Salt March in Hindi -राष्ट्रीय आंदोलन में नमक आंदोलन का महत्व

राष्ट्रीय आंदोलन में नमक आंदोलन का महत्व | Salt March in Hindi

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Salt March महात्मा गाँधी ने 1922 में चौरी-चौरा की हिंसक घटना के बाद असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया था और भारतीय राजनीति में कुछ वर्षों के लिए शून्य सा माहौल हो गया। हालांकि चितंजन दास, मोतीलाल नेहरू और लाला लाजपत राय ने स्थानीय स्तर पर राष्ट्रीय आंदोलन को जीवित रखा। इस बीच मार्च 1923 में स्वराज पार्टी की स्थापना मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास द्वारा इलाहबाद में की गई। लगभग आठ वर्षों तक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कोई खास गतिविधियां देखने को नहीं मिली। ऐसे में महात्मा गाँधी ने मार्च 1930 में नमक आंदोलन जिसे सविनय अवज्ञा आंदोलन भी कहा जाता है शुरू किया। आज इस लेख में में नामक आंदोलन की गतिविधियां और उसके महत्व पर चर्चा करेंगे। लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें। यह लेख पूर्णतया ऐसिहासिक और विश्वसनीय तथ्यों के साथ तैयार किया गया है।

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राष्ट्रीय आंदोलन में नमक आंदोलन का महत्व | Salt March in Hindi

Salt March नमक आंदोलन

महात्मा गाँधी ने नमक आंदोलन की प्रांरभिक तैयारियों को अंजाम देते हुए ‘यंग इंडिया’ में एक लेख प्रकशित किया और सरकार के सामने कुछ शर्ते रखी और वादा किया कि यदि सरकार इन शर्तों को मान लेती है तो वह आंदोलन को स्थगित कर देंगें। गाँधी ने इन शर्तों में निम्नलिखित शर्तों को रखा—-

1- रूपये का विनिमय मूल्य को घटाकर 1 शिलिंग, 4 पेन्स किया जाये।

2- लगन की दरों को 50% तक काम किया जाये।

3- नागरिक सेवाओं के अधिकारीयों का वेतन आधा किया जाये।

4- सैन्य खर्चों में 50% की कमी की जाये।

5- विदेशी आयात को काम किया जाये और रक्षात्मक शुल्क लगाए जाएँ।

6- तटीय यातायात रक्षा कानून बनाया जाये।

7- सी. आई. डी. विभाग को समाप्त कर उसे सरकारी नियंत्रण में लाया जाये।

8- भारतीयों को आत्मरक्षा के लिए आग्नेय अस्त्र रखने के लइसेंस जारी किये जाएँ।

9- नमक से सरकारी नियंत्रण और टैक्स को समाप्त किया जाये।

10- नशीली वस्तुओं की विक्री को समाप्त किया जाये और

11- ऐसे सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाये जिन पर हत्या या हत्या के प्रयास के मुकदमें नहीं हैं।

उपरोक्त मांगों में कहीं भी स्वराज या भारत की आज़ादी की बात नहीं थी। गाँधी ने २ मार्च को वायसराय को एक पत्र लिखा और उपरोक्त 11 मांगों का जिक्र किया। गाँधी स्पष्ट लिखा की यदि सरकार इन मांगों को अस्वीकार करती है तो 12 मार्च 1930 को वे नमक आंदोलन शुरू करेंगे और नामक कानून का उलंघन करेंगे। आंदोलन अहिंसक ही होना था।

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Salt Taxनामक कर क्या था?

अंग्रेज सरकार ने 1882 में कानून पास करके भारतियों को नमक बेचने या एकत्र करने से प्रतिबंधित कर दिया था। और इसे खरीदने के लिए अंगेजों से ही खरीदना पड़ता था। नामक एक ऐसा महत्वपूर्ण खनिज था जो प्रत्येक मनिष्य के लिए जरुरी था। मगर अंग्रेजों ने नामक की बिक्री और उत्पादन पर एकाधिकार स्थापित कर लिया था जिसके कारण भारतियों को काफी कष्ट उठाने पड़ते थे क्योंकि इस भारी टैक्स भी अंग्रेजी सरकार वसूलती थी।

दांडी यात्रा और नमक आंदोलन- सविनय अवज्ञा आंदोलन

दांडी यात्रा और नमक आंदोलन- सविनय अवज्ञा आंदोलन

नमक आंदोलन शुरू करने से पूर्व वायसराय ने गाँधी को जो जवाब भेजा वह असंतोषजनक था, गाँधी ने कहा ‘मैंने रोटी मांगी और बदले में मुझे पत्थर मिला’ . योजनानुसार गाँधी ने अपने चुने हुए 78 अनुयायियों के साथ समुद्र तट के लिए नामक मार्च शुरू कर दिया। लगभग 240 मील की पदयात्रा 24 दिन में पूरी करते हुए 5 अप्रैल को गाँधी दांडी पहुंचे और समुद्र किनारे नमक बनाकर अंग्रेजी कानून की अवज्ञा की। 6 अप्रैल को गाँधी ने समुद्र किनारे नामक एकत्र किया और नामक कानून का उलंघन किया। गाँधी के इस यात्रा में सैकड़ों किसान, सरकारी कर्मचारी और छात्र भी शामिल हो गए और राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। 9 अप्रैल 1930 को गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत किये- जो इस प्रकार थे।

  • प्रत्येक गांव को सरकारी अवज्ञा करके नामक बनाना चाहिए।
  • शराब और अफीम की दुकानो के सामने शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन।
  • विदेशी वस्त्रों की दुकानों के आगे विरोध प्रदर्शन
  • तकली और चरखे से हर घर के बुजुर्ग सूत कातें ।
  • विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाये।
  • हिन्दुओं को छुआछूत को छोड़ना चाहिए।
  • सभी धर्मों के लोगों को प्रेम भाव से मिलकर रहना चाहिए।
  • छात्रों को अंग्रेजी स्कूलों का और कर्मचारियों को सरकारी नौकरियों को छोड़ना चाहिए।

उपरोक्त शर्तों के साथ आंदोलन शुरू हो गया और अंग्रेज सर्कार ने तुरंत प्रतिक्रिया करते हुए गाँधी को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे जनता और भड़क उठी और देश में जगह-जगह लोग आंदोलित होने लगे। फलस्वरूप 60 हज़ार से अधिक लोगों की गिरफ्तार किया गया।

गाँधी और सत्याग्रह

सत्याग्रह का पहली बार प्रयोग विश्व में पहली बार महात्मा गाँधी द्वारा ही किया गया जब गाँधी 1995 में अफ्रीका पहुंचे तब उन्होंने वहां रह रहे भारतियों को कष्टों को देखा और अफ्रीकी सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। 1915 में गाँधी भारत लौट आये और यहाँ चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद मील मजदूर आंदोलन में सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया। इसके बाद गाँधी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अनहंसक तरीके से असहयोग आंदोलन शुरू किया। इसी श्रंखला में गाँधी ने सत्याग्रह का अगला प्रयोग नामक कानून तोड़कर किया। इस आंदोलन को उन्होंने ]सत्याग्रह’ या सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन का नाम दिया।

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गाँधी की गिरफ्तारी और भारतियों की प्रतिक्रिया

गाँधी की गिरफ्तारी से भारतियों में उग्र आक्रोश आ गया और मुंबई में 50000 मिल मजदूरों ने काम बंद करके सड़कों पर जोरदार प्रदर्शन किया। प्रदर्शन शांतिपूर्ण थे लेकिन औद्योगिक नगर शोलापुर में जुलुस ने हिंसा का रूप ले लिया। 8 को यहाँ पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसक झड़प हुई जिसमें कई प्रदर्शकारी मारे गए। 13 मई को शोलापुर में मार्शल लॉ लागु कर दिया गया।

सरोजनी नायडू की प्रतिक्रिया

सविनय अवज्ञा आंदोलन की सबसे उग्र और प्रभावशाली प्रतिक्रिया धारसणा में हुई। कवियत्री और स्वतंत्रता सेनानी सरोजनी नायडू और इमाम साहेब के नेतृत्व में 2500 स्वयंसेवकों ने 21 मई को धारसणा में नमक कारखाने पर जोरदार धावा बोल दिया। नायडू ने लोगो से शांतिपूर्वक आंदोलन की बात कही। यहाँ बार बार धावा बोला गया।

आंदोलन का परिणाम

भारत के इस मुक्ति संग्राम को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने कठोर दमनचक्र का सहारा लिया सैकड़ों लोगों को जेल में ठूंस दिया गया। उत्तर भारत, पंजाब और मुंबई प्रेसीडेंसी सहित बंगाल में मार्शल लॉ लागु कर दिया गया। लेकिन आंदोलन अपनी व्यपकता से बढ़ता रहा अंग्रेज सरकार ने घवराकर 1931 में गाँधी को जेल से रिहा कर दिया। इसी बीच लन्दन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें 89 जानेमाने राजनेताओं को आमंत्रित किया गया जिसमें 13 ब्रिटिश राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि थे और 76 भारतीय उदार संघ, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, दलित वर्गों के प्र्रतिनिधि थे। प्रथम गोलमेज सम्मलेन 12 नवम्बर 1930 से 19 जनवरी 1931 तक लन्दन में आयोजित किया गया। अम्बेडकर ने तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया और गाँधी ने सिर्फ द्वित्य सम्मेलन में भाग लिया।

गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें 89 जानेमाने राजनेताओं को आमंत्रित किया गया जिसमें 13 ब्रिटिश राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि थे और 76 भारतीय उदार संघ, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, दलित वर्गों के प्र्रतिनिधि थे।

गाँधी- इरविन समझौता

19 फरवरी 1931 को गाँधी ने वायसराय लार्ड इरबीन से मुलाकात की। दोनों के बीच 15 दिन तक वार्तालाप हुआ। और अंततः 5 मार्च 1931 के दोनों के बीच एक समझौता हुआ जिसे गाँधी- इर्बिन समझौता कहा जाता है।

गाँधी- इरविन समझौता-19 फरवरी 1931 को गाँधी ने वायसराय लार्ड इरबीन से मुलाकात की। दोनों के बीच 15 दिन तक वार्तालाप हुआ। और अंततः 5 मार्च 1931 के दोनों के बीच एक समझौता हुआ जिसे गाँधी- इर्बिन समझौता कहा जाता है।

गाँधी- इर्बिन समझौते की शर्तें

इस समझौते के अनुसार निम्नलिखित शर्तों पर सहमति बनी

कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया।

कांग्रेस ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने की सहमति दी।

स्वराज्य की दिशा में कोई ठोस सहमति नहीं बनी।

इसके अतिरिक्त कांग्रेस ने गोलमेज सम्मलेन के लिए अपना एजेंडा तैयार किया जिसके अनुसार भारतीयों के हाथों में जिम्मेदारी दी जाये और संघीय संविधान के अनुसार विचार विमर्श किया जाए। लेकिन भारतीयों के हितों के कुछ कानून अंग्रेजों के हाथ में रखे गये। राजनीतिक बंदियों सहित निर्दोष भारतीयों को जेल से रिहा किया जायेगा। विदेशी सामानों के विरोध का अधिकार मिला, हालांकि समझौते की शर्ते एकतरफा नहीं थीं और एक हाथ से कुछ दिया तो दूसरे हाथ से कुछ ले लिया।

गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित कर दिया और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने लन्दन चले गए। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का आयोजन 7 सितम्बर ,1931 को शुरू हुआ था ,जिसमें कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में एकमात्र गाँधी ने भी भाग लिया था और 1 दिसम्बर 1931 को यह सम्मेलन समाप्त हुआ था। सम्मेलन में कोई सहमति नहीं बानी और भारत बापस आकर गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का दूसरा चरण शुरू कर दिया।

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निष्कर्ष

इस लेख में हमने आपको नमक आंदोलन के विषय में जानकारी दी। नामक आंदोलन यद्यपि अपने मूल उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रहा लेकिन गाँधी की प्रतिष्ठा देश विदेश में बहुत बढ़ गई और अंग्रेजी सरकार को गाँधी के नेतृत्व पर स्वीकृति देनी पड़ी। भारतियों में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति जागरूकता बढ़ाने में यह आंदोलन सफल हुआ। और 15 अगस्त 1947 को भारत को आज़ादी मिली जिसमें गाँधी के योगदान को नकारना एक तरह से नाइंसाफी होगी। आज़ादी की कीमत गाँधी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी और अंततः 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे नामक चरमपंथी ने गाँधी की हत्या कर दी।


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