बौद्ध संगीतियाँ-भारतीय इतिहास में महात्मा बुद्ध और उनके द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म सबसे प्रामाणिक और स्वीकार्य धर्म रहा है। तत्कालीन शासकों ने बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण दिया और भारत सहित देश विदेशों में बौद्ध धर्म ने अपनी जड़ें जमाई। इसी क्रम में चार बौद्ध दंगीतियों के आयोजन ने बौद्ध धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालाँकि इन्हीं संगीतियों में कई विवाद और विभाजनों को जन्म दिया। आज इस लेख में चार बौद्ध संगीतियों के इतिहास और उनके महत्व के बारे में जानेंगे।
बौद्ध धर्म के विकास में चार बौद्ध संगीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इन संगीतियों का आयोजन बौद्ध साहित्य, नियमों और प्रचार के लिए किया गया।
संगीति | स्थान | समय | शासक | अध्यक्षता | विशेष |
प्रथम बौद्ध संगीति | राजगृह सप्तपर्णी गुफा | 483 ईसा पूर्व | अजातशत्रु | महकस्सप | बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन |
द्वितीय बौद्ध संगीति | वैशाली, बालुकाराम विहार | 383 ईसा पूर्व | कालाशोक | सुबुकामी | बौद्ध संघ का स्थविर और महासंघिक में विभाजन |
तृतीय बौद्ध संगीति | पाटलिपुत्र | 247 ईसा पूर्व | सम्राट अशोक | मोगलिपुत्ततिस्य | तीसरे पिटक अभिधम्म को जोड़ा गया |
चतुर्थ बौद्ध संगीति | कुण्डलवन कश्मीर /जालंधर | 102 ईस्वी | कनिष्क | वसुमित्र- अध्यक्ष अश्वघोष- अध्यक्ष | हीनयान और महायान में बौद्ध धर्म का विभाजन |
बौद्ध संगीतियाँ
प्रथम बौद्ध संगीति-483 ईसा पूर्व
प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन महात्मा बुद्ध के निर्वाण 483 ईसा पूर्व के तुरंत बाद राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में किया गया। इसका आयोजन मगध के शासक अजातशत्रु द्वारा कराया गया था। इस संगीति की अध्यक्षता महकस्सप ने की। इस संगीति में बुद्ध के प्रिय शिष्य आनंद और उपलि ने भी प्रतिभाग किया। इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं को लिखित रूप में संकलित किया गया। इन शिक्षाओं को सुत्त और विनय नाम के दो पिटकों में विभाजित किया गया। आपको बता दें कि महात्मा बुद्ध के प्रिय शिष्यआनंद और उपलि क्रमश धर्म और विनय के प्रमाण माने गए हैं।
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द्वितीय बौद्ध संगीति-283 ईसा पूर्व
द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन महात्मा बुद्ध की मृत्यु यानी महापरिनिर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् 383 ईसा पूर्व में किया गया। इस संगीति का आयोजन मगध के तत्कालीन शासक कालाशोक ने वैशाली के बलुकाराम विहार में कराया था। इस संगीति की अध्यक्षता सुबुकामी ने की। इस संगीति में बौद्ध भिक्षुओं में निम्न बातों को लेकर मतभेद उत्पन्न हो गए-
दोपहर के भोजन के बाद विश्राम करना।
भोजन के पश्चात् छाछ पीना।
ताड़ी पीना।
गद्देदार विस्तार का प्रयोग।
सोने चांदी का दान ग्रहण करना।
इन विवादों को लेकर बौद्ध भिक्षु दो पक्षों में बंट गए। जो भिक्षु परिवर्तन के पक्ष में थे वे महासांघिक यहां सर्वास्तिवादी [पूर्वी भिक्षु या वज्जिपुत्र] कहलाये। इन नए परिवर्तनवादी बौद्धों के अनुसार जीव की उत्पत्ति 9 धर्मों से हुई है। इनका मानना था कि दृश्य जगत के सारभूत अंश पूर्णतया क्षणिक या नश्वर नहीं हैं, बल्कि अव्यक्त रूप में सदैव उपस्थित रहते हैं। इनका नतृत्व वैशाली में महाकस्सप ने किया। इन परिवर्तनों के विरोधी भिक्षु स्थविर अथवा थेरावादी [पश्चिमी भिक्षु] कहलाये। विरोधी गुट का नेतृत्व उज्जैन में महाकच्चायन ने किया। बौद्ध संघ में उठे इस विवाद ने उत्तरोत्तर विभेद का विस्तार किया और आगे चलकर दोनों सम्प्रदाय अठारह उप-सम्प्रदायों में विभाजित हो गए।
तृतीय बौद्ध संगीति 247 ईसा पूर्व
तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन बुद्ध के मृत्यु के 236 वर्ष पश्चात् 247 ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र में असोकाराम विहार में सम्राट अशोक के द्वारा कराया गया। इसी संगीति में तीसरे पिटक अभिधम्म का जोड़ा गया और इस पिटक के ग्रन्थ कथावात्तु का संकलन किया गया। इस संगीति की अध्यक्षता मोगलिपुत्ततिस्य ने की। इस संगीति में स्थविर सम्प्रदाय का ही बोलबाला था।
चतुर्थ बौद्ध संगीति 102 ईस्वी
चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के 585 वर्ष पश्चात् कश्मीर के कुण्डलवन अथवा जालंधर में सम्राट कनिष्क के शासनकाल में आयोजित किया गया। इस संगीति की अध्यक्षता वसुमित्र ने की और अश्वघोष इसके उपाध्यक्ष थे। इस संगीति में महासंघिकों का बोलबाला था। विभषाशास्त्र नामक एक अन्य बौद्ध ग्रन्थ की रचना इसी संगीति में हुई। संस्कृत भाषा को इसी संगीति में बौद्ध संघ द्वारा एक भाषा के रूप में मान्यता दी गई। इसी संगीति में बौद्ध संघ दो सम्प्रदायों में स्पष्ट रूप से विभाजित हो गया प्रथम- हीनयान और दूसरा महायान। हीनयान में मुख्य रूप से स्थविरवादी और महायान में महासंघिक थे।
निष्कर्ष
बौद्ध धर्म अपने उदय के बाद सदियों तक भारत में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करता रहा। हर शताब्दी में अनेक शासकों ने बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म के रूप में आश्रय दिया। अजातशत्रु, कालाशोक, सम्राट अशोक, कनिष्क और आगे चलकर हर्ष वर्धन ने बौद्ध धर्म को प्रश्रय दिया। ये बौद्ध संगीतियाँ ही थीं जिन्होंने समय समय पर बौद्ध धर्म में सुधार और परिवर्तन के साथ बौद्ध साहित्य के सृजन को अवसर प्रदान किये। लेकिन शने-शने बौद्ध संघ में भ्रष्टाचार और चारित्रिक पतन ने बौद्ध धर्म को अत्यधिक हानि पहुंचाई और ब्राह्मण वर्ग के नवीन उत्थान ने नए रूप में हिन्दू धर्म को पुनर्जीवित किया। इसके बाद बौद्ध धर्म भारत में अपनी पहचान खोता चला गया।