मुग़लकालीन जागीरदारी प्रथा का मूल्यांकन | Jagirdari System in Hindi

मुग़लकालीन जागीरदारी प्रथा का मूल्यांकन | Jagirdari System in Hindi

Share This Post With Friends

मुग़ल काल में प्रशासनिक व्यवस्था में मनसबदारी व्यवस्था का महत्व और उपयोगिता को जिस व्यवस्था पर टिकाया गया उसका आधार जागीरदारी व्यवस्था थी। इस व्यवस्था ने जागीरदारों को आमदनी के स्रोत प्रदान किया। ये जागीरदार बड़े-बड़े महलों में रहते थे और शानदार जीवन शैली में रहते थे। आइये जानते हैं कि जागीरदारी व्यवस्था क्या थी?

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Group Join Now
मुग़लकालीन जागीरदारी प्रथा का मूल्यांकन | Jagirdari System in Hindi

मुग़लकालीन जागीरदारी प्रथा

मनसबदारों को जब नकद वेतन के बदले किसी भू-क्षेत्र का राजस्व आवंटित किया जाता था तो तो वह उनकी जागीर या तियूल कही जाती थी। जागीर प्राप्तकर्ता को जागीरदार अथवा तियूलदार कहा जाता था। जागीरदार को इस क्षेत्र से लगान एवं अन्य करो की वसूली का अधिकार होता था। इसी धन से यह अपना वेतन और अन्य प्रशासनिक खर्च प्राप्त करता था।

जागीरदारी व्यवस्था का प्रारम्भ किसने किया

जागीरदारी व्यवस्था की नीव अकबर के काल में पड़ी किन्तु इसका विकास शाहजहाँ के काल में हुआ। जागीर की अनुमानित आय को जमा या जमादानी तथा वास्तविक रूप से प्राप्त होने वाली आय को हाल-ए-हासिल कहा जाता था। यह व्यवस्था स्थानान्तरणीय थी यद्यपि कुछ आनुवंशिक जागीरों का भी उल्लेख है। जागीरे कई प्रकार की होती थी-

जागीर तनख्वाह- नगद वेतन के बदले प्रदान की जाने वाली जागीर को जागीर तन्ख्वाह कहा जाता था। इसमें भूमि पर स्वामित्व नहीं था। यह जागीरें वंशानुगत नहीं होती थी बल्कि इनके अधिकारियों का सामान्यतः तीन-चार वर्षों में स्थानान्तरण कर दिया जाता था ।

मशरुत जागीर-जब किसी व्यक्ति को किसी शर्त पर जागीर दी जाती थी तब उसे मशरूत जागीर कहा जाता था। वतन जागीर- यदि मनसबदारों को उसके अधिराज्य अथवा अधिकार क्षेत्र का भू-राजस्व आवंटित किया जाता था तो वह उसकी वतन जागीर कहलाती थी। यदि वतन जागीर की आय मनसबदार के वेतन से कम होती थी, तो उसे अतिरिक्त रूप से जागीर तन्ख्वाह प्रदान कर इस कमी को पूरा किया जाता था।

वतन जागीर वंशानुगत होती थी। इनके अधिकारियों का स्थानान्तरण भी नहीं होता था। आरम्भ में वतन जागीरें अकबर ने केवल राजपूत शासकों को प्रदान की थी। किन्तु बाद में अन्य वंशानुगत शासकों को भी प्रदान किए जाने लगे।

इनाम जागीर- यह किसी व्यक्ति को उसकी विशेष सेवा के बदले पुरस्कार स्वरूप प्रदान किया जाता था। यह पद एवं कार्य रहित होता था। इसके प्राप्तकर्ता को कोई प्रशासनिक दायित्व नहीं दिए जाते थे मद्द-ए-माश नामक भू-क्षेत्र इसी में सम्मिलित थे जो विद्वानों, धार्मिक व्यक्तियों तथा सम्मानित व्यक्तियों को दिए जाते थे। मदद-ए-माश को सयूरगल भी कहा गया। मद्द-ए-माश भूमि को उत्तर मुगल शासक बहादुरशाह प्रथम ने वंशानुगत बना दिया था।

अलतमगा जागीर- यह सवप्रथम जहांगीर के काल में प्रदान की गयी। इसे किसी विशेष अनुग्रह प्राप्त परिवार को सम्राट की स्वर्णिम मुहर के साथ प्रदान किया जाता था।

ऐम्मा जागीर– ऐम्मा जागीर की शुरूआत जहांगीर ने की थी। यह मुस्लिम धर्मविदों एवं उलेमाओं को प्रदान की गई जागीर थी।

महाल-ए-पैबाकी- आवश्यकतानुसार जागीर भूमि को खालिसा में परिवर्तित किया जा सकता था। ऐसी जागीर भूमि जो अस्थायी रूप से केन्द्रीय प्रशासन के अधीन कर ली जाती थी, महाल-ए-पैवाकी (आरक्षित या अप्रदत्त भूमि) कहलाती थी। आवश्यकतानुसार इसी महाल-ए-पैवाकी भूमि का उपयोग नयी जागीर प्रदान करने या प्रदत्त जागीरों के क्षेत्रों में विस्तार के लिए किया जा सकता था।

जागीर की आमदनी के स्रोत क्या थे

जागीर की आमदनी मुख्यतः लगान, व्यापारिक चुंगी, घाट और पत्तनों पर लगने वाली चुंगी एवं अन्य विविध उपकर थे जिन्हें सैर-जिहात कहा जाता था। जागीर की अनुमानित आय को जमा तथा वास्तविक आय को हाल-ए-हासिल कहा जाता था। नियमतः जागीरदारों को अपनी जागीर से उन्हीं करों की वसूली की अनुमति थी जिसका अधिकार उन्हें सम्राट से प्राप्त था।

जागीर की अनुमाति आय का लेखा-जोखा राजस्व मंत्रलय के पास होता था। कर का निर्धारण एवं वसूली जागीरदार अथवा उसके प्रतिनिधि द्वारा किया जाता था। भू-राजस्व निर्धारण में उसे राजस्व मंत्रालय द्वारा स्वीकृत दरों को मानना पड़ता था। फौजदार एवं सवानेह- निगार जागीरदार पर नियंत्रण रखते थे। जागीर में शाही आदेशों को कार्यान्वित करने का अधिकार फौजदार के पास था।

सवानेहनिगार जागीरदारों की गतिविधियों की सूचना केन्द्र को भेजता था। जागीरदारों को किसानों के शोषण की अनुमति नहीं थी बल्कि उन्हें अपनी जागीर के विकास और कृषि की उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना पड़ता था। यदि किसी जागीरदार के अत्याचारी होने की सूचना मिलती थी तो उसकी जागीर का अधिग्रहण अथवा हस्तान्तरण कर दिया जाता था।

कुछ जागीरदार अपने सैनिकों को वेतन के अनुरूप जागीरों के कुछ भू-भाग राजस्व के रूप में आवंटित करते थे। इसके अतिरिक्त छोटे जागीरदारों के लिए अपनी जागीर से दूर रहकर भू-राजस्व वसूलना कठिन था अतः उन्होंने जागीरों को इजारा (भू-राजस्व वसूलने का ठेका) पर देना प्रारम्भ किया जो आगे चलकर कृषकों के शोषण का माध्यम बना ।

जागीरदारी प्रथा में संकट- औरंगजेब के शासन के पूर्वार्द्ध तक जागीरदारी प्रथा सुचारू रूप से चलती रही किन्तु उसके बाद के समय में यह प्रथा संकटग्रस्त हो गई। साम्राज्य में जागीर भूमि की कमी हो गयी जिसके कारण जागीर प्रदान करना कठिन हो गया।

औरंगजेब का उत्तराधिकारी बहादुरशाह प्रथम के द्वारा उदारतापूर्वक मनसब प्रदान करने तथा मनसबदारों की प्रोन्नति करने के कारण यह समस्या और कठिन हो गयी। फर्रुखशियर ने इस समस्या के हल के लिए खालसा भूमि का जागीर के रूप में आवंटन आरम्भ किया किन्तु समस्या का समाधान नहीं हो सका।

इस व्यवस्था में सुधार का अंतिम प्रयास मोहम्मद शाह के समय में वजी निजामुल मुल्क के द्वारा किया गया किन्तु उसे भी सफलता नहीं मिली। अ धीरे-धीरे मुगलों द्वारा विकसित जागीरदारी प्रथा समाप्त हो गयी।

Related Post:-

मनसबदारी प्रथा क्या थी?-मुग़ल इतिहास | Mansabdari Vyvastha kya thee

क्या मुग़ल सम्राट हिन्दू धर्म विरोधी थे -Religious policy of Mughal emperors from Babar to Aurangzeb

अकबर का सम्पूर्ण इतिहास 1542-1605 : प्रारम्भिक जीवन और कठिनाइयाँ, साम्राज्य विस्तार, सामाजिक और धार्मिक नीति, मृत्यु और विरासत

भारतीय इतिहास: प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक भारत की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएं और व्यक्तित्व

मुगल साम्राज्य की शक्तिशाली महिलाएँ: जिनके पास असाधारण शक्तियाँ थीं | Powerful Women of the Mughal Empire in Hindi


Share This Post With Friends

Leave a Comment

Discover more from 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading