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मगध का इतिहास: बिम्बिसार से मौर्य साम्राज्य तक- एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण

छठी-पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में, गंगा घाटी प्राचीन भारत में राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु बन गई थी। काशी, कोशल और मगध के राज्य, वज्जियों के साथ, इस क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए एक सदी लंबे संघर्ष में लगे रहे। आखिरकार, मगध विजेता के रूप में उभरा, इसके राजा बिंबिसार (सी. 543-491 ईसा पूर्व) की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए मंच तैयार हुआ।

मगध का इतिहास : बिम्बिसार से मौर्य साम्राज्य तक- एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण

मगध का इतिहास : बिम्बिसार से मौर्य साम्राज्य तक

बिम्बिसार द्वारा साम्राज्य विस्तार

बिम्बिसार के शासन के तहत, मगध ने अंग पर विजय प्राप्त करके अपने प्रभुत्व का विस्तार किया, जिससे मूल्यवान गंगा डेल्टा तक पहुँच प्राप्त हुई। इस भौगोलिक लाभ ने नवजात समुद्री व्यापार को सुविधाजनक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिम्बिसार के पुत्र, अजातशत्रु ने पितृहत्या के माध्यम से उनका उत्तराधिकारी बनाया और लगभग तीन दशकों के भीतर अपने पिता के साम्राज्य विस्तार को आगे बढ़ाया।

शक्ति का विस्तार

अजातशत्रु ने मगध की राजधानी राजगृह की किलेबंदी की और गंगा के तट पर पाटलिग्राम नामक एक छोटे किले का निर्माण किया। यह किला बाद में पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) की प्रसिद्ध राजधानी के रूप में विकसित हुआ।

अजातशत्रु ने काशी और कोशल पर कब्जा करते हुए सफल सैन्य अभियान शुरू किए। हालाँकि, उन्हें ब्रज्जी राज्य के संघ को वश में करने में एक लंबी चुनौती का सामना करना पड़ा, जो 16 साल तक चला। आखिरकार, महात्मा बुद्ध की सलाह के माध्यम से, जिसने महासंघ के भीतर असंतोष बोया, अजातशत्रु ने प्रभावशाली लिच्छवी कबीले सहित वज्जियों को उखाड़ फेंका।

मगध की सफलता में योगदान करने वाले कारक

मगध का उत्थान केवल बिंबिसार और अजातशत्रु की महत्वाकांक्षाओं का परिणाम नहीं था। क्षेत्र की लाभप्रद भौगोलिक स्थिति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मगध ने निचली गंगा को नियंत्रित किया, जिससे इसे उपजाऊ मैदानों और नदी व्यापार दोनों से लाभ हुआ।

गंगा डेल्टा तक पहुंच ने पूर्वी तट के साथ समुद्री व्यापार से भी काफी मुनाफा कमाया। पड़ोसी जंगलों ने निर्माण के लिए लकड़ी और सेना के लिए हाथियों जैसे मूल्यवान संसाधन प्रदान किए। विशेष रूप से, समृद्ध लौह अयस्क के भंडार की उपस्थिति ने मगध को एक तकनीकी लाभ दिया।

प्रशासनिक विकास

बिंबिसार कुशल प्रशासन को प्राथमिकता देने वाले शुरुआती भारतीय राजाओं में से थे। भू-राजस्व की प्रारंभिक धारणाओं के उभरने के साथ ही एक प्रशासनिक व्यवस्था की नींव आकार लेने लगी। प्रत्येक गाँव में कर संग्रह के लिए एक मुखिया जिम्मेदार होता था, और अधिकारियों के एक समूह ने इस प्रक्रिया की निगरानी की और राजस्व को शाही खजाने तक पहुँचाया।

हालाँकि, राज्य की आय के महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में भू-राजस्व की पूरी समझ अभी भी विकसित हो रही थी। जबकि भूमि निकासी जारी रही, कृषि बस्तियों का आकार अपेक्षाकृत छोटा प्रतीत होता है, क्योंकि कस्बों के बीच यात्रा के साहित्यिक संदर्भ अक्सर वन पथों के लंबे हिस्सों का उल्लेख करते हैं।

मगध का प्रारम्भिक इतिहास: हर्यक वंश, शिशुनाग वंश, नन्द वंश और प्रमुख शासक 

उत्तराधिकार और निरंतर विस्तार

अजातशत्रु की मृत्यु (सी. 459 ईसा पूर्व) और अप्रभावी शासकों की अवधि के बाद, शशुनाग ने एक नए राजवंश की स्थापना की, जो महापद्म नंद द्वारा उखाड़ फेंके जाने तक लगभग 50 वर्षों तक चला। नंद निम्न जाति के थे, संभवतः शूद्र, लेकिन इन तीव्र वंशवादी परिवर्तनों के बावजूद, मगध ने अपनी ताकत की स्थिति बनाए रखी। नंदों ने विस्तार की नीति को जारी रखा और वे अपने धन के लिए जाने जाते थे, संभवतः नियमित भू-राजस्व संग्रह के महत्व की मान्यता के कारण।

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चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास: प्रारम्भिक जीवन, साम्राज्य विस्तार, और प्रशासनिक व्यवस्था

चंद्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत में मौर्य साम्राज्य के संस्थापक थे। उनका जन्म 340 ईसा पूर्व में मगध राज्य में हुआ था, जो अब आधुनिक बिहार है। वह एक कुलीन परिवार का बेटा था लेकिन कम उम्र में ही अनाथ हो गया था। उसके बाद उनका पालन-पोषण शिकारियों के एक समूह ने किया, जिन्होंने उन्हें जीवित रहने के कौशल, शिकार और युद्ध करना सिखाया।

चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास: प्रारम्भिक जीवन, साम्राज्य विस्तार, और प्रशासनिक व्यवस्था

चंद्रगुप्त मौर्य

चंद्रगुप्त मौर्य प्रसिद्ध दार्शनिक चाणक्य के शिष्य बने, जिन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है, जिन्होंने उन्हें नंद वंश को उखाड़ फेंकने और मौर्य साम्राज्य की स्थापना में मदद की। चाणक्य के मार्गदर्शन में, चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध, कलिंग और वर्तमान अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों सहित भारत के कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।

चंद्रगुप्त मौर्य अपने प्रशासनिक कौशल, सैन्य रणनीति और कूटनीति के लिए जाने जाते थे। उन्होंने अपने लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए कई सुधार और नीतियां पेश कीं, जिनमें एक केंद्रीकृत सरकार, वजन और माप की एक समान प्रणाली और सड़कों और बुनियादी ढांचे का एक नेटवर्क शामिल है।

24 वर्षों तक शासन करने के बाद, चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने पुत्र बिंदुसार के पक्ष में सिंहासन छोड़ दिया और जैन धर्म का पालन करते हुए एक तपस्वी बन गए।

चन्द्रगुप्त मौर्य
जन्म 340 ईसा  पूर्व ( पाटलिपुत्र )
पिता का नाम सर्वार्थसिद्धि मौर्या
माता का नाम मुरा मौर्या
 पत्नियां दुर्धरा, कार्नेलिया हेलेनाऔर चंद्र नंदिनी
पुत्र बिन्दुसार
पौत्र अशोक , सुसीम
धर्म जैन धर्म
राजधानी पाटलिपुत्र
प्रधानमंत्री चाणक्य
सेल्यूकस से युद्ध 305 ईसा पूर्व
 मृत्यु 298 ईसा पूर्व श्रवणवेलगोला ( मैसूर कर्नाटक )

चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास

चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम आते ही हमारे दिमाग में एकदम उस राजा की छवि घूमने लगती है जिसने भारत में एक ऐसा साम्राज्य स्थापित  सम्पूर्ण भारत को अपने छत्र के निचे ले लिया और उस साम्राज्य का नाम था मौर्य साम्राज्य। चन्द्रगुप्त मौर्य इस साम्राज्य का संस्थापक था। मौर्य साम्राज्य का इतिहास या उसकी सत्यता जानने के लिए हमें देशी और विदेशी साहित्य साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ता है। इसके सह ही पुरातत्व संबंधी साक्ष्यों का भी सहारा लेना पड़ता है

मौर्य वंश का इतिहास जानने के साधन 

 ब्राह्मण साहित्यिक साक्ष्य– ब्राह्मण साहित्य के अंतर्गत पुराण, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस नाटक प्रमुख हैं।  कौटिल्य का अर्थशास्त्र इनमें सबसे महत्पूर्ण है  ऐतिहासिक दृष्टि से यह बहुत महत्व रखता है।  अर्थशास्त्र मौर्य वंश के विषय में मत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। 
 
बौद्ध ग्रन्थ— बौद्ध ग्रंथों  दीपवंश, महावंश, महावंश टीका, महाबोधिवंश, दिव्यदान, आदि ग्रंथों में मौर्यों के  विषय में उपयोगी जानकारी मिलती है। 
 
जैन ग्रन्थ— जैन ग्रंथों में भद्रवाहु का कल्पसूत्र तथा हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्वन का सहारा लेते हैं। 
 
विदेशियों  विवरण–क्लासिकल ( यूनानी-रोमन ) लेखकों के विवरण से भी बहुत महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। हमें इन लेखकों  ग्रंथों से चन्द्रगुप्त मौर्य के  विषय में पता चलता है। यूनानी ग्रंथों में चन्द्रगुप्त मौर्य को ‘सेंड्रोकोट्स’ तथा ‘एण्ड्रोकोट्स’ कहा गया है। इन नामों को सबसे पहले विलियम जोन्स ने चन्द्रगुप्त से  सुमेलित  किया।
सिकन्दर के लेखक – नियार्कस, आनेसिक्रित्स तथा आरिस्टोबुलस के विवरण चन्द्रगुप्त के विषय में महत्वपूर्ण सूचनाएं देते हैं।  सिकन्दर के बादके लेखकों में मेगस्थनीज का प्रमुख स्थान है जो चन्द्रगुप्त मौर्य दरबार में चार वर्ष रहा। उसकी पुस्तक इंडिका  ही मूल्यवान  है दुर्भाग्यवस  पुस्तक अपने मूल रूप  उपलब्ध  लेकिन स्ट्रैबो, डियोडोरस, प्लिनी, एरियन, प्लूटार्क तथा जस्टिन  लेखों में इंडिका के उद्धरण मिलते हैं। 
 
पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य– पुरातात्विक साक्ष्यों में सबसे पहला स्थान अशोक के अभिलेख हैं। अशोक के लगभग 40 अभिलेख भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान के विभिन्न भागों में प्राप्त हुए हैं। अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त महाक्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ ( गिरनार )  मौर्यकाल के विषय में जानकारी मिलती है। 
 

मौर्य वंश की स्थापना

भारत के महानतम सम्राटों में विख्यात चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य वंश की स्थापना की।  मौर्य वंश का उदय इतिहास की सबसे रोमांचकारी घटना है। भारत को यूनानी दस्ता से मुक्त करने तथा नंदों के घृणित और अत्याचारी  शासन से भारत की जनता को मुक्ति दिलाने के साथ संपूर्ण भारत को राजनितिक एकता के सूत्र में संगठित  करने का महान कार्य चन्द्रगुप्त मौर्य ने  ही किया। 
 

चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति, क्या चन्द्रगुप्त मौर्य शूद्र थे?

चन्द्रगुप्त मौर्य जाति  विषय में बहुत मतभेद हैं और भारत  अधिकांश इतिहासकारों में मौर्यों को क्षत्रिय सिद्ध करने की होड़ लगी है।  जबकि अधिकांश ग्रंथों में चन्द्रगुप्त को शूद्र अथवा निम्नकुल में जन्मा बताया गया है। तत्कालीन भारतीय समाज में शायद ही जाती  इतना विकराल रूप  जैसा आज देखने को मिलता है। लेकिन भारतीय इतिहासकार यहाँ जातिगत पूर्वाग्रह  ग्रसित नज़र आते हैं। वो वर्तमान ऊंच-नीच की श्रेष्ठता को  चालाकी से अपने लेखों में मनमाने अर्थों में इसका प्रयोग जातिगत श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए करते हैं। आगे हम निम्न ग्रंथों में मौर्यों की जातिगत पहचान की समीक्षा करेंगे। 
 

वह ग्रन्थ जो मौर्यों को शूद्र घोषित करते हैं 

पुराण– ब्राह्मण साहित्य में हम सर्वप्रथम पुराणों उल्लेख कर सकते हैं। विष्णु पुराणमें कहा गया है कि शैशुनागवंशीन शासक महानंदी के पश्चात् शूद्र योनि  शासक पृथ्वी पर शासन करेंगे  ( ततः प्रभृत्ति राजानो भविष्यन्ति शूद्रयोनयः। — पार्जिटर, डायनेस्टीज ऑफ़ कलिएज, पृष्ठ 25 ) श्रीधर स्वामी जो विष्णुपुराण के एक भाष्यकार के एक भाष्यकार हैं के इस कथन के आधार पर चन्द्रगुप्त को नंदराज की पत्नी ‘मुरा’  से पैदा हुआ बताया है। उनके अनुसार मुरा का पुत्र होने के कारण ही वह मौर्य  कहलाये। 
 
मुद्राराक्षस–विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक में चद्रगुप्त मौर्य को नंदराज का पुत्र मन गया है। परन्तु इसमें जो वर्णन किया गया है उसके अनुसार चन्द्रगुप्त नंदराज का वैध पुत्र नहीं था।  इस नाटक में नदवंश को चन्द्रगुप्त का ‘पितृकुलभूत’ अर्थात पितृकुल बनाया गया पद उल्लिखित है।  यदि चन्द्रगुप्त नंदराज का वैध पुत्र होता तो उसके लिए ‘पितृकुल’ का प्रयोग होता। मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त को ‘वृषल’ तथा ‘कुलहीन’कहा गया है। मौर्यों की शूद्र जाती समर्थक विद्वान इन शब्दों को शूद्र शूद्र जाति के संबंध में ग्रहण किया है। 
 
मुद्राराक्षस के टीकाकार धुण्ढिराज का मत-– धुण्ढिराज ने एक कहानी के द्वारा चन्द्रगुप्त को शूद्र सिद्ध करने  किया है। इस कहानी के अनुसार सर्वार्थीसिद्धि नामक एक क्षत्रिय राजा की दो पत्नियां थीं- सुनंदा तथा मुरा। सुनंदा एक क्षत्राणी थी  पुत्र हुए जो ‘नव नन्द’ कहलाये। मुरा शूद्र ( वृषलात्मजा)  थी।उसका एक पुत्र हुस जो मौर्य कहलाया। 
 
 कथासरित्सागर तथा बृहत्कथामंजरी का विवरण– सोमदेव कृत ‘कथासरित्सागर’ तथा क्षेमेन्द्र कृत ‘बृहत्कथामंजरी’ दोनों ही चन्द्रगुप्त की शूद्र उत्पत्ति  बात करते हैं इन दोनों ग्रंथों में में एक विवरण  मिलता है जिसके अनुसार नंदराज की अचानक मृत्यु हो गयी तथा इंद्रदत्त नामक  व्यक्ति तोग के बल पर उसकी आत्मा में प्रवेश कर गया तथा राजा बन बैठा तत्पश्चात वह योगनंद  नाम से जाना जाने लगा। उसने नंदराज की पत्नी से विवाह कर लिया। जिससे उसे हिरण्यगुप्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। किन्तु वास्तविक नन्द राजा ( पूर्वनन्द ) को  पहले से ही एक पुत्र था जिसका नाम चन्द्रगुप्त था।
योगनंद अपने तथा अपने पुत्र हिरण्यगुप्त  के मार्ग   में बाधक समझता था। जिसके कारण  वैमनस्य हो गया। वास्तविक नन्द राजा के मंत्री शकटार ने चन्द्रगुप्त का साथ दिया । चाणक्य नामक चतुर ब्राह्मण को अपनी ओर शामिल कर लिया और फिर उसकी सहायता  से शकटार ने  योगनंद तथा हिरण्यगुप्त का वध कर दिया तथा राज्य के असली उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त को  सिंहासन पर  बैठाया। इस प्रकार इन दोनों ग्रंथों में चन्द्रगुप्त को  नंदराज का पुत्र बताकर उसकी शूद्र उत्पत्ति का मत व्यक्त किया गया है।
 

उपरोक्त तथ्यों और प्रसंगों को अधिकांश भारतीय इतिहासकार मिथ्या और काल्पनिक बताते हुए निम्नलिखित तर्क देकर मौर्यों की शूद्र उत्पत्ति को ख़ारिज करते हैं —

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