सामान्य रूप से सम्राट अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए जीन आचारों की संहिता प्रस्तुत कि उसे उसके अभिलेखों में अशोक का धम्म कहा गया है। ‘धम्म’ संस्कृत के ‘धर्म’ का ही प्राकृत रूपांतर है परंतु अशोक के लिए इस शब्द का विशेष महत्व है।वस्तुतः यदि देखा जाए तो यही धम्म तथा उसका प्रचार अशोक के विश्व इतिहास में प्रसिद्ध होने का सर्वप्रमुख कारण बना।
अशोक का धम्म
अपने दूसरे स्तंभ-लेख में अशोक स्वयं प्रश्न करता है कि—- ‘कियं चु धम्मे?’ (धम्म क्या है?)। इस प्रश्न का उत्तर अशोक दूसरे एवं सातवें स्तंभ लेख में स्वयं देता है। वह हमें उन गुणों को गिनाता है जो धम्म का निर्माण करते हैं। इन्हें हम इस प्रकार रख सकते हैं—‘अपासिनवेबहुकयानेदयादानेसचेसोचयेमाददेसाधवे च।’ अर्थात् धम्म —–
अशोक के धम्म के सिद्धांत
१– अल्प पाप ( अपासिनवे) है।
२– अत्याधिक कल्याण ( बहुकयाने ) है।
३– दया है।
४– दान है।
५– सत्यवादिता है।
६– पवित्रता ( सोचये )।
७– मृदुता ( मादवे) है।
८– साधुता ( साधवे )।
इन गुणों को व्यवहार में लाने के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक बताई गई हैं—
१– अनारम्भो प्राणानाम् ( प्राणियों की हत्या न करना)।
२– अविहिंसा भूतानाम् ( प्राणियों को क्षति न पहुंचाना)।
३– मातरि-पितरि सुस्रूसा ( माता-पिता की सेवा करना )।
४– थेर सुस्रूसा ( वृद्धजनों की सेवा करना )।
५– गुरुणाम् अपचिति ( गुरुजनो का सम्मान करना )।
६– मित संस्तुत नाटिकाना बहमण-समणाना दान संपटिपति ( मित्रों, परिचितों, ब्राहम्णों तथा श्रमणों के साथ सद्व्यवहार करना )।
७– दास-भतकम्हि सम्य प्रतिपति ( दासों एवं नौकरों के साथ अच्छा व्यवहार करना )।
८– अप-व्ययता ( अल्प व्यय )।
९– अपभाण्डता (अल्प संचय )।
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यह धर्म के विधायक पक्ष हैं। इसके अतिरिक्त अशोक के धम्म का एक निषेधात्मक पहलू भी है जिसके अंतर्गत कुछ दुर्गुणों की गणना की गई है। यह दुर्गुण व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं। इन्हें ‘आसिनव’ शब्द में व्यक्त किया गया है। ‘आसिनव’ को अशोक तीसरे स्तंभ-लेख में पाप कहता है। मनुष्य ‘आसिनव’ के कारण सद्गुणों से विचलित हो जाता है। ( उसके अनुसार निम्नलिखित दुर्गुणों से ‘आसिनव’ हो जाते हैं—