वैदिक कालीन शिक्षा
चाहे कितनी भी पिछड़ी मानव जाति हो उसके लिए भी पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाना आवश्यक होता है, जिसके वास्ते उसे किसी न किसी तरह की शिक्षा प्रणाली अपनानी पड़ती है। वैदिक आर्य अपने पूर्व अर्जित ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाते थे। जिस ज्ञान को वह परम-पवित्र मानते थे, वह वेद के मंत्र थे।
ऋग्वैदिक आर्यों के समय से पहले मोहनजोदड़ो के लोग एक तरह की चित्र लिपि इस्तेमाल करते थे, जिसके हजार के करीब अक्षर प्राप्त हो चुके हैं, पर अभी तक पढ़ने की कुंजी नहीं मिली है। लिखने का पूरी तरह से प्रचार हो जाने पर भी वेदों को गुरुमुख से सुनकर पढ़ने का रिवाज हमारे यहां अभी भी पसंद किया जाता था, फिर ऋग्वेद के काल में उसे लिपिबद्ध करने का प्रयत्न किया गया होगा, इसकी संभावना नहीं है।
आर्य बहुत पीछे तक वेद के लिपिबद्ध करने के खिलाफ रहे, क्योंकि तब उनकी गोपनियता नष्ट हो जाती वैदिक बागा में ही वाङमय ही क्यों, बौद्ध और जैन पिटक भी शताब्दियों तक कंठस्थ रखे गये। बौद्ध त्रिपिटक बुद्ध-निर्वाण के चार शताब्दी बाद और जैन-आगम आठ शताब्दी बाद लिपिबद्ध हुए। कान से सुनकर सीखे जाने के कारण वेद को श्रुति कहते हैं। इसलिए बड़े विद्वान को बहुश्रुत—-बहुत सुना हुआ—- कहा जाता।
हमारी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई और उसका संबंध किस पुरानी लिपि से है, इसका निर्णय अभी नहीं हो सका है। इतना मालूम है, कि हमारी सबसे पुरानी वर्णमाला ब्राह्मी है। जिसके निश्चित काल वाले नमूने अशोक के अभिलेखों में मिलते हैं, जो ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी में या बुद्ध निर्वाण से ढाई सौ वर्ष बाद के हैं।
पिपरहवा के ब्राह्मी अक्षर बुद्धकालीन है, यह विवादास्पद है। ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी से पहले की वर्णमाला के नमूने मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की चित्र लिपियों में मिलते हैं। दोनों लिपियों का संबंध स्थापित करना मुश्किल है। यद्यपि मोहनजोदड़ो की चित्रलिपि से उच्चारण वाली वर्णमाला का निकलना बिल्कुल संभव है, पर ब्राह्मी मोहनजोदड़ो की लिपि से निकली, इसे सिद्ध करना अभी संभव नहीं है।
उस समय किसी प्रकार की मौखिक शिक्षा पुरानी (अतएव पवित्र) कविताओं की जरूर होती थी। उसका संग्रह ऋग्वेद में होना चाहिए था। ऋग्वेद में होना चाहिए था। पर, वैसा नहीं देखा जाता। ऋग्वेद के प्राचीनतम ऋषि और उनकी कृतियां, हमें भारद्वाज, वशिष्ठ और विश्वामित्र तक ले जाती हैं। उससे पुराने दो-चार ही ऐसे ऋषि मिलते हैं, जिनकी कृतियां पुरानी हो सकती हैं, पर, भाषा और संग्रह की गड़बड़ी ने उनकी प्राचीनता को बहुत कुछ गंवा दिया है।
अनुमान किया जाता है कि, ऋग्वेद के महान ऋषियों ने इंद्र, अग्नि, मित्र के ऊपर जो हजारों और ऋचाएं बनाई थीं, उनमें कुछ शब्द या भाव में भारद्वाज से पुरानी हो सकती हैं ; पर, इसे निश्चयपूर्वक नहीं बतलाया जा सकता। हमारे सबसे पुराने देवता द्यौ और पृथ्वी हैं, जिन्हें ऋग्वेद में पितरौ (दोनों माता-पिता) कहा गया है। द्यौ पिता और पृथ्वी माता द्यौ-पितर का ख्याल बहुत पुराना है।
वह केवल शतम (आर्य-स्लाव) वंश का ही नहीं बल्कि केन्तम् ( ग्रीस, रोम आदि ) का भी पूज्य देवता था। जूपितर द्यौ-पितर का ही शब्दान्तर है, ज्यौस द्यौस् ही है। द्यौ-सम्बन्धी कितनी ही ऋचाएं मिलती हैं, किन्तु ऋग्वैदिक काल में द्यौ की नहीं, बल्कि इन्द्र की प्रधानता थी।
ऋग्वेद से पहले की परंपरा से आई ज्ञान-संपत्ति अलग नहीं मिलती, इसलिए हम किसी नहीं कह सकते, कि उस काल में श्रुति की शिक्षण-परंपरा किस तरह की थी। शिक्षा, शिक्षण, प्रशिक्षण शब्दों का जो अर्थ आज है, वह उस समय नहीं था। ऋग्वेद में शिक्षा का अर्थ ‘देना’ है। जैसा कि वशिष्ठ एक ऋचा साथ (7 | 27| 2 ) से मालूम होता है——
” हे पुरुहूत, इंद्र जो तुम्हारा बल है, उसे सखा मनुष्यों को दो (शिक्ष)।” वशिष्ठ की ही दूसरी ऋचा में (7 |10 | 35) शिक्षा का अर्थ अनुकरण है—-
‘इन मेंढकों को एक के वचन को दूसरा शाक्त (आचार्य) की तरह अनुकरण करता बोलता है। मेंढको, जब तुम सुंदर तौर से बोलते हो, तो जल में सब अंग अच्छा हो जाता है।”
यहां बरसात के आरंभ में मेंढकों को एक दूसरे का अनुकरण करते बोलने को ऋग्वैदिककालीन गुरु-शिष्यों के पाठ से तुलना की गई है। गोस्वामी तुलसीदास ने इस ऋचा को शायद ही देखा हो, पर जान पड़ता है, यह उपमा परंपरा से चली आई थी, इसलिए उन्होंने कहा—
“दादुर धुनि चहुं ओर सुहाई। वेद पढ़इं जनु बटु समुदाई।”
एक मेंढक आवाज निकालता है। उसके बाद दूसरे अनुकरण करते हैं, फिर लड़ी लग जाती है। पुराने समय की वेद पढ़ाने की प्रक्रिया अब भी देखी। जाती है गुरु स्वर-सहित मंत्र को एक बार पढ़ता है शिष्य उसे दो बार दोहराते हैं। आज गुरु-शिष्य पुस्तक का सहारा लेते हैं। वेद जब लिपिबद्ध नहीं थे तो गुरु कंठस्थ ऋचा को एक बार बोलता होगा, और शिष्य दो बार इस प्रकार बराबर दोहराते छोटी आयु में बच्चों को अपना वेद कंठस्थ हो जाता था।
यद्यपि साम को छोड़कर और किसी वेद को संगीत के स्वरों के साथ नहीं पढ़ाया या दोहराया जाता था, पर तो भी पद्य पाठ की तरह उसकी एक लय हो ही जाती थी। पवित्र ऋचाओं या छंदों की शिक्षा शिष्य गुरु से इसी तरह पाता था। भारद्वाज-वशिष्ठ की चौथी-पांचवी पीढ़ी तक के ही रचित मंत्र ऋग्वेद में मिलते हैं, ऋग्वेद के सबसे पिछले ऋषियों में गुरुमुख से अपने पूर्वज ऋषियों के ब्रह्म (मंत्र पद) का अध्ययन किया था।
ब्रह्म (ऋचा) में अद्भुत शक्ति मानी जाती थी। तभी तो विश्वामित्र ने कहा ( 3 | 53 | 12)—–
“जो यह दोनों द्यौ तथा पृथ्वी हैं, उनसे मैंने इंद्र को तुष्ट किया। विश्वामित्र का यह ब्रह्म भरत-जन की रक्षा करता है।”
वेद वाणी की अद्भुत शक्ति को स्वयं प्राचीनतम ऋषियों ने अपने मुंह से बखाना था, इसलिए उसके सीखने और कंठस्थ करने की ओर लोगों का ध्यान बहुत हो, यह स्वाभाविक था।
लेकिन, केवल देवताओं को प्रसन्न करने से ही उनकी लोक-यात्रा नहीं चल सकती थी। उस समय सीखने की और भी बहुत सी चीजें थीं। जिस युद्ध कौशल को आर्य तरुण गुरुमुख से सीखते थे, वह सब वेद में नहीं दिया गया है। नाना शिल्प भी उस वक्त प्रचलित थे, जिन्हें भी सीखना जरूरी था, इन शिल्पों में से कुछ का ही नाम ऋग्वेद में मिलता है।
मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में ऋग्वेद से डेढ़-दो हजार वर्ष पहले की जो चीजें उपलब्ध हुई हैं, उनसे पता लगता है कि उस समय इंजीनियर (वास्तुशिल्पी), राजगीर, शंखरकार, पटकार (जुलाहा), सुनार, चर्मकार, वेणुकार, लोहार, कुम्हार आदि बहुत से शिल्पकार थे, जिन्हें अपनी बातें अगली पीढ़ी में पहुंचा नहीं पड़ती थीं। खेती और उसके लिए उपयोगी ऋतुओं के ज्ञान की विशेष आवश्यकता थी। इस प्रकार ऋग्वैदिक आर्यों को जितनी शिक्षा लेनी पड़ती थी, वह उतनी ही नहीं थी, जिनका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
ऋग्वेदिककालीन स्वास्थ्य
आर्य यथार्थवादी थे। अपने देवताओं पर उनकी परम भक्ति थी, लेकिन पौरुष को भूल कर नहीं। वह जानते थे, इंद्र भी दिवोदास, सुदास के पौरूष के सहारे ही शत्रुओं का संहार कर सके, इसलिए शरीर की पुष्टि और स्वास्थ्य की ओर उनका ध्यान विशेष था। सप्तसिंधु में अपने से अधिक सभ्य, सुसंस्कृत तथा साधन-संपन्न लोगों को पराजित करने में आर्य इसीलिए सफल हुए, कि उनके पास तेज चलने वाले घोड़ों और घुमंतुओं की लड़ाकू प्रकृति के अतिरिक्त बलिष्ठ शरीर भी था। उ
नके सामने मोहनजोदड़ो के नागरिक खर्बकाय थे। हरेक घुमंतू या अर्ध-घुमंतु तरह आर्य खुले में रहना पसंद करते थे, इसलिए उन्होंने अपना वास नगरों में नहीं, ग्रामों में रखा। खुली हवा में बास, दूध-घी-मांस प्रधान-भोजन स्वास्थ्य संवर्धन के यह सबसे अच्छे संसाधन उनके पास उपलब्ध थे।
घुड़सवारी स्वयं एक व्यायाम है। उस समय शायद ही कोई ऐसा आर्य हो तो चतुर घुड़सवार न हो शत्रुओं से प्रतिरक्षा तथा स्वयं भी दूसरों की गायों और भेड़ों को लूटने के लिए उन्हें हर वक्त हथियारबंद रहना पड़ता था। इसीलिए वह घुड़सवारी में भी कुशल थे।
मल्ल या मल्लविद्या का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता। पर पीछे पंजाब और पूर्वी उत्तर-प्रदेश में एक जनका नाम मल्ल बतलाता है कि उनमें कुश्ती का प्रचलन था। मुष्टियुद्ध का स्पष्ट उल्लेख विश्वामित्र-पुत्र मधुच्छन्दा की ऋचा ( 1 | 8 | 2 ) में है—-
“इंद्र तुम्हारे द्वारा रक्षित हम घोड़ों से मुष्टिहत्या (मुष्टियुद्ध) द्वारा शत्रुओं को रोकेंगे।”
कुश्ती (मल्लयुद्ध) या मुष्टियुद्ध केवल स्वास्थ्य के लिए ही उपयुक्त नहीं थी, बल्कि युद्ध में भी इनका उपयोग था; इसलिए आर्य तरुण इनको अच्छी तरह सीखते थे।
नृत्य मनोरंजन की एक उत्तम और मानव की सबसे पुरानी ललित कला है। यह अच्छा व्यायाम भी है। घोर जाड़े के दिनों में अहीरों के नृत्य नाचते एक तरुण को मैंने पसीने- पसीने होते देखा था।
उस समय आधुनिक व्यायाम के शौकीन एक तरुण दर्शक ने बतलाया था, कि इस नृत्य से कमर के दोनों तरफ-की पेशियों पर भी बहुत जोर पड़ रहा है, जहां पर आधुनिक व्यायाम की शैलियों से भी जोर पहुंचाना असंभव नहीं तो मुश्किल है।
अंगिरा-गोत्री सव्य ने नर्तयन् (नचाते) शब्द का प्रयोग प(1| 51| 3) किया है पर वह हथियार नचाने के अर्थ में—- हे इंद्र तुमने अंगिराओं (पुरोहितों) के लिए वर्षा कराई। अत्रि को शतदुर हथियार से बचने के लिए भगाया दिमाग। विमद को अन्न-सहित (धन) दिया, और संग्राम में वज्र नाचते हुए स्तुतिकर्त्ता की रक्षा की।”
संस्कृत-असंस्कृत सभी आदिम तथा सभ्यता में सबसे आगे बढ़ी आधुनिक जातियों में नृत्य बहुप्रचलित व्यायाम और विनोद है। ऋग्वेद आर्य सोम ( भांग ) के बड़े प्रेमी थे। उसे पीकर मस्त होने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। मस्ती और आनंद दोनों के लिए मद शब्द का प्रयोग इसी को बतलाता है। आर्य नर-नारी अपनी संगोष्ठियों में गीत और नृत्य का भी आनंद लेते थे जिससे उनके स्वास्थ्य को बहुत लाभ था।
ऋग्वेदिक कालीन रोग
रोगों में यक्ष्मा, ह्रदय रोग, कुष्ठ का उल्लेख ऋग्वेद में आता है। यक्ष्मा शायद ज्वर का ही दूसरा नाम था, और तपेदिक (टी.वी.) के लिए राजयक्ष्मा प्रयोग होता था। आथर्वन ऋषि ने कहा है (10 | 17 | 11 | 12)
“जब मैं इन औषधियों को हाथ में लेता हूं, तो यक्ष्मा की आत्मा वैसे ही नष्ट होती है जैसे पकड़ने वाली मृत्यु से जीव।
“हे औषधियों जैसे उग्र और मध्यस्थ दूसरों को बाधित करता है, वैसे ही तुम इसके पर्व-पर्व (पोर-पोर) में व्याप्त हो यक्ष्मा को हरो।”
कल्पित नाम वाले प्रजापति-पुत्र यक्ष्मनाशन ऋषि यक्ष्मा से राजयक्ष्मा का भेद करते हुए कहते हैं। (10 | 161| 1)
“हवि द्वारा तुझे अज्ञात यक्ष्मा और राजयक्ष्मा से मुक्त करता हूं। यदि किसी ग्रह (भूत-प्रेत) ने पकड़ा है तो उससे इंद्र-अग्नि से मुक्त करें।”
ह्रदय रोग पुराना रोग है। बुढ़ापे से शरीर के भीतरी अंगों के जीर्ण-शीर्ण होने का ही यह एक रूप है। बिना किसी ज्वर या दूसरे रोग के हृदय के विपन्न होने से आदमी का एकाएक प्राण अंत होने को पुरानी परिभाषा में रोगियों की (श्लाघनीय) मृत्यु कहा जाता था। मृत्यु न देकर यदि वह कष्ट देता रहे, तो वह उत्पीडक रोग है। कण्व-पुत्र प्रस्कण्व ने मित्र (सूर्य) से इनसे बचने की कामना की। (1 | 50 | 11 ) —-
“आज द्यौलोक के ऊपर चढ़ता मित्र (सूर्य) मेरे हृदय रोग पीलिया को नष्ट करे।”
पीलिया के कारण शरीर पीला (हरिमाण) हो जाता था।,
यक्ष्मा, जान पड़ता है, शरीर के बहुत से रोगों का नाम था, जैसा कि बी विवृहा कश्यप के कथन ( 10 | 163 | 16 ) से मालूम होता है—-
तेरे दोनों नेत्रों, दोनों नासिका-छिद्रों, दोनों कानों’, चिबुक, मस्तिष्क और जिह्व से शीर्षस्थानीय यक्ष्मा को दूर करता हूं। ।।1।।
“तेरी ग्रीवा से, धमनियों से, स्नायुओं से, हड्डी से, दोनों पहुंचों, दोनों बाहुओं और दोनों कंधों से यक्ष्मा को दूर करता हूं ।।2।।
“तेरी अंतड़ियों से, गुदा से, हृदय से, मूत्राशय से, यकृत से, तेरे मांसपिंडों से यक्ष्मा को दूर करता हूं ।।3।।
“तेरी जांघों से, दोनों पिंडलियों से, दोनों गुल्फों से, दोनों एड़ियों से, दोनों नितंबों से कमर और मल स्थान से यक्ष्मा को दूर करता हूं ।।4।।
“तेरे मूत्र स्थान से, लोम से, नख से, तेरे सर्व आत्मा (शरीर) से इस यक्ष्मा को मैं दूर करता हूं ।।5।।
“अंग-अंग से, रोम-रोम से, पर्व-पर्व में उत्पन्न तेरी सारी आत्मा (शरीर) से इस यक्ष्मा को दूर करता हूं ।।6।।
घोषा के कुष्ठ रोग से पीड़ित होने की बात का स्पष्ट उल्लेख ऋग्वेद में नहीं आता, जिसका की दूसरी जगहों में जिक्र आया है। दीघ्रतमा-पुत्र कक्षीवान के कथन (1| 11 | 7) से मालूम होता है, कि वह किसी रोग से पीड़ित होकर बिना ब्याहे ही पिता के घर में बैठी थी—–
“है अश्विनो, तुमने स्तुति करते कृष्ण-पुत्र विष्वक विष्वापु को पिता के घर में बैठी झुराती घोषा के लिए पति प्रदान किया।
रोगों की संख्या उस समय भी काफी होगी, पर उनके रोगों का अधिक विभाजन नहीं हुआ था।
ऋग्वेदिक कालीन चिकित्सा
ऋग्वेद से छ: शताब्दियों बाद बुद्ध के समय औषधियों का काफी विस्तार और विकास हो चुका था। पर, अभी रस और धातु-भस्म के प्रयोग में आने में शताब्दियों की देर थी। बुध के समय पंचभैषज्य ( घी-मक्खन-तेल-मधु खांड), चर्बी, मूल, कषाय, पत्ता, फल, गोंद, नमक वाली दवा कच्चे-मांस रक्त की दवाइयां प्रचलित थीं।
अंजन, तेल, नस्य, धूपबत्ती और मद्ययुक्त औषध भी इस्तेमाल किए जाते थे। ताप देकर पसीना निकालना, सींग से खून निकालना, मालिश, चीर- फाड़, मलहम-पट्टी, सर्प चिकित्सा, विष-चिकित्सा पांडुरोग-चिकित्सा, ग्रह (भूत) चिकित्सा, चर्मरोग-चिकित्सा का भी उल्लेख “विनय-पिटक” ( महावग्ग, भैषज्य-स्कन्धक ) में आता है। इनमें से अधिकांश औषधियों और चिकित्साओं का पहले भी प्रचार रहा होगा।
ऋग्वेद में निम्न रोगों का उल्लेख आता है—-
अगद, अजका, अज्ञात यक्ष्मा, अनमीव, अनूक्य, अप्वा, अम, अशीपद, अशीमिद, जीवगृभ, दुर्नामा (बवासीर), नव ज्वार, पृषन्य, पृष्ठ्यामसी, यक्ष्मा, राजयक्ष्मा, वंदन, बध्रि, विवबृ, विसूचि, सुराम, श्राम, हरिमा, ह्रदय रोग।
औषधियों की संख्या बहुत थी, तभी तो भिषग् आथर्वन ने (10| 97 | 6) कहा है—-
जैसे राजा लोग समिति में एकत्रित होते हैं, वैसे ही जिसके पास औषधियों का समागम होता है, उसे रोगनाशक, राक्षसनाशक विप्र भिषग् कहा जाता है।”
आजकल वैद्य लोग धनवंतरी को इष्ट मानते हैं, किंतु वैदिक काल में यमल अश्विनों (अश्विनी कुमारों ) की महिमा गाई जाती थी। इरिन्विठि ने (8 | 18 | 8) कहा है
वे (दिव्य) भिषग् अश्विद्वय हमारा कल्याण करें, बाधाओं को यहां से दूर हटावें।”
हिरण्यस्तूप अश्विनी कुमारों की प्रशंसा में कहते हैं (1 | 34 | 6-9 ) —-
“शुभ के स्वामी, हे अश्विनों हमें तीन बार दिव्य, तीन बार पार्थिव और तीन बार जलीय दवाइयों को दो। संयु की तरह मेरी संतानों को तीनों प्रकार से सुख दो ।।6।।
“हे नासत्यो, तुम्हारे तीन प्रकार के रथ के तीन चक्के यहां हैं? नीड-सहित तीनों धुरे कहां हैं? उस शक्तिशाली गदहे का जोड़ना कब होगा, जिसके साथ तुम यज्ञ में आओगे ।।9।।”
इससे मालूम होता है कि अश्विनी कुमारों रथ में गदहा (रासभ) जुतता था। चाहे घोड़े के समान न समझते हों, लेकिन गदहे पालने और उसके इस्तेमाल करने में आर्य हीनता नहीं अनुभव करते थे।
मादक सोम को भी औषध माना जाता था, यह आश्चर्य की बात नहीं। आजकल भी दवाइयों में मद्यसार का प्रयोग काफी देखा जाता है। प्रगाथ-पुत्र हर्यत ने कहा है ( 8 | 61| 17 )—
“मित्र’ वरुण’ सूर्य के उदय होने पर सोम को ग्रहण करते हैं, तो आतुर (रोगी) का भेषज है।”
कण्व-पुत्र सोभरि ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि हैं। वह अश्विनी कुमारों की महिमा गाते ( 8 | 22 | 10 ) कहते हैं—-
“हे जिनसे तुमने पक्थ की, जिनसे अध्रिगु, जिनसे वभ्रु की रक्षा की, उनके साथ अति शीघ्र आओ। जो आतुर (रोगी) है, उसकी चिकित्सा करो।”
Conclusion
इस प्रकार ऋग्वेद में विभिन्न प्रकार के स्वास्थ्य संबंधी मंत्रों और ऋचाओं के माध्यम आर्यजनों को स्वस्थ रखने और उन्हें बलिष्ट बनाए रखने के लिए विभिन्न उपाय सुझाए गए हैं। ऋग्वेद स्वास्थ्य के अलावा शिक्षा पर भी जोर देता था। यद्यपि शिक्षा उस समय कंठस्थ ही थी। शिक्षा और स्वास्थ्य किसी भी देश की रीड की हड्डी होते हैं।
एक स्वस्थ नागरिक ही देश निर्माण में योगदान कर सकता है। हमें ऋग्वेद के उस काल से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। तमाम उन बीमारियों के विषय में भी पता चलता है जो आज भी बड़ी मात्रा में प्रचलित हैं। अतः ऋग्वेद सिर्फ एक धार्मिक या काल्पनिक देवताओं के लिए ही नहीं जाना जाता यह अपने जन-स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी जानकारियों के लिए भी प्रसिद्ध है , और उस समय प्रचलित तमाम औषधियों के विषय में भी बताया गया है।