Coins of Kanishka

The Kushan period has a special significance in the circulation of coins in India. Although the Yavana kings introduced gold coins in northwest India, the credit for their regular and complete circulation goes to the Kushan kings only. India’s relations with Rome and other Western countries became very strong during the Kushan period due to … Read more

History of Ancient Nalanda – World’s first University

When most of the countries of the world were passing through the era of civilization and culture, then India had made its own identity in the world in the field of education. ‘The world’s first university – History of Nalanda’ It was situated near the modern village named Badgaon in the south of Patna (Bihar), … Read more

मगध का प्राचीन इतिहास: राजनीतिक व्यवस्था, प्रमुख राजवंश और शासक

वैदिक आर्यों ने भारत में जिस संस्कृति को जन्म दिया उसका स्वरूप कबीलाई था। समय के साथ कृषि का विकास हुआ और आर्थिक महत्व बढ़ता गया। हमें भलीभांति ज्ञात है कि वैदिक काल में गायों को लूटने के लिए अनेक बार कबीले आपस में लड़े। धीरे-धीरे कबीले जन में बदलते गए और अब गायों का … Read more

उत्तर वैदिक काल: राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक जीवन

हड़प्पा सभ्यता के अवशेषों पर पनपी वैदिक सभ्यता जिसने एक नई प्रकार की सांस्कृतिक विरासत को जन्म दिया। वैदिक सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता और संस्कृति पर आधारित थी जिसमें काल्पनिक देवी-देवताओं की स्तुति को प्रमुख स्थान दिया गया था। इस ब्लॉग के माध्यम से हम ऋग्वैदिक काल ( 1500-1000 ईसा पूर्व ) अथवा पूर्व वैदिक … Read more

ऋग्वैदिककालीन राजा सुदास और दाशराज्ञ युद्ध

ऋग्वैद में दस राजाओं के एक संघ और राजा सुदास के बीच युद्ध का वर्णन आया है, जिसमें राजा सुदास ने दस राजाओं के इस संघ को पराजित कर भारत में एक चक्रवर्ती राज्य की स्थापना की। ‘ऋग्वैदिककालीन राजा सुदास और दाशराज्ञ युद्ध’ के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए इस लेख को लिखा गया है ताकि हम अपने सबसे प्राचीन राजा के विषय में विस्तार से जान सकें। अपने प्राचीन सांस्कृतिक गौरव की तथ्यपरक जानकारी होना प्रत्येक नागरिक के लिए अपेक्षित है।

ancient history of india

ऋग्वेद का काल

ऋग्वेद का काल बहुत पुराना है और उसकी गणना में बहुत से विद्वान भिन्न-भिन्न राय रखते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, ऋग्वेद का समय 1500 ईसा पूर्व से लेकर 1200 ईसा पूर्व तक था। यह वह समय है जब भारत की धर्म और संस्कृति का निर्माण हो रहा था और इस समय ऋग्वेद के मन्त्र लिखे गए थे। इस समय को ऋग्वैदिक काल के रूप में जाना जाता है।

कौन था राजा सुदास

इतिहास में ऐसे विरले ही उदाहरण प्राप्त होते हैं जब एक महाप्रतापी राजा के बाद उसका पुत्र उससे भी अधिक प्रतापी हो। ऋग्वैदिककालीन राजा सुदास अपवाद रूप से ऐसा ही प्रतापी पुत्र था, जिसने अपने पिता दिवोदास की सफलताओं को बहुत आगे बढ़ाया। दिवोदास जिसने पहाड़ के दस्युओं के संकट को नष्ट करके सप्तसिंधु को आर्यों के लिए सुरक्षित ही नहीं कर दिया, बल्कि हिमालय की समृद्ध चरागाहों और उपत्यकाओं, उसकी खानों का रास्ता भी खोल दिया, और सिंधु से सरस्वती तक के आर्य-जनों में एकता स्थापित करके उसे एक राज्य का रूप दे दिया। लेकिन सारे आर्यजन इसके लिए तैयार नहीं थे, इसलिए दिवोदास के मरते ही उन्होंने हर जगह विद्रोह कर दिया। इसके लिए राजा सुदास को अपने पिता से भी अधिक संघर्ष करना पड़ा।

सुदास और दासराज्ञ युद्ध के सम्बन्ध की बहुत-सी ऐतिहासिक सामग्री ऋग्वेद में मिलती है। वशिष्ठ ऋषि का एक पूरा सूक्त ( 7|18 ) इसी के वर्णन में है। त्रित्सु जन भी पहले विरुद्ध था। त्रित्सु-भरत के वैभव के लिए ही उसने संघर्ष किया था। पृथु और पर्शु जन भी उसके सहायक थे। पृथु और पर्शु नाम के जन ईरानियों में भी मिलते हैं। इससे यह नहीं समझना चाहिए, कि वैदिक पृथु-पर्शु पीछे ईरान में देखे जाने वाले पर्सियन  और पार्थियन जन हैं। ईरानी और सप्तसिंधु के आर्य एक ही वंश की दो शाखाएं थीं। दोनों के एक जगह रहने के समय प्राचीन पृथु-पर्शु जन के ही कुछ लोग ईरान गए गए, और कुछ सप्तसिंधु में आए यह असंभव नहीं है। 

सुदास के सहायकों में भरतों के पुराने पुरोहित दीर्घतमा की संताने भी थीं। भारद्वाज की संतानों को यद्यपि सुदास के समय पुरोहित (मंत्री) पद से वंचित किया गया,  किंतु उन्होंने सुदास के शत्रुओं  का साथ दिया हो, ऐसा कोई वृतांत नहीं मिलता। वशिष्ठ तो युद्ध के मुख्य सूत्रधार थे, और शायद उनके संबंधी जमदग्नि भी उनके साथ रहे। विश्वामित्र ने पीछे वशिष्ठ का स्थान ग्रहण किया, दासराज्ञ युद्ध में वह और उनका जन कुशिक सुदास का सहायक था।

दस राजाओं का संघ

दस राजा शत्रु थे, लेकिन उसका यह अर्थ नहीं, कि शत्रुओं की संख्या केवल दस ही थी। मुख्य शत्रु दस थे । लेकिन इनकी संख्या ऋग्वेद में नहीं दी गई है। विद्वानों का भी इसमें मतभेद है। तो भी दस प्रमुख शत्रुओं में 

1- तुर्वश, 2- यदु, 3- अनु, 4- द्रुह्यु 5-पुरु ( प्रमुख शत्रु), 6- शिम्यु, 7- कवष ( कुरुश्रमण का पुरोहित ), 8-भेद , 9-10, दो वैकर्ण रहे होंगे। 

तुर्वश और यदु के पुरोहित कण्व थे, एवं द्रुह्यु के भृगु ( गृत्समद ), पुरु के अत्रि। इनके भी अपने यजमानों के साथ होने की अधिक सम्भावना है। इसमें भी कोई अचरज नहीं कवष के कारण उनका यजमान कुरुश्रमण भी सुदास के विरोध में सम्मिलित हो गया हो। तुर्वश-यदु ने एक बार मत्स्यों पर आक्रमण किया था, लेकिन मत्स्य अब अपने शत्रुओं के साथ मिलकर सुदास के विरोध में थे। इस प्रकार (11 ) मत्स्य दस की सूची से बाहर के शत्रु थे।  12- पक्थ ( पख्तून ), 13- भलानस,  14- अलिन, 15- विषाणी, 16- अज, 17- शिव, 18- शिग्रु, 19- यक्षु , ये सभी किसी न किसी समय शत्रु थे। 

युध्यामधि, चायमान कवि, सतुक, उचथ, श्रुत, वृद्ध, मन्यु के नाम भी आते हैं, जो भी सुदास के विरुद्ध इस संघर्ष में शामिल हुए थे। 

वसिष्ठ पुरोहित 

भरद्वाज दिवोदास के समय बहुत प्रभावशाली थे, लेकिन सुदास के समय दाशराज्ञयुद्ध-विजय के समय वसिष्ठ उनसे भी अधिक प्रभाव रखते थे। वसिष्ठ स्वयं को भरतों ( सुदास जन ) का विधाता मानते थे।  वह कहते हैं ( 7 | 33 | 6 )– “गौ की तरह भरत पहले दंड से भयभीत अ-जन, ( अनाथ ) बच्चे से थे, इसमें पहले ( जब ) कि वसिष्ठ उनके पुरोहित हुए।  फिर त्रित्सुओं ( भरतों ) की प्रजा खूब बढ़ी।”  दुर्मित्र ( त्रित्सु ) सुदास के अपने जन युद्ध में भागने के लिए मजबूर हुए, और उन्होंने सारा धन ( भोजन )  सुदास को प्रदान किया ( 7 | 18 | 14 ) ।”  सारे  भोजन के देने की बात का उल्लेख फिर (17 ) वसिष्ठ करते हैं।

भरद्वाज के कुल वालों ने शरीर से भी दिवोदास की सहायता की थी। उस वक़्त अभी श्रुवा और असि का बँटवारा नहीं हुआ था, और न असि उठाने का काम किसी एक वर्ग के हाथ में दे दिया गया था।वसिष्ठ के लोग सुदास के लिए खुलकर लड़े थे, जिसके लिए ऋषि ने स्वयं उन्हें प्रेरित किया था ( 7 | 33 | 1-3 ) — “मेरे गोरे, दक्षिण ओर चूड़ा बांधने वाले प्रसन्न हो, मैं उठकर कहता हूँ, कि तुम मुझसे दूर न रहो” फिर सुदास की सफलता में अपने कुल वालों की सहायता का उल्लेख करते हैं (3 )–“कौन इस प्रकार नदी पार हुआ है, किसने इस प्रकार भेद को मारा, किसने इस प्रकार दाशराज्ञ में सुदास की रक्षा की ? वसिष्ठ को, तुम्हारी वाणी से इंद्र ने रक्षा की।” 

सिर पर सारे केश को रखना प्राचीनकाल से मुसलामानों के आने के समय तक हमारे यहां ( भारत में ) प्रचलित था। उसे बहुत सजाकर जूड़े की की शक्ल में बाँधा जाता था। चूड़ा ( जूड़ा ), अलग-अलग जनों की अलग -अलग ढंग से बाँधी जाती थी। वसिष्ठ कुल के लोग लोग सिर के दाहिनी ओर बांधते थे, इसीलिए उन्हें “दक्षिणतः कपर्दा” ( दाहिने जूड़ा वाले ) कहा गया है।

ईस्वी सन के आरम्भ होने के करीब तक स्त्रियां भी पगड़ी बांधती थीं। वैदिक नारियां भी उसे बांधती होंगी।  ऐसा होने पर वसिष्ठ के कुल की स्त्रियां भी दक्षिणतः : कपर्दा रही होंगी। कुमारियाँ चार-चार कपर्द बांधती थीं।   ( 10 | 114 | 3 ) उन्हें चतुष्कपर्दा कहते थे। यहाँ कपर्द से जूड़ा नहीं, बल्कि चोटी अभिप्रेत हो सकती है — शायद दो कपर्द कानों के पास से सामने लटकते थे, और दो पीछे की ओर।

सुदास  का कोई भाई प्रतर्दन भी था। यद्यपि ऋचाओं में इसके लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता। कुछ वेद विशेषज्ञों का मानना है कि प्रतर्दन बड़ा लड़का था, जिसे भरद्वाज ने पिता की गद्दी पर बैठाया। पर, मनस्वी सुदास इसे बर्दास्त नहीं कर पाया, अथवा वह योग्य पिता का योग्य पुत्र नहीं था।, और दिवोदास की सफलताओं को अक्षुण्ण नहीं रख सकता था।

असंतुष्ट लोगों ने सुदास का पक्ष लिया, जिमें वसिष्ठ मुख्य थे।  वसिष्ठ ने सुदास का अभिषेक करके उसे भरतों का राजा घोषित किया। दोनों भाइयों में लड़ाई हुई, सम्भवतः इस लड़ाई में प्रतर्दन मारा गया, और जिस तरह समुद्रगुप्त की गद्दी बैठ अपने बड़े भाई रामगुप्त को मारकर चन्द्रगुप्त विक्रमाद्तीय बन बैठा, वैसे ही सुदास भरतों का अधिराज हुआ। ऐसा मानने पर त्रित्सुओं के साथ आरम्भ सुदास के संघर्ष की व्याख्या हो जाती है। 

सुदास 

वसिष्ठ सुदास ने दान दिये, जिनका उल्लेख वसिष्ठ ने स्वयं किया है ( 7 | 18 | 22-23 ) – “देवता के नाती सुदास ने वधुओं के साथ दो रथ और दो सौ गायें मुझे दीं। हे अर्हन ( पूजनीय ) अग्नि, पैजवन ( सुदास ) के  दान को पा होता की तरह मैं स्तुतिगान करता घर जा रहा हूँ।” “पैजवन ( सुदास ) ने  सोने के आभूषण वाले चार घोड़े मेरे लिये दान दिये ( 23 )।” 

दिवोदास का पुत्र सुदास था, इस पर कुछ विद्वान संदेह प्रकट करते हैं, जिसकी वसिष्ठ के इस वचन ( 7 | 18 | 24 ) से गुंजाइश नहीं रहती — “हे मरूतो, पिता दिवोदास की तरह सुदास की सहायता करो ( दिवोदास न पितरं ) । और पैजवन के घर की रक्षा करो।” वशिष्ठ सुदास के ही श्रद्धाभाजन नहीं थे, बल्कि पौरूकत्सि त्रसदस्यु भी उनकी कृपा का पात्र था, इसीलिए वह इंद्र की महिमा गाते कहते हैं ( 7 | 19 | 3 )– “तुमने सुदास की साड़ी रक्षाओं से रक्षा की, युद्ध में पौरूकत्सि त्रसदस्यु की रक्षा की।” इससे यह संदेह हो सकता है, कि त्रसदस्यु सुदास से नहीं लड़ा, पर यह भिन्न समय की बात हो सकती है।वसिष्ठ कहते हैं —

   “इंद्र, हवि-दाता दानी सुदास के लिये वह भोजन अन्न-धन सदा है ( 7 | 19 | 6 )।”

    “इंद्र ने सुदास के लिये लोक बनाया, धन दिया ( 7 | 20 | 2 )।”

   “इंद्र, तुम्हारी सैकड़ों रक्षाएं और सहस्रों प्रशंसायें सुदास के लिए हो( 7 | 25 | 3 ) ।” 

   “सुदास के रथ को न कोई हटा सकता, न रोक सकता है, जिसका कि रक्षक इंद्र है। वह गौओं-वाले व्रज में जाता है ( 7 | 32 | 10 ) ।” 

   “हे इंद्र-वरुण, दास और आर्य शत्रुओं को मारो, सुदास की रक्षा करो।”

वशिष्ठ के कथन से ( 7 | 83 | 1 ) पता लगता है, कि इन्द्र-वरुण की कृपा प्राप्त पृथु और पर्शु गायों के ( लूटने के ) लिये पूर्व दिशा में गये। “तुमने दासों और वृत्रों को मारा, आर्य शत्रु को मारा और सुदास की रक्षा की।”  पहले जिन शत्रुओं के विरुद्ध ऋषि अपने देवताओं से प्रार्थना करते थे, वह दस्यु थे, किन्तु अब आर्य और दस्यु दोनों के नाश के लिये उन्हें प्रार्थना करनी पड़ी। सुदास के शत्रु तो मुख्यतः आर्य ही थे। 

दाशराज्ञ युद्ध 

1-शत्रु- 

शम्बर युद्ध की तरह दाशराज्ञ युद्ध भी कोई एकाध साल का संघर्ष नहीं था। इसमें सुदास का लम्बा समय लगा था। वसिष्ठ कहते हैं ( 7 | 83 | 6-7 )—“इंद्र-वरुण ने दस राजाओं से बाधित सुदास की त्रित्सुओं के साथ रक्षा की।” इसका अर्थ यह है कि त्रित्सुओं के साथ जो गृह-कलह हुआ था, अब शांत हो गया था, एवं दस राजाओं ने सुदास और उसके त्रित्सुजन  को पराजित करने का प्रयास किया था। अगली ऋचाओं में वसिष्ठ कटे हैं, कि अ-यज्ञकर्ता, अ-भक्त दस राजाओं ने इकठ्ठा हो ( समिता ) सुदास से युद्ध किया।”समिता” का अर्थ एकत्रित होना है, या समितौ ( युद्धक्षेत्र ) में  लड़ने की बात यहाँ की गई है।

सुदास के शत्रुओं में तुर्वश और यदु मुख्य थे। वसिष्ठ के कहने से ( 7 | 18 | 6-8 ) पता लगता है कि “तुर्वश, मत्स्य, भृगु और द्रह्यु ने मिलकर एक-दूसरे का सहायक बन आक्रमण किया।” अगली दो ऋचाओं ( 7,8 ) से मालूम होता है कि पक्थों, भलानसों, अलिनों, विषाणियों, शिवों ने भी आक्रमण  किया था, जिसमें आर्य की गायें त्रित्सुओं को मिलीं। दुर्दांत, बुरी नियत वाले शत्रुओं ने परुष्णी को लिया, पर अंत में चयमान का पुत्र कवि पृथ्वी पर गिर पड़ा।

परुष्णी में शत्रुओं को मुंह की खानी पड़ी, और सुदास ने उनको छिन्न-भिन्न कर दिया , एक अन्य दूसरे स्थान पर इसी युद्ध के विषय में वसिष्ठ कहते हैं ( 7 | 83 | 8 ) –“दाशराज्ञ में सब तरफ से घिरे सुदास को इंद्र-वरुण ने सहायता की।युद्ध में कपर्द वाले सफ़ेद त्रित्सु प्रार्थना करते थे।”

विश्वामित्र ने व्यास और सतलुज को अगाध से गाध बनने के लिए ऐसी सुन्दर प्रार्थना की है, जिसे ऋग्वेद की सर्वोत्कृष्ट कविता कह सकते हैं। परन्तु, नदियों को गाध बनाने का दवा वसिष्ठ भी करते हैं। नदियां ऋषि की प्रार्थना से गाध न हुईं हों। संयोग से वैसा हो जाना असम्भव नहीं। शत्रुओं का पीछा करते सुदास के घुड़सवारों ने कहीं पर नदी में काम पानी पाया होगा। यह घटना दाशराज्ञ युद्ध के समय हुयी थी, अतः वसिष्ठ को ही इसका श्रेय देना पड़ेगा।

वसिष्ठ इसके विषय में कहते हैं ( 7 | 18 | 5 )–“इंद्र ने सुदास के लिए नदियों को गाध और सुपारा कर दिया।” इसके बाद ही तुर्वश, मत्स्य, भृगु, द्रुह्यु आदि के ऊपर प्रहार और चायमान कवि के मारे जाने का उल्लेख है। इससे यही जान पड़ता है, कि जिस नदी को पार करके सुदास ने शत्रुओं पर आक्रमण किया था, शत्रुदि और विपाश नहीं, बल्कि परुष्णी ( रावी ) थी। दोनों वैकर्णों के 21 लोगों को राजा ( सुदास ) ने काटा, वैसे ही जैसे ऋत्विज यज्ञ में कुश को काटता है। ( 7 | 18 | 11-14 ) यही नहीं बल्कि वहीँ (12 ) उल्लेख हैं, कि  वज्रबाहु ( इंद्र ) ने श्रुत कवष, वृद्ध और द्रुह्यु को पानी में डूबा दिया।

जान पड़ता है, परुष्णी ( रावी ) को पर कर शत्रुओं ने एक बार भरतों की भूमि ( रावी और सतलुज के बीच का द्वाव ) में आने में सफलता प्राप्त की थी। सुदास ने उनके ऊपर जो भीषण आक्रमण किया, उससे भागते शत्रुओं के कितने ही लोग नदी में डूबकर मर गए। सुदास ने किसी जगह नदी को सुपार पा उसे पार कर शत्रुओं का पीछा किया। वसिष्ठ के आगे के वचन (13 ) से यह पता चलता है, कि सुदास ने अपने शत्रुओं के सात-दुर्गों को ध्वस्त किया।  उनकी बहुत सी सम्पत्ति त्रित्सुओं को मिली।  इस युद्ध में भारी नर-संहार हुआ था—“आक्रमणकारी अनु और द्रुह्यु के साठ सौ, छः हज़ार, छियासठ वीर मर क्र सो गए। “

सुदास का सबसे बड़ा युद्ध यही दाशराज्ञ युद्ध था, जिसमें उसने अपने शत्रुओं को बुरी तरह से हरा कर परुष्णी ( रावी ) के पश्चिम भगाते उनके देश पर आक्रमण किया। 

वसिष्ठ सुदास के शत्रु भेद का भी  उल्लेख ( 7 | 18 | 18 ) करते सुदास की सफलता का श्रेय इंद्र को देते हुए कहते हैं–“इंद्र, तुम्हारे बहुत से शत्रु पराजित हो गये। अब अश्रद्धालु भेद को बस में करो। जो ( कोई ) तुम्हारी स्तुति करता है उसको यह हानि पहुंचता है। उसे वज्र से मारो।” भेद नाम आर्य जैसा मालूम नहीं होता, हो सकता है, दाशराज्ञ युद्ध  को फंसा और निर्बल देख कर इस नाम के किसी राजा या जन के किसी राजा या जन के हाथ-पैर फ़ैलाने  की कोशिश की हो। 

इन सफलताओं के बाद सुदास की कीर्ति का बढ़ना स्वाभविक था।  वसिष्ठ ने भी  कहा है ( 7 | 18 | 24-25 ) — “जिस ( सुदास ) की कीर्ति पृथ्वी-आकाश के भीतर विस्तृत है, जिसने खूब दान बांटा है, लोग जिसकी स्तुति इंद्र तरह करते हैं, जिसने युद्ध में युधयामधि को नष्ट किया मरुत इस सुदास को पिता दिवोदास की तरह मानें।  पैजवन निकेत की रक्षा करें, सुदास का  बल अविनाशी अजर तथा अशिथिल हो।”

Read more

HISTORY GK-important questions and answers for tgt,pgt history

इस ब्लोग्स में हम TGT और PGT परीक्षा में आने वाले संभावित प्रश्नों की एक हल प्रश्नोत्तरी लेकर आये हैं। हड़प्पा सभ्यता से सम्बंधित इम्पोर्टेन्ट प्रश्न जो अधिकांश प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाते हैं उन्हीं प्रश्नों को इस ब्लोग्स में हल किया गया है। 

 

GK HISTORY

 

HISTORY GK

हड़प्पा सभ्यता से संबंधित इम्पोर्टेन्ट प्रश्नोत्तरी 

(1)- वह प्रमुख हड़प्पाकालीन नगर जहाँ विशाल एवं भव्य  नगर-द्वार पाए गये। 

A-कालीबंगा 

B-धौलावीर 

C-सुरकोटड़ा 

D-उपर्युक्त (b) एवं (c) दोनों

 

(2) – हड़प्पा सभ्यता के सबसे अधिक संभावित प्रणेता कौन थे?

A-सुमेरियाई 

B-द्रविड़ अथवा भूमध्यसागरीय

C-आर्य 

D-ऑस्ट्रेलॉयड। 

 

(3) – हड़प्पाकालीन लोग वैदिक आर्यों से भिन्न और उनके पूर्ववर्ती थे, इस विचार के समर्थन में निम्नलिखित कौन-सा तर्क सही नहीं है :

A-आर्यों का नृवंशीय स्वरूप मोहनजोदड़ो के चार नृवंशीय ऑस्ट्रेलॉयड, भूमध्यसागरीय, मंगोलियन अल्पाइन समूहों से भिन्न था। 

B-आर्य पशुपालन और कृषि पर आधारित जीवन व्यतीत करते थे, जबकि हड़प्पाकालीन लोग अत्यधिक संगठित नगरीय जीवन बिताते थे। 

C-हड़प्पाकालीन लोगों का भोजन पूर्णतः शाकाहारी था, जबकि आर्य मांस और मछली भी खाते थे।

D-वैदिक आर्यों को सम्भवतः लोहे और सुरक्षात्मक कवच का ज्ञान था जबकि हड़प्पा सभ्यता में इसका पूर्णतः अभाव था। 

 

(4)- हड़प्पा सभ्यता के पतन के लिए सबसे संभावित कारण कौन-सा है?

 

A-सिंधु और रावी नदियों के  जल-मार्ग में विनाशकारी परिवर्तनों के कारण विध्वंसकारी बाढ़ें आई। 

B-विदेशी आक्रमण 

C-कृषि संबंधी उत्पादन में गिरावट 

D-उपर्युक्त किसी एक अथवा सभी कारणों से लोग अन्यत्र चले गए।

 

(5)- विभिन्न हड़प्पाकालीन स्थलों के उत्खनन से पता चलता है कि प्रत्येक समकालीन नगर के धार्मिक विश्वासों में कुछ-कुछ भिन्नता थी। लोथल और कालीबंगा के धार्मिक विश्वासों में क्या समानता थी?

A- मातृदेवी की पूजा 

B- अग्नि-पूजा

C- वृक्ष-पूजा 

D- पशु-पूजा 

 

(6) – ईरान की सीमा के समीप स्थित हड़प्पाकालीन स्थल का नाम :

A-सुरकोटड़ा 

B-सुक्तागेंडोर

C-कोटला निहंगखान 

D-आलमगीरपुर 

 

(7)- निम्नलिखित कारण से हड़प्पा सभ्यता विश्व की अन्य समकालीन सभ्यताओं से भिन्न है :

A-धार्मिक आस्थाएं और सामाजिक जीवन 

B-विज्ञान और प्रोद्योगिकी का विकास 

C-नगर-योजना, जल-निकासी और सफाई व्यवस्था

D-एक समान तौल एवं माप प्रणाली तथा वाणिज्य संबंध 

 

(8)- निम्नलिखित कौन-सी सभ्यता सिंधु अथवा हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थी :

A-मिस्र 

B-मेसोपोटामिया 

C-सुमेर 

D-यूनानी

 

(9) – हड़प्पाकालीन लोगों के आभूषण किस धातु/वस्तु से निर्मित नहीं किए जाते थे?

A-स्वर्ण और चाँदी 

B-हाथी-दाँत और हड्डियां 

C-ताम्र और बहुमूल्य पत्थर 

D-स्वेत धातु और मिश्रित धातु

Read more

सोलह महाजनपद: इतिहास और विस्तार | Sixteen Mahajanapadas: History and Expansion in Hindi

भारत के सांस्कृतिक इतिहास का प्रारम्भ अति प्राचीन काल में हुआ किन्तु उसके राजनीतिक इतिहास का प्रारम्भ अपेक्षाकृत बहुत बाद  में हुआ। राजनैतिक इतिहास का प्रारम्भ तब से माना जाता है जहां से सुनिश्चित तिथिक्रम प्रारम्भ होता है, इस दृष्टि से भारत के राजनैतिक इतिहास का प्रारम्भ ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी के मध्य ( 650 … Read more

जैन धर्म: इतिहास और उसकी शिक्षाएं हिंदी में | History of Jainism in Hindi

प्रारम्भ में जैन धर्म को बौद्ध धर्म की एक शाखा मात्र माना जाता था किंतु बाद में विद्वानों ने इस बात का पता लगाया कि जैन धर्म बौद्ध धर्म की शाखा न होकर स्वयं में एक स्वतंत्र धर्म है।  दोनों मतों को एक इसलिए समझा गया क्योंकि दोनों कर्म और अहिंसा के समर्थक थे।  इसी … Read more

वैदिक कालीन ग्रन्थ: जानिए अपने सबसे प्राचीन ग्रंथों को, वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद, आरण्यक, वेदांग

भारत का प्राचीन साहित्य-वैदिक कालीन ग्रन्थ विश्व में सबसे प्राचीन है। ‘जानिए अपने सबसे प्राचीन वैदिक कालीन ग्रन्थ को वेद, ब्राह्मण, उपनिषद, आरण्यक, वेदांग’ जब विश्व के अधिकांश देश लेखन कला से परिचित भी नहीं थे हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि वेदों की रचना कर चुके थे यद्यपि यह पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होते … Read more