प्राचीन भारत - 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण | क्या अशोक मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए जिम्मेदार था

मौर्य साम्राज्य प्राचीन भारत में सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यों में से एक था, जिसकी स्थापना 322 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी और 268 ईसा पूर्व में सम्राट अशोक के शासनकाल में अपने चरम पर पहुंच गया था। हालाँकि, पूरे इतिहास में कई अन्य महान साम्राज्यों की तरह, >मौर्य साम्राज्य ने भी गिरावट का अनुभव किया जिसके कारण उसका पतन हुआ। मौर्य साम्राज्य के पतन में योगदान देने वाले कई प्रमुख कारक थे:

मौर्य सामराज्य के पतन के कारण”

लगभग तीन शताब्दियों के उत्थान के त्पश्चात शक्तिशाली मौर्य-सम्राज्य अशोक की मृत्यु के पश्चात विघटित होने लगा और विघटन की यह गति संगठन की अपेक्षा अधिक तेज थी। अंततोगत्वा 184 ईसा पूर्व के लगभग अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की उसके अपने ही सेनापति पुष्यमित्र द्वारा हत्या के साथ इस विशाल साम्राज्य का पतन हो गया।

सामान्य तौर पर अनेक विद्वान अशोक की अहिंसक नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण मानते हैं। परंतु मौर्य साम्राज्य का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था, अपितु विभिन्न कारणों ने इस दिशा में योगदान दिया। सामान्य तौर से हम इस साम्राज्य के विघटन तथा पतन के लिए निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी ठहरा सकते हैं—

मौर्य साम्राज्य के पतन के प्रमुख कारण

सम्राट अशोक की  के पश्चात अयोग्य तथा निर्वल उत्तराधिकारी

मौर्य साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यह था कि अशोक की मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकारी नितांत अयोग्य तथा निर्बल हुये। उनमें शासन के संगठन एवं संचालन की योग्यता का अभाव था। विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि उन्होंने साम्राज्य का विभाजन भी कर लिया था। राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर में जालौक नें स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया।

तारानाथ के विवरण से पता चलता है कि वीरसेन ने गंधार प्रदेश में स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली। कालिदास के मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ भी एक स्वतंत्र राज्य हो गया था। परवर्ती मौर्य शासकों में कोई भी इतना सक्षम नहीं था कि वह अपने समस्त राज्यों को एकछत्र शासन-व्यवस्था के अंतर्गत संगठित करता। विभाजन की इस स्थिति में यवनों का सामना संगठित रूप से नहीं हो सका और साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी था।

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भारत में आर्यों का आगमन: ऋग्वेद में वर्णित विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर विवरण

भारत में आर्यों का आगमन एक जटिल विषय है जिस पर अभी भी विद्वानों और इतिहासकारों के बीच बहस होती है। आर्य प्रवासन सिद्धांत, जिसे आर्यन आक्रमण सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है, 19वीं शताब्दी में पश्चिमी विद्वानों द्वारा प्रस्तावित किया गया था और सुझाव दिया गया था कि आर्यों नामक इंडो-यूरोपीय लोगों … Read more

प्रागैतिहासिक काल: पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल, नवपाषाण काल, प्रमुख स्थल और औजार तथा हथियार

भारतीय प्रागैतिहासिक काल लिखित अभिलेखों के आगमन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में प्रारंभिक मानव के समय को संदर्भित करता है। यह लिखित दस्तावेजों या शिलालेखों की अनुपस्थिति की विशेषता है, जिससे इस अवधि की हमारी समझ काफी हद तक पुरातात्विक साक्ष्यों, जीवाश्मिकी निष्कर्षों और मानवशास्त्रीय अध्ययनों पर निर्भर करती है। भारतीय प्रागैतिहासिक काल ने बाद के ऐतिहासिक काल की नींव रखी, जिसमें प्रारंभिक मानव समाजों का उदय, कृषि और बसे हुए समुदायों का विकास, और प्रारंभिक सभ्यताओं का उदय, भारतीय उपमहाद्वीप के समृद्ध और विविध इतिहास के लिए मंच तैयार किया।

प्रागैतिहासिक काल: पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल, नवपाषाण काल, प्रमुख स्थल और औजार तथा हथियार

 

प्रागैतिहासिक काल

प्रागैतिहासिक काल अर्थ है

भारतीय प्रागैतिहासिक काल को तीन व्यापक चरणों में विभाजित किया गया है:

इतिहास का विभाजन प्रागितिहास ( Pre-History ), आद्य इतिहास ( Proto-History ), तथा इतिहास ( History ) तीन भागों में किया गया है—

प्रागितिहास- प्रागितिहास काल से तात्पर्य उस काल से है जिसमें किसी भी प्रकार की लिखित सामग्री का अभाव है। जैसे पाषाण काल जिसमें लिखित सक्ष्य नहीं मिलते।

आद्य इतिहास– वह काल जिसमें लिपि के साक्ष्य तो हैं परन्तु वह अभी तक पढ़े नहीं जा सके। जैसे हड़प्पा सभ्यता की लिपि आज तक अपठ्नीय है।

इतिहास–  जिस काल से लिखित साक्ष्य मिलने प्रारंभ होते हैं उस काल को ऐतिहासिक (इतिहास ) काल कहते हैं

इस दृष्टि से पाषाण कालीन सभ्यता प्रागितिहास तथा सिंधु एवं वैदिक सभ्यता आद्य-इतिहास के अंतर्गत आती है। ईसा पूर्व छठी शती से ऐतिहासिक काल प्रारंभ होता है। किंतु कुछ विद्वान ऐतिहासिक काल के पूर्व के समस्त काल को प्रागितिहास की संज्ञा देते हैं।

 पाषाण काल का विभाजन 

भारत में पाषाणकालीन सभ्यता का अनुसंधान सर्वप्रथम 1807 ईस्वी में प्रारंभ हुआ जबकि भारतीय भूतत्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान ‘रॉबर्ट ब्रूस फुट’ ने मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पूर्व पाषाण काल का एक पाषाणोपकरण प्राप्त किया।

तत्पश्चात विलियम किंग, ब्राउन, काकबर्न, सी०एल० कार्लाइल आदि विद्वानों ने अपनी खोजों के परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्र से कई पूर्व पाषाणकाल के उपकरण प्राप्त किये। सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान 1935 ईस्वी में डी० टेरा तथा पीटरसन द्वारा किया गया इन दोनों विद्वानों के निर्देशन में येल कैंब्रिज अभियान दल ने शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में बसे हुए पोतवार के पठारी भाग का व्यापक सर्वेक्षण किया था।

इन अनुसंधानों से भारत की पूर्व पाषाणकालीन सभ्यता के विषय में हमारी जानकारी बढ़ी। विद्वानों का विचार है कि इस सभ्यता का उदय और विकास प्रतिनूतनकाल ( प्लाइस्टोसीन एज ) में हुआ। इस काल की अवधि आज से लगभग 500000 वर्ष पूर्व मानी जाती है।

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प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में स्त्रियों की दशा | ब्राह्मण ग्रंथों में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, शिक्षा, और धन संबंधी अधिकार

विश्व के किसी भी देश अथवा उसकी सभ्यता और उसकी प्रगति को समझने के लिए उसकी उपलब्धियों एवं श्रेष्ठता का मूल्यांकन करने का सर्वोत्तम आधार उस देश में स्त्रियों की दशा का अध्ययन करना है। स्त्रीयों की दशा किसी देश की संस्कृति का मानदंड को प्रदर्शित करती है। समुदाय का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक आधार रखता है। प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में, हिंदू समाज में इसका अध्ययन निश्चयतः ही उसकी गरिमा को इंगित करता है।

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल काल में स्त्रियों की दशा | ब्राह्मण ग्रंथों में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, शिक्षा, और धन संबंधी अधिकार

प्राचीन एवं पूर्व मध्यकाल

वैदिक काल में स्त्रियों की दशा
हिंदू सभ्यता में स्त्रियों को अत्यंत आदरपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। भारत की प्राचीनतम सभ्यता सैन्धव सभ्यता के धर्म में माता देवी को सर्वोच्च पद प्रदान किया जाना उसके समाज में उन्नत स्त्री दशा का सूचक माना जा सकता है। ऋग्वैदिक काल में समाज ने उसे आदरणीय स्थान दिया। उसके धार्मिक तथा सामाजिक अधिकार पुरुषों के ही समान थे।
विवाह एक धार्मिक संस्कार माना जाता था दंपत्ति घर के संयुक्त अधिकारी होते थे। यद्यपि कहीं-कहीं कन्या के नाम पर चिंता व्यक्त की गई है तथापि कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जहां पिता विदुषी एवं योग्य कन्याओं की प्राप्ति के लिए विशेष धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करते हैं। कन्या को पुत्र जैसा ही शैक्षणिक अधिकार एवं सुविधाएं प्रदान की गई थीं।
कन्याओं का भी उपनयन संस्कार होता था तथा वे भी ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करती थी। ऋग्वेद में अनेक ऐसी स्त्रियों का वर्णन है जो विदुषी तथा दार्शनिक थी और जिन्होंने कई मंत्रों एवं ऋचाओं की रचना भी की थी। विश्वारा को ‘ब्रह्मवादिनी’ तथा ‘मंत्रदृष्ट्रि’ कहा गया है, जिसने ऋग्वेद के एक स्तोत्र की रचना की थी।
घोषा, लोपामुद्रा, शाश्वती, अपाला, इंद्राणी, सिकता, निवावरी आदि विदुषी स्त्रियों के कई नाम मिलते हैं जो वैदिक मंत्रों तथा स्तोत्रों की रचयिता हैं। ऋग्वेद में बृहस्पति तथा उनकी पत्नी ‘जुहु’ की कन्या की कथा मिलती है। बृहस्पति अपनी पत्नी को छोड़कर तपस्या करने गए किंतु देवताओं ने उन्हें बताया कि पत्नी के बिना अकेले तप करना अनुचित है। इस प्रकार के उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि स्त्री पुरुष की ही भांति तपस्या करने की भी अधिकारिणी थी।

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हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार कौन-कौन से है? | Hindu Dharma Ke Solah Sanskar

हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार संस्कार क्या है? संस्कार शब्द सम् उपसर्ग ‘कृ’ धातु में घञ् प्रत्यय लगाने से बनता है जिसका शाब्दिक अर्थ है परिष्कार, शुद्धता अथवा पवित्रता। हिंदू सनातन परंपरा में संस्कारों का विधान व्यक्ति के शरीर को परिष्कृत अथवा पवित्र बनाने के उद्देश्य से किया गया ताकि वह व्यक्तिक एवं सामाजिक विकास … Read more

पुरुषार्थ किसे कहते हैं: पुरुषार्थ का अर्थ, जीवन में महत्व और भारतीय संस्कृति

पुरुषार्थ प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। प्राचीन ऋषि-मुनियों की दार्शनिक की अभिव्यक्ति, जिसमें जीवन के महत्व को समझाया गया। पुरुषार्थ को अंग्रेजी में एफर्ट यानि प्रयास कहते हैं। इस प्रकार पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है प्रयास करना। आज इस लेख में हम पुरुषार्थ किसे कहते हैं? पुरूषर्थ का अर्थ, महत्व और भारतीय … Read more

वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था | vaidic kaalin ashram vyvastha in hindi

वैदिक काल के सामाजिक जीवन में आश्रम व्यवस्था का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस व्यवस्था के अनुसार मनुष्य के जीवन को चार भागों में बनता गया और प्रत्येक भाग के लिए 25-25 वर्ष निर्धारित किये। ‘वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था’ के माध्यम से मानव जीवन के कर्तव्यों का निर्धारण किया गया। लेकिन यह भी सत्य है की ये व्यवस्था समाज के उच्च वर्ग के लिए ही निर्धारित थी बहुसंख्यक ( शूद्र ) को इस व्यवस्था से बंचित रखा गया था इस ब्लोग्स के माध्यम से हम वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था के विषय में विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगें।

प्राचीन वैदिक कालीन आश्रम व्यवस्था

  • 1-ब्रह्मचर्य
  • 2-गृहस्थ
  • 3-वानप्रस्थ
  • 4-संन्यास 
 
आश्रम व्यवस्था हिंदू सामाजिक संगठन की दूसरी महत्वपूर्ण संस्था है जो वर्ण के साथ संबंधित है। आश्रम मनुष्य के प्रशिक्षण की (Nurture) समस्या से संबंद्ध है जो संसार की सामाजिक विचारधारा के संपूर्ण इतिहास में आद्वितीय है। हिंदू व्यवस्था में प्रत्येक मनुष्य का जीवन एक प्रकार के प्रशिक्षण तथा आत्मानुशासन का है। इस प्रशिक्षण के दौरान उसे चार चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। ये प्रशिक्षण की चार अवस्थाएं हैं।
‘आश्रम’ शब्द की उत्पत्ति श्रम शब्द से है जिसका अर्थ है परिश्रम या प्रयास करना। इस प्रकार आश्रम वे स्थान है जहां प्रयास किया जाए। मूलतः आश्रम जीवन की यात्रा में एक विश्राम स्थल का कार्य करते हैं जहां आगे की यात्रा के लिए तैयारी की जाती है। जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। प्रभु ने मोक्ष प्राप्ति की यात्रा में आश्रमों को विश्राम स्थल बताया है।

आश्रम व्यवस्था के मनो-नैतिक आधार पुरुषार्थ हैं, जो आश्रम के माध्यम से व्यक्ति को समाज से जोड़कर उसकी व्यवस्था एवं संचालन में सहायता करते हैं। एक ओर जहां मनुष्य आश्रमों के माध्यम से जीवन में पुरुषार्थ के उपयोग करने का मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण प्राप्त करता है तो दूसरी और व्यवहार में वह समाज के प्रति इनके अनुसार जीवन-यापन करता हुआ अपने कर्तव्यों को पूरा करता है।

प्रत्येक आश्रम जीवन की एक अवस्था है जिसमें रहकर व्यक्ति एक निश्चित अवधि तक प्रशिक्षण प्राप्त करता है। महाभारत में वेदव्यास ने चारों आश्रमों को ब्रह्मलोक पहुंचने के मार्ग में चार सोपान निरूपित किया है। भारतीय विचारकों ने  चतुराश्रम व्यवस्था के माध्यम से प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के आदर्शों में समन्वय स्थापित किया है।

वर्ण व्यवस्था का इतिहास और उसके उत्पत्ति संबन्धी सिद्धांत ?

धर्म शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित चतुराश्रम व्यवस्था के नियमों का पालन प्राचीन इतिहास के सभी कालों में समान रूप से किया गया हो ऐसी संभावना कम ही है। पूर्व मध्यकाल तक आते-आते हम इसमें कुछ परिवर्तन पाते हैं। इस काल के कुछ पुराण तथा विधि ग्रंथ यह विधान करते हैं कि कलयुग में दीघ्रकाल तक ब्रह्मचर्य पालन तथा वानप्रस्थ में प्रवेश से बचना चाहिए।

बाल विवाह के प्रचलन के कारण भी ब्रह्मचर्य का पालन कठिन हुआ होगा। शंकर तथा रामानुज दोनों ने इस बात का उल्लेख किया है कि साधनों के अभाव तथा निर्धनता के कारण अधिकांश व्यक्ति आश्रम व्यवस्था का पालन नहीं कर पाते थे।

चार आश्रम तथा उनके कर्तव्य हिंदू धर्म शास्त्र मनुष्य की आयु 100 वर्ष मानते हैं तथा प्रत्येक आश्रम के निमित्त 25-25 वर्ष की अवधि निर्धारित करते हैं। चरों आश्रमों और उस आश्रम के लिए निर्धारित समय में किन-किन बातों या नियमों का पालन किया जाता था उसके बारे में वर्णन  इस प्रकार से है—

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सम्राट अशोक की जीवनी: प्राम्भिक जीवन 273-236 ईसा पूर्व, कलिंग युद्ध, बौद्ध धर्म, धम्म का प्रचार, प्रशासनिक व्यवस्था और मूल्यांकन

सम्राट अशोक, प्राचीन भारत में मौर्य साम्राज्य के एक महानतम शासक थे। वह 268 ईसा पूर्व में सिंहासन पर चढ़े और उनका शासन लगभग 40 वर्षों तक चला। अशोक को भारत के महानतम राजाओं में से एक और विश्व इतिहास में एक उल्लेखनीय व्यक्ति माना जाता है। आज इस लेख में हम का अध्ययन करेंगे, … Read more

अशोक के अभिलेख- ऐतिहासिक महत्व और विशेषताएं | Ashoka’s inscriptions in Hindi

आज के वर्तमान युग में में प्रचार और सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए बहुत से संसाधन उपलब्ध हैं। लेकिन प्राचीन काल में प्रचार के संसाधन नगण्य थे। मौर्य वंश के तीसरे शासक सम्राट अशोक ने अपने धम्म के प्रचार और राजाज्ञाओं को जनता तक पहुँचाने के लिए पत्थर और शिलाओं पर अभिलेर्खों के माध्यम से जनता तक अपनी राज्ञाओं और निर्देशों को खुदवाया। आज इस लेख में हम सम्राट अशोक के अभिलेखों का अध्ययन करेंगे।

अशोक के अभिलेख- ऐतिहासिक महत्व और विशेषताएं | Ashoka's inscriptions in Hindi

अशोक के अभिलेख Ashok Ke Abhilekh

मौर्य सम्राट अशोक के विषय में सम्पूर्ण समूर्ण जानकारी उसके अभिलेखों से मिलती है। यह मान्यता है कि , अशोक को  अभिलेखों की प्रेरणा डेरियस (ईरान के शासक ) से मिली थी।  अशोक के 40 से भी अधिक अभिलेख भारत के बिभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

ब्राह्मी , खरोष्ठी और आरमेइक-ग्रीक लिपियों में लिखे गए हैं। अशोक के ये शिलालेख हमें अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रसार हेतु किये गए उन प्रयासों का पता चलता है जिनमें अशोक ने बौद्ध धर्म को भूमध्य सागर तक से लेकर मिस्र तक बुद्ध धर्म को पहुँचाया। अतः यह भी स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य कालीन राजनैतिक संबंध मिस्र और यूनान से जुड़े हुए थे।

  • इन शिलालेखों में बौद्ध धर्म की बारीकियों पर कम सामन्य मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं।
  • पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मागधी में ब्राह्मी लिपि के प्रयोग  लिखे गए थे।
  • पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं।
  • एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गयी है, जबकि एक अन्य शिलालेख में यूनानी और आरमेइक भाषा में द्वभाषीय आदेश दर्ज है।
  • इन शिलालेखों में सम्राट स्वयं को “प्रियदर्शी” ( प्रकृत में  “पियदस्सी”) और देवानाम्प्रिय ( अर्थात डिवॉन को प्रिय , प्राकृत में “देवनंपिय”) की उपाधि से सम्बोधित किया है।

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