क्रिप्स मिशन भारत कब आया, उद्देश्य, प्रस्ताव और क्यों असफल रहा

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क्रिप्स मिशन ब्रिटिश सरकार द्वारा मार्च 1942 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान ब्रिटिश राजनेता सर स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में भारत भेजा गया एक प्रतिनिधिमंडल था। मिशन को भारतीय नेताओं के साथ बातचीत करने और द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश युद्ध के प्रयासों के लिए समर्थन हासिल करने और भारतीय स्व-शासन की बढ़ती मांगों को संबोधित करने के प्रयास में संवैधानिक सुधारों का प्रस्ताव करने के लिए भेजा गया था।
cripps mission

 क्रिप्स मिशन भारत कब आया

सितंबर 1939 में दूसरे विश्व युद्ध की घोषणा होने के बाद वायसराय ने जब कांग्रेस से परामर्श किए बिना भारत को एक युद्ध  में झोंक दिया तो सरकार और कांग्रेस के मध्य एक गतिरोध उत्पन्न हो गया। 1942 के आरंभ में ब्रिटिश सरकार को कुछ कारणों से इस गतिरोध को समाप्त करने के लिए ब्रिटिश संसद के एक विशेष सदस्य सर स्टैफोर्ड क्रिप्स (Sir Stafford Cripps ) को भारत भेजना पड़ा। क्रिप्स  मिशन को भेजे जाने के निम्नलिखित कारण थे—–

1– प्रथम कारण यह था कि जापान के युद्ध में प्रवेश करने के बाद उसकी सफलताओं से मित्र राष्ट्र घबरा उठे दक्षिण-पूर्व एशिया में फिलीपींस, इंडोनेशिया और मलाया को पराजित करने के बाद जापानियों ने सिंगापुर और बर्मा को भी विजय कर लिया था। अब पूर्व की ओर से भारत के लिए खतरा अत्यधिक बढ़ गया था। ब्रिटिश संसद में चर्चिल के एक बयान के अनुसार ब्रिटिश सरकार भारत की सफलतापूर्वक रक्षा करने में स्वयं को असहाय महसूस कर रही थी।

2– दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह था कि कांग्रेस दल इस बात पर अड़ा था कि जब तक सरकार स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए तैयार न हो तब तक युद्ध संबंधी क्रियाकलापों में उससे सहयोग नहीं किया जाएगा। ब्रिटेन के सहयोगी देश यह महसूस करने लगे थे कि ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हित ही एक सम्मानजनक पेशकश के रास्ते में रुकावट हैं। पूर्वी समुद्र में जापानी नौसेना के हावी होने के कारण समुद्र के रास्ते से चीन की आपूर्ति ( रसद ) रेखा कट गई थी चीन के राष्ट्रपति (President) चियांग-काई-शेक ( Chiang -kai-shek ) भारत के बीच से सड़क के रास्ते आपूर्ति रेखा के कट जाने के भय से चिंतित हो उठे थे।

चियांग-कई-शेक ने अपनी यह चिंता चर्चित और अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ( Franklin D Roosevelt )के सामने रख दी थी। परंतु चर्चिल ने चियांग-काई-शेक की चिंता को गंभीरता से नहीं लिया था। इन परिस्थितियों में अध्यक्ष और मदाम चियांग- काई-शेक को भारत आना पड़ा और यहां उन्होंने ब्रिटिश भारतीय सरकार, गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद आदि से विचार-विमर्श किया।  उनका मानना था कि जापान के खतरे से निबटने के लिए भारतीयों का स्वेच्छा से युद्ध में भाग लेना आवश्यक था और इसके लिए भारतीय नेताओं की मांगें मानी जानी अनिवार्य थी। 

अमेरिका की सेनाओं के सेनाध्यक्ष ( सुप्रीम कमांडर ) जनरल आइज़न हॉवर का भी यह मत था कि युद्ध में भारतीय सहयोग अत्यंत आवश्यक था। फरवरी 1942 में राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने चर्चिल की इस बात का खंडन किया था कि अटलांटिक चार्टर ( Atlantic Charter ) भारत और बर्मा पर लागू नहीं था। रूज़वेल्ट के अनुसार वह संसार के सभी देशों पर लागू था। ऑस्ट्रेलिया के विदेश-मंत्री इवाट (Evatt ) का भी मत था कि युद्ध में भारत के प्रभावशाली योगदान के लिए भारत को स्वशासन प्रदान किया जाना  चाहिए। 

इसी कारण कांग्रेस के नेताओं ने अगस्त पेशकश ( August Offer ) को भी शक की दृष्टि से देखा था और उसे ठुकरा दिया था। यह अविश्वास युद्ध आरंभ होने के बाद और भी अधिक बढ़ गया था क्योंकि कांग्रेस नेताओं का मत था कि युद्ध जीतने के बाद ब्रिटेन गुलामी की जंजीरों को और कड़ा कर देगा। कूपलैंड का आगे कहना है कि भारत मंत्री एमरी की यह दलील की डोमिनियन स्टेटस का अर्थ स्वतंत्रता ही है, कांग्रेस के नेताओं को प्रभावित न कर सकी।

कूपलैंड के अनुसार, “जब 11 मार्च, 1942 को चर्चिल ने संसद में क्रिप्स मिशन के बारे में घोषणा की तो कांग्रेस नेताओं को ब्रिटिश इरादों में कुछ गंभीरता दृष्टिगोचर हुई। इस घोषणा का स्वागत किए जाने का एक और कारण यह था कि क्रिप्स 1939 में भारत आने पर नेहरू और कांग्रेस नेताओं के साथ ठहरे थे, और उन्होंने उनका विश्वास प्राप्त किया था।”  परंतु क्योंकि क्रिप्स कांग्रेस के नेताओं को विशेष रुप से जवाहरलाल नेहरू के मित्र समझे जाते थे, इसलिए मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना के मन में यह भय उत्पन्न हो गया कि लीग के साथ न्याय नहीं होगा। परंतु क्रिप्स, जिन्ना के साथ पहले ही इंटरव्यू में उनका यह भय दूर करने में सफल हो गए। 

 ( Cripps offer) क्रिप्स प्रस्ताव

ब्रिटिश सरकार ने इंग्लैंड और भारत में भारत के भविष्य के बारे में किए गए वायदों को पूरा करने के बारे में प्रकट की गई चिंता को ध्यान में रखते हुए भारत में स्वशासन की दिशा में उठाए जाने वाले कदमों के बारे में कुछ निश्चित निर्णय किए हैं। इनका उद्देश्य एक भारतीय संघ की स्थापना करना है जो कि ब्रिटेन और उसके दूसरे डोमिनियनों के साथ सम्राट के प्रति निष्ठा के कारण संबंधित रहेगा परंतु वह सभी क्षेत्र में समान होगा और अपनी नीति के गृह और विदेशी किसी पहलू में अधीन न होगा।

पहले भाग में युद्ध समाप्ति पर एक संविधान निर्माण की चर्चा की गई थी जिसके लिए संविधान सभा का होना आवश्यक था।। इस संविधान सभा के संबंध में कहा गया था कि संविधान सभा के सदस्यों के चुनाव के लिए पहले युद्ध समाप्ति पर प्रांतों में चुनाव कराए जाएंगे। इन राज्य विधानपालिकाओं के निचले सदनों के सदस्यों और भारतीय राजाओं के राज्यों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक निर्वाचक मंडल का निर्माण किया जाएगा। परंतु साथ ही यह भी उपबंधित किया गया कि अंतिम चरण में कोई भी ब्रिटिश प्रांत अथवा भारतीय राज्य संघ में शामिल होने से इंकार कर सकता था, और अपना-अलग संविधान बना सकता था।

क्रिप्स प्रस्तावों का मूल्यांकन और कांग्रेस की प्रतिक्रिया

कांग्रेस ने यह भी महसूस किया कि उसकी पूर्ण स्वतंत्रता की मांग को अनदेखा कर दिया गया है। प्रस्तावों का पहला भाग तो भविष्य संबंधित था ही, दूसरे भाग के अनुसार कार्यकारिणी परिषद (Executive Council) का स्तर और सुरक्षा सदस्य भी चर्चा के विषय थे। फिर भी कांग्रेस भविष्य की समस्याओं को एक ओर रखने को तैयार थी बशर्तें की ब्रिटिश सरकार कार्यकारिणी परिषद को एक राष्ट्रीय सरकार में परिवर्तित किए जाने के लिए तत्पर हो जाए।

दूसरे, युद्ध के समय सुरक्षा क्योंकि सबसे महत्वपूर्ण विभाग था, अतः इस युद्ध को जनता का युद्ध घोषित करने के लिए यह आवश्यक है कि रक्षा विभाग किसी भारतीय को सौंप दिया जाए। परंतु क्रिप्स की यह दलील थी कि यह शक्ति प्रदान करना उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं था। और इसके लिए उन्हें प्रधानमंत्री चर्चिल से आज्ञा लेनी होगी। चर्चिल ने इस मांग को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि इसके लिए मंत्रिमंडल द्वारा बहस की आवश्यकता है। रक्षा सदस्य के बारे में भी कांग्रेस का रवैया बहुत कठोर नहीं था।

सी.  राजगोपालाचारी ने स्वयं यह सुझाव दिया था कि केवल औपचारिक रूप से रक्षा विभाग किसी भारतीय को सौंप दिया जाए परंतु व्यावहारिक रूप से युद्ध की समाप्ति तक विभाग ब्रिटिश सरकार के अधीन रखा जा सकता है। जवाहरलाल नेहरू ने भी स्वीकार किया कि व्यवहार में युद्ध के कारण सैनिक और सेनाध्यक्ष (Commander-in-Chief)  युद्ध मंत्रिमण्डल के अधीन रह सकते हैं परंतु शेष कार्य भारतीय सदस्य को सौंपे जा सकते हैं।

कूपलैंड ने क्रिप्स और वायसराय लिनलिथगो के बीच मतभेद वाली बात को एक शरारती अपवाह कहकर रद्द किया है। कूपलैंड का कहना कहना है कि स्वयं क्रिप्स ने इस बात से इनकार किया था। इसलिए अप्रैल 1942 में ब्रिटिश मंत्रिमण्डल ने क्रिप्स के रक्षा सदस्य संबंधों नए सुझावों को रद्द कर दिया। इसी समय अमेरिका के राष्ट्रपति के एक विशेष प्रतिनिधि कर्नल लुई जॉनसन (Col. Louis Johnson) भारत पहुंचे। क्रिप्स और जॉनसन ने एक नए फार्मूले को जन्म दिया जिसे ‘क्रिप्स-जॉनसन फ़ार्मूला कहा गया।

इस फार्मूले के अनुसार एक भारतीय को रक्षा विभाग दिया जाना था जिसे व्यवहाIरिक रूप में युद्धकाल में सारी शक्ति सेना अध्यक्ष को सौंप देनी थी। परंतु चूँकि युद्ध मंत्रिमंडल ने इस प्रस्ताव को स्वीकृति देने से इनकार कर दिया, अतः क्रिप्स को यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा।। इस बात से कांग्रेस दल क्रोधित हुआ और उसने क्रिप्स प्रस्तावों को ठुकरा दिया।

Rejection of Proposals by Indian Parties and its Reasons

कांग्रेस द्वारा क्रिप्स प्रस्तावों को ठुकराने के दो बड़े कारण थे। प्रथम, ब्रिटिश सरकार रक्षा विभाग किसी भी मूल्य पर भारतीयों को सौंपने के लिए तैयार नहीं थी। दूसरे, सरकार कार्यकारिणी परिषद के एक मंत्रीमंडल के रूप में कार्य करने के पक्ष में नहीं थी। कूपलैंड के अनुसार मुस्लिम लीग क्रिप्स प्रस्तावों से इसलिए प्रसन्न थी क्योंकि प्रस्तावों में प्रांतों को भारतीय संघ से अलग रहने का अधिकार दिया गया था।

लीग को बहुत समय से यह भय था कि कांग्रेस पाकिस्तान की मांग के बारे में चर्चा ही नहीं करने देगी। परंतु लीग ने कांग्रेस द्वारा रद्द किए जाने के बाद क्रिप्स प्रस्तावों को इस आधार पर रद्द कर दिया कि प्रस्तावों द्वारा न तो पाकिस्तान की मांग को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया गया है और न ही दो संविधान सभाओं की चर्चा की गई है।

विदित हो कि सिक्खों का एक प्रतिनिधिमंडल जिसमें बलदेवसिंह, उज्जवल सिंह, मास्टर तारा सिंह और सर जोगिंदर सिंह शामिल थे क्रिप्स से मिला था।  किप्स ने सिक्ख नेताओं को यह सुझाव दिया कि वे कांग्रेस और लीग से सोवियत जिले जैसे एक स्वायत्त क्षेत्र के लिए मोल-तोल कर लें और जो राज्य  उन्हें अधिक सुविधाएं (शर्तें) प्रदान करे उसमें शामिल हो जाएं। 

हिंदू महासभा ने क्रिप्स प्रस्तावों को पाकिस्तान की मांग की दिशा में एक कदम समझकर पहले ही रद्द कर दिया था। क्रिप्स प्रस्तावों में अल्पसंख्यक वर्गों के हितों की चर्चा के बावजूद डॉ अंबेडकर को भय था कि इनसे पिछड़ी जातियों को अत्याधिक हानि होगी और अन्हें हिंदू शासन के अधीन रहना होगा। इस तरह पट्टाभिसीतारमैया के अनुसार क्रिप्स योजना—- में “अलग- अलग स्वादों के लिए अलग-अलग चीजें शामिल की गई थीं। और सभी को प्रसन्न करने के प्रयत्नों में यह योजना किसी को भी प्रसन्ननें कर सकी थी।

वास्तविक कारण – Real reason

परंतु तथ्यों को जानने से पता चलता है कि ब्रिटिश सरकार नहीं चाहती थी कि क्रिप्स मिशन सफल रहे। एक स्रोत के अनुसार चर्चिल को जब यह खबर मिली कि  “क्रिप्स मिशन फेल हो गया है तो वे मंत्रिमंडल के कमरे के आस-पास नाचने लगे— चर्चिल की सरकार का उद्देश्य केवल मित्र राष्ट्रों (Allies) की सरकारों के दबाव को कम करना और मंत्रिमंडल के मजदूर दल के सदस्यों को शांत करना था और उनका यह उद्देश्य सफल हो चुका था।

सरकार को इस बात का भी ज्ञान था कि क्रिप्स योजना में पहले प्रस्तुत की गई पेशकश की अपेक्षा कोई नई चीज नहीं है। इस ड्रामे द्वारा चियांग-काई-शेक, अमेरिकी राष्ट्रपति और लोकमत और ब्रिटिश मंत्रिमंडल के मजदूर दल सदस्यों को शांत किया जा चुका था और सरकार को कांग्रेस के कठोर रवैए की निंदा करने के लिए काफी मसाला मिल गया था। अब सरकार अपनी प्रचार मशीन का प्रयोग कर कांग्रेस के प्रति भारत और संसार के दूसरे देशों के लोगों की सहानुभूति को समाप्त कर सकती थी।

ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रचार और कांग्रेस की आलोचना

ब्रिटिश सरकार ने वाशिंगटन में अपने दूतावास का अमेरिका के लोगों और वहां स्थित दूसरे दूतावास के मध्य भारतीय नेताओं के विरुद्ध प्रचार के लिए काफी प्रयोग किया। अमेरिका के लोगों के लिए अपने प्रसारण में क्रिप्स ने कहा कि “हमने भारतीय  नेताओं के सामने वायसराय की कार्यकारिणी सभा में स्थान देने का प्रस्ताव रखा जो कि अमेरिका के president को परामर्श देने वाले मंत्रिमंडल जैसी सभा है”  इस प्रकार के प्रचार का अमेरिका के लोगों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा।

क्रिप्स द्वारा बातचीत एकदम समाप्त कर लौट जाने से कांग्रेस को बड़ा धक्का पहुंचा। कांग्रेस के नेता क्रिप्स को एक सीधा-साधा स्वतंत्र मौलिक परिवर्तनवादी भारत का शुभचिंतक और अपना मित्र समझते थे परंतु वे इसके बिल्कुल विपरीत सिद्ध हुए। क्रिप्स ने उनकी ( नेताओं की )   निर्णय-शक्ति पर भी शंका प्रकट की थी।

जवाहरलाल नेहरू को, जो क्रिप्स के सबसे अच्छे मित्र माने जाते थे, निराश होकर या कहना पड़ा कि ” अत्यन्त अफसोस की बात है कि क्रिप्स जैसा व्यक्ति अपने को शैतान का वकील बनने दे”। इसी प्रकार कांग्रेस पर जो यह दोष लगाया गया कि वह अल्पसंख्यकों को कुचलना चाहती है उससे भी कांग्रेस को दुख हुआ।

कांग्रेस केवल लीग की पाकिस्तान विषयक मांग के विरुद्ध थी। क्रिप्स द्वारा कांग्रेस और गांधी पर लगाए गए दोषों से गांधी जैसे व्यक्ति भी बड़े क्रोधित हुए और उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया इन शब्दों में व्यक्त की “सारी आलोचना जो आजकल की जा रही है मुझे बेवकूफ बनाने, डराने और कांग्रेस के हौसले तोड़ने के लिए है। यह घटिया चाल है। वे नहीं जानते कि इससे मेरी छाती में कितनी आग लगी”।

क्रिप्स मिशन का प्रभाव

जहां एक ओर गांधी क्रिप्स मिशन के असफल हो जाने के परिणामस्वरुप उत्पन्न विचित्र स्थिति ( क्योंकि जापानियों का खतरा दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था ) से निपटने के लिए सोच में डूबे थे, कांग्रेस के दूसरे नेता अलग-अलग सुरों में बोल रहे थे। जवाहरलाल नेहरू क्रिप्स मिशन को सफल बनाने के लिए बड़े चिंतित रहे थे ताकि भारत अपनी सुरक्षा के लिए आम जनता का सहयोग प्राप्त कर सके।

मौलाना आजाद के अनुसार “उन्हें इस बात का बड़ा दुख था कि भारत दूसरे लोकतंत्रों के साथ मिलकर युद्ध में भाग ले नहीं ले रहा”।  स्वयं आजाद का यह मत था कि कांग्रेस को जापानियों का विरोध करने के लिए लोगों को संगठित करना चाहिए क्योंकि मौजूदा परिस्थितियों में अहिंसा के लिए कोई स्थान न था।

राजगोपालाचारी का मत था कि क्योंकि क्रिप्स मिशन द्वारा ब्रिटिश सरकार ने लीग की पाकिस्तान संबंधी मांग को मान लिया है और क्योंकि कांग्रेस भी आत्मनिर्णय (Self determination ) के सिद्धांत में विश्वास करती है इसलिए उसे पाकिस्तान की मांग को स्वीकार कर लेना चाहिए। यद्यपि राजा जी की बात में सच्चाई थी फिर भी क्योंकि लोकमत और लोग-भावना इसके विपरीत थी, इसलिए कांग्रेसी ऐसा करने में असमर्थ थी।

क्रिप्स प्रस्तावों से कोई भी खुश नहीं हुआ। प्रस्तावों को अचानक 11 अप्रैल 1942 को हटा लिया गया। इस मिशन की असफलता का मुख्य कारण यह था कि प्रस्ताव किसी भी दल के लिए संतोषजनक सिद्ध नहीं हुए।

पंडित नेहरू ने इसकी आलोचना करते हुए कहा था  कि “जितना इन प्रस्तावों के बारे में सोचा जाता था, उतने ही यह विचित्र प्रतीत होते थे।” भारत दर्जनों नाममात्र, स्वतंत्र या अर्द्धस्वतंत्र राज्यों का एक बोर्ड बन जाता, जिसमें न तो राजनीतिक एकता थी न भौतिक आर्थिक तथा आर्थिक दृष्टिकोण से इसमें अंग्रेजी शासन था।

गांधी के लिए एक और समस्या उत्पन्न हो गई थी और वह यह कि नरम दल वाले बहुत बर्षों  से अंग्रेजों को स्वतंत्रता प्रेमी, ऊंचे मूल्यों तथा जमीर वाले और न्यायवादी व्यक्ति कहते रहे थे। क्रिप्स ने इस विश्वास को चकनाचूर कर दिया था और भारतीयों के मन में उनके प्रति अविश्वास और घृणा की भावना उत्पन्न हो गई थी।

बहुत दिनों तक गहन सोच-विचार और मौन के बाद गांधी ने 26 अप्रैल 1942 को अपने पत्र ‘हरिजन‘ में एक लेख लिखा कि ब्रिटेन और भारत दोनों का भला इस बात में है कि अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएं। 29 अप्रैल और 2 मई के बीच अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ तो गांधी ने उन्हें अंग्रेजों के सामने यह मांग रखने को कहा। गांधी के इस सुझाव के कारण उन्हें.कांग्रेस का नेतृत्व ने हाथ में लेना पड़ा।

इस प्रकार के उत्तेजित वातावरण में कांग्रेस कार्यसमिति ने 14 जुलाई को एक प्रस्ताव पास किया जिसमें अंग्रेजों से भारत को आजाद करने के लिए कहा गया, वरना कांग्रेस को नागरिक अवज्ञा आंदोलन आरंभ करना पड़ेगा। इस अपील के प्रति सरकार का रवैया नकारात्मक था। जिन्ना ने इसे अंग्रेजों के साथ ब्लैकमेल और हिंदूराज की स्थापना की दिशा में कदम कहा।

हिंदू महासभा के नेताओं ने भी अपने अनुयायियों को कांग्रेस का समर्थन करने के लिए नहीं कहा। इसी प्रकार सप्रू और शास्त्री जैसे उदारवादी दल के नेताओं ने भी इसे देश के हितों के विपरीत समझकर कांग्रेस से आंदोलन त्यागने की अपील की। फिर भी 8 अगस्त 1942  को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने “भारत छोड़ो” प्रस्ताव पास कर दिया और सरकार ने भी अपनी दमनकारी मशीन को पूरी छूट दे दी।

क्रिप्स मिशन के विफल होने और कांग्रेस द्वारा ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पास किए जाने के परिणामस्वरुप कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी के कारण सरकार को कांग्रेस के विरुद्ध एक जबरदस्त प्रचार करने का अवसर प्राप्त हो गया क्योंकि कांग्रेस दल के सभी स्तरों के नेताओं के जेल में होने के कारण वे सरकार के सच्चे अथवा झूठे प्रचार का जवाब नहीं दे सकते थे। उदाहरण के लिए एमरी ने गांधी की अहिंसा की नीति को एक धुएँ का पर्दा ( Smoke screen ) कहा जिसके पीछे क्रांति और हिंसा छिपी थी।

सरकार की इस नीति का आधार या था कि युद्ध के कारण उसे जनता  के सहयोग की  अत्याधिक आवश्यकता थी। इन परिस्थितियों ने जिन्ना की पाकिस्तान की मांग भी उभारने और कांग्रेस से इस संबंध में कुछ वायदे कराने के लिए अवसर प्रदान किया।  10 जुलाई 1944 को राजगोपालाचारी फॉर्म फार्मूले को प्रकाशित करवाया जिसके निम्नलिखित चार उपबंध थे:—-

सी.राजगोपालाचारी योजना

 1—मुस्लिम लीग संक्रमण काल में स्वतंत्रता की मांग का समर्थन करेगी।

2— युद्ध समाप्ति पर एक आयोग उत्तर-पश्चिमी और उत्तर- पूर्वी क्षेत्रों की सीमा रेखा बनाएगा जिनमें मुसलमानों की स्पष्ट बहुमत है.

3— पृथक हो जाने की हालत में रक्षा, व्यापार, संचार और दूसरे आवश्यक विषयों के बारे में समझौता होगा।

4– ऊपर की शर्तें ब्रिटेन द्वारा सत्ता हस्तांतरण और भारत को शासन की बागडोर पर जाने पर ही लागू होंगी।

 इस समय राजगोपालाचारी गांधी से जिन्ना के साथ वर्तालाप करने के लिए अनुरोध कर रहे थे। कुछ लोगों को यह आपत्ति थी कि गांधी इस प्रकार जिन्ना की स्थिति को मजबूत कर रहे थे। फिर भी जिन्ना की सहमति के बाद 9 से 27 सितंबर के बीच गांधी और जिन्ना के बीच बातचीत चलती रही। जिन्ना ने इस फार्मूले को तीन कारणों से ठुकरा दिया। 

सर्वप्रथम, जिन्ना पाकिस्तान, में पूर्ण प्रांतों को शामिल करने के पक्ष में नहीं थे क्योंकि पंजाब.और बंगाल में गैर- मुसलमानों की संख्या क्रमसः 43%  और 46% होने से मुसलमानों का अंध बहुमत ( Brute Majority ) नहीं हो सकता था। इसके साथ ही जिन्ना यह कहकर भारत के दूसरे प्रांतों के अल्पसंख्यक मुसलमानों को प्रसन्न करना चाहते थे। दूसरे जिन्ना आत्मविश्वास की कमी के कारण जनमतसंग्रह में गैर-मुसलमानों को वोट देने का अधिकार नहीं देना चाहते थे।

तीसरे ,जिन्ना संयुक्त रक्षा, व्यापार-संचार-सम्बन्धी आयोग के पक्ष में नहीं थे। चौथे , वे पश्चिमी और पर्वी पाकिस्तान के बीच एक संपर्क माध्यम भी चाहते थे, इसलिए जिन्ना ने यह कहकर इसे अस्वीकृत कर दिया कि इस फार्मूले द्वारा गाड़ी को घोड़े के आगे लगा दिया गया है।  दूसरे शब्दों में कांग्रेस पहले स्वतन्त्रता चाहती थी और फिर विभाजन परन्तु लीग स्वतन्त्रता से पहले विभाजन चाहती थी।

आश्चर्य की बात है कि जिन्ना ने क्रिप्स मिशन के ऐसे ही प्रस्तावों को स्वीकृति दे दी थी, और राजा जी के फ़ार्मूले को अस्वीकार कर दिया। जिन्ना के कांग्रेस के प्रति इस प्रकार के व्यवहार का कारण क्रिप्स मिशन का विफल होना ही था। इस समय मुस्लिम लीग की समस्या यह थी कि चारों मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांतों में गैर-मुस्लिम लीग सरकारें थीं। ये सरकारें या तो पाकिस्तान की माँग के प्रति  अरुचि रखती थीं अथवा इसकी विरोधी थीं।

जिन्ना को प्रसन्न करने के लिए इन प्रांतों के गवर्नरों ने गैर-लीग मंत्रिमंडल को किसी न किसी बहाने से एक-एक कर भंग करने और उनके स्थान पर लीग-मंत्रिमण्डल स्थापित करने के प्रयत्न आरंभ कर दिए। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार युद्ध के कारण मुसलमानों को अपने पक्ष में बनाए रखने के लिए उन्हें पाकिस्तान रूपी प्रलोभन बार-बार दिखा रही थी।

इन घटनाओं के परिणाम स्वरूप जिन्ना और लीग के प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि हुई और जिन्ना को सरकार और लोगों की दृष्टि में बहुत बड़ा नेता ( कायदे आजम ) समझा जाने लगा। इसी कारण  कूपलैंड जैसे आलोचक कांग्रेस कि क्रिप्स मिशन को ठुकराए जाने की नीति को कूटनीति के दृष्टिकोण से  गलत मानते हैं। कूपलैंड के अनुसार क्रिप्स मिशन ने भारतीय जनता को सांप्रदायिक समस्या की ओर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया। क्योंकि ब्रिटिश शासक स्वतंत्रता से अधिक इस समस्या को महत्व दे रहे थे।


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