फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक संस्था थी। इस कंपनी की स्थापना 1664 ईस्वी में की गयी थी। इस कंपनी की स्थापना का उद्देश्य ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और डच ईस्ट इंडिया कंपनी से व्यापारिक प्रतिस्पर्धा करना था। –
फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी को कई नामों से जाना जाता है —
१- कॉम्पैनी फ़्रैन्साइज़ डेस इंडेस ओरिएंटल (फ़्रेंच: “ईस्ट इंडीज़ की फ्रांसीसी कंपनी”),
२-1719-20- कॉम्पैनी डेस इंडेस (“इंडीज़ की कंपनी”),
३- 1720-89- Compagnie Française des Indes (“इंडीज की फ्रांसीसी कंपनी”),
उपरोक्त तीनों कंपनियों को मिलाकर ‘फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी’ की स्थापना की गयी। भारत, पूर्वी अफ्रीका और हिंद महासागर के अन्य देशों के साथ फ्रांसीसी व्यापार और वाणिज्य की देखरेख के लिए 17वीं और 18वीं शताब्दी में पूर्वी देशों के साथ व्यापार के लिए स्थापित एक फ्रांसीसी व्यापारिक कंपनी।
Compagnie Française des Indes Orientales इस कम्पनी की स्थापना की योजना फ्रांस के किंग लुई XIV ( लुई चौदहवें ) के वित्त मंत्री जीन-बैप्टिस्ट कोलबर्ट द्वारा तैयार की गई। इसकी स्थापना का उद्देश्य पूर्वी गोलार्द्ध में व्यापार करना था।
प्रारम्भ में इस कम्पनी को फ्रांसीसी व्यापारियों की वित्तीय सहायता प्राप्त करने में बहुत कठिनाई हुई, और यह भी माना जाता है कि कोलबर्ट ने उनमें से कई को शामिल होने के लिए राजनीतिक और सैनिक दबाव डाला था। उन्होंने (जीन-बैप्टिस्ट कोलबर्ट ने ) व्यापारियों को कंपनी की ओर आकर्षित करने के लिए तथा उससे होने वाले लाभों को दर्शाने के लिए एक चमकदार विज्ञापन लिखने के लिए फ्रांसीसी अकादमी के फ्रांकोइस चार्पेंटियर को तैयार किया, इस विज्ञापन में कुछ सवाल उठाते हुए यह पूछा गया कि क्या फ्रांस के लोगों को विदेशी व्यापारियों से सोना, काली मिर्च, दालचीनी और कपास क्यों खरीदना चाहिए?
लुई XIV ने भी कम्पनी को मजबूती प्रदान करने के लिए 119 कस्बों के व्यापारियों को पत्र लिखा, व्यापारियों को कंपनी की सदस्यता लेने और चर्चा करने के लिए आदेश दिया, इसके बाबजूद कई व्यापारियों ने इसकी सदस्यता लेने से इनकार कर दिया। फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी की हालत यह थी कि 1668 तक राजा ( लुई XIV ) स्वयं कम्पनी में सबसे बड़ा निवेशक था, और कंपनी को उसके नियंत्रण में रहना था। इस प्रकार यह एक राजा के नियंत्रण वाली सरकारी व्यापारिक कम्पनी थी।
फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रथम डायरेक्टर जनरल
डी. फाये ( De Faye ) इस कम्पनी का प्रथम डायरेक्टर जनरल था।
भारत में फ्रेंच ईस्ट इंडिया का आगमन कब हुआ
मुग़ल साम्राज्य में सूरत एक प्रमुख बंदरगाह था, जहां से विश्वभर का व्यापार होता था। अंग्रेजों ने यहाँ अपनी प्रथम फैक्ट्री 1613 ईस्वी में स्थापित की थी। अंग्रेजों के बाद डचों ने 1618 में यहाँ अपनी फैक्ट्री स्थापित की। इसके अतिरक्त यूरोपियन व्यापारियों, ईसाई मिशनरियों, यात्रियों द्वारा फ्रांसीसियों को मुग़ल साम्राज्य के विषय में साथ ही प्रमुख व्यापारिक बंदरगाह ( सूरत ) के विषय में जानकारी प्राप्त होती रही।
इसके अतिरिक्त फ्रांसीसी यात्रियों थेबोनित, बर्नियर और टेवर्नियर ने फ्रांसीसियों को भारत के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई।
फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी अब भारत के साथ व्यापार करने का निश्चय किया और इस हेतु अपने दो प्रतिनिधि भारत भेजे। फ्रांसीसी प्रतिनिधि मार्च 1666 ईस्वी में सूरत पहुंचे ( क्योंकि फ्रांसीसी भी सूरत में फैक्ट्री स्थापित करना चाहते थे ) . सूरत के राज्यपाल ( गवर्नर ) ने उनका स्वागत किया, परन्तु भारत में पहले से ही अपनी जड़ें जमाये बैठे अंग्रेजों और डचों को अपने नए प्रतिद्वंदी ( फ्रांसीसी ) का आना पसंद नहीं आया।
फ्रांसीसी प्रतिनिधियों ने आगरा पहुंचकर फ्रांस के सम्राट लुई चौदहवें के व्यक्तिगत पत्र को मुग़ल सम्राट औरंगजेब को सौंपा। औरंगजेब ने फ्रांसीसियों को सूरत में फैक्ट्री स्थापित करने की आज्ञा दे दी। फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी ने केरोन को सूरत भेजा और 1668 ईस्वी में भारत में सूरत जो एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था में अपनी प्रथम फ्रेंच फैक्ट्री स्थापित की।
फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी और डच ईस्ट इंडीज कम्पनी के बीच व्यापारिक पर्तिस्पर्धा
पूर्वी व्यापार में पहले से ही स्थापित ‘डच ईस्ट इंडीज’ (Dutch East Indies’) कंपनी के साथ निरंतर प्रतिस्पर्धा के कारण , फ्रांसीसी कंपनी ने महंगे अभियान चलाए जिन्हें अक्सर डचों द्वारा परेशान किया जाता था और यहां तक कि जब्त कर लिया जाता था। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी 1670 से 1675 तक कुछ समय के लिए फली-फूली; और अच्छा धन कमाया, लेकिन 1680 तक बहुत कम पैसा कमाया गया था, और कम्पनी की बिगड़ी आर्थिक स्थिति से कई जहाजों को मरम्मत भी नहीं हो पायी थी ।
1719 में कॉम्पैनी फ़्रैन्काइज़ डेस इंडेस ओरिएंटल को अल्पकालिक कॉम्पैनी डेस इंडेस द्वारा अवशोषित (absorbed) किया गया था। यह कंपनी वित्तीय प्रशासक जॉन लॉ की विनाशकारी वित्तीय योजनाओं में उलझ गई, और इसलिए 1720 की आगामी फ्रांसीसी आर्थिक दुर्घटना में इसे गंभीर रूप से नुकसान उठाना पड़ा। इस सबसे उभरने के लिए, कंपनी को कॉम्पैनी फ़्रैन्साइज़ डेस इंडेस नाम के तहत पुनर्गठित किया गया था।
पुनर्जीवित कंपनी ने 1721 में मॉरीशस (आइल डी फ्रांस) और 1724 में मालाबार (भारत) में माहे की कॉलोनियों को प्राप्त किया। 1740 तक भारत के साथ इसके व्यापार का मूल्य ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का आधा था।
भारत में यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों में झगड़े
प्रारम्भ में डच और पुर्तगाली एकदूसरे के साथ भिड़े। पुर्तगालियों ने डचों से निपटने के लिए अंग्रेजों से मित्रता कर ली। अंग्रेजों को पुर्तगालियों ने मित्रता करके मालाबा-तट पर मसालों के व्यापार में सुविधा होने लगी।साझा हितों को मजबूत करने के लिए अंग्रेजों और पुर्तगालियों में 1635 में संधि हो गयी। 1661 ईस्वी में पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन ब्रेंगाजा का विवाह इंग्लैंड के सम्राट चार्ल्स-द्वितीय के साथ हुआ जिसमें अंग्रेजों को बम्बई का द्वीप दहेज़ में मिला।चार्ल्स द्वितीय ने 10 पौंड वार्षिक के किराये पर बम्बई द्वीप ईस्ट इंडिया कम्पनी को दे दिया।
अब अंग्रेजों के सामने डच थे। 1652, 1665-66 और 1672-74 में दोनों के मध्य घमासान युद्ध हुए। प्रारम्भ में डचों ने अंग्रेजों को हराया लेकिन 1688 में इंग्लैंड की गौरवमयी क्रांति के बाद विलियम इंग्लैंड का शासक बना और दोनों देशों के संबंध मधुर हो गए।
अब भारत में अंग्रेज और फ्रांसीसी ही बचे और इन दोनों के बीच भी झगड़े शुरू हो गए।
भारत में व्यापार कर रही यूरोपीय कंपनियों में घोर व्यापारिक प्रतिस्पर्धा थी। सभी कंपनियां -पुर्तगाली, अंग्रेज, फ्रेंच और डच सभी अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहते थे। फलस्वरूप इन कंपनियों के बीच झगडे शुरू हो गए।
- भारत में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें — कर्नाटक में एंग्लो-फ्रेंच प्रतिस्पर्धा
फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सबसे सक्षम नेता, जोसेफ-फ्रांस्वा डुप्लेक्स ( डूप्ले )को 1742 में भारत में फ्रांसीसी कम्पनी का गवर्नर-जनरल नियुक्त किया। 1746 में उन्होंने मद्रास पर कब्जा कर लिया लेकिन सेंट डेविड के पड़ोसी ब्रिटिश किले को लेने में विफल रहे। डुप्लेक्स ने खुद को स्थानीय भारतीय शक्तियों के साथ संबद्ध कर लिया, लेकिन अंग्रेजों ने प्रतिद्वंद्वी भारतीय समूहों का समर्थन किया, और 1751 में दोनों कंपनियों के बीच एक निजी युद्ध छिड़ गया। 1754 में पेरिस वापस बुलाए जाने के बाद, डुप्लेक्स ने कंपनी पर उस पैसे के लिए मुकदमा दायर किया जो उसने खर्च किया था।
फ्रांस और इंग्लैंड के बीच सात साल के युद्ध (1756-63) के दौरान, फ्रांसीसी हार गए थे, और 1761 में फ्रांसीसी भारत की राजधानी पांडिचेरी पर कब्जा कर लिया गया था। क्योंकि फ्रांसीसी अर्थव्यवस्था ने वेस्ट इंडीज में व्यापार से अधिक लाभ देखा। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी को सरकारी समर्थन की कमी थी। भारत के साथ फ्रांसीसी व्यापार पर इसका एकाधिकार 1769 में समाप्त हो गया था, और उसके बाद कंपनी 1789 में फ्रांसीसी क्रांति के दौरान गायब होने तक समाप्त हो गई।
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