सिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था | Sindhu Ghaati Sabhyta Ki Nagar Vyavastha

संपूर्ण विश्व में सिंधु सभ्यता जैसी नगर योजना अन्य किसी समकालीन सभ्यता में नहीं पाई गई है। सिंधु सभ्यता के नगर पूर्व नियोजित योजना से बसाये गए थे। सिंधु सभ्यता की  नगर  योजना को देखकर विद्वानों को भी आश्चर्य होता है कि आज भी हम उस सभ्यता का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हम अपने आपको आज भी पिछड़ा हुआ ही पाते हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था | Sindhu Ghaati Sabhyta Ki Nagar Vyavasthaसिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था

नगरीय सभ्यता के जो प्रतीक होते हैं, और नगर की विशेषताएं होती हैं जैसे– आबादी का घनत्व, आर्थिक एवं सामाजिक प्रक्रियाओं में घनिष्ठ समन्वय, तकनीकी-आर्थिक विकास, व्यापार और वाणिज्य के विस्तार एवं प्रोन्नति के लिए सुनियोजित योजनाएँ तथा दस्तकारों और शिल्पकारों के लिए काम के समुचित अवसर प्रदान करना आदि।

हड़प्पा कालीन नगर योजना को इस प्रकार से विकसित किया गया था कि वह अपने नागरिकों के इन व्यवसायिक, सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम थी। हड़प्पा सभ्यता का नगरीकरण इसकी विकसित अवस्था से जुड़ा है अनेक विद्वानों ने हड़प्पा कालीन नगरीकरण को ‘नगरीय क्रांति’ की संज्ञा दी है, जिसका किसी शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता, विशिष्ट आर्थिक संगठन एवं सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के बिना विकास नहीं हो सकता था।

हम वर्तमान नगरीकरण के संदर्भ में सिंधु सभ्यता की नगरीय विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन करके वर्तमान के लिए विकास का मार्ग तैयार कर सकते हैं। जब हम देखते हैं कि आज भी भारत के बड़े-बड़े नगरों में बरसात के दिनों में जलभराव के कारण संकट उत्पन्न हो जाता है तब हमें धौलावीरा जैसे हड़प्पायी नगरों की याद आती है जहां वर्षा के पानी को एकत्र करने के विशिष्ट इंतजाम किए गए थे और हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो जैसे नगरों में जल को शहर से बाहर निकालने के लिए सुनियोजित नालों को तैयार किया गया था। आइए देखते हैं उस समय की नगरीय व्यवस्था किस प्रकार की थी–

सिंधु सभ्यता की नगरीय व्यवस्था

सिंधु सभ्यता के बड़े नगरों एवं कस्बों की आधारभूत संरचना एक व्यवस्थित नगर योजना को दर्शाती है। सड़कें और गलियां एक योजना के तहत निर्मित की गई थीं। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हैं तथा उनको समकोण पर काटती सड़कें और गलियां मुख्य मार्ग को विभाजित करती हैं

 सिंधु सभ्यता के नगर सुविचार इत एवं पूर्व नियोजित योजना से तैयार किए गए थे। गलियों में दिशा सूचक यंत्र भी लगे हुए थे जो मुख्य मार्गो तथा मुख्य मार्ग  से जाने वाली छोटी गलियों को दिशा सूचित करते थे।

 सड़कें और गलियां  9 से लेकर  34 फुट चौड़ी थीं और कहीं-कहीं पर आधे मील तक सीधी चली जाती थी। ये मार्ग समकोण पर एक-दूसरे को काटते थे जिससे नगर वर्गाकार या आयताकार खंडों में विभाजित हो जाते थे। इन वर्गाकार या आयताकार खंडों का भीतरी भाग मकानों से भरी गलियों से विभाजित था।

 मोहनजोदड़ो की हर गली में सार्वजनिक कुआं होता था और अधिकांश मकानों में निजी कुऍं और स्नानघर होते थे। सुमेर की भांति सिंधु सभ्यता के नगरों में भी भवन कहीं भी सार्वजनिक मार्गों का अतिक्रमण करते दिखाई नहीं पड़ते।

 मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, सुरकोटड़ा जैसे कुछ महत्वपूर्ण नगर दो भागों में विभाजित थे—-

1- ऊंचे टीले पर स्थित प्राचीन युक्त बस्ती जिसे नगर-दुर्ग कहा जाता है। तथा

2- इसके पश्चिम की ओर के आवासीय क्षेत्र को निचला नगर कहा जाता है। 

   हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा और सुरकोटड़ा में नगर-दुर्ग का क्षेत्रफल निचले नगर से कम था और वह हमेशा इसके पश्चिम में स्थित होता है।

मोहनजोदड़ो के नगर-दुर्ग में पाए गई भव्य इमारतें जैसे– विशाल स्नानागार, प्रार्थना-भवन, अन्नागार एवं सभा-भवन पकाई गई ईंटों से बनाए गए थे।

हड़प्पा को सिंधु सभ्यता की दूसरी राजधानी माना जाता है। यहां के नगर-दुर्ग के उत्तर में कामगारों (दस्तकारों) के आवास, उनके कार्यस्थल (चबूतरे) और एक अन्नागार था। यह पूरा परिसर यह दिखाता है कि यहां के कामगार बड़े अनुशासित थे।

राजस्थान में विलुप्त सरस्वती (घग्गर) नदी के बाएं तट पर स्थित कालीबंगा की नगर योजना वैसी ही थी जैसी कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की थी अर्थात पश्चिम दिशा में नगर-दुर्ग एवं पूर्व दिशा में निचला नगर। अर्थात नगर-दुर्ग के दो समान एवं सुनिर्धारित भाग थे—

 प्रथम भाग- दक्षिणी भाग में कच्ची ईंटों के बने विशाल मंच या चबूतरे थे जिन्हें विशेष अवसरों के लिए बनाया गया था।

द्वितीय भाग- उत्तरी भाग में आवासीय मकान थे।

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प्राचीन भारतीय इतिहास के 300 अति महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी

प्राचीन भारतीय इतिहास के 300 अति महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान  प्रश्नोत्तरी

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प्राचीन भारतीय इतिहास

1- हड़प्पा की खोज किसने की 

उत्तर- दयाराम साहनी ने 

2- मोहनजोदड़ो को खोज किसने की 

उत्तर- राखालदास बनर्जी 

3-सिंधु सभ्यता किस प्रकार की सभ्यता थी 

उत्तर- नगरीय सभ्यता ( शहरी )

4-सिंधु घाटी सभ्यता का वह कौनसा स्थल है जहाँ से ईंटों से निर्मित कृत्रिम गोदी ( डॉकयार्ड )  मिला है 

उत्तर- लोथल 

5-हड़प्पा का बिना दुर्गवाला एकमात्र नगर 

उत्तर- चन्हूदड़ो 

6-मातृदेवी की पूजा किस सभ्यता से सम्बंधित है 

उत्तर- सिंधु सभ्यता से 

7-मिथिला राज्य से संबंधित तीन प्राचीन ऋषि 

उत्तर- कपिल मुनि , गार्गी और मैत्रेय 

8-वैदिक काल में लोहे का प्रयोग किस समय हुआ 

उत्तर- 1000 ईसा पूर्व के आसपास 

9- श्रमण कौन थे 

उत्तर- वैदिक काल के वे अध्यापक जो वेद और ब्राह्मण विरोधी शिक्षा देते थे वह ‘श्रमण’ कलाते थे 

10-हिन्दू धर्म के चार आश्रम कौन से हैं 

उत्तर- ब्रह्मचर्य – गृहस्थ – वानप्रस्थ – सन्यास 

11- सबसे प्राचीन वेद कौनसा है 

उत्तर- ऋग्वेद 

12- उपनिषद का क्या अर्थ है 

उत्तर- पास बैठना 

13- महाभारत का प्रथम नाम 

उत्तर- जय सहिंता 

14- पशुपति शिव की प्राचीनतम उपास्थि 

उत्तर- सिंधु सभ्यता में 

15- किस प्रकार के वर्तन ( मृदभांड) भारत में द्वित्य नगरीकरण के प्रारम्भ का प्रतीक है 

उत्तर- उत्तरी काले पॉलिश युक्त बर्तन

16-  दिलवाड़ा ( माउन्ट आबू राजस्थान ) के मंदिर किस धर्म से सम्बंधित हैं

उत्तर- जैन धर्म

17- सत्यमेव जयते किस ग्रन्थ से है लिया गया है 

उत्तर- मुंडकोपनिषद 

18- हड़प्पा के लोगो की सामाजिक व्यवस्था कैसी थी 

उत्तर- उचित समतावादी 

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सिन्धु घाटी सभ्यता-sindhu ghati sabhyata

 सिन्धु घाटी सभ्यता-sindhu ghati sabhyata      सिंधु घाटी सभ्यता ( Indus Valley Civilization ) – बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक अधिकांश विद्वान यही मानते थे कि वैदिक सभ्यता भारत की सर्वप्राचीन सभ्यता है और भारत का इतिहास वैदिक काल से ही प्रारंभ माना जाता था। परंतु बीसवीं शताब्दी के तृतीय दशक में इस भ्रामक धारणा … Read more

भारत में भूमि कर व्यवस्था: मौर्य काल से ब्रिटिश काल तक

भूमि व्यवस्था एक ऐसा विषय रहा है जिसने प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल और ब्रिटिश काल तक शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भू-राजस्व सरकार की आय का एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है चाहे राजतंत्र हो या प्रजातंत्र। हर काल और परिस्थिति में भू-राजस्व को अपनी सुविधा और मांग के अनुसार परिवर्तन से गुजरना … Read more

वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य

प्राचीन भारतीय इतिहास में वैदिक काल का अत्यधिक महत्व है। वैदिक काल अपनी वैदिक शिक्षा के साथ स्वास्थ्य के लिए भी प्रसिद्ध था। इस काल में यद्यपि शिक्षा का आधार संस्कृत था और केवल उच्च वर्ग को ही शिक्षा का अधिकार था। आज इस लेख में हम वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था का अध्ययन करेंगे। लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।

      

वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य

वैदिक कालीन शिक्षा

चाहे कितनी भी पिछड़ी मानव जाति हो उसके लिए भी पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाना आवश्यक होता है, जिसके वास्ते उसे किसी न किसी तरह की शिक्षा प्रणाली अपनानी पड़ती है। वैदिक आर्य अपने पूर्व अर्जित ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाते थे। जिस ज्ञान को वह परम-पवित्र मानते थे, वह वेद के मंत्र थे।

ऋग्वैदिक आर्यों के समय से पहले मोहनजोदड़ो के लोग एक तरह की चित्र लिपि इस्तेमाल करते थे, जिसके हजार के करीब अक्षर प्राप्त हो चुके हैं, पर अभी तक पढ़ने की कुंजी नहीं मिली है। लिखने का पूरी तरह से प्रचार हो जाने पर भी वेदों को गुरुमुख से सुनकर पढ़ने का रिवाज हमारे यहां अभी भी पसंद किया जाता था, फिर ऋग्वेद के काल में उसे लिपिबद्ध करने का प्रयत्न किया गया होगा, इसकी संभावना नहीं है।

आर्य बहुत पीछे तक वेद के लिपिबद्ध करने के खिलाफ रहे, क्योंकि तब उनकी गोपनियता नष्ट हो जाती  वैदिक बागा में ही वाङमय ही क्यों, बौद्ध और जैन पिटक भी  शताब्दियों तक कंठस्थ रखे गये। बौद्ध त्रिपिटक बुद्ध-निर्वाण के चार शताब्दी बाद और जैन-आगम आठ शताब्दी बाद लिपिबद्ध हुए। कान से सुनकर सीखे जाने के कारण वेद को श्रुति कहते हैं। इसलिए बड़े विद्वान को बहुश्रुत—-बहुत सुना हुआ—- कहा जाता।

हमारी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई और उसका संबंध किस पुरानी लिपि से है, इसका निर्णय अभी नहीं हो सका है।  इतना मालूम है, कि हमारी सबसे पुरानी वर्णमाला ब्राह्मी है। जिसके निश्चित काल वाले नमूने अशोक के अभिलेखों में मिलते हैं, जो ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी में या बुद्ध निर्वाण से ढाई सौ वर्ष बाद के हैं।

पिपरहवा के ब्राह्मी अक्षर बुद्धकालीन है, यह विवादास्पद है। ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी से पहले की वर्णमाला के नमूने मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की चित्र लिपियों में मिलते हैं। दोनों लिपियों का संबंध स्थापित करना मुश्किल है। यद्यपि मोहनजोदड़ो की चित्रलिपि से उच्चारण वाली वर्णमाला का निकलना बिल्कुल संभव है, पर ब्राह्मी मोहनजोदड़ो की लिपि से निकली, इसे सिद्ध करना अभी संभव नहीं है।

 उस समय किसी प्रकार की मौखिक शिक्षा पुरानी (अतएव पवित्र) कविताओं की जरूर होती थी। उसका संग्रह ऋग्वेद में होना चाहिए था। ऋग्वेद में होना चाहिए था। पर, वैसा नहीं देखा जाता। ऋग्वेद के प्राचीनतम ऋषि और उनकी कृतियां, हमें भारद्वाज, वशिष्ठ और विश्वामित्र तक ले जाती हैं। उससे पुराने दो-चार ही ऐसे ऋषि मिलते हैं, जिनकी कृतियां पुरानी हो सकती हैं, पर, भाषा और संग्रह की गड़बड़ी ने उनकी प्राचीनता को बहुत कुछ गंवा दिया है।

अनुमान किया जाता है कि, ऋग्वेद के महान ऋषियों ने इंद्र, अग्नि, मित्र के ऊपर जो हजारों और ऋचाएं बनाई थीं, उनमें कुछ शब्द या भाव में भारद्वाज से पुरानी हो सकती हैं ; पर, इसे निश्चयपूर्वक नहीं बतलाया जा सकता। हमारे सबसे पुराने देवता द्यौ और पृथ्वी हैं, जिन्हें ऋग्वेद में पितरौ  (दोनों माता-पिता) कहा गया है। द्यौ पिता और पृथ्वी माता द्यौ-पितर का ख्याल बहुत पुराना है।

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सांख्य दर्शन : सांख्य दर्शन क्या है, जानिए, सत्कार्यवाद,प्रकृति,पुरुष

प्राचीनभारतीय संस्कृति पूरे संसार में अपने ज्ञान और विज्ञान के लिएविश्वविख्यात थी। भारतीय संस्कृति संसार की सबसे गौरवमयी संस्कृतियों मेंएक है।  प्राचीन भारतीय ऋषियों ने जीवन की उतपत्ति और उसके रहस्यों कोजानने के लिए विभिन्न मतों का प्रतिपादन किया, जिन्हें हम दर्शन कहते हैं। भारतीय संस्कृति में मुखतया छ: दर्शन प्रमुख हैं सांख्य दर्शन , … Read more

भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी- जीवन इतिहास कहानी हिंदी में | Lord Gautam Buddha Biography in Hindi

भगवान गौतम बुद्ध, जिन्हें सिद्धार्थ गौतम के नाम से भी जाना जाता है, एक आध्यात्मिक नेता और दार्शनिक थे जो प्राचीन भारत में रहते थे। उनका जन्म 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में लुंबिनी, वर्तमान नेपाल में एक शाही परिवार में एक राजकुमार के रूप में हुआ था। हालाँकि, उन्होंने ज्ञान प्राप्त करने और मानव पीड़ा को समाप्त करने का मार्ग खोजने के लिए अपने राजसी जीवन को त्याग दिया।

वर्षों के गहन ध्यान और आत्म-चिंतन के बाद, उन्होंने भारत के बोधगया में एक बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया और बुद्ध बन गए, जिसका अर्थ है “जागृत व्यक्ति।” उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की, एक प्रमुख विश्व धर्म जो जन्म और मृत्यु के चक्र से आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त करने के साधन के रूप में चार महान सत्य और आठ गुना पथ सिखाता है। बुद्ध की शिक्षाओं का दुनिया भर के लाखों लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा है और वे सत्य और आंतरिक शांति के चाहने वालों को प्रेरित करती रहती हैं।

Lord Gautam Buddha Biography Life History Story In Hindi
महात्मा बुद्ध

Lord Gautam Buddha Biography in Hindi-महात्मा बुद्ध का प्रारंभिक जीवन

 गौतम बुद्घ का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुंबिनी वन (आधुनिक रूमिदेई अथवा रूमिन्देह) नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यगण के मुखिया थे। उनकी माता का नाम मायादेवी था जो कोलिय गणराज्य की कन्या थी। गौतम के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनकी माता माया का देहांत हो गया तथा उनका पालन पोषण उनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया।

उनका पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य एवं वैभव के वातावरण में हुआ। उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गयी। परंतु बचपन से ही वे अत्यधिक चिंतनशील स्वभाव के थे। प्रायः एकांत स्थान में बैठकर वे जीवन-मरण सुख दु:ख आदि समस्याओं के ऊपर गंभीरतापूर्वक विचार किया करते थे।

नामगौतम बुद्ध
बचपन का नामसिद्धार्थ
जन्मलगभग 563 ईसा पूर्व
जन्म स्थानलुम्बिनी, नेपाल
वंशशाक्य (क्षत्रिय)
पिताराजा शुद्धोधन
मातारानी महामाया
पत्नीयशोधरा
पुत्रराहुल
मौसीमहाप्रजापति गोतमी
गृहत्याग29 वर्ष की आयु में, उन्होंने अपने महल और विलासी जीवन को छोड़कर बोधि प्राप्ति के लिए निवृत्त हो गए
पहला उपदेशसारनाथ, वाराणसी में हिरण्यवती मृगदेन का उपदेश
धर्म के प्रोत्साहकसिद्धार्थ गौतम, जिन्हें बुद्ध के रूप में जाना जाता है, बौद्ध धर्म के मुख्य प्रतीक हैं
मृत्युलगभग 483 ईसा पूर्व
मृत्यु स्थानकुशीनगर, भारत

महात्मा बुद्ध का विवाह

 महात्मा बुद्ध को इस प्रकार सांसारिक जीवन से विरक्त होते देख उनके पिता को गहरी चिंता हुई। उन्होंने बालक सिद्धार्थ को सांसारिक विषयभोगों में फंसाने की भरपूर कोशिश की। विलासिता की सामग्रियां उन्हें प्रदान की गयी। इसी उद्देश्य से 16 वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता ने उनका विवाह शाक्यकुल की एक अत्यंत रूपवती कन्या के साथ कर दिया। इस कन्या का नाम उत्तर कालीन बौद्ध ग्रंथों में यशोधरा, बिम्बा, गोपा, भद्कच्छना आदि दिया गया है।

कालांतर में उनका यशोधरा नाम ही सर्वप्रचलित हुआ। यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम ‘राहुल’पड़ा। तीनों ऋतुओं में आराम के लिए अलग-अलग आवास बनवाये गए तथा इस बात की पूरी व्यवस्था की गई कि वे सांसारिक दु:खों के दर्शन न कर सकें।

बुद्ध द्वारा गृह त्याग

 परंतु सिद्धार्थ सांसारिक विषय भोगों में वास्तविक संतोष नहीं पा सके। भ्रमण के लिए जाते हुए उन्होंने प्रथम बार वृद्ध, द्वितीय बार व्याधिग्रस्त मनुष्य, तृतीय बार एक मृतक तथा अंततः एक प्रसन्नचित संन्यासीको देखा। उनका हृदय मानवता को दु:ख में फंसा हुआ देखकर अत्यधिक खिन्न हो उठा।

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ऋग्वैदिक कालीन, आर्यों, का खान-पान,भोजन

भारत में आर्यों का आगमन एक युगांतकारी घटना थी, जिसमें एक शहरी सभ्यता के स्थान पर ग्रामीण सभ्यता स्थापित हुई। आर्यों ने भारत में अपने खान-पान भाषा और अन्य रिवाजों को प्रचलित किया। हम इस लेख में आर्यों द्वारा खाये जाने वाले खाद्य पदार्थो का अध्ययन करेंगे। ऐसे कई सवाल जो आज भी विवादों में … Read more

मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था: केंद्रीय, प्रांतीय, मंडल और ग्राम प्रशासन, प्रमुख अधिकारी

मौर्यकाल (चाणक्यकाल) भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण काल है, जब मगध साम्राज्य अधिकार था और चंद्रगुप्त मौर्य एवं उसके बाद के शासकों द्वारा प्रशासन किया जाता था। मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था भारतीय इतिहास में एक प्रमुख विषय है। चाणक्य (कौटिल्य) जैसे महान राजनीतिज्ञ द्वारा तैयार की गई अर्थशास्त्रिक ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तृत वर्णन है।

मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था: केंद्रीय, प्रांतीय, मंडल और ग्राम प्रशासन, प्रमुख अधिकारी

मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य सामाजिक न्याय, राष्ट्रिय सुरक्षा, और समर्थन के प्रदान के साथ समृद्धि की दिशा में था। मौर्यकालीन संगठन में राजा या सम्राट सर्वाधिक प्रबल और सर्वोपरि पदधारी व्यक्ति था, जो सम्राट या राजा के नाम पर शासन करता था। मौर्य साम्राज्य के प्रशासन का आधार चाणक्य के अर्थशास्त्र और धर्मशास्त्र पर था।

मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था

      संपूर्ण प्राचीन विश्व में मौर्य साम्राज्य विशालतम साम्राज्य था और इसने पहली बार एक नए प्रकार की शासन व्यवस्था अर्थात केंद्रीयभूत शासन व्यवस्था की स्थापना की। अशोक के शासनकाल में यह केंद्रीय शासन व्यवस्था पितृवत निरंकुश तंत्र में परिवर्तित हो गई। अशोक ने अपने इस पितृवत दृष्टिकोण को इस कथन के द्वारा व्यक्त किया है कि “समस्त मनुष्य मेरी संतान हैं” यह कथन प्रजा के प्रति अशोक के दृष्टिकोण को व्यक्त करने वाला आदर्श वाक्य बन गया था।

 राजा का स्थान- 

मौर्य राजा अपनी दैवी उत्पत्ति का दावा नहीं करते थे फिर भी उन्हें देवताओं का प्रतिनिधि माना जाता था। राजाओं का उल्लेख ‘देवनाम्प्रिय’ (देवताओं के प्रिय) रूप में मिलता है। राजा सभी प्रकार की सत्ता का स्रोत एवं उसका केंद्रबिंदु, प्रशासन, विधि एवं न्याय का प्रमुख तथा सर्वोच्च न्यायाधीश था। वह अपने मंत्रियों का चुनाव स्वयं करता था उच्च अधिकारियों की नियुक्ति करता था और उनकी गतिविधियों पर नियंत्रण रखता था।

उस युग में पर्यवेक्षक और निरीक्षण की एक सुनियोजित प्रणाली थी। राजा का जीवन बड़ा श्रमसाध्य होता था तथा वह अपनी प्रजा के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए सदैव तत्पर रहता था। कौटिल्य के अनुसार एक आदर्शवादी शासक वह है जो अपने प्रदेश का निवासी हो (अर्थात देशीय हो) जो शास्त्रों की शिक्षाओं का अनुगमन करता हो, जो निरोग, वीर, दृढ़, विश्वासपात्र, सच्चा और अभिजात कुल का हो।

 केंद्रीय शासन व्यवस्था

अर्थशास्त्र में केंद्रीय प्रशासन का अत्यंत विस्तृत विवरण मिलता है। शासन की सुविधा के लिए केंद्रीय प्रशासन अनेक विभागों में बंटा हुआ था। प्रत्येक विभाग को ‘तीर्थ ‘ कहा जाता था। अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों के प्रधान पदाधिकारियों का उल्लेख है।

मंत्री और पुरोहित प्रधानमन्त्री तथा प्रमुख धर्माधिकारी।
समाहर्ता राजस्व विभाग का प्रमुख।
सन्निधाता राजकीय कोषाधिकरण का प्रमुख।
सेनापति युद्ध विभाग का मंत्री।
युवराज राजा का उत्तराधिकारी।
प्रदेष्टा फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश।
नायक सेना का संचालक।
कर्मान्तिक उद्योग-धन्धों का प्रधान निरीक्षक।
व्यवहारिक दीवानी न्यायालय का न्यायाधीश।
मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष मन्त्रीपरिषद का अध्यक्ष।
दण्डपाल सेना के लिए रसद पूर्ति का अधिकारी।
अन्तपाल सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक।
दुर्गपाल आन्तरिक दुर्गों का प्रबन्धक।
नागरक नगर का प्रमुख अधिकारी।
प्रशास्ता राजकीय दस्ताबेजों और राजाज्ञाओं को लिखने वाला।
दौवारिक राजमहल की देख-रेख वाला अधिकारी।
अन्तर्वशिक
सम्राट की अंगरक्षक सेना का प्रमुख तथा
आटविक वन विभाग का प्रमुख अधिकारी।

           

मौर्य शासन व्यवस्था नौकरशाही पर आधारित पूर्णतः एक नौकरशाही प्रशासन-तंत्र था, जिसका विभिन्न पदासीन अधिकारियों के माध्यम से संचालन किया जाता था। कौटिल्य ने कहा है– “जैसे एक पहिए से कोई वाहन नहीं चल सकता, ठीक वैसे ही एक व्यक्ति से प्रशासन कार्य नहीं चल सकता।”

साम्राज्य की शासन व्यवस्था के लिए निर्धारित सामान्य प्रशासन तंत्र की रचना निम्नलिखित तत्वों से मिलकर हुई थी—–

(1) राजा।

(2)  राज्य प्रमुख और राज्यपाल जो राजा के प्रतिनिधियों के रूप में प्रांतों में कार्य करते थे।

(3) मंत्री।

(4)  विभाग प्रमुख।

(5)  अधीनस्थ नागरिक (सिविल)सेवा और

(6)  ग्रामीण प्रशासन के प्रभारी अधिकारी।

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वैदिक काल में स्त्री की दशा,अपाला, घोषा, लोपामुद्रा

हड़प्पा सभ्यता एक ऐसी सभ्यता थी जिसमें नारी को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया था। उसके बाद भारत में वैदिक सभ्यता का उदय हुआ और यह सभ्यता एक पुरुष प्रधान सभ्यता थी। वैदिक काल में स्त्री की दशा,अपाला, घोषा, लोपामुद्रा , जहां देवी-देवताओं से सिर्फ पुत्र प्राप्ति की इच्छा की जाती थी। लेकिन इतना होने पर भी वैदिक काल नारी की दशा उतनी दयनीय नहीं थी जितनी आगे जाकर हो गयी। इस लेख में हम वैदिक काल की प्रमुख विदुषी महिलाओं के बारे में जानेंगे जिन्होंने वेदों की ऋचाओं की भी रचना की।
 वैदिक काल में स्त्री की दशा,अपाला, घोषा, लोपामुद्रा 

वैदिक काल में स्त्री की दशा

प्राचीन काल, मध्यकाल और वर्तमान काल तक महिलाओं की दशा के विषय में निरंतर चिंतन और मनन होता रहा है। परंतु इस विषय में अधिकांश विद्वान और ऋषि-मुनि रूढ़िवादी और पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित रहे। वर्तमान समय में जिस प्रकार महिलाओं के प्रति अत्याचार और  अपराध को देख कर मन में यही प्रश्न उठता है कि क्या भारत में सदा ही महिलाओं की स्थिति इतनी ही दयनीय और पीड़ादायक थी?

यद्यपि संविधान में महिलाओं को बराबर का दर्जा दिया गया है परंतु फिर भी भारत ही क्या समस्त विश्व में महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे की ही सोच दिखाई पड़ती है। यद्यपि परिस्थितियों में सुधार के भी अंश दिखाई देते हैं परंतु उनकी गति अत्यंत मंद है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या महिलाओं की स्थिति प्राचीन काल से ही ऐसी थी या मध्यकाल में अत्यंत दयनीय हुई या आधुनिक काल में ज्यादा दयनीय है?    

ऋग्वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति

 ऋग्वेद से यह ज्ञात नहीं होता कि सप्त सिंधु की आर्य- स्त्रियों की दशा उतनी हीन थी, जितनी कि आगे चलकर हो गई। यह ठीक है अब वह सामंतवादी व्यवस्था के अधीन नहीं थीं, जिसमें जन (पितृसत्ता के ) अवस्था के अधिकार सुलभ नहीं थे। शुद्ध जन- व्यवस्था में स्त्रियां हथियार लेकर लड़ सकती हैं। ईसा-पूर्व छठी शताब्दी में मध्य-एशिया के शकों में ऐसा ही देखा जाता था, जहां घुमंतू स्त्रियों ने कितनी ही बार हथियार उठाये। लेकिन, स्त्रियों का युद्ध में जाना आर्य बुरा समझते थे।

शम्बर के पहाड़ी लोग जन अवस्था में थे, उनके लिए स्वभाविक था, कि दिवोदास के साथ उनका जो जीवन-मरण का संघर्ष चल रहा था, उसमें पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी शामिल हों। पर आर्य ऋषियों ने “अबला क्या करेगी” कह कर इसका उपहास किया था ( बभ्रु की एक ऋचा -५।३०।९ में है—–“दास ने स्त्रियों को आयुध ( हथियार) बनाया।” इस पर इन्द्र ने कहा— “इसकी अबला सेना मेरा क्या करेगी?”) 

स्त्रियों के लिए अबला शब्द का प्रयोग शायद यहीं सर्वप्रथम हुआ , जिससे ध्वनित होता है, कि स्त्रियों में योद्धा होने की योग्यता नहीं है। इस प्रकार आर्य-स्त्रियों के संग्राम में खुलकर भाग लेने की संभावना सप्तसिन्धु में नहीं थी। वैसे अपवाद के तौर पर स्त्रियों ने कभी अपने हाथ दिखाये हों, तो दूसरी बात है।

युद्ध बाद सबसे महत्व था ऋचाओं ( पदों ) की रचनाओं, जिसके कारण उन्हें ऋषि, ऋषिका कहा जाता । ऋषिकाओं की संख्या ऋग्वेद में दो दर्जन से कम नहीं हैं । पर विश्लेषण करने पर उनमें से अधिकांश को मानुषी नहीं कल्पित ही देखा जाता है। केवल घोषा और विश्ववारा को ही ऐतिहासिक ऋषि माना जा सकता है।

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