प्राचीन काल, मध्यकाल और वर्तमान काल तक महिलाओं की दशा के विषय में निरंतर चिंतन और मनन होता रहा है। परंतु इस विषय में अधिकांश विद्वान और ऋषि-मुनि रूढ़िवादी और पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित रहे। वर्तमान समय में जिस प्रकार महिलाओं के प्रति अत्याचार और अपराध को देख कर मन में यही प्रश्न उठता है कि क्या भारत में सदा ही महिलाओं की स्थिति इतनी ही दयनीय और पीड़ादायक थी?
यद्यपि संविधान में महिलाओं को बराबर का दर्जा दिया गया है परंतु फिर भी भारत ही क्या समस्त विश्व में महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे की ही सोच दिखाई पड़ती है। यद्यपि परिस्थितियों में सुधार के भी अंश दिखाई देते हैं परंतु उनकी गति अत्यंत मंद है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या महिलाओं की स्थिति प्राचीन काल से ही ऐसी थी या मध्यकाल में अत्यंत दयनीय हुई या आधुनिक काल में ज्यादा दयनीय है?
ऋग्वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति
ऋग्वेद से यह ज्ञात नहीं होता कि सप्त सिंधु की आर्य- स्त्रियों की दशा उतनी हीन थी, जितनी कि आगे चलकर हो गई। यह ठीक है अब वह सामंतवादी व्यवस्था के अधीन नहीं थीं, जिसमें जन (पितृसत्ता के ) अवस्था के अधिकार सुलभ नहीं थे। शुद्ध जन- व्यवस्था में स्त्रियां हथियार लेकर लड़ सकती हैं। ईसा-पूर्व छठी शताब्दी में मध्य-एशिया के शकों में ऐसा ही देखा जाता था, जहां घुमंतू स्त्रियों ने कितनी ही बार हथियार उठाये। लेकिन, स्त्रियों का युद्ध में जाना आर्य बुरा समझते थे।
शम्बर के पहाड़ी लोग जन अवस्था में थे, उनके लिए स्वभाविक था, कि दिवोदास के साथ उनका जो जीवन-मरण का संघर्ष चल रहा था, उसमें पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी शामिल हों। पर आर्य ऋषियों ने “अबला क्या करेगी” कह कर इसका उपहास किया था ( बभ्रु की एक ऋचा -५।३०।९ में है—–“दास ने स्त्रियों को आयुध ( हथियार) बनाया।” इस पर इन्द्र ने कहा— “इसकी अबला सेना मेरा क्या करेगी?”)
स्त्रियों के लिए अबला शब्द का प्रयोग शायद यहीं सर्वप्रथम हुआ , जिससे ध्वनित होता है, कि स्त्रियों में योद्धा होने की योग्यता नहीं है। इस प्रकार आर्य-स्त्रियों के संग्राम में खुलकर भाग लेने की संभावना सप्तसिन्धु में नहीं थी। वैसे अपवाद के तौर पर स्त्रियों ने कभी अपने हाथ दिखाये हों, तो दूसरी बात है।
युद्ध बाद सबसे महत्व था ऋचाओं ( पदों ) की रचनाओं, जिसके कारण उन्हें ऋषि, ऋषिका कहा जाता । ऋषिकाओं की संख्या ऋग्वेद में दो दर्जन से कम नहीं हैं । पर विश्लेषण करने पर उनमें से अधिकांश को मानुषी नहीं कल्पित ही देखा जाता है। केवल घोषा और विश्ववारा को ही ऐतिहासिक ऋषि माना जा सकता है।
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