भारतीय प्रागैतिहासिक काल लिखित अभिलेखों के आगमन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में प्रारंभिक मानव के समय को संदर्भित करता है। यह लिखित दस्तावेजों या शिलालेखों की अनुपस्थिति की विशेषता है, जिससे इस अवधि की हमारी समझ काफी हद तक पुरातात्विक साक्ष्यों, जीवाश्मिकी निष्कर्षों और मानवशास्त्रीय अध्ययनों पर निर्भर करती है। भारतीय प्रागैतिहासिक काल ने बाद के ऐतिहासिक काल की नींव रखी, जिसमें प्रारंभिक मानव समाजों का उदय, कृषि और बसे हुए समुदायों का विकास, और प्रारंभिक सभ्यताओं का उदय, भारतीय उपमहाद्वीप के समृद्ध और विविध इतिहास के लिए मंच तैयार किया।
प्रागैतिहासिक काल
प्रागैतिहासिक काल अर्थ है
भारतीय प्रागैतिहासिक काल को तीन व्यापक चरणों में विभाजित किया गया है:
इतिहास का विभाजन प्रागितिहास ( Pre-History ), आद्य इतिहास ( Proto-History ), तथा इतिहास ( History ) तीन भागों में किया गया है—
प्रागितिहास-– प्रागितिहास काल से तात्पर्य उस काल से है जिसमें किसी भी प्रकार की लिखित सामग्री का अभाव है। जैसे पाषाण काल जिसमें लिखित सक्ष्य नहीं मिलते।
आद्य इतिहास– वह काल जिसमें लिपि के साक्ष्य तो हैं परन्तु वह अभी तक पढ़े नहीं जा सके। जैसे हड़प्पा सभ्यता की लिपि आज तक अपठ्नीय है।
इतिहास– जिस काल से लिखित साक्ष्य मिलने प्रारंभ होते हैं उस काल को ऐतिहासिक (इतिहास ) काल कहते हैं
इस दृष्टि से पाषाण कालीन सभ्यता प्रागितिहास तथा सिंधु एवं वैदिक सभ्यता आद्य-इतिहास के अंतर्गत आती है। ईसा पूर्व छठी शती से ऐतिहासिक काल प्रारंभ होता है। किंतु कुछ विद्वान ऐतिहासिक काल के पूर्व के समस्त काल को प्रागितिहास की संज्ञा देते हैं।
पाषाण काल का विभाजन
भारत में पाषाणकालीन सभ्यता का अनुसंधान सर्वप्रथम 1807 ईस्वी में प्रारंभ हुआ जबकि भारतीय भूतत्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान ‘रॉबर्ट ब्रूस फुट’ ने मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पूर्व पाषाण काल का एक पाषाणोपकरण प्राप्त किया।
तत्पश्चात विलियम किंग, ब्राउन, काकबर्न, सी०एल० कार्लाइल आदि विद्वानों ने अपनी खोजों के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्र से कई पूर्व पाषाणकाल के उपकरण प्राप्त किये। सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान 1935 ईस्वी में डी० टेरा तथा पीटरसन द्वारा किया गया इन दोनों विद्वानों के निर्देशन में येल कैंब्रिज अभियान दल ने शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसे हुए पोतवार के पठारी भाग का व्यापक सर्वेक्षण किया था।
इन अनुसंधानों से भारत की पूर्व पाषाणकालीन सभ्यता के विषय में हमारी जानकारी बढ़ी। विद्वानों का विचार है कि इस सभ्यता का उदय और विकास प्रतिनूतनकाल ( प्लाइस्टोसीन एज ) में हुआ। इस काल की अवधि आज से लगभग 500000 वर्ष पूर्व मानी जाती है।
पाषाण काल को मुख्य रूप से हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं—-
- पूर्व पाषाणकाल
- मध्य पाषाणकाल तथा
- नव पाषाणकाल अथवा उत्तर पाषाणकाल
पूर्व पाषाणकाल (2.6 मिलियन वर्ष पूर्व से 12,000 वर्ष पूर्व):
को उपकरणों में भिन्नता के आधार पर तीन कालों में विभाजित किया गया है-
- निम्न पूर्व पाषाणकाल।
- मध्य पूर्व पाषाणकाल।
- उच्च पूर्व पाषाणकाल।
निम्न पूर्व पाषाण काल
निम्न पूर्व पाषाण काल से संबंधित उपकरण भारत के विभिन्न भागों से प्राप्त हुए हैं इन्हें मुख्य तौर पर दो भागों में विभाजित किया जाता है
1– चापर-–चापिंग पेबुल संस्कृति– इसके उपकरण सर्वप्रथम पंजाब की सोहन नदी घाटी पाकिस्तान से प्राप्त हुए इसी कारण इसे सोहन संस्कृति भी कहा गया है।
पेबुल– पत्थर के वे टुकडे जिनके किनारे पानी के बहाव में रगड़ खाकर चिकने और सपाट हो जाते हैं पेबुल कहे जाते हैं। इनका आकार प्रकार गोल मटोल होता है।
चापर— चॉपर बड़े आकार वाला वह उपकरण है जो पेबुल से बनाया जाता है इसके ऊपर एक ही ओर फलक निकालकर धार बनाई गई है।
चापिंग— चापिंग उपकरण द्विधारा ( Bifacial ) होते हैं अर्थात पेबुल के ऊपर दोनों किनारों को छीलकर उनमें धार बनाई गई है।
2– हैण्डऐक्स संस्कृति— इसके उपकरण सर्वप्रथम मदास के निकट बदमदुरै तथा अत्तिरपक्कम से प्राप्त किये गये। ये साधारण पत्थरों से कोर तथा फ्लैक प्रणाली द्वारा निर्मित किये गये हैं। इस संस्कृति के अन्य उपकरण क्लीवर, स्क्रेपर आदि हैं।
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सोहन संस्कृति
सोहन ( वर्तमान पाकिस्तान ) सिंधु नदी की एक छोटी सहायक नदी है। प्रागैतिहासिक अध्ययन के लिए इस नदी घाटी का विशेष महत्व है। 1928 ईस्वी में डी०एन० वाडिया ने इस क्षेत्र से पूर्व पाषाण काल का उपकरण प्राप्त किया। 1930 ईस्वी में के० आर० यू० टॉड ने सोहन घाटी में स्थित पिंडी घेब नामक स्थल से कई उपकरण प्राप्त किये।
सोहन घाटी में सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान 1935 ईस्वी में डी० टेरा के नेतृत्व में येल कैम्ब्रीज अभियान दल ने किया। इस दल ने कश्मीर घाटी से लेकर साल्ट रेंज तक के विस्तृत क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। उन्होंने हिम तथा अंतर्हिम (Glacial and Interglacial ) कालों के क्रम के आधार पर पाषाणकालीन सभ्यता का विश्लेषण किया।
सोहन नदी घाटी की पांच बेदीकाओं ( Terraces ) से भिन्न- भिन्न प्रकार के पाषाणोंपकरण प्राप्त किए गए हैं। इन्हें सोहन उद्योग ( सोहन इंडस्ट्री ) के अंतर्गत रखा जाता है। द्वितीय हिमयुग में भारी वर्षा के कारण पुष्वल–शिवालिक क्षेत्र में बोल्डर कंग्लोमरेट ( Boulder Conglomerate ) का निर्माण हुआ। बोल्डर, वे पाषाण खण्ड हैं जिन्हें नदी की धाराओं द्वारा पर्वतों या शिलांओ से तोड़कर बहा लिया जाता है। ऐसे पाषाण खण्डों द्वारा निर्मित सतह को ही ‘बोल्डर कांग्लोमरेट’ की संज्ञा दी जाती है।
डी० टेरा तथा पीटरसन ने बोल्डर कांग्लोमरेट के स्थलों से ही बड़े-बड़े पेबुल तथा फलक उपकरण प्राप्त किये। इन सभी का निर्माण क्वार्टजाइट नामक पत्थर द्वारा किया गया है। फलक अत्यंत घिसे हुए हैं। इनका आकार प्राय: कोन (Cone) जैसा है। यह उपकरण सोहन घाटी में मिलने वाले उपकरणों से भिन्न हैं। इसी कारण विद्वानों ने इन्हें प्राक्-सोहन ( Pre-Sohan) नाम दिया है। ये उपकरण सोहन घाटी में मलकपुर, चौन्तरा, कलार, चौमुख आदि स्थानों से मिले हैं।
सोहन घाटी के उपकरणों को आरंभिक सोहन, उत्तरकालीन सोहन, चौन्तरा तथा विकसित सोहन नाम दिया गया है। जलवायु शुष्ट होने के कारण सोहन घाटी में अनेक कगार या वेदिकायें ( जलवायु शुष्क होने पर जब नदियों का पानी घट जाता है या दिशा बदल देता है तब उनके किनारों पर ढालू जमीन निकल जाती है। इसी को Terrace, कगार या वेदिका कहा जाता है। ) बन गयीं।
द्वितीय अन्तर्हिम काल में पहली वेदिका का निर्माण हुआ। इससे मिले हुए पाषाणोंपकरणों को ‘आरंभिक सोहन’ कहा गया है। यह निम्न पुरापाषाणकाल से संबंधित है तथा इनमें चापर और हैंडऐक्स दोनों ही परंपराओं के उपकरण सम्मिलित हैं। चापर उपकरण पेबुल तथा फ्लेक पर बने हैं। इनके लिए चिपटे तथा गोल दोनों ही आकार के पेबुल प्रयोग में लाये गये हैं। इन आरंभिक उपकरणों को अ, ब तथा स तीन कोटियों में विभाजित किया गया है—–
- अ– ‘अ’ कोटि के उपकरण अत्यधिक टूटे-फूटे तथा घिसे हुए हैं इनके ऊपर काई तथा मिट्टी जमी हुई है।
- ब– ‘ब’ कोटी के उपकरणों के ऊपर भी काई तथा मिट्टी जमी हुई है तथापि ये कम घिसे हुए हैं तथा टूटे-फूटे नहीं हैं। इनमें कुछ फलक उपकरण हैं।
- स– ‘स’ कोटी के उपकरण अपेक्षाकृत नये उपकरण हैं जिनके ऊपर काई तथा मिट्टी बहुत कम लगी है। इनके फलक अधिक संख्या में हैं। कुछ फलक उपकरण बड़े तथा कुछ छोटे हैं।
पेबुल तथा फलक उपकरणों के साथ ही साथ सोहन घाटी की प्रथम वेदिका से ही कुछ हैंडऐक्स परंपरा के उपकरण भी मिले हैं। यह दक्षिण की मद्रास परंपरा के समकालीन हैं। विद्वानों ने इनकी तुलना यूरोप के पाषाणकालीन उपकरणों से की है जिनका निर्माण अल्बेवीलियन-अश्यूलियन प्रणाली के अंतर्गत किया गया था।
सोहन की पहली वेदिका से कोई जीवाश्म (Fossil) नहीं प्राप्त हुआ है।
सोहन घाटी की दूसरी वेदिका-सोहन घाटी की दूसरी वेदिका का निर्माण तीसरे हिमकाल में हुआ इस वेदिका के उपकरणों को उत्तरकालीन सोहन कहा गया है। इन्हें ‘अ’ तथा ‘ब’ दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है।
अ श्रेणी– ‘अ’ श्रेणी के पेबुल उपकरण आरंभिक सोहन पेबुल उपकरणों की अपेक्षा अधिक सुंदर तथा विकसित हैं। इनमें फलकों की संख्या ही अधिक है। उपकरणों में पुनर्गठन बहुत कम मिलता है फलकीकरण ( Falking ) लेवलायजियन प्रकार की है।
ब श्रेणी– ‘ब’ श्रेणी के उपकरण नए तथा अच्छी अवस्था में हैं। इनमें फलक तथा ब्लेड अधिक संख्या में मिलते हैं। कुछ अत्यंत पतले फलक भी मिलते हैं। इस स्तर से कोई हैंडऐक्स नहीं प्राप्त होता है।
समय की दृष्टि से उत्तर कालीन सोहन उपकरण मध्य पूर्व पाषाण कालीन है।
सोहन घाटी की तृतीय वेदिका — सोहन घाटी की तीसरी वेदिका का निर्माण तृतीय अन्तर्हिम काल में हुआ। इससे कोई भी उपकरण नहीं मिलता है। उत्तरकालीन सोहन के अंतर्गत चौन्तरा से प्राप्त उपकरणों का विशेष महत्व है। इन उपकरणों में प्राक्सोहन के कुछ फलक, सोहन परंपरा के पेबुल तथा फलक और मद्रास परंपरा के हैंडऐक्स आदि सभी मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि चौन्तरा उत्तर तथा दक्षिण की परंपराओं का मिलन–स्थल था।
डी० टेरा का मानना है कि आदिमानव पंजाब में दक्षिण से ही आया तथा उसी के साथ हैंडऐक्स परंपरा भी यहां पहुंची थी। चौन्तरा उद्योग का समय तीसरा अन्तर्हिम काल माना गया है।
सोहन की चौथी वेदिका का निर्माण
सोहन की चौथी वेदिका का निर्माण चौथे हिमकाल में हुआ। इससे मिले हुए उपकरणों को ‘विकसित सोहन’ की संज्ञा दी गयी है। 1932 ई० में टाड ने पिन्डी घेब के समीप ढोक पठार से इन उपकरणो की खोज की थी। इनमें ब्लेड पर निर्मित उपकरण ही अधिक हैं। आकार-प्रकार में ये पूर्ववर्ती उपकरणों से छोटे हैं।
सोहन की पाँचवीं तथा अन्तिम वेदिका से मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े प्राप्त होते हैं।
भारत में निम्न पुरापाषण काल के प्रमुख स्थल
सोहन संस्कृति के उपकरण भारत के कुछ अन्य भागों से भी प्राप्त होते हैं— सिरसा, व्यास, वानगंगा, नर्मदा आदि नदी घाटियों की वेदिकाओं से ये उपकरण प्रकाश में आये हैं। आरम्भिक सोहन प्रकार के पेबुल उपकरण चित्तौड़ ( राजस्थान), सिंगरौली तथा बेलन घाटी ( क्रमशः उ०प्र० के मिर्जापुर एवं इलाहाबाद (प्रयागराज) जिलों में स्थित ), मयूरमंज (उड़ीसा ), साबरमती तथा माही नदी घाटियों ( गुजरात ) एवं गिद्दलूर तथा नेल्लोर (आन्ध्र प्रदेश ) से प्राप्त किये गये हैं।
⚫ डी० टेरा तथा पीटरसन के नेतृत्व में एल कैंम्ब्रीज अभियान दल ने कश्मीर घाटी में भी अनुसंधान किया। उन्होंने यहां पर प्रातिनूतन काल के जमावों का अध्ययन किया, किंतु इस क्षेत्र में उन्हें मानव-आवास का कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका।
⚫ 1969 ईस्वी में एच० डी० संकालिया ने श्रीनगर से कुछ दूरी पर स्थित लिद्दर नदी के तट पर बसे हुए पहलगाम से एक बड़ा फलक उपकरण तथा बिना गढ़ा हुआ हैंडऐक्स प्राप्त किया।
⚫ 1970 ईस्वी में संकालिया तथा आर० बी० जोशी ने कश्मीर घाटी में पुनः अनुसंधान के फल स्वरुप नौ पाषाणोंपकरणों की खोज किया। इनमें स्क्रैपर, बेधक (Borer ), आयताकार कोर, तथा हैंडएक्स वाला चापर आदि हैं।
इसी प्रकार पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश में स्थित शिवालिक क्षेत्र से भी पूर्व पाषाणकाल के कई स्थलों का पता चला है।
⚫ 1951 ईस्वी में ओलफ रुफर नामक विद्वान ने सतलज की सहायक नदी सिरसा की घाटी में खोज करके निम्न पूर्व पाषाणकाल का उपकरण प्राप्त किया था । तत्पश्चात डी० सेन को इसी नदी घाटी की वेदिकाओं से क्वार्टजाइट पत्थर के बने पेबुल तथा फलक उपकरण प्राप्त हुए।
⚫ 1955 ईस्वी में बी० बी० लाल ने हिमाचल के कांगड़ा जिले में स्थित व्यास-बानगंगा की घाटी में अनुसंधान किया। उन्हें यहां के विभिन्न पुरास्थलों से चापर-चापिंग, पेबुल, हैंडएक्स आदि पूर्व-पाषाणकालिक उपकरण प्राप्त हुए।
उत्तर प्रदेश के प्रमुख पूर्व पुरापाषाणकालीन स्थल-
बेलन घाटी– बेलन, टोंस की एक सहायक नदी है जो मिर्जापुर के मध्यवर्ती पठारी क्षेत्र में बहती है। इस नदी घाटी के विभिन्न पुरास्थलों से पाषाणकाल के सभी युगों से संबंधित उपकरण तथा पशुओं के जीवाश्म मिले हैं।
⚫ निम्न पुरापाषाण काल से संबंधित यहां 44 पुरास्थल मिले हैं।
⚫ बेलन घाटी के प्रथम जमाव से निम्न पूर्व पाषाणकाल के उपकरण प्राप्त हुए हैं। इनमें सभी प्रकार के हैंडएक्स, क्लीवर, स्क्रैपर, पेबुल पर बने हुए चापर उपकरण आदि सम्मिलित हैं।
⚫ हैंडएक्स 9 सेंटीमीटर से लेकर 38.5 सेंटीमीटर तक के हैं। कुछ उपकरणों में मुठिया (Butt ) लगाने का स्थान भी मिलता है। यह उपकरण क्वार्टजाइट पत्थरों से निर्मित हैं।
⚫ बेलन घाटी से मध्य तथा उच्च पूर्व पाषाणकाल के उपकरण भी मिले हैं। मध्यकाल के उपकरण फ्लेक पर बने हैं। इनमें बेधक, स्क्रेपर, ब्लेड आदि हैं। इनका निर्माण महीन कण वाले बढ़िया क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है।
⚫ बेलन घाटी से उच्च पूर्व पाषाणकाल के उपकरण ब्लेड, बेधक, ब्यूरिन, स्क्रेपर आदि मिले हैं।
⚫ ब्लेड बेलनाकार कोर के बने हैं। कुछ 15 सेंटीमीटर तक लंबे हैं।
पूर्व पुरापाषाण काल की अस्थि निर्मित मातृदेवी की प्रतिमा कहाँ से मिली है?
👉 बेलन के लोंहदा नाला क्षेत्र से पूर्व पुरापाषाण काल की अस्थि निर्मित ‘मातृदेवी’ की एक प्रतिमा मिली है जो सम्प्रति कौशांबी संग्रहालय में सुरक्षित है।
👉 बेलन घाटी की उच्च पूर्वपाषाण कालीन संस्कृति का समय ईसा पूर्व 30000 से 10000 के बीच निर्धारित किया गया है।
गोदावरी, नर्मदा, बेलन आदि नदी घाटियों से विभिन्न पशुओं के जीवाश्मों के साक्ष्य भी मिले हैं। जो निम्न पूर्व पाषाणकाल के हैं इनके आधार पर विद्वानों ने इस काल का समय प्रातिनूतन काल से निर्धारित किया है।
दक्षिण भारत में प्रमुख पूर्व पुरा पाषाणकालीन स्थल
पुरापाषाण कालीन संस्कृति अथवा सोहन संस्कृति के उपकरण सर्वप्रथम मद्रास के समीपवर्ती क्षेत्र से प्राप्त हुये। इसी कारण इसे ‘मद्रासीय संस्कृति’ भी कहा जाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, सर्वप्रथम 1863 ईसवी में रॉबर्ट ब्रूसफुट ने मद्रास के पास पल्लवरम् नामक स्थान से पहला हैण्डऐक्स प्राप्त किया था। उनके मित्र किंग ने अतिरमपक्कम् से पूर्व पाषाणकाल के उपकरण खोज निकाले।
इसके बाद डी० टेरा तथा पीटरसन के नेतृत्व में एल कैंब्रिज अभियान दल ने इस क्षेत्र में अनुसंधान प्रारंभ किया। वी० डी० कृष्णस्वामी, आर० बी० जोशी तथा के० डी० बनर्जी जैसे विद्वानों ने भी इस क्षेत्र में अनुसंधान कार्य किये।
कोर्तलयार नदी घाटी— दक्षिण भारत की कोर्तलयार नदी घाटी पूर्व पाषाणिक सामग्रियों के लिए महत्वपूर्ण है। इसकी घाटी में स्थित वदमदुरै ( Vadamadurai) नामक स्थान से निम्न पूर्व पाषाण काल के बहुत से उपकरण मिले हैं, जिनका निर्माण क्वार्ट्जाइट पत्थर से किया गया है। वदमदुरै के पास कोर्तलयार नदी की तीन वेदिकायें मिली हैं। इन्हीं से उपकरण एकत्र किए गए हैं। इन्हें तीन भागों में बांटा गया है।
सबसे निचली वेदिका— सबसे निचली वेदिका को बोल्डर काग्लोमीरेट कहा जाता है। इस वेदिका से कई औजार-हाथियार मिलते हैं। इन्हें भी विद्वानों ने दो श्रेणियों में रखा है।
प्रथम श्रेणी –-प्रथम श्रेणी में भारी तथा लम्बे हैण्डऐक्स और कोर उपकरण हैं। इन पर सफेद रंग की काई जमी है। इन उपकरणों के निर्माण के लिए काफी मोटे फलक निकाले गये हैं। हैण्डऐक्सों की मुठियों के सिरे (Butt Ends) काफी मोटे हैं। उपकरणों के किनारे टेढ़े-मेढ़े हैं तथा उन पर गहरी फ्लेकिंग के चिन्ह दिखाई देते हैं। हैण्डऐक्स फ्रांस के अबेवीलियन परंपरा के हैण्डऐक्सों के समान हैं।
द्वितीय श्रेणी— द्वितीय श्रेणी में भी हैण्डऐक्स तथा कोर उपकरण ही आते हैं किंतु वे कलात्मक दृष्टि से अच्छे हैं। इन पर सुव्यवस्थित ढंग से फलकीकरण किया गया है। कहीं-कहीं सोपान पर फलकीकरण ( Step Flaking ) के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।
तृतीय श्रेणी– दूसरे वर्ग के उपकरण कलात्मक दृष्टि से विकसित तथा सुंदर है इसका कारण यह है कि बीच की वेदिका लाल रंग के पाषाणों (Laterite ) से निर्मित है, इस कारण इनके संपर्क से उपकरणों का रंग भी लाल हो गया है। इस कोटि के हैण्डऐक्स चौड़े तथा सुडौल है। इन पर सोपान पर फलकीकरण अधिक है तथा पुनर्गठन के भी प्रमाण मिलते हैं। इन्हें मध्य अश्यूलियन कोटि में रखा गया है।
तीसरे वर्ग के उपकरणों का रंग न तो लाल है और न उनके ऊपर काई लगी हुई है। तकनीकी दृष्टि से ये अत्यंत विकसित हैं। अत्यंत पतले फलक निकालकर इनको सावधानीपूर्वक गढ़ा गया है। हैण्डऐक्स अंडाकार तथा नुकीले दोनों प्रकार के हैं। वदमदुरै से कुछ क्लीवर तथा कोर उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।
कोर्तलयार
घाटी का दूसरा महत्वपूर्ण पूर्व पाषाणिक स्थल अत्तिरम्पक्कम् है। यहां से भी बड़ी संख्या में हैण्डऐक्स, क्लेवर तथा फलक उपकरण प्राप्त हुए हैं जो पूर्व पाषाण काल से संबंधित हैं। हैण्डऐक्स पतले, लंबे, चौड़े तथा फलक निकालकर तैयार किये गये हैं। यहां के हैण्डऐक्स अश्यूलियन प्रकार के हैं।
भारत के अन्य भागों से भी मद्रासी परंपरा के उपकरणों की खोज की गई है। नर्मदा घाटी, मध्य प्रदेश की सोन घाटी, महाराष्ट्र के गोदावरी तथा उसकी सहायक प्रवरा घाटी, कर्नाटक की कृष्णा–तुंगभद्रा घाटी, गुजरात की साबरमती तथा माही नदी घाटी, राजस्थान की चंबल घाटी, उत्तर प्रदेश की सिंगरौली बेसिन, बेलनघाटी आदि से ये उपकरण मिलते हैं। ये सभी पूर्व पाषाणकाल की प्रारंभिक अवस्था के हैं।
मध्य पूर्व पाषाणकाल-
भारत में मध्य पूर्व पाषाण काल के प्रमुख स्थल कौन-कौन से हैं?
भारत के विभिन्न भागों से जो फलक प्रधान पूर्व पाषाणकाल के उपकरण मिलते हैं उन्हें इस काल के मध्य में रखा जाता है। इनका निर्माण फलक या फलक तथा ब्लेड पर किया गया है। इनमें विभिन्न आकार-प्रकार के स्क्रेपर, ब्यूरिन, बेधक आदि हैं किसी-किसी स्थान से लघुकाय सुंदर हैण्डऐक्स तथा क्लीवर उपकरण भी मिलते हैं।
बहुसंख्यक कोर, फ्लेक तथा ब्लेड भी प्राप्त हुए हैं। फलकों की अधिकता के कारण मध्य पूर्व पाषाणकाल को फलक संस्कृति की संज्ञा दी जाती है इन उपकरणों का निर्माण अच्छे प्रकार के क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है। इसमें चर्ट, जैस्पर, फ्लिन्ट जैसे मूल्यवान पत्थरों को लगाया गया है।
मध्य पूर्वपाषाणकाल के उपकरण महाराष्ट्,र गुजरात, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, जम्मू-कश्मीर आदि सभी प्रांतों के विभिन्न पुरास्थलों से खोज निकाले गए हैं।
- महाराष्ट्र में नेवास ।
- बिहार में सिंहभूम तथा पलामू जिले।
- उत्तर प्रदेश में चकिया (वाराणसी ) , सिंगरौली बेसिन ( मिर्जापुर ), बेलन घाटी (इलाहाबाद )।
- मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका गुफाओं तथा सोन घाटी।
- राजस्थान में बागन, बेरॉच, कादमली भाटियों।
- गुजरात में सौराष्ट्र क्षेत्र।
हिमाचल में व्यास-बानगंगा तथा सिरसा घाटियों आदि। विविध पुरास्थलों से उपकरण उपलब्ध होते हैं इस प्रकार मध्य पूर्वपाषाण कालीन संस्कृति का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है।
उच्च पूर्व पाषाणकाल
भारत में उच्च पूर्व पाषाण काल से संबंधित प्रमुख स्थल कौन-कौन से हैं?
यूरोप तथा पश्चिमी एशिया के भागों में मध्य पूर्व पाषाणकाल के पश्चात उच्च पूर्व पाषाणकालीन संस्कृति का समय आया। इसका प्रधान पाषाण उपकरण ब्लेड (Blade) है।
भारत के जिन स्थानों से उच्च पूर्व पाषाण काल का उपकरण मिला है उनमें—–
- बेलन तथा सोन घाटी( उत्तर प्रदेश )।
- सिंहभूमि ( बिहार )।
- जोगदहा भीमबेटका, बबुरी, रामपुर, बाघोर ( मध्य प्रदेश )।
- पटणे, भदणे तथा इनामगांव ( महाराष्ट्र )।
- रोणिगुन्ता, बेमुला, कर्नूल गुफायें ( आंध्र प्रदेश )।
- शोरापुर दोआब ( कर्नाटक )।
- विसदी ( गुजरात ) ।
बूढ़ा पुष्कर ( राजस्थान ) का विशेष रूप से किया जा सकता है। इन स्थानों से प्राप्त इस काल के उपकरण मुख्य रूप से ब्लेड पऱ बने हैं। इसके साथ-साथ कुछ स्क्रेपर, बेधक, छिद्रक भी मिले हैं। ब्लेड उपकरण एक विशेष प्रकार के बेलनाकार कोरों से निकाले जाते थे। इनके निर्माण में चर्ट, जेस्पर, फ्लिन्ट आदि बहुमूल्य पत्थरों का उपयोग किया गया है।
पाषाण के अतिरिक्त इस काल में हड्डियों के बने हुए कुछ उपकरण भी मिलते हैं। इनमें स्क्रेपर, छिद्रक , बेधक तथा धारदार उपकरण हैं। जैसा कि पहले बताया जा चुका है इलाहाबाद के बेलन घाटी में स्थित लोंहदा नाले से मिली हुई अस्थि-निर्मित मातृदेवी की मूर्ति इसी काल की है।
भीमबेटका से नीले रंग के कुछ भाषण खंड मिलते मिलते हैं। वाकणकर महोदय के अनुसार इनके द्वारा चित्रकारी के लिए रंग तैयार किया जाता होगा। सम्भव है विन्ध्य क्षेत्र की शिलाश्रयों में बने हुए कुछ गुहाचित्र उच्चपूर्व पाषाणकाल के हों। इनसे तत्कालीन मनुष्यों की कलात्मक अभिरुचि भी सूचित होती है। इस प्रकार के गुफाचित्र पश्चिमी यूरोप से भी प्राप्त हुए हैं।
भारत में उच्च पूर्व पाषाण काल की अवधि ई० पू० तीस हजार से दस हजार निर्धारित की गई है। इस प्रकार पूर्व पाषाणकालीन मनुष्य का जीवन पूर्णता प्राकृतिक था। वे प्रधानतः आखेट पर निर्भर करते थे। उनका भोजन मांस अथवा कंदमूल हुआ करता था।अग्नि के प्रयोग से अपरिचित रहने के कारण वे मांस कच्चा खाते थे। उनके पास कोई निश्चत निवास-स्थान नहीं था तथा उनका जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड़ था।
सभ्यता के इस आदिमयुग में मनुष्य कृषि कर्म अथवा पशुपालन से परिचित नहीं था और न ही वह बर्तनों का निर्माण करना जानता था। इस काल का मानव केवल खाद्य-पदार्थों का उपभोक्ता ही ज्ञा। वह अभी ल्क उत्पादक नहीं बन सका था। मनुष्य तथा जंगली जीवों के रहन-सहन में कोई विशेष फर्क नहीं था।
मध्य पाषाणकाल-(12,000 साल पहले से 4,500 साल पहले):
भारत में मध्य पाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम 1867 ईसवी में हुई जबकि सी०एल० कार्लाइल नें विंध्य क्षेत्र से लघु पाषाण उपकरण ( Microliths ) खोज निकाले। इसके पश्चात देश के विभिन्न भागों से इस प्रकार के पाषाणोंपकरण खोज निकाले गए। इन उपकरणों के विस्तार को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि इस काल का मनुष्य अपेक्षाकृत एक बड़े भू:भाग में निवास करता था।
मध्य पाषाण काल के उपकरण आकार में अत्यंत छोटे हैं। वे लगभग आधे इंच से लेकर पौन इंच के बराबर है। इनमें कुण्ठित तथा टेढ़े ब्लेड, छिद्रक, स्केपर, ब्यूरिन, वेधक, चान्द्रिक आदि प्रमुख हैं। कुछ स्थानों से हड्डी तथा सींग के बने हुए उपकरण भी मिलते हैं। पाषाण उपकरण चर्ट, चाल्सेडनी, जैस्पर, एगट, क्वार्टजाइट, फ्लिन्ट जैसे कीमती पत्थरों के हैं। कुछ उपकरण त्रिभुज तथा समलंब चतुर्भुज के आकार के हैं।
मध्य पाषाणकाल के जिन स्थानों की खुदाईयाँ हुई हैं उनमें कब्रिस्तानों की संख्या ही अधिक है। यह एक उल्लेखनीय बात है कि भारत में मानव अस्थिपंजर मध्य पाषाण काल से ही सर्वप्रथम प्राप्त होने लगता है।
भारत में मध्य पाषाणकाल के स्थल राजस्थान, गुजरात ,महाराष्ट्,र आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में स्थित हैं। जहां से पुरातत्ववेक्ताओं ने उत्खनन के बाद लघु पाषाणोपकरण प्राप्त किए हैं।
राजस्थान– राजस्थान का सबसे प्रमुख स्थल भीलवाड़ा जिले में स्थित बागोर है। यहां 1968 से 1970 तक बी०एन० मिश्र ने उत्खनन कार्य करवाया था। यहां से मध्य पाषाणकालीन उपकरणों के अतिरिक्त लौहकाल के उपकरण भी प्रकाश में आए हैं। पाषाणोपकरण के साथ-साथ बागोर से मानव कंकाल भी मिला है।
गुजरात-– गुजरात प्रांत में स्थित लंघनाज सबसे महत्वपूर्ण स्थल है जहां एच०डी० संकालिया , बी० सुब्बाराव, ए० आर० कनेडी आदि पुराविदों द्वारा व्यापक उत्खनन करवाया गया था। यहां से लघु पाषाणोपकरणों के अतिरिक्त पशुओं की हड्डियां, कब्रिस्तान तथा कुछ मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं। पासाणोपकरणों में फ्लेक ही अधिक हैं। यहां से 14 मानव कंकाल भी मिले हैं।
आंध्र प्रदेश– आंध्र प्रदेश में नागार्जुनकोंड, गिद्दलूर तथा रेनिगुंटा प्रमुख स्थल हैं। जहां से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रकाश में आए हैं।
कर्नाटक– कर्नाटक में बेल्लारी जिले में स्थित संगनकल्लू नामक स्थान पर सुब्बा राव तथा संकालिया द्वारा क्रमशः 1946 तथा 1969 में खुदाई करवायी गयी जिसके फलस्वरूप अनेक उपकरण प्राप्त हुए।
तमिलनाडु– तमिलनाडु के तिरुनेल्वेलि जिले में स्थित टेरी पुरास्थलों से भी बहुसंख्यक लघुपाषाणोपकरण मिलते हैं।
भारत के मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के क्षेत्र मध्य पाषाणिक अवशेषों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है——
आदमगढ़ शैलाश्रय ( होसंगाबाद म० प्र० )—– 1964 ईस्वी में आर० वी० जोशी ने होशंगाबाद जिले में स्थित आदमगढ़ शिलाश्रय से लगभग 25000 लघु पाषाणोपकरण प्राप्त किये थे।
भीमबेटका ( रायसेन जिला म० प्र० )— रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका के शैलाश्रयों तथा गुफाओं से मध्य पाषाणकाल के उपकरण प्रकाश में आए हैं। यहां से मानव अंत्येष्ठि के भी प्रमाण मिलते हैं। इन गुफाओं की खोज 1958 ईस्वी में बी० एस० काकणकर ने की थी।
बिहार— बिहार प्रांत के रांची, पलामू, भागलपुर, राजगीर आदि जिलों से अनेक लघु पाषाण उपकरण मिलते हैं।
पश्चिम बंगाल— पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में स्थित बीरभानपुर एक महत्वपूर्ण मध्य पाषाणिक पुरास्थल है। जहाँ 1954 से 1957 ईस्वी तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से बी०बी० लाल ने उत्खनन कार्य करवाया था। यहां से लगभग 282 लघु पाषाण उपकरण मिलते हैं, जिनमें ब्लेड, बेधक, ब्यूरिन, चान्द्रि, स्क्रेपर, छििद्रक आदि हैं। डा० लाल ने इनका समय ईसा पूर्व 4000 निर्धारित किया है।
उत्तर प्रदेश— उत्तर प्रदेश का विन्ध्य तथा ऊपरी एवं मध्य गंगा घाटी वाला क्षेत्र मध्य पाषाणकालीन उपकरणों के लिए अत्यंत समृद्ध है। विंध्य क्षेत्र के अंतर्गत वाराणसी जिले की चकिया तहसील, मिर्जापुर जिला, इलाहाबाद की मेजा, करछना तथा बारा तहसीलों के साथ-साथ बुंदेलखंड क्षेत्र को सम्मिलित किया जाता है।
मिर्जापुर– इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग की ओर से मिर्जापुर जिले में स्थित मोरहना पहाड़, बघहीखोर, लेहखहिया तथा इलाहाबाद जिले के मेजा तहसील में स्थित चोपानीमाण्डो नामक मध्य पाषाणकाल के पुरा स्थलों की खुदाइयाँ 1962 से 1980 ईस्वी के बीच करवाई गयीं। इन स्थानों से बहुसंख्यक लघु पाषाणोपकरणों के साथ ही साथ नर-कंकाल भी मिलते हैं।
लेखहिया (मिर्जापुर उ०प्र० ) — लेखहिया से ही 17 नर-कंकाल प्राप्त किए गए हैं। अधिकांश के सिर पश्चिम दिशा में हैं। मिर्जापुर जिले से प्राप्त लघु पाषाण उपकरणों में एक विकास-क्रम देखने को मिलता है। उपकरण क्रमशः लघुतर होते गये हैं।
चोपानीमाण्डो— इलाहाबाद का चौपाटी मांडो पुरास्थल 15 हजार वर्ग मीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। इस विस्तृत क्षेत्र से बहुसंख्यक पाषाण उपकरण आदि मिलते हैं। उपकरणों का निर्माण चर्ट, चाल्सिडनी आदि पत्थरों.से किया गया है। उपकरणों के अतिरिक्त यहां की खुदाई से झोपड़ियों के प्रमाण मिलते हैं।
कुछ हाथ के बने हुए मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं। चोपानीमाण्डो के मध्य पाषाण उपकरणों का काल 17000 –7000 ईसा पूर्व के मध्य निर्धारित किया गया है।
चोपानीमाण्डो के अतिरिक्त इलाहाबाद जिले में अन्य प्रसिद्ध स्थल जमुनीपुर ( फूलपुर तहसील), कुढ़ा, बिछिया, भीखपुर तथा महरुडीह (कोरांव तहसील) हैं जहां से मध्य पाषाण युग के उपकरण प्रकाश में आए हैं।
प्रतापगढ़ जिले में स्थित सरायनाहर राय, महदहा तथा दमदमा नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थलों का उत्खनन भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष जी० आर० शर्मा तथा उनके सहयोगियों आर० के० वर्मा एवं बी० डी० मिश्र के द्वारा करवाया गया।
सरायनाहर राय –— सरायनाहर राय के लघु पाषाण उपकरण कुण्ठित, ब्लेड, स्क्रेपर,चान्द्रिक, वेधक, समवाहु एवं विषमबाहु त्रिभुज आदि हैं। जिनके निर्माण में चर्ट, चाल्सिडनी, एगेट, जैस्पर आदि पत्थरों का प्रयोग किया गया है। कुछ अस्थि तथा सींग निर्मित उपकरण भी मिलते हैं।
उपकरणों के अतिरिक्त यहां की खुदाई में 14 शवाधान तथा आठ गर्त-चूल्हे ( Pit hearths ) भी प्राप्त हुए हैं। शवाधानों से तत्कालीन मृतक संस्कार विधि पर प्रकाश पड़ता है। समाधि में शवों का सिर पश्चिम तथा पैर पूर्व की ओर हैं। उनके साथ लघु उपकरण भी रखे गए हैं।
चूल्हों से पशुओं की अधजली हड्डियां भी मिलती हैं। इससे लगता है कि इनका उपयोग मांस भूनने के लिए किया जाता था।
महदहा– महदहा की खुदाई 1978–80 के बीच की गयी। यहां से भी लघु उपकरण के अतिरिक्त आवास एवं शवाधान तथा गर्त चूल्हे प्राप्त हुए हैं। किसी–किसी समाधि में स्त्री पुरुष को साथ-साथ दफनाया गया है। समाधियों से पत्थर एवं हड्डी के उपकरण भी मिलते हैं। महदहा से सिल-लोढ़े हथौड़े के टुकड़े आदि भी प्राप्त होते हैं। इससे लगता है कि लोग घास के दानों को पीसकर खाने के काम में लाते थे।
दमदमा– महदहा से 5 किलोमीटर उत्तर पश्चिम की ओर दमदमा ( पट्टी तहसील ) का पुरास्थल बसा हुआ है। 1982 से 1987 तक यहां उत्खनन कार्य किया गया। यहां से ब्लेड, फलक, ब्यूरिन, छिद्रक, चान्द्रिक आदि बहुत से लघु पाषाण उपकरण मिले हैं, जिनका निर्माण क्वार्ट्जाइट, चर्ट, चाल्सिडनी, एगेट, कार्नेलियन आदि बहुमूल्य पत्थरों से हुआ है। हड्डी तथा सींग के उपकरण एवं आभूषण भी मिले हैं।
इनके साथ-साथ 41 मानव शवाधान तथा कुछ गर्त्त–चूल्हे प्रकाश में आये हैं। विभिन्न पशुओं जैसे– भेड़, बकरी, गाय-बैल, भैंस, हाथी, गैंडा, चीतल, बारहसिंहा, सूअर आदि की हड्डियां भी प्राप्त होती हैं।
कुछ पक्षियों, मछलियों, कछुए, आदि की हड्डियां भी मिली हैं। इनसे स्पष्ट है कि इस काल का मनुष्य इन पशुओं का मांसाहार करता था जिसे चूल्हे पर पकाया जाता होगा। सिल–लोढ़े हथौड़े आदि के टुकड़े भी मिले हैं। दमदमा के अवशेषों का काल 10000 से 4000 ईसा पूर्व के बीच बताया गया है।
सरायनाहर राय, महदहा एवं दमदमा के मध्य पाषाणिक स्थल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचिन इतिहास विभाग की अति महत्वपूर्ण खोजे हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मध्य पाषाणकाल के मानवों का जीवन पूर्व पाषाणकाल के मनुष्य की अपेक्षा कुछ भिन्न था। यद्यपि अब भी वे अधिकांशतः शिकार पर ही निर्भर करते थे तथापि इस काल के लोग गाय, बैल, भेड़, बकरी, जंगली, घोड़े तथा भैंसे आदि का शिकार करने लगे थे। उन्होंने थोड़ी बहुत कृषि करना भी सीख लिया था।
अपने अस्तित्व के अंतिम चरण तक वे बर्तनों का निर्माण करना भी सीख गये थे। पशुओं से धीरे-धीरे उनका परिचय बढ़ रहा था। सरायनाहर राय तथा महदहा समाधियों से इस काल के लोगों की अंत्येष्टि संस्कार विधि के विषय में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
ज्ञात होता है कि वे अपने मृतकों को समाधियों में गाढ़ते थे तथा उनके साथ खाद्य-सामग्रियों, औजा-हथियार भी रख देते थे। संभवतः यह किसी प्रकार के लोकोत्तर जीवन में विश्वास का सूचक था।
नवपाषाण काल अथवा उत्तर पाषाण काल-4,500 वर्ष पूर्व से 2,000 वर्ष पूर्व)
नवपाषाण काल की विशेषताएँ
भारत में नव पाषाणकालीन सभ्यता का प्रारंभ ईसा पूर्व चार हजार के लगभग हुआ। यहां नव पाषाणकालीन संस्कृति के जो अवशेष मिले हैं उनके आधार पर इसे छः भागों में विभाजित किया गया है– उत्तरी भारत, विंध्य क्षेत्र, दक्षिणी भारत, मध्य गंगा घाटी, मध्य-पूर्वी क्षेत्र तथा पूर्वोत्तर भारत। इन क्षेत्रों से अनेक नवपाषाण पुरास्थल प्रकाश में आए हैं।
1–उत्तर भारत– उत्तर भारत की नव पाषाण संस्कृति के अंतर्गत कश्मीर प्रांत के पुरा स्थलों का उल्लेख किया जा सकता है इनमें बुर्जहोम तथा गुफकराल विशेष महत्व के हैं।
बुर्जहोम- बुर्जहोम नामक पुरास्थल की खोज 1935 ईसवी में डी० टेरा तथा पीटरसन ने की थी। 1960-64 ईस्वी के बीच भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से इस स्थान की खुदाई करवाई गयी।
🔴 बुर्जहोम की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि खुदाई में गड्ढे वाले घरों के अवशेष मिले हैं।
🔴 बुर्जहोम की एक अन्य प्रमुख विशेषता यह है कि यहां मनुष्य के साथ-साथ पालतू कुत्ते को भी दफनाने की प्रथा प्रचलित थी।
गुफकराल — गुफकराल नामक स्थान की खुदाई 1981 ईस्वी में ए०के० शर्मा ने करवाई थी। यहां के उपकरणों में ट्रेप पत्थर पर बनी हुई कुल्हाड़ी, बांसूली, खुरपी, छेनी, कुदाल, गदाशीर्ष, बेधक आदि हैं। पत्थर के अतिरिक्त हड्डी के बने हुए उपकरण भी यहां से मिलते हैं। इनमें पालिशदार बेधकों की संख्या अधिक है। भेड़-बकरी आदि जानवरों की हड्डियां तथा मिट्टी के बर्तन भी खुदाई में प्राप्त होते हैं। जौ, गेहूं, मटर, मसूर आदि अनाजों के दाने मिलते हैं।
गुफकराल से अन्य उपकरणों के साथ-साथ सिलबट्टे तथा हड्डी की बनी सुइयां भी प्राप्त होती हैं। इनसे सूचित होता है कि अनाज पीसने तथा वस्त्र-सीने की विधि से भी उस काल के लोग परिचित थे। यहां से प्राप्त बर्तनों में घड़े, कटोरे, थाली, तश्तरी आदि का उल्लेख किया जा सकता है। इनका निर्माण चाक तथा हाथ दोनों से किया गया है।
2-विंध्य क्षेत्र– प्रमुख नवपाषाण कालीन पुरास्थल इलाहाबाद जिले में बेलन नदी के तट पर स्थित गोल्डिहवा महगदा तथा पंचोह हैं। यहां इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा खुदाया करवाई गई हैं गोल्डिहवा से नवपाषाण काल के साथ-साथ ताम्र तथा लौह कालीन संस्कृति के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।
महदहा तथा पंचोंह से केवल नवपाषाण कालीन अवशेष ही प्राप्त हुए हैं। यहां के उपकरणों में गोल समन्तान्त वाली पत्थर की कुल्हाडड़ियों की संख्या ही अधिक है। अन्य उपकरण हथौड़े, छेनी, बसूली आदि है। स्तंभ गाड़ने के गड्ढे मिले हैं जिनसे लगता है कि इस काल के लोग लकड़ी के खंभों को जमीन में गाड़ कर अपने रहने के लिए गोलाकार झोपड़ियां बनाते थे।
हाथ से बनाए गए विभिन्न आकार-प्रकार की मिट्टी के बर्तन मिलते हैं यहां का एक विशिष्ट बर्तन रस्सी छाप है इसकी बाहरी सतह पर रस्सी की छाप लगाई गई है। इसके अलावा खुरदुरे तथा चमकीले बर्तन भी मिले हैं बर्तनों में कटोरे, तश्तरी, घड़े, आदि हैं। कुछ बर्तनों के ऊपर अलंकरण भी मिला है पशुओं में भेड़-बकरी, सूअर, हिरण की हड्डियां मिलती हैं। इससे स्पष्ट है कि इन जानवरों को पाला जाता अथवा शिकार किया जाता था।
कोल्डिहवा के उत्खनन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि यहां से धान की खेती किए जाने का प्राचीनतम प्रमाण ( ईसा पूर्व 7000-6000 ) प्राप्त होता है। मिट्टी के बर्तनों के ठीकरों पर धान के दाने तथा भूसी एवं पुआल के अवशेष चिपके हुए मिले हैं। इनसे सूचित होता है कि व्यापक रूप से धान की खेती की जाती थी। अनाज रखने के लिए उपयोगी घड़े तथा मटके भी कोल्ड़िहवा एवं महगदा से मिलते हैं।
3– मध्य गंगा घाटी– मध्य गंगा घाटी का सबसे महत्वपूर्ण नवपाषाण कालीन पुरास्थल चिरांद बिहार के छपरा जिले में स्थित है यहां उत्खनन के फल स्वरुप ताम्र पाषाण युग के साथ-साथ नवपाषाण युग संस्कृति का विशेष भी मिलते हैं यहां के उपकरणों में पाली दार पत्थर की कुल्हाड़ी सिलवटें हथौड़ी थाना हड्डी और सिंह के बने हुए छेनी वर्मा बाण कुदाल हुई चूड़ी आदि का उल्लेख किया जा सकता है;
घड़े कटोरे टोपी वाले बर्तन तक ले आदि मृदभांड यहां से प्राप्त हुए हैं ज्ञात होता है कि यहां के लोग अपने निवास के लिए बांस बल्ली की झोपड़ियां बनाते थे प्रधान मसूर गेहूं जौ आदि की खेती करना जानते थे गाय बैल हाथी बारहसिंघा हिरण ग्रैंड आदि पशुओं से उनका परिचय तथा कुछ अन्य प्राप्त होती है.
बिहार के सिंहभूम जिले में स्थित वरुण तथा उड़ीसा के मयूरभंज जिले में स्थित कुचाई भी नवपाषाण कालीन युग में जहां से पाकिस्तान पर कुल्हाड़ी या प्राप्त की गई और दालचीनी वसूली ज्ञात होता है कि यहां के लोग अपने निवास के लिए बांस बल्ली की झोपड़ियां बनाते थे प्रधान मसूर गेहूं जौ आदि की खेती करना जानते थे गाय बैल हाथी बारहसिंघा हिरण ग्रैंड आदि पशुओं से उनका परिचय था कुछ अड्डे प्राप्त होती है.
बिहार के सिंहभूम जिले में स्थित वरुण तथा उड़ीसा के मयूरभंज जिले में स्थित कुचाई भी नवपाषाण कालीन युग में जहां से पाकिस्तान पर कुल्हाड़ी या प्राप्त की गई और दालचीनी वसूली से आधार पर कुल्हाड़ी प्राप्त की गई कुदाल सैनी वसूली अरोड़ा आदि भी पाए गए हैं तथा काले रंग के प्रकाश में आए हैं असम की पहाड़ी मेघालय की गाड़ियों से प्राप्त किए गए हैं इनमें कुल्हाड़ी हथौड़े से लोड है आदि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय तैयार की गई मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े भी मिलते हैं।
4–दक्षिणी भारत-उत्तरी भारत के ही समान दक्षिणी भारत के कर्नाटक, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु से भी नवपाषाण काल के कई पुरास्थल प्रकाश में आए हैं। जहां की खुदाईयों से इस काल के अनेक उपकरण, मृदभाण्ड, आदि प्राप्त किये गये हैं। कर्नाटक में स्थित प्रमुख पुरास्थल मास्की, ब्रम्हगिरी, संगनकल्लू, हल्लूर, कोडेकल, टी० नरसीपुर, पिकलीहाल, तेक्कलकोट है।
आंध्र प्रदेश के पुरास्थल नागार्जुनीकोड, उतनूर, फलवाय एवं सिंगनपल्ली हैं। पैय्यमपल्ली तमिलनाडु का प्रमुख पुरास्थल है। यह सभी कृष्णा तथा कावेरी नदियों की घाटियों में बसे हुए हैं। इन स्थानों से पालिशदार प्रस्तर , कुल्हाड़ियाँ, सलेटी या काले रंग के मिट्टी के बर्तन तथा हड्डी के बने हुए कुछ उपकरण प्राप्त होते हैं।
इस काल के निवासी कृषि तथा पशुपालन से पूर्णता परिचित थे। मिट्टी तथा सरकंडे की सहायता से वे अपने निवास के लिए गोलाकार अथवा चौकोर घर बनाते थे। हाथ तथा चाक दोनों से बर्तन तैयार करते थे। कुछ बर्तनों पर चित्रकारी भी की जाती थी। खुदाई में घड़े, तश्तरी, कटोरे आदि मिले हैं।
कुथली, रागी, चना, मूंग आदि अनाजों का उत्पादन किया जाता था। गाय, बैल, भेड़, बकरी, भैंस, सूअर उनके प्रमुख पालतू पशु थे। दक्षिणी भारत के नवपाषाण कालीन सभ्यता की संभावित तिथि ईसा पूर्व 2500 से 1000 के लगभग निर्धारित की जाती है।
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नवपाषाण कालीन संस्कृति अपनी पूर्वगामी संस्कृतियों की अपेक्षा अधिक विकसित थी। इस काल का मानव न केवल खाद्य-पदार्थों का उपभोक्ता ही था वरन अव वह कृषि कार्य के साथ-साथ पशुओं को भी पालना शुरू कर दिया था। गाय, बैल, भैंस, कुत्ता, घोड़ा, भेड़, बकरी आदि जानवरों से उनका परिचय बढ़ गया था।
इस काल के मनुष्य का जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड़ न रहा। उसने एक निश्चित स्थान पर अपने घर बनाये तथा रहना प्रारंभ कर दिया। कर्नाटक प्रांत के ब्रम्हगिरी तथा संगलकल्लू, ( बेलारी ) से प्राप्त नव पाषाणयुगीन अवशेषों से पता चलता है कि वर्षों तक मनुष्य एक ही स्थान पर निवास करता था।
इस काल के मनुष्य मिट्टी के बर्तन बनाते थे तथा अपने मृतकों को समाधियों में गाड़ते थे। अग्नि के प्रयोग से परिचित होने के कारण मनुष्य का जीवन अधिक सुरक्षित हो गया था। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इस युग के मनुष्य जानवरों की खाल को सीकर वस्त्र बनाना जानते थे।
उत्तर पाषाणकालीन मानव ने चित्रकला के क्षेत्र में भी रूचि लेनी प्रारम्भ कर दी थी। मध्य भारत की पर्वत कन्दराओं से कुछ चित्रकारियाँ प्राप्त हुई हैं जो सम्भवत: इसी काल से संबंधित हैं। ये चित्र शिकार से सम्बन्धित हैं। इस काल का मानव अपने वर्तनों को भी रंगते थे तथा उन पर चित्रकारी भी करते थे.