों—जो कि बिल्कुल वास्तविक हैं—का इस्तेमाल करते हुए संप्रदायवादी हिंदू या मुसलमान समुदाय की राजनीति में एक झूठी पहचान निर्मित करते हैं। यहां एक उपमा से सहायता मिल सकती है : ईसाई-जर्मन तथा यहूदी-जर्मन के बीच अंतर बहुत ही यर्थाथ था किंतु यह अंतर नाजी या यहूदी-विरोधी राजनीति या जातीय राजनीति या जातीय सिद्धांतों के लिए जिम्मेदार नहीं था और न ही यह उसका कारण था।
कहने का अर्थ है कि नाजीवाद इन अंतरों से पैदा नहीं हुआ था किंतु संप्रदायवादियों द्वारा धर्म का इस्तेमाल एक सैन्य संगठन-तत्वों के रूप में किया गया था। 1939 के बाद, और विशेष रूप से 1945-47 के दौरान संप्रदायिकता ने एक व्यापक आंदोलन का रूप ले लिया और वह भी तब जबकि धर्म के लिए खतरा पैदा हो जाने की आवाज उठाई।
1907 में हिंदू सभा की स्थापना हुई। किंतु हिंदू सभा उस रुग्ण शिशु की भांति थी जिसकी 1923 में पुनर्जीवित होने के लिए मृत्यु हो गई। इसी प्रकार नौजवान मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग लीग में उच्चवर्गीय राजभक्तों के नेतृत्व में जल्दी ही असंतुष्ट हो गया। वह उग्र राष्ट्रवादी विचारों और आंदोलन की ओर आकर्षित हुआ। इसमें उसे मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे रूढ़िवादी उलेमा की एक शाखा से समर्थन मिला।
धीरे-धीरे राष्ट्रीयतावादी युवा मुसलमान कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों में ही काफी तादात में आए और 1912 से 1924 के दौरान उन्होंने लीग में राजभक्तों का महत्व बिल्कुल खत्म कर दिया। दुर्भाग्यवश, उनकी राष्ट्रीयता में यह दोष था कि यह पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष नहीं थी। इसमें सुदृढ़ धार्मिक और औसत-इस्लामी पुट था। यद्यपि यह पुट राष्द्रीयता के एकदम प्रतिकूल नहीं था फिर भी यह हानिकारक सिद्ध हुआ क्योंकि इसने राजनीतिक प्रश्नों को धार्मिक दृष्टिकोण से देखने की प्रवृत्ति उत्पन्न की और इस तरह धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण को कमजोर किया।
कांग्रेस तथा लीग के अंतर्गत होने वाली वास्तविक गतिविधियों ने दोनों के बीच व्यापक राजनीतिक एकता का पथ प्रदर्शित किया। दोनों संगठनों ने अपने अधिवेशन लखनऊ में किए तथा ‘लखनऊ समझौता’ नामक एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और सरकार के समक्ष सामान्य राजनीतिक मांगे रखी जिनमें युद्ध के बाद भारत में स्वशासन की मांग भी शामिल थी।
लखनऊ समझौता कुछेक मामलों में प्रगतिशील होते हुए भी कुछ मामलों पिछड़ा हुआ भी था क्योंकि इसको इस पूर्व धारणा पर आश्रित किया गया था कि हिंदू और मुस्लिम संगठित तो हांगे किंतु दो अलग-अलग समाजों के रुप में, साथ ही इसनें अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों को भी स्वीकार किया।
राष्ट्रीय आंदोलन तथा हिंदू-मुस्लिम एकता ने युद्ध के बाद व्यापक प्रगतिशील कदम उठाए। रौलट एक्ट के विरुद्ध असंतोष ने समस्त भारतीयों के बीच एकता की भावना पैदा की। खिलाफत आंदोलन तथा असहयोग आंदोलन को संयुक्त कर दिया गया और 1919-22 के दौरान इसे एक साथ चलाया गया।
संपूर्ण देश ने महसूस किया कि वह ताजी हवा में सांस ले रहा है और देश भर में हिंदू-मुस्लिम की जय की आवाज गूँज उठी। किंतु इसमें एक कमजोरी भी समाहित थी। खिलाफत आंदोलन के समर्थकों की राजनीतिक चेतना आंशिक रूप से राजनीतिक रही और यह पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष न हो सकी। इस प्रकार आगे आने वाले समय में सांप्रदायिकता के लिए प्रवेश का मार्ग इसमें खुला रहा।
1922 में असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया। लोगों में निराशा फैल गई थी और संप्रदायिकता ने अपना वीभत्स चेहरा अवसर पाते ही ऊँचा कर लिया। 1923 के बाद देश में बार-बार साम्प्रदायिक दंगे हुए और साम्प्रदायिक भावनाओं का प्रसार हुआ। हिन्दू महासभा फिर से जीवित हो उठी, मुस्लिम लीग को पुनर्जीवन् मिला और यहाँ तक कि राष्ट्रीयतावादी भी प्रबल धर्मनिरपेक्ष तथा अर्धसांप्रदायिक घटकों में विभाजित हो गए।
गांधी ने व्यक्तिगत मनन-चिंतन, नैतिक अनुरोध तथा भूख हड़ताल के माध्यम से स्थिति के बीच में पड़ने का प्रयास किया, किंतु कोई सफलता नहीं मिली। दूसरे लोगों ने सांप्रदायिक नेताओं को एकत्र करने और सांप्रदायिक मांगों पर समझौता कराने का प्रयास किया। इसी प्रकार सांप्रदायिक नेता ‘नेहरू रिपोर्ट’ पर सहमत न हो सके। इन प्रयासों के सार्थक लक्षण यह बना कि गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्रवादी नेताओं को यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता गया कि संप्रदायवाद के विरुद्ध संघर्ष किया जाना चाहिए, क्योंकि इसका सरल समाधान संभव नहीं है।
1930-34 के साइमन कमीशन-विरोधी आंदोलन तथा दूसरे ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ ने सांप्रदायिक शक्तियों को एक बार फिर से निष्क्रिय कर दिया, हालांकि चौथे दशक के आरंभ में हुए गोलमेज सम्मेलन के दौरान सांप्रदायिक नेताओं को एक बार फिर से प्रकाश में आने का अवसर मिल गया था। 1934 में सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस लेना पड़ा ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिक निर्णय और भारत सरकार अधिनियम 1935 की घोषणा कर दी। राष्ट्रवादी राजनीति को एक बार फिर से संसद के क्षेत्र में स्थानांतरित होना पड़ा।
1937 के चुनाव में कांग्रेस भारत के प्रधान राजनीतिक शक्ति के रूप में सामने आई, जमीदारों तथा अन्य निहित स्वार्थों के विभिन्न राजनीतिक दलों को बड़ी पराजय और पतन का सामना करना पड़ा। मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा जैसी सांप्रदायिक पार्टियाँ भली-भांति न चलीं।
सामाजिक-आर्थिक निहित स्वार्थ तथा प्रतिक्रियावादी, औपनिवेशिक अधिकारी वर्ग तथा सांप्रदायिक शक्तियों ने भीषण रूप ले लिया। अपने आर्थिक तथा राजनीतिक कार्यक्रम और नीतियों में तेजी से आमूल परिवर्तन की दिशा अख्तियार करते हुए राष्ट्रीय आंदोलन का विरोध करने में उन्होंने अपनी संपूर्ण सांप्रदायिक भावना की बाजी लगा दी। किंतु हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिकता में विरोध युद्ध स्तर पर पहुंच गया और यह अधिकाधिक फासीवादी रूप धारण करता गया।
मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने हिन्दू-विरोधी तथा कांग्रेस-विरोधी प्रचार प्रारंभ कर दिया और एक घृणा का अभियान चलाया जिसके परिणामस्वरूप 1940 में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित किया गया, जिसने मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र की घोषणा की और भारत के विभाजन की और मुसलमानों के लिए अलग देश पाकिस्तान बनाने की मांग की। वि० दा० सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा का पुनर्गठन किया गया जिसने आक्रामक रूप से कांग्रेस-विरोधी और मुस्लिम-विरोधी विचारधारा और कार्यक्रम प्रस्तुत किया। इस वातावरण की नई विशेषता यह हुई कि विशेष रूप से उत्तरी भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म हुआ जिसका दृष्टिकोण खुले तौर पर फासीवादी था।
हिंदू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों ही खुले तौर पर मुस्लिम-विरोधी थे। इसी प्रकार मुस्लिम लीग ने मुस्लिम नेशनल गार्ड की स्थापना की और उन्हें सैनिक शिक्षा देकर राष्ट्रीय स्वयं सेवकों का मुकाबला करने के लिए तैयार किया। पंजाब में ग़ज़नफ़र अली ने मुस्लिम नेशनल गार्ड को जिहाद के लिए उकसाया।
इसी प्रकार पंजाब में अकाली दल ने भी अकाली दल की रचना की ताकि वे उभरते हुए मुस्लिम संप्रदाय का मुकाबला कर सकें। इस प्रकार बिगड़ते हुए सांप्रदायिक वातावरण में सभी सांप्रदायिक तत्वों ने हिंसात्मक सांप्रदायिकता का सहारा लिया। उन्होंने मुसलमानों के विरुद्ध एक कटु अभियान आरंभ किया जिसके द्वारा मुसलमानों को बाहरी व्यक्ति और विदेशी कहा, जिन्हें भारत में हिंदुओं की मेहरबानी पर दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में रहना चाहिए।
इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि जो सांप्रदायिक वर्ग या दल इस समय हिंदू या मुस्लिम राष्ट्रीयता की बात कर रहे थे उनमें से किसी ने भी विदेशी शासन के विरूद्ध संघर्ष में सक्रिय भाग नहीं लिया था। उन्होंने अपनी शक्ति को अन्य धर्मों तथा राष्ट्रवादी नेताओं के विरुद्ध इस्तेमाल के लिए सुरक्षित रखा था। उन्होंने आम जनता की यहां तक की उनके अपने धार्मिक समूहों की जनता की भी आर्थिक मांग को नहीं उठाया था। वस्तुतः हिंदू मुस्लिम तथा या सिक्ख संप्रदायिकता उच्च वर्गीय निहित स्वार्थों का प्रतिनिधित्व करने में तेजी से लग गई।
निष्कर्ष
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, खासतौर पर 1942 के बाद सांप्रदायिक शक्तियों को तेजी से बढ़ने का अवसर मिला। ऐसा मुख्य रूप से इसलिए भी हुआ कि राष्ट्रवादी नेता जेल में थे और राष्ट्रीयता आंदोलन निष्क्रिय था। 1946 तक मुस्लिम लीग बड़ी संख्या मुसलमानों का समर्थन पाने में सफल हुई तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उत्तरी भारत के एक बड़ी शक्ति बन गया। सांप्रदायिक शक्तियों पर अब भी रोक लगाई जा सकती थी किंतु यह इसलिए संभव न हो सका कि 1947 के दौरान और अगस्त 1947 के बाद में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे कराने में समर्थ हुईं।
ऐसा प्रतीत हुआ कि संपूर्ण देश सांप्रदायिकता की आग की लपटों में झुलस रहा है और देश के विभाजन का एक ही विकल्प हो सकता था और वह था लाखों की संख्या में मासूम लोगों की एक साथ हत्या। राष्ट्रीयतावादी नेतृत्व तथा भारतीय जन-समुदाय को पिछली अर्धशताब्दी के दौरान संप्रदायिकता के प्रादुर्भाव और विकास से सफलतापूर्वक निपटने में अपनी असफलताओं के अवश्यंभावी परिणामों का सामना करना पड़ा। इस तरह अगस्त, 1947 में दो स्वतंत्र राष्ट्र बनकर भारत तथा पाकिस्तान ने दो जातियों (कौमों) की साझेदारी को गहरी ठेस पहुंचाई।
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