महाराजा रणजीत सिंह को पंजाब का शेर कहा जाता है। उन्होंने अपने पिता की छोटी सी केरचकिया मिस्ल को एक विशाल साम्राज्य में बदल दिया। उन्होंने अंग्रेजों से से लेकर अफगानों तक से युद्ध लड़े। आज इस लेख में हम महाराजा रणजीत सिंह के प्रारम्भिक जीवन, साम्राज्य विस्तार से लेकर उनकी पत्नियों और उत्तराधिकारियों के बारे में जानेगे। साथ ही सेना और प्रशासन पर भी दृष्टिपात करेंगे। लेख को अंत तक पढ़ें।
महाराजा रणजीत सिंह का प्रारंभिक जीवन
महाराजा रणजीत सिंह, जिन्हें पंजाब के शेर के रूप में भी जाना जाता है, का जन्म 13 नवंबर, 1780 को गुजरांवाला में हुआ था, जो अब आधुनिक पाकिस्तान का हिस्सा है। उनका जन्म एक सिख परिवार में हुआ था, और उनके पिता, महा सिंह, उस समय मौजूद 12 सिख मिस्लों (संघों) में से एक, सुकेरचकिया मिस्ल के प्रमुख थे।
रणजीत सिंह का पालन-पोषण पंजाब के इतिहास के एक अशांत काल में हुआ था, जो विभिन्न क्षेत्रीय शक्तियों के बीच आक्रमणों, संघर्षों और सत्ता संघर्षों द्वारा चिह्नित था। उनके पिता, महा सिंह, 1792 में मारे गए थे, जब रणजीत सिंह सिर्फ 11 साल के थे। इस घटना का युवा रणजीत सिंह पर गहरा प्रभाव पड़ा, जो कम उम्र के बावजूद अपने पिता के बाद सुकरचकिया मिस्ल के प्रमुख के रूप में सफल हुए।
रणजीत सिंह को बड़े होने के साथ कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसमें प्रतिद्वंद्वी सिख मिस्लों के खतरे, अफगान और फारसी सेना के आक्रमण और सिख प्रमुखों के बीच आंतरिक शक्ति संघर्ष शामिल थे। हालाँकि, उन्होंने छोटी उम्र से ही उल्लेखनीय नेतृत्व कौशल और सैन्य कौशल दिखाया। वह अपने करिश्माई व्यक्तित्व, सामरिक कौशल और न्याय की गहरी समझ के लिए जाने जाते थे।
रणजीत सिंह ने धीरे-धीरे अपने प्रभाव और क्षेत्र का विस्तार किया, और 21 वर्ष की आयु तक, उन्होंने राजधानी शहर लाहौर सहित पंजाब क्षेत्र के शासक के रूप में खुद को सफलतापूर्वक स्थापित कर लिया था। 1801 में उन्हें पंजाब के महाराजा के रूप में ताज पहनाया गया और 1839 में उनकी मृत्यु तक एक दुर्जेय राज्य का निर्माण किया गया।
अपने शुरुआती संघर्षों के बावजूद, रणजीत सिंह के प्रारंभिक जीवन ने उन्हें एक दूरदर्शी नेता के रूप में आकार दिया, जो पंजाब में एक शक्तिशाली सिख साम्राज्य का निर्माण करने के लिए चला गया, जो अपने प्रशासनिक सुधारों, सैन्य उपलब्धियों और धार्मिक सहिष्णुता के लिए जाना जाता था। उनके शासनकाल को अक्सर पंजाब के इतिहास में एक स्वर्णिम काल के रूप में याद किया जाता है, और उन्हें भारत के महानतम शासकों में से एक माना जाता है।
विषय | विवरण |
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नाम | महाराजा रणजीत सिंह |
उपनाम | शेर-ए पंजाब |
जन्म | 13 नवंबर 1780 |
जन्मस्थान | गुजरांवाला, सुकरचकिया मिस्ल |
पिता का नाम | महाराजा महा सिंह |
माता का नाम | राज कौर |
पत्नियां | महारानी मेहताब कौर, जिंदन कौर, दातार कौर, गुलाब कौर, गुल बहार बेगम, मोरन सरकार, राज देवी, हर देवी, आदि |
संतान | खड़क सिंह, ईशर सिंह, शेर सिंह, तारा सिंह, कश्मीरा सिंह, पेशौरा सिंह, मुल्ताना सिंह, दलीप सिंह |
घराना | संधवालिया, जाट सिक्ख |
जाति | जट सिख (जाट) |
धर्म | सिख |
राज्याभिषेक | 12 अप्रैल 1801, लाहौर किले में |
साम्राज्य | पंजाब |
शासनकाल | 12 अप्रैल 1801 – 27 जून 1839 |
उत्तराधिकारी | महाराजा खड़क सिंह |
मृत्यु | 27 जून 1839 (उम्र 58) |
मृत्यु का स्थान | लाहौर, सिख साम्राज्य |
समाधी | अस्थि अवशेष लाहौर में सुरक्षित |
रणजीत सिंह से पूर्व पंजाब की राजनितिक दशा
मुग़लों की दर्बलता और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों के कारण पंजाब में अराजकता व्याप्त हो गई थी। अह्मदशाह का पंजाब पर अधिकार सिर्फ कर एकत्रित करने तक ही सिमित रह गया था। शीघ्र ही यहाँ किसी का भी राज्य नहीं रहा। ऐसी कमजोर राजनीतिक स्थिति में सिक्ख मिसलों का उदय हुआ। इनकी संख्या बारह थी और इनमें से एक ‘शुकरचकिया’ मिसल थी जिसका प्रभुत्व रावी और चिनाब के बीच स्थापित हो गया। ‘महराजा रणजीत सिंह का जीवन’
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म कब हुआ ?
महराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवम्बर, 1780 को सुकरचकिया मिसल के मुखिया महासिंह के घर हुआ था। जब रणजीत सिंह की आयु सिर्फ बारह वर्ष की थी, उसी समय उनके पिता का देहांत हो गया। 1792 से 1797 तक एक प्रतिशासन परिषद् ( council of regency ) जिसमें इनकी माता, इनकी सास सदाकौर और दीवान लखपत राय थे, ने कार्य चलाया। 1797 में समस्त कार्यभार रणजीत सिंह ने अपने हाथ में ले लिया।
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु कैसे हुई
सन् 1839 में महाराजा रणजीत का निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई, जो आज भी वहां क़ायम है। उनकी मौत के साथ ही अंग्रेजों का पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हो गया। अंग्रेज-सिख युद्ध के बाद 30 मार्च 1849 के दिन पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया और कोहिनूर महारानी विक्टोरिया के हुज़ूर में पेश कर दिया गया।
महाराजा रणजीत सिंह की कितनी पत्नियां थी?
महाराजा रणजीत सिंह की कितनी पत्नियां थी इस संबंध ठोस प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। कुछ इतिहासकारों ने कुल 20 या उससे अधिक पत्नियों की बात कही है। पंजाबी पृष्ठभूमि से जुड़े लेखक खुशवंत सिंह दलीप सिंह जो महाराजा रणजीत सिंह की अंतिम जीवित संतान थे के साक्षात्कार के माध्यम से बताया की दलीप सिंह रणजीत सिंह की 46 पत्नियों में से एक की संतान थे।
महाराजा रणजीत सिंह की कुल पत्नियों की सही अथवा प्रामाणिक संख्या बता पाना मुमकिन नहीं है। क्योंकि महाराजाओं के उस समय एक से अधिक पत्नियां होती ही थीं। महाराजा की कई पत्नियों की संतानों में से उन्होंने केवल खड़क सिंह और दलीप सिंह को ही अपना वारिस स्वीकार किया था।
महाराजा रणजीत सिंह का प्रथम विवाह कन्हैया मिस्ल के शासक की पुत्री सदा कौर के साथ हुआ था। सदा कौर से उनका विवाह कोई हर्ष के माहौल में नहीं हुआ था। रणजीत सिंह ने सदा कौर के पिता की हत्या करके शादी की थी।
महाराजा की दूसरी शादी राज कौर से हुई थी। उनकी अंतिम रानी ज़िंदा कौर थी। रानी ज़िंदा से ही दलीप सिंह का जन्म हुआ था। रणजीत सिंह की मृत्यु की बाद रानी ज़िंदा ने ही साम्राज्य की बागडोर संभाली।
रणजीत सिंह के समय पंजाब की राजनितिक दशा
जिस समय रणजीत सिंह ने गद्दी संभाली उस समय उसका प्रभुत्व रावी और झेलम नदियों के बीच के कुछ जिलों तक सिमित था।
भंगी मिसल – यह उस समय की सबसे शक्तिशाली मिसाल थी। इसका साम्राज्य रावी और व्यास नदी के बीच पहाड़ों से लेकर सतलुज के साथ-साथ रचना तक के प्रदेश में, जिसमें लाहौर और अमृतसर नगर भी सम्मिलित थे तक फैला हुआ था ।
कन्हैया मिसल – अमृतसर क्र उत्तरी भागों में कन्हैया मिसल का राज्य था।
आहलुवालिया मिसल – इसके अंतर्गत जालंधर के दुआब का क्षेत्र आता था।
फुलकियां मिसल –सतलुज के दक्षिण में, पटियाला पटियाला, नाभा, और कैथल में फुलकियां सरदार राज्य करते थे और इनका प्रभुत्व यमुना नदी तक था।
मुल्तान, अटक, पेशावर, बन्नू, डेरा इसमाइल खां तथा कश्मीर में भिन्न-भिन्न मुसलमान सरदार राज्य करते थे, जिन्होंने काबुल की शक्ति अपने हाथ में ले रखी थी। अहमदशाह अब्दाली का पौता जमानशाह स्वयं को पंजाब का स्वामी मानता था और पंजाब पर अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए कई आक्रमण किये।
18 वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में सिक्ख मिसलें विघटित अवस्था में थी। अफगानिस्तान में गृह युद्ध हो रहा था। रणजीत सिंह ने इसका लाभ उठाया और शीघ्र ही तलवार की शक्ति से मध्य पंजाब में एक राज्य स्थापित कर लिया।
पंजाब पर जमानशाह का आक्रमण-1798
1798 में जमान शाह ने पंजाब पर आक्रमण किया। वापस लौटते हुए उसकी कुछ तोपें चिना नदी में फंस गई। रणजीत सिंह ने उन्हें निकलवा कर वापस भिजवा दिया। उस सेवा के बदले जमान शाह ने उसे लाहौर पर अधिकार करने की अनुमति दे दी। रणजीत सिंह ने तुरंत ही लाहौर पर अधिकार कर लिया(1799)। इस विजय से रणजीत सिंह की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई।
1805 में उसने अमृतसर भी भंगी मिसल से छीन लिया। अब पंजाब की राजनीतिक राजधानी लाहौर और धार्मिक राजधानी अमृतसर दोनों ही उसके नियंत्रण में आ गई थी और वह सिक्खों का सबसे महत्वपूर्ण सरदार बन गया और शीघ्र ही उसने झेलम नदी से सतलुज नदी तक का प्रदेश अपने अधीन कर लिया।
जैसे लतीफ ने कहा कि “बहुत से पुराने सिक्ख संघ या तो इसके अधीन हो गए या सतलुज नदी के पूर्व में जाकर बस गए जैसे फुलकियां और निहंग, और उन्होंने अंग्रेजों का संरक्षण स्वीकार कर लिया। परंतु कन्हैया, रामगढ़िया और अहलूवालिया मिसलें उसके झंडे के नीचे लड़ने में गौरव का अनुभव करने लगी।
रणजीत सिंह का विजय अभियान
रणजीत सिंह की तीव्र इच्छा थी कि वह समस्त सिक्खों का राजा बन जाए। इस भावना से उसने सतलुज के पार के प्रदेश (फिरोजपुर और लुधियाना जिला जिन्हें स्थानीय लोग मालवा कहते हैं )को भी जीतना चाहा। इस उद्देश्य से उसने तीन अभियानों की व्यवस्था की 1806 में 20000 सेना के साथ वह पटियाले तक आ गया उसने दोधली नगर जीत लिया और पटियाला के साहिब सिंह को भी पराजित किया।
वापस लौटते हुए उसने लुधियाना, डक्खा, रायकोट, जगराओं, घूंघराना इत्यादि नगरों से कर प्राप्त किया। अगले वर्ष महाराजा ने पुनः सतलुज पार किया। इस बार उसने पटियाला के महाराजा और उसकी पत्नी आसकौर के बीच झगड़े में मध्यस्थता की। लौटते हुए उसने कैथल के और कलसिया के राजाओं से कर प्राप्त किया और नारायण गढ़, वदनी, जीरा और कोटकपूरा को भी विजय किया।
ये सतलुज पार के राजा रणजीत सिंह से दुखी हो गए और उन्होंने अंग्रेजों से संरक्षण मांगा। अतएव जींद के राजा भाग सिंह कैथल के भाई लालसिंह और पटियाला के दीवान सरदार चैन सिंह, दिल्ली में अंग्रेजी रेजिडेंट श्री सीटन को मिले।
उसी वर्ष मैटकॉफ जो लाहौर महाराजा से संधि करने गया था, महाराजा को प्रेरणा दी कि वह सतलुज के पार के अधिकार छोड़ दें। परंतु महाराज ने पुनः 1808 में सतलुज पार किया और फरीदकोट, मालेरकोटला और अंबाला को विजय किया। परंतु अंत में 1809 में अमृतसर की संधि से रणजीत सिंह ने सतलुज पार के प्रदेशों पर अंग्रेजों का अधिकार है यह स्वीकार कर लिया।
रणजीत सिंह के डोगरा और नेपालियों से संबंध
जिस समय रणजीत सिंह पंजाब के मैदानों में अपना प्रभुत्व जमा रहा था कांगड़े का डोगरा सरदार राजा संसार चंद कटोच आसपास के पहाड़ी क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा रहा था। 1804 में संसार चंद ने पहाड़ों से उतर कर बजवाड़ा और होशियारपुर पर आक्रमण किया। परंतु रणजीत सिंह की सेना ने उसे पराजित कर होशियारपुर पर महाराजा रणजीत सिंह का प्रभुत्व जमा लिया।
संसार चंद ने अब पुनः पहाड़ी क्षेत्रों की ओर ध्यान दिया। संसारचंद के इस कृत्य से भयभीत होकर कहलुड़ के राजा ने नेपाल के गोरखों से सहायता मांगी। अमरसिंह थापा के अधीन गोरखों ने कांगड़ा घेर लिया। संसारचंद अकेला इनका विरोध नहीं कर सकता था अतः उसने रणजीत सिंह की सहायता की मांग की। इसके बदले में उसने कांगड़े का दुर्ग रणजीत सिंह को देना स्वीकार कर लिया।
दीवान मोहकम चंद के अधीन एक सिक्ख सेना ने गोरखों को हरा दिया। कांगड़े पर सिक्खों का अधिकार हो गया और संसारचंद रणजीत सिंह की सुरक्षा में आ गया। गोरखों ने अंग्रेजों की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया, परंतु उनके अपने संबंधों अंग्रेजों से बहुत अच्छे नहीं थे और 1814 से 1816 में जम्मू के राजा गुलाब सिंह ने लद्दाख जीत लिया। रणजीत सिंह के राजीकल के अंतिम दिनों में अंग्रेजों और सिक्खों के संबंध बहुत अच्छी नहीं रहे और उसने 1837 में नेपाल के दूत का स्वागत किया और अपनी सेना में गोरखे भर्ती कर लिए।
रणजीत सिंह के अफ़गानों के साथ संबंध
पंजाब अहमद शाह अब्दाली के साम्राज्य का भाग था परंतु 1773 में उसकी मृत्यु के पश्चात मुल्तान, कश्मीर इत्यादि कुछ छोटे-छोटे भागों को छोड़कर शेष पर सिक्ख मिसलों का अधिकार हो गया। उधर अफगानों के आंतरिक के आंतरिक झगड़ों के कारण रणजीत सिंह को अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का अवसर मिल गया।
1800 में अहमद शाह अब्दाली का पौत्र शाहशुजा काबुल की गद्दी पर बैठा। परंतु उसके भाई शाह महमूद ने शक्तिशाली बरकजई सरदारों फतेह खान और दोस्त मोहम्मद की सहायता से उसे 1809 में विस्थापित कर दिया। अब इन सरदारों ने स्वयं कश्मीर और पेशावर पर अधिकार कर लिया।
शाहशुजा ने काबुल का राज्य प्राप्त करने के लिए रणजीत सिंह से सहायता मांगी। महाराजा को उसने कोहिनूर हीरा भी भेंट किया। महाराजा वास्तव में उसके नाम का प्रयोग मुल्तान, कश्मीर तथा सिंध नदी के पूर्वी तट के प्रदेश आदि को विजय करने के लिए करना चाहता था। शाहशुजा को जब कोई निश्चित आश्वासन नहीं मिला तो वह कंपनी के संरक्षण में लुधियाना गया और उनके पास रहने लगा।
1831 में शाहशुजा ने पुनः रणजीत सिंह की सहायता मांगी। रणजीत सिंह ने कहा कि वह सहायता करने को उद्यत है परंतु शर्त यह है कि–
- शाहशुजा अपने युवराज को महाराजा के पास एक सहायक सेना देकर लाहौर में तैनात करें,
- अफगानिस्तान में गौ हत्या बंद कर दे और
- सोमनाथ मंदिर के द्वार उसे वापस कर दे।
शाहशुजा ये शर्त मानने को उद्यत नहीं हुआ। कंपनी ने भी इस अभियान का समर्थन नहीं किया। 1835 में महाराजा ने यह शर्त हटा दी तथा एक संधि शाहशुजा से की, जिसके अनुसार यह स्वीकार कर लिया गया कि महारजा सिंध के पश्चिमी तट के प्रदेश अपने साथ मिला लेगा। रणजीत सिंह ने अवसर पाकर 1834 में ही पेशावर जीत लिया।
दोस्त मुहम्मद जो उस समय तक काबुल की गद्दी पर दृढ़तापूर्वक जम गया था, इस पर बहुत कुंठित हुआ। उसने 40000 कबाइलियों की सेना से पेशावर पर आक्रमण किया परंतु रणजीत सिंह ने पेशावर की सफलतापूर्वक रक्षा की, अपितु जमरूद दुर्ग भी जीत लिया। इस प्रकार खैबर दर्रे तक का समस्त क्षेत्र रणजीत सिंह के अधीन आ गया।
रणजीत सिंह के अंग्रेजों के साथ संबंध
रणजीत सिंह का सतलुज पार राज्य विस्तार करने के प्रयत्नों के कारण अंग्रेजों से सामना हुआ। 1800 में जमानशाह के पुनः भारत पर आक्रमण की चर्चा थी। अंग्रेजों ने मुंशी युसूफ अली को भेजा कि वह महाराजा से प्रार्थना करें कि यदि जमानशाह आक्रमण करे तो वे उनके साथ न मिले।
1805 में जसवंत राव होलकर जो अंग्रेजों से हार कर भागा था, सिक्खों की सहायता प्राप्त करने के लिए पंजाब आया। रणजीत सिंह उस समय पश्चिम की ओर प्रचार कर रहा था। अतएव उसने इसी में भलाई समझी कि अंग्रेजों का वैर मोल ना ले। दूसरे उसे इसमें जसवंत राव होलकर का केवल स्वार्थ ही दिखाई दिया।
अंत में उसने 1 जनवरी 1806 को लॉर्ड लेट से मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। इसके अंतर्गत रणजीत सिंह ने जसवंत राव होल्कर को अमृतसर से वापस जाने पर बाध्य करना था और दूसरी और अंग्रेजों ने विश्वास दिलाया कि वे रणजीत सिंह के राज्य को जीतने की कोई योजना नहीं बनाएंगे।
1807 में यूरोप में नेपोलियन और अलैग्जैंडर के बीच संधि हो गई और भारत पर इन दोनों शक्तियों के आक्रमण का भय हो गया। लॉर्ड मिंटो 1807-13 ने चार्ल्ड मैटकाफ को रणजीत सिंह से मित्रता की संधि करने को कहा। महाराजा मैटकाफ का अक्रमणात्मक और रक्षात्मक संधि प्रस्ताव को मानने को उद्यत हो गया।
शर्त यह थी कि यदि सिक्ख-अफगान युद्ध हो तो अंग्रेज निष्पक्ष रहेंगे और समस्त पंजाब जिसमें सतलुज पार के प्रदेश, जिन्हें मालवा कहते हैं भी सम्मिलित हैं, का रणजीत सिंह को एकमात्र राजा स्वीकार करेंगे। इतनी देर में नेपोलियन का डर समाप्त हो गया क्योंकि स्पेन में विद्रोह हो गया हो गया, और अंग्रेजों का रूख कठोर हो गया।
अंग्रेजी कमांडर डेविड ऑक्टरलोनी ने सेना एकत्र की और लुधियाने की ओर बढ़ा और फिर 1809 में एक घोषणा कर दी, जिसमें यह कह दिया गया कि सतलुज के पार का प्रदेश अंग्रेजी संरक्षण में है और लाहौर की ओर से कोई भी आक्रमण हुआ तो वह सैनिक बल से रोका जाएगा। महाराजा ने मात खाई और अंत में 25 अप्रैल 1809 को अमृतसर की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए जिसमें निम्नलिखित धाराएं थ–
1- ब्रिटिश सरकार और लाहौर राज्य के बीच शाश्वत मित्रता रहेगी। ब्रिटिश सरकार इस राज्य को सर्वमान्य राज्यों में स्वीकार करेगी और ब्रिटिश सरकार सतलुज नदी के उत्तर के प्रदेश और जनता से कोई संबंध नहीं रखेगी।
2- राजा के पास सतलुज नदी के वाम तट पर जो प्रदेश हैं उनमें वह आंतरिक आवश्यकताओं से अधिक सेना नहीं रखेगा और इसके अतिरिक्त किसी समीपवर्ती प्रदेश अथवा राजाओं के अधिकृत प्रदेशों का अतिक्रमण नहीं करेगा।
3- उपरोक्त धाराओं के उल्लंघन करने पर अथवा मित्रता के सिद्धांतों को तोड़ने पर यह संधि प्निष्प्रभावी समझी जाएगी।
यह संधि तात्कालिक और संभावित प्रभावों के कारण बहुत महत्वपूर्ण थी। तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि रणजीत सिंह का सतलुज पार सिक्ख राजाओं के ऊपर प्रभुत्व जमाने का स्वप्न टूट गया, परंतु दूसरी और जैसा कनिंघम ने कहा है कि महाराजा को पश्चिम दिशा में प्रसार करने की खुली छूट हो गई।
उसने 1818 में मुल्तान 1834 में पेशावर जीत लिया। परन्तु इस संधि ने परोक्ष रूप से यह भी दर्शा दिया कि रणजीत सिंह कंपनी की तुलना में कमजोर है। अंग्रेज लाहौर के पास गया और युद्ध का भय बढ़ गया। इसके अतिरिक्त महराजा के सिंध और बहावलपुर रियासतों से संबंधों पर भी कंपनी का नियंत्रण हो गया।
कम्पनी द्वारा रणजीत सिंह की शक्ति को कमजोर करना
1809 और 1839 के बीच महाराजा की शक्तिहीन परिस्थिति स्पष्ट थी। कंपनी ने सिंध में महाराजा की चालों को समाप्त कर दिया। 1831 में विलियम बेंटिक महाराजा रणजीत सिंह से रोपड़ के स्थान पर मिला और दोनों दलों ने मित्रता का वादा किया। महाराजा ने जब सिंध को जितने और बाँटने का प्रस्ताव रखा तो बेंटिक ने इस विषय पर बातचीत करना स्वीकार नहीं किया।
जिस समय रोपड़ में भेंट हो रही थी उसी समय कर्नल पोटिंगर ने हैदराबाद के अमीरों से एक व्यापारिक समझौता किया। महाराजा अंग्रेज की चाल को भांप गया परंतु कुछ नहीं कर सकता था। वह लड़ने को उद्यत नहीं था। रूस के डर के कारण अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया और वहां छावनी बना ली। रणजीत सिंह को इससे चिंता हुई परंतु वह कुछ नहीं कर सका।
अफगानिस्तान में रूस की चालों को पूर्णता शांत करने के लिए कंपनी ने काबुल के सिंहासन से दोस्त मोहम्मद को हटा देने का निश्चय किया और उसके स्थान पर शाहशुजा जो कंपनी के संरक्षण में रह रहा था को काबुल का अमीर बनाने का निश्चय किया। इस योजना में रणजीत सिंह को सम्मिलित होने को कहा।
रणजीत सिंह को काबुल और रूस के स्थान पर अंग्रेजों का अधिक भय था। परंतु जब मैकनॉटन ने कहा कि यह योजना कार्य रूप में परिणत होगी, महाराजा सम्मिलित हो अथवा ना हो, रणजीत सिंह ने सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया परंतु एक शर्त पर कि वह अंग्रेजी सेनाओं को पंजाब की भूमि में से गुजरने नहीं देगा।
ऐसा प्रतीत होता है कि रणजीत सिंह के कंपनी के साथ संबंधों में रणजीत सिंह की हीनत्व की भावना बनी रही। अंग्रेजों का बढ़ता हुआ प्रभुत्व उसके लिए भयावह तो था ही परंतु फिर भी रणजीत सिंह ने भारतीय राजाओं का अंग्रेजों के विरुद्ध कोई संगठन बनाने का प्रयत्न नहीं किया, न ही शक्ति संतुलन का कोई प्रयत्न किया। वह बुरे दिन को टालता रहा है।
इस मामले में रणजीत सिंह घटिया राजनीतिज्ञ सिद्ध हुआ। एन.के. सिन्हा के अनुसार “अपने जीवन के अंतिम दशक में रणजीत सिंह एक दयनीय, असमर्थ और जड़ व्यक्ति नजर आता है वह अपने राज्य की नि:शक्तता को दर्शाने से घबराता था और उसकी नीति थी, झुको, झुको और झुको।”
रणजीत सिंह का प्रशासन
निरंकुश शासन
उस समय भारत में स्वेच्छाचारी प्रशासन प्रणाली का ही प्रचलन था। रणजीत सिंह में न तो आवश्यक बौद्धिक जागृति थी और न ही इस ओर झुकाव था कि कोई नई परंपरा चला सके। महाराजा में ही सारी शासकीय और राजनीतिक शक्ति केंद्रित थी।
परंतु वह हितकारी स्वेच्छाचारी शासक था। वह अपने आप को खालसा अथवा सिक्ख राष्ट्रमंडल का सेवक मानता था। और सदैव खालसा के नाम पर कार्य करता था उसने अपनी सरकार को भी ‘सरकार-ए- खालसा’ जी कहा और गुरु नानक और गुरु गोविंद सिंह के नाम के सिक्के चलाए।
यद्यपि महाराजा शासन का सूत्रधार था फिर भी उसकी सहायता के लिए एक मंत्री परिषद होती थी। उसने राज्य को प्रांतों में बांट रखा था और उनमें से प्रत्येक एक नाजिम के अधीन होता था। प्रांत जिलों में बंटे थे जो कि कारदार के अधीन होते थे और गांव में पंचायतें प्रभावशाली ढंग से कार्य करती थी।
भूमि कर और न्याय व्यवस्था
सरकार की आय का मुख्य स्रोत भूमिकर था जो बड़ी कठोरता से एकत्रित किया जाता था। सरकार उत्पादन का 33% से 40% तक लेती थी जो भूमि की उर्वरता पर निर्भर था। सर लेपेल ग्रिफिन ने ठीक ही कहा है कि महाराज अपने कृषकों से अधिक से अधिक कर प्राप्त करने का प्रयत्न करता था,परंतु वह कृषकों के हितों की रक्षा भी करता था और अभियान पर गई सेना को निर्देश था कि खेती को नष्ट न करें। कृषकों के लिए सेना में भी व्यवसाय के उत्तम अफसर थे
न्याय व्यवस्था
न्याय व्यवस्था कठोर थी परंतु तीव्र थी। आजकल जैसे न्यायालयों की श्रंखला नहीं थी। न्याय प्रायः स्थानीय प्रश्न था ना कि देश का। स्थानीय प्रशासन स्थानीय परम्पराओं के के अनुसार न्याय करते थे। लाहौर में एक ‘अदालत-ए-आला’ ( सबसे उच्च न्यायालय ) था जो सम्भवतः प्रांतीय तथा जिला अदालतों से अपीलें सुनता था। अपराधियों की देने की क्षमता पर आधारित बड़े-बड़े जुर्माने किए जाते थे। बड़े बड़े अपराधी भी जुर्माना देने पर छोड़ दिए जाते थे। न्याय वास्तव में सरकार की आय का एक साधन माना जाता था।
सैनिक प्रशासन
रणजीत सिंह ने सबसे अधिक ध्यान सेना की ओर दिया। उसने अणुओं को जोड़-जोड़ कर इतना बड़ा राज्य बनाया था। यह आवश्यक था कि एक सशक्त सेना ही इसको संगठित रख सकती थी। इसके अतिरिक्त चारों ओर शत्रु ही शत्रु थे। वैसे भी रणजीत सिंह की प्रतिभा सैन्य संगठन में ही चमकी।
यूरोपीय पद्धति पर सेना का गठन
रणजीत सिंह ने भारतीय राजाओं की सेनाओं की दुर्बलताओं को ठीक से समझा। अनियमित सेनाएं घटिया अस्त्र-शस्त्र से लैस और उचित प्रशिक्षण के बिना वे समय की मांग को पूरा नहीं कर सकेंगी। इसलिए महाराज ने कंपनी के नमूने पर अपनी सेना को गठित किया और उसने विदेशी कमांडरों विशेषकर फ्रांसीसी अफसरों की सहायता से अपनी सेना के गठन ड्रिल और अनुशासन का प्रबंध किया। तोपखाने पर अधिक बल दिया गया। लाहौर और अमृतसर में तोपें और गोला बारूद बनाने के कारखाने लगाए गए।
महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति कौन थे?
महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति सरदार हरि सिंह नलवा (1791 – 1837), जिन्होने पठानों के विरुद्ध कई युद्धों का सफल नेतृत्व किया। युद्ध रणनीति और सैन्य रणकौशल में हरि सिंह नलवा भारत के श्रेष्ठ सेनानायकों में से एक थे। उन्होने सिख साम्राज्य की सीमा को सिन्धु नदी के पार ले जाकर खैबर दर्रे के मुहाने तक पहुँचा दिया। हरि सिंह की मृत्यु के समय सिख साम्राज्य की पश्चिमी सीमा जमरुद तक पहुंच चुकी थी। Scource
सेना को मासिक वेतन देना शुरू किया
इसके अतिरिक्त उसने सेना में मासिक वेतन जिसे ‘महदारी’ कहते थे देने की प्रणाली आरंभ की और सेना की साज-सज्जा तथा गतिशीलता पर भी बल दिया।
फ़ौज-ए-खास का गठन
एक विशेष आदर्श सेना जिसे फ़ौज-ए-खास कहते थे का गठन 1822 में जनरल वन्तूरा और आलार्ड द्वारा किया गया। इस सेना का विशेष चिन्ह होता था और ड्रिल इत्यादि के लिए फ्रांसीसी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया जाता था। इस आदर्श सेना में 4 पदाति बटालियन, तीन घुड़सवार रेजीमेंट और एक तोपखाना था। ‘इलाही बख्श’ खाने का कार्यवाहक था।
सेना यूरोपियन की भर्ती
रणजीत सिंह की सेना में भिन्न-भिन्न विदेशी जातियों के 39 अफसर कार्य करते थे जिन्हें फ्रांसीसी जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज, एंग्लो इंडियन, स्कॉटलैंड और स्पेन के निवासी भी सम्मिलित थे। इन विदेशियों को पंजाब में बसने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के प्रोत्साहन दिए गए।
इनमें से जो लोग उत्कृष्ट पद को प्राप्त हुए उनमें थे वन्तूरा ( Ventura ), आलार्ड, कोर्ट, गार्डनर और एविटेबल। वन्तूरा फ़ौज-ए-खास की पदाति तथा आलार्ड घुड़सवार पक्षों के कार्यवाहक थे और कोर्ट और गार्डनर ने तोपखाने का पुनर्गठन किया।
इन यूरोपीय अफसरों में से बहुत से सिविल प्रशासन में ऊंचे-ऊंचे पदों को भी प्राप्त हुए। उदाहरण के रूप में वन्तूरा कुछ समय के लिए डेराजात का गवर्नर था और एविटेबल पेशावर का गवर्नर बना दिया गया।
अनुमान लगाया गया है कि 1835 में रणजीत सिंह की सेना की संख्या 75000 थी जिनमें 35000 नियमित रूप से प्रशिक्षित सैनिक थे। यह सेना पठानों, गोरखों और डोगरों से लड़ने में सिद्धहस्त प्रमाणित हुई और इससे दोनों सिक्ख युद्धों में अंग्रेज भी घबरा गए थे।
कोहिनूर हीरे को भगवान जगन्नाथ को भेंट करना चाहते थे महाराजा रणजीत सिंह
अफगानिस्तान के शासक शाहशुजा को कश्मीर में शेरगढ़ के किले की कैद से मुक्त कराने के लिए उसकी बेगम वफा बेगम ने लाहौर आकर महाराजा रणजीत सिंह से प्रार्थना की और कहा कि आप मेरे पति को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दें, इसके बदले बेशकीमती कोहिनूर हीरा वह महाराजा रणजीत सिंह को भेंट कर दूंगी। पति शाहशुजा के कैद मुक्त होते ही बेगम अपने बाड़े से पलट गई और शाहशुजा ने हिरा छुपा लिया। मगर रणजीत सिंह बहुत चालाक थे और पगड़ी में छिपे हीरे को “पगड़ी-बदल भाई” नीति से उसकी पगड़ी अपने सिर पर और अपनी पगड़ी उसके सिर पर रख दी। इस तरह हीरा रणजीत के पास आ गया।
महाराजा की इच्छा थी कि वे कोहिनूर हीरे को जगन्नाथपुरी के मंदिर में परम पूज्य भगवान जगन्नाथ को भेंट करें। महाराजा धर्म को बहुत मानते थे और हिन्दू मंदिरों को मनों सोना दान करने के लिए वे प्रसिद्ध थे। काशी के विश्वनाथ मंदिर में भी उन्होंने अकूत सोना दान किया था। परन्तु जगन्नाथ भगवान (पुरी) तक पहुंचने की उनकी इच्छा कोषाध्यक्ष बेलीराम की षड्यंत्र के कारण पूरी न हो सकी।
रणजीत सिंह का मूल्यांकन
भारतीय इतिहास में रणजीत सिंह एक आकर्षक व्यक्तित्व था। देखने में बेहद कुरूप व्यक्ति था। बैरन ह्यूगल ने तो यहां तक कहा है कि सारे पंजाब में वह सबसे कुरूप और भद्दा व्यक्ति था। परंतु वह एक प्रभावशाली व्यक्ति था।
फकीर अजीजद्दीन जो उसका विदेश मंत्री था से जब एक अंग्रेज अफसर ने पूछा कि रणजीत सिंह कौन सी आंख से काना है तो उसने उत्तर दिया कि “उसकी आकृति इतनी तेजमय है कि मैं तो आज तक उसको ध्यानपूर्वक देखकर पता ही नहीं कर सका। “
रणजीत सिंह हिंदू और मुसलमान दोनों में बहुत ही लोकप्रिय थे यद्यपि वह सिखों को अपना सहयोगी और सहधर्मी मानता था, वह सभी धर्मों के विद्वानों का सम्मान करता था। एक बार उसने मुसलमान संत के चरणों की धूल को अपनी सफेद दाढ़ी से साफ किया था।
लेपल ग्रिफिन के अनुसार रणजीत सिंह एक बांका और आदर्श सैनिक था, जो शक्तिशाली शरीर वाला फुर्तीला, साहसी और धैर्यवान व्यक्ति था। सिंह ( शेर ) की भांति वीर, अपनी सेना में प्रायः आगे होकर और साधारण सैनिक की तरह लड़ता था। वह अपने अभियानों की पूर्व योजना बनाता था। युद्ध की विभिन्न कलाओं से अच्छी प्रकार से परिचित था।
जब कभी उसने पंजाब और अफगानिस्तान की सीमा पर बसे कबाइलियों से युद्ध किए तो वह प्रायःउन्हें मैदानी प्रदेश में लड़ने पर बाध्य कर देता था और उनसे उनके पहाड़ी प्रदेश में कम ही भिड़ता था। विक्टर जाकमां जो एक फ्रांसीसी पर्यटक था, उसने उसकी तुलना नेपोलियन बोनापार्ट की है।
यह ठीक है कि वह अपना उद्देश्य प्राप्त करने के लिए धोखा और शक्ति का प्रयोग करता था परंतु निर्दयी और रक्त का प्यासा नहीं था। अपितु वह हारे हुए लोगों से कृपा और मानपूर्वक व्यवहार करता था। बैरन फ़ान ह्यूगल ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं और अंत में कहा है “संभवत इतना विस्तृत राज्य में इतने थोड़े अपराधों से कभी नहीं बन सका।”
एक शासक के रूप में रणजीत सिंह ने सदैव जनहित का ध्यान किया। जनसाधारण की अधिकारी वर्ग द्वारा उत्पीड़न से सदैव रक्षा करने का प्रयत्न करता था। उसके राजभवन के बाहर एक बड़ी सी पेटिका रहती थी और उसमें उसकी प्रजा किसी भी अधिकारी को शिकायत कर सकती थी और उसकी चाबी उसके पास रहती थी।
ठीक-ठीक अवस्था जानने के उद्देश्य से वह देश के विभिन्न भागों में स्वयं जाता था। सभी धर्मों के लोग उसके इस दयाशील राज्य का लाभ उठाते थे। एक मुसलमान फकीर अजीजुद्दीन इसका विदेश मंत्री था और इसका विशेष कृपा पात्र था। इसी प्रकार डोगरा बंधु उसके दरबार में विशेष स्थान रखते थे। परंतु सबसे प्रमुख बात यह थी कि रणजीत सिंह ने पंजाब की जनता को शांतिमय राज्य दिया कि पिछले एक सौ वर्षों में भी ऐसा कभी नहीं मिला था।
परंतु रणजीत सिंह को हम एक रचनात्मक और कुशल राजनीतिज्ञ नहीं कह सकते। जो राज्य उसने कठिन परिश्रम से बनाया था उसकी मृत्यु के 10 वर्षों के भीतर समाप्त हो गया और इसके उत्तरदायित्व से महाराजा स्वयं नहीं बच सका। उसने सब शक्तियां अपने में इतनी अधिक केंद्रित कर ली थी कि उसकी मृत्यु से एक स्थान ही रिक्त नहीं हो गया परंतु एक ऐसी सूरत आ गई जिसके कारण समस्त ढांचा टूटने लगा। वह अपनी सेना को सिविल अधिकारियों के अधीन नहीं कर सका।
उसकी मृत्यु के पश्चात उस सेना ने जो उसके पूर्णता नियंत्रण में थी, राजनीति में हस्तक्षेप कर दिया और उसने सिविल प्रशासन समाप्त कर दिया। शिवाजी की भांति रणजीत सिंह भी अपनी जनता के हृदय में वह भावना नहीं भर सका जो उसकी मृत्यु के पश्चात उनको एक रख सकती।
संभवत: शिवाजी के उत्तराधिकारी भी उतने ही अयोग्य थे जितने कि रणजीत सिंह के, परन्तु कुछ परिस्थितियों के कारण महाराष्ट्र का इतिहास भिन्न रहा। उसकी सबसे बड़ी असफलता अंग्रेजों के साथ व्यवहार करने में थी। यह जानते हुए भी कि अंग्रेज उसके चरों ओर घेरा डाल रहे हैं और यह जानते हुए भी कि उनके उद्देश्य क्या हैं, वह केवल समय व्यतीत करता चला गया और उसने कुछ नहीं किया। कई बार उसने अंग्रेजों से युद्ध करने की ठानी परंतु ठीक समय पर वह साहस खो बैठता था और अंग्रेजों से लड़ने का अनिवार्य कार्य वह अपने उत्तराधिकारियों पर छोड़ गया।
यह सब होते हुए भी रणजीत सिंह भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पंजाब के लोग इस वीर पुरुष को आज भी याद करते हैं। कनिंघम ने निष्कर्ष रूप में यह कहा है कि “उसने छिन्न-भिन्न तत्वों को एकत्रित करके एक राज्य स्थापित किया। मैराथन और पठानों से पंजाब की रक्षा की तथा अंग्रेजों को हस्तक्षेप करने का अवसर न देकर एक सुसंगठित राज्य स्थापित कर लिया। उसने उत्तर-पश्चिम से आक्रमणों के रेले को पुनः
वापस धकेल दिया और खैबर दर्रे तक उत्तर-पश्चिम प्रदेश अपने अधीन कर लिए। सबसे बड़ी बात यह थी कि वह बहुत वीर था और यही उसकी भविष्य को देन है।
FAQ
Q-महाराजा रणजीत सिंह का गोत्र क्या था?
उनकी पोतियों – उनके बेटे दलीप सिंह की बेटियों – का मानना था कि उनके सच्चे पूर्वज जाट वंश के संधावलिया परिवार के थे रणजीत सिंह को संधवलिया जाट वंश के रूप में वर्णित किया गया है , जाट वंश का दावा करने वाले एक ही गोत्र के थे।
Q-महाराजा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी कौन थे?
1801 में उन्होंने खड़क सिंह को जन्म दिया जो रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी बने
Q-महाराजा रणजीत सिंह के वंशज कौन है?
शेर-ए-पंजाब महाराजा रंजीत सिंह के आठ सुपुत्रों शहजादा खड़क सिंह, ईशर सिंह, शेर सिंह, तारा सिंह, मुल्ताना सिंह, कश्मीरा सिंह, पिशौरा सिंह व शहजादा दलीप सिंह में से एक भी ऐसा वारिस मौजूद नहीं, जिसकी रगों में महाराजा रंजीत सिंह का खून दौड़ रहा हो।