असहयोग आंदोलन 1920 भारत का एक महत्वपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन था जो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा आयोजित किया गया था। इस आंदोलन का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ अहिंसक सत्याग्रह का प्रचार करना था। इस आंदोलन के दौरान भारतीय राज्यों में ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए कुछ कड़े उपायों के खिलाफ लोग विरोध करने लगे थे। इन उपायों में जैसे कि राजा-महाराजों को नियुक्ति देने से रोक देना, आर्थिक आधार पर लोगों को दंडित करना और आजादी के लिए लोगों को आंदोलन करने से रोकना शामिल थे।
असहयोग आंदोलन एक अहिंसक आंदोलन था और इसमें लोगों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ धरने, प्रदर्शन और बंद करने जैसे अहिंसक तरीकों से विरोध किया। इस आंदोलन का महत्वपूर्ण परिणाम था कि यह आंदोलन भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण आधार बन गया था।
असहयोग आंदोलन
- दिनांक: 1920 – 1922
- प्रतिभागी: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
- प्रमुख लोग: सुभाष चंद्र बोस, चित्त रंजन दास, महात्मा गांधी, गुलजारीलाल नंदा, मोतीलाल नेहरू
असहयोग आंदोलन कारण
प्रथम विश्व युद्ध ( 1914-18 ) के फलस्वरूप आत्म-निर्णय ( सेल्फ-डेटर्मिनेशन ) की भावना को बहुत बल मिला। इस युद्ध काल कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार का भरपूर सहयोग किया था। महात्मा गाँधी ने स्थान-स्थान पर जाकर लोगों को ब्रिटिश सेना में भर्ती और युद्ध के लिए प्रयत्न कएने को प्रेरित किया। लोग उन्हें सरकार का ‘भर्ती करने वाला सार्जेंट’ के नाम से पुकारते थे।
क्यों बदला कांग्रेस और गाँधी का रुख
1919 की कुछ घटनाओं से गाँधी जी को बहुत खेद हुआ। रौलट एक्ट ( जिससे प्रशासन को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और बिना मुकदमें के बंदीगृह में रखने का अधिकार था ) के पारित करने और अप्रैल 1919 में अमृतसर में हुए नरसंहार ( जलियांवाला बाग हत्याकांड ) को लेकर भारत में व्यापक आक्रोश से यह आंदोलन शुरू हुआ, जब ब्रिटिश नेतृत्व वाली सेना ने कई सौ भारतीयों को मार डाला।
बाद में यह गुस्सा उन लोगों के खिलाफ पर्याप्त कार्रवाई करने में सरकार की कथित विफलता पर आक्रोश से बढ़ गया, विशेष रूप से जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर, जिन्होंने नरसंहार में शामिल सैनिकों की कमान संभाली थी। गांधी ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्क साम्राज्य के विघटन के खिलाफ समकालीन मुस्लिम अभियान (खिलाफत आंदोलन ) का समर्थन करके आंदोलन को मजबूत किया।
असहयोग आंदोलन, 1920-22
असहयोग आंदोलन, 1920-22 में मोहनदास (महात्मा) गांधी द्वारा आयोजित असफल प्रयास, भारत की ब्रिटिश सरकार को भारत को स्वशासन, या स्वराज प्रदान करने के लिए बाध्य करने के लिए किया गया था। यह बड़े पैमाने पर सविनय अवज्ञा (सत्याग्रह) के गांधी के पहले संगठित कार्यों में से एक था।
आंदोलन को अहिंसक होना था और भारतीयों को अपनी उपाधियों से इस्तीफा देना था; सरकारी शैक्षणिक संस्थानों, अदालतों, सरकारी सेवाओं, विदेशी वस्तुओं और चुनावों का बहिष्कार करना; और, अंत में, करों का भुगतान करने से इंकार कर दिया।
इसके विपरीत अपने आप को अनुशासन में रखना, त्याग, राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं को बचाना, आपसी झगड़े का निपटारा पांचो की निर्णय से करना , हाथ से कते और बने कपड़े का प्रयोग करना इत्यदि भिन्न कार्य करने थे। सितंबर 1920 में कलकत्ता (अब कोलकाता) में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा असहयोग पर सहमति व्यक्त की गई और उसे दिसम्बर में आयोजित किया गया।
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चौरी-चौरा की घटना और असहयोग आंदोलन का अंत
1921 में इस असहयोग आंदोलन के अंतर्गत लगभग 30,000 लोग जेल गए। 1921 में पहली बार संयुक्त भारतीय मोर्चे का सामना करने वाली ब्रिटिश सरकार स्पष्ट रूप से हिल गई थी, लेकिन अगस्त 1921 में केरल (दक्षिण-पश्चिम भारत) के मुस्लिम मोपलाओं द्वारा विद्रोह और कई हिंसक प्रकोपों ने उदारवादी राय को चिंतित कर दिया।
फरवरी 1922 में चौरी-चौरा (अब उत्तर प्रदेश राज्य में) गाँव में गुस्साई भीड़ द्वारा पुलिस अधिकारियों की हत्या के बाद, गांधी ने स्वयं आंदोलन को बंद कर दिया; अगले महीने उन्हें बिना किसी घटना के गिरफ्तार कर लिया गया। इस आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रवाद के एक मध्यम वर्ग से बड़े पैमाने पर जागरूकता के रूप में चिह्नित किया।
असहयोग आंदोलन के बाद कांग्रेस में विद्रोह और ‘स्वराज्य दल’ का गठन
इस प्रकार अचानक असहयोग आंदोलन की समाप्ति की घोषणा से कांग्रेस के भीतर ही गाँधी की नीतियों का विरोध होने लगा। गाँधी की नीतियों से असंतुष्ट होकर श्री चितरंजन दास और पंडित मोतीलाल नेहरू ने एक ‘स्वराज्य दल’ का गठन किया। यह दल विधान परिषद में भाग लेने में विश्वास करता था। इस दल की योजना थी कि विधान परिषदों में शामिल होकर आंतरिक रूप से बाधा डाली जाये।
1923 के चुनावों में स्वराज्य दल को मध्य प्रान्त और बंगाल में पूर्ण बहुमत मिल गया और उन्होंने अपने विरोध से मंत्रियों के काम में बाधा डालकर उन्हें कार्य नहीं करने दिया। लेकिन शनैः-शनैः स्वराज्य दल के समर्थक गाँधी जी के निकट आने लगे।
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गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन क्यों बापस लिया
असहयोग आंदोलन को बापस लेने के पीछे मुख्य रूप से चौरी-चौरा की घटना ही जिम्मेदार थी। उस समय कांग्रेस के नेताओं मुख्य रूप से मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास ने गाँधी के इस कदम की आलोचना की और कहा कि जब आंदोलन अपने चरम पर था और सरकार झुकने ही वाली थी तब यह आंदोलन अचानक बापस करना मूर्खता थी।
लेकिन गाँधी जी के यहाँ विचार उनके विपरीत थे। गाँधी ने कहा कि यह आंदोलन एक अहिंसक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ था और यही उसका कार्यक्रम भी था। लेकिन चौरी-चौरा की घटना ने आंदोलन को हिंसा में बदल दिया और यह मेरे सिद्धांतों के विपरीत है। इसके अतिरिक्त यदि यह आंदोलन बापस नहीं लिया जाता तो अगंरेज सरकार इस आंदोलन को दबाने के लिए इतना क्रूर तरीका अपनाती कि भविष्य में कई वर्षों तक जनता में आंदोलन के नाम से भी भय उत्पन्न हो जाता।
असहयोग आंदोलन को बापस लेने के पीछे मुख्य रूप से चौरी-चौरा की घटना ही जिम्मेदार थी। उस समय कांग्रेस के नेताओं मुख्य रूप से मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास ने गाँधी के इस कदम की आलोचना की और कहा कि जब आंदोलन अपने चरम पर था और सरकार झुकने ही वाली थी तब यह आंदोलन अचानक बापस करना मूर्खता थी।
लेकिन गाँधी जी के यहाँ विचार उनके विपरीत थे। गाँधी ने कहा कि यह आंदोलन एक अहिंसक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ था और यही उसका कार्यक्रम भी था। लेकिन चौरी-चौरा की घटना ने आंदोलन को हिंसा में बदल दिया और यह मेरे सिद्धांतों के विपरीत है। इसके अतिरिक्त यदि यह आंदोलन बापस नहीं लिया जाता तो अगंरेज सरकार इस आंदोलन को दबाने के लिए इतना क्रूर तरीका अपनाती कि भविष्य में कई वर्षों तक जनता में आंदोलन के नाम से भी भय उत्पन्न हो जाता।
निष्कर्ष
इस प्रकार दोनों ही पक्ष के अपने-अपने तर्क थे लेकिन दोनों और के तर्क सिर्फ भविष्य के घटनाक्रम पर आधारित थे। जो भी हो इस आंदोलन ने भारतीयों को पहली बार सत्याग्रह से परिचित कार्य और राष्ट्रवाद के उदय में प्रमुख भूमिका निभाई।