सल्तनत कालीन प्रशासन: केंद्रीय, प्रांतीय, सैन्य व्यवस्था, सुल्तान और ख़लीफ़ा, उलेमा और अमीर, न्याय व्यवस्था

सल्तनत कालीन प्रशासन: केंद्रीय, प्रांतीय, सैन्य व्यवस्था, सुल्तान और ख़लीफ़ा, उलेमा और अमीर, न्याय व्यवस्था

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भारत में मुसलमानों के आगमन का प्रभाव समाज, संस्कृति, शासन, और प्रशासन पर पड़ा। प्रथम मुस्लिम शासन गुलाम वंश द्वारा प्रारम्भ किया गया और 1526 तक के मुस्लिम शासन को सल्तनत काल कहा जाता है। इस काल में 5 अलग-अलग वंशों ने शासन किया और एक अलग प्रशासनिक व्यवस्था अपनाई। इनमें एक बात समान थी कि यह वयवस्था इस्लाम के सिद्धांतों पर आधारित थी। इस लेख में हम विस्तृत रूप में ‘सल्तनत कालीन प्रशासन’ के विषय का अध्ययन करेंगें।

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सल्तनत कालीन प्रशासन: केंद्रीय, प्रांतीय, सैन्य व्यवस्था, सुल्तान और ख़लीफ़ा, उलेमा और अमीर, न्याय व्यवस्था

सल्तनत कालीन प्रशासन


राज्य की प्रकृति और स्वरूप-

मुस्लिम राज्य सैधान्तिक रूप से एक धर्माधारित या धर्मप्रधान राज्य था। राज्य का सर्वोच्च प्रमुख सुल्तान होता था। ऐसा माना जाता था कि इसे उसके पद और अधिकार ईश्वर ने दिए हैं।

विषय सूची

इस्लाम में एक राज्य इस्लामी राज्य, एक ग्रन्थ कुरान, एक धर्म इस्लाम तथा एक जाति मुसलमान की अवधारणा है। मुसलमानों का विश्वास है कि ‘कुरान’ में अल्लाह की जो शिक्षाएं और आदेश संचित है उनमें सभी कालों व सभी देशों के लिए उपयुक्त निर्देश है। इसलिए इस्लामी शासन का संगठन उन्हीं के आधार पर किया गया है।

कुरान के अनुसार सारी दुनिया का वास्तविक मालिक और बादशाह अल्लाह है। अल्लाह की आज्ञा का पालन सभी का पवित्र कर्त्तव्य है। उलेमाओं (इस्लामी ग्रन्थों के व्याख्याकार) के विभिन्न परिस्थितियों और देश में उपस्थित समस्याओं के समाधान के लिए कुरान व हदीश के आधार पर व्यवस्थाएं दी जो शरीयत कहलाया।

वास्तव में इस्लामी कानून शरीयत, कुरान और हदीश पर अधारित है। इस्लाम धर्म के अनुसार शरीयत प्रमुख है। खलीफा तथा शासक उसके अधीन होते हैं। शरीयत के अनुसार कार्य करना उनका प्रमुख कर्त्तव्य होता है। इस दृष्टि से खलीफा और सुल्तान धर्म के प्रधान नहीं बल्कि शरीयत के कानून के अधीन राजनीतिक प्रधान मात्र थे। इनका कर्त्तव्य धर्म के कानून के अनुसार शासन करना था।

दिल्ली सल्तनत को इसके तुर्क अफगान शासकों ने एक इस्लामी राज्य घोषित किया था। वे अपने साथ ऐसे राजनैतिक सिद्धान्त लाए थे जिसमें राज्य के राजनैतिक प्रमुख और धार्मिक प्रमुख में कोई भेद नहीं समझा जाता था।

इस्लाम का राजनैतिक सिद्धान्त तीन प्रमुख आधारों पर स्थापित था –

(1) एक धर्म ग्रन्थ
(2) एक सम्प्रभु
(3) एक राष्ट्र।

एक धर्म ग्रन्थ कुरान था । सम्प्रभु इमाम, नेता तथा खलीफा था और राष्ट्र मिल्लत (मुस्लिम भाईचारा ) था। मुस्लिम राजनैतिक सिद्धान्त की • विशेषता इन तीनों तत्वों की अविभाज्यता थी।

दिल्ली सुल्तानों की नीति पर धर्म का प्रभाव रहा और कम या अधिक मात्रा में इस्लाम धर्म के कानूनों का पालन करना उनका कर्त्तव्य रहा । यद्यपि जब एक बार इल्तुतमिश ने अपने वजीर मुहम्मद जुनैदी से इस्लामिक कानूनों को पूरी तरह से लागू करने को कहा तब उसने उत्तर दिया कि भारत में मुस्लिम समुद्र में बूँद के समान है अतः यहाँ इस्लामिक कानूनों को पूरी लागू करना तथा दारुल हरब (काफिर देश) को दारूल इस्लाम (इस्लामी देश तरह से लागू नहीं किया जा सकता। सुल्तान का आदर्श लोगों को इस्लाम धर्म में में परिवर्तित करना था ।

खलीफा-


खलीफा मुस्लिम जगत का प्रधान होता था। मुहम्मद के बाद प्रारम्भ में चार खलीफा हुए-अबूबक्र, उमर, उस्मानअली। प्रारम्भ में खलीफा का चुनाव होता था किन्तु आगे चलकर खलीफा का पद वंशानुगत हो गया। 661 ई० में उमैय्या वंश खलीफा के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। उसका केन्द्र दश्मिक (समिरिया) था।

750 ई० में अब्बासी खलीफा स्थापित हुआ। इसका केन्द्र बगदाद था। 1253 ई० में चंगेज खाँ का पोता हलाकू खाँ ने बगदाद के खलीफा की हत्या कर दी। इस घटना के बाद खलीफा की सत्ता का केन्द्र मिस्र हो गया। अब खलीफा के पद के कई दावेदार हो गये थे, यथा- स्पेन का उम्मैया वंश, मिश्र का फतिमी वंश और बगदाद का अब्बासी वंश प्रारम्भ में एक ही इस्लाम राज्य था।

कालान्तर में जब खलीफा की राजनैतिक सत्ता कमजोर पड़ी तो कुछ क्षेत्रों में ” खलीफा के प्रतिनिधि के रूप में स्वतंत्र शासकों ने सत्ता ग्रहण की व्यवहारिक रूप से ये शासक पूर्णतः स्वतंत्र थे और सार्वभौम सत्ता का उपयोग करते थे किन्तु सैद्धान्तिक रूप से उन्हें खलीफा का प्रतिनिधि माना जाता था। उन्हें खलीफा द्वारा मान्यता प्रदान की जाती थी। ऐसे शासक ‘सुल्तान’ कहे जाते थे। धीरे-धीरे इनका पद वंशानुगत होता गया और इस तरह राजतंत्र का विकास हुआ।

सुल्तान-


सुल्तान शब्द शक्ति अथवा सत्ता का द्योतक है। कभी-कभी खलीफा के प्रान्तीय राज्यपालों के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता था। जब खिलाफत का विघटन शुरू हुआ तो विभिन्न प्रदेशों के स्वतंत्र मुसलमान शासकों ने सुल्तान की उपाधि धारण कर ली।

भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव शासकों द्वारा सुल्तान की उपाधि धारण करने के साथ प्रारम्भ हुयी दिल्ली के सुल्तानों ने सुल्तान की उपाधि महमूद गजनवी से ग्रहण किया था। महमूद गजनवी पहला स्वतंत्र शासक था जिसने अपने आपको सुल्तान की उपाधि से विभूषित किया। उसने यह उपाधि समारिदों की प्रभुसत्ता से स्वतंत्र होने के उपरान्त धारण की थी।

सुल्तान पूर्णरूप से निरंकुश शासक था सल्तनत की प्रशासनिक संरचना में वह सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थिति में था। वह एक सैनिक निरंकुश शासक था। राज्य की समस्त शक्तियों, कार्यपालिका, विधायी न्यायिक अथवा सैन्य उसके हाथों में केन्द्रित थी। वह एक धुरी था जिसके चारों ओर सल्तनत की समस्त प्रशासनिक संरचना घूमती थी हिन्दू विचारधारा के अनुसार भी राजा मानव रूप में ईश्वर होता है।

ईरानी मतों ने भी सुल्तान के पद को दैवी प्रकृति का घोषित किया गया। बरनी के अनुसार सुल्तान का हृदय ईश्वर का दर्पण होता है अर्थात् यह ईश्वर की इच्छाओं को प्रतिबिंबित करता है। इन्हीं पहलुओं के दृष्टिगत बलबन ने जिल्ल-अल्लाह (ईश्वर की छाया) की उपाधि धारण की थी तथा अपने दरबार में सिजदा व पैबोस की प्रथा प्रारम्भ की।

सुल्तान की मंत्रिपरिषद को मजलिस-ए-खलवत कहा जाता था। इसकी बैठक जहाँ होती थी उसे मजलिस-ए-आम कहा जाता था। इसमें राज्य के सभी मामलों में चर्चा होती थी।

बार-ए-खास में सुल्तान सभी दरबारियों, खानों, अमीरों, मालिकों व अन्य रईसों को बुलाता था। बार-ए-आजम में सुल्तान राजकीय कार्यो का अधिकांश भाग पूरा करता था। यहां पर विद्वान, मुल्ला व काजी भी उपस्थित रहते थे। सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में वह दरबार-ए-आम में बैठता था। उसके कार्य में मंत्रियों का एक वर्ग उसकी सहायता करता था।

खलीफा और सुल्तान – संबंध और उपाधियाँ


खलीफा की सर्वोपरि शक्ति की स्वीकृति

दिल्ली के अधिकांश तुर्की सुल्तानों ने, अपनी स्वतंत्रता के बावजूद, सिद्धांत रूप में खलीफा के सर्वोच्च अधिकार को स्वीकार किया। खलीफा को पूरे इस्लामिक राज्य का प्रमुख माना जाता था। जैसा कि दिल्ली सल्तनत खिलाफत का हिस्सा था, सुल्तानों ने खलीफा को अपनी खुत्बी (शुक्रवार के उपदेश) में सम्मानित किया और अपने सिक्कों पर उसका नाम अंकित किया।

सुल्तान स्वयं को खलीफा का नायब (सहयोगी) मानते थे। हालाँकि, खलीफा को दिल्ली सल्तनत की आंतरिक या बाहरी नीतियों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं था, न ही वह नियमित कर या श्रद्धांजलि प्राप्त करता था। उन्होंने इस्लामी दुनिया के प्रमुख के रूप में एक नाममात्र का पद धारण किया।

इल्तुतमिश का अधिकार-पत्र और मान्यता


दिल्ली के सुल्तानों में, इल्तुतमिश 1229 ईस्वी में बगदाद के खलीफा अलमुंतसिर विल्ला से एक अधिकार-पत्र प्राप्त करने वाला पहला व्यक्ति था। उन्होंने नासिर अमीर उलमोमेनिन (खलीफा के सहायक) की उपाधि धारण की। खलीफा ने इल्तुतमिश को उन प्रदेशों के शासक के रूप में मान्यता दी जिन पर उसने विजय प्राप्त की थी।

हालाँकि, इल्तुतमिश ने खलीफा की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं किया, जैसा कि बंगाल के शासक गयासुद्दीन पर उसके हमले से जाहिर होता है, जिसे उसने हराया और बंगाल को दिल्ली सल्तनत में शामिल किया।

बलबन द्वारा खलीफा की सत्ता को स्वीकार करना


बलबन ने एक निरंकुश राजशाही की स्थापना की और जिला-अल्लाह की उपाधि धारण की। हालाँकि, उन्होंने खलीफा के अधिकार को अपने खुत्बों में शामिल करके और सिक्कों पर अंकित करके खलीफा के अधिकार को स्वीकार किया।

सिक्कों पर खलीफा की निरंतर मान्यता


1258 में हलाकू द्वारा अब्बासी खलीफा की हत्या के बाद भी, खलीफा का नाम चार दशकों तक दिल्ली के सुल्तानों के सिक्कों पर अंकित होता रहा। सुल्तानों ने खुद को नासिर-ए-अमीर-उल-मोमिनीन (खलीफा का सहायक) घोषित किया। इसके साथ ही, उन्होंने हलाकू के वंशज इल-खान के साथ राजनयिक संबंध बनाए रखे।

खलीफा के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन


स्पष्ट है कि दिल्ली के सुल्तान खलीफा को अपना वास्तविक स्वामी नहीं मानते थे। उनकी भक्ति खलीफा के बजाय खिलाफत की ओर निर्देशित थी। अलाउद्दीन खिलजी के बाद सुल्तानों के खलीफा के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन आया।

खलीफा का इनकार और स्व-घोषणा


दिल्ली सल्तनत के पहले सुल्तान मुबारक खिलजी ने खलीफा की संप्रभुता को खारिज कर दिया। उसने खुद को खलीफा-ए-खबुल और अमीर-उल-मोमिनीन (स्वयं खलीफा) घोषित किया, ‘खलीफत-उल-लाह’ और अल-वसीक बिल्लाह की उपाधियाँ धारण कीं। गयासुद्दीन तुगलक ने खलीफा के साथ फिर से संबंध स्थापित किए और खुद को नासिर-ए-अमीर-उल-मोमिनिन (खलीफा का सहायक) घोषित किया।

महत्व मुहम्मद और फिरोज तुगलक द्वारा दिया गया है


प्रारम्भ में मुहम्मद तुगलक ने खलीफा को अधिक महत्व नहीं दिया। हालाँकि, उसके खिलाफ लगातार विद्रोह के कारण, उसने ख़ुतबों और सिक्कों में ख़लीफ़ा का नाम शामिल कर लिया। उसने अपने सिक्कों पर अब्बासी खलीफा अल-मुस्तफीफी का नाम खुदवाया।

फिरोज तुगलक की स्वीकृति और खिलाफत

अपने शासनकाल के पहले छह वर्षों के दौरान, फिरोज तुगलक को मिस्र के अब्बासी खलीफा से दो बार स्वीकृति और खिलाफत (सम्मान का वस्त्र) प्राप्त हुआ। उसने स्वयं को खलीफा का नायब (डिप्टी) घोषित कर दिया।

अमीर वर्ग: 13वीं सदी के उत्तरी भारत में सबसे महत्वपूर्ण प्रशासनिक वर्ग


उत्तरी भारत में 13वीं शताब्दी के दौरान, अमीर वर्ग के उद्भव ने प्रशासनिक ढांचे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस वर्ग में दो अलग-अलग समूह शामिल थे: पहला तुर्की दास-समृद्ध वर्ग और दूसरा गैर-तुर्की (ताजिक) धनी वर्ग। गैर-तुर्की अमीरों में मध्य और पश्चिम एशिया के विदेशी शामिल थे जो आजीविका की तलाश में भारत आए थे। इन दो समूहों में, तुर्कों के पास अधिक शक्ति थी और शासन और प्रशासन में महत्वपूर्ण पदों पर काबिज थे।

इल्तुतमिश के शासनकाल में तुर्क-ए-चहलगानी, जिसे चालीसा या चारगन के नाम से भी जाना जाता है, की स्थापना की गई थी। इस समूह में चालीस दास थे। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद तुर्की अमीरों ने धीरे-धीरे सत्ता के मामलों में अपना दखल बढ़ा दिया। रजिया के शासन के दौरान चहलगानी तुर्क सरदारों के बीच संघर्ष छिड़ गया। पहली बार, रजिया ने सामंती वर्ग को चुनौती देने और गैर-तुर्क शासक वर्ग की शक्ति को मजबूत करने का प्रयास किया।

मुइज़्ज़ुद्दीन बहराम के समय में, अमीरों ने सुल्तान के अधिकार को सीमित करने के लिए नायब-ए-मुमलिकत की स्थिति बनाई। प्रारंभ में, इख्तियारुद्दीन एतगीन को इस भूमिका के लिए नियुक्त किया गया था। नसीरुद्दीन महमूद ने तुर्की सरदारों, विशेषकर बलबन के पक्ष में अपनी शक्तियों का परित्याग कर दिया। बलबन के परिग्रहण ने एक मजबूत केंद्र सरकार की स्थापना को चिह्नित किया, और उसने अपने कुलीन वंश पर जोर देते हुए खुद को तुर्की रईसों के हितों के संरक्षक के रूप में तैनात किया।

अलाउद्दीन खिलजी ने वंशानुगत या जाति के विचारों के बजाय योग्यता के आधार पर अमीरों को पद देकर एक नीतिगत बदलाव लागू किया। अलाउद्दीन के राज्यरोहण के एक साल बाद, गठित मंत्रिमंडल में कोई तुर्की अमीर नहीं था।

गयासुद्दीन तुगलक के संक्षिप्त शासन काल में अमीरों और सुल्तान के बीच संबंध मधुर बने रहे। हालाँकि, मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में इस स्थिति में पूर्ण परिवर्तन आया। उन्होंने मौजूदा समृद्ध वर्ग को कमजोर करने के उद्देश्य से मिश्रित जनजातीय नींव के आधार पर समृद्ध अधिकारियों की एक नई प्रणाली की शुरुआत की। फिरोज तुगलक के युग में सुल्तान और अमीरों के बीच सामंजस्य देखा गया।

सल्तनत काल के दौरान, सुल्तान और रईसों के बीच गतिशीलता में उतार-चढ़ाव का अनुभव हुआ। रईसों में से कुछ समूहों या व्यक्तियों ने सुल्तान पर प्रभाव डालना जारी रखा, लेकिन कोई भी कुलीन वर्ग इस अवधि के दौरान स्थायी और संस्थागत उपस्थिति स्थापित नहीं कर सका। लोदी काल को अमीरों का स्वर्ण युग माना जाता है, जबकि अलाउद्दीन और बलबन के काल को उनके निम्न बिंदुओं के रूप में देखा जाता है।

उलेमा वर्ग: प्रभावशाली धार्मिक शिक्षक और दुभाषिए


उलेमा वर्ग ने इस्लामी धार्मिक शिक्षकों और शरिया कानून के व्याख्याताओं के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। न केवल धर्म के मामलों में बल्कि सरकार में भी उनका काफी प्रभाव था। शरिया के मान्यता प्राप्त व्याख्याताओं के रूप में, उलेमा ने दो महत्वपूर्ण कार्य किए: उन्होंने धर्म से संबंधित नीतिगत मामलों पर सुल्तान के सलाहकार के रूप में कार्य किया, और उन्होंने राज्य के भीतर न्यायिक पदों पर वास्तविक एकाधिकार का आनंद लिया।

तुर्की-अफगान शासन में मतभेद और संरक्षण


इल्तुतमिश के शासन के दौरान, उलेमा और सुल्तान के एक गुट के बीच असहमति थी। बलबन ने उलेमा को कुछ राजनीतिक समर्थन प्रदान किया, लेकिन अलाउद्दीन और मुहम्मद तुगलक जैसे बाद के शासकों ने राजनीति पर धर्म को प्राथमिकता नहीं दी। मुहम्मद तुगलक के दार्शनिक दृष्टिकोण के कारण उलेमा के साथ संबंध तनावपूर्ण हो गए। फिर भी, तुर्की-अफगान शासन के दौरान उलेमा शासक वर्ग का अभिन्न अंग बने रहे।

केंद्रीय प्रशासन: सुल्तान और शक्ति संरचना


सुल्तान, जिसका अर्थ है “शासक,” केंद्र सरकार में सर्वोच्च पद पर था। सुल्तान के पास संवैधानिक और व्यावहारिक दोनों तरह से पूर्ण प्रशासनिक अधिकार थे। एक निरंकुश शासक के रूप में, सुल्तान की शक्ति उलेमा और धनी वर्ग के प्रभाव से कुछ हद तक संयमित थी।

प्रशासनिक संरचना के स्तंभ

प्रशासन के केंद्रीय स्तर में कई मंत्री और उच्च पदस्थ अधिकारी शामिल थे जिन्होंने सुल्तान की सहायता की। इन अधिकारियों में चार प्रमुख व्यक्तियों की पहचान प्रशासनिक ढांचे के स्तंभ के रूप में की जा सकती है। इन चार मंत्रियों ने दीवान-ए-विजारत, दीवान-ए-अर्ज, दीवान-ए-इंशा और दीवान-ए-रिसालत नामक विभागों का निरीक्षण किया। विशेष रूप से, तुगलक काल को मुस्लिम भारतीय मंत्रालय का स्वर्ण युग माना जाता था, जबकि बलबन के युग में एक निम्न बिंदु था।

दीवान-ए-विजारत-वज़ीर की भूमिका


दीवान-ए-विजारत विभाग के प्रमुख, जिसे वज़ीर कहा जाता है, केंद्र सरकार के भीतर सर्वोच्च पद पर आसीन था। वज़ीर के अधिकार ने अन्य मंत्रियों को पीछे छोड़ दिया, जिससे उन्हें प्रधान मंत्री का खिताब मिला। सुल्तान के बाद वजीर को प्रशासन में सबसे वरिष्ठ अधिकारी माना जाता था। सामान्य प्रशासन की देखरेख के अलावा, वजीर के पास वित्त विभाग की विशेष जिम्मेदारी थी। उनके मुख्य कार्यों में किराया निपटान के लिए नियम तैयार करना, कर की दरें निर्धारित करना और राज्य व्यय का प्रबंधन करना शामिल था। मुस्लिम विधिवेत्ता अल्मावद के अनुसार, वजीरों की दो श्रेणियां थीं: वजीर-ए-तौफीद और वजीर-ए-तनफीद। वजीर-ए-तौफीद केंद्र सरकार में उच्च पद पर आसीन था।

वजीर-ए-तौफीद: अधिकार और सीमाएं

वजीर-ए-तौफीद के पास सुल्तान के आदेशों की आवश्यकता के बिना महत्वपूर्ण निर्णय लेने की शक्तियाँ थीं। हालाँकि, उनके पास उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं था। इसके विपरीत, वजीर-ए-तन्फीद की शक्तियाँ सीमित थीं क्योंकि वे सुल्तान के निर्देशों का पालन करते थे। उनकी जिम्मेदारियों में राज्य के नियमों को लागू करना और कर्मचारियों और आम जनता की देखरेख करना शामिल था।

वजीर के अधीन विभागीय संरचना

वजीर कई विभागों का निरीक्षण करता था, जिनमें दीवान-ए-इसराफ (लेखा परीक्षा विभाग), दीवान-ए-इमारत (लोक निर्माण), दीवान-ए-अमीरकोही (कृषि विभाग), और बहुत कुछ शामिल हैं। सैन्य विभाग की आवश्यकताओं की पूर्ति कर वजीर सैन्य व्यवस्था पर भी अधिकार जमा लेता था। इसके अतिरिक्त, वज़ीर विद्वानों और वंचितों को प्रदान की जाने वाली छात्रवृत्ति और जीवन-यापन भत्ते का प्रबंध करता था।

सहायक और अधिकारी

वजीर की सहायता के लिए एक नायब वजीर (उप वजीर) नियुक्त किया जाता था। नायब वजीर के नीचे मुशरीफ-मुमालिक (महालेखाकार) होता था। दीवान-ए-विजारत विभाग के भीतर लेखापरीक्षा अनुभाग का नेतृत्व मुशरिकी मुमालिक और मुस्तौफीउममालिक के रूप में जाने जाने वाले अधिकारियों द्वारा किया जाता था।

मुशरीफ मुमालिक प्रांतों और अन्य विभागों से आय के लेखांकन के लिए जिम्मेदार थे, जबकि मुस्तफी-ए-मुमालिक राज्य के राजस्व की निगरानी करते थे। मुशरीफ-ए-मुमालिक और मुस्तौफी-ए-मुमालिक की भूमिकाओं के बीच स्पष्ट अलगाव के साथ, फिरोज तुगलक के शासनकाल के दौरान राजस्व विभाग की संरचना पूरी तरह से विकसित हुई थी।

इसके अलावा, फिरोज तुगलक ने सुल्तान की प्रत्यक्ष आय की देखरेख के लिए एक नामित अधिकारी द्वारा प्रबंधित एक अलग इमलक विभाग की स्थापना की। वजीर का दीवान-ए-अमीर कोही विभाग पर सीधा नियंत्रण था, जिसका उद्देश्य मालगुजारी प्रणाली के कामकाज में सुधार करना और असिंचित भूमि को कृषि योग्य बनाना था। इस विभाग के लिए वज़ीर से वित्तीय सहायता प्राप्त की गई थी। मुशरीफ-ए-मुमालिक ने आय लेखांकन को संभाला, जबकि मुस्तफी-ए-मुमालिक ने व्यय रिकॉर्ड का प्रबंधन किया।

वित्तीय और लिपिक कर्मचारी

वज़ीर के वित्तीय और लिपिक कर्मचारियों में अमिल, करकुन और मुतसरिफ शामिल थे। मुशरिक मुमालिक का नज़ीर नाम का एक सहायक था। सल्तनत काल के दौरान वज़ीर की स्थिति में कई परिवर्तन हुए, जो सत्ता की गतिशीलता में बदलाव को दर्शाता है।

अतिरिक्त विभागों का विकास

जलालुद्दीन खिलजी ने वजारत की एक शाखा के रूप में दीवान-ए-वक्फ की स्थापना की, जो व्यय कागजात के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार था। अलाउद्दीन खिलजी ने बकाया राजस्व की जांच और वसूली के लिए दीवान-ए-विजारत के तहत दीवान-ए-मुस्तखराज विभाग की शुरुआत की। तुगलक काल में वजीरों की शक्ति और प्रभाव में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई। वज़ीर की सहायता के लिए वकील-ए-सल्तनत के नाम से जाने जाने वाले अधिकारियों को फिर से नियुक्त किया गया। हालाँकि, लोदियों के अधीन, वज़ीर की भूमिका महत्वहीन हो गई थी।

प्रमुख वज़ीर


फखदुद्दीन इसामी ने इल्तुतमिश के अधीन वजीर के रूप में कार्य किया। निज़ामुलमुल्क की उपाधि प्राप्त करने वाले मुहम्मद जुनैदी ने उसका उत्तराधिकारी बनाया। बलबन के शासनकाल के दौरान, शक्ति अत्यधिक केंद्रीकृत थी, वजीर के महत्व को कम कर रही थी। जबकि ख्वाजा हसन ने वजीर का नाममात्र का पद संभाला था, बलबन ने अहमद अयाज को अरिज-ए-ममालिक के रूप में नियुक्त करके वजीर की शक्ति को और कम कर दिया।

जलालुद्दीन खिलजी के शासन के दौरान, ख्वाजा खतीर ने थोड़े समय के लिए वजीर का पद संभाला। बाद में नुसरत खान वजीर बनीं। नुसरत खान की मृत्यु के बाद, मलिक काफूर ने वजीर का पद ग्रहण किया।

मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के दौरान, अहमद अय्याज ने वज़ीर के रूप में कार्य किया और उसे खान-ए-जहाँ की उपाधि से सम्मानित किया गया। मुहम्मद तुगलक ने एक अभियान शुरू करने पर उसे दिल्ली के प्रशासन की जिम्मेदारी सौंपी। मुहम्मद तुगलक के 28 साल के शासन के दौरान अहमद अय्याज वजीर बना रहा। फिरोज तुगलक के काल में खान-ए-जहां मकबूल वजीर का पद धारण करता था। उन्हें अपनी सेना और नौकरों के खर्च के लिए अलग से धन के साथ-साथ 13 लाख टैंकों का वेतन मिलता था।

दीवान-ए-अर्ज: सैन्य प्रशासन


बलबन ने दीवान-ए-अर्ज विभाग की स्थापना की और अहमद अय्याज को अपना आरिज-ए-मुमालिक नियुक्त किया। इस विभाग के प्रमुख, आरिज-ए-मुमालिक के पास सैनिकों की भर्ती, सैनिकों और घोड़ों की भलाई सुनिश्चित करने और सैन्य निरीक्षण करने की प्राथमिक जिम्मेदारी थी। उन्होंने सेना के लिए भोजन और परिवहन की भी व्यवस्था की।

अलाउद्दीन खिलजी व्यक्तिगत रूप से दीवान-ए-अर्ज विभाग का पर्यवेक्षण करता था। तुगलक वंश के अंतिम शासक नसीरुद्दीन महमूद के शासनकाल के दौरान, वकील-ए-सुल्तान की स्थिति प्रशासन और सैन्य व्यवस्था की देखरेख के लिए स्थापित की गई थी। हालाँकि, यह पोस्ट अंततः निष्क्रिय हो गई।

संक्षेप में, वज़ीर की स्थिति ने सल्तनत काल के केंद्रीय प्रशासन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे विभिन्न विभागों की देखरेख, वित्त प्रबंधन और सैन्य व्यवस्था पर नियंत्रण रखने के लिए जिम्मेदार थे। समय के साथ-साथ वज़ीरों की शक्ति और प्रभाव में उतार-चढ़ाव आया, लेकिन उनके योगदान ने सल्तनत के शासन और कामकाज पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा।

दीवान-ए-ईशा: शाही सचिवालय


दीवान-ए-ईशा शाही सचिवालय के रूप में कार्य करता था, जिसका नेतृत्व दबीर-ए-ख़ास करता था। मिन्हाजुद्दीन सिराज ने इस विभाग को दीवान-ए-अशरफ कहा। इसका प्राथमिक कार्य शाही उद्घोषणाओं और पत्रों की पांडुलिपियां तैयार करना, सुल्तान की ओर से मसौदा आदेश तैयार करना और राज्य के अभिलेखों को बनाए रखना था। अपने काम की गोपनीय प्रकृति के कारण, दबीर-ए-मुमालिक की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण थी। दबीर के नाम से जाने जाने वाले कई सचिवों ने दबीर-ए-मुमालिक की सहायता की। सुल्तान के निजी सचिव को दबीर-ए-खास कहा जाता था, जो सुल्तान के पत्राचार के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार था।

दीवान-ए-रसालत: विदेशी मामले या धार्मिक मामले


दीवान-ए-रसालत को आमतौर पर विदेशी मामलों के विभाग के रूप में समझा जाता है, लेकिन डॉ. आई. एच. कुरैशी के अनुसार, यह धार्मिक विषयों से जुड़ा था। अध्यक्षता सदर ने की। इस विभाग ने पड़ोसी राज्यों को भेजे जाने वाले पत्रों का मसौदा तैयार किया और विदेश यात्रा करने वाले या देश में आने वाले व्यक्तियों के साथ निकट संपर्क बनाए रखा।

दीवान-ए-बारीद: खुफिया विभाग


दीवान-ए-बारीद खुफिया विभाग के रूप में कार्य करता था, जिसके अध्यक्ष को बारिद-ए-मुमालिक के नाम से जाना जाता था। बारिद-ए-मुमालिक ने राज्य के प्रमुख समाचार लेखक के रूप में भी काम किया। विभाग ने जासूसों, दूतों और डाक चलाने वालों को नियुक्त किया। उन्होंने शहरों, बाजारों और आबादी वाले क्षेत्रों में कई मुखबिरों को नियुक्त किया, जिन्होंने सुल्तान की सेवा के लिए बारिद-ए-मुमालिक को गोपनीय जानकारी दी। अलाउद्दीन खिलजी ने इस विभाग में मुंहियान नामक गुप्तचर अधिकारी को नियुक्त किया।

दीवान-ए-क़ज़ा: न्याय विभाग


दीवान-ए-क़ज़ा न्याय प्रशासन के लिए जिम्मेदार था और न्याय विभाग के रूप में कार्य करता था। इसका नेतृत्व क़ाज़ी-ए-मुमालिक (क़ाज़ी-उल-कुजात) करता था, जिसे कभी-कभी शेख-उल-इस्लाम (सद्र जहाँ या सद-उस-सुदुर) कहा जाता था। काजी-ए-मुमालिक न्यायपालिका के संचालन की देखरेख करता था। विभाग में न्याय के निष्पादन से संबंधित कार्यों को करने वाले नायब काज़ी और अदल शामिल थे। इसके अतिरिक्त, मुफ्ती भी थे जिन्होंने कानूनी सिद्धांतों की व्याख्या प्रदान की और जटिल मामलों पर निर्णय जारी किए।

सदर-उस-सुदुर: धार्मिक मामलों में मुख्य सलाहकार


सदर-हम-दूर ने धार्मिक मामलों में सुल्तान के मुख्य सलाहकार के रूप में कार्य किया। उनकी भूमिका में इस्लामी नियमों और विनियमों को लागू करना शामिल था। वे मुस्लिम उलेमा, विद्वानों और धार्मिक हस्तियों के वजीफे को मंजूरी देने के लिए भी जिम्मेदार थे। इस अधिकारी के पास मुसलमानों से एकत्रित जकात पर अधिकार था।

अमीर-ए-हाजिब: समारोह के मास्टर


अमीर-ए-हाजिब, जिसे बरबक के नाम से भी जाना जाता है, ने शाही दरबार के शिष्टाचार और भव्यता को बनाए रखा। अमीर-ए-हजीब की अनुमति के बिना कोई भी सुल्तान के पास नहीं जा सकता था और न ही याचिका प्रस्तुत कर सकता था। इस अधिकारी का सुल्तान के साथ घनिष्ठ संबंध था और आमतौर पर सुल्तान के करीबी रिश्तेदारों या सबसे भरोसेमंद व्यक्तियों में से नियुक्त किया जाता था। सुल्तान के निजी हजीब को हजीब-ए-खास कहा जाता था। जब सुल्तान ने एक अभियान का नेतृत्व किया, तो अमीर हजीब ने उनके निजी सचिव के रूप में काम किया।

दीवान-ए-रियासत: बाजार नियंत्रण विभाग


अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार नियंत्रण प्रणाली को लागू करने के लिए दीवान-ए-रियासत नामक एक नए विभाग की स्थापना की। इसकी भूमिका सुल्तान द्वारा निर्धारित मूल्य सूची के आधार पर सभी वस्तुओं की बिक्री का प्रबंधन करना था। अलग अधीक्षक, जिन्हें शाहना-ए-मंडी के नाम से जाना जाता है, प्रमुख जिंस बाजारों का निरीक्षण करते थे।

दीवान-ए-कोही: कृषि विकास और राजस्व प्रणाली


मुहम्मद बिन तुगलक ने कृषि विकास और राजस्व प्रणाली की देखरेख के लिए दीवान-ए-कोही विभाग की स्थापना की। इसका नेतृत्व अमीर-ए-दीवान कोही ने किया था।

इस विभाग ने कृषि पद्धतियों की जांच और सुधार, उचित भूमि उपयोग सुनिश्चित करने और कृषि गतिविधियों से राजस्व को अधिकतम करने पर ध्यान केंद्रित किया। अमीर-ए-दीवान कोही ने कृषि नीतियों को लागू करने और राजस्व प्रणाली के प्रभावी कामकाज को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

दीवान-ए-कोही का उद्देश्य कृषि उत्पादकता को बढ़ाना, भूमि की खेती को बढ़ावा देना और राज्य के लिए राजस्व उत्पन्न करना था। इसने भूमि उपयोग की निगरानी की, कृषि उपज का आकलन किया और कृषि उत्पादन बढ़ाने के उपायों को लागू किया।

विभाग ने वजीर के अधीन कृषि विभाग दीवान-ए-अमीरकोही के साथ मिलकर काम किया, प्रयासों का समन्वय करने और कृषि नीतियों को कारगर बनाने के लिए। इसने कृषि उत्पादकता को अनुकूलित करने के लिए भूमि प्रबंधन, सिंचाई प्रणाली और फसल चयन के लिए रणनीति तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अमीर-ए-दीवान कोही ने अपनी टीम के साथ, भूमि सर्वेक्षणों का पर्यवेक्षण किया, भूमि की गुणवत्ता का आकलन किया और खेती के तहत अनुपजाऊ भूमि को लाने के लिए रणनीति तैयार की। उन्होंने किसानों का समर्थन करने, कृषि सब्सिडी प्रदान करने और कृषि करों का उचित संग्रह सुनिश्चित करने के लिए नीतियों को भी लागू किया।

इसके अलावा, दीवान-ए-कोही ने अन्य विभागों जैसे दीवान-ए-बारीद के साथ मिलकर कृषि की स्थिति, बाजार के रुझान और फसल की पैदावार के बारे में जानकारी एकत्र की। इसने सरकार को कृषि नीतियों और राजस्व संग्रह के बारे में सूचित निर्णय लेने में सक्षम बनाया।

वकील-ए-दार – शाही परिवार विभाग के प्रशासनिक प्रमुख


वकील-ए-दार शाही परिवार के मामलों से संबंधित एक महत्वपूर्ण विभाग था। प्रोफेसर हबीबुल्लाह के अनुसार, इसने शाही परिवार प्रणाली के प्रशासनिक प्रमुख और नियंत्रक के रूप में कार्य किया। अनिवार्य रूप से, इसने मुगल-युग के मिरासामा के अग्रदूत के रूप में काम किया।

दीवान-ए-बंदगान – गुलाम विभाग


फिरोज तुगलक द्वारा स्थापित दीवान-ए-बंदगान, गुलामों के मामलों के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार था। इसकी प्राथमिक भूमिका दासों को विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षित करना और उन्हें शाही कारखानों और अन्य नामित स्थानों में काम करने के लिए नियुक्त करना था। अर्ज-ए-बंदगन, मजमुबार, चौशगोरी और दीवान जैसे अधिकारियों ने इस विभाग के अधीन कार्य किया।

दीवान-ए-खैरत – वित्तीय सहायता विभाग


फिरोज तुगलक ने दीवान-ए-खैरत विभाग की स्थापना की, जो गरीब और कमजोर व्यक्तियों की बेटियों के विवाह के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने पर केंद्रित था। विभाग ने शादी के खर्चों का समर्थन करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति की परिस्थितियों के आधार पर 50, 30, या 25 जैसे टैंकों की एक विशिष्ट राशि आवंटित की।

दीवान-ए-इमारत – लोक निर्माण विभाग


सुल्तान फिरोज तुगलक ने दीवान-ए-इमारत या लोक निर्माण विभाग की स्थापना की। अफीफ द्वारा ‘इमारतखाना’ के रूप में संदर्भित, इस विभाग का नेतृत्व मीर-ए-इमारत (मुख्य अधिकारी) द्वारा किया जाता था। मीर-ए-इमारत की देखरेख में कई शाहनाएँ थीं। विभाग ने विभिन्न संरचनाओं जैसे सराय, नहरों, बांधों, मस्जिदों, भवनों, मकबरों और मदरसों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मजमुदार – राजस्व अधिकारी


मजमूदार आय और व्यय का आकलन करने के लिए जिम्मेदार था। उन्होंने व्यक्तियों को प्रदान किए गए ऋणों पर नज़र रखने का कर्तव्य निभाया।

खजिन (कोषाध्यक्ष) नकदी का संरक्षक

खाजिन ने कोषाध्यक्ष के रूप में कार्य किया, जो नकदी भंडार की सुरक्षा और प्रबंधन के लिए जिम्मेदार था।

सर्जंदर – सुल्तान के अंगरक्षकों का नेता

सरजंदर ने सुल्तान के अंगरक्षकों के नेता के रूप में उनकी सुरक्षा और सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अमीर-ए-मजलिस – बैठकों और उत्सवों के प्रबंधक

अमीर-ए-मजलिस बैठकों, दावतों, त्योहारों और अन्य संबंधित कार्यक्रमों के आयोजन का प्रभारी था।

अमीर-ए-अखुर – अस्तबल का प्रमुख

अमीर-ए-अखुर ने शाही घोड़ों के प्रबंधन और भलाई को सुनिश्चित करने, स्थिर की देखरेख करने की महत्वपूर्ण स्थिति का आयोजन किया।

शाहना-ए-पील – हस्तशाला का प्रमुख

शाहना-ए-पील हस्तशाला का प्रमुख था, जो हाथी के अस्तबल के प्रबंधन और देखरेख के लिए जिम्मेदार था।

अमीर-ए-शिकार – शिकार प्रबंधक

अमीर-ए-शिकार ने सुल्तान के लिए शिकार गतिविधियों के आयोजन और प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

दीवान-ए-इस्तेहक़क – पेंशन विभाग

दीवान-ए-इस्तहक़क ने पेंशन विभाग के रूप में कार्य किया, अलीम (विद्वानों) और मुस्लिम धर्मशास्त्रियों को वित्तीय सहायता प्रदान की।

मजलिस-ए-आम या मजलिस-ए-खलवत – विश्वसनीय सलाहकारों की परिषद

मजलिस-ए-आम या मजलिस-ए-खलवत ने सुल्तान के भरोसेमंद दोस्तों और सलाहकारों की परिषद के रूप में काम किया। इस परिषद ने महत्वपूर्ण मामलों पर परामर्श प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

शाही कारखाने- रॉयल वस्तुओं के उत्पादन केंद्र

सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था में शाही कारखानों का महत्वपूर्ण स्थान था। ये कारखाने शाही दरबार और शाही परिवार के लिए विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन के लिए जिम्मेदार थे। राज्य द्वारा संचालित कारखानों की स्थापना की अवधारणा संभवतः फारस द्वारा अपनाई गई थी। शाही कारखानों को राज्य और व्यापारियों दोनों से वित्तीय सहायता प्राप्त होती थी। अपने शासनकाल के दौरान, मुहम्मद तुगलक ने एक कपड़ा कारखाने का निर्माण किया जिसमें चार हजार कारीगर कार्यरत थे और रेशमी कपड़े और कढ़ाई में विशेषज्ञता प्राप्त थी।

अलेक्जेंड्रिया से आयातित कपड़े का उपयोग वस्त्र बनाने के लिए किया जाता था, जबकि दिल्ली या पड़ोसी क्षेत्रों से सूती कपड़े के साथ-साथ चीन और इराक से आयात किए गए कपड़े गर्मियों की पोशाक बनाने के लिए उपयोग किए जाते थे। फिरोज तुगलक ने विशेष रूप से शाही कारखानों के विकास पर जोर दिया और उन्हें अक्त के समान बहुत महत्वपूर्ण माना। नतीजतन, उसके शासन के दौरान कारखानों की संख्या बढ़कर 36 हो गई।

अफीफ ने सरकारी कारखानों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया: रतीबी और गैर-रतीबी। रतिबी कारखानों को एक निश्चित वार्षिक अनुदान प्राप्त होता था, और उनमें कार्यरत लोगों को एक स्थिर वेतन मिलता था। रतीबी कारखानों के उदाहरणों में हाथियों के लिए पिलखाना (गजशाला), पैगहखाना (घोड़े का अस्तबल), शरबखाना (शराब की भठ्ठी), शायखाना (रोशनी से संबंधित), और शत्रुखाना (डेंट खाना) शामिल हैं। इन रतीबी फैक्ट्रियों में काफी खर्च आया।

पैगाह (घोड़े के अस्तबल) का रतिबी कारखानों में अत्यधिक महत्व था और यह कई स्थानों पर मौजूद था। सबसे बड़ा पैगाह, शाहखाना मुल्तानपुर, किबला दरबार के पास स्थित था। दूसरी ओर, गैर-रतीबी कारखानों के पास एक निश्चित अनुदान नहीं था और व्यक्तियों को अनिश्चितकालीन वेतन पर नियुक्त किया जाता था। गैर-रतीबी कारखानों के उदाहरणों में जमादारखाना (कपड़ों से संबंधित), आलमखाना (पताका विभाग), फर्रशखाना (फर्श, आदि), और रिकाब खाना (घोड़े की काठी और भोजन से संबंधित विभाग) शामिल हैं।

प्रत्येक कारखाने का नेतृत्व एक उच्च श्रेणी के मास्टर द्वारा किया जाता था, जबकि शाही कारखानों के महानिदेशक को मुतसरिफ के नाम से जाना जाता था। मुतसरिफ को प्रारंभिक शाही आदेश प्राप्त हुए और विभाग के लिए अलग-अलग खातों को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार था, जो दीवान-ए-विजारत को परीक्षा के लिए वार्षिक रूप से प्रस्तुत किया गया था। फिरोज तुगलक के शासनकाल के दौरान, ख्वाजा अबुल हसन ने मुतशरीफ के प्रमुख के रूप में कार्य किया और कारखाने के खातों की नियमित लेखापरीक्षा के लिए नियुक्त किया गया था।

ख्वाजा अबुल हसन का एक समर्पित कार्यालय था और सुल्तान के आदेशों को फरमान के माध्यम से संप्रेषित करता था। वह कारखाने के कर्मचारियों को विशिष्ट वस्तुओं का उत्पादन करने का निर्देश देगा। दीवान-ए-मजमूए में कारखानों के खातों का अंकेक्षण किया जाता था।

प्रांतीय प्रशासन – स्थानीय स्तर पर शासन


प्रांतीय प्रशासन ने केंद्र सरकार की संरचना को प्रतिबिंबित किया। सल्तनत को कई प्रांतों में विभाजित किया गया था जिन्हें इक्ता या विलायत के नाम से जाना जाता था। इन प्रांतों के राज्यपालों के पास इक़तदार, वली, मुक्ति या नायब जैसी उपाधियाँ थीं।

इक्तादार या वली ने प्रांत के भीतर कार्यकारी, न्यायपालिका और सैन्य संगठनों के प्रमुख के रूप में कार्य किया। उनकी प्राथमिक जिम्मेदारियों में शांति और व्यवस्था बनाए रखना, साथ ही भू-राजस्व के संग्रह की देखरेख करना शामिल था।

वालिस की नियुक्ति, स्थानांतरण और निष्कासन सुल्तान द्वारा किया गया था, और वे अपने कार्यों के लिए सुल्तान के प्रति जवाबदेह थे। प्रांतों में, वित्तीय मामलों का प्रबंधन साहिब दीवान या ख्वाजा के रूप में जाने जाने वाले अधिकारियों द्वारा किया जाता था, जबकि प्रांतीय अधिकारी सैन्य मामलों के लिए जिम्मेदार होते थे। प्रांतों में राजस्व संग्रह नजीर और वक्फ नामक अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किया जाता था।

शाही कारखाने

दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था में कारखानों का महत्वपूर्ण स्थान था। ये कारखाने शाही दरबार और शाही परिवार के लिए विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन के लिए जिम्मेदार थे। राज्य कारखानों की स्थापना की अवधारणा संभवतः फारस से उधार ली गई थी। शाही कारखानों के लिए वित्तीय सहायता राज्य के साथ-साथ व्यापारियों द्वारा भी प्रदान की जाती थी।

मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के दौरान, एक कपड़ा कारखाना स्थापित किया गया था, जिसमें चार हजार कारीगर कार्यरत थे और रेशमी कपड़े और कढ़ाई में विशेषज्ञता प्राप्त थी। कारखाने में अलेक्जेंड्रिया से आयातित कपड़ों का इस्तेमाल किया जाता था, और सूती वस्त्र स्थानीय रूप से उत्पादित या चीन और इराक से आयातित सामग्री से बनाए जाते थे। फिरोज तुगलक ने उन्हें अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हुए शाही कारखानों को विकसित करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए। उसके शासनकाल में कारखानों की संख्या बढ़कर 36 हो गई।

प्रांतीय प्रशासन


प्रांतीय प्रशासन ने केंद्र सरकार के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य किया। सल्तनत को विभिन्न प्रांतों में विभाजित किया गया था, जिन्हें इक्ता या विलायत के नाम से जाना जाता था, प्रत्येक का नेतृत्व इक्तदार, वली, मुक्ति या नायब नामक एक राज्यपाल करता था। इक़तदार या वली के पास कार्यपालिका, न्यायपालिका और सैन्य संगठनों पर अधिकार था। उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी प्रांत के भीतर शांति और व्यवस्था बनाए रखना और भू-राजस्व के संग्रह की निगरानी करना था।

सुल्तान ने वली को नियुक्त, स्थानांतरित और हटा दिया, जो अपने कार्यों के लिए सुल्तान के प्रति जवाबदेह था। प्रांतों के भीतर, वित्तीय मामलों का प्रबंधन साहिब दीवान या ख्वाजा के नाम से जाने जाने वाले अधिकारियों द्वारा किया जाता था, जबकि सैन्य मामलों में प्रांतीय अधिकारियों को नियुक्त किया जाता था। नजीर और वक्फ नामक अधिकारियों द्वारा राजस्व वसूली की जाती थी।

जिला या शिक प्रशासन

शिक की अवधारणा, जिसका अर्थ है ‘एक भाग’, विलायतों या प्रांतों के भीतर प्रशासनिक सुविधा के लिए शुरू की गई थी। बलबन ने सर्वप्रथम 1279 ई. में समाना और सुनाम जैसे प्रांतों को शिकों में बांटकर उन्हें अलग-अलग कुलीनों को सौंपते हुए शिकों को लागू किया।

प्रत्येक शिक के प्रशासन की देखरेख एक शिकदार द्वारा की जाती थी, जिसे प्रशासनिक अनुभव या महत्वपूर्ण पदों पर सेवा करने के इतिहास के साथ संपन्न वर्ग से नियुक्त किया जाता था।

जैसे-जैसे समय बीतता गया, लोदी काल में शिक शब्द को ‘सरकार’ शब्द से बदल दिया गया। शिकदारों ने एक सैन्य बल की कमान संभाली जो विद्रोहियों को दबाने और राजस्व संग्रह का समर्थन करने में सहायता करता था।

शिक स्तर से नीचे, प्रशासनिक इकाई परगना थी, जिसमें कई गाँव शामिल थे। परगना के मुख्य अधिकारी आमिल थे, जो परगना के भीतर एक शांतिपूर्ण व्यवस्था स्थापित करने के लिए जिम्मेदार थे। प्रत्येक परगना में राजस्व संग्रह सहित प्रशासन के विभिन्न पहलुओं का प्रबंधन करने वाले अमिल, सिरहंग, मुश्रीफ, मुहस्सिल और गुमाशते जैसे अधिकारी थे।

राजस्व खातों को बनाए रखने के लिए कारकून नियुक्त किए गए थे। फिरोज तुगलक के शासनकाल में दोआब में लगभग पचपन परगना थे। इब्न बतूता ने शासन की एक इकाई के रूप में एक सौ गांवों के समूह ‘सादी’ का उल्लेख किया।

ग्राम प्रशासन

ग्राम प्रशासन ने परगना के भीतर प्रशासन की सबसे छोटी इकाई का गठन किया। गाँव का नेतृत्व पटवारी, खूट, मुकद्दम (मुखिया) और चौधरी जैसे अधिकारी करते थे। उनकी प्राथमिक जिम्मेदारियों में गाँव में शांति और व्यवस्था बनाए रखना और राजस्व संग्रह में सहायता करना शामिल था। उन्होंने किसानों से कर वसूल किया, जिसे बाद में दीवान-ए-विजारत को भेज दिया गया।

ये अधिकारी संग्रह के एक हिस्से को पारिश्रमिक के रूप में रखने के हकदार थे, जिसे हक-ए-खुट्टी या खुली के रूप में जाना जाता है। इसके अतिरिक्त, गाँव का मुखिया किसानों से किस्मत-ए-खोती नामक एक छोटा उपकर वसूल करता था।

अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल के दौरान, भू-राजस्व, गृह कर और चराई कर के अधीन, खुत, मुकद्दम और चौधरी की स्थिति कम हो गई थी। हालाँकि, गियासुद्दीन तुगलक ने अपने पूर्व विशेषाधिकारों को बहाल कर दिया, अपने खेतों और चरागाहों को कर निर्धारण से मुक्त कर दिया।

चौधरी के पास दिल्ली सल्तनत में भू-राजस्व के लिए सर्वोच्च ग्रामीण प्राधिकरण था। उन्हें जजिया (चुनाव कर), खराज (भूमि कर), गृह कर और चराई कर से छूट दी गई थी। पंचायतों ने ग्राम प्रशासन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्योंकि वे गाँव के भीतर के साधारण विवादों को सुलझाते थे। प्रशासन और राजस्व संग्रह में सहायता के लिए प्रत्येक गाँव में एक चौकीदार, राजस्व संग्रहकर्ता और पटवारी होता था।

दिल्ली सल्तनत में सेना


दिल्ली सल्तनत की तुर्की प्रशासन व्यवस्था में सैन्य संगठन का विशेष महत्व था। सुल्तानों की शक्ति उनके सैन्य बल पर बहुत अधिक निर्भर करती थी। आइए सल्तनत काल के दौरान सेना और उसके विकास के विभिन्न पहलुओं का पता लगाएं।

प्रारंभिक सैन्य संरचना

तुर्की शासन के शुरुआती दिनों में, सुल्तानों ने अपने संबंधित जनरलों को विभिन्न क्षेत्र सौंपे, जिन्हें अक्तदार या वली के नाम से जाना जाता था। इन प्रदेशों को अकटा कहा जाता था। अक्तदारों ने अपनी अधीनस्थ सेनाओं को वित्तपोषित करने के लिए इन क्षेत्रों से राजस्व एकत्र किया। सेना की ताकत और संगठन काफी हद तक सुल्तान की व्यक्तिगत क्षमता पर निर्भर करता था।

इल्तुतमिश और शाही सेना

दिल्ली सल्तनत के पहले तुर्क शासक इल्तुतमिश ने सैन्य संगठन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उसने सल्तनत सेना को जंदर नामक एक शाही सेना में पुनर्गठित किया। उनके शासनकाल के दौरान, सल्तनत सेना को दो भागों में विभाजित किया गया था: केंद्रीय सेना जिसे हाशम-ए-कल्ब या कल्ब-ए-सुल्तानी के नाम से जाना जाता था, और प्रांतीय सेना जिसे हशम-ए-अतरफ के नाम से जाना जाता था। इसके अतिरिक्त, बंदगान-ए-ख़ास या खादम-ए-ख़ास नामक एक विशेष वर्ग बनाया गया था।

शाही घुड़सवार सेना को सवार-ए-कल्ब के रूप में जाना जाता था, और इल्तुतमिश ने शम्सी घुड़सवार नामक एक व्यक्तिगत आक्रमण सेना को बनाए रखा। इल्तुतमिश की सेना का गठन सैनिकों की गुलामों के रूप में भर्ती पर आधारित था।

बलबन के सैन्य सुधार

एक अन्य प्रभावशाली शासक बलबन ने सैन्य व्यवस्था को और संगठित करने के लिए दीवान अर्ज विभाग की स्थापना की। उसने सेना को मजबूत करते हुए सवार-ए-कल्ब का काफी विस्तार किया।

अलाउद्दीन खिलजी और स्थायी सेना

अलाउद्दीन खिलजी ने सल्तनत काल के दौरान एक स्थायी सेना की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने केंद्र में 475,000 घुड़सवारों और पैदल सैनिकों वाली एक बड़ी सेना रखी, जिससे यह दिल्ली के सुल्तानों में सबसे बड़ी सेना बन गई।

खिलजी काल के दौरान, मंगोल प्रथाओं से प्रभावित अमीरन-ए-सदा, अमीरन-ए-हज़ारा और अमीरन-ए-तुमन जैसे विभिन्न सैन्य रैंक पेश किए गए थे।

बाद के विकास और चुनौतियां

गयासुद्दीन तुगलक और मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में भी केंद्र में एक स्थायी सेना बनी रही। हालांकि, सेना के भीतर सख्त अनुशासन बनाए रखने के लिए संघर्ष करते हुए फिरोज तुगलक ने उन्हें एक ही संगठन में समेकित किया। नतीजतन, सल्तनत की सैन्य ताकत कमजोर हो गई।

लोदी राजवंश और आदिवासी सेना के दस्ते

लोदी काल में सेना का संगठन कबीलाई विभाजन पर आधारित था। शाही सेना ने आदिवासी सेना के दस्तों के समान विकृत रूप धारण कर लिया, जो पहले की संरचित सैन्य प्रणाली से प्रस्थान का संकेत था।

दिल्ली सल्तनत के पूरे इतिहास में, सेना ने सुल्तान के अधिकार को बनाए रखने और साम्राज्य की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सेना के विकास और इसकी विभिन्न संरचनाओं ने सल्तनत के शासकों के सामने बदलती गतिशीलता और चुनौतियों को प्रतिबिंबित किया।

सैन्य विभाग और उसका संगठन


दिल्ली सल्तनत की सैन्य व्यवस्था की देखरेख सैन्य विभाग द्वारा की जाती थी, जिसे दीवान-ए-अर्ज के नाम से जाना जाता था। यह विभाग साम्राज्य के सैन्य मामलों के प्रबंधन के लिए जिम्मेदार था। इसके शीर्ष पर अरिज-ए-मुमालिक नामक विभाग का प्रमुख होता था, जो सैनिकों की भर्ती और उनके वेतन का निर्धारण करने का प्रभारी होता था।

इसके अतिरिक्त, अरिज-ए-मुमालिक ने सैनिकों को नकद वेतन या भूमि अनुदान के आवंटन के संबंध में सिफारिशें कीं। एक विजयी अभियान के बाद, आरिज-ए-मुमालिक माल-ए-गनीमा (लूट) एकत्र करेगा और इसे कमांडिंग ऑफिसर की उपस्थिति में सैनिकों के बीच वितरित करेगा। प्रांतों में, स्थानीय सेनाओं के संगठन की देखरेख के लिए प्रांतीय एरिज़ नियुक्त किए गए थे।

सेना में सुधार

सेना की दक्षता और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए समय के साथ कई सुधार लागू किए गए। जब एक सैनिक की भर्ती की जाती थी, तो उन्हें अपने घोड़े और उपकरणों के साथ दीवान-ए-अर्ज में एक निरीक्षण से गुजरना पड़ता था। यदि निरीक्षण के दौरान सक्षम समझा जाता है, तो सैनिक अपना वेतन प्राप्त करेगा और उनके घोड़े के खर्च को राज्य द्वारा कवर किया जाएगा। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा शुरू किया गया एक उल्लेखनीय सुधार, सैनिकों के विवरणों का दस्तावेजीकरण करने की प्रथा थी।

खिलजी ने घोड़ों को दागने की प्रथा भी शुरू की ताकि सैनिकों को घटिया घोड़ों की जगह लेने से रोका जा सके। जिन सैनिकों ने इस निरीक्षण से बचने की कोशिश की, वे कारावास और जुर्माना के अधीन थे। दिल्ली सल्तनत के एक अन्य शासक गयासुद्दीन तुगलक ने भी सैन्य सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने सैन्य पूछताछ, हुलिया प्रथा (रैंकों की एक प्रणाली) और दाग प्रथा (ब्रांडिंग की एक प्रणाली) जैसे उपायों की शुरुआत की।

सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुगलक के शासनकाल के दौरान, यह संभावना है कि हुलिया प्रणाली को समाप्त कर दिया गया था, क्योंकि सैनिकों को उनके विकल्प भेजने की अनुमति थी। हालाँकि, फ़िरोज़ तुगलक के समय में भ्रष्टाचार ने सैन्य प्रणाली में प्रवेश कर लिया था। उसने गुलामों को सेना में भर्ती करना शुरू किया, जिसके भयानक परिणाम हुए। बाद में, सिकंदर लोदी ने सैनिकों के हुलिया (विवरण) के रखरखाव पर जोर दिया, हालांकि हुलिया के बजाय “चेहरा” शब्द का इस्तेमाल किया गया था।

सेना की संरचना

दिल्ली सल्तनत की सेना में तीन मुख्य घटक शामिल थे: घुड़सवार सेना, हाथी सेना और पैदल सेना।

घुड़सवार सेना

दिल्ली सल्तनत की सैन्य संरचना के भीतर घुड़सवार सेना का महत्वपूर्ण महत्व था। केंद्रीय घुड़सवार सेना को सवार-ए-कल्ब के नाम से जाना जाता था। सल्तनत के सैन्य संगठन में घुड़सवार सेना ने एक सर्वोपरि भूमिका निभाई, जिसमें सेना की सफलता बहुत हद तक उसकी घुड़सवार सेना की ताकत और गतिशीलता पर निर्भर करती थी। दो प्रकार के घुड़सवार थे: एस्प, जिसके पास एक घोड़ा था, और दो एस्प, जिसके पास दो घोड़े थे। अरब, तुर्केस्तान और रूस जैसे विभिन्न क्षेत्रों से घोड़ों का आयात किया जाता था।

हाथी सेना

दिल्ली सल्तनत के शासकों ने भी अपनी सेना में हाथियों (हस्ती) के महत्व को पहचाना। शाहना-ए-पील की अध्यक्षता में हाथियों की देखभाल के लिए पीलखाना नामक एक अलग विभाग की स्थापना की गई थी। हाथियों का उपयोग सैनिकों को लड़ाई में ले जाने, दुर्गों को तोड़ने और नदी पार करने के दौरान नदी की धाराओं को नियंत्रित करने के लिए किया जाता था।

पैदल सेना

पैदल सेना में पैदल सैनिक शामिल थे जिन्हें पैक के नाम से जाना जाता था। ये पैदल सैनिक मुख्य रूप से हिंदू दास और निम्न वर्ग के व्यक्ति थे। उन्हें मुख्य रूप से गेटकीपिंग और गार्डिंग जैसे कार्यों के लिए सौंपा गया था। बंगाल के कुशल पैदल सैनिकों को कुशल पाइक के रूप में जाना जाता था, जबकि तीरंदाज पैदल सैनिकों को धनुका कहा जाता था।

सेना के अन्य तत्व

सल्तनत ने मीर-ए-बह्र (बेड़े के प्रमुख) की देखरेख में बहार नामक नावों का एक बेड़ा भी बनाए रखा। इसके अतिरिक्त, सेना के भीतर कई जासूस थे जिन्हें तलैया या याजकी कहा जाता था। इन जासूसों को दुश्मनों की गतिविधियों पर खुफिया जानकारी इकट्ठा करने और सैन्य कमान को महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था।

सेना का वर्गीकरण

दिल्ली सल्तनत की सेना को मंगोलों से प्रभावित दशमलव प्रणाली के आधार पर वर्गीकृत किया गया था। सबसे छोटी सैन्य इकाई को “सरखेल” कहा जाता था, जबकि सबसे बड़ी इकाई को “खान” के रूप में जाना जाता था। ऐतिहासिक अभिलेखों से पता चलता है कि 13वीं शताब्दी के दौरान बलबन के शासन में, सेना में सर्वोच्च पद के अधिकारी ने “मलिक” की उपाधि धारण की थी। “खान” की उपाधि बलबन के शासनकाल के दौरान धनी वर्ग को दर्शाने के लिए पेश की गई थी।

सैन्य पदानुक्रम में दस घुड़सवारों की एक कोर का नेतृत्व करने वाला एक सरखेल, दस सरखेलों (100 घुड़सवारों) का एक सरदार, दस सरदारों (1000 घुड़सवारों) का एक अमीर, दस अमीरों (10,000 घुड़सवारों) की देखरेख करने वाला एक मलिक और एक मलिक कमांडिंग शामिल था। दस मलिक (एक लाख घुड़सवार)। पदानुक्रम के शीर्ष पर सर्वोच्च कमांडर था।

सेना को अलग-अलग इकाइयों और रैंकों में संगठित करके, दिल्ली सल्तनत का उद्देश्य एक संरचित और अनुशासित सैन्य बल बनाए रखना था जो प्रभावी रूप से अपने क्षेत्रों का बचाव और विस्तार करने में सक्षम हो।

हथियार, शस्त्र

सल्तनत की काली सेना में तरह-तरह के हथियारों का इस्तेमाल होता था। घुड़सवार दो तलवारों, भाले, धनुष और बाणों से सुसज्जित थे। पैदल सैनिक भी तलवार, खंजर, धनुष, बाण और भाले लिए हुए थे। सल्तनत काल में बारूद, गोले और तोपखाने का विकास हुआ। इसके अतिरिक्त, कुशकांजिर (एक प्रकार की तोप), मग़रिब (भारी पत्थर), मंजनिक (धातु के गोले), चरखा (पत्थर प्रोजेक्टाइल), और फलखून (कैटापोल्ट्स) जैसे हथियारों का उपयोग युद्ध में किया जाता था।

झंडे और प्रतीक

सेना में झंडों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें बड़े-बड़े बैनर प्रमुखता से काले और लाल रंग को प्रदर्शित करते थे। झंडों में प्रतीक भी थे। उदाहरण के लिए, कुतुबुद्दीन ऐबक के झंडे में एक उभरता हुआ चाँद और एक फन लिए हुए साँप या शेर को दर्शाया गया है। सुल्तान फ़िरोज़ तुग़लक़ के झंडे में फन लगाए साँप की आकृति भी बनी हुई थी। धनी व्यक्तियों के भी अपने झंडे होते थे। मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के दौरान, एक खान को सात झंडे ले जाने की अनुमति थी, जबकि एक अमीर तीन झंडे ले जा सकता था।

किलों का निर्माण

सल्तनत के सैन्य संगठन में दुर्गा के रूप में जाने जाने वाले किलों का बहुत महत्व था। इन किलों को रणनीतिक रूप से लाभप्रद स्थानों या प्राकृतिक सेटिंग्स पर बनाया गया था। बलबन पहला शासक था जिसने किलेबंदी पर ध्यान केंद्रित किया, मंगोल आक्रमणों से उत्तर-पश्चिमी सीमाओं की रक्षा के लिए किलों का निर्माण किया और प्रत्येक किले में सैनिकों को तैनात किया। अलाउद्दीन खिलजी ने सीमावर्ती क्षेत्रों में भी किलों का पुनर्निर्माण किया और सिरी के किले को मजबूत किया। किले में सर्वोच्च पद का अधिकारी कोतवाल होता था, जिसके पास किले की चाबी होती थी। इसके अतिरिक्त, मुफ़रीद नामक अधिकारी थे जो संभवतः किले के हथियारों की देखरेख करते थे।

वेतन

दिल्ली सल्तनत में सैनिकों के वेतन समय के साथ बदलते रहे। प्रारम्भ में तुर्क शासकों ने नकद वेतन के अतिरिक्त सैनिकों को भूमि का आवंटन किया। उन्हें माल-ए-गनीमा (लूट के सामान) का 4/5 भी प्राप्त हुआ। हालाँकि, अलाउद्दीन खिलजी ने सैनिकों के लिए वितरण को 1/5 और खजाने के लिए 4/5 में बदल दिया। अलाउद्दीन के शासन के दौरान, नकद वेतन पेश किया गया था। एएसपी सैनिकों (एक घोड़े वाले) को 234 टंका का वार्षिक वेतन मिलता था, जबकि दो एएसपी (दो घोड़ों वाले) को 378 टंका दिए जाते थे।

अलाउद्दीन खिलजी के तहत मुफ्तियों ने सैनिकों के वेतन से कमीशन काट लिया। हालाँकि, गयासुद्दीन तुगलक ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया और व्यक्तिगत रूप से सैनिकों के वेतन रजिस्टर (वसिलात-ए-हाशम) का पर्यवेक्षण किया। खुसरो खां के शासन काल में सैनिकों को धन मुक्त रूप से वितरित किया जाता था, लेकिन अतिरिक्त राशि वसूल करने की व्यवस्था की जाती थी। यह बकाया राशि दफ्तर-ए-फ़ज़ीलत नामक एक रजिस्टर में दर्ज की गई और वेतन से किस्तों में काट ली गई।

मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में सैन्य अधिकारियों के वेतन और उनके अधीनस्थों के वेतन का विस्तृत रिकॉर्ड रखा जाता था। शाही सैनिकों को 600 टंका का वार्षिक वेतन मिलता था। प्रत्येक मलिक का वेतन 50,000 से 60,000 टंका तक था, अमीरों को 30,000 से 40,000 टंका तक, सिपाहसालारों को 20,000 टंका और सैनिकों का वार्षिक वेतन 1000 से 10,000 टंका तक मिलता था।

अधिकारियों को अपना वेतन इक्ता (भूमि अनुदान का एक प्रकार) के रूप में प्राप्त होता था, जबकि सैनिकों को नकद भुगतान प्राप्त होता था। सेना प्रमुख के अधीन सैनिकों को सीधे शाही खजाने से भुगतान किया जाता था, जबकि मुक्ता के अधीन सैनिकों को उनके इक्ता द्वारा उत्पन्न आय के एक हिस्से से वेतन मिलता था।

फिरोज तुगलक ने सेना को नकद वेतन के बदले अतलकी भूमि प्रदान करने की प्रथा शुरू की। वजहदार के रूप में जाने जाने वाले इन सैनिकों को दो हजार टंकों का वार्षिक वेतन दिया जाता था। उनकी आय सुनिश्चित करने के लिए, उन्हें इक्ता प्रदान किया गया, जो भूमि पर उनके अधिकार के प्रमाण के रूप में कार्य करता था।

मुकदमे और न्याय प्रणाली


दिल्ली सल्तनत के शासकों ने एक मजबूत न्याय प्रणाली के महत्व को पहचाना और इसकी प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए विशेष उपाय किए। न्याय प्रणाली में अंतिम अधिकार सुल्तान के पास था, जिसे न्याय का अंतिम स्रोत माना जाता था। धार्मिक मामलों पर निर्णय लेते समय, सुल्तान ने प्रमुख सदर और मुफ्ती की सहायता मांगी। लौकिक मामलों में सुल्तान की सहायता काजी करता था।

न्यायिक मामलों को संभालने के लिए दीवान-ए-क़ज़ा नामक एक अलग विभाग की स्थापना की गई थी। इस विभाग का प्रमुख, जिसे क़ाज़ी-ए-मुमालिक या क़ाज़ी-उल-कुजात के रूप में जाना जाता है, अधिकारियों की नियुक्ति और न्यायपालिका के कामकाज की देखरेख के लिए जिम्मेदार था। नायब क़ाज़ी और अदल क़ाज़ी-उल-कुजात के अधीन काम करते थे और न्याय प्रशासन से संबंधित कार्यों को अंजाम देते थे।

सदा-हम-सुदूर ने धार्मिक मामलों में सुल्तान के मुख्य सलाहकार का पद संभाला और इस्लामी कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार था। न्यायिक प्रणाली केवल केंद्रीय प्रशासन तक ही सीमित नहीं थी बल्कि प्रांतों तक भी फैली हुई थी। प्रांतों में, चार प्रकार की अदालतें मौजूद थीं:

वली या गवर्नर का दरबार: प्रांत के वली या गवर्नर के पास प्रांत में सर्वोच्च अधिकार था और न्याय देने के लिए जिम्मेदार था। राज्यपाल ने प्रांत के सर्वोच्च न्यायालय के रूप में कार्य किया और अपील के मामलों में काजी-ए-सूबा की सहायता मांगी। वली ने विभिन्न प्रकार के मामलों की सुनवाई की, जिससे उनका न्यायालय क्षेत्राधिकार के मामले में सबसे व्यापक हो गया।

क़ाज़ी-ए-सूबा का दरबार: क़ाज़ी-ए-सूबा वली के नीचे का पद था और मुख्य काज़ी की सिफारिश के आधार पर सुल्तान द्वारा नियुक्त किया जाता था। काजी-ए-सूबा दीवानी और फौजदारी दोनों मामलों की अध्यक्षता करता था। वे सूबे के सभी काजियों के काम की देखरेख करते थे और दीवान-ए-सूबा में नियुक्तियों के लिए उम्मीदवारों की सिफारिश करते थे।

दीवान-ए-सूबा का न्यायालय: दीवान-ए-सूबा के न्यायालय का अधिकार क्षेत्र सीमित था और मुख्य रूप से भूमि राजस्व से संबंधित मामलों से निपटा जाता था।

सदर-सूबा का न्यायालय: सदर-सूबा के न्यायालय का अधिकार भी सीमित था। प्रांतीय अदालतों में केंद्रीय प्रशासन के समान मुफ्ती और ददबाक उपस्थित थे। बड़े शहरों में, अमीर-ए-दाद के नाम से जाने जाने वाले एक न्यायिक अधिकारी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी मुख्य जिम्मेदारियों में अपराधियों को पकड़ना और काजी के सहयोग से मामलों का फैसला करना शामिल था। नायब-ए-ददबक के अधिकारियों ने अपने कर्तव्यों में अमीर-ए-पिता का समर्थन किया।

प्रांतों में न्यायिक उपखंडों में काज़ी, फौजदार, अमिल, कोतवाल और गाँव पंचायत शामिल थे। गाँव पंचायत, या ग्राम परिषद, को स्थानीय शासन में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त थी। उन्होंने भूमि वितरण को संभाला, स्थानीय विवादों को सुलझाया, कर एकत्र किया और उन्हें सरकारी खजाने में जमा कर दिया।

कानून एवं व्यवस्था

सल्तनत काल में, विभिन्न प्रकार के कानून थे जो समाज को नियंत्रित करते थे। मुसलमान शरिया कानून के अधीन थे, जबकि हिंदुओं को उनके धार्मिक कानूनों और परंपराओं के आधार पर न्याय मिला। आपराधिक कानून और राजनीतिक अपराध सभी पर लागू होते थे।

शरिया कानून के अलावा, सुल्तानों ने जाब्ता या जबाबित के नाम से जाने जाने वाले स्वतंत्र कानून भी बनाए, जो राज्य में सभी के लिए बाध्यकारी थे। मुस्लिम कानून के चार प्राथमिक स्रोत थे: कुरान, हदीस (पैगंबर मुहम्मद के कथन और कर्म), इज्मा (विद्वानों की सहमति), और क़यास (समान तर्क)। कुरान मुस्लिम कानून के प्रमुख स्रोत के रूप में सर्वोच्च अधिकार रखता है, इसके बाद हदीस, इज्मा और कयास आते हैं।

इक्ता प्रणाली

शासन की सुविधा के लिए, राज्यों को इक्ता के रूप में जाने वाली छोटी प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित किया गया था। इन इक्ताओं के प्रशासकों को मुक्ता या वली कहा जाता था। वे भू-राजस्व एकत्र करने और अपने संबंधित क्षेत्रों के प्रशासन की देखरेख के लिए जिम्मेदार थे। प्रशासनिक खर्च और वेतन काटने के बाद, शेष आय को केंद्रीय खजाने में भेज दिया जाता था, जिसे फ़वाज़िल के नाम से जाना जाता था।

कुछ सुल्तानों द्वारा इक्तादारों को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। परिस्थितियों के आधार पर सुल्तान और मुक्ता के बीच संबंध भिन्न थे, और मुक्ता की स्थिति वंशानुगत नहीं थी। बलबन ने ख्वाजा नामक एक अधिकारी को इक्ता के कामकाज की निगरानी और उसकी आय का आकलन करने के लिए नियुक्त किया।

अलाउद्दीन खिलजी ने उन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए इकतदारों के स्थानांतरण पर जोर दिया। उसके शासनकाल में दीवान-ए-विजारत इक्ता की आय की देखरेख करता था। गयासुद्दीन तुगलक ने मुक्ता के व्यक्तिगत खर्चों को उनके सैनिकों के खर्च से अलग कर दिया, यह सुनिश्चित करते हुए कि सैनिकों के वेतन से समझौता नहीं किया गया था।

मुहम्मद तुगलक ने इक्ता में राजस्व का एक स्पष्ट विभाजन पेश किया, जिसमें इक्तादारों की व्यक्तिगत आय को उनके अधीन सैनिकों के वेतन से अलग किया गया। उन्होंने वली-उल-खराज नामक एक नए अधिकारी को भू-राजस्व संग्रह और प्रशासन की जिम्मेदारी सौंपी। इब्न बतूता के अनुसार, इक्ता में दो प्रकार के अधिकारी नियुक्त किए गए थे: वली-उल-खराज, राजस्व संग्रह के लिए जिम्मेदार, और अमीर, जो सेना की देखरेख करते थे।

अमिल नामक एक अधिकारी इक्ता की आय का निरीक्षण करता था। मुहम्मद तुगलक ने यह भी सुनिश्चित किया कि इक्ता में सैनिकों के वेतन का भुगतान केंद्रीय खजाने से किया जाता था। फिरोज तुगलक ने सैनिकों को वेतन के बदले जमीन देने की प्रथा शुरू की। लोदी के शासनकाल के दौरान, वली या इक़तदार बहुत शक्तिशाली हो गए और उन्होंने सुल्तान की देखरेख में बड़ी सेनाओं और हाथियों को अपने नियंत्रण में रखा।

खालसा या महरूसा

खालसा भूमि उस भूमि को संदर्भित करती है जिसकी आय सुल्तान के लिए आरक्षित थी। इन क्षेत्रों का नियंत्रण और पर्यवेक्षण शाहना, अमीर या मलिक नामक एक अधिकारी द्वारा किया जाता था। प्रारंभ में, प्रारंभिक सुल्तानों के शासन के दौरान भटिंडा (तबरहिंद) और ग्वालियर को खालसा भूमि माना जाता था। अलाउद्दीन ने खालसा भूमि का काफी विस्तार किया, लेकिन फिरोज तुगलक ने इस नीति को उलट दिया, जिससे खालसा भूमि में कमी आई। सुल्तान मसूद शाह के तहत, भटिंडा को एक साधारण अक्त में परिवर्तित कर दिया गया था, जिसका अर्थ है कि इसकी स्थिति में परिवर्तन।http://www.histortstudy.in

निष्कर्ष

अंत में, दिल्ली सल्तनत के प्रशासन की विशेषता शासन की एक केंद्रीकृत प्रणाली थी, जिसमें सुल्तान अंतिम अधिकार था। सुल्तान के पास महत्वपूर्ण शक्ति थी और वह धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों तरह के न्याय के लिए जिम्मेदार था। न्याय प्रणाली में मुख्य सदर, मुफ्ती और काज़ी सहित विभिन्न अदालतें और अधिकारी शामिल थे, जिन्होंने कानूनी निर्णय लेने में सुल्तान की सहायता की। दीवान-ए-क़ज़ा ने न्यायिक विभाग के रूप में कार्य किया, जिसके शीर्ष पर काज़ी-ए-मुमालिक था।

सल्तनत ने मुसलमानों के लिए शरिया पर आधारित कानूनों को भी लागू किया, जबकि हिंदुओं ने अपने स्वयं के धार्मिक कानूनों और परंपराओं का पालन किया। इसके अतिरिक्त, जाब्ता या जबाबित के नाम से जाने जाने वाले राज्य कानून सुल्तानों द्वारा बनाए गए थे, जो सभी विषयों पर लागू होते थे। इक्ता प्रणाली ने राज्यों को छोटी इकाइयों में विभाजित किया, जिसकी निगरानी मुक्ता या वली द्वारा की जाती थी, जो भू-राजस्व एकत्र करते थे और प्रशासन का प्रबंधन करते थे। समय के साथ, इकतदारों को नियंत्रित करने और उनके और केंद्रीय प्राधिकरण के बीच शक्ति संतुलन सुनिश्चित करने के प्रयास किए गए।

सल्तनत का कानून और व्यवस्था बनाए रखने पर भी विशेष ध्यान था। न्यायपालिका की एक पदानुक्रमित संरचना थी, जिसमें प्रांतों में वली या गवर्नर कोर्ट, काज़ी-ए-सूबा की अदालत, दीवान-ए-सूबा की अदालत और सदर-सूबा की अदालत जैसी अदालतें थीं। स्थानीय स्तर पर पंचायतों ने विशेष रूप से गांवों में विवादों को सुलझाने और न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कुल मिलाकर, सल्तनत प्रशासन का उद्देश्य प्रभावी शासन स्थापित करना, न्याय सुनिश्चित करना और पूरे क्षेत्र में कानून व्यवस्था बनाए रखना था। प्रणाली की अपनी ताकत और सीमाएं थीं, लेकिन इसने क्षेत्र में बाद के राजनीतिक और प्रशासनिक विकास पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा।https://studyguru.org.in


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