नेहरू ने अपना मंत्री और राजनीतिज्ञ का जीवन 2 सितंबर 1946 को भारत में अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में आरंभ किया और फिर वह 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बन गए। उस समय तक वह गांधीजी के उत्तराधिकारी तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मुखिया के रूप में स्वीकृत हो चुके थे। उनके शासन के प्रथम कुछ वर्ष पक्वनावधि (gestation)के थे। लोगों को उनसे बहुत उम्मीदें थीं परंतु जैसे-जैसे उनकी नीतियों के परिणाम सामने आने लगे, लोगों की सुखभ्रांति की निद्रा टूटने लगी।
नेहरू और पंचशील के सिद्धांत
नेहरू ने भारतीय स्वतंत्रता को संगठित करने में तथा समग्र बनाने में विशेष भूमिका निभाई। उन्होंने संसार में दोनों शक्ति गुटों (अमेरिका और रूस) के लिए एक गौण भूमिका निभाने से मनाही कर दी। परंतु उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के स्वप्न को साकार करने के लिए निरपेक्षता या गुटनिरपेक्षता तथा सहअस्तित्व के लिए पंचशील के पांच महत्वपूर्ण तत्वों की व्याख्या की और उनका प्रचार किया। इस विचार को उन्होंने फलीभूत होते देखा और मिस्र के नासिर तथा युगोस्लाविया के टीटो के साथ मिलकर संसार को अणुबम रहित बनाने और शांति स्थापित करने के लिए बेलग्रेड में कॉन्फ्रेंस की।
नेहरू और योजना आयोग
नेहरू समझते थे कि स्वतंत्रता के शक्ति स्तंभ थे- आर्थिक विकास तथा स्वावलंबन। 1950 में सरकार ने एक योजना आयोग गठित किया ताकि वह देश के शीघ्र आर्थिक विकास, सदैव विद्यमान दरिद्रता, सामाजिक न्याय तथा अत्याचार को समाप्त करने के लिए रूपरेखा प्रस्तुत कर सके। प्रथम पंचवर्षीय योजना 1951-56 और दूसरी पंचवर्षीय योजना 1957-61 के परिणाम पर्याप्त रूप से अच्छे नहीं रहे, क्योंकि शरणार्थियों की समस्या तथा सूखे ने उनके प्रयत्नों में बाधा डाली और फिर 1962 में चीन ने भारत को वह धक्का लगाया जो हम सोच भी नहीं सकते थे। परिणाम समस्त देश के विकास पर पड़ा।
नेहरू और लोकतंत्र
नेहरू ने प्रजातंत्र पर बल दिया था और देश में संसदीय व्यवस्था स्थापित की थी। उन्होंने भारत के नए संविधान के गठन में भी विशेष भूमिका निभाई थी। उन्होंने “उद्देशिका” प्रस्ताव (premble ) रखा, जिसमें भारतीय संवैधानिक व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत की गई थी। इस उद्देश्य का प्रस्ताव का प्रथम वाक्य इस प्रकार था-“हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य” बनाएंगे और हमारा संविधान 26 जनवरी 1950 से लागू हो गया।
नेहरू और संविधान
नेहरू ने 3 आम चुनावों में अपने दल ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ का नेतृत्व किया। जब देखा गया कि संविधान में कुछ त्रुटियां रह गई हैं तो समय-समय पर उनमें संशोधन भी सुझाए गए तथा नेहरू के जीवन काल में 17 संशोधन हो चुके थे ताकि बदली हुई आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों से निपटा जा सके।
नेहरू को इस तथ्य का श्रेय देना पड़ेगा कि उन्होंने भारत में प्रजातंत्र की जड़ों को सींचा और आज यह हमारी चेतना का भाग बन गया है। गत 50 वर्षों से प्रजातंत्र भारत में उत्तम रूप से कार्य कर रहा है जबकि हमारे आस पास लगभग सभी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश, मयंमार, इंडोनेशिया आदि प्रजातंत्र और सैनिक तानाशाही के विकल्प ढूंढने लगे हैं।
नेहरू और कांग्रेस
दुर्भाग्य से नेहरू ने तो एक सुधारक सिद्ध हुए और न ही एक अच्छे दल गठित करने वाले। नेहरू कांग्रेस के आंतरिक झगड़ों तथा दल के चलन पर अप्रसन्न थे। उन्होंने 1948 में लिखा था “यह अत्यंत दुख की बात है कि हम अपने मूल्यों को खोते जा रहे हैं और हम अवसरवादी राजनीति की मलिनता में धसँते जा रहे हैं। पीछे 1957 में उन्होंने कांग्रेस दल के संसद सदस्यों को यह कहा कांग्रेस दल के सदस्यों को यह कहा : कांग्रेस शिथिल होती जा रही है। हमारा सशक्त बिंदु तो हमारा भूतकाल ही है….. जब तक हम वर्तमान ढर्रे से नहीं उबरेंगे तब तक हमारे दल का विनाश निश्चित है।“
जब 1962 के आम चुनाव में कांग्रेस दल की वोट प्रतिशत और भी कम हो गई तो पंडित नेहरू ने मद्रास (आधुनिक तमिलनाडु ) के मुख्यमंत्री श्री के० कामराज की सहायता से कांग्रेस दल की विश्वसनीयता को पुनः स्थापित करने के लिए एक हताश प्रयत्न किया। इस कामराज योजना के अधीन 6 संघीय मंत्रियों- मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री, जगजीवन राम, एस०के० पाटिल बी० गोपाल रेड्डी तथा के०एल० श्रीमाली ने तथा 6 मुख्यमंत्रियों ने अपने-अपने पदों को त्यागकर कांग्रेस को पुनः संगठित करने का प्रयत्न किया।
जनवरी 1964 में कामराज कांग्रेस के संगठन में कार्य करने लगे। दुर्भाग्यवश दल में कोई विशेष उत्साह दिखाई नहीं दिया क्योंकि जिन मुख्यमंत्रियों ने त्यागपत्र दिए थे वे अपने-अपने क्षेत्र में जोड़ तोड़ शक्ति की राजनीति में लगे हुए थे। नेहरू को स्वयं भी जनवरी 1964 में पक्षाघात हो गया था और इसलिए वे स्वयं भी किसी बड़े प्रयास में भाग नहीं ले सकते थे। संभवत: उनमें न तो उत्साह था और न ही शक्ति।
नेहरू की अंतररष्ट्रीय विफलता
संभवत नेहरू की सबसे बड़ी असफलता अंतरराष्ट्रीय संबंधों में थी। उन्होंने अपनी विदेश नीति बड़े जोर शोर से आरंभ की थी परंतु अब वह ‘रें रें’ करके समाप्त हो रही थें। वह बिना सोचे समझे कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए थे तथा शांति स्थापित होने के पश्चात कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का प्रस्ताव भी रखा था।
यह कहना कठिन है कि ऐसा उन्होंने लॉर्ड माउंटबेटन के सुझाव पर किया था अथवा अपने भावावेश में। परंतु उत्तरदायित्व उन्हीं पर है। इसी प्रकार भारत चीन सीमा विवाद के प्रश्न पर भी यह कहना कठिन है कि ऐसा उन्होंने अपने सैनिक कमांडरों के कहने पर अथवा अपने राजनीतिक सलाहकारों के कहने पर अथवा अपने मानसिक आदर्शवाद के आवेश में किया था।
जो भी हो उनकी अपनी ख्याति के लिए परिणाम तो घातक ही सिद्ध हुआ। वह भारत के लिए दोनों ऐसी समस्याएं छोड़ गए जिन्हें सुलझाना कठिन है और जिनका प्रणाम हम आज भी भुगत रहे हैं। यद्यपि मोदी सरकार धारा 370 हटाकर समस्या को अब सुलझाने का प्रयास किया है। परन्तु अब भी आतंकवाद ने इसमें रोड़े अटकाए हैं।
नेहरू का इतिहास में स्थान
यदि हमें नेहरू का भारत के इतिहास में स्थान पर विचार करना हो तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेज भारत में नितांत निर्धनता तथा कृषि और उद्योग में अत्यधिक पिछड़ापन छोड़ गए थे। वास्तव में अंग्रेजों ने साम्राज्यवादी विचारधारा भी गठित की थी जिसमें भूस्वामीवाद, राजनीति पर आधारित जातिवाद ( अर्थात कुछ जातियों का विशेष संरक्षण अथवा रियायतें ) साम्प्रदियकता और क्षेत्रवाद तथा विकृत आधुनिकता भी सम्मिलित थी। इन सब से निपटना बड़ी भारी चुनौती थी।
विश्व युद्ध के उपरांत संसार का गुटों में बंटना एक चुनौती थी। इन सभी कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिए नेहरू ने अपना भरसक प्रयत्न किया। परंतु उनकी उपलब्धियां बहुत उल्लेख में नहीं हो सकीं। वास्तव में गांधी जी द्वारा संसार में प्राप्त नैतिक साख का परिवेश भी अब फीका पड़ गया था।
निष्कर्ष
जो भी हो भारतीय इतिहास में नेहरू को एक माननीय नायक का स्थान प्राप्त है। उन्हें कई क्षेत्रों में गति स्थापित करने वाला मापदंड माना जाएगा, विशेषकर लिंग, जाति तथा वर्ग को समान अधिकार देने के लिए। मत भूलो कि भारत में छुआछूत प्रचलित थी। शूद्रों को कुछ मंदिरों की बात तो छोड़ दो उन्हें कुछ सार्वजनिक स्थानों पर भी जाने की अनुमति नहीं थी। स्त्रियों को पिता की संपत्ति में अधिकार नहीं था। बहू पत्नी प्रथा मुसलमानों में तो अभी है परंतु हिंदुओं में भी थी।
इस मध्ययुगीन समाज को बदलने के लिए कानून बनाने में उनका बड़ा योगदान था। यद्यपि इसके पीछे सबसे बड़ा योगदान डॉ० अम्बेडकर का था। हजारों वर्षों से दबे, शूद्र, स्त्रियों तथा जनजातियों को वैधानिक संरक्षण देने का श्रेय इन्हीं को है। ठीक है कि स्वामी दयानंद आदि 19वीं शताब्दी के सुधारकों ने इसके लिए भूमिका प्रस्तुत कर दी थी। परंतु सम्भवतः यह पुस्तकों में ही बंद रह जाती यदि उनको संवैधानिक रूप न दिया जाता है। जो भी हो उनका योगदान भारतीय इतिहास में अविस्मरणीय रहेगा।
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