अशोक का धम्म: अशोक का धम्म (धर्म) क्या है, अशोक के धम्म के सिद्धांत, विशेषताएं, मान्याएँ, आर्दश 

अशोक का धम्म: अशोक का धम्म (धर्म) क्या है, अशोक के धम्म के सिद्धांत, विशेषताएं, मान्याएँ, आर्दश 

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Last updated on April 13th, 2023 at 11:40 am

सामान्य रूप से सम्राट अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए जीन आचारों की संहिता प्रस्तुत कि उसे उसके अभिलेखों में अशोक का धम्म कहा गया है। ‘धम्म’ संस्कृत के ‘धर्म’ का ही प्राकृत रूपांतर है परंतु अशोक के लिए इस शब्द का विशेष महत्व है।वस्तुतः यदि देखा जाए तो यही धम्म तथा उसका प्रचार अशोक के विश्व इतिहास में प्रसिद्ध होने का सर्वप्रमुख कारण बना।

अशोक का धम्म: अशोक का धम्म (धर्म) क्या है, अशोक के धम्म के सिद्धांत, विशेषताएं, मान्याएँ, आर्दश

अशोक का धम्म

अपने दूसरे स्तंभ-लेख में अशोक स्वयं प्रश्न करता है कि—- ‘कियं चु धम्मे?’ (धम्म क्या है?)। इस प्रश्न का उत्तर अशोक दूसरे एवं सातवें स्तंभ लेख में स्वयं देता है। वह हमें उन गुणों को गिनाता है जो धम्म का निर्माण करते हैं। इन्हें हम इस प्रकार रख सकते हैं—‘अपासिनवेबहुकयानेदयादानेसचेसोचयेमाददेसाधवे च।’ अर्थात् धम्म —–

अशोक के धम्म के सिद्धांत

१– अल्प पाप ( अपासिनवे) है।

२– अत्याधिक कल्याण ( बहुकयाने ) है।

३– दया है।

४– दान है।

५– सत्यवादिता है।

६– पवित्रता ( सोचये )।

७– मृदुता ( मादवे) है।

८– साधुता ( साधवे )।

इन गुणों को व्यवहार में लाने के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक बताई गई हैं—

१– अनारम्भो प्राणानाम् ( प्राणियों की हत्या न करना)।

२– अविहिंसा भूतानाम् ( प्राणियों को क्षति न पहुंचाना)।

३– मातरि-पितरि सुस्रूसा ( माता-पिता की सेवा करना )।

४– थेर सुस्रूसा ( वृद्धजनों की सेवा करना )।

५– गुरुणाम् अपचिति ( गुरुजनो का सम्मान करना )।

६– मित संस्तुत नाटिकाना बहमण-समणाना दान संपटिपति ( मित्रों, परिचितों, ब्राहम्णों तथा श्रमणों के साथ सद्व्यवहार करना )।

७– दास-भतकम्हि सम्य प्रतिपति ( दासों एवं नौकरों के साथ अच्छा व्यवहार करना )।

८– अप-व्ययता ( अल्प व्यय )।

९– अपभाण्डता (अल्प संचय )।

यह धर्म के विधायक पक्ष हैं। इसके अतिरिक्त अशोक के धम्म का एक निषेधात्मक पहलू भी है जिसके अंतर्गत कुछ दुर्गुणों की गणना की गई है। यह दुर्गुण व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं। इन्हें ‘आसिनव’ शब्द में व्यक्त किया गया है। ‘आसिनव’ को अशोक तीसरे स्तंभ-लेख में पाप कहता है। मनुष्य ‘आसिनव’ के कारण सद्गुणों से विचलित हो जाता है। ( उसके अनुसार निम्नलिखित दुर्गुणों से ‘आसिनव’ हो जाते हैं—

१– चंडिये अर्थात प्रचण्डता।

२– निठुलिये अर्थात निष्ठुरता।

३– कोधे अर्थात क्रोध।

४– मनो अर्थात घमण्ड।

५– इस्सा अर्थात ईर्ष्या।

अतः धम्म का पूर्ण परिपालन तभी संभव हो सकता है जब मनुष्य उसके गुणों के साथ ही साथ इन विकारों से भी अपने को मुक्त रखे। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि मनुष्य सदा आत्म-निरीक्षण करता रहे, ताकि उसे अधःपतन के मार्ग में अग्रसर करने वाली बुराइयों का ज्ञान हो सके। तभी धम्म की भावना का विकास हो सकता है। धम्म के मार्ग का अनुसरण करने वाला व्यक्ति स्वर्ग की प्राप्ति करता है, और उसे इहलोक तथा परलोक दोनों में पुण्य की प्राप्ति होती है।

धम्म तथा उसके उपादान अशोक को बहुत प्रिय थे। साधारण मनुष्यों में धम्म को बौधगम्य बनाने के उद्देश्य से वह इसकी तुलना भौतिक जीवन के विभिन्न आचरणों से करता है तथा धम्म को उनमें सर्वश्रेष्ठ घोषित करता है। नवें शिला-लेख में वह मानव जीवन के विविध अवसरों पर किए जाने वाले मंगल कार्यों का उल्लेख करता है तथा उन्हें अल्पफल वाला बताता है। उनके अनुसार ‘धम्म-मंगल’ महाफल वाला है। वह दासों तथा नौकरों के साथ उचित व्यवहार, गुरुजनों के प्रति आदर, प्राणियों के प्रति दया आदि आचरणों में प्रकट होता है।

शिलालेख 11 में धम्मदान की तुलना सामान्य दान से की गई है तथा धम्मदान को श्रेष्ठतर बताया गया है ( नास्ति एदिशं दनं यदिशं ध्रम दनं )। धम्मदान का अर्थ है— धम्म का उपदेश देना, धम्म में भाग लेना तथा धम्म से अपने को संबंधित कर लेना। इसी प्रकार तेरहवें शिलालेख में अशोक सैनिक विजय की तुलना ‘धम्म-विजय’ से करता है। इस प्रसंग में वह कलिंग विजय में होने वाली व्यापक हिंसा एवं संहार की घटनाओं पर भारी पश्चाताप करता है। उसके अनुसार प्रत्येक सैनिक विजय में घृणा, हिंसा एवं हत्या की घटनाएं होती हैं इसके विपरीत धम्म विजय प्रेम, दया, मृत्यु एवं उदारता आदि से अनुप्राणित होती है।

अशोक की धम्म विजय का क्या अर्थ है?

धम्म-विजय– तेरहवें शिलालेख में धम्म विजय की चर्चा करते हुए अशोक कहता है कि ‘देवताओं का प्रिय (अशोक ) धम्म विजय को सबसे मुख्य विजय समझता है। यह विजय उसे अपने राज्य में तथा सब सीमांत प्रदेशों में छः सौ योजन तक, जिसमें अन्तियोक नामक यवन राजा तथा अन्य चार राजा तुरमय अन्तिकिन, मग और अलिक सुन्दर हैं, तथा दक्षिण की ओर चोल, पांड्य और ताम्रपपर्णि तक में प्राप्त हुई है।

उसी तरह यहाँ राजा के राज्य में यवनों और कंम्बोजों में, नभपंक्तियों और नाभक में, वंशानुगत भोजों, आंध्रक और पुलिंदों में—- सब जगह लोग देवताओं के प्रिय का धर्मानुशासन मानते हैं। जहां देवताओं के प्रिय के दूत नहीं जाते वहां भी लोग धर्मादेशों और धर्मविधान को सुनकर धर्माचरण करते हैं और करते रहेंगे।

इस प्रकार प्राप्त विजय सर्वत्र प्रेम से सुरभित होती है। वह प्रेम धर्म विजय से प्राप्त होता है पर वह तुक्ष वस्तु है। देवताओं का प्रिय पारलौकिक कल्याण को ही बड़ा समझता है। यह धर्मलेख इसलिए लिखवाया गया ताकि मेरे पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र नये देश विजय करने की इच्छा त्याग दें और जो विजय सिर्फ तीर से प्राप्त हो सकती है उसमें भी वे साहिष्णुता तथा मृत्युदण्ड का ध्यान रखें और वे धम्म विजय को ही वास्तविक विजय समझें।

यह इहलोक तथा परलोक दोनों के लिए अच्छा है। धर्म-प्रेम सभी देवताओं का प्रेम बने। यह इहलोक तथा परलोक दोनों के लिए मंगलकारी है।’ निःसन्देह अशोक की धम्मविजय संबंधी उपर्युक्त अवधारणा ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रंथों की एतद्विषयक अवधारणाओं से भिन्न है।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र, महाभारत, कालिदास के रघुवंश आदि में धर्म विजय का जो विवरण प्राप्त होता है उससे यह स्पष्ट है कि यह एक निश्चित साम्राज्यवादी नीति थी। ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रंथों की धम्मविजय का तात्पर्य राजनैतिक है। इसमें धर्मविजयी शासक का राजनैतिक प्रभुत्व उसके प्रतिद्वंदी स्वीकार करते हैं। वह अधीन राजाओं से भेंट उपहारादि लेकर ही संतुष्ट हो जाता है तथा उनके राज्य अथवा कोष पर अधिकार नहीं करता।

समुद्रगुप्त की विजय तथा हर्ष की सिंध विजय को इसी अर्थ में ‘धर्मविजय’ कहा गया है। कालिदास ने रघुवंश में रघु की धर्मविजय के प्रसंग में बताया है कि उसने महेंद्रनाथ की लक्ष्मी का अधिग्रहण किया, उसके राज्य का नहीं। बौद्ध साहित्य में भी हम धम्मविजय का स्वरूप राजनैतिक ही पाते हैं। अंतर मात्र यह है कि बौद्ध धर्म-विजयी युद्ध अथवा दबाव के स्थान पर अपनी उत्कृष्ट नैतिक शक्ति द्वारा सार्वभौम साम्राज्य का स्वामी बन जाता है।

विजित शासक उसकी प्रभुसत्ता को स्वीकार करते हुए उसके सामंत बन जाते हैं। उसकी विजय तथा साम्राज्य वास्तविक होते हैं यद्यपि उसका स्वरूप मृदु तथा लोकोपकारी होता है। किंतु अशोक की ‘धम्मविजय’ इस अर्थ में कदापि नहीं की गयी। तेरहवें अभिलेख में अशोक यह दावा करता है कि उसने अपने तथा अपने पड़ोसी राज्यों में धम्मविजय प्राप्त किया है। अर्थ मात्र यही है कि उसने स्वदेशी तथा विदेशी राज्यों में धम्म का प्रचार किया तथा धरम्म प्रचार को उन राज्यों में सफलता प्राप्त हुई। इस प्रकार धम्मविजय शुद्ध रूप से धर्म प्रचार का अभियान थी।

( To Ashok Dharmavijya was a missionary movement, ‘pure and simple and the claim means nothing more than that his propaganda in favour of Dharma had borne some success in neighbouring countries.– Negi J.S. Some Indological studies– page 494 ) यह भी उल्लेखनीय है कि अशोक स्वयं अपने राज्य में भी धर्म-विजय करने का दावा करता है। यदि इसका स्वरूप राजनैतिक होता तो उसके द्वारा इस प्रकार के दावे का कोई अर्थ नहीं होता क्योंकि उसके साम्राज्य पर उसका पूर्ण अधिकार था। पुनश्च विदेशी, विशेषकर यवन राज्यों के शासक कभी भी इसे स्वीकार नहीं करते।

अतः स्पष्ट है कि अशोक की धम्म विजय में युद्ध अथवा हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं था। वस्तुतः अशोक भारतीय इतिहास में पहला शासक था जिसने राजनीतिक जीवन में हिंसा के त्याग का सिद्धांत सामने रखा है। यही सही है कि अशोक के पूर्व कई ऐसे विचारक हुए जिन्होंने हिंसा के त्याग तथा अहिंसा के पालन करने का सिद्धांत प्रचारित किया। किंतु यह केवल व्यक्तिगत जीवन के संबंध में था। यहां तक कि स्वयं बुद्ध भी राजनीतिक हिंसा के विरुद्ध नहीं थे और उन्होंने मगध नरेश अजातशत्रु को वा वज्जि संघ को जीतने का उपाय बताया था।

हमें ज्ञात है कि न तो बौद्ध शासक अजातशत्रु और न ही जैन धर्म के पौषक नन्द राजाओं तथा कलिंग राजा खारवेल ने यह स्वीकार किया कि राजनीतिक हिंसा धर्म विरूद्ध है। अतः यह अवधारणा कि राजनीतिक हिंसा धर्म विरुद्ध है अशोक के मस्तिष्क की ही उपज प्रतीत होती है। अशोक ने व्यक्तिगत आचारशास्त्र को शासकीय आचारशास्त्र में परिणत कर दिया। इस प्रकार अशोक के धम्म विजय की अवधारणा ब्राह्मण अथवा बौद्ध लेखकों के धर्म विजय संबंधी इस अवधारणा के प्रतिकूल थी कि ‘इसमें युद्ध तथा हिंसा द्वारा प्राप्त साम्राज्य सम्मिलित है।’

अशोक के धम्म का स्वरूप

धम्म का स्वरूप— उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि अशोक के धर्म के अंतर्गत जिन सामाजिक एवं नैतिक आचारों का समावेश किया गया है वे वही हैं जिन्हें सभी संप्रदाय समान रूप से स्वीकार करते हैं। धम्म की इस सरलता और सर्वांगीणता ने इसके स्वरूप को एक पहेली बना दिया है। स्पष्टत: इसमें किसी भी दार्शनिक अथवा तत्वमीमांसा प्रश्न की समीक्षा नहीं हुई है। इसमें न तो महात्मा बुद्ध के चार आर्य सत्यों का उल्लेख है, न अष्टांगिक मार्ग हैं और न आत्मा-परमात्मा संबंधी अवधारणायें ही हैं। अतः विद्वानों ने धर्म को भिन्न-भिन्न रूपों में देखा है।

फ्लीट इसे ‘राजधर्म’ मानते हैं जिसका विधान अशोक ने अपने राज्यकर्मचारियों के पालनार्थ किया था। परंतु इस प्रकार का निष्कर्ष तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि अशोक के लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि उसका धर्म केवल राज्यकर्मचारियों तक ही सीमित नहीं था, अपितु वह सामान्य जनता के लिए भी था। राधाकुमुद मुखर्जी ने इसे ‘सभी धर्मों की साझी संपत्ति’ बताया है। उनके अनुसार अशोक का व्यक्तिगत धर्म ही बौद्ध धर्म था तथा उसने साधारण जनता के लिए जिस प्रकार का विधान प्रस्तुत किया है वह वस्तुतः ‘सभी धर्मों का सार’ था।

इसी प्रकार रामाशंकर त्रिपाठी एवं विन्सेन्ट स्मिथ जैसे कुछ अन्य विद्वानों ने भी इसी मत का समर्थन किया है। त्रिपाठी के अनुसार ‘अशोक’ के धम्म के तत्व विश्वजनीन (universal ) हैं और हम उस पर किसी धर्म-विशेष को प्रोत्साहन अथवा संरक्षण प्रदान करने का दोषारोपण नहीं कर सकते। इसके विपरीत फ्रांसीसी विद्वान सेनार्ट का विचार है कि अपने लेखों में अशोक ने जिस धम्म का उल्लेख किया है वह उसके समय के बौद्ध धर्म का एक पूर्ण तथा सर्वांगीण चित्र प्रस्तुत करता है।

रोमिला थापर का विचार है कि धम्म अशोक का अपना अविष्कार था। संभव है इसे बौद्ध तथा हिंदू विचारधारा से ग्रहण किया गया हो किंतु अंतिम रूप से यह सम्राट द्वारा जीवन-पद्धति को सुझाने का एक विशेष प्रयास था जो व्यावहारिक तथा सुविधाजनक होने के साथ-साथ अत्याधिक नैतिक भी था। इसका उद्देश्य उन लोगों के बीच सुखद समन्वय स्थापित करना था जिनके पास दार्शनिक चिंतन में उलझने का समय ही नहीं था।

उपर्युक्त सभी मतों के विपरित प्रसिद्ध विद्वान डी०आर० भण्डारकर ने एक नवीन सिद्धांत प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार न तो अशोक का धम्म सभी धर्मों का सार ही है और ना ही उसमें बौद्ध धर्म का पूर्ण एवं सर्वांगीण चित्रण है। उनके विचार में अशोक के धम्म का मूल स्रोत बौद्घ धर्म ही है। अशोक के समय बौद्धधर्म के दो रूप थे— (१) भिक्षु बौद्धधर्म तथा (२) उपासक बौद्धधर्म। इसमें दूसरा अर्थात् उपासक बौद्ध धर्म सामान्य गृहस्थों के लिए था। अशोक गृहस्थ था। अतः उसने बौद्ध धर्म के दूसरे रूप को ही ग्रहण किया।

इस धर्म के अंतर्गत साधारण गृहस्थों के लिए सामाजिक एवं नैतिक नियमों का समावेश रहता था। अशोक के धम्म तथा बौद्ध ग्रंथों में उल्लिखित उपासक धर्म के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने धम्म के जिन गुणों का निर्देश किया है वे दीघनिकाय के सिंगलावादसुत्त में उसी प्रकार देखे जा सकते हैं। इसमें उन उपदेशों का संग्रह हुआ है जिन्हें बुद्ध ने साधारण गृहस्थों के लिए अनुकरणीय बताया था।

इसी कारण इस सुत्त को ‘गिहिविनय’ (गृहस्थियों के लिए उपदेश ) भी कहा गया है। इसमें भी माता-पिता की सेवा, गुरुओं का सम्मान, मित्रों, संबंधियों, परिचितों तथा ब्राह्मण-श्रवण-साधुओं के साथ उदारता और दास-भत्यों के साथ उचित व्यवहार करने का उपदेश दिया गया है। पुनः अशोक ने धम्म पालन से प्राप्त होने वाले जिन स्वर्गीय सुखों का उल्लेख किया है उनका भी ‘विमानवत्थु’ नामक पालिग्रंथ में इसी रूप में विवरण देखा जा सकता है।

अतः इन सामानताओं को देखते हुए भण्डारकर अशोक के धम्म को उपासक ‘बौद्धधर्म’ ( Buddhism for the Laity ) कहते हैं। यही मत सर्वाधिक तर्कसंगत तथा संतोषप्रद लगता है। इस निष्कर्ष की पुष्टि उसके प्रथम लघु शिलालेख से भी हो जाती है जिसमें वह कहता है कि ‘संघ के साथ संबंध हो जाने के बाद उसने धम्म के प्रति अधिक उत्साह दिखाया।’ यदि अशोक के लेखों का धम्म बौद्ध धर्म नहीं होता तो बौद्ध ग्रंथ तथा कथानक कभी भी उसका चित्रण अपने धर्म के महान पोषक एवं संरक्षक के रूप में नहीं करते। इस प्रकार उपासक बौद्ध धर्म ही अशोक के धम्म का मूल स्रोत था। यही कारण है कि इसका लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति न होकर स्वर्ग की प्राप्ति बताया गया है।

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रोमिला थापर की धारणा है कि अशोक की धम्म नीति उसके द्वारा स्थापित किए गए सुविस्तृत साम्राज्य में एकता स्थापित करने के उद्देश्य से स्वीकार की गयी थी। यह एकता या तो कठोर केंद्रीय नियंत्रण या भावनात्मक एकता के द्वारा स्थापित की जा सकती थी। अशोक प्रथम मौर्य सम्राट था जिसने भावनात्मक एकता के महत्व को समझा तथा इसी को प्राप्त करने के लिए धम्म का प्रचार किया था।

थापर के अनुसार ‘अशोक ने धम्म को सामाजिक उत्तरदायित्व की एक वृत्ति के रूप में देखा था। इसका उद्देश्य एक ऐसी मानसिक वृत्ति का निर्माण करना था, जिसमें सामाजिक उत्तरदायित्वों को एक व्यक्ति के दूसरे के प्रति व्यवहार को, अधिक महत्वपूर्ण समझा जाय। इसमें मनुष्य की महिमा को स्वीकृति देने और समाज के कार्यकलापों में मानवीय भावनाओं का संचार करने का आग्रह था।

कुछ अन्य विद्वान अशोक के धम्म को एक राजनैतिक चाल समझते हैं जिसका उद्देश्य कलिंग युद्ध में हुए भारी नर-संहार से उत्पन्न जनाक्रोश को शांत करना रहा होगा। किंतु इस प्रकार के विचार कल्पना की उड़ान मात्र लगते हैं तथा तेरहवें शिलालेख से व्यक्त सम्राट की भावनाओं से तारतम्य नहीं रखते। अशोक सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का भौतिक तथा नैतिक कल्याण करना चाहता था और इसी उद्देश्य से उसने अपनी ‘धम्म नीति’ का विधान किया। इसके पीछे कोई राजनैतिक चाल खोजना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होगा।


अशोक द्वारा धम्म-प्रचार उपाय

धम्म-प्रचार के उपाय—- बौद्ध धर्म ग्रहण करने के एक वर्ष के बाद अशोक एक साधारण उपासक रहा और इस बीच उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कोई उद्योग नहीं किया। इसके पश्चात वह संघ की शरण में आया और एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक संघ के साथ रहा। इसी बीच उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए इतना अधिक कार्य किया कि उसे स्वयं यह देखकर आश्चर्य होने लगा कि बौद्ध धर्म की जितनी अधिक उन्नति इस काल में हुई उतनी इसके पूर्व कभी नहीं हुई।

उसने बौद्ध धर्म के प्रचार में अपने विशाल साम्राज्य से सभी साधनों को नियोजित कर दिया। उसके द्वारा किए गए कुछ उपाय पर्याप्त रूप से मौलिक थे। अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अपनाये गये साधनों को हम इस प्रकार रख सकते हैं——–


1- धर्म-यात्राओं का प्रारंभ- अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार धर्म–यात्राओं से प्रारंभ किया। वह अपने अभिषेक के दसवें वर्ष बोधगया की यात्रा पर गया। यह पहली धर्म यात्रा थी। इसके पूर्व वह अन्य राजाओं की भांति विहार–यात्राओं पर जाया करता था। इस प्रकार की यात्राओं से मृगया तथा दूसरे इसी प्रकार के आमोद–प्रमोद हुआ करते थे। परंतु कलिंग युद्ध के पश्चात उसने विहार यात्राएं बंद कर दी तथा धर्म यात्राएं प्रारंभ किया। इन यात्राओं में वह ‘ब्राह्मणों’ और श्रमणों का दर्शन, दान, वृद्धों का दर्शन, धन से उनके पोषण की व्यवस्था, जनपद के लोगों का दर्शन, धर्म का आदेश और धर्म के संबंध में उनसे प्रश्नादि किया करता था।—-

बाम्हणसमणानां दसने च्र दाने च थैरानं दसने च हिरंणपटिविधानों च जानपदस च जनसदस्पनं धंमानुष्टी च धमपरिपुछा च…….. — अष्टम शिलालेख.

अपने अभिषेक के बीसवें में यह लुंबिनी ग्राम गया तथा वहां का कर घटा कर 1/8 कर दिया। इसी प्रकार नेपाल की तराई में स्थित निग्लीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप को सम्वर्द्धित करवाया। अशोक के इन कार्यों का जनता के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ा और वह बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुई।


2– राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति–अशोक का साम्राज्य बहुत विशाल था। अतः यह एक व्यक्ति के लिए संभव नहीं था कि वह सभी स्थानों में जाकर धर्म का प्रचार कर सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अशोक ने अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को भी धर्म प्रचार के काम में लगा दिया। स्तम्भ-लेख तीन एवं सात से ज्ञात होता है कि उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म के प्रचार एवं उपदेश करने का आदेश दिया। ये अधिकारी यह प्रति पांचवें वर्ष अपने-अपने क्षेत्रों में दौरे पर जाया करते थे तथा सामान्य प्रशासकीय कार्यों के साथ-साथ जनता में धर्म/धम्म का प्रचार किया करते थे।


3– धर्मश्रावन तथा धर्मोंपदेश की व्यवस्था– धर्म प्रचार के उद्देश्य से अशोक ने अपने साम्राज्य में धर्म श्रावण श्रावन (धम्म सावन ) तथा धर्मोंपदेश ( धम्मानुसथि ) की व्यवस्था करवाई। उसके साम्राज्य के विभिन्न पदाधिकारी जगह-जगह घूमकर धर्म के विषय में लोगों को शिक्षा देते तथा राजा की ओर से जो धर्म-संबंधी घोषणायें की जाती थीं उनसे जनता को परिचित कराते थे।


4– धर्म महा मात्रों की नियुक्ति-अपने अभिषेक के 13 वें वर्ष बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने पदाधिकारियों का एक नवीन वर्ग बनाया जिसे धर्ममहामात्र ( धम्ममहामात्त ) कहा गया। पांचवें शिलालेख में अशोक कहता है कि “प्राचीन काल में धर्ममहामात्र कभी नियुक्त नहीं हुए थे। मैंने अपने अभिषेक के 13 वें वर्ष धर्ममहामात्र नियुक्त किए हैं।

न भूत प्रुवं धंममहामाता नामं त मया त्रैदसवासाभिसितेन धंमहामाता कता। —- पाँचवां शिलालेख.

इनका एक कार्य विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच के द्वेष-भाव को समाप्त कर धर्म की एकता पर बल देना था। उनका प्रमुख कर्तव्य धर्म की रक्षा, धर्म की वृद्धि ( धम्माधिथानाये, धम्मबढ़िया ) करना बताया गया है। धर्ममहामात्र राजपरिवार के सदस्यों से धर्म के लिए धन आदि दान में प्राप्त करते थे तथा राजा द्वारा जो धन दान में दिया जाता था उसकी समुचितं व्यवस्था करके उसे धर्म प्रचार के काम में नियोजित करते थे। इन धर्ममहामात्रों के प्रयास से धर्म की अधिकाधिक वृद्धि हुई।


5– दिव्य रूपों का प्रदर्शन– अशोक पारलौकिक जीवन में आस्था रखता था उसने धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से जनता के बीच उन स्वर्गीय सुखों का प्रदर्शन करवाया जो मनुष्य को देवत्व प्राप्त करने पर स्वर्ग लोक से मिलते हैं। इनमें विमान, हस्ति, अग्निकंध आदि दिव्य रूपों का प्रदर्शन किया गया। यह प्रदर्शन आजकल भारत के विभिन्न भागों में दशहरा एवं अन्य धार्मिक उत्सव के अवसर पर निकाली जाने वाली चौकियों के समान प्रतीत होते हैं।

इसके पीछे यह भावना थी कि मनुष्य यदि धर्मानुसरण करेगा तो वह देवत्व को प्राप्त कर स्वर्ग लोक में निवास करेगा तथा इन सुखों का उपभोग करेगा। इन प्रदर्शनों से जहां एक ओर जनता का मनोरंजन होता था वहीं दूसरी ओर पारलौकिक सुखों की लालसा से धर्म की ओर आकर्षित होती थी।


6– लोकोपकारिता के कार्य– अपने धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव तथा पशु जाति के कल्याणार्थ अनेक कार्य किये। सर्वप्रथम पशु-पक्षियों की हत्या पर रोक लगा दिया गया। इसके पश्चात उसने अपने राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मनुष्यों तथा पशुओं के चिकित्सा की अलग-अलग व्यवस्था करवाई। जो औषधियाँ प्राप्त नहीं थी उन्हें बाहर से लाकर विभिन्न स्थानों में आरोपित किया गया।

सातवें स्तंभ-लेख में अशोक हमें बताता है कि “मार्ग में मेरे द्वारा बट-वृक्ष लगाए गये। वे पशुओं और मनुष्यों को छाया प्रदान करेंगे। आम्रवाटिमायें लगाई गईं। आधे–आधे कोस की दूरी पर कुएं खुदवाये गये तथा विश्राम-गृह बनवाये गये। मनुष्य तथा पशु के उपयोग के लिए प्याऊ चलाए गए…… मैंने यह इस अभिप्राय से किया है कि लोग धम्म का आचरण करें।

उल्लेखनीय है कि बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय में फलदार वृक्ष लगवाने, पुल बंधवाने, कुआं खुदवाने, प्याऊ चलवाने आदि को महान पुण्य का कार्य बताया गया है जिसके बल पर मनुष्य स्वर्गलोक की प्राप्ति करता है।संभव है अशोक प्रेरणा का स्रोत यही रहा हो। इन सभी कार्यों का जनमानस पर अच्छा प्रभाव पड़ा होगा और वे धर्म (बौद्ध धर्म ) की ओर आकर्षित होंगे।


7– धर्म लिपियों का खुदवाना– धर्म के प्रचारार्थ अशोक ने विभिन्न शिलाओं एवं स्तंभों के ऊपर उसके सिद्धांतों को उत्कीर्ण करवा दिया। यह लेख उसके विशाल साम्राज्य के प्रत्येक कोने में फैले थे। इनके दो उद्देश्य थे—-(१) पाषाणों पर खुदे होने से यह लेख चिरस्थायी होंगे तथा (२) उसके परवर्ती पुत्र–पौत्रादि प्रजा के भौतिक एवं नैतिक लाभ के लिए उनका अनुसरण कर सकेंगे।

अयं धमं लिपि लेखापिता किंति चिरंतिस्टेय इति तथा च मे पुत्रा पोता च प्रपोत्रा च अनुवतरं सवलोकहिताय ।– षष्ठम शिलालेख.

इन लेखों में धर्म के उपदेश एवं शिक्षायें लिखी होती थी। इनकी भाषा संस्कृत न होकर पाली थी और यह है उस समय आम जनता की भाषा थी। ऐसी धर्मलिपियों ने धम्म को लोकप्रिय बनाया होगा।


8– विदेशों में धर्म प्रचारकों को भेजना– अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ विदेशों में भी प्रचारकों को भेजा। दूसरे तथा 13 वें शिलालेख में वह उन देशों के नाम गिनाता है जहां उसने अपने दूत भेजे थे। इनमें दक्षिणी सीमा पर स्थित राज्य चोल, पांड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्त एवं ताम्रपर्णि (लंका ) बताये गये हैं।

13 वें शिलालेख में पाँच यवन राजाओं के नाम मिलते हैं जिनके राज्य में अशोक ने धर्म प्रचारक भेजे थे—

(१) अन्तियोक ( सीरियाई नरेश )

(२) तुरमय ( मिस्री नरेश )

(३) अन्तिकिन ( मेसीडोनियन राजा )

(४) मग ( एपिरस ) तथा

(५) अलिकसुंदर ( सिरीन )।

अन्तियोक सीरिया का राजा एन्टियोकस द्वितीय थियोस ( ईसा पूर्व 261–246 ) तथा तुरमय मिस्र का शासक टालमी द्वितीय फिलाडेल्फस ( ईसा पूर्व 285–247 ) था। अन्तिकिन, मेसीडोनिया का एन्टिगोनस गोनाटास ( ईसा पूर्व 276–239 ) माना जाता है।

मग से तात्पर्य सीरियाई नरेश मगस ( ईसा पूर्व 350–250 ) से है।

अलिकसुंदर का तादात्म्य सुनिश्चित नहीं है। कुछ विद्वान इसे एपिरस का अलैग्जेन्डर ( ईसा पूर्व 272–255 ) तथा कुछ इसे कोरिन्थ का अलैग्जेन्डर ( ईसा पूर्व 252–244 ) मानते हैं।

भण्डारकर महोदय दूसरे समीकरण को अधिक तर्कसंगत मानते हैं। इसी शिलालेख में वह हमें बताता है कि “जहां देवताओं के प्रिय के दूत नहीं पहुंचे वहां के लोग भी धर्मानुशासन, धर्म-विधान तथा धर्म प्रचार की प्रसिद्ध सुनकर उनका अनुसरण करते हैं।” ऐसे स्थानों से तात्पर्य चीन एवं बर्मा से है किंतु रिजडेविड्स महोदय इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि अशोक के राजदूत कभी यवन राज्य में गए थे। उनके अनुसार यदि अशोक ने इन राज्यों में अपना धम्म प्रचारक भेजा भी हो तो भी उन्हें वहां कोई सफलता नहीं मिली। इसका कारण यह है कि यूनानी अपने ही धर्म से अधिक संतुष्ट थे और इस प्रकार वे किसी भारतीय धर्म को ग्रहण नहीं कर सकते थे।

अतः अशोक अपने अभिलेख में इन राज्यों में अपने धर्म प्रचार भेजने का जो दावा करता है वह मिथ्या एवं राजकीय प्रलाप (Royal Rhodomontade ) से परिपूर्ण है तथा इससे उसका अहंभाव सूचित होता है। यह कहा जा सकता है कि यवनों ने इस बेहूदगी पर हंसी उड़ाई होगी कि ‘एक जंगली उन्हें उनका कर्तव्य बताये। यह कदापि संभव नहीं है कि एक विदेशी राजा के कहने से उन्होंने अपने देवताओं तथा अंधविश्वासों को त्याग दिया होगा।

अशोक के धम्म–प्रचारक केवल भारतीय सीमा में ही रहे।’ परंतु अशोक जैसे सदाशय एवं मानवतावादी शासक के प्रति मिथ्याचार, प्रलाप एवं अहंमान्यता का आरोप लगाना उचित नहीं प्रतीत होता। जैसा कि उसके लेखों से ध्वनित होता है, उसका उद्देश्य अपने धर्म प्रचारकों के माध्यम से यूनानी जनता को बौद्ध धर्म दिक्षित करना कदापि नहीं था। वह तो वहां रह रहे अपने राजनयिकों तथा पदाधिकारियों को आदेश देना चाहता था कि वे धर्म के प्रचार का कार्य प्रारंभ कर दें तथा उन राज्यों में लोक हितकारी कार्य जैसे—- मनुष्य तथा पशु जाति के लोगों औषधालयों की स्थापना आदि, करें।

यह सर्वथा उसकी नीतियों के अनुकूल था। हमें ज्ञात है कि सिकंदर के बाद आने वाले यवनों ने अपनी प्राचीन संस्कृति को त्याग कर भारतीय संस्कृति को ग्रहण कर लिया था। मेनान्डर तथा हेलिओडोरस इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। इसी प्रकार मिस्र के नरेश टॉलमी फिलाडेल्फस ने सिकन्दरिया में एक विशाल पुस्तकालय स्थापित किया, जिसका उद्देश्य भारतीय ग्रंथों के अनुवाद को सुरक्षित रखना था। ऐसी स्थिति में यदि अशोक के धर्म प्रचार की ख्याति को सुनकर कुछ यूनानी बौद्ध बन गये हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।

इस प्रकार कार्य का फल यह हुआ कि पश्चिमी एशिया में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार हुआ। वहां के अनेक धार्मिक संप्रदायों— ईसाई ,एसनस, राप्यूटी आदि —की रीति-रिवाजो पर बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। ईसाई धर्म के कुछ कर्मकांड तो बिल्कुल एक जैसे ही हैं। दोनों धर्मों में पाप–स्वीकृति, उपवास, भिक्षुओं का ब्रह्मचारी रहना, माला धारण करना आदि की प्रथायें हैं। चूँकि ये भारत के बौद्ध धर्म में प्राचीन काल से ही प्रचलित थीं,अतः यह निष्कर्ष स्वाभाविक है कि ईसाइयों ने इन्हें बौद्धों से ही ग्रहण किया होगा तथा यह अशोक के धर्म प्रचार के फल स्वरुप ही संभव हुआ था।


अशोक ने बौद्ध धर्म के लिए अपने पुत्र महेन्द्र और संघमित्रा को किस देश में भेजा—-

सिंहली अनुश्रुतियों—दीपवंश एवं महावंश— के अनुसार अशोक के राज्य-काल में पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति हुई। इसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्ततिस्स नामक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु ने की थी। इस संगीति की समाप्ति के पश्चात भिन्न-भिन्न देशों में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ भिक्षु भेजे गये जिनके नाम महावंश में इस प्रकार प्राप्त होते हैं—-

धर्म प्रचारक
देश
1-मज्झन्तिक कश्मीर तथा गन्धार
2-महारक्षित यवन देश
3-मज्झिम हिमालय देश
4-धर्मरक्षित अपरान्तक
5–महाधर्मरक्षित महाराष्ट्र
6-महादेव महिषमण्डल (मैसूर/मान्धाता)
7-रक्षित बनवासी ( उत्तरी कन्नड़ )
8-सोन तथा उत्तर सुवर्णभूमि
9-महेन्द्र तथा संघमित्रा लंका

लंका में बौद्ध धर्म प्रचारकों को विशेष सफलता मिली जहां अशोक के पुत्र महेंद्र ने वहाँ के शासक तिस्स् को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर लिया तथा तिस्स ने सम्भवतः इसे राजधर्म बना लिया तथा स्वयं अशोक के अनुकरण पर उसने ‘देवनाम पिय’ की उपाधि ग्रहण कर ली।


Conclusion

इस प्रकार इन विविध उपायों द्वारा अशोक ने स्वदेश एवं विदेश में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसका फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं का अतिक्रमण कर एशिया के विभिन्न भागों में फैल गया और अब वह अंतरराष्ट्रीय धर्म बन गया। वास्तव में बिना किसी राजनैतिक और आर्थिक स्वार्थ के धर्म के प्रचार का यह पहला उदाहरण था, और इसका दूसरा उदाहरण अभी तक इतिहास में उपस्थित नहीं हुआ।

इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि बौद्ध धर्म में किसी प्रकार के कर्मकांड अथवा अंधविश्वास को स्थान नहीं था। यह एक मानवतावादी धर्म था जिसका उद्देश्य इंसान से इंसान के बीच प्रेम भाव बढ़ाना था यहां तक कि पशु पक्षियों के प्रति भी दया का भाव प्रस्तुत किया गया। अतः बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं को लांघ कर एशिया से लेकर यूरोप के विभिन्न देशों तक पहुंच गया और आज एशिया के विभिन्न देशों में यह धर्म सफलतापूर्वक उन्नति कर रहा है।


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