भारत शासन अधिनियम 1909 जिसे साधारणतया मार्ले-मिंटो सुधारों के नाम से जाना जाता है। यह वह अधिनियम था जिसने भारत में साम्प्रदायिक राजनीति को कानूनी रूप देना प्रारम्भ किया। साथ ही सरकारी पदों पर भारतीयों को नियुक्त करने की बात इससे पहले के सभी अधिनियमों में कही गयी लेकिन धरातल पर उसका कोई महत्वपूर्ण परिणाम सामने नहीं आया था। इस अधिनियम को पारित करने के कारण और उसके उद्देश्य तथा परिणाम के विषय में इस ब्लॉग में चर्चा की जाएगी। इस ब्लॉग का उद्देश्य आप लोगों तक विश्वसनीय और उपयोगी जानकारी पहुँचाना है।
भारत परिषद अधिनियम 1909
1909 के एक्ट के पारित होने के पीछे की घटनाएं
कांग्रेस जो निरंतर भारतीयों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की बात कर रही थी लेकिन 1892 के सुधारों से कांग्रेस को निराशा हुयी और उसकी मांगों की पूर्ति नहीं हुयी।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कांग्रेस की इस भिक्षा-वृत्ति की नीति की इन शब्दों में कटु आलोचना की थी –
“राजनैतिक अधिकारों के लिए लड़ना होगा। लेकिन कांग्रेस के उदारवादी नेता समझते हैं कि यह प्रेरणा से प्राप्त किये जा सकते हैं। लेकिन हमारा मानना है कि ये सिर्फ दबाव से ही प्राप्त किये जा सकते हैं।”
चितरंजन दास और दादा भाई नौरोजी का यह विचार अक्षरस सत्य सिद्ध हो रहा रहा था कि विदेशी शासकों की शोषण नीति से देश की निर्धनता बढ़ रही है और इस शोषण नीति का कारण था अंग्रेज उद्द्योगपतियों को सुदृढ़ बनाने के लिए भारत के कुटीर तथा लघु उद्योगों को नष्ट करना तथा भारत के कच्चे माल को इंग्लैंड ले जाना।
ब्रिटिश सरकार द्वारा बार-बार यही कहा जाता था कि शिक्षित भारतीयों को सरकारी सेवाओं तथा शासन में उचित प्रतिनिधित्व दिया जायेगा मगर यह सिर्फ आश्वासन ही था।
लार्ड कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीति
लार्ड कर्जन की प्रतिक्रियावादी नीति ने भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में आक्रोष उत्पन्न कर दिया था। कर्जन घोर प्रतिक्रियावादी था और उसके मन में भारतीयों के प्रति कोई सहानभूति नहीं थी।उसने कलकत्ता निगम को पूर्णरूपेण सरकारी नियंत्रण के अधीन कर दिया तथा 1899 में निगम के एक-तिहाई सदस्य कम करके यूरोपियन को बहुमत दे दिया।
1904 में भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रति भी कर्जन ने ऐसी ही नीति अपनाई और भारतीयों का प्रतिनिधित्व समाप्त कर दिया।
बंगाल की राष्ट्रीय एकता को तोड़ने के लिए कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया जिसने भारतीयों को पूरी तरह झकझोर दिया। कर्जन की इस नीति को बंगाली समुदाय ने अपना “तिरस्कार, मानहानि तथा धोखे” की संज्ञा दी और इसके विरुद्ध तमाम आंदोलन खड़े हो गए।
समुद्रपार भारतीयों के साथ अमानवीय व्यवहार
समुद्रपार भारतीयों के साथ खासकर दक्षिण अफ्रीका में बहुत ही अपमानजनक व्यवहार किया जाता था जिसके कारण भारतीयों में असंतोष था। भरतीयों को दास समझा जाता था। अतः भारतीय आज़ादी को ही अंतिम विकल्प मानते थे जिससे राष्ट्रवाद को प्रेरणा मिली।
अकाल और महामारियों का प्रकोप
19वीं शतब्दी के अंतिम दिनों में भयानक अकाल तथा प्लेग का प्रकोप फैला जिससे भारतीय जनता में दुःख और विपत्ति बहुत बढ़ गई। इस विपत्ति के लिए लोगों ने अंग्रेज सरकार को सीधे दोषी माना क्योंकि उसने इस महामारी और अकाल से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये थे।
भारतीय समाचार पत्रों की भूमिका
भारतीय समाचार-पत्र जो 1882 ईस्वी से अधिक स्वतंत्रता के साथ अंग्रेजी सरकार और उसकी नीतियों की कटु आलोचना कर रहे थे इस पर मिंटो ने मार्ले को लिखा कि “हमे स्थानीय समाचार पत्रों से निपटने के उपाय ढूंढ़ने होंगे।” इस प्रकार भारतीय समाचार पत्रों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कांग्रेस में सूरत की फूट 1907
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दो दलों में बंट गयी-उदारवादी और उग्रवादी। यह विभाजन 1907 में सूरत के सम्मलेन में हुआ। उदारवादी नेता अब भी समझते थे की संवैधानिक साधनों द्वारा अपनी मांग मनवाई जाएगी इसके विपरीत उग्रवादी नेता आज़ादी के लिए सभी साधनों- विदेशी माल का वहिष्कार, व्यापार, सरकारी नौकरियों, उपाधियों और पदवियों इत्यादि का भी वहिष्कार हो। इसके साथ हो स्वदेशी आंदोलन को बढ़ावा मिला और उग्रवादी घटनाओं से भी अंग्रेज सरकार चिंतित हो गयी।
सर सैय्यद अहमद की तुष्टिकरण की नीति
मजबूत होती कांग्रेस ने कई मुस्लिम नेताओं में अलगाव की भावना भर दी उन्हीं में से एक थे सर सैयद अहमद खां जिन्होंने मुसलमानों को अंग्रेजी राज्य के विरोध से बचने को कहा। अंग्रेजों ने भी अब मुसलमानों को आगे करके एक प्रतिनिधि मंडल आगा खां के नेतृत्व में लार्ड मिंटों से मिला से मिला और धार्मिक आधार पर प्रतिनिधित्व का आश्वासन प्राप्त किया। यहीं से अंग्रेजों ने अपनी “फूट डालो और राज्य करो” की नीति को पूर्णतया लागू किया। साथ ही मुस्लिम साम्प्रदायिकता का भी प्रारम्भ हो गया।
जहां 1892 के अधिनियम द्वारा कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन को कम करने के लिए पारित किया गया वहीँ 1909 के अधिनियम द्वारा उदारवादी कांग्रेसियों और मुस्लिमों को अंग्रेजी शासन का समर्थक बनाने के लिए पारित किया गया।
लार्ड मार्ले जो ग्लैडस्टन का पक्का शिष्य था और उस समय इंग्लैंड की उदारवादी सरकार में भारत राज्य सचिव था, के लिए अब उचित समय आ गया था कि भारत के लिए कुछ राजनैतिक सुधार करे। लार्ड मार्ले , लार्ड मिंटों दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि अब भारत में कुछ और राजनैतिक सुधार किये जाएँ। अंत में मिंटो ने भारत सचिव को यह लिखा :
“अब समय आ गया है और हमें अपनी योजना कार्यान्वित करने का कार्यक्रम निश्चित करना चाहिए न केवल कि हमारे सुधार क्या होंगे अपितु यह भी कि ये कब और इन्हें कैसे लागू करना होगा।”
मार्ले ने जनता के विचारों को जानने के लिए इन योजनाओं को स्थानीय निकायों के पास भेजा। उन सभी आलोचनाओं के प्रकाश में नए सुधार प्रस्ताव बनाये गए और मंत्रिमंडल की स्वीकृति के बाद संसद के सम्मुख प्रस्तुत किये गए और फरवरी 1909 में ये भारतीय परिषद एक्ट 1909 के रूप में पारित किये गए।
इससे पूर्व अगस्त 1907 में दो भारतीयों के. जी. गुप्ता तथा सैयद हुसैन बिलग्रामी, भारतीय राज्य सचिव की परिषद के सदस्य नियुक्त किए और श्री सत्येंद्र सिंह वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य नियुक्त किये गए थे।
1909 के मार्ले-मिंटों एक्ट के प्रावधान
इस एक्ट द्वारा केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान मंडलों का आकार तथा शक्तियों में वृद्धि की गयी।
केंद्रीय विधान मण्डल –
- अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 60 कर दी गयी।
- इस प्रकार अब विधान मंडल में सदस्यों की संख्या 69 हो गयी जिनमें 37 शासकीय सदस्य तथा 32 अशासकीय वर्ग के थे।
- शासकीय सदस्यों में केवल 9 पदेन ( ex-officio ) सदस्य थे अर्थात गवर्नर-जनरल, तथा उसके सात कार्यकारी पार्षद ( executive councillors ) और एक साधारण सदस्य। 28 सदस्य गवर्नर-जनरल द्वारा मनोनीत किये जाते थे।
- 32 अशासकीय सदस्यों में से 5 गवर्नर-जनरल द्वारा मनोनीत किये जाते थे और शेष 27 सदस्य निर्वाचित किये जाते थे।
- “इन निर्वाचित सदस्यों के विषय में यह खा गया कि प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय ( territorial ) प्रतिनिधित्व तो भारत में उपयुक्त नहीं है अतएव देश में वर्ग तथा विशेष हितों ( classes and intrerests ) को प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।”अतः इन 27 निर्वाचित सदस्यों में से 13 तो साधारण निर्वाचन मण्डल ( general electorate ) से आने चाहिएं जिनमें निर्वाचित सदस्य बम्बई, बंगाल, मद्रास, तथा संयुक्त प्रान्त ( वर्तमान उत्तर प्रदेश ) से दो-दो तथा आसाम, बिहार तथा उड़ीसा, मध्यप्रांत, पंजाब, मद्रास तथा बर्मा से एक-एक ( 5 ), निर्वाचित होते थे। यह निर्वाचन मण्डल केवल इन प्रांतीय विधान परिषदों के केवल निर्वाचित सदस्यों का ही होता था।
- शेष 14 में से 12 सदस्य विशेष वर्ग निर्वाचन मण्डल से आते थे। इन वर्ग विशेष के प्रतिनिधियों में 6 को बम्बई, मद्रास, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा, संयुक्त प्रान्त तथा मध्यप्रांत से एक-एक भूमिपतियों के निर्वाचन मण्डल निर्वाचित करते थे। अन्य 6 मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों मद्रास, बम्बई, संयुक्त प्रान्त और बिहार तथा उड़ीसा से एक-एक और बंगाल से दो निर्वाचित होते थे। शेष दो स्थान बम्बई तथा बंगाल के वाणिज्य मंडलों को दिए गए।
- भारत छोड़ो आंदोलन
प्रांतीय विधान मण्डल में फेरबदल भिन्न-भिन्न प्रांतों की विधान परिषदों की बढ़ी हुयी सदस्य संख्या इस प्रकार थीं —
- बर्मा : 16
- पूर्वी बंगाल तथा आसाम : 41
- बंगाल : 52
- मद्रास , बम्बई तथा संयुक्त प्रान्त : प्रत्येक के 47 और
- पंजाब: 25
प्रांतों में अशासकीय सदस्यों का बहुमत था। परन्तु इसका अर्थ चुने हुए सदस्यों का बहुमत नहीं था क्योंकि इनमें कुछ अशासकीय सदस्यों को गवर्नर मनोनीत करता था। इस प्रकार इन प्रांतीय विधान परिषदों में सरकारी नियंत्रण बना रहा।
उदाहरण के तौर पर हम मद्रास के सदस्यों की स्थिति देख सकते हैं —
मद्रास के 47 सदस्यों में से 26 अशासकीय थे परन्तु इनमें से 21 ही निर्वाचित होते थे और शेष 5 गवर्नर द्वारा मनोनित होते थे। आशानुरूप ये मनोनीत सदस्य सदैव सरकार का पक्ष लेते थे। इस प्रकार सरकार का नियंत्रण बना रहा और यह स्थिति सभी प्रांतों में थी।
इन चुने हुए सदस्यों में भी भिन्न निकायों को प्रतिनिधित्व प्राप्त था। उदाहरण के रूप में बम्बई के 21 निर्वाचित सदस्यों में से 6 बम्बई विश्वविद्यालय तथा बम्बई नगर निगम द्वारा चुने जाते थे। 8 साधारण निर्वाचन मण्डलों द्वारा जिसमें नगरपालिकाओं तथा जिला बोर्डों के सदस्य होते थे। शेष 7 को वर्ग-विशेष के निर्वाचन मण्डल चुनते थे। जिनमें 4 केवल मुसलमानों द्वारा और 3 भूमिपतियों द्वारा चुने जाते थे।
“बंगाल,मद्रास तथा बम्बई की कार्यकारिणीकी संख्या बढाकर 4 कर दी गयी। उपराज्यपालों ( lieutenant Governors ) को भी अपनी कार्यकारिणी नियुक्त करने की अनुमति दी गई।
विधान परिषदों के कार्य –
- केंद्र तथा परंतिय विधान परिषदों के कार्यों का भी विस्तार किया गया —-
- सदस्यों को वाद-विवाद करने और पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।
- केंद्रीय विधान मण्डल में बजट की विवेचना के लिए विस्तारपूर्वक नियम बना दिए गए।
- सदस्यों को यद्पि मताधिकार से बंचित रखा गया था लेकिन वे स्थानीय निकायों के लिए धन की मांग कर सकते थे।
- सदस्य करों में संशोधन, नए ऋण इत्यदि के लिए भी प्रस्ताव रख सकते थे।
- वित्तीय विवरण विधान परिषद में रखने से पूर्व एक ऐसी समिति में रखा जाता था जिसकी सदस्य संख्या अशासकीय तथा मनोनीत सदस्यों के बीच आधी-आधी होती थी।
- सदस्य जनसाधारण के मामलों की विवेचना कर सकते थे।
- परन्तु सरकार सदस्यों के प्रस्तावों को मानने के लिए बाध्य नहीं थी चाहे वे प्रस्ताव जनता के मामलों से संबंधित हो अथवा वित्तीय विवरण के लिए हों।
1909 के अधिनियम का मूल्यांकन
1909 के अधिनियम में किये गए सुधारों से भारतीय राजनैतिक प्रश्न का न कोई समाधान हो सकता था न ही इससे वह निकला। सिमित मताधिकार, अप्रत्यक्ष चुनाव, विधान परिषद् की सिमित शक्तियों ने प्रतिनिधि सरकार को खिचड़ी सा बना दिया। वास्तविक शक्ति सरकार के ही पास रही और परिषदों को केवल आलोचना करने के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं हुआ।
साम्प्रदायिक राजनीति का प्रारम्भ —
मुसलमानों को पृथक निर्वाचन तथा मताधिकार देकर भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के द्वार खोल दिए गए।
इस पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा “इनसे उनके चरों ओर एक राजनितिक प्रतिरोध ( barriers ) बन गए जिन्होंने उन्हें शेष भारत से अलग कर दिया जिससे शताब्दियों से आरम्भ हुए एकत्व तथा मिलने की ओर किये गए सभी प्रयत्नों को धरासायी कर दिया। …….. आरम्भ में ये प्रतिरोध छोटे-छोटे थे क्योंकि चुनाव मण्डल छोटे-छोटे थे परन्तु ज्यों-ज्यों मताधिकार बढ़ता चला गया इससे राजनैतिक तथा सामजिक मण्डल का समस्त वातावरण दूषित हो गया, एक ऐसे रोग की भांति जो सरे शरीर को ही प्रभावित कर देता है।”
उनके ( मुसलमानों ) राजनैतिक महत्व के लिए मुसलमानों को न केवल पृथक सामुदायिक प्रतिनिधित्व दिया गया अपितु उनकी अंग्रजी साम्राज्य की सेवा के लिए’ उन्हें अपनी संख्या से खिन अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया।इसका असर सिर्फ मुसलमानों पर ही नहीं हुआ वल्कि अन्य समुदायों ने भी अंग्रेजों को अधिक सहयोग देने का वादा किया यद्पि उन्हें विशेष कुछ हाथ नहीं लगा।
साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व से प्रेरित होकर सिक्खों ने भी अलग प्रतिनिधित्व की मांग की और उन्हें यह 1919 के अधिनियम में मिल गया।
इसी प्रकार 1935 के एक्ट में हरिजनों, भारतीय ईसाइयों, यूरोपीय तथा एंग्लो-इंडियनों को भी प्रतिनिधित्व प्राप्त हो गया।
महत्मा गाँधी के शब्दों में ” मिंटो-मार्ले सुधारों ने हमारा सर्वनाश कर दिया।”
के. एम. मुंशी के शब्दों में “इन्होंनें उभरते प्रजातंत्र को जान से मार डाला।”
एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात जो 1918 में प्रकाशित भारतीय संवैधानिक सुधारों की रिपोर्ट में कही गयी उसे हम वर्तमान परिपेक्ष में भी अक्षरस सत्य पाते हैं —
“यह (पृथक चुनाव मण्डल ) इतिहास की शिक्षा के विरुद्ध है। यह धर्मों तथा वर्गों को जीवित रखता है जिससे ऐसे शिविर अस्तित्व में आते हैं जो एक दूसरे के विरोधी होते हैं और उन्हें एक नागरिक के रूप में सोचने की शक्ति प्रदान नहीं करते अपितु पक्षपाती बनने को प्रोत्साहित करते हैं। इससे वर्तमान परिस्थितियों को अपरिवर्तित रहने का अवसर मिला और स्वशासन के सिद्धांतों का विकास होने में रूकावट आयी।”
लार्ड मार्ले ने लार्ड मिंटों को एक पत्र लिखते हुए कहा पृथक निर्वाचन मण्डल स्थापित करके “हम नाग के दांत (dragon’s teeth ) बो रहे हैं और इसका फल भीषण होगा।” ( आज़ादी से पहले हुए जननरसंहार से यह सिद्ध हो भी गया )
1909 के अधिनियम में किये गए सुधार भारतियों की इच्छापूर्ति नहीं कर पाए इसलिए जनता ने इनका विरोध किया। क्योंकि इसमें उत्तरदायी सरकार की बजाय “हितैषी निरंकुशवाद” जिसमें आंशिक जनतंत्र की झलक मात्र थी।
इस अधिनियम में संसदीय प्रणाली तो दी गयी मगर उत्तरदायित्व नहीं दिया गया। भारतीय नेताओं ने विधान मंडलों में सरकार की कटु आलोचना का मंच बना लिया। इस विचार से कि उन्हें उत्तरदायित्व नहीं निभाना पड़ेगा, वे केवल आलोचक तथा और भी अनुत्तरदायी बन गए।