वैदिककालीन वर्ण व्यवस्था: इतिहास और उसके उत्पत्ति संबन्धी सिद्धांत ?

प्राचीन भारतीय सामाजिक ढांचे को समझने के लिए आवश्यक है कि पहले वर्ण और जाति के स्वरुप को समझ लिया जाए। ऋग्वैदिक वर्ण वयवस्था के अनुसार वर्ण का निर्धारण कर्म से माना गया और समाज को उसी आधार पर – ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य,  शूद्र के अलग-अलग वर्ण निर्धारित किये गए। सामजिक स्थिति और शुद्धता … Read more

प्राचीन संस्कृत साहित्य: स्त्री और शूद्र का स्थान

शूद्र और स्त्री के संबंध में प्राचीन साहित्य में जिस प्रकार के उल्लेख प्राप्त होते हैं उन्हीं के आधार पर इन दोनों का सदियों तक शोषण किया जाता रहा और इनकी प्रगति के मार्ग अवरुद्ध कर दिए गए। प्राचीन संस्कृत साहित्य में स्त्री और शूद्र का स्थान prachin kaal me shudra aur striyon ki sthiti … Read more

चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास: प्रारम्भिक जीवन, साम्राज्य विस्तार, और प्रशासनिक व्यवस्था

चंद्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत में मौर्य साम्राज्य के संस्थापक थे। उनका जन्म 340 ईसा पूर्व में मगध राज्य में हुआ था, जो अब आधुनिक बिहार है। वह एक कुलीन परिवार का बेटा था लेकिन कम उम्र में ही अनाथ हो गया था। उसके बाद उनका पालन-पोषण शिकारियों के एक समूह ने किया, जिन्होंने उन्हें जीवित रहने के कौशल, शिकार और युद्ध करना सिखाया।

चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास: प्रारम्भिक जीवन, साम्राज्य विस्तार, और प्रशासनिक व्यवस्था

चंद्रगुप्त मौर्य

चंद्रगुप्त मौर्य प्रसिद्ध दार्शनिक चाणक्य के शिष्य बने, जिन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है, जिन्होंने उन्हें नंद वंश को उखाड़ फेंकने और मौर्य साम्राज्य की स्थापना में मदद की। चाणक्य के मार्गदर्शन में, चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध, कलिंग और वर्तमान अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों सहित भारत के कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की।

चंद्रगुप्त मौर्य अपने प्रशासनिक कौशल, सैन्य रणनीति और कूटनीति के लिए जाने जाते थे। उन्होंने अपने लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए कई सुधार और नीतियां पेश कीं, जिनमें एक केंद्रीकृत सरकार, वजन और माप की एक समान प्रणाली और सड़कों और बुनियादी ढांचे का एक नेटवर्क शामिल है।

24 वर्षों तक शासन करने के बाद, चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने पुत्र बिंदुसार के पक्ष में सिंहासन छोड़ दिया और जैन धर्म का पालन करते हुए एक तपस्वी बन गए।

चन्द्रगुप्त मौर्य
जन्म 340 ईसा  पूर्व ( पाटलिपुत्र )
पिता का नाम सर्वार्थसिद्धि मौर्या
माता का नाम मुरा मौर्या
 पत्नियां दुर्धरा, कार्नेलिया हेलेनाऔर चंद्र नंदिनी
पुत्र बिन्दुसार
पौत्र अशोक , सुसीम
धर्म जैन धर्म
राजधानी पाटलिपुत्र
प्रधानमंत्री चाणक्य
सेल्यूकस से युद्ध 305 ईसा पूर्व
 मृत्यु 298 ईसा पूर्व श्रवणवेलगोला ( मैसूर कर्नाटक )

चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास

चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम आते ही हमारे दिमाग में एकदम उस राजा की छवि घूमने लगती है जिसने भारत में एक ऐसा साम्राज्य स्थापित  सम्पूर्ण भारत को अपने छत्र के निचे ले लिया और उस साम्राज्य का नाम था मौर्य साम्राज्य। चन्द्रगुप्त मौर्य इस साम्राज्य का संस्थापक था। मौर्य साम्राज्य का इतिहास या उसकी सत्यता जानने के लिए हमें देशी और विदेशी साहित्य साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ता है। इसके सह ही पुरातत्व संबंधी साक्ष्यों का भी सहारा लेना पड़ता है

मौर्य वंश का इतिहास जानने के साधन 

 ब्राह्मण साहित्यिक साक्ष्य– ब्राह्मण साहित्य के अंतर्गत पुराण, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस नाटक प्रमुख हैं।  कौटिल्य का अर्थशास्त्र इनमें सबसे महत्पूर्ण है  ऐतिहासिक दृष्टि से यह बहुत महत्व रखता है।  अर्थशास्त्र मौर्य वंश के विषय में मत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है। 
 
बौद्ध ग्रन्थ— बौद्ध ग्रंथों  दीपवंश, महावंश, महावंश टीका, महाबोधिवंश, दिव्यदान, आदि ग्रंथों में मौर्यों के  विषय में उपयोगी जानकारी मिलती है। 
 
जैन ग्रन्थ— जैन ग्रंथों में भद्रवाहु का कल्पसूत्र तथा हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्वन का सहारा लेते हैं। 
 
विदेशियों  विवरण–क्लासिकल ( यूनानी-रोमन ) लेखकों के विवरण से भी बहुत महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। हमें इन लेखकों  ग्रंथों से चन्द्रगुप्त मौर्य के  विषय में पता चलता है। यूनानी ग्रंथों में चन्द्रगुप्त मौर्य को ‘सेंड्रोकोट्स’ तथा ‘एण्ड्रोकोट्स’ कहा गया है। इन नामों को सबसे पहले विलियम जोन्स ने चन्द्रगुप्त से  सुमेलित  किया।
सिकन्दर के लेखक – नियार्कस, आनेसिक्रित्स तथा आरिस्टोबुलस के विवरण चन्द्रगुप्त के विषय में महत्वपूर्ण सूचनाएं देते हैं।  सिकन्दर के बादके लेखकों में मेगस्थनीज का प्रमुख स्थान है जो चन्द्रगुप्त मौर्य दरबार में चार वर्ष रहा। उसकी पुस्तक इंडिका  ही मूल्यवान  है दुर्भाग्यवस  पुस्तक अपने मूल रूप  उपलब्ध  लेकिन स्ट्रैबो, डियोडोरस, प्लिनी, एरियन, प्लूटार्क तथा जस्टिन  लेखों में इंडिका के उद्धरण मिलते हैं। 
 
पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य– पुरातात्विक साक्ष्यों में सबसे पहला स्थान अशोक के अभिलेख हैं। अशोक के लगभग 40 अभिलेख भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान के विभिन्न भागों में प्राप्त हुए हैं। अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त महाक्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ ( गिरनार )  मौर्यकाल के विषय में जानकारी मिलती है। 
 

मौर्य वंश की स्थापना

भारत के महानतम सम्राटों में विख्यात चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्य वंश की स्थापना की।  मौर्य वंश का उदय इतिहास की सबसे रोमांचकारी घटना है। भारत को यूनानी दस्ता से मुक्त करने तथा नंदों के घृणित और अत्याचारी  शासन से भारत की जनता को मुक्ति दिलाने के साथ संपूर्ण भारत को राजनितिक एकता के सूत्र में संगठित  करने का महान कार्य चन्द्रगुप्त मौर्य ने  ही किया। 
 

चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति, क्या चन्द्रगुप्त मौर्य शूद्र थे?

चन्द्रगुप्त मौर्य जाति  विषय में बहुत मतभेद हैं और भारत  अधिकांश इतिहासकारों में मौर्यों को क्षत्रिय सिद्ध करने की होड़ लगी है।  जबकि अधिकांश ग्रंथों में चन्द्रगुप्त को शूद्र अथवा निम्नकुल में जन्मा बताया गया है। तत्कालीन भारतीय समाज में शायद ही जाती  इतना विकराल रूप  जैसा आज देखने को मिलता है। लेकिन भारतीय इतिहासकार यहाँ जातिगत पूर्वाग्रह  ग्रसित नज़र आते हैं। वो वर्तमान ऊंच-नीच की श्रेष्ठता को  चालाकी से अपने लेखों में मनमाने अर्थों में इसका प्रयोग जातिगत श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए करते हैं। आगे हम निम्न ग्रंथों में मौर्यों की जातिगत पहचान की समीक्षा करेंगे। 
 

वह ग्रन्थ जो मौर्यों को शूद्र घोषित करते हैं 

पुराण– ब्राह्मण साहित्य में हम सर्वप्रथम पुराणों उल्लेख कर सकते हैं। विष्णु पुराणमें कहा गया है कि शैशुनागवंशीन शासक महानंदी के पश्चात् शूद्र योनि  शासक पृथ्वी पर शासन करेंगे  ( ततः प्रभृत्ति राजानो भविष्यन्ति शूद्रयोनयः। — पार्जिटर, डायनेस्टीज ऑफ़ कलिएज, पृष्ठ 25 ) श्रीधर स्वामी जो विष्णुपुराण के एक भाष्यकार के एक भाष्यकार हैं के इस कथन के आधार पर चन्द्रगुप्त को नंदराज की पत्नी ‘मुरा’  से पैदा हुआ बताया है। उनके अनुसार मुरा का पुत्र होने के कारण ही वह मौर्य  कहलाये। 
 
मुद्राराक्षस–विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक में चद्रगुप्त मौर्य को नंदराज का पुत्र मन गया है। परन्तु इसमें जो वर्णन किया गया है उसके अनुसार चन्द्रगुप्त नंदराज का वैध पुत्र नहीं था।  इस नाटक में नदवंश को चन्द्रगुप्त का ‘पितृकुलभूत’ अर्थात पितृकुल बनाया गया पद उल्लिखित है।  यदि चन्द्रगुप्त नंदराज का वैध पुत्र होता तो उसके लिए ‘पितृकुल’ का प्रयोग होता। मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त को ‘वृषल’ तथा ‘कुलहीन’कहा गया है। मौर्यों की शूद्र जाती समर्थक विद्वान इन शब्दों को शूद्र शूद्र जाति के संबंध में ग्रहण किया है। 
 
मुद्राराक्षस के टीकाकार धुण्ढिराज का मत-– धुण्ढिराज ने एक कहानी के द्वारा चन्द्रगुप्त को शूद्र सिद्ध करने  किया है। इस कहानी के अनुसार सर्वार्थीसिद्धि नामक एक क्षत्रिय राजा की दो पत्नियां थीं- सुनंदा तथा मुरा। सुनंदा एक क्षत्राणी थी  पुत्र हुए जो ‘नव नन्द’ कहलाये। मुरा शूद्र ( वृषलात्मजा)  थी।उसका एक पुत्र हुस जो मौर्य कहलाया। 
 
 कथासरित्सागर तथा बृहत्कथामंजरी का विवरण– सोमदेव कृत ‘कथासरित्सागर’ तथा क्षेमेन्द्र कृत ‘बृहत्कथामंजरी’ दोनों ही चन्द्रगुप्त की शूद्र उत्पत्ति  बात करते हैं इन दोनों ग्रंथों में में एक विवरण  मिलता है जिसके अनुसार नंदराज की अचानक मृत्यु हो गयी तथा इंद्रदत्त नामक  व्यक्ति तोग के बल पर उसकी आत्मा में प्रवेश कर गया तथा राजा बन बैठा तत्पश्चात वह योगनंद  नाम से जाना जाने लगा। उसने नंदराज की पत्नी से विवाह कर लिया। जिससे उसे हिरण्यगुप्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। किन्तु वास्तविक नन्द राजा ( पूर्वनन्द ) को  पहले से ही एक पुत्र था जिसका नाम चन्द्रगुप्त था।
योगनंद अपने तथा अपने पुत्र हिरण्यगुप्त  के मार्ग   में बाधक समझता था। जिसके कारण  वैमनस्य हो गया। वास्तविक नन्द राजा के मंत्री शकटार ने चन्द्रगुप्त का साथ दिया । चाणक्य नामक चतुर ब्राह्मण को अपनी ओर शामिल कर लिया और फिर उसकी सहायता  से शकटार ने  योगनंद तथा हिरण्यगुप्त का वध कर दिया तथा राज्य के असली उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त को  सिंहासन पर  बैठाया। इस प्रकार इन दोनों ग्रंथों में चन्द्रगुप्त को  नंदराज का पुत्र बताकर उसकी शूद्र उत्पत्ति का मत व्यक्त किया गया है।
 

उपरोक्त तथ्यों और प्रसंगों को अधिकांश भारतीय इतिहासकार मिथ्या और काल्पनिक बताते हुए निम्नलिखित तर्क देकर मौर्यों की शूद्र उत्पत्ति को ख़ारिज करते हैं —

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Hadappa Sabhyata | सामाजिक और आर्थिक जीवन, महत्वपूर्ण स्थल और पतन के कारण

हड़प्पा सभ्यता
प्राचीन दुनिया में जब लोगों को ठीक से रहना भी नहीं आता था, उस समय भारत में एक पूर्ण विकसित सभ्यता अस्तित्व में थी। इस सभ्यता को Hadappa Sabhyata,हड़प्पा अथवा सिंधु सभ्यता के नाम से जाना जाता है। इस सभ्यता से प्राप्त अवशेषों के आधार के आधार पर हड्डपा सभ्यता का सामाजिक और आर्थिक जीवन के विषय में इस लेख में चर्चा की जाएगी। लेख को अंत तक तक अवश्य पढ़ें।
Hadappa Sabhyata | सामाजिक और आर्थिक जीवन, महत्वपूर्ण स्थल और पतन के कारण

Hadappa Sabhyata-हड़प्पा सभ्यता की खोज किसने की ?

हड़प्पा सभ्यता की खोज सन 1921 में राय बहादुर दयाराम साहनी द्वारा की गई। पाकिस्तान स्थित पंजाब (पाकिस्तान) के मोंटगोमरी ज़िले में रावी नदी के किनारे बसे हड़प्पा स्थल की खुदाई की थी भारतीय पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष जॉन मार्शल के समय 1921 में हड़प्पा की खुदाई कराइ गई। यहाँ से तांबे की इक्का गाड़ी, उर्वरता की देवी, कांस्य दर्पण, मछुआरे का चित्र,गरुड़ की मूर्ति,अबलोकितेश की मूर्ति साक्ष्य के रूप में मिले हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत से साक्ष्य मिले हैं।

हड़प्पा सभ्यता: सामाजिक जीवन

हड़प्पा सभ्यता में परिवार सामाजिक जीवन का मुख्य आधार था। परिवार में सब लोग प्रेमपूर्वक रहते थे। परिवार का मुखिया माता को माना जाता था यानि हड़प्पा सभ्यता में समाज मातृसत्तात्मक था।मोहनजोदड़ो की खुदाई से सामजिक विभाजन के संकेत प्राप्त होते हैं।सम्भवतः समाज चार वर्णों में विभाजित था- विद्वान-वर्ग, योद्धा, व्यापारी तथा शिल्पकार और श्रमिक। 

  • विद्वान वर्ग के अंतर्गत  सम्भवतः  पुजारी, वैद्य, ज्योतिषी तथा जादूगर सम्मिलित थे। 
  • समाज में पुरोहितों का सम्मानित स्थान था। 
  • हड़प्पा सभ्यता में मिले मकानों की विभिन्नता के आधार पर कुछ विद्वानों ने समाज जाति प्रथा के प्रचलित  अनुमार लगाया है। 
  • खुदाई में प्राप्त तलवार, पहरेदारों भवन तथा प्राचीरों अवशेष मिलने से वहां क्षत्रिय जैसे किसी योद्धा वर्ग के  अनुमान लगाया जाता है। 
  • तीसरे वर्ग में व्यापारियों तथा शिल्पियों जैसे पत्थर काटने वाले, खुदाई करने वाले, जुलाहे, स्वर्णकार, आदि को शामिल किया  है। 
  • अंतिम वर्ग में विभिन्न अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग जैसे- श्रमिक, कृषक, चर्मकार, मछुआरे, आदि। 
  •  कुछ विद्वान हड़प्पा सभ्यता में दास प्रथा के प्राचलन का भी अनुमान लगते हैं। 
  • परन्तु एस. आर. राव ने दास प्रथा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है। 

हड़प्पा सभ्यता में नारी का स्थान

 हड़प्पा सभ्यता में नारी का बहुत ऊँचा स्थान था।वह सभी सामाजिक  धार्मिक कार्यों तथा उत्सवों में पुरुषों  समान ही भाग थी।अधिकांश महिलाऐं घरेलु कार्यों से जुडी थीं। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।

सिंधु सभ्यता के लोगों का भोजन

  • सिंधु सभ्यता  शाकाहारी तथा माँसाहारी दोनों प्रकार का भोजन ग्रहण करते थे। 
  • गेहूँ, जौ, चावल, तिल, दाल आदि प्रमुख खाद्यान्न थे। 
  • शाक-सब्जियां, दूध तथा विभिन्न प्रकार फलों खरबूजा, तरबूज, नीबू, अनार, नारियल आदि का सेवन करते थे। 
  • मांसाहारी भोजन में सूअर, भेड़-बकरी, बत्तख, मुर्गी, मछलियां, घड़ियाल आदि खाया जाता था। 

सिन्धुवासियों के वस्त्र

  • सिन्धुवासी सूती तथा ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करते थे। 
  • स्त्रियां जूड़ा बांधती थीं तथा पुरुष लम्बे-लम्बे बाल तथा दाढ़ी-मुँछ रखते थे। 

 हड़प्पा सभ्यता  आभूषण

  • महिलाऐं तथा पुरुष दोनों ही आभूषणों का इस्तेमाल करते थे जैसे- अंगूठी, कर्णफूल, कंठहार आदि। 
  • हड़प्पा से सोने के मनकों वाला छः लड़ियों का एक सुन्दर हार मिला है। 
  • छोटे-छोटे सोने तथा सेलखड़ी  निर्मित मनकों वाले हार बड़ी संख्या में मिले। हैं 
  • मोहनजोदड़ो से मार्शल ने एक बड़े आकर का हार प्राप्त किया है जिसके बीच  गोमेद के मनके हैं। 
  • कांचली मिटटी, शंख तथा सेलखड़ी की बानी चूड़ियां मिली हैं। 
  • सोने, चांदी, तथा कांसे की चूड़ियां, मिटटी और तांबे की अंगूठियां भी मिली हैं। 
  • मोहनजोदड़ो की स्त्रियां काजल, पाउडर, तथा श्रृंगार प्रसाधन का प्रयोग  थीं। 
  • चन्हूदड़ो से लिपस्टिक  साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। 
  • शीशे, कंघी, का भी प्रयोग  था। 
  • तांबे  दर्पण, छूरे, कंघें, अंजन लगाने की शलाइयाँ, श्रृंगादान आदि  हैं। 
  • आभूषण बहुमूल्य पत्थरों, हाथी-दांत, हड्डी और शंख के बनते थे। 
  • खुदाई में घड़े, थालियां, कटोरे, तश्तरियां, गिलास, चम्मच आदि बर्तन  हैं  आलावा चारपाई, स्टूल, चटाई  प्रयोग  था। 
  •  ऋग्वेदिककालीन भाषा और काव्य 

सिन्धुवासियों के मनोरंजन के साधन

  • पासा इस सभ्यता के लोगों का प्रमुख खेल था। 
  • हड़प्पा से मिटटी, पत्थर तथा  मिटटी के बने सात पासे मिले हैं। 
  • सतरंज जैसे कुछ गोटियां भी मिली हैं जो मिटटी, शंख, संगमरमर, स्लेट, सेलखड़ी आदि से बनीं हैं। 
  • नृत्य भी प्रिय साधन था जैसा कि मोहनजोदड़ो से कांस्य निर्मित नृत्य मुद्रा में मिली मूर्ति  प्रतीत होता है। 
  • जंगली जानवरों  शिकार भी मनोरंजन  साधन था
  • मछली फंसना तथा चिड़ियों  शिकार करना नियमित व्यवसाय था। 
  • मिटटी की बानी खिलौना गाड़ियां मिली हैं जिनसे खेलते होंगे। 

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हड़प्पा सभ्यता से संबंधित प्रमुख पुरातत्ववेत्ता | Major archaeologist related to Harappan civilization

हड़प्पा सभ्यता को दुनियां के नक्से पर लाने वाले पुरातत्ववेत्ता जिनके नाम ही हम सुनते हैं, जैसे जॉन मार्शल, दयाराम साहनी, राखालदास बनर्जी, मार्टिन व्हीलर, अमलानंद घोष, अर्नेस्ट मैके, अरेल स्टीन, जे. पी. जोशी आदि।  इस लेख के द्वारा हम तीन  प्रमुख पुरातत्ववेत्ताओं सर जॉन मार्शल, दयाराम साहनी और राखालदास बनर्जी के विषय में विस्तार … Read more

सिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था | Sindhu Ghaati Sabhyta Ki Nagar Vyavastha

संपूर्ण विश्व में सिंधु सभ्यता जैसी नगर योजना अन्य किसी समकालीन सभ्यता में नहीं पाई गई है। सिंधु सभ्यता के नगर पूर्व नियोजित योजना से बसाये गए थे। सिंधु सभ्यता की  नगर  योजना को देखकर विद्वानों को भी आश्चर्य होता है कि आज भी हम उस सभ्यता का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हम अपने आपको आज भी पिछड़ा हुआ ही पाते हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था | Sindhu Ghaati Sabhyta Ki Nagar Vyavasthaसिन्धु घाटी सभ्यता की नगर व्यवस्था

नगरीय सभ्यता के जो प्रतीक होते हैं, और नगर की विशेषताएं होती हैं जैसे– आबादी का घनत्व, आर्थिक एवं सामाजिक प्रक्रियाओं में घनिष्ठ समन्वय, तकनीकी-आर्थिक विकास, व्यापार और वाणिज्य के विस्तार एवं प्रोन्नति के लिए सुनियोजित योजनाएँ तथा दस्तकारों और शिल्पकारों के लिए काम के समुचित अवसर प्रदान करना आदि।

हड़प्पा कालीन नगर योजना को इस प्रकार से विकसित किया गया था कि वह अपने नागरिकों के इन व्यवसायिक, सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम थी। हड़प्पा सभ्यता का नगरीकरण इसकी विकसित अवस्था से जुड़ा है अनेक विद्वानों ने हड़प्पा कालीन नगरीकरण को ‘नगरीय क्रांति’ की संज्ञा दी है, जिसका किसी शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता, विशिष्ट आर्थिक संगठन एवं सामाजिक-सांस्कृतिक एकता के बिना विकास नहीं हो सकता था।

हम वर्तमान नगरीकरण के संदर्भ में सिंधु सभ्यता की नगरीय विशेषताओं का तुलनात्मक अध्ययन करके वर्तमान के लिए विकास का मार्ग तैयार कर सकते हैं। जब हम देखते हैं कि आज भी भारत के बड़े-बड़े नगरों में बरसात के दिनों में जलभराव के कारण संकट उत्पन्न हो जाता है तब हमें धौलावीरा जैसे हड़प्पायी नगरों की याद आती है जहां वर्षा के पानी को एकत्र करने के विशिष्ट इंतजाम किए गए थे और हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो जैसे नगरों में जल को शहर से बाहर निकालने के लिए सुनियोजित नालों को तैयार किया गया था। आइए देखते हैं उस समय की नगरीय व्यवस्था किस प्रकार की थी–

सिंधु सभ्यता की नगरीय व्यवस्था

सिंधु सभ्यता के बड़े नगरों एवं कस्बों की आधारभूत संरचना एक व्यवस्थित नगर योजना को दर्शाती है। सड़कें और गलियां एक योजना के तहत निर्मित की गई थीं। मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हैं तथा उनको समकोण पर काटती सड़कें और गलियां मुख्य मार्ग को विभाजित करती हैं

 सिंधु सभ्यता के नगर सुविचार इत एवं पूर्व नियोजित योजना से तैयार किए गए थे। गलियों में दिशा सूचक यंत्र भी लगे हुए थे जो मुख्य मार्गो तथा मुख्य मार्ग  से जाने वाली छोटी गलियों को दिशा सूचित करते थे।

 सड़कें और गलियां  9 से लेकर  34 फुट चौड़ी थीं और कहीं-कहीं पर आधे मील तक सीधी चली जाती थी। ये मार्ग समकोण पर एक-दूसरे को काटते थे जिससे नगर वर्गाकार या आयताकार खंडों में विभाजित हो जाते थे। इन वर्गाकार या आयताकार खंडों का भीतरी भाग मकानों से भरी गलियों से विभाजित था।

 मोहनजोदड़ो की हर गली में सार्वजनिक कुआं होता था और अधिकांश मकानों में निजी कुऍं और स्नानघर होते थे। सुमेर की भांति सिंधु सभ्यता के नगरों में भी भवन कहीं भी सार्वजनिक मार्गों का अतिक्रमण करते दिखाई नहीं पड़ते।

 मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा, सुरकोटड़ा जैसे कुछ महत्वपूर्ण नगर दो भागों में विभाजित थे—-

1- ऊंचे टीले पर स्थित प्राचीन युक्त बस्ती जिसे नगर-दुर्ग कहा जाता है। तथा

2- इसके पश्चिम की ओर के आवासीय क्षेत्र को निचला नगर कहा जाता है। 

   हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा और सुरकोटड़ा में नगर-दुर्ग का क्षेत्रफल निचले नगर से कम था और वह हमेशा इसके पश्चिम में स्थित होता है।

मोहनजोदड़ो के नगर-दुर्ग में पाए गई भव्य इमारतें जैसे– विशाल स्नानागार, प्रार्थना-भवन, अन्नागार एवं सभा-भवन पकाई गई ईंटों से बनाए गए थे।

हड़प्पा को सिंधु सभ्यता की दूसरी राजधानी माना जाता है। यहां के नगर-दुर्ग के उत्तर में कामगारों (दस्तकारों) के आवास, उनके कार्यस्थल (चबूतरे) और एक अन्नागार था। यह पूरा परिसर यह दिखाता है कि यहां के कामगार बड़े अनुशासित थे।

राजस्थान में विलुप्त सरस्वती (घग्गर) नदी के बाएं तट पर स्थित कालीबंगा की नगर योजना वैसी ही थी जैसी कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की थी अर्थात पश्चिम दिशा में नगर-दुर्ग एवं पूर्व दिशा में निचला नगर। अर्थात नगर-दुर्ग के दो समान एवं सुनिर्धारित भाग थे—

 प्रथम भाग- दक्षिणी भाग में कच्ची ईंटों के बने विशाल मंच या चबूतरे थे जिन्हें विशेष अवसरों के लिए बनाया गया था।

द्वितीय भाग- उत्तरी भाग में आवासीय मकान थे।

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प्राचीन भारतीय इतिहास के 300 अति महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी

प्राचीन भारतीय इतिहास के 300 अति महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान  प्रश्नोत्तरी

प्राचीन भारतीय इतिहास के 300 अति महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी

प्राचीन भारतीय इतिहास

1- हड़प्पा की खोज किसने की 

उत्तर- दयाराम साहनी ने 

2- मोहनजोदड़ो को खोज किसने की 

उत्तर- राखालदास बनर्जी 

3-सिंधु सभ्यता किस प्रकार की सभ्यता थी 

उत्तर- नगरीय सभ्यता ( शहरी )

4-सिंधु घाटी सभ्यता का वह कौनसा स्थल है जहाँ से ईंटों से निर्मित कृत्रिम गोदी ( डॉकयार्ड )  मिला है 

उत्तर- लोथल 

5-हड़प्पा का बिना दुर्गवाला एकमात्र नगर 

उत्तर- चन्हूदड़ो 

6-मातृदेवी की पूजा किस सभ्यता से सम्बंधित है 

उत्तर- सिंधु सभ्यता से 

7-मिथिला राज्य से संबंधित तीन प्राचीन ऋषि 

उत्तर- कपिल मुनि , गार्गी और मैत्रेय 

8-वैदिक काल में लोहे का प्रयोग किस समय हुआ 

उत्तर- 1000 ईसा पूर्व के आसपास 

9- श्रमण कौन थे 

उत्तर- वैदिक काल के वे अध्यापक जो वेद और ब्राह्मण विरोधी शिक्षा देते थे वह ‘श्रमण’ कलाते थे 

10-हिन्दू धर्म के चार आश्रम कौन से हैं 

उत्तर- ब्रह्मचर्य – गृहस्थ – वानप्रस्थ – सन्यास 

11- सबसे प्राचीन वेद कौनसा है 

उत्तर- ऋग्वेद 

12- उपनिषद का क्या अर्थ है 

उत्तर- पास बैठना 

13- महाभारत का प्रथम नाम 

उत्तर- जय सहिंता 

14- पशुपति शिव की प्राचीनतम उपास्थि 

उत्तर- सिंधु सभ्यता में 

15- किस प्रकार के वर्तन ( मृदभांड) भारत में द्वित्य नगरीकरण के प्रारम्भ का प्रतीक है 

उत्तर- उत्तरी काले पॉलिश युक्त बर्तन

16-  दिलवाड़ा ( माउन्ट आबू राजस्थान ) के मंदिर किस धर्म से सम्बंधित हैं

उत्तर- जैन धर्म

17- सत्यमेव जयते किस ग्रन्थ से है लिया गया है 

उत्तर- मुंडकोपनिषद 

18- हड़प्पा के लोगो की सामाजिक व्यवस्था कैसी थी 

उत्तर- उचित समतावादी 

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सिन्धु घाटी सभ्यता-sindhu ghati sabhyata

 सिन्धु घाटी सभ्यता-sindhu ghati sabhyata      सिंधु घाटी सभ्यता ( Indus Valley Civilization ) – बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक अधिकांश विद्वान यही मानते थे कि वैदिक सभ्यता भारत की सर्वप्राचीन सभ्यता है और भारत का इतिहास वैदिक काल से ही प्रारंभ माना जाता था। परंतु बीसवीं शताब्दी के तृतीय दशक में इस भ्रामक धारणा … Read more

भारत में भूमि कर व्यवस्था: मौर्य काल से ब्रिटिश काल तक

भूमि व्यवस्था एक ऐसा विषय रहा है जिसने प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल और ब्रिटिश काल तक शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भू-राजस्व सरकार की आय का एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है चाहे राजतंत्र हो या प्रजातंत्र। हर काल और परिस्थिति में भू-राजस्व को अपनी सुविधा और मांग के अनुसार परिवर्तन से गुजरना … Read more

वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य

प्राचीन भारतीय इतिहास में वैदिक काल का अत्यधिक महत्व है। वैदिक काल अपनी वैदिक शिक्षा के साथ स्वास्थ्य के लिए भी प्रसिद्ध था। इस काल में यद्यपि शिक्षा का आधार संस्कृत था और केवल उच्च वर्ग को ही शिक्षा का अधिकार था। आज इस लेख में हम वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था का अध्ययन करेंगे। लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।

      

वैदिक कालीन शिक्षा और स्वास्थ्य

वैदिक कालीन शिक्षा

चाहे कितनी भी पिछड़ी मानव जाति हो उसके लिए भी पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान और अनुभव को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाना आवश्यक होता है, जिसके वास्ते उसे किसी न किसी तरह की शिक्षा प्रणाली अपनानी पड़ती है। वैदिक आर्य अपने पूर्व अर्जित ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाते थे। जिस ज्ञान को वह परम-पवित्र मानते थे, वह वेद के मंत्र थे।

ऋग्वैदिक आर्यों के समय से पहले मोहनजोदड़ो के लोग एक तरह की चित्र लिपि इस्तेमाल करते थे, जिसके हजार के करीब अक्षर प्राप्त हो चुके हैं, पर अभी तक पढ़ने की कुंजी नहीं मिली है। लिखने का पूरी तरह से प्रचार हो जाने पर भी वेदों को गुरुमुख से सुनकर पढ़ने का रिवाज हमारे यहां अभी भी पसंद किया जाता था, फिर ऋग्वेद के काल में उसे लिपिबद्ध करने का प्रयत्न किया गया होगा, इसकी संभावना नहीं है।

आर्य बहुत पीछे तक वेद के लिपिबद्ध करने के खिलाफ रहे, क्योंकि तब उनकी गोपनियता नष्ट हो जाती  वैदिक बागा में ही वाङमय ही क्यों, बौद्ध और जैन पिटक भी  शताब्दियों तक कंठस्थ रखे गये। बौद्ध त्रिपिटक बुद्ध-निर्वाण के चार शताब्दी बाद और जैन-आगम आठ शताब्दी बाद लिपिबद्ध हुए। कान से सुनकर सीखे जाने के कारण वेद को श्रुति कहते हैं। इसलिए बड़े विद्वान को बहुश्रुत—-बहुत सुना हुआ—- कहा जाता।

हमारी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई और उसका संबंध किस पुरानी लिपि से है, इसका निर्णय अभी नहीं हो सका है।  इतना मालूम है, कि हमारी सबसे पुरानी वर्णमाला ब्राह्मी है। जिसके निश्चित काल वाले नमूने अशोक के अभिलेखों में मिलते हैं, जो ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी में या बुद्ध निर्वाण से ढाई सौ वर्ष बाद के हैं।

पिपरहवा के ब्राह्मी अक्षर बुद्धकालीन है, यह विवादास्पद है। ईसा-पूर्व तृतीय शताब्दी से पहले की वर्णमाला के नमूने मोहनजोदड़ो, हड़प्पा की चित्र लिपियों में मिलते हैं। दोनों लिपियों का संबंध स्थापित करना मुश्किल है। यद्यपि मोहनजोदड़ो की चित्रलिपि से उच्चारण वाली वर्णमाला का निकलना बिल्कुल संभव है, पर ब्राह्मी मोहनजोदड़ो की लिपि से निकली, इसे सिद्ध करना अभी संभव नहीं है।

 उस समय किसी प्रकार की मौखिक शिक्षा पुरानी (अतएव पवित्र) कविताओं की जरूर होती थी। उसका संग्रह ऋग्वेद में होना चाहिए था। ऋग्वेद में होना चाहिए था। पर, वैसा नहीं देखा जाता। ऋग्वेद के प्राचीनतम ऋषि और उनकी कृतियां, हमें भारद्वाज, वशिष्ठ और विश्वामित्र तक ले जाती हैं। उससे पुराने दो-चार ही ऐसे ऋषि मिलते हैं, जिनकी कृतियां पुरानी हो सकती हैं, पर, भाषा और संग्रह की गड़बड़ी ने उनकी प्राचीनता को बहुत कुछ गंवा दिया है।

अनुमान किया जाता है कि, ऋग्वेद के महान ऋषियों ने इंद्र, अग्नि, मित्र के ऊपर जो हजारों और ऋचाएं बनाई थीं, उनमें कुछ शब्द या भाव में भारद्वाज से पुरानी हो सकती हैं ; पर, इसे निश्चयपूर्वक नहीं बतलाया जा सकता। हमारे सबसे पुराने देवता द्यौ और पृथ्वी हैं, जिन्हें ऋग्वेद में पितरौ  (दोनों माता-पिता) कहा गया है। द्यौ पिता और पृथ्वी माता द्यौ-पितर का ख्याल बहुत पुराना है।

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