सांख्य दर्शन : सांख्य दर्शन क्या है, जानिए, सत्कार्यवाद,प्रकृति,पुरुष

प्राचीनभारतीय संस्कृति पूरे संसार में अपने ज्ञान और विज्ञान के लिएविश्वविख्यात थी। भारतीय संस्कृति संसार की सबसे गौरवमयी संस्कृतियों मेंएक है।  प्राचीन भारतीय ऋषियों ने जीवन की उतपत्ति और उसके रहस्यों कोजानने के लिए विभिन्न मतों का प्रतिपादन किया, जिन्हें हम दर्शन कहते हैं। भारतीय संस्कृति में मुखतया छ: दर्शन प्रमुख हैं सांख्य दर्शन , … Read more

भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी- जीवन इतिहास कहानी हिंदी में | Lord Gautam Buddha Biography in Hindi

भगवान गौतम बुद्ध, जिन्हें सिद्धार्थ गौतम के नाम से भी जाना जाता है, एक आध्यात्मिक नेता और दार्शनिक थे जो प्राचीन भारत में रहते थे। उनका जन्म 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में लुंबिनी, वर्तमान नेपाल में एक शाही परिवार में एक राजकुमार के रूप में हुआ था। हालाँकि, उन्होंने ज्ञान प्राप्त करने और मानव पीड़ा को समाप्त करने का मार्ग खोजने के लिए अपने राजसी जीवन को त्याग दिया।

वर्षों के गहन ध्यान और आत्म-चिंतन के बाद, उन्होंने भारत के बोधगया में एक बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया और बुद्ध बन गए, जिसका अर्थ है “जागृत व्यक्ति।” उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की, एक प्रमुख विश्व धर्म जो जन्म और मृत्यु के चक्र से आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त करने के साधन के रूप में चार महान सत्य और आठ गुना पथ सिखाता है। बुद्ध की शिक्षाओं का दुनिया भर के लाखों लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा है और वे सत्य और आंतरिक शांति के चाहने वालों को प्रेरित करती रहती हैं।

Lord Gautam Buddha Biography Life History Story In Hindi
महात्मा बुद्ध

Lord Gautam Buddha Biography in Hindi-महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक जीवन

 गौतम बुद्घ का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुंबिनी वन (आधुनिक रूमिदेई अथवा रूमिन्देह) नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यगण के मुखिया थे। उनकी माता का नाम मायादेवी था जो कोलिय गणराज्य की कन्या थी। गौतम के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनकी माता माया का देहांत हो गया तथा उनका पालन पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया।

उनका पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य एवं वैभव के वातावरण में हुआ। उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गयी। परंतु बचपन से ही वे अत्यधिक चिंतनशील स्वभाव के थे। प्रायः एकांत स्थान में बैठकर वे जीवन-मरण सुख दु:ख आदि समस्याओं के ऊपर गंभीरतापूर्वक विचार किया करते थे।

नामगौतम बुद्ध
बचपन का नामसिद्धार्थ
जन्मलगभग 563 ईसा पूर्व
जन्म स्थानलुम्बिनी, नेपाल
वंशशाक्य (क्षत्रिय)
पिताराजा शुद्धोधन
मातारानी महामाया
पत्नीयशोधरा
पुत्रराहुल
मौसीमहाप्रजापति गोतमी
गृहत्याग29 वर्ष की आयु में, उन्होंने अपने महल और विलासी जीवन को छोड़कर बोधि प्राप्ति के लिए निवृत्त हो गए
पहला उपदेशसारनाथ, वाराणसी में हिरण्यवती मृगदेन का उपदेश
धर्म के प्रोत्साहकसिद्धार्थ गौतम, जिन्हें बुद्ध के रूप में जाना जाता है, बौद्ध धर्म के मुख्य प्रतीक हैं
मृत्युलगभग 483 ईसा पूर्व
मृत्यु स्थानकुशीनगर, भारत

महात्मा बुद्ध का विवाह

 महात्मा बुद्ध को इस प्रकार सांसारिक जीवन से विरक्त होते देख उनके पिता को गहरी चिंता हुई। उन्होंने बालक सिद्धार्थ को सांसारिक विषयभोगों में फंसाने की भरपूर कोशिश की। विलासिता की सामग्रियां उन्हें प्रदान की गयी। इसी उद्देश्य से 16 वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता ने उनका विवाह शाक्यकुल की एक अत्यंत रूपवती कन्या के साथ कर दिया। इस कन्या का नाम उत्तर कालीन बौद्ध ग्रंथों में यशोधरा, बिम्बा, गोपा, भद्कच्छना आदि दिया गया है।

कालांतर में उनका यशोधरा नाम ही सर्वप्रचलित हुआ। यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम ‘राहुल’पड़ा। तीनों ऋतुओं में आराम के लिए अलग-अलग आवास बनवाये गए तथा इस बात की पूरी व्यवस्था की गई कि वे सांसारिक दु:खों के दर्शन न कर सकें।

बुद्ध द्वारा गृह त्याग

 परंतु सिद्धार्थ सांसारिक विषय भोगों में वास्तविक संतोष नहीं पा सके। भ्रमण के लिए जाते हुए उन्होंने प्रथम बार वृद्ध, द्वितीय बार व्याधिग्रस्त मनुष्य, तृतीय बार एक मृतक तथा अंततः एक प्रसन्नचित संन्यासीको देखा। उनका हृदय मानवता को दु:ख में फंसा हुआ देखकर अत्यधिक खिन्न हो उठा।

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ऋग्वैदिक कालीन, आर्यों, का खान-पान,भोजन

भारत में आर्यों का आगमन एक युगांतकारी घटना थी, जिसमें एक शहरी सभ्यता के स्थान पर ग्रामीण सभ्यता स्थापित हुई। आर्यों ने भारत में अपने खान-पान भाषा और अन्य रिवाजों को प्रचलित किया। हम इस लेख में आर्यों द्वारा खाये जाने वाले खाद्य पदार्थो का अध्ययन करेंगे। ऐसे कई सवाल जो आज भी विवादों में … Read more

मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था: केंद्रीय, प्रांतीय, मंडल और ग्राम प्रशासन, प्रमुख अधिकारी

मौर्यकाल (चाणक्यकाल) भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण काल है, जब मगध साम्राज्य अधिकार था और चंद्रगुप्त मौर्य एवं उसके बाद के शासकों द्वारा प्रशासन किया जाता था। मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था भारतीय इतिहास में एक प्रमुख विषय है। चाणक्य (कौटिल्य) जैसे महान राजनीतिज्ञ द्वारा तैयार की गई अर्थशास्त्रिक ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तृत वर्णन है।

मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था: केंद्रीय, प्रांतीय, मंडल और ग्राम प्रशासन, प्रमुख अधिकारी

मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य सामाजिक न्याय, राष्ट्रिय सुरक्षा, और समर्थन के प्रदान के साथ समृद्धि की दिशा में था। मौर्यकालीन संगठन में राजा या सम्राट सर्वाधिक प्रबल और सर्वोपरि पदधारी व्यक्ति था, जो सम्राट या राजा के नाम पर शासन करता था। मौर्य साम्राज्य के प्रशासन का आधार चाणक्य के अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्र पर था।

मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था

      संपूर्ण प्राचीन विश्व में मौर्य साम्राज्य विशालतम साम्राज्य था और इसने पहली बार एक नए प्रकार की शासन व्यवस्था अर्थात केंद्रीयभूत शासन व्यवस्था की स्थापना की। अशोक के शासनकाल में यह केंद्रीय शासन व्यवस्था पितृवत निरंकुश तंत्र में परिवर्तित हो गई। अशोक ने अपने इस पितृवत दृष्टिकोण को इस कथन के द्वारा व्यक्त किया है कि “समस्त मनुष्य मेरी संतान हैं” यह कथन प्रजा के प्रति अशोक के दृष्टिकोण को व्यक्त करने वाला आदर्श वाक्य बन गया था।

 राजा का स्थान- 

मौर्य राजा अपनी दैवी उत्पत्ति का दावा नहीं करते थे फिर भी उन्हें देवताओं का प्रतिनिधि माना जाता था। राजाओं का उल्लेख ‘देवनाम्प्रिय’ (देवताओं के प्रिय) रूप में मिलता है। राजा सभी प्रकार की सत्ता का स्रोत एवं उसका केंद्रबिंदु, प्रशासन, विधि एवं न्याय का प्रमुख तथा सर्वोच्च न्यायाधीश था। वह अपने मंत्रियों का चुनाव स्वयं करता था उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करता था और उनकी गतिविधियों पर नियंत्रण रखता था।

उस युग में पर्यवेक्षक और निरीक्षण की एक सुनियोजित प्रणाली थी। राजा का जीवन बड़ा श्रमसाध्य होता था तथा वह अपनी प्रजा के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए सदैव तत्पर रहता था। कौटिल्य के अनुसार एक आदर्शवादी शासक वह है जो अपने प्रदेश का निवासी हो (अर्थात देशीय हो) जो शास्त्रों की शिक्षाओं का अनुगमन करता हो, जो निरोग, वीर, दृढ़, विश्वासपात्र, सच्चा और अभिजात कुल का हो।

 केंद्रीय शासन व्यवस्था

अर्थशास्त्र में केंद्रीय प्रशासन का अत्यंत विस्तृत विवरण मिलता है। शासन की सुविधा के लिए केंद्रीय प्रशासन अनेक विभागों में बंटा हुआ था। प्रत्येक विभाग को ‘तीर्थ ‘ कहा जाता था। अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों के प्रधान पदाधिकारियों का उल्लेख है।

मंत्री और पुरोहित प्रधानमन्त्री तथा प्रमुख धर्माधिकारी।
समाहर्ता राजस्व विभाग का प्रमुख।
सन्निधाता राजकीय कोषाधिकरण का प्रमुख।
सेनापति युद्ध विभाग का मंत्री।
युवराज राजा का उत्तराधिकारी।
प्रदेष्टा फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश।
नायक सेना का संचालक।
कर्मान्तिक उद्योग-धन्धों का प्रधान निरीक्षक।
व्यवहारिक दीवानी न्यायालय का न्यायाधीश।
मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष मन्त्रीपरिषद का अध्यक्ष।
दण्डपाल सेना के लिए रसद पूर्ति का अधिकारी।
अन्तपाल सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक।
दुर्गपाल आन्तरिक दुर्गों का प्रबन्धक।
नागरक नगर का प्रमुख अधिकारी।
प्रशास्ता राजकीय दस्ताबेजों और राजाज्ञाओं को लिखने वाला।
दौवारिक राजमहल की देख-रेख वाला अधिकारी।
अन्तर्वशिक
सम्राट की अंगरक्षक सेना का प्रमुख तथा
आटविक वन विभाग का प्रमुख अधिकारी।

           

मौर्य शासन व्यवस्था नौकरशाही पर आधारित पूर्णतः एक नौकरशाही प्रशासन-तंत्र था, जिसका विभिन्न पदासीन अधिकारियों के माध्यम से संचालन किया जाता था। कौटिल्य ने कहा है– “जैसे एक पहिए से कोई वाहन नहीं चल सकता, ठीक वैसे ही एक व्यक्ति से प्रशासन कार्य नहीं चल सकता।”

साम्राज्य की शासन व्यवस्था के लिए निर्धारित सामान्य प्रशासन तंत्र की रचना निम्नलिखित तत्वों से मिलकर हुई थी—–

(1) राजा।

(2)  राज्य प्रमुख और राज्यपाल जो राजा के प्रतिनिधियों के रूप में प्रांतों में कार्य करते थे।

(3) मंत्री।

(4)  विभाग प्रमुख।

(5)  अधीनस्थ नागरिक (सिविल)सेवा और

(6)  ग्रामीण प्रशासन के प्रभारी अधिकारी।

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वैदिक काल में स्त्री की दशा,अपाला, घोषा, लोपामुद्रा

हड़प्पा सभ्यता एक ऐसी सभ्यता थी जिसमें नारी को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया था। उसके बाद भारत में वैदिक सभ्यता का उदय हुआ और यह सभ्यता एक पुरुष प्रधान सभ्यता थी। वैदिक काल में स्त्री की दशा,अपाला, घोषा, लोपामुद्रा , जहां देवी-देवताओं से सिर्फ पुत्र प्राप्ति की इच्छा की जाती थी। लेकिन इतना होने पर भी वैदिक काल नारी की दशा उतनी दयनीय नहीं थी जितनी आगे जाकर हो गयी। इस लेख में हम वैदिक काल की प्रमुख विदुषी महिलाओं के बारे में जानेंगे जिन्होंने वेदों की ऋचाओं की भी रचना की।
 वैदिक काल में स्त्री की दशा,अपाला, घोषा, लोपामुद्रा 

वैदिक काल में स्त्री की दशा

प्राचीन काल, मध्यकाल और वर्तमान काल तक महिलाओं की दशा के विषय में निरंतर चिंतन और मनन होता रहा है। परंतु इस विषय में अधिकांश विद्वान और ऋषि-मुनि रूढ़िवादी और पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित रहे। वर्तमान समय में जिस प्रकार महिलाओं के प्रति अत्याचार और  अपराध को देख कर मन में यही प्रश्न उठता है कि क्या भारत में सदा ही महिलाओं की स्थिति इतनी ही दयनीय और पीड़ादायक थी?

यद्यपि संविधान में महिलाओं को बराबर का दर्जा दिया गया है परंतु फिर भी भारत ही क्या समस्त विश्व में महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे की ही सोच दिखाई पड़ती है। यद्यपि परिस्थितियों में सुधार के भी अंश दिखाई देते हैं परंतु उनकी गति अत्यंत मंद है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या महिलाओं की स्थिति प्राचीन काल से ही ऐसी थी या मध्यकाल में अत्यंत दयनीय हुई या आधुनिक काल में ज्यादा दयनीय है?    

ऋग्वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति

 ऋग्वेद से यह ज्ञात नहीं होता कि सप्त सिंधु की आर्य- स्त्रियों की दशा उतनी हीन थी, जितनी कि आगे चलकर हो गई। यह ठीक है अब वह सामंतवादी व्यवस्था के अधीन नहीं थीं, जिसमें जन (पितृसत्ता के ) अवस्था के अधिकार सुलभ नहीं थे। शुद्ध जन- व्यवस्था में स्त्रियां हथियार लेकर लड़ सकती हैं। ईसा-पूर्व छठी शताब्दी में मध्य-एशिया के शकों में ऐसा ही देखा जाता था, जहां घुमंतू स्त्रियों ने कितनी ही बार हथियार उठाये। लेकिन, स्त्रियों का युद्ध में जाना आर्य बुरा समझते थे।

शम्बर के पहाड़ी लोग जन अवस्था में थे, उनके लिए स्वभाविक था, कि दिवोदास के साथ उनका जो जीवन-मरण का संघर्ष चल रहा था, उसमें पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी शामिल हों। पर आर्य ऋषियों ने “अबला क्या करेगी” कह कर इसका उपहास किया था ( बभ्रु की एक ऋचा -५।३०।९ में है—–“दास ने स्त्रियों को आयुध ( हथियार) बनाया।” इस पर इन्द्र ने कहा— “इसकी अबला सेना मेरा क्या करेगी?”) 

स्त्रियों के लिए अबला शब्द का प्रयोग शायद यहीं सर्वप्रथम हुआ , जिससे ध्वनित होता है, कि स्त्रियों में योद्धा होने की योग्यता नहीं है। इस प्रकार आर्य-स्त्रियों के संग्राम में खुलकर भाग लेने की संभावना सप्तसिन्धु में नहीं थी। वैसे अपवाद के तौर पर स्त्रियों ने कभी अपने हाथ दिखाये हों, तो दूसरी बात है।

युद्ध बाद सबसे महत्व था ऋचाओं ( पदों ) की रचनाओं, जिसके कारण उन्हें ऋषि, ऋषिका कहा जाता । ऋषिकाओं की संख्या ऋग्वेद में दो दर्जन से कम नहीं हैं । पर विश्लेषण करने पर उनमें से अधिकांश को मानुषी नहीं कल्पित ही देखा जाता है। केवल घोषा और विश्ववारा को ही ऐतिहासिक ऋषि माना जा सकता है।

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मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण | क्या अशोक मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार था

मौर्य साम्राज्य प्राचीन भारत में सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यों में से एक था, जिसकी स्थापना 322 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी और 268 ईसा पूर्व में सम्राट अशोक के शासनकाल में अपने चरम पर पहुंच गया था। हालाँकि, पूरे इतिहास में कई अन्य महान साम्राज्यों की तरह, >मौर्य साम्राज्य ने भी गिरावट का अनुभव किया जिसके कारण उसका पतन हुआ। मौर्य साम्राज्य के पतन में योगदान देने वाले कई प्रमुख कारक थे:

मौर्य सामराज्य के पतन के कारण”

लगभग तीन शताब्दियों के उत्थान के त्पश्चात शक्तिशाली मौर्य-सम्राज्य अशोक की मृत्यु के पश्चात विघटित होने लगा और विघटन की यह गति संगठन की अपेक्षा अधिक तेज थी। अंततोगत्वा 184 ईसा पूर्व के लगभग अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की उसके अपने ही सेनापति पुष्यमित्र द्वारा हत्या के साथ इस विशाल साम्राज्य का पतन हो गया।

सामान्य तौर पर अनेक विद्वान अशोक की अहिंसक नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण मानते हैं। परंतु मौर्य साम्राज्य का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था, अपितु विभिन्न कारणों ने इस दिशा में योगदान दिया। सामान्य तौर से हम इस साम्राज्य के विघटन तथा पतन के लिए निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी ठहरा सकते हैं—

मौर्य साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण

सम्राट अशोक की  के पश्चात अयोग्य तथा निर्वल उत्तराधिकारी

मौर्य साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यह था कि अशोक की मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकारी नितांत अयोग्य तथा निर्बल हुये। उनमें शासन के संगठन एवं संचालन की योग्यता का अभाव था। विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उन्होंने साम्राज्य का विभाजन भी कर लिया था। राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर में जालौक नें स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया।

तारानाथ के विवरण से पता चलता है कि वीरसेन ने गंधार प्रदेश में स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली। कालिदास के मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ भी एक स्वतंत्र राज्य हो गया था। परवर्ती मौर्य शासकों में कोई भी इतना सक्षम नहीं था कि वह अपने समस्त राज्यों को एकछत्र शासन-व्यवस्था के अंतर्गत संगठित करता। विभाजन की इस स्थिति में यवनों का सामना संगठित रूप से नहीं हो सका और साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी था।

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भारत में आर्यों का आगमन: ऋग्वेद में वर्णित विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर विवरण

भारत में आर्यों का आगमन एक जटिल विषय है जिस पर अभी भी विद्वानों और इतिहासकारों के बीच बहस होती है। आर्य प्रवासन सिद्धांत, जिसे आर्यन आक्रमण सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है, 19वीं शताब्दी में पश्चिमी विद्वानों द्वारा प्रस्तावित किया गया था और सुझाव दिया गया था कि आर्यों नामक इंडो-यूरोपीय लोगों … Read more

प्रागैतिहासिक काल: पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल, नवपाषाण काल, प्रमुख स्थल और औजार तथा हथियार

भारतीय प्रागैतिहासिक काल लिखित अभिलेखों के आगमन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में प्रारंभिक मानव के समय को संदर्भित करता है। यह लिखित दस्तावेजों या शिलालेखों की अनुपस्थिति की विशेषता है, जिससे इस अवधि की हमारी समझ काफी हद तक पुरातात्विक साक्ष्यों, जीवाश्मिकी निष्कर्षों और मानवशास्त्रीय अध्ययनों पर निर्भर करती है। भारतीय प्रागैतिहासिक काल ने बाद के ऐतिहासिक काल की नींव रखी, जिसमें प्रारंभिक मानव समाजों का उदय, कृषि और बसे हुए समुदायों का विकास, और प्रारंभिक सभ्यताओं का उदय, भारतीय उपमहाद्वीप के समृद्ध और विविध इतिहास के लिए मंच तैयार किया।

प्रागैतिहासिक काल: पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल, नवपाषाण काल, प्रमुख स्थल और औजार तथा हथियार

 

प्रागैतिहासिक काल

प्रागैतिहासिक काल अर्थ है

भारतीय प्रागैतिहासिक काल को तीन व्यापक चरणों में विभाजित किया गया है:

इतिहास का विभाजन प्रागितिहास ( Pre-History ), आद्य इतिहास ( Proto-History ), तथा इतिहास ( History ) तीन भागों में किया गया है—

प्रागितिहास- प्रागितिहास काल से तात्पर्य उस काल से है जिसमें किसी भी प्रकार की लिखित सामग्री का अभाव है। जैसे पाषाण काल जिसमें लिखित सक्ष्य नहीं मिलते।

आद्य इतिहास– वह काल जिसमें लिपि के साक्ष्य तो हैं परन्तु वह अभी तक पढ़े नहीं जा सके। जैसे हड़प्पा सभ्यता की लिपि आज तक अपठ्नीय है।

इतिहास–  जिस काल से लिखित साक्ष्य मिलने प्रारंभ होते हैं उस काल को ऐतिहासिक (इतिहास ) काल कहते हैं

इस दृष्टि से पाषाण कालीन सभ्यता प्रागितिहास तथा सिंधु एवं वैदिक सभ्यता आद्य-इतिहास के अंतर्गत आती है। ईसा पूर्व छठी शती से ऐतिहासिक काल प्रारंभ होता है। किंतु कुछ विद्वान ऐतिहासिक काल के पूर्व के समस्त काल को प्रागितिहास की संज्ञा देते हैं।

 पाषाण काल का विभाजन 

भारत में पाषाणकालीन सभ्यता का अनुसंधान सर्वप्रथम 1807 ईस्वी में प्रारंभ हुआ जबकि भारतीय भूतत्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान ‘रॉबर्ट ब्रूस फुट’ ने मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पूर्व पाषाण काल का एक पाषाणोपकरण प्राप्त किया।

तत्पश्चात विलियम किंग, ब्राउन, काकबर्न, सी०एल० कार्लाइल आदि विद्वानों ने अपनी खोजों के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्र से कई पूर्व पाषाणकाल के उपकरण प्राप्त किये। सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान 1935 ईस्वी में डी० टेरा तथा पीटरसन द्वारा किया गया इन दोनों विद्वानों के निर्देशन में येल कैंब्रिज अभियान दल ने शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसे हुए पोतवार के पठारी भाग का व्यापक सर्वेक्षण किया था।

इन अनुसंधानों से भारत की पूर्व पाषाणकालीन सभ्यता के विषय में हमारी जानकारी बढ़ी। विद्वानों का विचार है कि इस सभ्यता का उदय और विकास प्रतिनूतनकाल ( प्लाइस्टोसीन एज ) में हुआ। इस काल की अवधि आज से लगभग 500000 वर्ष पूर्व मानी जाती है।

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प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में स्त्रियों की दशा | ब्राह्मण ग्रंथों में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, शिक्षा, और धन संबंधी अधिकार

विश्व के किसी भी देश अथवा उसकी सभ्यता और उसकी प्रगति को समझने के लिए उसकी उपलब्धियों एवं श्रेष्ठता का मूल्यांकन करने का सर्वोत्तम आधार उस देश में स्त्रियों की दशा का अध्ययन करना है। स्त्रीयों की दशा किसी देश की संस्कृति का मानदंड को प्रदर्शित करती है। समुदाय का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक आधार रखता है। प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में, हिंदू समाज में इसका अध्ययन निश्चयतः ही उसकी गरिमा को इंगित करता है।

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में स्त्रियों की दशा | ब्राह्मण ग्रंथों में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, शिक्षा, और धन संबंधी अधिकार

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल

वैदिक काल में स्त्रियों की दशा
हिंदू सभ्यता में स्त्रियों को अत्यंत आदरपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। भारत की प्राचीनतम सभ्यता सैन्धव सभ्यता के धर्म में माता देवी को सर्वोच्च पद प्रदान किया जाना उसके समाज में उन्नत स्त्री दशा का सूचक माना जा सकता है। ऋग्वैदिक काल में समाज ने उसे आदरणीय स्थान दिया। उसके धार्मिक तथा सामाजिक अधिकार पुरुषों के ही समान थे।
विवाह एक धार्मिक संस्कार माना जाता था दंपत्ति घर के संयुक्त अधिकारी होते थे। यद्यपि कहीं-कहीं कन्या के नाम पर चिंता व्यक्त की गई है तथापि कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जहां पिता विदुषी एवं योग्य कन्याओं की प्राप्ति के लिए विशेष धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं। कन्या को पुत्र जैसा ही शैक्षणिक अधिकार एवं सुविधाएं प्रदान की गई थीं।
कन्याओं का भी उपनयन संस्कार होता था तथा वे भी ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करती थी। ऋग्वेद में अनेक ऐसी स्त्रियों का वर्णन है जो विदुषी तथा दार्शनिक थी और जिन्होंने कई मंत्रों एवं ऋचाओं की रचना भी की थी। विश्वारा को ‘ब्रह्मवादिनी’ तथा ‘मंत्रदृष्ट्रि’ कहा गया है, जिसने ऋग्वेद के एक स्तोत्र की रचना की थी।
घोषा, लोपामुद्रा, शाश्वती, अपाला, इंद्राणी, सिकता, निवावरी आदि विदुषी स्त्रियों के कई नाम मिलते हैं जो वैदिक मंत्रों तथा स्तोत्रों की रचयिता हैं। ऋग्वेद में बृहस्पति तथा उनकी पत्नी ‘जुहु’ की कन्या की कथा मिलती है। बृहस्पति अपनी पत्नी को छोड़कर तपस्या करने गए किंतु देवताओं ने उन्हें बताया कि पत्नी के बिना अकेले तप करना अनुचित है। इस प्रकार के उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि स्त्री पुरुष की ही भांति तपस्या करने की भी अधिकारिणी थी।

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हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार कौन-कौन से है? | Hindu Dharma Ke Solah Sanskar

हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार संस्कार क्या है? संस्कार शब्द सम् उपसर्ग ‘कृ’ धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है परिष्कार, शुद्धता अथवा पवित्रता। हिंदू सनातन परंपरा में संस्कारों का विधान व्यक्ति के शरीर को परिष्कृत अथवा पवित्र बनाने के उद्देश्य से किया गया ताकि वह व्यक्तिक एवं सामाजिक विकास … Read more