भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास एक प्रकार से कांग्रेस का ही इतिहास है। 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद से भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष मुख्यतः कांग्रेस के नेतृत्व में ही हुआ। प्रारम्भ में कांग्रेस की नीतियां उदारवादी रहीं, परिणामस्वरूप उग्रवादी विचारधारा को क्रांतिकारियों ने इस उदारवादी नीति को नकारा दिया क्योंकि इसका कोई तत्कालिक परिणाम नहीं दिखा।
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अतः 1907 में कांग्रेस दो गुटों में बंट गई- नरम दल तथा गरम दल। आज के इस लेख में हम कांग्रेस के विभाजन के लिए उत्तरदायी परिस्थियों के विषय में जानेंगे। साथ ही हम क्रन्तिकारी आंदोलन के लिए जिम्मेदार परिस्थियों का अध्ययन करेंगे।
Congress split 1907 | कांग्रेस का विभाजन 1907: और क्रांतिकारी आंदोलन का उदय
नरमपंथी अथवा उदरवादियों की ऐतिहासिक भूमिका जो 1907 तक आते-आते लगभग समाप्त हो गई। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में कांग्रेस की स्थापना हुई और जो राष्ट्रवाद को भारतीयों में जगाया वह उनकी सफलता थी।
यह उदारवादी ही थे जिन्होंने देश में नई राजनितिक चेतना जगाई और बुद्धिजीवियों तथा मध्यवर्गीय लोगों को उनके सामूहिक हितों तथा राष्ट्रीयता के प्रति सचेत किया: उपनिवेशवाद की आर्थिक अवधरणा व उसके चरित्र को जनता के सामने उजागर किया: राजनीतिक कला का प्रशिक्षण दिया और पहली बार भारतीय जनता को लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, तथा नागरिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने को प्रेरित किया। कांग्रेस के इन उदारवादी नेताओं ने एक ऐसे संगठन और नेतृत्व को जन्म दिया जिसने सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया।
नरमपंथी आंदोलन की असफलता
तमाम सकरात्मक परिणामों के बीच हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नरमपंथी नेता अनेक समय पर ब्रिटिश हुकूमत असफल भी हुए। ये उदारवादी सामान्यता मध्यवर्ग तक सिमित रहे और आम जनता की इनमें आस्था नहीं थी। उदारवादी अधिकतर धनाढ्य और शिक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। वे कभी गांव और मजदुर-किसानों के बीच नहीं गए। यही कारण था कि 1905-1907 का स्वदेशी आंदोलन और बहिष्कार इन नेताओं के हाथों में नहीं रहा।
उदारवादियों की नीति इस विश्वास पर टिकी थी कि अंग्रेजी सरकार पर दबाव डालकर राजनितिक और आर्थिक सुधार कराये जा सकते हैं। यद्यपि इन्हें आंशिक सफलता मिली। मगर ब्रिटिश हुकूमत ने इन उदारवादियों को ज्यादा महत्व नहीं दिया।
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उदारवादियों असफलता मुख्य कारण यह भी था की उन्होंने अपनी रणनीति और नीतिओं को समय के साथ नहीं बदला, जबकि परिश्थितियां निरंतर परिवर्तित हो रही थीं। वे समय की जरूरतों को पहचानने असफल रहे। उदारवादियों की निष्क्रिय नीतियों ने क्रन्तिकारी युवाओं आक्रोश भर दिया। परिणामस्वरूप कांग्रेस के भीतर ही दो गुट पनप गए, उदारवादी और उग्रवादी अथवा नरम और गरम दल।
कांग्रेस के प्रति औपनिवेशिक सरकार का रवैया
अंग्रजी सरकार प्रारम्भ से ही कांग्रेस के प्रति असमंजस में थी। यद्यपि प्रारम्भिक वर्षों में अंग्रेजी सरकार ने कांग्रेस को सहयोग किया। लेकिन जब कांग्रेस ने राष्ट्रवादी रूख अपनाना शुरू किया तो अंग्रेजी सरकार ने अपनी आँख टेढ़ी करनी शुरू कर दी। कांग्रेस ने अंग्रेजी सरकार की नीतियों की खुलेआम आलोचना शुरू कर दी। कांग्रेस की बढ़ती लोकप्रियता ने अंग्रेजी सरकार को चिंतित कर दिया।
अंग्रेजों ने कांग्रेस को राजद्रोह का कारखाना कहना शुरू कर दिया। इन उदारवादी राष्ट्रिय नेताओं को देशद्रोही, गद्दार, ब्राह्मण और अहिंसक खलनायक कहा गया।
“ये कुर्सी न मिलने से असंतुष्ट लोग हैं, जिनमें कुछ वकील हैं जो अपने सिबा किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करते।”
1887 में तत्कालीन वाइसराय लार्ड डफरिन ने कांग्रेस को मुट्ठीभर संभ्रांत लोगों का संगठन कहा। तत्कालीन गृह सचिव जॉर्ज हेमिल्टन ने कांग्रेस को दोगला और राजद्रोही कहा।
यद्पि कांग्रेस के उदारवादी नेता गरमपंथियों से खुदको अलग रखने का प्रयास कर रहे थे मगर अंग्रेजी सरकार का रवैया कांग्रेस के प्रति द्वेषपूर्ण ही रहा। 1905 में तत्कालीन वाइसराय लार्ड कर्जन ने कहा था…..
“गोखले या तो यह समझ नहीं पा रहे हैं कि वे कहाँ जा रहे हैं और यदि उन्हें यह मालूम है तो वह बेईमान हैं। भारत में राष्ट्रीय चेतना जगाने की अपील और साथ ही ब्रिटिश सत्ता के प्रति दोनों का एक साथ नहीं कर सकते।”
इसी तरह 1900 में जॉर्ज हेमिल्टन ने दादाभाई नौरोजी के बारे में कहा था…….
“आप स्वयं को अंग्रेजी हुकूमत का समर्थक बताते हैं, लेकिन जो कदम अंगेजी हुकूमत को मजबूती देने के लिए उठाये जाते हैं, और उसके जो परिणाम निकलते हैं, आप उनकी आलोचना करते हैं।”
अंग्रेजी हुकूमत को लगता था कि कांग्रेस एक कमजोर संगठन है और इसका कोई महत्व नहीं। कर्जन इस नीति का सबसे बड़ा प्रवक्ता था। 1900 में कर्जन ने कहा…..
“कांग्रेस अब लड़खड़ा रही है और जल्द ही गिरने वाली है, मेरा सबसे बड़ा मकसद भी यही है कि मेरे भारत-प्रवास के दौरान ही कॉंग्रेस का अंत हो जाते।”
1904 में कर्जन ने कांग्रेस के एक प्रतिनिधिमंडल से मिलने से इंकार कर दिया, जो कांग्रेस के लिए एक अपमान था।
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जैसे ही स्वदेशी तथा वहिष्कार आंदोलन के साथ ही गरम विचारधारा ने जोर पकड़ा अंग्रजी सरकार ने अपनी नीति परिवर्तित करते हुए उदारवादी नेताओं को गोद में बैठना की नीति अपनाई। १९०७ में नए भारत गृह सचिव जॉन मार्ले ने दमन, समझौता और उन्मूलन की नीति अपनाई। उसने उदारवादियों और चरमपंथियों में फूट डालने के उद्देश्य से दोहरी नीतियां अपनाई। नरमपंथियों को जहाँ कुछ रियायतें दी गईं तो दूसरी ओर चरमपंथियों पर दमनात्मक कार्यवाहियां की गईं।
और कांग्रेस के ये दोनों दल अंग्रेजी हुकूमत की चाल में फंस गए। 1906 में लेजिस्लेटिव कॉन्सिल में सुधारों के लिए नरमपंथियों को राजी कर लिया। लार्ड मिंटो ने कांग्रेस में फूट का बीजारोपण कर दिया। उदाहरण के तौर पर गरमपंथी नेताओं को १९२४ में स्वराजवादियों से, 1936 में नेहरू और वामपंथियों और 1942 में नरमपंथियों को हिंसक आंदोलन चलाने से दूर रखने का प्रयास किया गया।
सूरत में कांग्रेस किन परिस्थितियों में विभाजित हुई?
1905-1907 के दौरान नरमपंथियों और उग्रवादियों के बीच मतभेद सामने आए। सन 1907 में सूरत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें कांग्रेस गरम दल और नरम दल नाम के दो दलों में बंट गई। इसे सूरत विभाजन कहते हैं। 1907 के इस अधिवेशन की अध्यक्षता रास बिहारी घोष ने की थी।
विभाजन क्यों
1907 में कांग्रेस के सूरत विभाजन का कारण पार्टी में दो विचारधाराओं का जन्म था, जो 1905 के बनारस अधिवेशन में शुरू हुआ था। जब सत्र की अध्यक्षता गोपाल कृष्ण गोखले ने की, तो बाल गंगाधर तिलक ने “याचिका की नीति” का आह्वान किया। और याचना “उदारवादियों की। कड़ा विरोध किया।
तिलक का विचार था कि स्वदेशी आन्दोलन का विस्तार पूरे देश में किया जाना चाहिए और सभी वर्गों को शामिल कर एक राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू किया जाना चाहिए, लेकिन उदारवादी इसे बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे और वे इसमें अन्य दलों को शामिल करने के पक्ष में नहीं थे। .
उग्रवादी चाहते थे कि उनके प्रस्तावों को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया जाए लेकिन नरमपंथी संवैधानिक प्रक्रिया का पालन करने पर तुले हुए थे। बीच का रास्ता निकालते हुए कांग्रेस ने स्वदेशी आन्दोलन का समर्थन स्वीकार कर लिया, जिसके कारण विभाजन कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया।
कलकत्ता अधिवेशन में राष्ट्रपति के संबंध में मतभेद
दिसंबर 1906 में कलकत्ता अधिवेशन में एक बार फिर राष्ट्रपति पद को लेकर मतभेद सामने आए। उग्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक या लाला लाजपत राय को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, जबकि नरमपंथियों ने डॉ. रास बिहारी घोष के नाम का प्रस्ताव रखा। अंततः दादाभाई नौरोजी को अध्यक्ष बनाकर विवाद शांत किया गया।
इस अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार ‘स्वराज’ की बात की। इस सम्मेलन के कारण उग्रवादियों की लोकप्रियता काफी बढ़ गई और नरमपंथियों की लोकप्रियता कम हो गई। इसे देखते हुए नरमपंथियों ने महसूस किया कि उनके लिए उग्रवादी अभियानों में शामिल होना उचित नहीं है क्योंकि चरमपंथी ब्रिटिश सरकार को हटाने के लिए दृढ़ थे।
नरमपंथियों ने तर्क दिया कि उग्रवादियों के दबाव में कांग्रेस को जल्दबाजी में काम नहीं करना चाहिए जिससे भारतीयों को नुकसान हो। उदारवादी नेता उग्रवादियों को संदेह की दृष्टि से देखने लगे। उन्हें लगा कि उग्रवादियों द्वारा उठाए गए कदमों का स्वतंत्रता आंदोलन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।https://www.onlinehistory.in
1907 का सूरत अधिवेशन और कांग्रेस का विभाजन
उग्रवादी 1907 के अधिवेशन को नागपुर में आयोजित करना चाहते थे और बाल गंगाधर तिलक या लाला लाजपत राय को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन नरमपंथी अधिवेशन सूरत में कराने पर अड़े रहे और स्थानीय नेता को अध्यक्ष बनाने से इनकार कर दिया। इसके साथ ही उदारवादियों ने स्वदेशी आंदोलन को वापस लाने की वकालत शुरू कर दी। उन्होंने रासबिहारी घोष को अध्यक्ष घोषित कर दिया। इन्हीं कारणों से कांग्रेस में फूट पड़ गई।
प्रमुख उग्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर मांडले जेल (बर्मा) भेज दिया, जिससे उग्रवादी आंदोलन कुछ समय के लिए कमजोर पड़ गया, लेकिन 1914 में जब बाल गंगाधर तिलक जेल से वापस आए तो आंदोलन फिर से शुरू हो गया।
सूरत की इस घटना ने तिलक को भी हतप्रभ कर दिया। वे कभी ऐसा नहीं चाहते थे। अरविन्द घोष ने बाद में लिखा भी कि…..
“तिलक जानते थे कि कांग्रेस में विभाजन बहुत बड़ा अनर्थ होगा क्योंकी उनकी नज़र में कांग्रेस उस समय एक राष्ट्रीय आवश्यकता थी, एक राष्ट्रीय सच्चाई थी, और उससे बहुत उम्मीदें थी।”
तिलक ने इस दरार को पाटने की बाद में कोशिश भी की। अपने विरोधियों को चिट्ठी लिखकर खेद प्रकट किया, रासबिहारी घोष में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में स्वीकार किया, और कांग्रेस की एकता के लिए काम करने की इच्छा प्रकट की। लेकिन फिरोजशाह मेहता और उनके समर्थकों का अड़ियल रूख बरकरार रहा। वे सोचते थे कि जीत उन्हीं की होगी, मगर वे नहीं जानते थे कि इससे सिर्फ कांग्रेस और राष्ट्रिय आन्दोलन को नुकसान है।https://www.historystudy.in/
अंग्रेजी सरकार ने इन मतभेदों का फायदा उठाकर गरम दल के नेताओं के विरुद्ध दमनात्मक कार्यवाही शुरू कर दी। गरमपंथियों के लेखों और अख़बारों पर प्रतिबन्ध लगा दिए। तिलक को 6 वर्ष के लिए मंडल जेल भेज दिया। दूसरे प्रमुख नेता घोष को राष्ट्रीय आंदोलन से दूर रहने की शर्त पर दोषमुक्त कर दिया, घोष पांडिचेरी चले गए और अध्यात्म की राह पकड़ ली।
बिपिन चंद्र पाल ने भी अस्थाई तौर पर राजनीति से सन्यास ले लिए। लाला लाजपत राय, जो सूरत की घटना से असहाय मूकदर्शक बने हुए थे, 1908 में ब्रिटैन चले गए, १९०९ में वहां से लौटे तो अमेरिका की राह पकड़ ली। ऐसे उग्रवादी दल कमजोर पड़ गया और अंग्रेज सरकार इन्हें दबाने में कुछ समय सफल हुई।
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निष्कर्ष
इस प्रकार हम कह सकते हैं कांग्रेस के दोनों ही दल अंग्रेजों की चाल को समझने में असमर्थ रहे। अंग्रेज राष्ट्रिय आंदोलन को कमजोर करना चाहते थे जिसमें वे सफल रहे। उम्मीद है आपको यह लेख पसंद आएगा।