बलबन का प्रारम्भिक जीवन
बलबन दास वंश के सुल्तानों में सबसे अधिक शक्तिशाली माना जाता है। बलबन का जन्म 1216 ईस्वी में तुर्किस्तान में हुआ था। उसका वास्तविक नाम बहाउद्दीन था। वह इल्बारी तुर्क जाति से संबंधित था। उसे बचपन में ही मंगोलो ने पकड़ लिया था। बलबन को मंगोलो ने गजनी में ख्वाजा जमालुद्दीन को बेच दिया था।
बलबन भारत कब आया
बलबन चूँकि एक गुलाम था और उस समय गुलामों को बेचने और खरीदने का चलन था। ख्वाजा जमालुद्दीन 1232 ईस्वी में कई गुलामों को बेचने दिल्ली आया और बलबन भी उसमें से एक था। इल्तुतमिश ने बलबन को खरीद लिया और उसे तुर्क-ए-चलगानी का हिस्सा बना लिया।
बलबन किसका गुलाम था?
बलबन पहले ख्वाजा जमालुद्दीन का गुलाम उसने बलबन को दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश को बेच दिया और इस तरह वह इल्तुतमिश का गुलाम बन गया. इल्तुतमिश ने इसे 1232-33 में ग्वालियर विजय के बाद दिल्ली में खरीदा था.
नाम | गयासुद्दीन बलबन |
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वास्तविक नाम | बहाउद्दीन |
जन्म | 1216 ईस्वी |
जन्मस्थान | तुर्किस्तान |
वंश | Slave Dynasty (गुलाम वंश) |
शासनकाल | 1265-1286 |
पूर्ववर्ती | नासिरुद्दीन महमूद |
उत्तरवर्ती | मुईज़ुद्दीन क़ैक़ाबाद |
मृत्यु | 1286 |
मृत्यु का स्थान | दिल्ली |
आयु मृत्यु के समय | 71 वर्ष |
धर्म | Sunni Islam (इस्लाम) |
जाति | तुर्क |
पत्नी | — |
संतान | मुहम्मद खान नासिरुद्दीन बुग़रा खान |
बलबन की शासन में भागीदारी
इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद रजिया सुल्तान के शासन काल में उसे अमीर-ए-शिकार यानि शिकार का प्रमुख नियुक्त किया गया। वह तुर्की सरदारों के साथ मिलकर रजिया के विरुद्ध षड्यंत्रों में शामिल रहा। बहराम शाह ने उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर पंजाब में उसे रेवाड़ी की जागीर प्रदान की। उसे हांसी का जिला भी प्राप्त हुआ था।
मंगोलों विरुद्ध सफलता
मंगोल जो कि दुर्दांत थे भारत पर आक्रमण करके उच का घेरा डाल दिया। मगर 1246 ईस्वी में बलबन ने मंगोलों को घेरा उठाने को मजबूर कर दिया।
नासिरुद्दीन को सिंहासन प्राप्ति में सहायता
दिल्ली का सुल्तान महमूदशाह था और बलबन ने उसको उखड फेंकने में नसीरुद्दीन की मदद की। सेवाओं से खुश नासिरुद्दीन ने बलबन के छोटे भाई को अमीर-ए-हाजिब (मुख्य शाही प्रबंधक) नियुक्त किया। उसके चचेरे भाई शेर खां को लाहौर व भटिंडा का प्रांताध्यक्ष नियुक्त किया और बलबन को नाइब-ए-मुमलिकत दीवान-ए-रसालत ( विभाग के अंतर्गत आता था ) नियुक्त किया गया। उसी वर्ष बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नासिरुद्दीन से कर दिया।
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बलबन की शक्ति का पराभव
बलबन की बढ़ती शक्ति से कई अमीर उससे घृणा करने लगे और सुल्तान नासिरुद्दीन के कान भरने शुरू कर दिए। 1253 ईस्वी में बलबन की शक्ति का पतन हो गया। बलबन का सबसे बड़ा प्रतिद्व्न्दी इमादुद्दीन रैहान था। रैहान नासिरुद्दीन का विश्वास जीतने में सफल हुआ और प्रधानमंत्री नियुक्त हुआ।
बलबन और उसके भाई को 1253 ईस्वी में दरबार से निकाल दिया गया। रैहान पहले हिन्दू था और धर्म परिवर्तन कर चुका था। लेकिन रैहान ज्यादा दिन सत्ता का भोग नहीं कर सका, बलबन ने एक बार फिर तुर्की सरदारों ने सहयोग से 1254 ईस्वी में रैहान को निष्कासित कर दिया और नाइब
के पद पर बैठ गया।
सत्ता पर कब्ज़ा मजबूत करने की नीति
बंगाल के प्रांताध्यक्ष का विद्रोह- बंगाल प्रांताध्यक्ष तुगन खां ने विद्रोह कर दिल्ली की सत्ता को मानने से इंकार कर दिया। बलबन ने इस चुनौती से निपटने के लिए तैमूर खां को बंगाल पर अधिकार करने भेजा। तुगन खां सफल हुआ। लेकिन शीघ्र ही तुगन खां की मृत्यु हो गई।
तुगन के उत्तराधिकारी ने 1255 में बंगाल की सत्ता संभाल ली और आपने नाम का खुतबा पढ़वाया, सिक्के जारी किये। 1257 ईस्वी में इसकी भी मृत्यु हो गई। लेकिन अरसलन खां ने बंगाल पर स्वतंत्र शासक के रूप में शासन करने लगा। नासिरुद्दीन महमूद के समय तक यही स्थिति बनी रही।
हिन्दुओं के साथ बलबन की क्रुरता
बलबन ने दोआब के हिन्दुओं पर घोर अत्याचार किये और उन्हें मौत के घाट उतार दिया। स्त्री और बच्चों को दास बना लिया। मेबात को लोगों को दण्ड दिया और रणथम्बौर को विजय कर लिया। 1247 ईस्वी में बलबन ने कालिंजर के चंदेल शासक को कुचल दिया। 1251 में बलबन ने ग्वालियर के शासक पर चढ़ाई की।
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बलबन का शासन काल- सुल्तान के रूप में बलबन
नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु 1266 में होने के बाद बलबन ने दिल्ली के सुल्तान के रूप में नया जीवन शुरू किया। जिस समय बलबन गद्दी पर बैठा राज्य दशा और राजकोष अस्त- व्यस्त था। इस स्थिति का वर्णन जियाउद्दीन बरनी इन शब्दों में वर्णन किया है –
“शासन सत्ता भय जो समस्त अच्छे शासन का आधार है और राज्य के वैभव व ऐश्वर्य का स्रोत है, सब लोगों के दिल से समाप्त हो चुका था और देश गर्त में जा चुका था। “
बलबन की सुल्तान के रूप में उपलब्धियां
दोआब की समस्या का निदान
मेवाड़ के रजपूतों और डाकुओं के गिरोहों द्वारा सुल्तनत को लगान उगाने में अक्सर समस्या होती थी। बलबन ने बहुत ही कठोरता से डाकुओं और विद्रोहियों का सफाया किया। दोआब और अवध के विद्रोहियों को बलबन ने खुद कुचला। भोजपुर, पटियाली, कम्पली व जलाली में खरनाक अफगान सैनिकों के नेतृत्व में चौकियां बनाई गईं। कटेहर [रुहेलखंड] के गांव को लूटने और जलाने के आदेश सैनिकों को दिए। गांव व जंगल में लाशों के ढेर लग गए।
बंगाल की समस्या का निदान
तुगरिल खां बंगाल में बलबन के सहायक के रूप में काम देख रहा था। मगर बलबन की वृद्धावस्था के कारण उसने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। बलबन ने उसे दण्डित करने के लिए अल्पतगीन उर्फ़ अमीर खाँ के नेतृत्व में एक सेना भेजी। अमीर खां पराजित हुआ और सैनिकों सहित तुगरिल से जा मिला।
1280 में मलिक तरगी के नेतृत्व में इस आदेश के साथ सेना भेजी कि अमीर खां को मारकर दिल्ली के द्वार पर लटका दिया जाये। मगर यह अभियान असफल रहा।
अब बलबन ने स्वयं अभियान का नेतृत्व करने का निर्णय लिया। अपने पुत्र बुगरा खां के साथ बंगाल की और निकल पड़ा। जब तुगरिल को यह पता चला तो वह तो वह लखनौती छोड़कर जाजनगर के जंगलों में भाग गया। मगर तुगरिल को खोज लिया गया, मालिक मुकद्दर के एक तीर से तुगरिल ढेर हो गया। तुगरिल का सिर धड़ से अलग कर नदी में फेंक दिया।
बरनी के शब्दों में – “लखनौती के मुख्य बाजार के दोनों ओर, दो मील से अधिक लम्बी सड़क पर सूलियों की एक पक्तिं बनाई गई और तुगरिल के साथियों को उन पर चढ़ा दिया। किसी भी देखने वाले ने ऐसा भयानक मंजर कभी न देखा होगा, कई लोग रक्त देखकर मूर्छित हो गए। “
सुल्तान बुगरा खां को बंगाल का राज्यपाल नियुक्त कर दिया। बंगाल छोड़ने से पहले बलबन ने अपने पुत्र से कहा – “मुझे समझ लो और यह न भूलना कि यदि हिन्द या सिंध, मालवा या गुजरात, लखनौती या सोनार गांव के राज्यपाल ने तलवार खींची और दिल्ली के सिंहासन के विरुद्ध विद्रोह किया यही दंड मिलेगा जो तुगरिल और उसके साथियों, उनकी स्त्रियों व बच्चों और उनके सहयोगियों को मिला।” 1339 ईस्वी तक बुगरा खां और उसके उत्तराधिकारी बंगाल पर शासन करते रहे रहे।
मंगोलो से निपटने के उपाय
- मंगोल अक्सर भारत पर आक्रमण करते रहते थे और बलबन के समय इनका भय और बढ़ गया। उसने मंगोल आक्रमणों से निपटने के लिए निम्नलिखित उपाय किये —
- खुदको हमेशा तैयार रखा।
- समीवर्ती जनजातियों खोखरों और अन्य को कुचला।
- साल्ट रेंज पर आक्रमण कर बलबन ने खोखरों को दण्डित किया। हलाकि वह खोखरों को स्थाई रूप से परास्त न कर सका और न ही उन्हें मित्र बना सका।
- दुर्गों की मरम्मत- पश्चिमी सीमाओं की सुरक्षा के लिए पुराने दुर्गों की मरम्मत कराई और एक स्थाई सेना वहां स्थापित की।
- नई चौकियों की व्यवस्था कराई।
- शेर खां जैसे योग्य सैनिक के नेतृत्व में सीमाओं पर पहरा लगाया। शेर खां भटिंडा, भटनेर, सुनाम और समाना का प्रांताध्यक्ष रह चुका था। लेकिन बलबन उसकी शक्ति से डरने लगा और उसे जहर देकर मरवा दिया।
- शेरखां का भय ख़त्म होते ही 1272 ईस्वी में मंगोलों, खोखरों और अन्य जातियों ने हमले हमले शुरू कर दिए। बलबन ने तैमूर खां इनसे निपटने के लिए नियुक्त किया मगर सफलता नहीं मिली।
- बलबन ने अपने पुत्र मुहम्मद को दक्षिणी सीमाओं का प्रबंधक नियुक्त किया।
- 1279 व 1285 में मंगोलों ने भयंकर आक्रमण किये मगर बलबन उन्हें खदेड़ने में सफल रहा।
- 1286 में मंगोलों के आक्रमण में बलबन का पुत्र मारा गया।
बलबन की मृत्यु कैसे हुई?
अपने पुत्र मुहम्मद की मृत्यु से बलबन को गहरा आघात लगा। अकेलेपन से घबराकर बलबन ने अपने पुत्र और बंगाल के सूवेदार बुगरा खां को अपने पास बुला लिया। मगर बलबन के कठोर स्वाभाव से घवराकर वह बापस चला गया। 1286 में बलबन की मृत्यु हो गई। मृत्यु से पहले बलबन ने मुहम्मद के पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
बलबन का मकबरा
- बलबन का मकबरा दिल्ली के मेहरौली में कुतुबमीनार के पीछे स्थित है।
- उन्होंने इसे अपने जीवनकाल में बनवाया और इसका नाम दार-उल-अमन रखा, जिसका अर्थ है ‘न्याय का दरवाजा’।
- इब्न बटूता ने अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान बलबन के मकबरे का दर्शन किया और उसकी आध्यात्मिक वातावरण में प्रभावित हुआ।
- बलबन के मकबरे की महत्ता को इब्न बटूता की पुस्तक “इब्न बटूता की यात्राएँ” में प्रशंसा की गई है।
- बलबन का मकबरा न्याय और गुणवत्ता का प्रतीक है, जो उनके मूल्यों और नेतृत्व को प्रतिबिम्बित करता है।
बलबन की लौह एवं रक्त की नीति
बलबन एक क्रूर एवं कठोर शासक था उसने अपने दुश्मनों और षड्यंत्र करने वालों के विरुद्ध लौह एवं रक्त की नीति का प्रयोग किया। उसने तलवार के डैम दम पर अपने शत्रुओं को मौत के घाट उतारा।
तुर्क-ए-चहलगानी का दमन
इल्तुतमिश के शासन काल में चालीस अमीर तुर्कों के दल का गठन किया था। आगे जाकर ये अत्यधिक निरंकुश और शक्तिशाली हो गए बलबन भलीभांति जानता था कि वे उसकी सत्ता में दखल देंगे। बलबन चालीसियों को कमजोर करने के लिए छोटे तुर्क सरदारों को शासन में स्थान दिया। चलिसीयों को छोटी सी गलती पर कठोर दंड दिए।
- बदायूं के प्रांताध्यक्ष मलिक बकबक को सार्वजानिक रूप से दण्डित किया क्योंकि उसने अपने नौकर की हत्या की थी।
- अवध के प्रांताध्यक्ष हैबत खां को 500 कोड़े मारने की सजा सुनाई, क्योंकि उसने अपने नौकर की शराब के नशे में हत्या कर दी थी। मृतक की विधवा की हैबत खां मने 200 टंके देकर अपनी जान बचाई।
- अवध के प्रांताध्यक्ष अमीन खान को अयोध्या नगर के द्वार पर लटकवा दिया।
- शेर खां सनकार को जहर देकर मार डाला।
- इस प्रकार बलबन ने चलिसियों का दमन कर दिया।
बलबन की जासूस व्यवस्था
बलबन ने अपनी जासूस व्यवस्था के तहत प्रत्येक विभाग में समाचारदाता रखे। प्रत्येक प्रान्त व जिले में गुप्त समाचार लिखने वालों को नियुक्त किया। उन्हें अच्छा वेतन दिया और नायकों तहत प्रन्ताध्यक्षों के नियंत्रण से मुक्त रखा। जब एक गुप्तचर ने बदायूं के सुदेदार मलिक बकबक के विषय में सही सूचना नहीं दी तो उस गुप्तचर को नगर के द्वार पर लटकवा दिया। अपनी कठोर नियंत्रण वाली जासूस व्यवस्था से बलबन ने अपनी शक्ति को बढ़ाया।
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सरकारी अनुदानों को समाप्त करना
इल्तुतमिश के समय में कुछ सैनिकों को उनकी सेवाओं के बदले भूमि अनुदान दिया गया। बलबन के समय तक ये भूमि अनुदान प्राप्तकर्ता कुछ तो मर चुके थे और कुछ उत्तराधिकारियों के रूप में आनंद ले रहे थे। ये न तो अब रणक्षेत्र में जाते और न ही कोई अन्य सैन्य सेवा देते थे। बलबन ने पुराने अनुदानों को सम्पत कर नए अनुदानों को शुरू किया। मगर इससे भी असंतोष पनप गया और बलबन ने इससे रद्द कर दिया। अतः यह दोष चलता ही रहा।
बलबन ने इमाद-उल-मुल्क को सेना का प्रबंधक नियुक्त किया। उसे सुरक्षा मंत्री या दीवान-ए-आरिज का पद प्राप्त हुआ।
बलबन का राजपद का सिद्धांत
बलबन स्वभाव से कठोर और निरंकुश शासक था। वह दैवी सिद्धांत को मनाता था उसने स्वयं को अल्लाह का प्रतिनिधि घोषित किया और ‘जिल्ली-इलाह’ या इस्वर का प्रतिबिम्ब की उपाधि ग्रहण की। उसने अपने सिक्कों पर बगदाद के मृतक खलीफा का नाम खुदवाया। बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खान के समक्ष राजपद के संबंध में यह विचार रखे- “राजा का ह्रदय ईश्वर की कृपा का विशेष कोष है और इस संबंध में मानव जाति में कोई भी उसके समान नहीं। “
सिज़दा और पायबस का प्रचलन
बलबन एक निरंकुश शासक था और उसका मनना था कि एक निरंकुश शासक ही अपनी जनता को आज्ञाकारी बना सकता है। वह अपने वंश को तुर्की नायक, चरण के अफरासियाब से संबंधित मानता था और वह खुद को सबसे अलग मानता था। उसने दरबार में सुल्तान के प्रति सम्मान प्रकट करने के दो नियम अथवा प्रथाओं को लागु किया। 1- सिज़दा- सिज़दा के अनुसार व्यक्ति को लेटकर सुल्तान को नमस्कार करना होता था और 2- पायबस- इसमें सुल्तान के पांव को चूमना होता था।
बलबन ने दरबार का सम्मान बढ़ाने के लिए नौरोज प्रथा प्रचलित की।
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निष्कर्ष
इस प्रकार बलबन ने दरबार में कठोर नियंत्रण रखा और अपने दुश्मनों को कठोर दंड दिए। यद्यपि वह एक क्रूर शासक था लेकिन निजी जीवन में वह दयालु स्वभाव का था। जब उसके पुत्र राजकुमार की हत्या मंगोलों ने की तो एक तरह से यह बलबन की हत्या थी। उसने मध्य एशिया से आने वाले सैकड़ों शरणार्थियों को आश्रय दिया। मृतक संस्कार देखते समय उसकी आँखों से आंसू बहते थे। बलबन महान विद्याप्रेमी था उसने बहुत से विद्वानों को दरबार में आश्रय दिया। अमीर खुसरो फ़ारसी का महान कवि उसी के समय में चमका और उसके पुत्र राजकुमार मुहम्मद के दरबार में रहा। अमीर हसन को भी राजकुमार मुहम्मद का आश्रय प्राप्त हुआ।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न–Faqs
Q- बलबन किसके गुलाम थे?
Ans-बलबन दिल्ली सल्तनत के शासक इल्तुतमिश के गुलाम थे। उन्हें 1233 में ग्वालियर की जीत के बाद दिल्ली में खरीदा गया था।
Q- बलबन की लौह और रक्त नीति क्या थी?
Ans- उसने मुस्लिम विद्वानों का सम्मान किया, लेकिन उन्हें राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करने नहीं दिया। उसका न्याय निष्पक्ष था, और उसका दंड अत्यंत कठोर था, इसलिए उसकी शासन नीति को लौह और रक्त की नीति कहा गया। वास्तव में, उस समय ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता थी।
Q- बलबन का सिद्धांत क्या है?
Ans- राजा ईश्वर की परछाई होता है। बलबन ने कहा कि राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है और राजत्व एक दैवीय संस्था है। उन्होंने कहा, “राजा निरंकुशता का अवतार है”। उसका मानना था कि यह “राजा की अलौकिक महिमा और स्थिति है जो लोगों की आज्ञाकारिता सुनिश्चित कर सकती है”।
Q- बलबन ने कौन सी प्रथा शुरू की थी?
Ans– बलबन ने सिजदा (प्रणाम) और पायबोस (दरबार में सुल्तान के पैरों को चूमना) को सुल्तान के लिए सामान्य सलाम के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने नौरोज़ के त्योहार की शुरुआत की। ये रीतियाँ कुलीनता और आगंतुकों में पूरी तरह से विनम्रता और चुप्पी भर देती थीं।