प्रारम्भ में जैन धर्म को बौद्ध धर्म की एक शाखा मात्र माना जाता था किंतु बाद में विद्वानों ने इस बात का पता लगाया कि जैन धर्म बौद्ध धर्म की शाखा न होकर स्वयं में एक स्वतंत्र धर्म है। दोनों मतों को एक इसलिए समझा गया क्योंकि दोनों कर्म और अहिंसा के समर्थक थे। इसी प्रकार पहले यह समझा जाता था कि बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध की तरह महावीर ही जैन धर्म के प्रवर्तक थे किंतु बाद में यह है ज्ञात हुआ कि महावीर तीर्थकरों की श्रंखला में 24 भी कड़ी थे।
जैन धर्म की पवित्र पुस्तकों से ज्ञात होता है कि इस श्रंखला की आदि कड़ी ऋषभ थे। इन्हीं के पश्चात ही 23 तीर्थकरों का आगमन हुआ था। परंपरागत विचार यह है कि ऋषभ सम्राट भरत के पिता थे। भरत भारत का पहला चक्रवर्ती सम्राट था।
जैन धर्म
जैन धर्म भारत का एक प्राचीन धर्म है जो अनेक शाखाओं और सम्प्रदायों में विभाजित है। इस धर्म के अनुयायी जैन कहलाते हैं। इस धर्म के संस्थापक भगवान महावीर थे, जिन्होंने 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में जैन धर्म की उत्पत्ति की थी।
जैन धर्म के अनुयायी अहिंसा, अनेकांतवाद और अपरिग्रह को अपनाते हैं। इसका मूल मंत्र है “अहिंसा परमो धर्म” यानी “अहिंसा ही सबसे ऊँची धर्म है”। इस धर्म के अनुयायी अनेकांतवाद का भी अपनाने का प्रयास करते हैं जो अर्थात सत्य के अनेक पहलूओं के मौजूद होने को स्वीकार करते हैं। इस धर्म के अनुयायी अपरिग्रह के अपनाने का भी प्रयास करते हैं, जिससे वे संसार में बंधन से मुक्त हो सकें।
जैन धर्म के संस्थापक कौन थे
जैन धर्म के संस्थापक ऋषभ या आदिनाथ थे। ऋषभ सम्राट भरत के पिता थे। भरत भारत के प्रथम चक्रवती सम्राट थे। लेकिन अगर जैन धर्म के वास्तविक और प्रसिद्ध संस्थापक के नाम की बात करें तो वह नाम वर्धमान महावीर था। उन्हें तीर्थंकर भी कहा जाता है। वर्धमान महावीर ने भारत में 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में जैन धर्म की स्थापना की थी। उनके शिष्यों ने उनके उपदेशों को लिखित रूप में संग्रहित किया था, जिसे “जैन आगम” या “जैन सूत्र” कहा जाता है। महावीर ने जैन धर्म के लोगों के बीच स्थापित किया।
जैन धर्म के 23 वें तीर्थकर
जैन धर्म में 23 वें तीर्थंकर का नाम “पार्श्वनाथ” (Parshvanath) है। वे 872 से 772 ईसा पूर्व में जन्मे थे और उत्तर प्रदेश के बनारस शहर में जन्मे थे। उनके माता-पिता का नाम अश्वसेन और वम्शीधर थे। पार्श्वनाथ ने धर्म और नैतिकता की शिक्षा दी और अनेक लोगों को मोक्ष की उपलब्धि तक पहुंचाया। उनकी जीवनी और उनके उपदेश जैन धर्म के महत्वपूर्ण धर्मग्रंथों में समाहित हैं।
पार्श्वनाथ – पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर थे और इनकी ऐतिहासिकता सिद्ध हो चुकी है। जैकोबी ने उन्हीं को जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक माना है। चंद्रगुप्त मौर्य के समय में भद्रबाहु द्वारा लिखित कल्पसूत्र के आधार पर पार्श्वनाथ क्षत्रिय कुल के थे। बे बनारस के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। उनका विवाह सम्राट नरवर्मा की पुत्री प्रभावती से हुआ था। इस राजकुमार को जनता अत्यंत प्यार करती थी।
30 वर्ष तक गृहस्थ जीवन को भोग कर वे सन्यासी बन गए। उन्होंने 83 दिन तक समाधि लगाई और मुक्ति प्राप्त की। उन्होंने जिस परम ज्ञान को प्राप्त किया था, वह कैवल्य के नाम से प्रसिद्ध है। उनके पास 8 गण और आठ गंधार थे। 16000 श्रमण उनके अनुयाई थे और आर्य दत्त उनमें सर्वश्रेष्ठ था।
38000 भिक्षुणियों ने उनका अनुगमन किया था। 1,64000 पुरुषों और 3,27000 स्त्रियों ने उनके बताए हुए मार्ग को अपनाया । सम्मेत पर्वत के शिखर पर 100 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। कहा जाता की आठवीं शती ईसा पूर्व उनका समय था। उनकी मृत्यु महावीर की मृत्यु से 250 वर्ष पूर्व हुई थी।
जैन धर्म के 24 तीर्थकरों के नाम
(1) ऋषभ या आदिनाथ, (2) अजितनाथ (3) सम्भव (4) अभिनन्दन (5) सुमति (6) पद्मप्रभ (7) सुपाश्र्व (8) चन्द्रप्रभ (9) पुष्पदन्त (10) शीतल (11) श्रेयांस (12) वासुपूज्य (13) विमल (14) अनन्त (15) धर्म (16) शान्ति (17) कुन्थु (18) अरह (19) मल्लि (20) मुनि सुब्रत (21) नमि (22) नेमि (23) पाश्र्वनाथ और (24) महावीर ।
जैन धर्म के 24 वें तीर्थकर महावीर स्वामी का जीवन परिचय
महावीर- महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वें और अंतिम तीर्थकर थे।महावीर सवामी जन्म 599 ईसा पूर्व में वैशाली के निकट कुंडग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था, जो ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के प्रधान थे, यह वज्जि संघ का एक प्रमुख सदस्य था। महावीर स्वामी माता का नाम त्रिशला अथवा विदेहदत्ता था, जो वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी। इस तरह महावीर स्वामी मातृपक्ष से वे मगध के हर्यक वंश के राजाओं- बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के निकट सम्बन्धी थे। इस तरह राजा चेटक महावीर स्वामी के मामा थे।
महावीर के वचपन का नाम और पालन-पोषण
महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्द्धमान था। उनका लालन-पालन राजसी वातावरण में हुआ था।
महावीर स्वामी से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य |
जन्म |
599 ईसा पूर्व वैशाली के निकट कुंडग्राम में |
पिता का नाम |
सिद्धार्थ ( ज्ञातृक कुल के मुखिया ) |
माता का नाम |
त्रिशला अथवा विदेहदत्ता ( वैशाली के लिच्छवि शासक चेटक की बहन ) |
महावीर के बचपन का नाम |
वर्द्धमान |
महावीर की पत्नी का नाम |
यशोदा ( कुण्डीय गोत्र की कन्या ) |
बेटी का नाम |
अणोज्जा ( प्रियदर्शना ) |
दामाद |
जामालि ( महावीर का प्रथम शिष्य ) |
गृहत्याग |
30 वर्ष की अवस्था में ( 569 ईसा पूर्व ) |
ज्ञान प्राप्ति |
12 वर्ष ( 557 ईसा पूर्व ) की कठोर तपस्या के बाद जृम्भिक ग्राम के निकट ऋजुपलिका नदी तट पर साल वृक्ष के नीचे |
मृत्यु |
72 वर्ष की आयु ( 527 ईसा पूर्व ) में राजगृह के समीप पावा नामक स्थान पर |
कल्पसूत्र में इस बात का प्रमाण है कि वर्धमान के पिता ने अपने इस पुत्र के जन्म को अत्यंत धूमधाम से मनाया था। “इस अवसर पर टैक्स माफ कर दिए गए, लोगों की सरकार द्वारा जप्त संपत्ति उन्हें लौटा दी गई। सिपाही किसी के घर जाकर उसे पकड़ नहीं सकते थे। कुछ समय के लिए व्यापार को रोक दिया गया। आवश्यक वस्तुएं सस्ती कर दी गईं। सरकारी कर्ज और जुर्माने माफ कर दिए गए और कुंडपुर के कैदियों को इस अवसर पर छोड़ दिया गया”।
महावीर स्वामी के जन्म एवं मृत्यु की तिथि पर विवाद
महावीर के जन्म की तिथि विवाद का विषय है। परंपरा के अनुसार यह बताया जाता है कि महावीर की मृत्यु विक्रम के जन्म से 470 वर्ष पूर्व हुई थी और विक्रम का संवत 18 वर्ष पश्चात 58 वर्ष ईसा पूर्व में आरंभ होता है इस धारणा के अनुसार महावीर की मृत्यु 546 (470+58+18 ) वर्ष ईसा पूर्व ठहरती है। हेमचंद्र ने लिखा है कि चंद्रगुप्त का राज्य काल 313 वर्ष ईसा पूर्व ठहरता है। वह यह भी बतलाता है कि यह घटना महावीर की मृत्यु के 115 वर्ष बाद हुई थी।
इस प्रकार हेमचंद्र के अनुसार महावीर की मृत्यु 468 ईसा पूर्व हुई होगी। बुद्ध और महावीर समकालीन थे। अतः केवल उसी तिथि को उपयुक्त माना जा सकता है जो दोनों के अनुसार ठीक हो। बौद्ध परंपरा के अनुसार महावीर बुद्ध से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हुए थे इस तथ्य का निर्णय सारिपुत्र के के निम्नलिखित वर्णन से किया जा सकता है “मित्रों! निगांथ नतपुत्र इसी समय मृत्यु को प्राप्त हुए हैं।” सारीपुत्र बुद्ध की मृत्यु से पहले ही स्वर्ग सिधार गए थे। यह भी कहा जा सकता है कि प्रसेनजीत ने बुद्ध से कहा था कि महावीर उम्र में उनसे बड़े हैं।
महावीर स्वामी का वैवाहिक जीवन और गृहत्याग
वर्द्धमान का विवाह यशोदा से हुआ था और इन दोनों के एक कन्या ( अनोज्जा ) हुई। वर्धमान के माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका था। वर्द्धमान ने 30 वर्ष की अवस्था तक एक सुखी गृहस्थ का जीवन व्यतीत किया। अपने बड़े भाई नंदिवर्द्धन से आज्ञा लेकर वह सन्यासी हो गए। 12 वर्ष तक वह भ्रमण करते रहे। इस अवधि में उन्होंने कठोर तप भी किया।
अचरंगसूत्र के अनुसार “वह घर-बार छोड़कर नग्न घूमते रहे। लोगों ने उनका उपहास किया और उन्हें चोटें पहुंचाई, किंतु उन्होंने अपने पथ को नहीं छोड़ा। लढा ( ladha ) के लोगों ने उन्हें पकड़कर पीटा और उनके पीछे कुत्ते छोड़े। वहां के लोगों ने उन्हें पैरों और छड़ियों की चोटों से आहत किया। इतना ही नहीं मिट्टी के ढेले और ठीकरियों को फेंक कर उनका घोर अपमान किया। उन्होंने उनकी तपस्या को भंग करने के षड्यंत्र भी रचे। किंतु महावीर कभी विचलित नहीं हुए। एक योद्धा की तरह उन्होंने सभी कष्ट सहे और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते गए।
घायल अवस्था में उन्होंने कभी वैद्य औषधि की आवश्यकता महसूस नहीं की। ना तो कभी नहाया धोया और ना ही कभी अपने दांतों को साफ किया। गर्मियों में कड़ी धूप में बैठकर उन्होंने तपस्या की। उनके गले से पानी की बूंद तक न गुजरी। कभी-कभी तो वह छठे आठवें दसवें और बारहवें दिन दिन भोजन किया करते थे और बिना किसी लालच के तपस्या किए जा रहे थे।”
“12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् जृम्भिक ग्राम के समीप ऋजुपलिका नदी के तट पर एक साल के वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य ( ज्ञान ) प्राप्त हुआ। ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात वे ‘केवलिन’, ‘जिन’, ‘अर्हत’ (योग्य ) तथा निर्ग्रन्थ ( बंधन-रहित ) कहे गए। अपनी साधना में अटल रहने तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें ‘महावीर’ कहा जाने लगा।”
जैन धर्म का प्रचार
कैवल्य- प्राप्ति के पश्चात् महावीर ने अपने सिद्धांतों का प्रचार प्रारम्भ किया। वे आठ महीने तक भ्रमण करते तथा वर्षा ऋतु के शेष चार माह में पूर्वी भारत के विभिन्न नगरों में विश्राम करते। जैन ग्रंथों में कुछ प्रमुख नगरों नाम इस प्रकार दिए हैं — चम्पा, वैशाली, मिथिला, राजगृह, श्रावस्ती, अदि। वे कई बार बिम्बिसार और अजातशत्रु से भी मिले। वैशाली के लिच्छवि शासक चेटक ( महावीर का मामा ) ने जैन धर्म के प्रचार में मुख्य योगदान दिया।
महावीर स्वामी का प्रथम शिष्य
जैन धर्म से प्रभावित होकर समाज के कुलीन वर्ग के प्रमुख लोगों ने शिष्यता ग्रहण की। महावीर का प्रथम शिष्य उनका दामाद ‘जामालि’ था। राजगृह में ‘उपालि’ नामक गृहस्थ उनका प्रमुख शिष्य था। ज्ञात हो कि महावीर के कुछ अनुयायियों ने उनका विरोध किया। सर्वप्रथम उनके दामाद जामालि ने उनके कैवल्य के 14 वें वर्ष में एक विद्रोह का नेतृत्व किया। इसके दो वर्ष बाद तीसगुप्त ने विरोध किया। पर ये शीघ्र शांत हो गए।
महावीर स्वामी की मृत्यु
30 वर्षों तक अपने मत ( जैन धर्म ) का प्रचार करने के पश्चात् 527 ईसा पूर्व के लगभग 72 वर्ष की आयु में राजगृह के समीप पावा नामक स्थान अपना शरीर त्याग दिया।
जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएं
महावीर अपने पूर्वगामी तीर्थकर पार्श्वनाथ से दो बातों में भिन्न थे। पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं के लिए केवल चार व्रतों का विधान किया था — अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरी न करना ) तथा अपरिग्रह ( धन का संचय का त्याग ) । परन्तु महावीर ने इसमें एक पांचवां व्रत ब्रह्मचर्य भी जोड़ दिया था उसका पालन करना अनिवार्य बताया। दूसरी भिन्नता यह थी कि पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं को वस्त्र धारण करने की अनुमति प्रदान की परन्तु महावीर ने उन्हें नग्न रहने का उपदेश दिया।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रहतथा ब्रह्मचर्य – ये पांच महाव्रत हैं जिनका विधान जैन भिक्षुओं के पालनार्थ किया गया है ——
अहिंसा- यह जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत है जिसमें सभी प्रकार की अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है। अहिंसा के पूर्ण पालन के लिए निम्नलिखित आचारों का निर्देश हुआ है –
1- इर्या समिति- संयम से चलना ताकि मार्ग में पड़े सूक्ष्म जीव के कुचलने से हिंसा न हो।
2- भाषा समिति – संयम से बोलना ताकि कटु वचन से किसी को दुःख न पहुंचे।
3- एषणा समिति – समय से भोजन करना जिससे किसी प्रकार के सूक्ष्म जीव की हत्या न हो।
4- आदान-निषेध समिति -किसी वस्तु को उठाने तथा रखने के समय विशेष सावधानी बरतना जिससे जीव की हत्या न हो।
5- व्युत्सर्ग समिति – मल-मूत्र का त्याग ऐसे स्थान पर करना जहाँ किसी जीव की हिंसा की आशंका न रहे।
सत्य – अर्थात सदैव सत्य बोलना चाहिए। इसका आचरण इस प्रकार होना चाहिये —
1- अनुबिम भाषी – सोच-विचार कर बोलना।
2- कोह परिजानाति – क्रोध के समय शांत रहना।
3- लोभ परिजानाति – लोभ होने पर मौन रहना चाहिए।
4- हासं परिजानाति – हँसी में भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।
5- भयं परिजानाति – भय होने पर भी झूठ नहीं बोलना।
अस्तेय – इसके अंतर्गत निम्नलिखित बातें बताई गयी हैं-
1- बिना किसी के अनुमति के उसकी कोई वस्तु न लेना।
2- बिना आज्ञा किसी के घर में प्रवेश न करना।
3- गुरु की आज्ञा के बिना भिक्षा में प्राप्त अन्न को ग्रहण न करना।
4- बिना अनुमति किसी के घर में निवास नहीं करना चाहिए।
5- यदि किसी के घर में रहना हो तो बिना आज्ञा के उसकी किसी भी वस्तु का उपयोग न करना।
अपरिग्रह – इसके अनुसार किसी भी प्रकार की सम्पत्ति एकत्रित न करने पर जोर दिया गया है क्योंकि सम्पत्ति से मोह और आसक्ति का उदय होता है।
ब्रह्मचर्य – इसके अंतर्गत भिक्षु को निम्नलिखित निर्देश दिए गए हैं-
1-किसी स्त्री से बातें न करना।
2-किसी स्त्री को न देखना।
3-किसी स्त्री के संसर्ग की बात न सोचना।
4-शुद्ध एवं अल्प भोजन ग्रहण करना।
5-ऐसे घर में न रहना जहाँ कोई स्त्री अकेली रहती हो।
महावीर ने गृहस्थों के लिए उपर्युक्त व्रतों को सरल ढंग से पालन करने का विधान प्रस्तुत किया। इसी के कारण गृहस्थ जीवन के संबंध में इन्हें ‘अणुव्रत’ कहा गया है। इनमें अतिवादिता एवं कठोरता का अभाव है।
1- सम्यक् दर्शन- जैन तीर्थकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक् दर्शन या श्रद्धा है। इसके 8 अंग बताए गए हैं—- संदेह से दूर रहना, सांसारिक सुखों की इच्छा का त्याग करना, शरीर के मोहराग से दूर रहना, भ्रामक मार्ग पर न चलना, अधूरे विश्वासों से विचलित न होना, सही विश्वासों पर अटल रहना, सबके प्रति प्रेम का भाव रखना, जैन सिद्धांतों को सर्वश्रेष्ठ समझना। इनके अतिरिक्त लौकिक अंधविश्वासों, पाखंडों आदि से दूर रहने का भी निर्देश दिया गया है।
2- सम्यके ज्ञान- जैन धर्म एवं उसके सिद्धांतों का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। सम्यक् ज्ञान के पांच प्रकार बताए गए हैं—- मति अर्थात इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान, श्रुति अर्थात सुनकर प्राप्त किया गया ज्ञान, अवधि अर्थात कहीं रखी हुयी किसी भी वस्तु का दिव्य अथवा अलौकिक ज्ञान, मन:पर्याय अर्थात अन्य व्यक्तियों के मन की बातें जान लेने का ज्ञान तथा कैवल्य अर्थात पूर्ण ज्ञान जो केवल तीर्थकरों को प्राप्त है।
3- सम्यक् चरित्र- जो कुछ भी जाना जा चुका है और सही माना जा चुका है उसे कार्यरूप में परिणत करना ही समयक् चरित्र है। इसके अंतर्गत भिक्षुओं के लिए पांच महाव्रत तथा गृहस्थों के लिए 5 अणुव्रत बताए गए हैं। साथ ही साथ सचरित्रता एवं सदाचरण पर विशेष बल दिया गया है।
इन तीनों को जैन धर्म में ‘त्रिरत्न’ की संज्ञा दी जाती है। त्रिरत्नों का अनुसरण करने से कर्मों का जीव की ओर बहाव रुक जाता है जिसे ‘संवर’ कहते हैं। इसके बाद पहले से जीव में व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते हैं। इस अवस्था को ‘निर्जरा’ कहा गया है। जब जीव से कर्म का अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाता है तब वह मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। इस प्रकार कर्म का जीव से संयोग बन्धन है तथा वियोग ही मुक्ति है।
जैन धर्म का विस्तार — महावीर के जीवन -काल में ही उनके मत का मगध तथा इसके समीपवर्ती क्षेत्र में व्यापक प्रचार हो गया। मगध नरेश अजातशत्रु तथा उसके उत्तराधिकारी उदायिन ने इसके प्रचार में योगदान दिया। महावीर ने अपने जीवन-काल में एक संघ की स्थापना की जिसमें 11 प्रमुख अनुयायी सम्मिलित थे। ये गणधर कहे गये। इन्हें अलग-अलग समूहों का अध्यक्ष बनाया गया। महावीर की मृत्यु के पश्चात् केवल एक गणधर सुधर्मन जीवित बचा जो जैन संघ का उनके बाद प्रथम अध्यक्ष बना।
नन्द राजाओं के काल में भी जैन धर्म की उन्नति हुई। हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि नन्द राजा कलिंग से प्रथम ‘जिन’ की एक प्रतिमा उठा ले गया था। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भी इस धर्म का विकास हुआ क्योंकि जैन ग्रन्थों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य जैन आचार्य भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण करके उसके साथ तपस्या करने दक्षिण की ओर चला गया था।
भद्रबाहु कृत जैनकल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि महावीर के 20 वर्षों बाद सुधर्मन की मृत्यु हुई तथा उसके बाद जम्बू 44 वर्षों तक संघ का अध्यक्ष रहा। अन्तिम नन्द राजा के समय में सम्भूतविजय तथा भद्रबाहु संघ के अध्यक्ष थे। ये दोनों महावीर द्वारा प्रदत्त 14 ‘पूव्वो’ ( प्राचीनतम जैन ग्रन्थों ) के विषय जानने वाले अन्तिम व्यक्ति थे।
सम्भूतविजय की मृत्यु चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य रोहण के समय ही हुई। उनके शिष्य स्थूलभद्र हुए । इसी समय मगध मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा जिसके फलस्वरूप भद्रबाहु अपने शिष्यों सहित कर्नाटक में चले गये। किन्तु कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में ही रुक गये।
जैन धर्म का दिगम्बर और स्वेताम्बर में विभाजन
भद्रबाहु के वापस लौटने पर मगध के साधुओं से उनका गहरा मतभेद हो गया जिसके परिणामस्वरूप जैन मत इस समय ( लगभग 300 ईसा पूर्व) स्वेताम्बर तथा दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों में बंट गया। जो लोग मगध में रह गए थे, स्वेताम्बर कहलाये। वे स्वेत वस्त्र धारण करते थे। भद्रबाहु और उनके समर्थक जो नग्न रहने में विश्वास करते थे, दिगम्बर कहे गए। उनके अनुसार प्राचीन जैन-शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान केवल भद्रबाहु को ही था।
प्राचीन जैन शास्त्र चूंकि नष्ट हो गए थे अतः उन्हें पुनः एकत्र करने तथा उनका स्वरूप निर्धारित करने के लिए चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र में जैन धर्म की प्रथम महासभा बुलाई गयी। किन्तु भद्रबाहु के अनुयायियों ने इसमें भाग लेने से इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप दोनों सम्प्रदायों में मतभेद बढ़ता गया। पाटलिपुत्र की सभा में जो सिद्धान्त निर्धारित किये गए वे स्वेताम्बर सम्प्रदाय के मूल सिद्धांत बन गए।
स्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में अंतर
1- श्वेतांबर संप्रदाय के लोग श्वेत वस्त्र धारण करते हैं तथा वस्त्र धारण को वे मोक्ष की प्राप्ति में बाधक नहीं मानते। इसके विपरीत दिगंबर मतानुयायी पूर्णता नग्न रहकर तपस्या करते हैं तथा वस्त्र धारण को मोक्ष के मार्ग में बाधक मानते हैं।
2- श्वेतांबर मत के अनुसार स्त्री के लिए मोक्ष की प्राप्ति संभव है किंतु दिगंबर मत इसके विरुद्ध है।
3- श्वेतांबर मत ज्ञान-प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करने में विश्वास करता है किंतु दिगंबरों के अनुसार आदर्श साधु भोजन नहीं ग्रहण करता।
4- श्वेतांबर मत के लोग प्राचीन जैन ग्रंथों अंग, उपांग, प्रकीर्णक, वेदसूत्र, मूलसूत्र आदि को प्रामाणिक मानकर उनमें विश्वास करते हैं। किन्तु दिगम्बर इन्हें मान्यता नहीं प्रदान करते हैं।
जैन धर्म का विस्तार और संरक्षण
कालांतर में जैन धर्म का केंद्र मगध से पश्चिमी भारत की ओर स्थानांतरित हो गया। जैन धर्म में अशोक के पौत्र संप्रति को इस मत का संरक्षक बताया गया है। वह उज्जैन में शासन करता था। अतः यह जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र बन गया। जैनियों का दूसरा प्रमुख केन्द्र मथुरा में स्थापित हुआ जहाँ से अनेक अभिलेख, प्रतिमाएं, मन्दिर आदि मिलते हैं।
कुषाण काल में मथुरा जैन धर्म का एक समृद्ध केन्द्र था। कलिंग का चेदि शासक खारवेल भी जैन धर्म का महान संरक्षक था। उसने जैन साधुओं के निर्वाह के लिए प्रभूत दान दिया तथा उनके निवास के लिए गुहाविहार बनवाये। राष्ट्रकूट राजाओं के शासन काल ( 9 वीं शताब्दी ) में दक्षिण भारत में जैन धर्म का काफी प्रचार हुआ। गुजरात तथा राजस्थान में जैन धर्म 11 वीं और 12 वीं शताब्दियों में अधिक लोकप्रिय रहा।
बल्लभी की जैन सभा
जैन धर्म का स्वरूप निश्चित करने के लिए छठी शताब्दी में देवऋद्धिगणि ( छमाश्रमण ) की अध्यक्षता में सम्पन्न हुयी। इस सभा में निश्चित किये गए सिद्धांत आजतक विद्यमान है।
निष्कर्ष
जैन धर्म ने लोगों में अहिंसा एवं सदाचार का प्रचार किया तथा संयमित जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया। अनेकांतवाद ( स्याद्वाद ) का सिद्धांत विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के बीच भेदभाव मिटाकर समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाने की दिशा में एक महत्वपर्ण प्रयास माना जा सक्ला है । ऐसा करके उसने समन्वय एवं साहिष्णुता के भारतीय दृष्टिकोण को सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। यदि आज भी हम इन सिद्धान्तों का अनुकरण करें तो आपसी भेदभाव एवं धार्मिक कलह बहुत सीमा तक दूर हो जायेगा तथा संसार में शान्ति, बन्धुत्व, प्रेम एवं सहिष्णुता का साम्राज्य स्थापित होगा। इस प्रकार महावीर की शिक्षायें कुछ अंशों में आधुनिक युग में भी समान रूप से श्रद्धेय एवं अनुकरणीय हैं.