Chalcolithic Culture In India-नवपाषाण काल को दो भागों में विभाजित किया जाता है- प्रथम- गैरमृदभाण्ड और मृदभांड काल। जिस नवपाषाण काल में मृदभांड का प्रयोग हुआ उसके अंत में धातु का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। आपको बता दें कि आदिमानव या प्रागैतिहासिक मानव ने जिस प्रथम धातु का प्रयोग किया वह तांबा थी। इस चरण में पत्थर के औजारों के साथ तांबे के औजारों का भी प्रयोग जारी रहा। यही कारण है कि इस काल को हम ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति अथवा Chalcolithic Culture [ कैलकोलिथिक कल्चर] कहते हैं। इसके अतिरिक्त इस काल को नवपाषाण काल, ताम्रपाषाण काल यहां ताम्रचरण के नाम से भी जानते हैं। तांबे के प्रयोग ने आदिमानव के जीवन में क्या परिवर्तन किये उसके संबंध में बी. जी. चाइल्ड ने What Happend in History पुस्तक में विस्तार से वर्णन किया है।
Chalcolithic Culture In India | भारत में ताम्रपाषाण संस्कृति
जब इस काल के तकनिकी पहलुओं पर दर्ष्टिपात किया जाता है तो इसका प्रारम्भिक संबंध हड़प्पाई लोगों के साथ जोड़ा जाता है। लेकिन हम देखते हैं कि तमरपाषाण संस्कृति का प्रयोग भारत में कुछ स्थानों पर हड़प्पा संस्कृति के पतन के पश्चात भी जारी रहा। हलांकि इसमें स्थानीय भिन्नताओं को को देखा जाता है इसमें पत्थर एवं तांबे का प्रयोग एक साथ किया गया। लेकिन कुछ स्थानों पर तांबे के प्रयोग के साक्ष्य मिले हैं। मुख्यतः ताम्रपाषाण संस्कृति के अंतर्गत इन प्रमुख स्थलों को गिना जाता है —
संस्कृति | प्रारंभ ईसा पूर्व | समाप्ति ईसा पूर्व |
---|---|---|
आहार | 2800 | 1500 |
कायथा | 2400 | 1700 |
सावलदा | 2300 | 2000 |
प्रभास | 2000 | 1400 |
मालवा | 1900 | 1400 |
रंगपुर | 1700 | 1400 |
जोर्वे | 1500 | 900 |
आगे हम इन संस्कृतियों का विस्तार से अध्ययन करेंगे
दक्षिण-पूर्व राजस्थान
इस क्षेत्र में वनास नदी के तटवर्ती इलाकों में ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हुए हैं जिसके कारण इसे वनास संस्कृति की संज्ञा दी गई है। इस संस्कृति के सबसे अधिक साक्ष्य अहाड से मिले हैं इसलिए इसे अहाड संस्कृति भी कहा जाता है। अहाड संस्कृति को तीन चरणों में विभाजित किया गया है – कमशः A, B और C – A- 2580 ईसा पूर्व, B- 2080 ईसा पूर्व और C- 1500 ईसा पूर्व निर्धारित किये गए हैं।
क्या आप जानते हैं-कि आहार का प्राचीन नाम ताम्बवती अर्थात ताम्बे वाला स्थान है। यहां से अधिकतर औजार पत्थर की बजाय ताम्बे के बने पाए गए हैं। यहां से काले और लाल मृदभांड प्राप्त हुए हैं जिन्हें सफ़ेद रैखिक चित्रों से अलंकृत किया गया है। गोड़ीदार तस्तरियाँ भी काफी मात्रा में प्राप्त हुई हैं। यहाँ से पशुओं में भैसे, बकरियां, भेड़ें और सुअर के प्रमाण मिले हैं। यहाँ कृषि बड़ी मात्रा में होती थी और चावल, ज्वार-बाजरे जैसी फसलें उगाई जाती थीं। यहाँ मकान बनाने में पत्थर और कच्ची मिटटी की ईंटों का प्रयोग किया जाता था।
आहार के उत्तर-पूर्व में स्थित गिलुण्ड में जो मकानों के अवशेष प्राप्त हुए हैं इसके अतरिक्त यहाँ से पत्थर के फलक उद्योग के भी साक्ष्य मिले हैं। बालाथल से भी ताम्बे और पत्थर के औजार मिले हैं साथ ही लाल और काले मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं।
मालवा संस्कृति
इस क्षेत्र में ताम्रपाषाण संस्कृति का विकास नर्मदा घाटी में हुआ। यहाँ के प्रमुख स्थलों में कैथा, एरच, नगदा, नवदाटोली आदि हैं। ये सभी स्थल मध्यप्रदेश के पश्चिम में स्थित हैं। उज्जैन उज्जैन के पास छोटी काली-सिंध के किनारे कैथा का उत्खनन दो बार हुआ है वहां ताम्रपाषाण काल की बस्तियों के तीन चरणों का पता चला है। बस्ती का विकासक्रम इस प्रकार है –
चरण | आरंभ ईसा पूर्व | समाप्त ईसा पूर्व |
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प्रारम्भिक | 2400 ईसा पूर्व | 2120 ईसा पूर्व |
द्वितीय | 2100ईसा पूर्व | 1800 ईसा पूर्व |
तृतीय | 1800 ईसा पूर्व | 1500 ईसा पूर्व |
कायथा संस्कृति हड़प्पा संस्कृति के बाद की सबसे पहली संस्कृति मानी जाती है। यहाँ से प्राप्त मृदभांडों पर प्राक हड़प्पाई प्रभाव तथा कुछ पर हड़प्पाई प्रभाव दिखाई देते हैं।
कायथा के एक घर से तांबे के 29 कंगन और अद्वितीय प्रकार की कुल्हाड़ी पाई गई हैं। इसी स्थान से स्टेटाइट और कैमेलियन जैसे शानदार पत्थरों की गोलियों से जड़े हार पात्र पाए गए हैं। इससे यह पता चलता है कि यहाँ रहने वाला समुदाय धनाढ्य समुदाय था। कायथा संस्कृति की कई बस्तियां किला बंद है।
नर्मदा के दक्षिणी तट पैट स्थित नवदाटोली में ताम्रपाषाण बस्तियों के चार चरण मिले हैं जिनका काल 2020 ईसा पूर्व से 1660 ईसा पूर्व के मध्य निर्धारित होता है। यहाँ मुख्य विशेषता यहाँ से मिले लाल व काले मृदभांड हैं। ये मृदभांड विशिष्ट पोलिसयुक्त काले से रंग से चित्रित हैं। इन्हें मालवा मृदभांड की संज्ञा दी गई है। मालवा से प्राप्त हुए मृदभांड सभी ताम्रपाषाणिक मृदभांडों में सर्वश्रेष्ठ हैं। मालवा संस्कृति के लोग कताई और बुनाई में निपुण थे, इसका प्रमाण वहां से प्राप्त चरखों और तकलियों से मिलता है।
मालवा प्रकार की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियां वेतवा नदी के किनारे एरण और जबलपुर के निकट त्रिपुरी में भी पाई गई हैं। नववाटोली का उत्खनन दक्खन कालेज पूना के प्रो० एच० डी० सांकलिया द्वारा किया गया है और यह स्थल इस महाद्वीप का सबसे विस्तृत उत्खनित ताम्रपाषाण युगीन ग्राम स्थल है।
महाराष्ट्र के अनेक स्थलों से ताम्रपाषाण युगीन जीवन-यापन का साक्ष्य प्राप्त हुए हैं । यहां के महत्वपूर्ण स्थल हैं- अहमदनगर जिले में स्थित जोर्वे, नेवासा और दैमाबाद तथा पुणे जिले में चन्दोली सोनगांव, इनामगांव, प्रकाश और नासिक। यहां के स्थलों में गोदावरी के तट पर स्थित दैमाबाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण और बड़ा स्थल है। यह लगभग 20 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है जिसमें 4000 लोग रह सकते थे। यहां ताँबे के साथ-साथ बड़ी संख्या में काँसें की. वस्तुयें प्राप्त हुई हैं। यहां से ताँबें की चार प्रमुख वस्तुयें मिली हैं-
- रथ चलाते हुये मनुष्य,
- सांड़,
- गैंडे और
हाथी की आकृतियां जिनमें प्रत्येक ठोस धातु की हैं।
यहां से जौ, गेहूँ मसूर, कुल्थी, मटर और कहीं-कहीं से चावल प्राप्त हुये हैं। वेर की झुलसी हुई गुठलियां भी मिली हैं। पालतू बनाये गये पशुओं में गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर और घोड़ा शामिल हैं।
मृण्मूर्तियों में मातृदेवी के अनेक रूप मिलते हैं। मातृ देवी की एक आकृति सांड़ की आकृति के साथ जुड़ी हुई मिली हैं। यह कच्ची मिट्टी की है।
यहां से बहुत सारे कलश शवाधान प्राप्त हुये हैं। ये कलश घरों के फर्श के नीचे रखे मिले हैं। कुछ अस्थियों से वयस्कों एवं बच्चों के दन्तक्षरण रोग का तथा शिशुओं में होने वाले स्कर्वी रोग का पता चलता है।
काले पालिश युक्त या हल्के पाण्डुरंग वाले मृद्भाण्ड इस संस्कृति की अभिलक्षक विशेषताएं हैं।
इनामगांव में जोर्वे संस्कृति चरण की सबसे अधिक व्यापक तस्वीर उभरती है। यहां से चूल्हों सहित बड़े-बड़े कच्ची मिट्टी के मकान और गोलाकार गड्ढों वाले मकान मिले हैं। यहीं से बाद की अवस्था में (1300 ई० पू० से 1000 ई० पू०) पांच कमरों वाला एक मकान मिला है। इनाम गांव ताम्रपाषाण काल की एक बड़ी बस्ती थी।
इनमें सौ से भी अधिक घर और कमरे पाये गये हैं। यह बस्ती किला-बन्द है और खाँई से घिरी हुई है। इनाम गांव में शिल्पी पश्चिमी छोर पर रहते थे जबकि सरदार प्रायः केन्द्र स्थल पर रहता था। इससे निवासियों के बीच सामाजिक दूरी जाहिर होती है।
नेवासा जोर्वे संस्कृति का एक अन्य महत्वपूर्ण स्थल है। यहां से पटसन का साक्ष्य मिला है। यहां से नैदानिक मृद्भाण्ड (Diagnostic Pottery) के साक्ष्य मिले हैं। ये मृद्भाण्ड लाल तल पर काली डिजाइन वाले चाक निर्मित बर्तन हैं और इनका एक विशिष्ट नमूना टोटीदार तथा नवतली बर्तन हैं। मृद्भाण्ड की डिजाइन बहुधा ज्यामितीय है जिनमें तिरछी समानान्तर रेखाओं का प्रयोग किया गया है।
जोर्वे संस्कृति के लोग मृतक को अस्थि कलश में रखकर अपने घर की फर्श के अन्दा उत्तर दक्षिण स्थिति में गाड़ते थे। कब में मिट्टी की हाड़ियां और ताँबे की कुछ वस्तुयें भी रक जाती थीं जो परलोक में मृतक के इस्तेमाल के लिये होती थीं।
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दक्षिण भारत
इस क्षेत्र में स्थित ग्राम्य जीवन की आधार रेखा नव पाषाण संस्कृति से प्राप्त होती जिसके परवर्ती चरणों में कुछ ताम्रपाषाण तत्वों का संकेत मिलता है। यहां के प्रमुख स्थल है ब्रह्मगिरि, मस्की, पिपलीहल, उतनूर, संगनकल्लू, पैयमपल्ली, हेम्मिणे, नागार्जुनकोण्डा, कोडेक्कत इत्यादि। दक्षिण भारत के स्वर्ण क्षेत्र का उपयोग इसी काल में हुआ। खेती की फसलों में बाजरा और चना मिला है। यहां कृषक की अपेक्षा चरवाहा संस्कृति का अधिक प्रमाण मिलता है।
ये लोग अपने मवेशियों को घरों के बाहर बांध देते थे तथा उसमें लकड़ी के डन्डों की बाड़ लगा दी जाती थी। बाड़ के भीतर जो गोबर इकट्ठा होता था, उसे प्रतिवर्ष बाड़ के डन्डों के साथ जला दिया जाता था। फलस्वरूप, वहां राख का एक टीला बन गया; इन टीलों को भस्मटीले (Ash mounts) कहा जाता है।
पूर्वी भारत
यहां के कुछ ताम्रपाषाणिक स्थल थे-बिहार में चिरांद, सेनुवार, सोनपुर और ताराबीह; पश्चिमी बंगाल में पाण्डुराजारढ़ीबी और महिषदल।
ऊपरी गंगा घाटी और गंगा यमुना दोआब
इलाहाबाद के आसपास के विन्ध्यक्षेत्र में कई ताम्रपाषाणिक स्थल मिले हैं इमलीडीह, नरहन, सोधौरा और फैराडीह विशेष उल्लेखनीय हैं। साईपाई नामक एक स्थल पर एक तलवार और एक मत्स्य भाले का सिरा मिला है। जिनका गेरुवर्णी मृद्भाण्ड से सीधा सम्बन्ध देखा गया है।
ताम्रपाषाणिक संस्कृति का महत्व और विशेषताएं
परवर्ती काल में भारतीय संस्कृति के विकास के क्रम में ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों का बहुत महत्व है। सम्पूर्ण भारत में ग्रामीण कृषक समुदायों का गठन इसी काल में हुआ। इसी काल में आधुनिक भारतीय ग्रामीण समाज की नींव पड़ी। आधुनिक कर्मकाण्ड और आचार व्यवहारों का ढांचा भी इसी काल की देन है। इस काल की शव संस्कार विधियां भिन्न-भिन्न थीं। महाराष्ट्र में मृतक उत्तर-दक्षिण दिशा में रखा जाता था, किन्तु दक्षिण भारत में पूरब पश्चिम दिशा में। पश्चिमी भारत में लगभग सम्पूर्ण (विस्तीर्ण) शवाधान प्रचलित था, जबकि पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान (फ्रैक्सनल वेरियल)
चित्रित मृदभांड
इन ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों की सबसे प्रमुख विशेषता है उनके विशिष्ट प्रकार के चित्रित मृदभांड कायथा संस्कृति अपने उन मजबूत लाल लेप वाले मृदभांडों के लिए प्रसिद्ध है, जिनपर चाकलेटी रंग से तरह-तरह के चित्र बने हुए है। इस संस्कृति की एक अन्य विशेषता है लाल रंग से चित्रित पाण्डुभांड़। आहार संस्कृति वाले लोग काले-लाल रंग के बर्तन बनाते थे जो सफेद डिजाइनों से सजे होते थे। मालवा के बर्तन बनावट में कुछ अनघड़ है लेकिन उनपर मोटा लेप लगा है जिसकी सतह पर लाल या काले रंग में डिजाइन बने होते है।
प्रभास और रंगपुर के मिट्टी के बर्तन हड़प्पा संस्कृति से लिए हुए है लेकिन उनकी सतह चमकदार है जिसकी वजह से उनहें चमकीले लाल भांड भी कहा जाता है। जोर्वे के भांड लाल पर लाल पर काले रंग से रंजित है। लेकिन उनकी तह धुंधली या खुरदरी हैं इन मृदभाडों में साधारण तस्तरियां टोंटीदार कलश डंडीदार चषक (प्याले) साधारण कटोरे, बड़े संचय पात्र और टोंटीदार पात्र एवं कटोरे।
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ताम्रपाषाणकालीन आवास स्थल और कृषि
ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के लोग नरकुल और मिट्टी के गारे से आयताकार और वृत्ताकार घर बनाते थे। गेहूँ और जौ की खेती मालवा क्षेत्र में की जाती थी चावल इनामगाँव और आहार के खुदाई स्थलों से पाया गया है। ये लोग ज्वार और बाजरा भी उगाते थे और कुल्थी, रागी, हरे मटर, मसूर और हरे व काले चनों की खेती करते थे। ये लोग आपस में व्यापारिक क्रिया-कलापों से जुड़े थे। कंगन-चूड़ियां बनाने के लिए सीपियां व कौड़ियां सौराष्ट्र के समुद्र तट से व्यापार के जरिये अन्य ताम्र-पाषाणिय क्षेत्रों को भेजी जाती थी। इसी प्रकार सोना और हाथी दांत भी टेक्कल कोट्टा (कर्नाटक) से जोर्वे संस्कृति वाले लोगों के पास आया होगा। इसी प्रकार राजपिपला (गुजरात) से उपरत्नों का व्यापार भी विभिन्न क्षेत्रों के साथ होता था।
स्र. नं. | समुद्र तट क्षेत्र | उत्पाद | उत्पाद की विवरण | गंतव्य क्षेत्र | व्यापारिक सामग्री |
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1 | सौराष्ट्र (गुजरात) | सीपियां व कौड़ियां | चांदी या कांस्य से बनाई गई बाजुओं या हाथों में पहने जाने वाली आभूषण | अन्य ताम्र-पाषाणिय क्षेत्र | उन्नत स्नायु और धातु आभूषण |
2 | कर्नाटक | सोना और हाथी दांत | सोने और हाथी दांत से बने आभूषण और विशेष उत्पाद | जोर्वे संस्कृति वाले क्षेत्र | सोने और हाथी दांत से बने आभूषण |
3 | गुजरात | उपरत्न | उपरत्नों का व्यापार | विभिन्न क्षेत्रों | उपरत्न |
ताम्रपाषणकलीन धर्म
धर्म के द्वारा सभी ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियां आपस में जुड़ी थी, उनमें मातृ-देवी और वृषभ की पूजा प्रचलित थी। मालवा में वृषभ पूजा का बोलबाला था। दैमाबाद से प्राप्त एक पात्र पर की गई चित्रकारी में एक देवता को वाघों जैसे जन्तुओं और मोर जैसे पक्षियों से घिरा हुआ दिखाया गया है कुछ विद्वान इसकी तुलना शिव-पशुपति से करते हैं। उत्तर कालीन जोर्वे संस्कृति के स्थल इनामगांव के पुरा स्थल पर अनेक शिरकटी छोटी-छोटी मूर्तियां मिली है, उनकी तुलना महाभारत की देवी ‘विशिरा’ से की गई है। बड़ी संख्या में अग्निकुंड के मिलने से अग्नि पूजा का अनुमान लगाया जाता है।
ताम्र-पाषाण युगीन कृषकों ने मिट्टी और धातु की प्रौद्योगिकी में पर्याप्त प्रगति कर ली थी। उनके द्वारा चित्रित भांड बहुत अच्छे बनाये और आग में पकाये जाते थे। उनके भट्ठे की आग का तापमान 500° से 700°C तक होता था। धातु के औजारों में हम कुल्हाड़ियां, छेनियां, कड़े, मनके, कांटे आदि पाते हैं। जो अधिकतर तांबे के बने होते थे। सोने के आभूषण बहुत ही दुर्लभ थे और केवल जोर्वे संस्कृति में ही पाये गये हैं।
ताम्रनिधियां और गैरिक मृदुभाण्ड
सर्व प्रथम 1822 में कानपुर के जिले विठुर से तांबे के कांटेदार बरछे प्राप्त हुए। तब से लेकर आज तक लगभग एक हजार तांबे की वस्तुयें भारत के विभिन्न भागों में 90 पुरा स्थलों से प्राप्त हो चुके हैं। चालीस से अधिक ताम्रनिधियां जिनमें अंगूठी, कुठारी, खड्ङ्ग, हारपून दुसिंगी तलवारें, मानवाकृतियां आदि शामिल हैं, पूरब में बंगाल और उड़ीसा से, पश्चिम में गुजरात और हरियाणा तक तथा दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश से उत्तर में उत्तर प्रदेश तक के विशाल भू भाग में बिखरी पाई गई हैं। सबसे बड़ी निधि मध्य प्रदेश के गुंगेरिया से प्राप्त हुई है; इसमें 424 ताँबे के औजार और 102 चाँदी के पतले पत्थर हैं लेकिन इन ताम्रनिधियों में से लगभग आधी गंगा यमुना दोआब में केन्द्रित हैं।
इन ताम्रनिधियों का सम्बन्ध कभी-कभी गैरिक मृद्भाण्ड (O.C.P) से भी लगाया जाता है। यह एक लाल अनुलेपित भाण्ड है जो अक्सर काले रंग से रंगा रहता है और मुख्यतः कलश की शक्लों में होता है। अधिकांश गैरिक मृद्भाण्ड स्थल दोआब के ऊपरी हिस्से में पड़ते हैं। इन गैरिक मृद्भाण्डों का काल मोटे तौर पर 2000 ई० पू० और 1500 ई० पू० के बीच रखा जा सकता है। जब गैरिक मृद्माण्ड की बस्तियाँ समाप्त हुईं, उस समय से लगभग 1000 ई० पू० तक दोआब में कोई खास बस्तियां नहीं दिखाई देतीं। हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर अवस्थित जोधपुरा में गैरिक मृद्भाण्ड का सबसे मोटा जमाव (1.1 मी०) देखा गया।
उत्खनन कार्यो के दौरान एटा जिले के सैवई स्थल पर ताम्र-संचय की वस्तुयें गैरिक मृदभांडो के साथ पाई गयी थी। इस प्रकार गंगा, यमुना दोआब ये जहां-जहां ताम्र-संचय मिले है वहां लगभग सभी स्थलों पर गैरिक मृदभांड भी पाये गये हैं। लेकिन बिहार, बंगाल और उड़ीसा में उनका संस्कृतिक साहचर्य स्पष्ट नहीं है। ऊपर गंगा घाटी के कुछ अन्य स्थलों जैसे- बहदराबाद, नसीरपुर (हरिद्वार), राजपुर-परसु (मेरठ), विसौली (बंदायूँ) और बहेड़िया (शाहजहांपुर) में पहले की खुदाइयों में ताम्र-संचय पाये गये थे वहीं बाद वाली खुदाइयों में गैरिक-मृदभांडों के ठीकरे मिले हैं।
गैरिक मृद्भाण्ड वाले लोग हड़प्पाई लोगों के कनिष्ठ समसामयिक थे और वे जिस गैरिक मृद्भाण्ड वाले क्षेत्रों में रहते थे, वह हड़प्पाइयों के क्षेत्र से बहुत दूर नहीं हैं। इसलिये हम गैरिक मृद्भाण्ड वाले लोगों और कांसे का प्रयोग करने वाले हड़प्पाई लोगों के बीच कुछ आदान-प्रदान का अनुमान सहज ही कर सकते हैं।