आज़ाद हिन्द फ़ौज की भारत को आज़ाद करने की लड़ाई बेमिसाल थी। देशभक्त सुभाष चंद बोस द्वारा गठित आज़ाद हिन्द फ़ौज के विलक्षण कार्यों का भारतीय जनता पर अत्यंत गहरा प्रभाव पड़ा। जब ब्रिटिश सरकार ने आज़ाद हिन्द फ़ौज के कुछ अफसरों के विरुद्ध ब्रिटिश शासन की वफादारी की शपथ तोड़ने और विश्वासघात करने के आरोप में मुकदमा चलाने की घोषणा की तो राष्ट्रवादी विरोध की लहर सारे देश में व्याप्त हो गयी। सम्पूर्ण भारत में विशाल प्रदर्शन हुए। अफसरों को रिहा करने की निरंतर माँग की गई।
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आजाद हिंद फौज
आजाद हिंद फौज, जिसे भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) के रूप में भी जाना जाता है, 1942 में भारतीय राष्ट्रवादियों द्वारा गठित एक सैन्य बल था, जिसने भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने की मांग की थी। INA का नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस ने किया था, जो INA के गठन से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक प्रमुख नेता थे।
आईएनए ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा और भारत में जापानी सेना के साथ लड़ते हुए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक भूमिका निभाई थी। हालाँकि, युद्ध के बाद, INA सैनिकों को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और देशद्रोह और साजिश के लिए मुकदमा चलाया।
आजाद हिंद फौज मामला एक हाई-प्रोफाइल कानूनी मामला था जिसमें आईएनए सैनिकों पर भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए जापानियों के साथ साजिश रचने का आरोप लगाया गया था। 1945-46 में दिल्ली में लाल किले में परीक्षण हुआ, जिसमें ब्रिटिश सरकार ने उपनिवेश विरोधी विद्रोह को हतोत्साहित करने के लिए INA सैनिकों का एक उदाहरण बनाने की मांग की।
हालांकि, आईएनए सैनिकों की रिहाई की मांग को लेकर विरोध और प्रदर्शनों के साथ, परीक्षण और आईएनए के कारण को भारत और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में व्यापक जन समर्थन मिला। परीक्षण अंततः एक विवादास्पद फैसले में समाप्त हुआ, जिसमें अधिकांश आईएनए सैनिकों को दोषी पाया गया, लेकिन बोस सहित कुछ को बरी कर दिया गया।
आज़ाद हिंद फ़ौज मामला भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण बना हुआ है, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष और द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों की भूमिका को उजागर करता है। यह राजनीतिक लक्ष्यों की खोज में सैन्य बल के उपयोग और युद्ध के कैदियों के उपचार के बारे में भी महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है।
ब्रिटिश सरकार ने आज़ाद हिन्द फ़ौज के किन अफसरों पर मुक़दमा चलाया
ब्रिटिश सरकार ने सरदार गुरबख्श सिंह ढिल्लों, श्री प्रेम सहगल और श्री शाहनवाज़ के ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। ब्रिटिश सरकार के इस कदम से सम्पूर्ण राष्ट्र में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की भावना भड़क उठी।
अफसरों पर मुकदमा कहाँ चलाया गया
जब ब्रिटिश सरकार ने इन तीनों अफसरों पर राष्ट्रद्रोह का मुक़दमा चलाया तो ये तीनों देश के विभिन्न सम्प्रदायों की सांकेतिक एकता के प्रतीक बन गए। कोर्ट मार्शल कार्यवाही ( मुकदमा ) लाल किले में की गई।
मुक़दमे में किन वकीलों ने पैरवी की
कांग्रेस ने इन देशभक्त सपूतों को क़ानूनी सहायता देने का फैसला किया। न केबल कांग्रेस बल्कि सभी राजनैतिक दलों -मुस्लिम लीग, अकाली दल, कम्युनिस्ट पार्टी आदि ने भी मुकदमें की सुनवाई का विरोध किया तथा आजाद हिन्द फ़ौज के अफसरों की रिहाई की जोरदार आवाज उठाई। कांग्रेस ने भुला भाई देसाई, श्री तेज बहादुर सप्रू , असफ अली सरीखे प्रख्यात वकीलों को लेकर ‘आजाद हिन्द बचाव समिति’ का गठन किया।
30 वर्ष पहले वकालत छोड़ चुके जवाहर लाल नेहरू और मुहम्मद अली जिन्ना ने भी वकील का चौगा धारण किया। जिस समय दिल्ली के ऐतिहासिक कक्ष में ये राष्ट्रवादी नेता सैनिक अफसरों के बचाव में खड़े हुए, सारे देश की नजरें उधर की टिकीं थीं। सभी ‘क्या होगा’ के एहसास से बंधे हुए थे।
लेकिन अदालत ने तीनों अफसरों को दोषी मानते हुए ‘मौत की सजा’ सुना दी। सारा देश भावनाओं के ऐसे गहरे आवेग में था, इन तीनों प्रति इतनी सहानुभूति थी कि दस्तखतों के आंदोलन, सभाओं के दौर के आगे सरकार झुकना पड़ा और इन अफसरों को आज़ाद करना पड़ा।
भारतीय सेना के सेनापति सर सी० ऑकिनलेक तक ने 26 नवम्बर 1945 को वाइसराय को लिखा :
“मुझे स्वयं इसमें कोई संदेह नहीं कि ( इंडियन नेशनल आर्मी ) के अधिकांश सदस्यों विशेषकर नेता लोगों को यह यकीन है की सुभाषचंद बोस एक सच्चे देशभक्त हैं और उनके नेतृत्व में काम करना उनके लिए एकदम ठीक है। हमारे पास जितने भी प्रमाण हैं उनके आधार पर इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि सुभाषचंद बोस का उन लोगों पर गहरा प्रभाव है और उनका व्यक्तित्व एक अटल चट्टान की तरह है।”
गवर्नर-जनरल ने अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करते हुए तीनों अफसरों को रिहा कर दिया। अब तक सुभाषचंद बोस के प्रयासों की कटु आलोचक कांग्रेस ने अपनी शान बढ़ा ली। कांग्रेस ने आजाद हिन्द फ़ौज को स्वीकार कर लिया। कांग्रेस ने राष्ट्र की मनोस्थिति को भांपकर आजाद हिन्द फ़ौज का समर्थन कर समग्र आंदोलन का ‘यश’ ले लिया।
इन क्रन्तिकारी बंदियों की रिहाई श्रेय कांग्रेस की सिर बंध गया। इस प्रकार आगामी चुनावों में उनकी जीत का मुख्य कारण आजाद हिन्द फ़ौज के सिपाहियों की रिहाई का आंदोलन था।
राष्ट्रीय आंदोलन में आजाद हिन्द फ़ौज की भूमिका के बारे में एक लेखक ने ‘रोल ऑफ़ ऑनर’ में लिखा है :
“हम उनकी जितनी भी तारीफ कर लें वह कम ही होगी । भारत की जनता को उनका सच्चे सच्चे ह्रदय से आभार मनना चाहिए। यह आजादी उनके द्वारा लड़ी गई लड़ाई के परिणामस्वरूप ही प्राप्त हुई है। यद्यपि उन्हें इतनी दूर के मोर्चे पर लड़ते समय कभी-कभी असफलताओं का मुंह भी देखना पड़ा, पर वे भारत की भूमि पर लड़ रहे लोगों के उत्साह को निरंतर बढ़ाते रहे”।
राष्ट्रीय आंदोलन में आज़ाद हिन्द फ़ौज की भूमिका
इस प्रकार आज़ाद हिन्द फ़ौज का आंदोलन अपनी कुछ कमियों के बाबजूद भारत के स्वाधीनता आंदोलन का एक शानदार अध्याय है।
आज़ाद हिन्द फ़ौज का प्रभाव भारतीय सेना पर भी प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से पड़ा। रजनी पामदत्त ने अपनी पुस्तक ‘आज का भारत’ में लिखते हैं कि “भारतीय जवानो में देशभक्ति का संचार हो रहा था और ब्रिटिश सैनिक द्वितीय महायुद्ध के उपरांत ब्रिटिश साम्राज्य के खोने के कारण पस्त होकर लौट रहे थे। ब्रिटिश हुकूमत को एहसास हो चुका था कि यदि भारत का सशस्त्र दमन करने कोशिश की तो अब भारतीय जवान उनका साथ न देकर बगावत कर देंगे।”
‘दिल्ली चलो’ नारा, ‘राष्ट्रीय गान’ तो लोकप्रिय हुए ही ‘जय हिन्द’ जो आजाद हिन्द फ़ौज में नमस्कार का ढंग था, आज सारे देश का नारा हो गया। जाति, सम्प्रदाय, स्थानीयता से परे राष्ट्रीयता को बढ़ाने में आजाद हिन्द फ़ौज ने अनुपम कार्य किया। प्रवासी भारतीयों को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा। भाषा-विवाद से ऊपर उठकर उर्दू-हिंदी मिश्रित भाषा ‘हिंदुस्तानी’ को प्रोत्साहन दिया।
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