स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तर भारतीय क्रांतिकारियों का योगदान, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, असफाक उल्ला खान, सुखदेव और राजगुरु

स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तर भारतीय क्रांतिकारियों का योगदान, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, असफाक उल्ला खान, सुखदेव और राजगुरु

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Last updated on April 18th, 2023 at 05:35 pm

भारत को आज़ाद कराने में क्रांतिकारियों का योगदान सबसे ज्यादा है, ये क्रन्तिकारी ही थे जिनके कार्यों ने अंग्रेजों के मन में भय उत्पन्न किया। ऐसे महान क्रांतिकारियों को आज हम इस ब्लॉग के माध्यम से याद करेंगे। ये क्रन्तिकारी बिना किसी स्वार्थ के देश की आज़ादी की खातिर फांसी पर चढ़ गए। 

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स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तर भारतीय क्रांतिकारियों का योगदान
photo credit- www.youtube.com/watch?v=G4uGgDOmSZM

स्वतंत्रता आंदोलन

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, जिसका उद्देश्य भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्त करना था, ने विभिन्न क्रांतिकारी गतिविधियों को देखा जिन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे उल्लेखनीय क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने के लिए बमबारी और हत्याओं सहित विरोध के साहसिक कार्य किए। वे सशस्त्र प्रतिरोध में विश्वास करते थे और अपनी बहादुरी के कार्यों से जनता को प्रेरित करने की कोशिश करते थे। ये क्रांतिकारी देशभक्ति की भावना और पूर्ण स्वतंत्रता की इच्छा से प्रेरित थे। जबकि उनके तरीके विवादास्पद और विवादित थे, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान ने स्वतंत्रता के संघर्ष के पाठ्यक्रम को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

भारत में क्रन्तिकारी आंदोलन की शुरुआत

कांग्रेस की उदारवादी नीति से बहुत से युवा सहमत नहीं थे। युवा ब्रिटिश सरकार को उसी की भाषा में जवाब देना चाहते थे और इस उद्देश्य पूर्ति के लिए सर्वप्रथम भारत के क्रांतिकारियों ने संगठित होना प्रारम्भ किया। इन क्रांतिकारियों की प्रेरणा थे पुराने क्रन्तिकारी – रामप्रसाद बिस्मिल, योगेश चटर्जी और शचीन्द्रनाथ सान्याल।

शचीन्द्रनाथ सान्याल की पुस्तक ‘बंदी जीवन’ क्रांतिकारियों के लिए किसी ग्रन्थ से कम नहीं थी। इस पुस्तक को अनेक भाषाओँ में प्रकाशित किया गया। अक्टूबर 1924 में इन क्रन्तिकारी युवाओं का एक सम्मलेन कानपुर में हुआ और ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक असोसिएशन ( अथवा सेना )’ का गठन किया गया। इस क्रन्तिकारी संगठन का उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता को उखड़ फेंकना था और एक संघीय गणतंत्र ‘संयुक्त राज्य भारत’ ( यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया ) की स्थापना करना था।

किसी भी संघर्ष को छेड़ने से पहले उसके विषय में जागरूकता फैलाना आवश्यक था इसलिए क्रंतिकारियों ने सबसे पहले साहसी देशप्रेमी युवाओं को अपने संगठन में शामिल किया और प्रशिक्षण के साथ हथियार भी एकत्र किया जाना आवश्यक था।

काकोरी काण्ड 9 अगस्त 1925

क्रांतिकारियों गतिविधियों को अंजाम देने के लिए धन की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ ( एच. आर. ए. ) ने पहली बड़ी कार्यवाही को काकोरी में अंजाम दिया। सरकारी खजाना लूटने की इस प्रसिद्ध घटना को ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है। दस क्रांतिकारियों के एक दल ने

“9 अगस्त 1925 को लखनऊ से 16 किलोमीटर दूर एक गांव ‘काकोरी’ में 8 डाउन रेलगाड़ी ( सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली पैसेंजर ट्रैन ) को रोककर सरकारी खजाने को लूट लिया। यह खजाना रेल विभाग का था।”  


अंग्रेज सरकार इस घटना से अत्यंत कुपित हुई और बहुत बड़ी संख्या में युवकों को गिरफ्तार किया गया ( करीब 40 युवा गिरफ्तार किये गए ) । गिरफ्तार युवकों पर मुकदमा चलाया गया।

काकोरी कांड में किन क्रांतिकारियों को फांसी हुयी

काकोरी कांड में गिरफ्तार किये गए प्रमुख क्रंतिकारियों- अशफाकउल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी के अतिरिक्त दुर्गा भगवती चंद्र वोहरा, सचींद्र बख्शी, चंद्रशेखर आजाद, विष्णु शरण डबलिश, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुंदी लाल, शचींद्रनाथ सान्याल एवं मन्मथनाथ गुप्ता शामिल थे। उनमें से 29 के अलावा बाकी को छोड़ दिया गया। 29 लोगों के खिलाफ स्पेशल मैजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा चलाया गया।

अप्रैल, 1927 को अंतिम फैसला सुनया गया। राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खान, राजेंद्र लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दी गयी चार को आजीवन कारावास की सजा देकर अंडमान भेज दिया और 17 अन्य को लम्बी सजाएं सुनाई गईं। 17 दिसंबर, 1927 को राजेंद्र लाहिड़ी को पहले फांसी दी गई। फिर 19 दिसंबर, 1927 को राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी दी गई। दो लोग सरकारी गवाह बन गए थे –

      “चंद्रशेखर आज़ाद भागने में सफल रहे थे”

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किसने किया

काकोरी कांड के बाद जिस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारियों के प्रति दमनात्मक कार्यवाही की उससे एक आघात अवश्य लगा, लेकिन यह इतना बड़ा नहीं था कि क्रांतिकारियों के हौसले को तोड़ पाए। बल्कि  घटना के बाद युवाओं में क्रन्तिकारी बनने का जोश दोगुना हो गया।

उत्तर प्रदेश में विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा और जयदेव कपूर तथा पंजाब में भगत सिंह, भगवतीचरण वोहरा और सुखदेव ने चंद्रशेखर आज़ाद  के नेतृत्व में  ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ ( एच. आर. ए. ) को फिर से संगठित करने का काम शुरू किया।

9 और 10 सितम्बर 1928 को फिरोजशाह कोटला मैदान ( दिल्ली ) में उत्तर भारत के युवा क्रांतिकारियों की एक हुई।  युवा क्रांतिकारियों ने सामूहिक नेतृत्व  विश्वास करते हुए समाजवाद की स्थापना करने के लिए अपना लक्ष्य निर्धारित किया और ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ ( एच. आर. ए. ) का नाम परिवर्तित कर ‘Hindustan Socialist Republican Association’ ( एच. एस. आर. ए. ) रखा गया।

सौंडर्स की हत्या

नए संगठित युवा क्रन्तिकारी हत्या और आतंक को छोड़कर धीरे-धीरे संगठित क्रांतिकारी कार्यवाही में विश्वास करने लगे थे।  लेकिन तभी भारत में कुछ ऐसा हुआ जिसने एक बार फिरसे  क्रांतिकारियों को हत्या और आतंक के रास्ते पर चलने को मजबूर कर दिया।

1927  में ब्रिटिश सरकार ने भारत की समस्याओं को जांचने के लिए साइमन कमीशन की नियुक्ति की ( जिसके सभी सदस्य अंग्रेज थे ) थी। यह कमीशन 1928 में भारत पहुंचा। 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध करने के दौरान पंजाब के प्रसिद्ध नेता ‘लाला लाजपतराय’ पर बर्बर लाठी चार्ज किया गया जिससे उनकी मृत्यु हो गई।

युवा क्रांतिकारियों ने शेर-ए-पंजाब के नाम से मशहूर लाला लाजपतराय जैसे महान नेता की हत्या का बदला लेने का प्रण किया। 17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और राजगुरु ने लाहौर में लाला लाजपतराय पर लाठी चार्ज करने वाले पुलिस अफसर सौंडर्स की हत्या कर दी।

        हत्या  के बाद ( एच. एस. आर. ए. ) की तरफ से पोस्टर लगाए गए जिन पर लिखा था :-

 “लाखों लोगों के प्यारे नेता की सिपाही द्वारा हत्या पुरे देश का अपमान था। इसका बदला लेना युवा भारतीयों का कर्तव्य था। हमें सॉण्डर्स की हत्या का दुःख है, पर वह उस अमानवीय और अन्यायी वयवस्था का अंग था, जिसे नष्ट करने के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं।

 इस घटना के बाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट एसोसिएशन’ ने अपनी नीतियों के संबंध में जनता के बीच यह सन्देश पहुँचाने का निर्णय लिया कि उनका उद्देश्य अब बदल गया है, वह हिंसा की बजाय जनक्रांति में विश्वास रखता है।

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में बम फेंकना

ब्रिटिश सरकार इस समय जनता, प्रमुख रूप से मजदूरों के  अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के उद्देश्य से दो विधेयक —

  • ‘पब्लिक सेफ्टी बिल  और
  • ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल,  पास कराने की तैयारी कर रही थी।

इस बिल का विरोध करने के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में बम फेंकने का काम सौंपा गया। इस बम को फेंकने का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं था बल्कि बहरी अंग्रेज सरकार के कानों तक जनता के विरोध की आवाज को पहुँचाना था।  यह कोई खतरनाक बम नहीं था।  यह एक मामूली बम था। इन लोगों ने सदन में जो पर्चे फेंके उन पर लिखा था —-

“सरकार के बहरे कानों तक अपनी आवाज पहुँचाने के लिए”। बम फैंकने का उद्देश्य अपनी गिरफ्तारी देना और अदालत को अपनी विचारधार के प्रचार का माध्यम बनाना था, जिससे जनता उनके विचारों और राजनीतिक दर्शन को जान सके।

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया। बाद में भगत सिंह, सुखदेव राजगुरु और अन्य क्रांतिकारियों पर अनेक षड्यंत्रों में लिप्त होने के आरोप में मुकदमा चला। ये जोशीले युवा क्रन्तिकारी अदालत के सामने जो बयान देते, वे अगले दिन राष्ट्रीय अख़बारों में छपते। पूरे  देश में उनका प्रचार होता।

अपने सिद्धांतों पर अडिग, निडर एवं दुस्साहसी ये युवा क्रन्तिकारी रोज अदालत में ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगते हुए प्रवेश करते और बाहर निकलते थे।

     ‘साम्राजयवाद मुर्दाबाद’, ‘सर्वहारा जिन्दावाद’ के नारे अदालत में गूंजते थे। ये जोशीले निडर युवा गाते थे —

        “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है”
        “मेरा रंग दे बसंती चौला”।

ये युवा जो बेड़ियों  में जकड़े होते थे, उनके ये गीत और नारे जनता को झकझोर देते थे। ऐसे लोग भी इनके समर्थन में आ गए जो अहिंसा में विश्वास करते थे। हर भारतीय की जुबान पर भगत सिंह का नाम था।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी कब दी गई 

भारतीय इतिहास का ये सबसे दुःखद पल आया जब 23 मार्च 1931 को शाम के समय लगभग 7 बजकर 33 मिनट पर तीनों महान क्रांतिकारियों – भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को अंग्रेज सरकार ने फाँसी दे दी । फांसी की खबर से पूरा देश स्तब्ध रह गया। पूरा देश इन क्रांतिकारियों के लिए रोया ( लिखते समय मेरी आँख भी नम हो गई ), घरों में चूल्हा नहीं जला, बच्चे स्कूल नहीं गए। दूर-दराज  के गांव तक में उदासी फ़ैल गई।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी कब दी गई 

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु-फोटो prabhatakhbar.com

क्रन्तिकारी जतिन दास की मृत्यु कैसे हुई

भारतीय जनमानस के मन में अब अंग्रेज सरकार के विरुद्ध बहुत गुस्सा था। जेल में बंद  क्रन्तिकारी अनशन पर बैठे थे लेकिन अंग्रेज सरकार ने अमानवीय दशाओं को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया।

जेल में बंद कैदियों की मांग थी कि उन्हें राजनीतिक बंदी माना जाये, अपराधी नहीं। इन हड़ताली क्रांतिकारियों के लिए पुरे देश से जनसमर्थन मिल रहा था।

क्रन्तिकारी जतिन दास की मृत्यु
क्रन्तिकारी जतिन दास- फोटो विकिपीडिया

जेल बंद क्रन्तिकारी जतिन दास जो 64 दिन से अनशन पर बैठे थे 13 सितम्बर 1929 को मृत्यु हो गई। मौत की खबर सुनकर पुरे देश में शोक की लहार फ़ैल गई। उनका पार्थिव शरीर ट्रैन से लाहौर से कलकत्ता लाया गया। जहाँ भी ट्रैन रूकती हर स्टेशन पर हजारों लोगों की भीड़ इस महान क्रन्तिकारी को श्रद्धांजलि देती। कलकत्ता में उनके पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन के लिए लाखों लोगों की भीड़ एकत्र हुई। उनकी अंतिम शव यात्रा में 2 मील लम्बी लोगों की भीड़ थी। लाहौर षड्यंत्र व ऐसे ही कई अन्य मामलों में अनेक क्रांतिकारियों को लम्बी सजाएं सुनाई गईं। अनेक लोगों को अंदमान भेज दिया गया।

 भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई।  फांसी के तख्ते पर भी ये नौजवान जोश से भरे निडर होकर क्रन्तिकारी गीत गा रहे थे —-

ऐसे वीर क्रांतिकारियों को हमारा ह्रदय से नमन। यह लेख अपने मित्रों के साथ अवश्य साझा करें। जय हिन्द

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