मुग़ल काल भारत के इतिहास में सबसे प्रसिद्द कालों में से एक है। यह घृणा और प्रेम का मिश्रण है। यद्यपि यह घृणा अत्याचार अथवा अन्याय के बजाय धार्मिक ज्यादा है। लेकिन हम इस ब्लॉग में मुग़ल काल की प्रशासनिक व्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली Mansabdari–मनसबदारी व्यवस्था के विषय में अध्ययन करेंगे। ब्लॉग को अंत तक अवश्य पढ़े।
Mansabdari-मनसबदारी व्यवस्था
मनसब का अर्थ
मनसब एक फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘पद’ अथवा रेंक। इसके दो भाग थे- जात एवं सवार। जात से तात्पर्य व्यक्तिगत पद (सेना) से था, जबकि सवार का तात्पर्य घुड़सवारों की संख्या से था।
Mansabdari-मनसबदारी व्यवस्था को किसने प्रारम्भ किया
‘मनसबदार’ शब्द पदाधिकारी के लिए प्रयोग होता था और इस पूरी व्यवस्था को मनसबदारी व्यवस्था कहा जाता था। मुगलकाल में मनसबदारी व्यवस्था का प्रारम्भ अकबर ने किया था।
मंसबदारी प्रथा की उत्पत्ति
मनसब अथवा पद का निर्धारण अंकों के माध्यम से होता था। यह मंगोलों की दशमलव पद्धति पर आधारित थी। मंसबदारी प्रथा की उत्पत्ति मध्य एशिया में हुआ था। इसका मूल चंगेज खाँ की व्यवस्था में देखा जा सकता है जिसने दशमलव प्रणाली पर अपनी सेना का गठन किया था। मनसब सैनिक अथवा असैनिक किसी को भी दिया जा सकता था। यह व्यवस्था स्थानान्तरणीय थी, आनुवंशिक नहीं।
अकबर के समय में मनसबदारी व्यवस्था
अकबर– मुगल काल में मनबसदारी व्यवस्था का प्रारम्भ अकबर ने किया था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत अकबर ने अपने शासन के तीन प्रमुख अंगों-
- सामंत,
- सेना एवं
- नौकरशाही
को एक सामान्य व्यवस्था में संगठित कर दिया। न्यूनतम मनसब का अंक 10 था और अधिकतम 10,000 | दस हजार के मनसब का सर्वोच्च मनसब युवराज सलीम को दिया गया था जिसे बाद में बढ़ाकर अकबर ने बारह हजार कर दिया था।
राजा मान सिंह को कितने का मनसब दिया गया
सामान्यतः नियुक्तियां केवल 5000 के ही मनसब तक ही की जाती थी। केवल विशेष व्यक्तियों को अकबर द्वारा 7000 का मनसब दिए गए जैसे- मिर्जा अजीज कोका और राजा मान सिंह को अकबर ने 7000 का मनसब दिया था।
अकबर के समय राजा मानसिंह का मनसब अबुल फजल के मनसब से बड़ा था। अकबर ने सम्पूर्ण मनसबों को 66 श्रेणियों में विभाजित किया था। यद्यपि अबुल फजल ने 33 श्रेणियों का ही उल्लेख किया है।
अकबर के पश्चात् जहांगीर व शाहजहाँ के शासनकाल में मनसब में वृद्धि हुई। इस काल में सरदारों को 8000 तक मनसब तथा शाहजादों का 40,000 तक मनसब दिए गए।
इतिहाकार पादशाह लाहौरी के अनुसार शाहजहाँ के समय में उसके पुत्रों को 12000 से 60,000 तथा अमीरों को 6000 से 9000 तक मनसब प्रदान किए गए।
अकबर के शासन काल अंतिम समय में 500 जात तथा उससे ऊपर श्रेणी वाले अमीर वर्ग पर मुख्यतः के राजपूतों तथा अन्य हिन्दू वर्ग ने प्रभुत्व जमा लिया था तथा क्रमशः बाद के समय इनकी संख्या में वृद्धि होती गयी।
- 500 से नीचे के मनसबदार, मनसबदार कहलाते थे|
- 500 से 2500 तक के मनसबदारों को अमीर कहा जाता था।
- 2500 से ऊपर के मनसबदारों को अमीर-ए-आजम कहा जाता था।
सैनिक अधिकारियों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा का पद खानेजामा तत्पश्चात खानेखाना का था काजियों व सदों को इस व्यवस्था में सम्मिलित नहीं किया गया था।
व्यवस्था की शुरूआत की शुरुआत किसने की
अकबर ने 1577 ई० में ‘जात’ व्यवस्था की शुरूआत की। उसने अपने शासनकाल के चालीसवें वर्ष में मनसबदारी व्यवस्था में सवार के पदों को आरम्भ किया। जात एवं सवार के सम्बन्ध में इतिहासकारों में विभिन्न मत है- ब्लाक मैन के अनुसार जात का अर्थ सैनिक पद से तथा सवार का अर्थ घुड़सवारों की संख्या से था जो मसबदार को रखनी पड़ती थी।
प्रत्येक मनसबदार को एक साथ जात और सवार के पद प्रदान किए गए जैसे 5000/5000 अथवा 2000/2000 आदि। इसमें जोड़े का 1 पहला अंक जात मंसब तथा दूसरा अंक सवार मंसब कहलाता था।
जात मंसब द्वारा किसी व्यक्ति का अधिकारियों के बीच स्थान या उसकी वरीयता का निर्धारण होता था। इसी के अनुसार उसका वेतन भी निर्धारित होता था। सवार मनसब द्वारा किसी व्यक्ति के सैनिक दायित्व का निर्धारण होता था। जात और सवार के बीच अनुपात भी निर्धारित था। प्रत्येक स्थिति में सवार मनसब की संख्या जात मंसब से अधिक नहीं होती थी। यह संख्या या तो जात मनसब के बराबर या उसकी आधी या आधी से कम होती थी।
इसी अधार पर मनसबदारो की श्रेणियां निर्धारित होती थी। जात तथा सवार की श्रेणी को शामिल करने के बाद मनसबदारों की प्रत्येक श्रेणी को पुनः तीन श्रेणियों में बांटा गया–
प्रथम श्रेणी के मनसबदारों में जात और सवार पदों की संख्या बराबर होती थी, यथा- 5000 जात, 5000 सवार । यदि सवार मनसब जात मनसब का आधा था।
द्वितीय श्रेणी में मनसबदार था जैसे- 5000 जात और 3000 सवार । यदि सवार मनसब, जात मनसब के आधे से भी कम होता था तो मनसब तृतीय श्रेणी का होता था
तृतीय श्रेणी-जैसे 5000 जात, व 2000 सवार।
केवल विशेष परिस्थिति में सवार मंसब में जात मंसब से अधिक संख्या दी जाती थी जिसे ‘मशरुत मनसब’ कहते थे। किन्तु आवश्यकता समाप्त होने पर यह व्यवस्था समाप्त कर दी जाती थी। अकबर ने सेना की कार्य कुशलता बनाए रखने के लिए दहविस्ती (10-20) का नियम निर्धारित किया था।
इसके अनुसार प्रत्येक दस सैनिक पर बीस घोड़े अनिवार्य रूप से रखने होते थे ताकि आवश्यकता पड़ने पर सैनिकों के लिए घोड़े उपलब्ध रहे।
दाग प्रथा
1579 ई० में अपने शासन के 18 वें वर्ष में अकबर ने ‘दाग’ व तसहीहा (चेहरा) प्रथा का प्रारम्भ किया। दाग प्रथा के अन्तर्गत घोड़ों पर शाही मोहर का चिन्ह और एक मनसबदार का निशान दागा जाता था। प्रत्येक मनसबदार का निशान अलग-अलग कर दिया जाता था जिससे वे एक दूसरे के घोड़े का तब्दील न कर सकें। इसके लिए अकबर ने एक पृथक विभाग दाग-महाली की स्थापना की।
तसहीहा (चेहरा) के अन्तर्गत प्रत्येक सैनिक का हुलिया रखा जाता था। अकबर के शासन काल में प्रत्येक वर्ष घोड़े के साज-समान के लिए मनसबदार के वेतन में से एक माह का वेतन काट लिया जाता था। शाहजहाँ तथा औरंगजेब के काल में खुराक-ए-दबाब या रसद-ए-खुराखी के नाम से वेतन में कटौती की जाती थी।
जहांगीर के समय मनसबदारी व्यवस्था
जहाँगीर-अकबर की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों ने मनसबदारी व्यवस्था में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। जहांगीर ने अपने समय में दो अस्पा एवं सिह अस्पा नामक नवीन व्यवस्था प्रारम्भ की।
दो अस्पा – से तात्पर्य है दो घोडे जबकि –
सिह अस्पा – से तात्पर्य तीन घोड़े से था।
जहाँगीर ने सर्वप्रथम यह पद महावत खाँ को दिया। इसके अन्तर्गत सवार मनसब के निर्धारित अंक में वृद्धि किए बिना उसके अधीन सैनिकों की संख्या में वृद्धि की जाती थी।
शाहजहां के समय मनसबदारी व्यवस्था
शाहजहाँ-शाहजहाँ ने मनसबदारी व्यवस्था में मासिक वेतन की शुरूआत की। अब कम से कम चार महीने एवं अधिकतम आठ महीने में वेतन दिया जाने लगा। अतः मनसबदारी व्यवस्था पूरे मुगल काल में सबसे अच्छे ढंग से कार्य करने लगी।
शाहजहाँ के समय में पूरे मुगल काल का सबसे बड़ा मनसब दारा शिकोह को 60,000 का दिया गया। शाहजहाँ के समय में दो नयी जागीर शिशमहा एवं सीमाहा प्रचलित हुई। शिशमहा जागीर से निर्धारित आय की 50 प्रतिशत वसूली होती थी जबकि सीमाहा से 25 प्रतिशत की।
औरंगजेब के समय मनसबदारी व्यवस्था
औरंगजेब – औरंगजेब ने मनसबदारी व्यवस्था में मशरूत की शुरूआत की। इसके तहत सवार में आकस्मिक वृद्धि की जाती थी। यह कुछ शर्तों पर आधारित थी। औरंगजेब ने अपने शासन काल में मनसबदारों को किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति या किसी महत्वपूर्ण अभियान के दौरान सवार पद में वृद्धि के लिए मनसब दिया।
हिन्दू मनसबदारों की सर्वाधिक संख्या (33 प्रतिशत) औरंगजेब के काल में थी । अन्य शासकों के काल में यह प्रतिशत थी- अकबर-22.4 प्रतिशत जहांगीर 13.03 प्रतिशत, शाहजहाँ 24 प्रतिशत।
औरंगजेब के समय में मनसबदारों की संख्या में इतनी वृद्धि हुयी कि उन्हें देने के लिए जागीर नहीं बची। इस स्थिति को बोजागीरी कहा गया। औरंगजेब के काल में खालसा भूमि को भी मनसबदारों को प्रदान किये गये। फलस्वरूप जमादामी (जागीर की निर्धारित आय) एवं जामा हासिल (वास्तविक प्राप्त आय) के बीच अन्तर बढ़ता गया इस कारण मनसबदारी व्यवस्था चरमरा गयी।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० सतीश चन्द्र मनसबदारी व्यवस्था में आये इस दोष को ही मुगल साम्राज्य के पतन का सबसे प्रमुख कारण मानते हैं।
मनसबदारी व्यवस्था मुगल प्रशासनिक व्यवस्था का मेरूदंड था। इसके द्वारा राज्य के प्रशासनिक व्यवस्था में एकरूपता आई जिससे राजनैतिक एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ।
स्रोत-एस. के. पण्डे -मध्यकालीन भारत- पृष्ठ- 574-576, प्रयाग एकेडमी इलाहाबाद