ऋग्वेदिक आर्य-वर्ण, आर्य-अनार्य, आजीविका और दास-दासियाँ- RigVedic Arya

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भारत में (१२०० – १००० ईसा पूर्व ) के काल को मुख्य रूप से ऋग्वेद का काल माना जाता है। उस समय भारत में जातीयों का उल्लेख नहीं है लेकिन क्षेत्रीय अथवा रक्तधारित विशेषताओं के आधार पर उस समय चार जातियां मुख्य रूप से विद्यमान थीं- कोल या कोलारी ( निषाद, आस्ट्रिक ), ये सप्तसिंधु से बहुत दूर रहते थे। स्पष्ट है कि उस समय आर्यों का उनसे कोई संबंध नहीं था।

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ऋग्वेदिक आर्य-वर्ण, आर्य-अनार्य, आजीविका और दास-दासियाँ- RigVedic Arya

आर्यों का जिन लोगों से सबसे पहले सम्पर्क हुआ उनमें (1) मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की शहरी सभ्य जाति द्रविड़ और (2) किरात या फिर किर (मोन-रुमेर) थे, जो कश्मीर से आसाम और आगे के पहाड़ों तथा तराई में बसे हुए थे। आर्यों का सबसे पहले सामना शहरी द्रविड़ लोगों से हुआ। द्रविड़ों को पराजित कर और सप्तसिंधु में बसने के बाद आर्यों को किरों से भिड़ना पड़ा। ऋग्वेदिक आर्यों को किरातों और उनके नायकों शम्बर, चुमुरि, आदि से सामना हुआ यह आपको बता देते हैं। द्रविड़ और किरातों में ऋग्वेद में कोई भेद नहीं मिलता और दोनों ही के लिए- कृष्ण चर्म, कृष्ण योनि, या कृष्ण वर्ण कहा गया है। इससे एक बात तो साफ़ है कि हड़प्पावासी सम्भवतः काले अथवा सावलें रंग के थे। लेकिन यह भी जान लें कि किरात कृष्ण नहीं बल्कि पांडुवर्ण मंगोलायित थे। उनके और द्रविड़ों के चेहरे में काफी अंतर था। आज भी तिब्बती और मुंडा मनुष्य के चेहरे को देखकर यह भेद स्पष्ट किया जा सकता है।

आर्यों ने द्रविड़ और किरातों दोनों के लिए कृष्ण, दस्यु या दास कहा। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई भी विजेता जाती जब पराजित को अपना सहयोगी या साझीदार नहीं बनाती तो, वर्णभेद स्थापित करती है। कुछ वर्ष पहले तक और अफ्रीका के कुछ इलाकों में आज भी सामान्य तौर से यह वर्णभेद देखा जा जाता है। सोचिये आज के वैज्ञानिक और जान – जागृति के युग में जब यह भेदभाव चल रहा है तो आज से सवा तीन हज़ार वर्ष पहले कैसे हालात रहे होंगे इसे समझने के लिए अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं है।

RigVedic Aryaआर्यों का वर्ण

ऋग्वेद में आर्यों के रंग के बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, उन्होंने अपने देवी देवताओं के जिस रंग – रूप का वर्णन किया है, शायद वही उनका अपना रंग हो। मनुष्य अपने देवताओं को भी अपने रंग में देखता है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण दक्षिण भारत है जहाँ अधिकांश देवताओं को काले रंग से दर्शाया गया है। “यदन्नं पुरुषो ह्यत्ति, तदन्नं तस्य देवता” ( मनुष्य जो भोजन खाता है, वही उसका देवता भी खाता है ); इतना ही नहीं बल्कि यह भी कहना चाहिए “यद् रूपः पुरुषो भवति, तद् रूपा तस्य देवता” ( जिस रूप वाला आदमी होता है उसी रूप वाला उसका देवता होता है )

इस तरह अग्नि, इंद्र आदि का जैसा रंग-रूप ऋग्वेद में वर्णित है, वही उनके भक्तों का भी था। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऋग्वेदिक आर्यों से 600 वर्ष बाद हुए बुद्ध और हज़ार वर्ष बाद हुए महाभाष्याकार पतंजलि के समय आर्यों का जो वर्णन मिलता है, उससे यही स्पष्ट होता है कि आर्यों का अपना विशिष्ट रंग था। पतंजलि ने (महाभाष्य 2|2|6 में) लिखा है– “गौर: शुच्याचार: कपिल: इत्येनान ब्रह्मण्ये गुणान्कुर्वन्ति” ( गोरा शुद्ध आचरण वाला, कपिल, पीले केश वाला ब्राह्मण होने के गुण बतलाते हैं।

स्पष्ट है कि पतंजलि ने ब्राह्मणों का जो रंग बतलाया है वह कोई अपवाद नहीं था, क्योंकि उसके बाद वर्ण के संबंध में बौद्धों और ब्राह्मणों का जो विवाद हुआ, ब्राह्मण के गोरे रंग को प्राकृतिक कहकर वर्ण व्यवस्था को स्वभाविक अथवा प्राकृतिक ठहराने को कशिश हुई। बुद्ध के रंग को सुवर्ण-वर्ण और आँखों के रंग को अलसी के फूल के रंग का अभिनील (बहुत काला ) बतलाया गया है। अपेक्षाकृत नवागुन्तक और दूसरों के साथ रक्त-सम्मिश्रण न करने के लिए उतारू ऋग्वेदिक आर्यों का रंग जरूर कपिल, केश पीले (पिंगल) और आँखों का रंग बुद्ध की तरह प्रायः अभिनील रहा होगा।

(1) केशोंका रंग-ऋषि इष ने ऋग्वेद (५।७।७)’ में अग्नि की मूंछ-दाढ़ी (श्मश्रु) के बारे में कहा है-“वह पीले दाढ़ीवाले शुचिदांत-युक्त बड़े और अप्रतिहत बलवान् हैं।” अंगिरस-गोत्री वरु ने इन्द्र के श्मश्रु और केश के बारे में (१०।९६।८) कहा है- “जो पीले श्मश्रु, पीले केशवाला पत्थर सा दृढ़ है।” विश्वामित्र ने (३।२।१३) अग्नि के केशों को भी पीला कहा है- “हम उन विचित्र गतिवाले हरित पिंगल केशवाले सुप्रकाशमान अग्निसे नवीन धनके लिये प्रार्थना करते हैं।” गोतम राहूगण (१।७९११) के अग्नि भी “हिरण्यकेश (सुनहले केश), मेघ बिखेरने वाले कम्पक, वायु की तरह शीघ्रगामी, शुभ्र प्रकाश-युक्त हैं।” हरिकेश और हिरण्यकेश का एक ही अर्थ है, यहां यह स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि अग्नि को पहले हरिकेश कहा गया, और इस मन्त्र में उसी को हिरण्यकेश कहा गया। यहां पीले के लिये हरि (हरित) शब्द का प्रयोग किया गया है।

संस्कृत का हरित और फारसी जर्द, रूसी जोल्त, अंग्रेजी गोल्ड एक ही मूल शब्द के भिन्न-भिन्न रूप हैं। अभारतीय हिन्दू-युरोपीय भाषाओं में इसका अर्थ अब भी पीला लिया जाता है। यद्यपि पहले संस्कृतमें इसका वह अर्थ नहीं लिया गया परन्तु ऋग्वेद के काल में अभी उस मूल अर्थ का त्याग नहीं हुआ था। इन्द्र और अग्नि दोनों ऋग्वेदिक आर्यो के परमपूज्य देवता हैं। दोनों की दाढ़ी-मूंछ का पीला होना उनके भक्तों की दाढ़ी-मूंछ के पीले होने को दर्शाता है। यदि अग्नि की शिखाओं के स्वाभाविक रंग पीले होने से उसे अनिवार्य समझा जाय, तो इन्द्र के लिये वह बात नहीं कही जा सकती। इन्द्र का रूप तो सबल आर्य पुरुष का रूप था।

भरद्वाज ने (६।२९।६) इन्द्र की जासिका या मुख को हरि (पिंगल) कहा है–“इस प्रकार हरित शिप्रवाले इन्द्र सु-आह्वान योग्य हैं, जो उपस्थित या अनुपस्थित होने पर स्तोताओं को धन देते हैं, और इस प्रकार वह उत्तम बल-युक्त प्रकट हो दस्युओं का हनन करते हैं।”

वसिष्ठ के कथनानुसार (७।३३।१) आर्यो का रंग श्वेत था। वह अपने कुलवालों के बारे में कहते हैं “कर्मपूरक दक्षिण की ओर जूड़ा रखने वाले श्वेत वसिष्ठ-संतानें मुझे आकर्षित करती हैं। मैं यज्ञ से उठते कहता हूं, कि वह मुझसे दूर न जाए।” वसिष्ठ ने ही मरुत् देवताओं के बारे में कहा है’ (7|59|11) “स्वयं बलि कवि सूर्य सी त्वचा वाले मरुतो, मैं यज्ञ को पसन्द करता हूं।” सूर्य-त्वक् अर्थात सूर्य के समरूप चमड़े के रंगवाला का अर्थ अत्यंत गौरव वर्ण है। अत्रि की संतान अपाला इंद्र की स्तुति करते हुए (8|80|7) कृतज्ञता प्रकट की है– “सौ यज्ञ करने वाले रथ के छिद्र और शकट के छिद्र को मूंदनेवाले इंद्र, तुमने अपाला को सूर्यत्वक बनाया।” अपाला किसी चर्म रोग से पीड़ित थी, जिससे मुक्त होना का इसमें संकेत है।

पिशंग हिरण्य या हरित वर्ण को ही (पिंगल) भी कहते हैं। गृत्समद ने (२३।१०) पुत्र की कामना करते हुए कहा है- “त्वष्टा हमें पिशंगरूप सुभर आयुष्मान् क्षिप्रकारी देव-भक्त वीर सन्तान दें। देवों का अन्न हमारे पास और आये।”

(२) शरीर- इन्द्र का शरीर आर्यों के सबसे शक्तिशाली वीर के शरीर जैसा था। उसके वर्णन से हमें सप्तसिन्धु के किसी पहलवान का संकेत मिलता है। ऋषि इरिन्विठ (८।१७।८) ने इन्द्र के शरीर के बारे में कहा है- “बड़ी ग्रीवा, पुष्ट उदर, सुन्दर बाहुवाले इन्द्र भोजन से प्रसन्न हो शत्रुओं को मारते हैं।” प्रगाथ कण्व-पुत्र ने भी (८।५३।७) – “वृषभ, युवा, तुविग्रीव (बड़ी ग्रीवा) न झुकने वाला इन्द्र है। कौन उसकी सपर्या (पूजा) करता है?”

ऋग्वेदके इन उद्धरणों से आर्यों के शरीर और वर्ण (रंग) का पता लगता है। उनके प्रतिद्वंद्वियों के शरीर-लक्षण का पता भी ऋग्वेद की कितनी ही ऋचाओं से मिलता है।

२. अनार्य-वर्ण

विश्वामित्र ने आर्यों के स्वामीजी के बारे में कहा है” (3|3|21) “शत्रुनाशक गोपति गायें हमें दे। दीप्तिमान् तेज से कालों (कृष्णों) को नष्ट करे । सत्य से अंगिरा सन्तान को गायें दे। उसने सारे दरवाजों को बन्द कर दिया।”

आंगिरस शुनहोत्र-पुत्र गृत्समद ने (२।२०|७) आर्यों के शत्रुओं के बारे में कहा है- “शत्रुनाशक दुर्गध्वंसक इन्द्र ने कृष्णयोनि (काले दास) सेनाओं को नष्ट किया। मनुष्य के लिये पृथिवी और जल का जन्म दिया। वह यजमान की इच्छा पूरी करै।”

§२. वर्ग

१. दास-दासियाँ

पराजित शत्रु स्त्री-पुरुषों में बहुतों को विजेता दास-दासी बना कर काम लेते थे, यह दास-प्रथा के समय सर्वत्र देखा जाता था। हमारे देश में दास- प्रथा का अन्त १९ वीं शताब्दी के दूसरे पाद में हुआ। ऋग्वेदिक काल में, जब कि विजेता और विजित के रंग-रूप और स्वार्थों में भारी भेद था, दास- प्रथा और भी क्रूर रही होगी, यह निश्चित है। बालखिल्य सूक्तों (१४। (८।८।३) में पृषघ्र ऋषि ने इन्द्र से प्रार्थना की है- “मुझे सौ गदहे, सौ भेड़ और सौ दास दो।” आर्य अपने शत्रुओंको भी दास और दस्यु कहा करते थे। उनको ही लेकर क्रय-विक्रय होने वाले पुरुषों का नाम पीछे दास पड़ गया। यहां ऋषि ने सौ दासों की जो कामना की है, वह जाति से भी और कार्य से भी दास होते, यह निश्चित है।

ऋषि गृत्समद ने इन्द्र की प्रार्थना करते (२।२।४) कहा है- “हे इन्द्र, हम तुम्हारे शुभ्र बल को बढ़ाते हैं। हाथों में शुभ्र वज्र को धारण करते शुभ्र हो बढ़ते तुम सूर्य से अपने तेज द्वारा दास लोगों (दासः विशा) को पराजित करो।” इसी ऋषि ने फिर” (२। १२।४) कहा है- “जिसने इस विश्व (सारे) को बनाया, जिसने दास- वर्ण को निकृष्ट (नीच) और गुहावासी बनाया, जो व्याधि की तरह आर्य पुष्ट धन को देता है, लोगों, वही वह इन्द्र है।” वामदेव गौतम ने भी उन्हीं के बारे में कहा है (४।२८।४) “हे सोम, तुम्हारी मित्रता से युक्त हो इन्द्र ने तुम्हारी सहायता से मनुष्य के लिये सुख (जल) प्रवाहित किया, शत्रु (अहि) को मारा, सप्तसिंधु को प्रेरणा दी। ढंके हुए छिद्रों को खोला।” कण्व गोत्री या कण्व-पुत्र ऋषि सोभरि को पुरुकुत्स-पुत्र राजा त्रसदस्यु ने पचास बधुएं दी थीं। बधू का मूल अर्थ बाँधी है, तथापि वह बहु के अर्थ में भी ऋग्वेद में सम्मिलित हुआ है, इस स्थल (8|19|36, 37) पर दासी के के लिए ही प्रयोग किया जाता है- “पुरुकुत्स-पुत्र अतिमहान स्वामी (अर्थ) सच्चे स्वामी त्रसदस्यु ने मुझे पचास बधुएं दीं।” सुवास्तु (स्वात) नदी के तट पर तीन – सत्तर (210) काली गायें के लाने वाले पति ने धन दिया।”

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(आजीविका)

आर्यों का मुख्य धन गाय-घोड़े और भेड़-बकरियां थीं। वह कुछ खेती भी करते थे, क्योंकि जौ का सत्तू और रोटी उनके आहार में शामिल थे। अधिक धनी और प्रभुताशाली आर्य अपने पशुपालन और कृषि में दासों और दासियों से सहायता लेते थे। आखिर पचास-पचास दासियों और दासों को लेने का प्रयोजन क्या हो सकता था? पर, साधारण स्थिति के आर्य अपने ही कृषि और पशुपालन कर लिया करते थे। आर्यों को पहनने के लिये कपड़ों की भी अवश्यकता ‘थी, जो ऊन या चमड़े के होते थे।

सप्तसिन्धु की गर्मी उस समय भी कम असह्य नहीं रही होगी, पर वह ऊन की पोशाक पसन्द करते थे। इसे आदत कहना चाहिये, नहीं तो सिन्धु-उपत्यका के निवासी उनसे पहले ही सूती कपड़ों को पहनते थे। आज भी गड़ेरिये लोग कड़ी धूपमें कम्बलको ओढ़े अपनी भेड़ों को चराते हैं। कहते हैंः कम्बल तरावट देता है। यही बात सप्तसिन्धु के आर्य भी कहते होंगे। उनके घरों में कपड़े बुनें जाते थे। कपड़े बुनने और दूसरे कामों के बारे में आंगिरस- गोत्री ऋषि शिशु (९।११३।१-४) ने कहा है- “हमारे और दूसरों के भी अनेक प्रकार के कार्य हैं। तरखान (बढ़ई) अपना काम चाहता है, वैद्य रोग की चिकित्सा करता है, ब्राह्मण सोम छानने वाले यजमान को चाहता है। इन्द्र के लिये सोम परिस्रुत हो (छाना) जाये।

“पुरानी औषधियों, पक्षियों के पंखों द्वारा अश्म (धातु) के हथियारों से तोड़ने वाले कमार सोने वाले आदमी को चाहते हैं ।।२।।

“मैं कवि हूँ। मेरा पुत्र वैद्य है। मेरी कन्या पत्थर की चक्की चलाने- वाली है। धन की कामना करने वाले नाना कर्मों वाले हम गौओं की तरह एक गोष्ठमें रहते हैं ।।३।।

“बाहक घोड़े अच्छे रथ को, पासवाले मंत्री (उप-मंत्री) हंसने को, पुरुषेन्द्रिय रोम-युक्त भग्न स्थानको, मेढक जल-युक्त सर को चाहता है।।4।।

यहां वैद्य, ब्रह्मा (पुरोहित) कमार, कारु (कवि), पिसनहारी और उपमंत्री के कामों का उल्लेख है।

२. चार वर्ण की उतपत्ति का सिद्धांत

डा० बटेकृष्ण घोष ऋग्वेद की भाषा के बारेमें कहते हैं*- “सब मिलाकर पहले नौ मण्डलों की भाषा एक समान है, यद्यपि पहले की बोली के भेदों का असर, विशेषकर और के बारे में मिलता है।” दसवें मण्डल को सभी विद्वान् भाषा और दूसरे विचारों से भी पीछे का मानते हैं। पहले नौ मण्डलों में चारों वर्णों का नाम नहीं मिलता है, पर दसवें मण्डल में इसका स्पष्ट उल्लेख आया है। (१०।९०।१२)“इस (पुरुष) का ब्राह्मण मुख है राजन्य (क्षत्रिय) दोनों बाहु। जो वैश्य है, वह उसकी जांघ है, और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ।” ब्राह्मण या पुरोहित ऋग्वेदिक आर्यों के आरम्भिक काल में भी रहे, लेकिन वह लड़ाई में दूसरों की तरह ही भाग लेते थे। भरद्वाज, वसिष्ठ, विश्वामित्र के पुत्रों और कुलवालों ने दिवोदास और सुदास के अनेक युद्धों में शस्त्र चलाये।

ब्राह्मणों और राजन्य में वैसा भेद उस समय नहीं था, जो उपनिषद्-काल और पीछे देखा जाता है, अथवा जो इस पुरुष सूक्त में मिलता है। विश् प्रजा या लोक का पर्याय था। इसमें सारी आर्य जाति शामिल थी। राजा को विशांपति (विशों का स्वामी) कहते थे। विश् से उत्पन्न वैश्य शब्द को नये अर्थों में बहुत पीछे इस्तेमाल किया जाने लगा, जिसे ही हम यहां पाते हैं। शूद्र से दास वर्ण का मतलब है, जो कि पहले आर्यों के प्रतिद्वन्द्वी और पीछे उनके शासित या दास बन गये।

चारों वर्णों की कल्पना पीछे हुई, यह साफ मालूम होता है। पहले की आर्य प्रजा में, चाहे ब्रहा (ब्राह्मण) हो या राजन्य (क्षत्रिय), उनके रोटी-बेटीका कोई भेद नहीं था। पर, जब चारों वर्णों की कल्पना हो गई, तो उसके साथ ऊंच-नीच का भाव भी आने लगा। उसके साथ ही धन और भोग में उनके भाग को कम-बेशी माना जाने लगा। इस विषमता से वैमनस्य बढ़ना आवश्यक था। वैमनस्य को हटाने की इच्छा न आर्य ऋषियों को हो सकती थी, और न वह हटाया जा सकता था। तो भी आर्यों के भीतर समानता और भेदभाव को हटाने का प्रयत्न वह जरूर करते रहे। ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त (१०।१९१) में संवनन ऋषि इसी की ओर ध्यान दिलाते हैं:

“तुम साथ चलो, साथ बोलो। तुम्हारे मन साथ सोचें। जैसे कि पूर्वकाल के देब एकमत हो उपासना (भोग) करते थे ।।२।।

“इन (आर्यजनों) का मन्त्र एक सा हो। समिति एक सी हो, चित्त- सहित मन एक सा हो। एक से मन्त्र को तुम्हारे लिये मैं आमन्त्रण करता हूं। एक समान हवि से तुम्हारे लिए हवन करता हूं ।।३।।

“तुम्हारा अध्यवसाय समान हो, तुम्हारे हृदय समान हों । तुम्हारा मन समान हो, जिसमें कि तुम्हारा सुन्दर संगठन हो ।।४।।”

यह अनेक बार बतला चुके हैं, कि ऋग्वेदिक ऋषियों का काम आर्यों का सामाजिक या राजनैतिक इतिहास लिखना नहीं था। उनका उद्देश्य था देवताओं को प्रसन्न करने के लिये स्तुतियां और विधि-विधान बनाना । दूसरी बातें वहां आनुषंगिक रूप से ही आई हैं। पर, जिस सामाजिक और आर्थिक स्थितिमें आर्य थे, उससे उनके जीवन के अनेक अंगों पर प्रकाश पड़ता है। आर्यों और आर्य-भिन्नों- द्रविड़ों और किरातों में भारी आर्थिक-सामाजिक भेद था। विजेता और स्वामी होने के कारण सबसे अधिक सम्पत्ति और भोग को आर्य अपने लिये चाहते थे, और बचे-खुचे को ही दूसरे पा सकते थे।

पणि व्यापारी थे- पणि शब्द से ही बणिक या बनिया शब्द की उत्पत्ति हुई है। ये सम्पत्तिशाली थे। व्यापार भी उनके हाथ में था, और उनके पास गायें भी बहुत होती थीं। पणियों की गायों को लूटना आर्य अपना धर्म समझते थे। इस के लिये बहाने की भी जरूरत नहीं थी। यह सरमा और पणियों के संवाद में हम देखेंगे। यदि सर्वस्व-हरण कर लिया जाता, तो व्यापार हो ही नहीं सकता था। इसीलिये आर्य पणियों की पूँजी और उनके व्यवसाय के साधनों का हरण करना नहीं चाहते थे। उन्हें सोने की जरूरत थी। मणि और रत्न की भी कदर उनमें बढ़ी थी। ये चीजें पणियों द्वारा ही मिल सकती थीं। इसलिये पणियों की रक्षा करना भी वह अपना कर्तव्य समझते थे। पणि भी उदारतापूर्वक आर्य ऋषियों को दान देते थे, यह भी हम देखेंगें।

३. पराजित

पणि जिस जाति- द्रविड़ के थे, उसके सभी लोग ऐसे सौभाग्य-शाली नहीं थे। उनमें कितने ही आर्यों की कृपा पर कृषक या शिल्पी- रहकर जीवन-निर्वाह करते थे, कितने हीं आर्यों के दास-दासी बने थे। पर्वत गुहावासी शम्बर की लोग- किरात नर-नारी सभी लड़ने मरने को तैयार थे। उन्हें आर्यों की पकड़ से बाहर जाने का सुभीता भी था। कांगड़े की उपत्यका और पास के पहाड़ों पर आर्यों के साथ जो खूनी संघर्ष’ चला था, और दिवोदास चालीस साल की लड़ाई के बाद ही शम्बर का संहार कर सका; इसी के कारण किरात पराजित हुये। उस वक्त जो भी युद्धबन्दी हाथ आये होंगे, वह दास- दासी बन गये होंगे, इसमें भी सन्देह नहीं। पर, द्रविड़ों की तरह किरात एक जगह रहने के लिये मजबूर नहीं थे। उनके उत्तर और भी दुर्गम पर्वत, वहां की चरागाहें और हरी-भरी उपत्यकायें मौजूद थीं। शंवर-वंशी उधर हट सकते थे, और वैसा ही हुआ भी। किर (किरात) लोग कांगड़े के निचले पहाड़ों में किरग्राम (बैजनाथ) जैसे नाम छोड़ गये हैं। आज उनका पता कांगड़ा से शताधिक मील दूर लाहुल, मलाणा (कुल्लू) और कनौर में मिलता है। इसलिये आर्यों के पास जो दास-दासी थे, वह अधिकतर द्रविड़ जाति के ही रहे होंगे, किरात बहुत कम, इसमें सन्देह नहीं।

४. उत्पीडन और वर्ण-विभेद

आर्थिक तौर से पराजितों का भीषण शोषण तो होता ही था, सामाजिक तौर से भी उन्हें बहुत हीन समझा जाता था। गृत्समद ने मान लिया था, कि देवताओं ने ही नहीं उन्हें अधर (नीच) वर्ण का बना दिया है। आर्यों को रक्त-सम्मिश्रण का डर कितना था, इसका अन्दाज हमें अमेरिका के नीग्रों और श्वेतांगों से लग सकता है। अमेरिका सारी दुनिया में स्वतंत्रता और समानता की ढोल पीटता है, पर वहां चिराग के नीचे अन्धेरा है। विश्व- विद्यालयों में काले छात्र गोरों के साथ पढ़ नहीं सकते। किसी गोरी तरुणी का सम्बन्ध यदि नीग्रो से हुआ समझा जाता, तो गोरे स्वयं कानून को हाथ में लेकर उसे जला देते हैं। ऐसे खूनी काण्ड वहां हर साल हुआ करते हैं। यद्पि अब स्थिति बदल चुकी है।

दक्षिणी अफ्रीका के गोरे तो इस बात में और भी निर्लज्ज तथा क्रूर हैं। अपने से चौगुनी-पंचगुनी संख्या वाले अफ्रीकियों को वह मनुष्यरूपी पशु मानते हैं। उनको अपने घरों और बस्तियों के पास नहीं रहने देना चाहते। रेलों और सवारियों में कालों को अलग रखते हैं, जीविका के साधनों को कमसे कम देकर उन्हें अछूत बनाये हुए हैं । वर्ण-भेद के यह दो रूप हमारे सामने युक्त – राष्ट्र अमेरिका और दक्षिणी अफ्रीका में मौजूद हैं।

आर्यों ने वर्ण-भेदकी खाई को सुदृढ़ रखने की कोशिश की। यद्यपि वर्ण- रंग का इस तरह का भेदभाव हमारी जातियों में आज बिल्कुल नहीं मिलता। ब्राह्मण भी कोयले से काले मिलते हैं, और शूद्र या अछूत अच्छे खासे गोरे । एक सा साफ-सुथरा कपड़ा पहनाकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रके लड़कों को खड़ा कर दिया जाये, तो कोई उन्हें नहीं बतला सकता। इतना होने पर भी पुराने शास्त्रों की दुहाई देकर पुराने नीच-ऊँचके भेदको कायम रखनेकी कोशिश की जा रही है। इसका बुरा परिणाम हमारी तीन-चौथाई जनता को भोगना पड़ रहा है। बड़े वर्ण या जातिका मतलब है सम्पत्तिका स्वामी होना, और छोटे वर्णं या जातिका अर्थ है सम्पत्तिसे वंचित होना । सम्पत्तिसे वंचित होनेका मतलब है, मनुष्यताके दूसरे अधि- कारोंसे भी वंचित होना। सम्पत्तिके न होनेपर शिक्षा और संस्कृतिकी सुविधा नहीं रह जाती।

हरेक देश में विजेता और विजित के सम्बन्ध कटु होते हैं, पर यदि उनमें वर्ण-भेद, जाति-भेद न हो, तो कुछ समय बाद दोनों में एकता स्थापित हो जाती है, सम्बन्ध अच्छे हो जाते हैं। हमारे देश में ऐतिहासिक काल में यवन (ग्रीक), शक, श्वेत-हूण आये। उनके प्रति आरम्भमें कुछ भेदभाव जरूर रक्खा गया, लेकिन रंग का सवाल नहीं उठ सकता था, क्योंकि नवागन्तुक वर्ण-सम्पत्ति में आदिम आर्यों जैसे थे, जिनके रूप-रंग, नख-शिख को हमारे यहाँ बराबर सौन्दर्य की कसौटी माना जाता रहा। इसीलिए यवन-शक उच्च वर्णके लोगों में मिल गये और उन्हें अछूत या सम्पत्तिहीन नहीं बनाना पड़ा।

तीव्र वर्ण-भेद के ख्याल से आर्य अपने दास-दासियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने के विरोधी थे। पर, दास-दासियों के श्रम का वह कैसे त्याज्य कर सकते थे ? दक्षिणी अफ्रीका के गोरे भी कालों के श्रम से लाभ उठानेसे बाज नहीं आते। सिन्धु-उपत्यकावासी भौतिक संस्कृति में आयंसि बहुत आगे बढ़े हुए थे।

मोहनजोदरो जैसे ताम्र-युग के भव्य नगर के निर्माण करने वाले उनके शिल्पी, अपने कला-कौशल तथा शिल्प से आर्यों के लिये लाभदायक थे। इस लाभ से वह अपने को वंचित नहीं करना चाहते थे। कपड़ा बुनना, चिकित्सा करना, हथियार बनाना आदि कुछ शिल्प आर्यों को भारत में आनेसे पहले ही मालूम थे। उन्होंने सिन्धु-उपत्यकावासियों के अधिक विकसित शिल्प भी कुछ सीखे। उससे भी अधिक उन्हीं द्वारा काम करवा कर लाभ उठाया। पर, खान-पान की जो छूत-छात पीछे पैदा हुई, उसका अस्तित्व उस काल में था, यह कहना मुश्किल है। जहाँ तक उत्तर भारत का सम्बन्ध है “शूद्राः संस्कर्तारः” (शूद्र पाचक हैं) बराबर माना जाता रहा। रोटी- पानी में शूद्रों से नहीं, बल्कि अतिशूद्रों से भेद बरता जाता रहा, जिसका कारण वर्ण नहीं, बल्कि अधिक गन्दे समझे जानेवाले काम थे।

यह बिल्कुल सम्भव है, कि ऋग्वेदिक आर्यों के धनी परिवारों में दसियाँ भोजन बनाती थीं । उनके हाथ के खाने-पीने में किसी को एतराज नहीं था। छूत-छात का रिवाज आर्यों में क्रमशः बढ़ा। सूत्र-ग्रन्थों में शौच के लिए जल लेने का विधान नहीं है। गुरु-कुल से सुशिक्षित होकर निकले स्नातक को वहाँ सूखे काठ इस्तेमाल करने- की बात कहने का मतलब यही है, कि अभी जल की प्रथा नहीं चली थी ।

कच्चे- पक्के खाने और उसके छू जाने का भाव उस युग में नहीं हो सकता था। ऊन के वस्त्र को पवित्र मानने की भावना भी ऋग्वेदिक आर्यों की ही देन है। आर्यों का कपास के वस्त्र न व्यवहार कर ऊनी वस्त्र को अपनाना दोनों वस्त्रों के प्रति दो प्रकार के भावों के पैदा करने का कारण हुआ । कालान्तर में ऊन को शुद्ध मान लिया गया, और कपास को अशुद्ध ।

सूती कपड़े को बदल कर खाना खाने या रसोई में जाना चाहिए। पर ऊनी कपड़ा स्वतः पवित्र है। कश्मीर में सर्दी के कारण गीला चौका लगाना सुखद नहीं है, वहां ऊनी लोई चौके का काम देती है और ऊनी कपड़े से ढंके घड़े का पानी या भात मुसलमान के हाथमें पड़कर भी अशुद्ध नहीं होता। किसी समय बैल के चमड़े को भी ऊन के समान शुद्ध माना जाता था। कल्प-सूत्रों में (पारस्कर) वर-वधू को बैल के चमड़े पर बैठा कर मधुपर्क देने का विधान है। गायके चर्म की शुद्धता पीछे जाती रही, पर मृगछाला अब भी शुद्ध-पवित्र माना जाता है। यह आर्यों के चमड़े की पोशाक होने के कारण ही।


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