Bharat Ki Mittiyan-भारत एक विशाल देश हैं और इसकी विविधता भरी भूआकृति{उच्चावच} तथा जलवायु संबंधी विविधताओं के कारण यहाँ की मिटटी में प्रादेशिक भिन्नता पाई जाती है। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के अध्ययन में भारत में 8 प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं। इस लेख के माध्यम से हम भारत में पाई जाने वाली मिट्टियों के वर्गीकरण के विषय में जानेंगे। यह प्रश्न सभी राज्यों के बोर्ड एग्जाम के लिए महत्वपूर्ण है और अधिकांश बार यह प्रश्न पूछा जाता है।
भारत में पाई जाने वाली मिट्टियों के प्रकार
1- जलोढ़ मिटटी: यह एक उपजाऊ मिटटी है और इसका विस्तार 15 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला है जो देश का 40% भाग है। इस मिटटी में रेत, गाद, मृतिका {क्ले} का मिश्रण पाया जाता है। इस मिटटी का वितरण अधिकांशतः तटीय मैदानों एवं डेल्टा प्रदेशों में पाया जाता है। गिरिपाद मैदानों [उच्च पर्वतों की तलहटी पर स्थित पठारों] *कई जलोढ़ पखों के मिलने से बने मैदान को गिरिपद जलोढ़ मैदान कहते हैं, भू=वैज्ञानिकों ने इस मिटटी को बांगर एवं खादर में विभक्त किया है। पुराने जलोढ़ मैदान को बांगर कहते हैं जिसमें जिसमें कंकड़ व कैल्सियम कार्बोनेट की मात्रा पाई जाती है। यह काले व भूरे रंग की होती है।
खादर मिटटी से यह लगभग 30 मी० की ऊंचाई पर पाई जाती है। खादर उस मिटटी को कहा जाता है जो हर वर्ष आने वाली बाढ़ द्वारा लाई गई मिटटी होती है इसे नवीन जलोढ़ भी कहा जाता है। बांगर की अपेक्षा यह अधिक उपजाऊ होती है और इस मिटटी में पोषक तत्व जैसे- पोटाश, फास्फोरिक अम्ल, चुना व कार्बनिक भरपूर मात्रा होती है। परन्तु इसमें नाइट्रोजन व ह्यूमस की कमी होती है।
2 – काली मिटटी: इस मिटटी को कपासी या रेगुर मिटटी भी कहा जाता है। यह मिटटी काले रंग की होती और कपास की खेती के लिए सर्वोत्तम होती है। इस मिटटी का विस्तार 5.46 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला है। इस मिटटी का निर्माण जवालामुखी से निकलने वाले लावा के अपक्षय और अपरदन से हुआ है। इस मिटटी के निर्माण में चट्टानों की प्रकृति और जलवायु की प्रमुख भूमिका रही है। इस मिटटी का रंग इसमें पाए जाने वाले तत्वों- मेग्नेटाइट, लोहा, अल्युमिनियम सिलिकेट, ह्यूमस के कारण काला होता है।
इस मिटटी की प्रमुख विशेषता है कि यह गीली होने पर चिकनी और सूखने पर चटक जाती है। यह मिटटी नमी धारण करने की क्षमता के कारण कपास, मोटे अनाज, तिलहन, सूर्यमुखी, अंडी, सब्जियां, खट्टे फल की खेती के लिए सर्वोत्तम होती है। इस मिटटी में नाइट्रोजन, फास्फोरस और कार्बनिक तत्वों की कमी पाई जाती है।
3- लाल मिटटी: लाल मिटटी भारत के कुल क्षेत्रफल में 5.18 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में विस्तृत है। इस मिटटी का निर्माण प्राचीन क्रिस्टलीय शैलों के अपक्षय और अपरदन के कारण हुआ है। इस मिटटी की विशेषता है कि यह निम्न भू-भागों पर दोमट प्रकार की है और उच्च भूमियों पर यह बिखरे कंकड़ों के समान मिलती है। यह भूमि सामान्यता कम उपजाऊ मानी जाती है और इसे सिंचाई की अधिक आवश्यकता होती है। यह ऊँची भूमि में आलू, बाजरा, मुगफली की खेती के लिए उपयोगी है। वहीँ निचले क्षेत्र में यह रागी, चावल तम्बाकू जैसी फसलों के लिए उपुक्त है। यह मिटटी घुलनशील लवणों से युक्त होती है। मगर यह मिटटी फास्फोरिक अम्ल, कार्बनिक तत्व, जैविक पदार्थ, चूना व नाइट्रोजन की कमी के साथ पाई जाती है।
यह भी पढ़िए- पूंजीवाद | परिभाषा, विशेषताएँ, इतिहास, गुण-दोष और आलोचना
4- लैटेराइट मिटटी: यह मिटटी भारत के 1.26 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तारित है। इस मिटटी की उतपत्ति 200 सेमी० या अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में चूना व सिलिका के निक्षालन से होती है। सामान्यतः यह भूमि झाड़ व चरागाह के रूप में प्रयुक्त होती है परन्तु रासायनिक उर्वरक डालने पर इसमें चावल , रागी , काजू की उपज ली जा सकती है। यह मिटटी लौह ऑक्साइड व अल्युमिनियम ऑक्साइड जैसे तत्वों से भरपूर होती है। लेकिन यह मिटटी नइट्रोजन, फास्फोरिक अम्ल, पोटाश, चूना और कार्बनिक तत्वों की कमी के साथ पाई जाती है।
5- पर्वतीय मिटटी/जंगली मिटटी: इस मिटटी का विस्तार 2.85 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में पाया जाता है। जलवायु और पारिस्थितिकी के अनुसार इन मिट्टियों की प्रकृति में भिन्नता पायी जाती है। यह एक प्रकार की निर्माणाधीन मिटटी है। ह्यूमस की अधिकता के कारण यह अम्लीय गुणों से भरपूर होती है। इस मिटटी में कृषि के लिए उर्वरक डालने की जरुरत नहीं होती। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसमें ह्यूमस की अधिकता पायी जाती है। इस प्रकार की मिटटी में चाय, कॉफी, मसाले तथा उष्णकटिबंधीय फलों की खेती की जा सकती है।
कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, मणिपुर एवं जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय इलाकों में यह मिटटी पायी जाती है। इस प्रकार की मिटटी में पोटाश, फास्फोरस, चुने की कमी पायी जाती है। इस मिटटी में मिश्रित फल, गेहूं, जौ, मक्का की खेती के लिए उपयुक्त है।
6- शुष्क/मरुस्थलीय मिटटी: इस मिटटी का विस्तार शुष्क व अर्धशुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है और यह 1.42 लाख क्षेत्र में विस्तारित है। यह मिटटी बालू की अधिकता के कारण रेतीली होती है। यह मिटटी मोठे अनाज- ज्वार, बाजरा आदि के लिए उपयुक्त होती है। लेकिन सिंचाई की सुविधा होने पर इसमें गेहूं और कपास की खेती भी होती जैसे राजस्थान के गंगानगर जिले में। इस मिटटी में घुलनशील लवणों एवं फास्फोरस की मात्रा की अधिकता एवं कार्बनिक तत्वों और नाइट्रोजन की कमी होती है।
7- लवणीय व क्षारीय मिटटी: यह मिटटी भारत के प्रमुख राज्यों- राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, तमिलनाडु के शुष्क व अर्धशुष्क प्रदेशों में पाया जाता है। इस मिटटी का विस्तार 1.70 लाख वर्ग किमी० क्षेत्र में पाया जाता है। इस मिटटी के क्षारीय होने का कारण-सोडियम व मैग्नेशियम की अधिकता के कारण तथा यहाँ मिटटी लवणीय तथा कैल्शियम व पोटैशियम की अधिकता का होना। यह मिटटी कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है। इस मिटटी को स्थानीय स्तर पर रेह, कल्लर, ऊसर, कार्ल, रकार, चोपेन आदि नामों से जाना जाता है। लेकिन यदि इस मिटटी में चूना व जिप्सम मिलाकर सिंचित कर इसमें चावल , गन्ना, गेंहूं, तम्बाकू जैसी लवणरोधी फसलें उगाई जा सकती हैं।
यह भी पढ़िए- भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका
8- दलदली और गीली मिटटी: इस मिटटी का निर्माण अत्यधिक आद्रता वाली दशाओं में बड़ी मात्रा में कार्बनिक तत्वों के एकत्र होने के कारण हुआ है। इस प्रकार की मिटटी प्रमुखतः तटीय प्रदेशों तथा जल – भराव वाले क्षेत्रों में पायी जाती है। इसमें घुलनशील लवणों की अधिकता होती हैं। लेकिन पोटाश और फास्फोरस की कमी होती है। यह मिटटी कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है। मगर काम पानी भराव वाले क्षेत्रों में धान की खेती होती है।
निष्कर्ष
इस प्रकार भारत की विशालता और भिन्न – भिन्न जलवायु विविधता के कारण मिट्टियाँ भी अलग – अलग प्रकार की पायी जाती हैं। यही कारण है कि भारत में अनेक प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं।