सिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था

सिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था | Sindhu Ghaati Sabhyta Ki Nagar Vyavastha

Share This Post With Friends

Last updated on April 19th, 2023 at 06:31 pm

संपूर्ण विश्व में सिंधु सभ्यता जैसी नगर योजना अन्य किसी समकालीन सभ्यता में नहीं पाई गई है। सिंधु सभ्यता के नगर पूर्व नियोजित योजना से बसाये गए थे। सिंधु सभ्यता की  नगर  योजना को देखकर विद्वानों को भी आश्चर्य होता है कि आज भी हम उस सभ्यता का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हम अपने आपको आज भी पिछड़ा हुआ ही पाते हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था | Sindhu Ghaati Sabhyta Ki Nagar Vyavasthaसिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था

नगरीय सभ्यता के जो प्रतीक होते हैं, और नगर की विशेषताएं होती हैं जैसे– आबादी का घनत्व, आर्थिक एवं सामाजिक प्रक्रियाओं में घनिष्ठ समन्वय, तकनीकी-आर्थिक विकास, व्यापार और वाणिज्य के विस्तार एवं प्रोन्नति के लिए सुनियोजित योजनाएँ तथा दस्तकारों और शिल्पकारों के लिए काम के समुचित अवसर प्रदान करना आदि।

विषय सूची

हड़प्पा कालीन नगर योजना को इस प्रकार से विकसित किया गया था कि वह अपने नागरिकों के इन व्यवसायिक, सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम थी। हड़प्पा सभ्यता का नगरीकरण इसकी विकसित अवस्था से जुड़ा है अनेक विद्वानों ने हड़प्पा कालीन नगरीकरण को ‘नगरीय क्रांति’ की संज्ञा दी है, जिसका किसी शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता, विशिष्ट आर्थिक संगठन एवं सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के बिना विकास नहीं हो सकता था।

हम वर्तमान नगरीकरण के संदर्भ में सिंधु सभ्यता की नगरीय विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन करके वर्तमान के लिए विकास का मार्ग तैयार कर सकते हैं। जब हम देखते हैं कि आज भी भारत के बड़े-बड़े नगरों में बरसात के दिनों में जलभराव के कारण संकट उत्पन्न हो जाता है तब हमें धौलावीरा जैसे हड़प्पायी नगरों की याद आती है जहां वर्षा के पानी को एकत्र करने के विशिष्ट इंतजाम किए गए थे और हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो जैसे नगरों में जल को शहर से बाहर निकालने के लिए सुनियोजित नालों को तैयार किया गया था। आइए देखते हैं उस समय की नगरीय व्यवस्था किस प्रकार की थी–

सिंधु सभ्यता की नगरीय व्यवस्था

सिंधु सभ्यता के बड़े नगरों एवं कस्बों की आधारभूत संरचना एक व्यवस्थित नगर योजना को दर्शाती है। सड़कें और गलियां एक योजना के तहत निर्मित की गई थीं। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हैं तथा उनको समकोण पर काटती सड़कें और गलियां मुख्य मार्ग को विभाजित करती हैं

 सिंधु सभ्यता के नगर सुविचार इत एवं पूर्व नियोजित योजना से तैयार किए गए थे। गलियों में दिशा सूचक यंत्र भी लगे हुए थे जो मुख्य मार्गो तथा मुख्य मार्ग  से जाने वाली छोटी गलियों को दिशा सूचित करते थे।

 सड़कें और गलियां  9 से लेकर  34 फुट चौड़ी थीं और कहीं-कहीं पर आधे मील तक सीधी चली जाती थी। ये मार्ग समकोण पर एक-दूसरे को काटते थे जिससे नगर वर्गाकार या आयताकार खंडों में विभाजित हो जाते थे। इन वर्गाकार या आयताकार खंडों का भीतरी भाग मकानों से भरी गलियों से विभाजित था।

 मोहनजोदड़ो की हर गली में सार्वजनिक कुआं होता था और अधिकांश मकानों में निजी कुऍं और स्नानघर होते थे। सुमेर की भांति सिंधु सभ्यता के नगरों में भी भवन कहीं भी सार्वजनिक मार्गों का अतिक्रमण करते दिखाई नहीं पड़ते।

 मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, सुरकोटड़ा जैसे कुछ महत्वपूर्ण नगर दो भागों में विभाजित थे—-

1- ऊंचे टीले पर स्थित प्राचीन युक्त बस्ती जिसे नगर-दुर्ग कहा जाता है। तथा

2- इसके पश्चिम की ओर के आवासीय क्षेत्र को निचला नगर कहा जाता है। 

   हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा और सुरकोटड़ा में नगर-दुर्ग का क्षेत्रफल निचले नगर से कम था और वह हमेशा इसके पश्चिम में स्थित होता है।

मोहनजोदड़ो के नगर-दुर्ग में पाए गई भव्य इमारतें जैसे– विशाल स्नानागार, प्रार्थना-भवन, अन्नागार एवं सभा-भवन पकाई गई ईंटों से बनाए गए थे।

हड़प्पा को सिंधु सभ्यता की दूसरी राजधानी माना जाता है। यहां के नगर-दुर्ग के उत्तर में कामगारों (दस्तकारों) के आवास, उनके कार्यस्थल (चबूतरे) और एक अन्नागार था। यह पूरा परिसर यह दिखाता है कि यहां के कामगार बड़े अनुशासित थे।

राजस्थान में विलुप्त सरस्वती (घग्गर) नदी के बाएं तट पर स्थित कालीबंगा की नगर योजना वैसी ही थी जैसी कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की थी अर्थात पश्चिम दिशा में नगर-दुर्ग एवं पूर्व दिशा में निचला नगर। अर्थात नगर-दुर्ग के दो समान एवं सुनिर्धारित भाग थे—

 प्रथम भाग- दक्षिणी भाग में कच्ची ईंटों के बने विशाल मंच या चबूतरे थे जिन्हें विशेष अवसरों के लिए बनाया गया था।

द्वितीय भाग- उत्तरी भाग में आवासीय मकान थे।

कालीबंगा  

कालीबंगा में निर्मित चबूतरों के चारों ओर सुव्यवस्थित रास्ते बने हुए थे। इन चबूतरों के ऊपर एवं आसपास के निर्माण कार्य– स्नान-पथ, कुआं तथा चिकनी मिट्टी से बनी अग्निवेदियां देखकर सहसा ही अनुष्ठानिक अथवा पूजा-पाठ का आभास होता है।  कालीबंगा से एक पक्की ईंटों से निर्मित ऐसी अग्नि वेदी मिली है जिसमें एक आयताकार कुंड बना हुआ था। अग्निकुंड से हिरण के सींग एवं पशुओं की हड्डियां मिली हैं जिनसे स्पष्ट पता चलता है कि यहाँ पशुबलि की प्रथा प्रचलित थी।

कालीबंगा नगर एक प्राचीर युक्त नगर था। प्राचीर कच्ची ईंटों से बनी थी। इस प्राचीर में दो मुख्य द्वार बने थे– उत्तरी दिशा वाला द्वार नदी की ओर तथा पश्चिमी दिशा का द्वार नगर की ओर जाता था। कालीबंगा की सड़कों एवं गलियों को एक समानुपातिक ढंग से बनाया गया था। गलियां 1.8 मीटर चौड़ी थी जबकि सड़कें इस चौड़ाई के गुणांक में 3.6, 5.4 और 7.2 मीटर चौड़ी थी।

 सुरकोटड़ा 

सुरकोटड़ा  की नगर योजना भी हड़प्पा मोहनजोदड़ो एवं कालीबंगा के समान ही थी अर्थात नगर-दुर्ग पश्चिम की ओर एवं निचला नगर पूर्व की ओर स्थित था, परंतु यहां नगर दुर्ग एवं निचला नगर आपस में जुड़े हुए थे। कालीबंगा के समान यहां भी नगर-दुर्ग और निचला नगर प्राचीरयुक्त (नगर चारों ओर से एक दीवार से घिरे ) थे। नगर दुर्ग एवं निचला नगर में आने जाने के लिए दरवाजे बनाए गए थे। निर्माण के लिए कच्ची ईंटों के अतिरिक्त पत्थर की रोड़ी का प्रयोग किया गया था जो आसपास के क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी। 

धौलावीरा 

 धौलावीरा  की मुख्य विशेषता उसका तीन मुख्य भागों में विभाजित होना है जबकि अन्य समकालीन नगर दो ही भागों में विभाजित थे- अर्थात नगर-दुर्ग और निचला नगर। धौलावीरा की नगर-योजना यूरोपीय किलों के अनुरूप है जिनमें दो प्राचीरयुक्त क्षेत्र होते थे। इस किलेबंदी की प्राचीरों में समान दूरी पर बुर्ज और संकरे या चौड़े 6-नगर-द्वार बनाए।

बनवाली 

बनावली (हरियाणा) भी एक अन्य प्राचीरयुक्त हड़प्पाकालीन नगर था। परंतु बनवाली में सिंधु सभ्यता के हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और धौलावीरा जैसे नगरों के समान सड़कें समानांतर अथवा समकोण पर काटती हुई प्रतीत नहीं होती।

सिंधु सभ्यता की नगर-योजना का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू जो दिखाई पड़ता है वह पृथक आवास व्यवस्था है, जिसे हम अपने वर्तमान समय के साथ संबंधित करके देख सकते। निचले नगर में व्यापारी, दस्तकार एवं शिल्पकार रहते थे, जबकि नगर-दुर्ग में पुरोहित एवं शासक वर्ग निवास करता। तहत सिंधु सभ्यता में सामाजिक विभाजन विशिष्ट एवं सामान्य वर्ग में विभाजित था।

सिंधु सभ्यता के नगर-द्वार का महत्व– 

हमने अब तक देखा कि जिन सिंधु सभ्यता के नगरों की हमने चर्चा की वह सभी भव्य प्राचीरों से घिरे होते थे, जिनमें प्रवेशद्वार बने होते थे। हड़प्पा कालीन नगरों की किलाबंदी किसी सामान्य योजना के तहत नहीं की गई थी, जो कालीबंगा की नगर-प्राचीर की भांति विशाल होती थीं, परंतु नगर-द्वार नगर में प्रवेश करने के लिए सामान्य प्रवेश स्थल मात्र थे। सुरकोटड़ा और धौलावीरा में प्रवेश द्वार काफी विशाल एवं सुंदर थे, जबकि अन्य नगरों में काफी साधारण थे।

कुछ नगर-द्वारों के निकट सुरक्षाकर्मियों के छोटे कक्ष भी बने थे। हड़प्पाकालीन नगरों के चारों और प्राचीरों के निर्माण का उद्देश्य है शत्रुओं के आक्रमण को रोकना नहीं बल्कि लुटेरों एवं पशु-चोरों से सुरक्षा प्रदान करना था। किलाबंदी बाढ़ (बरसात के दिनों में) से भी नगर की रक्षा करती थी और साथ ही वह स्थानीय सामाजिक प्रभुत्व (सम्पन्नता एवं शक्ति) का भी प्रतीक मानी जाती थी जैसा कि आज हम भारत के बहुत से बड़े गांव में देख सकते हैं कि प्रवेश द्वार किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम पर बने होते हैं जो उस गांव के प्रभुत्व को दर्शाता है।

सिंधु सभ्यता की जल-निकास प्रणाली

एक सुनियोजित एवं व्यवस्थित जल-निकास प्रणाली सिंधु घाटी सभ्यता की अद्वितीय विशेषता थी, जो हमें अन्य समकालीन सभ्यता के नगरों में प्राप्त नहीं होती है। प्रमुख सड़कों एवं गलियों के बीच के नीचे एक से 2 फुट गहरी ईटों एवं पत्थरों से ढकी तथा थोड़ी थोड़ी पूरी पर शोक तो शोधकर्ताओं और नालियों का कचरा छानने की व्यवस्था संयुक्त मुख्य नालियां होती थी प्रत्येक नाली के साथ एक सकता होता था और वह गली की मुख्य नाली के साथ जुड़ी होती थी.

मुख्य नालियां एक नाले के साथ जुड़ी होती थी जो सारे कचरा एवं गंदे पानी को नदी में बहा देता था समस्त नल नालियों और शोक तो की सफाई सफाई कर्मचारियों द्वारा की जाती थी और सफाई के लिए नालियों में कुछ कुछ दूरी पर नरम ओके मेनहोल बने किस से बने होते थे नगर योजना की भांति यह व्यापक जल निकास प्रणाली 20 समकालीन सुमेरियन सभ्यता की प्रणाली से अलग थी.

सुमेर के निवासी अधिकतर मामलों में अपने घरों के आंगन के नीचे मिट्टी की उधर वकार नालियां बनाते थे पर उन में जल निकास द्वार नहीं थे कुल मिलाकर व्यापक जल निकास प्रणाली उत्तम कोटि के घरेलू स्नान ग्रहों एवं नालियों की व्यवस्था हड़प्पा कालीन सभ्यता की प्रशंसनीय विशेषता है जो समग्र रूप से इस बात की ओर इशारा करती है कि यह वहां एक अत्यंत प्रभावशाली नगर प्रशासन व्यवस्था रही होगी नगरीकरण एवं नगर-योजना की विशेषताएं हमें हड़प्पाकालीन नगरों के सामान्य अभिन्यास और स्थापत्य में भी देखने को मिलती हैं।

यदि हम अपनी वर्तमान जल निकास प्रणाली व्यवस्था से तुलना करें तो हम सिंधु सभ्यता के लोगों से काफी पिछड़े हुए नजर आते हैं। अक्सर हम देखते हैं कि भारत में सड़क बनने के बाद याद आता है कि नाला बनाया ही नहीं और जब नाला बनता है तो इस प्रकार का बनाते हैं कि सड़क से ऊंचा ही बना दिया। न तो उसमें जगह-जगह मेनहोल बनाए जाते हैं और ना ही कचरा छानने के लिए किसी प्रकार की कोई व्यवस्था होती है।

परिणामस्वरूप अधिकांश नाले कचरे से भरे रहते हैं और बरसात के समय में यही नाले अवरोध के कारण उफन कर पूरे शहर में जलभराव कर देते हैं। जिसके कारण नागरिकों को भयंकर दुश्वावारियों का सामना करना पड़ता है। जल निकास प्रणाली के संबंध में हमें हड़प्पा के लोगों से सीखने की आवश्यकता है।

सिंधु सभ्यता  की सड़कें और गलियां

सिंधु सभ्यता के नगर पूर्वनियोजित योजना के अनुसार बनाए जाते थे जैसा कि हमने मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की नगर योजना में देखा, वहां किसी प्रकार की नगर पालिका या नगर प्राधिकरण अवश्य रहा होगा जो नगर के विकास संबंधी सभी गतिविधियों को नियंत्रित करता था।

  • सड़क एवं गलियां सीधी होती थी और एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं।
  • भारतीय पूर्व से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण दिशा में फैली हुई थीं।
  • मोहनजोदड़ो की 10.5 मीटर चौड़ी सबसे प्रसिद्ध सड़क को ‘प्रथम सड़क’ कहा गया है जिस पर एक साथ पहिए वाले सात वाहन गुजर सकते थे।
  • अन्य सड़कें 3.6 से 4 मीटर तक चौड़ी थीं, जबकि गलियां एवं गलियारे 1.2 मीटर (4 फुट) या उससे अधिक चौड़े थे।
  • सड़कों एवं गलियों को ईंट या रोड़ी डालकर पक्का करने का कोई संकेत नहीं मिला है, अतः वे धूल-मिट्टी से भरी रहती होंगी। लेकिन पूर्व प्रथम सड़क की सतह पर टूटी हुई ईंटें और मिट्टी के बर्तन के टुकड़े मिले हैं।

 हड़प्पाकालीन ईटों के प्रकार

हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और अन्य प्रमुख नगर पूर्णता: पक्की ईंटों से बने थे। पकाई गई या कच्ची सभी प्रकार की ईंटें अच्छे अनुपात में बनाई गई थीं। मोहनजोदड़ो में मुख्य रूप से भराव के लिए धूप में सुखाई गई ईटों का प्रयोग किया जाता था, लेकिन हड़प्पा में कभी-कभी इनके साथ पर्त दर पर्त बारी बारी से पकाई गई इस्तेमाल की जाती थीं तथा कालीबंगा में ऐसा लगता है कि पकाई गई ईंटों का इस्तेमाल अधिकतर कुओं, नालियों एवं स्नानगृहों के निर्माण में किया जाता था।

  • हड़प्पाकालीन ईंटों का आकर -ईंटों का मुख्य आकर 7 × 14 × 7 सेंटीमीटर  था जो 1:2:4  अनुपात में है।
  • नालियों को ढकने के लिए काफी बड़ी ईटों का प्रयोग किया गया था जिनका आकार 51 सेंटीमीटर या उससे अधिक था।

ईटों को जलोढ़ मिट्टी (यानी बाढ़ के बाद जमी मिट्टी) से बनाया जाता था और इनका निर्माण खुले सांचे से किया जाता था। ईंटों में मिट्टी के अतिरिक्त अन्य कोई मजबूती पैदा करने वाली चीज नहीं मिलाई जाती थी। कई जगह ईटों की भटिटठयां पाई गई और उनमें से कुछ शायद ताँबों के काम से संबंधित थी। कभी-कभी ईटों का बड़ा ढेर बना दिया जाता था और उनके बीच में लकड़ी से आग जला दी जाती थी। ढेर के बाहर मिट्टी का लेप लगा दिया जाता था, ताकि अंदर गर्मी बनी रहे। ईंटों को अच्छी तरह पकाया जाता था, जिससे वे हल्के लाल रंग की हो जाती थी।

कुएँ की दीवारों पर पत्थर के आकार की तेल लगाई जाती थी जबकि स्नानघर की फर्श को जल रोधी बनाने के लिए छोटी ईंटें (5×11×24 से.मी.) प्रयोग में लाई जाती थीं।

स्नानघर का फर्श किस प्रकार तैयार किया जाता था?

  स्नानघर के फर्श को मजबूत करने के लिए ईट के चूरे एवं चूने के प्लास्टर जैसी चीज का इस्तेमाल किया जाता था। कोनों के लिए एल (L) आकार की ईंटों के इस्तेमाल को प्राथमिकता दी जाती थी। बाद में रहने वाले लोग कभी-कभी पुराने भवनों की ईंटों को हटा लेते थे और उनका दोबारा इस्तेमाल करते थे। इन ईंटों को जोड़ने वाले गारे के न चिपकने के कारण ऐसा संभव हो पाया।

हड़प्पाकालीन भवनों के प्रकार

हड़प्पाकालीन नगरों के भवन उनके आकार प्रकार के आधार पर तीन श्रेणियों में विभाजित किए जा सकते हैं–(1) आवासीय भवन(2)  विशाल भवन और (3) सार्वजनिक स्नानगृह, अन्नागार आदि।

  • सिंधु सभ्यता के आवासीय मकानों में काफी अंतर है।  सबसे छोटे मकानों में दो से अधिक कमरे नहीं है, जबकि सबसे बड़े मकान महलों की तरह विशाल एवं भव्य हैं। भवन बिना किसी कटाव या प्लास्टर के सादे बने होते थे। 
  • कालीबंगा के केवल एक मकान से अलंकृत ईंटों का उपयोग किया गया है। 
  • प्रत्येक मकानों के बीच एक फुट की जगह होती थी, शायद पड़ोसियों के बीच झगड़ों से बचने के लिए ऐसा किया जाता होगा। 
  • मकानों की दीवारें मोटी होती थीं जिससे संकेत मिलता है कि कुछ मकान दो मंजिलें थे। दीवारों पर वर्गाकार छिद्रों से संकेत मिलता है कि ऊपरी मंजिल और छत लकड़ी की बीम पर ठीके होते थे। 
  • मकानों की छतों को सरकण्डे की चटाई पर मिटटी की मोटी परत बिछाकर तैयार किया जाता था। 
  • कुछ मकानों में पकाई गयी ईंटों से बनी सीढियाँ मिलीं हैं,  परन्तु अधिकतर लकड़ी की सीढ़ियों का प्रयोग किया जाता था। 
  • मकानों के प्रवेश द्वार मुख्य सड़क की बजाय छोटी गली की और होते थे। 
  • मकान काफी बड़े होते थे , और जिनमें कुएं, स्नानघर एवं ढंकी हुयी नालियों की व्यवस्था होती थी। 
  • बेबीलोन की तरह सिंधु घाटी सभ्यता की आवास-योजनाओं में खुले आँगनों की मूलभूत विशेषता थी। 
  • खुले आँगन, जिनमें सामान्य रूप से ईंटें बिछाई होती थीं, के चारों ओर कमरे होते थे, जिनमें दरवाजे और खिड़कियां आँगन की ओर खुलते थे। आँगन के एक कोने में रसोई होती थी तथा मकान के भूतल पर भंडार कक्ष, कूप कक्ष , स्नानघर आदि होते थे।

हड़प्पाकालीन भवनों के दरवाजे, खिड़कियां एवं सीढ़ियां

दरवाजे संभवत: लकड़ी के होते थे और दीवारों के मध्य में नए बने होकर अंतिम सिरे पर बने होते थे। साधारण मकानों की बाहरी दीवारों में खिड़कियां बहुत कम बनाई जाती थीं दीवार के ऊपरी हिस्से में खिड़कियों एवं रोशन दानों के लिए छेददार जाली का प्रयोग किया जाता था। लगभग प्रत्येक मकान में ईंटों की सीढ़ियां बनी होती थी यह सीढ़िया सीधी खड़ी तथा इनकी पौड़ियां असामान्य रूप से संकरी और ऊँची होती थीं। कुछ मामलों में सीढ़ियां ऊपरी मंजिल तक जाती थीं, जहां स्नानगृह, बैठक तथा शयनकक्ष होते थे।

 रसोई- रसोई छोटी होती थी।  ईंधन एक ऊँची उठी हुयी जगह पर रखा जाता था।  भोजन सामन्यतः आंगन में खुले स्थान पर पकाया जाता जाता था। सिंधु सभ्यता के लोग तंदूर की रोटी बनाने की विधि से परिचित थे। कभी कभी रसोई और कमरे के बीच से खाना देने के लिए झरोखा भी बनाया जाता था। रसोई के गंदे पानी को बहार निकलने के लिए एक मिटटी का वर्तन जमीन में गाढ़ दिया जाता था जिसमे एक छेद होता था जिससे पानी रिस कर जमीन में पहुंच जाता था। 

स्नानगृह और शौचालय- प्रत्येक माकन में एक स्नानगृह होता था, जो गली की ओर होता था। शौचालय बहुत काम मिले हैं, पर जहाँ भी मिले हैं वे स्नानगृह और गली के बीच में हैं, जिससे पानी आसानी से बाहर निकल सके। पहली मंजिल पर बने स्नानगृह (छोटा चौकोर कमरा ) की दीवारों के निचले हिस्से पर ईंटें लगाई गयी थीं,जो फर्श से 3 इंच ऊपर उठी होती थीं। इसकी ईंटों से बानी फर्श ढालवदार होती थी। जल निकासी के लिए मिटटी के पकाये गए पाइपों ( नलिकाओं ) से सिरों पर टोंटी होती थी, जिससे एक पाइप को दूसरे जोड़ा जा सके। 

पुरोहित आवास-मोहनजोदड़ो में अनेक छोटे-बड़े आवासीय मकान मिले हैं। वहां विशाल विश्रामगृह ( धर्मशालाएं ) भंडारगृह एवं सुरक्षा मीनारें मिली हैं।  स्तूप वाले टीले के पश्चिम में एक भवन मिला है जिसका आकार 69 x 23.5 मीटर है। यह भवन पुरोहितों के निगम या संघ का कार्यालय बताया गया है।

सर जॉन मार्शल द्वारा उत्खनित विशाल स्नानागार इसी भवन का हिस्सा है।  यह पूरा परिसर एक समग्र स्थापत्यीय इकाई है,जिसकी दीवारें कहीं-कहीं पर 1. 2 मीटर मोटी है।  यह कोई पुरोहित आवास रहा होगा अतः इसे ‘कॉलेजिएट बिल्डिंग’ ( पुरोहित गृह नाम  गया है। 

सभागार- मोहनजोदड़ो में प्राप्त स्तूप के दक्षिण में 8 वर्ग मीटर का 1 महाकक्ष (हॉल) मिला है, जिसकी छत ईंटों  से बने 20 आयताकार स्तंभों पर स्थित थी। यह पाँच-पाँच स्तंभों की 4 पंक्तियों में लगे थे। इन स्तंभों की पंक्तियों से बने चारों गलियारों को पकाई गई ईंटों से पक्का बनाया गया था। इस महाकक्ष का उपयोग किसी धार्मिक सभा के लिए किया जाता रहा होगा।

सर जॉन मार्शल ने इसकी तुलना बाद के समय के पत्थरों को काटकर बनाए के बौद्ध मंदिरों से की है, जबकि मैके ने इसे विशाल बाजार कक्ष कहा जहां गलियारों के दोनों और स्थाई दुकानें बनी हुई थीं

भंडारगृह- हड़प्पा में 50×40 मीटर आकार का एक भवन मिला है जिसके बीच में 7 मीटर चौड़ा गलियारा था। यह अनाज कक्ष, कपास एवं व्यापारिक वस्तुओं के भंडारण के लिए प्रयुक्त एक विशाल भंडारगृह था। कुछ ऐसे भवनों का भोजनालय के रूप में भी उपयोग किया जाता था। इन भोजनालयों के फर्श में गड्ढे बनाकर उनमें मिट्टी के बड़े बड़े पात्र रखे जाते थे जिनमें तरल पदार्थ, खाद्यान्न एवं अन्य खाद्य सामग्री रखी जाती थी।

प्रासाद– मोहनजोदड़ो में ‘प्रथम सड़क’ से कुछ दूरी पर पक्की ईंटों का बना एक बहुत उत्कृष्ट महलनुमा भवन था इनमें दो विशाल आंगन कर्मचारियों के आवासगृह और भंडार-कक्ष हैं यह या तो मंदिर या किसी मुख्य प्रशासक (गवर्नर) का आवास रहा होगा।

हड़प्पाकालीन जनसंख्या

हड़प्पाकालीन नगरों की जनसंख्या धीरे-धीरे बढ़ती रही और बड़े मकान छोटे-छोटे मकान में विभाजित होने लगे। बाद में नगरपालिका संबंधी नियमों का कठोरता पूर्वक पालन भी कम होता गया। जिन नगरों के चारों और प्राचीरें थी वह जनसंख्या के दबाव के कारण धीरे-धीरे ध्वस्त होने लगी। अधिकतर महत्वपूर्ण नगरों में छोटे दुर्ग वीरान होने लगे थे।

यद्यपि हड़प्पाकालीन नगरों की जनसंख्या का अनुमान लगाना कठिन है, लेम्बरिक ने 1841 में सिन्ध में तुलनात्मक क्षेत्र वाले शहर की जनसंख्या के आधार पर मोहनजोदड़ो की जनसंख्या 35000 बताई। फेयरसर्विस द्वारा किए गए अन्य आकलन के अनुसार है आबादी थोड़ी अधिक 41000 थी। उन्होंने हड़प्पा के दुर्ग को छोड़कर निचले नगर की आबादी 23,000 होने की बात कही।

एल्लचिंस के अनुसार हड़प्पा की जनसंख्या लगभग मोहनजोदड़ो की आबादी के बराबर थी, क्योंकि दोनों बराबर आकार के थे। एस. आर. राव ने लोथल की जनसंख्या लगभग 15,000 होने का अनुमान लगाया जबकि एस.पी. गुप्ता के अनुसार अपने चरम काल में लोथल में 2,000 से लेकर 3000 से अधिक लोग नहीं रहे होंगे।

हड़प्पाकालीन भवनों की नींव

ऐसा विश्वास किया जाता है कि बेबीलोन एवं मिस्र की तरह हड़प्पाकालीन नगरों के भवनों की नींवों में भराव नहीं किया जाता था। नींवों में भराव से पुरातत्वविदों को भवनों की इतिहास या तिथि निर्धारित करने में मदद मिलती है। लेकिन कोटदीजी और अल्लाहदीनो में पत्थर की नींव प्रकाश में आई हैं। परंतु नींव रखते समय आयोजित समारोह के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली है।

सिंधुघाटी सभ्यता में प्रयुक्त घरेलू वस्तुएं– सिंधु सभ्यता कालीन स्थलों से विभिन्न प्रकार की घरेलू वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। ये वस्तुएं मिट्टी, पत्थर, सीपी, सेलखड़ी, हाथी दांत और धातु से बनाई जाती थीं।

घरेलू उपकरणों को बनाने के लिए पत्थर का स्थान ताम्र और कांस्य ने ले लिया था। रसोई के लिए मिट्टी के पकाए गए, अनेक प्रकार के बर्तन थे, जैसे- झाँवे, रोटी बनाने के सांचे, कड़छी, चषक, कटोरे, पेंदेदार गिलास, रकाबी, चिलमची (कुंडी),  कड़ाही, तश्तरी, चमचे, अंगीठियां, बर्तन रखने के स्टैंड, भंडारण पात्र आदि।

नुकीले पेंदे वाले गिलास आमतौर पर पेय पदार्थों के लिए प्रयुक्त किए जाते थे, जिनका प्रयोग केवल एक बार किया जाता था। पत्थर से निर्मित वस्तुओं में चक्कियाँ, छुरियॉं, बर्तन रखने का स्टैंड आदि। प्रमुख हैं। कलशों या मर्तबानो के ढक्कन और चमचे सीपी के बने होते थे। सुई, सुआ, कुल्हाड़ी, आरी,  हँसिए, चाकू,  मछली पकड़ने के कांटे, छेनी, आदि ताँबे या कांसे के बने होते थे। सुई और सूआ हाथी दांत के भी बने होते थे। सीसे के चौकोर टुकड़े मछली पकड़ने के जाल को पानी में डुबोने के लिए प्रयुक्त होते थे।

सिंधु सभ्यता की नगर योजना और हम

सिंधु सभ्यता की नगर योजना से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं विशेषकर भवन विन्यास और जल निकासी के सम्बन्ध में जो तथ्य सिंधु सभ्यता से मिले हैं वह वास्तव में उस समय की उन्नत तकनीक हुए वहां के नागरिकों की वैज्ञानिक सोच और प्रगति का सूचक है।  प्रत्येक नागरिक अपनी जिम्मेदारी समझता होगा और नगर को स्वच्छ बनाने में सहयोगी होता होगा।  उस समय निश्चित ही कोई नगर पालिका जैसी संस्था रही होगी जो नागरिक सुविधाओं के लिए कार्य करती होगी।  जल निकासी के लिए जो तकनीक हड़प्पावासी प्रयुक्त करते थे उसे हम आज प्रयोग करके नगरों में फैलने वाली गंदगी से निजात पा सकते हैं।  अतः हम कह सकते हैं कि सिंधु सभ्यता अपने समय की सर्वश्रेष्ठ सभय्ता थी। 


Share This Post With Friends

Leave a Comment

error: Content is protected !!

Discover more from 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading