बुद्ध का जीवन और शिक्षाएं: जीवन और शिक्षा, सिद्धांत, अष्टांगिक मार्ग, बौद्ध संगीतियाँ, उपासक, साहित्य, पतन के कारण

बुद्ध का जीवन और शिक्षाएं: जीवन और शिक्षा, सिद्धांत, अष्टांगिक मार्ग, बौद्ध संगीतियाँ, उपासक, साहित्य, पतन के कारण

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बौद्ध धर्म प्राचीन भारत में 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में सिद्धार्थ गौतम द्वारा स्थापित एक धर्म और दर्शन है, जिन्हें महात्मा बुद्ध के नाम से भी जाना जाता है। यह चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग पर आधारित है, जिनका उद्देश्य दुख को समाप्त करना और ज्ञान प्राप्त करना है।

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बुद्ध का जीवन और शिक्षाएं: जीवन और शिक्षा, सिद्धांत, अष्टांगिक मार्ग, बौद्ध संगीतियाँ, उपासक, साहित्य, पतन के कारण

बुद्ध का जीवन और शिक्षाएं

बौद्ध धर्म पूरे एशिया में फैल गया, चीन, जापान और थाईलैंड जैसे देशों में एक प्रमुख धर्म बन गया। आज, दुनिया भर में इसके करोड़ों अनुयायी हैं और इसे विश्व के प्रमुख धर्मों में से एक माना जाता है जो अहिंसा के सिद्धांत का पालन करता है।

विषय सूची

बौद्ध शिक्षाओं का केंद्र नश्वरता की अवधारणा और यह अहसास है कि सभी चीजें अन्योन्याश्रित हैं और लगातार बदलती रहती हैं। बौद्ध जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र में विश्वास करते हैं, और जागरूकता, करुणा और ज्ञान की खोज करके ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं।

बौद्ध धर्म किसी ईश्वर की पूजा पर आधारित नहीं है, बल्कि व्यक्तिगत प्रयास और व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित है। बौद्ध धर्म में ध्यान और सचेतनता केंद्रीय प्रथाएं हैं, जो अनुयायियों को अंतर्दृष्टि विकसित करने और स्वयं के भ्रम को दूर करने में मदद करती हैं।

महात्मा बुद्ध का जीवन परिचय

नाम गौतम बुद्ध
वास्तविक नाम सिद्धार्थ (गोत्रीय अभिधान-गौतम)
जन्म 563 ई0पू0
जन्म-स्थान लुम्बिनी (कपिलवस्तु के निकट नेपाल की तराई में)
पिता का नाम शुद्धोधन (कपिलवस्तु के शाक्य गण के प्रधान)
माता का नाम माया देवी अथवा महामाया (कोलिय वंश की कन्या )
पालन-पोषण मौसी महाप्रजापति गौतमी द्वारा
पत्नी का नाम यशोधरा ( शाक्य कुल की)
संतान एक पुत्र राहुल
मृत्यु 483 ई०पू० (मल्लों की राजधानी कुशीनगर में)
उदय का कारण मुख्यत उत्तर-पूर्व में एक नवीन प्रकार की आर्थिक व्यवस्था का प्रादुर्भाव होना।

गौतम बुद्ध

गौतम बुद्ध का जन्म नेपाल के लुंबिनी में लगभग 563 ईसा पूर्व में या 566 ई० पू० में कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी ग्राम के आम्र-कुंज में हुआ था। उनका जन्म एक शाही परिवार में हुआ था, और उनके पिता शुद्धोधन शाक्य वंश के राजा थे। जन्म के 7वें दिन उनकी माता का देहावसान हो गया। अतः इनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने इनका पालन-पोषण किया।

बुद्ध का 80 वर्ष की आयु में लगभग 483 ईसा पूर्व कुशीनगर, भारत में निधन हो गया। इस घटना को महापरिनिर्वाण या अंतिम मृत्यु के रूप में जाना जाता है। बौद्ध परंपरा के अनुसार, उन्होंने 35 वर्ष की आयु में पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया और अपने जीवन के शेष 45 वर्ष अध्यापन और अपनी शिक्षाओं के प्रसार में बिताए, जब तक कि उनकी मृत्यु नहीं हो गई।

कालदेव तथा ब्राह्मण कौण्डिन्य ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक एक महान चक्रवर्ती राजा अथवा महान संन्यासी होगा। सिद्धार्थ अल्पायु से ही गंभीर व्यक्तित्व के थे। वे जम्बू वृक्ष के नीचे प्रायः ध्यान मग्न बैठे रहते थे। 16 वर्ष की आयु में इनका विवाह यशोधरा ( इनके अन्य नाम गोपा, बिम्बा तथा भद्रकच्छा भी हैं) से कर दिया गया। इनसे राहुल नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

गौतम बुद्ध के जीवन सम्बन्धी चार दृश्य अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, जिन्हें देखकर उनके मन में वैराग्य की भावना उठी-

1. वृद्ध व्यक्ति को देखना

2. बीमार व्यक्ति को देखना

3. मृत व्यक्ति को देखना

4. प्रसन्न मुद्रा में संन्यासी को देखना

निरंतर चिंतन में डूबे सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग दिया। बौद्ध ग्रंथों में इस घटना को महाभिनिष्क्रमण कहा गया है।

बुद्ध के सारथी का नाम चाण (चन्ना) तथा घोड़े का नाम कन्थक था, जो इन्हें रथ द्वारा महल से कुछ दूर ले जाकर छोड़ आया। बुद्ध सर्वप्रथम अनुपिय नामक आम्र-उद्यान में एक सप्ताह तक रहे। इसके बाद मगध की राजधानी राजगृह पहुँचे, जहाँ का शासक विम्बसार था। वैशाली के समीप बुद्ध की मुलाकात आलार कालाम नाम संन्यासी से हुई जो सांख्य दर्शन का आचार्य था। राजगृह के समीप इनकी मुलाकात रुद्रक रामपुत्र नामक धर्माचार्य से हुई।

तदुपरान्त वे उरुवेला (बोध गया) पहुंचे तथा निरंजना नदी के तट पर एक वृक्ष के नीचे तपस्या की। इनके साथ 5 ब्राह्मण संन्यासी भी तपस्या कर रहे थे। इनके नाम थे कौण्डिन्य, ओज, अस्सजि, बप्प और भद्दिय

जातक कथाओं से ज्ञात होता है कि उरुवेला के सेनानी की पुत्री सुजाता द्वारा लायी गई भोज्य सामग्री को ग्रहण कर लेने के कारण पाँचों ब्राह्मण इनका साथ छोड़कर ऋषिपत्तन (सारनाथ) चले गए। बुद्ध उरुवेला से गया पहुंचे और वहाँ एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा लगायी। 8वें दिन उन्हें ज्ञान (बोधि) की प्राप्ति हुई (बैशाख पूर्णिमा के दिन) और ये बुद्ध कहलाए। उन्हें तथागत नाम से भी सम्बोधित किया गया जिसका अर्थ है- सत्य है ज्ञान जिसका (बुद्ध का एक नाम शाक्यमुनि भी है)।

बुद्ध की प्रथम यात्रा-सारनाथ में प्रथम उपदेश

ज्ञान प्राप्ति के बाद बोध गया में ही इन्होंने दो बंजारों तपस्सु और भल्लिक को अपना सेवक बना लिया।

सर्वप्रथम बुद्ध गया से ऋषिपत्तन या मृगदाव (सारनाथ) पहुँचे जहाँ पहले से ही पाँचों ब्राह्मण मौजूद थे। यहीं पर कुछ ने अपना प्रथम उपदेश इन्हीं पाँचों ब्राह्मणों को दिया। इस घटना को धर्मचक्रप्रवर्तन कहा गया।

फिर बुद्ध वाराणसी आ गए तथा यश नामक श्रेष्ठिपुत्र के यहाँ रुके। यश अपनी माता, पिता, पत्नी, पाँच मित्र व अन्य 50 लोगों के साथ महात्मा बुद्ध का शिष्य बन गया।

यश की माता तथा पत्नी महात्मा बुद्ध की प्रथम उपासिकाएं बनीं।

काशी से बुद्ध पुनः सारनाथ आ गए। ज्ञान-प्राप्ति के बाद बुद्ध ने प्रथम वर्षा काल यहीं पर व्यतीत किया। यहाँ से वे उरुवेला की तरफ चल पड़े। मार्ग में ही इन्हें 3 धनी युवक मिले, जिनका नेता भद्र था। इन युवकों को भद्रवर्गीय कहा गया है। इन युवकों को महात्मा बुद्ध ने अपना शिष्य बना लिया। इनके नाम थे- मुख्य कश्यप, नदी कश्यप, और गया कश्यप।

उरुवेला से बुद्ध राजगृह पहुँचे जहाँ विम्बसार ने इनका स्वागत किया और इन्हें वेणुवन विहार दान में दिया। राजगृह में ही सारिपुत्र, मोद्गलायन, उपालि , अभय आदि इनके शिष्य बने यहाँ से बुद्ध लुम्बिनी पहुँचे और अपने परिवार के लोगों को उपदेश दिया। इनका चचेरा भाई देवदत्त शिष्य बन गया।

फिर ये राजगृह चले आए जहां श्रावस्ती का एक व्यापारी सुदात (अनाथ पिण्डक) आया और शिष्य बन गया एवं जेतवन नामक विहार (श्रावस्ती में स्थित) खरीदकर बुद्ध को दान में दे दिया। श्रावस्ती में एक व्यापारी की पुत्री विशाखा ने इनकी शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिए पुव्वाराम (पूर्वाराम) नामक विहार बनवाया। कोसल नरेश प्रसेनजित भी इनके शिष्य बने।

ज्ञान प्राप्ति के 8वें वर्ष वैशाली के लिच्छिवियों ने इन्हें वैशाली आने का निमन्त्रण दिया तथा इनके आदर में कुटाग्रशाला नामक विहार दान में दिया। अपने परमशिष्य आनन्द के कहने पर बुद्ध ने वैशाली में महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी। प्रजापति गौतमी ही सर्वप्रथम संघ में शामिल हुई। बाद में गौतमी की पुत्री नंदा तथा बुद्ध की पत्नी यशोधरा भी भिक्षुणी बन गई। वैशाली की प्रसिद्ध नगरवधू आम्रपाली भी शिष्या बनी।

बिम्बिसार की पत्नी छेमा भी शिष्या बन गई। कौशाम्बी का शासक उदयन बौद्ध पिण्डौला भारद्वाज के प्रभाव से बौद्ध बन गया। उसने घोषिताराम विहार भिक्षु संघ को प्रदान किया।

डाकू अंगुलिमाल शिष्य बना

ज्ञान प्राप्ति के 20वें वर्ष बुद्ध श्रावस्ती पहुंचे तथा वहाँ अंगुलिमाल नामक डाकू को अपना शिष्य बनाया। बुद्ध के सबसे अधिक शिष्य कोसल राज्य में ही हुए तथा यहीं पर उन्होंने अपने धर्म का सबसे अधिक प्रचार किया।

बुद्ध की मृत्यु 483 ईसा पूर्व

जीवन के अन्तिम वर्ष में ये अपने शिष्य चुन्द (लोहार अथवा सुनार) के यहाँ पाया पहुँचे। यहाँ सूकरमद्दव भोज्य सामग्री खाने से अतिसार (दस्त) रोग से पीड़ित हो गए। फिर ये पावा से कुशीनगर चले गए और यहीं पर सुभद्द को अन्तिम उपदेश दिया। 80 वर्ष की अवस्था में कुशीनगर में ही इनकी मृत्यु हो गई, जिसे बौद्ध ग्रंथों में महापरिनिर्वाण कहा गया है। मृत्यु के पूर्व बुद्ध ने कहा – सभी सांघातिक वस्तुओं का विनाश होता है, अपनी मुक्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करो।

बुद्ध की मृत्यु के बाद उनकी शरीर धातु के आठ भाग किए गए तथा प्रत्येक भाग पर स्तूप बनवाए गए। महापरिनिर्वाण सूत्र में बुद्ध की शरीर धातु के दावेदारों के नाम निम्नलिखित मिलते हैं-

1. मगध नरेश अजातशत्रु

2. कपिलवस्तु के शाक्य

3. वैशाली के लिच्छवि

4. वेठद्वीप के ब्राह्मण

5. अलकप्प के बुलि

6. पावा के मल्ल

7. पिपलिवन के मोरिय

8. रामग्राम के कोलिय

बुद्ध के प्रधान शिष्य

महात्मा बुद्ध के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक थी किन्तु उनके अनुपायियों में कुछ ऐसे प्रख्यात शिष्य थे जिनकी बुद्ध के निकट और बौद्ध संघ में प्रधानता थी।

1. सारिपुत्र – यह जाति से ब्राह्मण था और राजगृह का निवासी था। इसके लिये बुद्ध का कहना था “मेरे द्वारा संचालित चक्र, अनुपम धर्म चक्र को तथागत का अनुजात सारिपुत्र अनुचालित कर रहा है” इसके सदाचारी व्यक्तित्व पर मिलिन्द पन्हों अभिव्यक्ति करता है “देवताओं सहित इस सम्पूर्ण जगत के उलट जाने सूर्य और चन्द्रमा के पृथ्वी पर टूट पड़ने और पर्वतराज सुमेर के चूर-चूर हो जाने पर भी स्थविर सारिपुत्र किसी को दुःख पहुँचाने की इच्छा मन में नहीं जा सकते”

इसकी मृत्यु महात्मा बुद्ध के जीवन काल में ही हुई थी। बुद्ध ने अत्यन्त दुःखी एवं शोक संतप्त होकर कहा था “यह भिक्षु सन्तुष्ट प्रविविक्त, असंतुष्ट, उद्योगी पापनिन्दक था—- इस वीतराग, जितेन्द्रिय निर्वाण प्राप्त सारिपुत्र की बन्दना करो।

2. आनन्द – यह बुद्ध का निजी शरीर परिचारक और परम शिष्य था । यह महात्मा बुद्ध का सम्भवतः चचेरा भाई था। इसका प्रमुख योगदान स्त्रियों को संघ के सदस्य के रूप में भिक्षुणी बनाना है।

3.मोद्गल्यायन- यह राजगृह का निवासी था तथा सारिपुत्र के साथ ही बौद्ध धर्म में दीक्षित हुआ था, इसकी भी मृत्यु बुद्ध के जीवन काल में ही हो गई थी।

4. उपालि – यह नापित (नाई) पुत्र था। इसका पिता शाक्य वंश में नाई का कार्य करता था।

5. सुनीत-यह जाति का भंगी था। बुद्ध ने इसे अपना शिष्य बनाया।

6. अनिरुद्ध –यह धनाढ्य व्यापारी का पुत्र था। बुद्ध के उपदेश और निर्देश से वह वैराग्यानुरागी बना।

7. अनाथपिण्डक- वह भावस्ती का विख्यात श्रेष्ठी (व्यापारी) था। इसने चेतकुमार से जेतवन क्रम करके बुद्ध को प्रदान किया।

8. बिम्बिसार – ये मगध के शासक थे। इनकी पत्नी (छेमा) भिक्षुणी बन गई थी।

9. प्रसेनजित – ये कोशल के राजा थे। इनकी पत्नी रानी मल्लिका बुद्ध की उपासिका थी।

10. अजातशत्रु – यह बिम्बिसार का पुत्र और मगध का शासक था। यह बुद्ध का परम अनुयायी बन गया।

11. जीवक (बिम्बिसार राजवैद्य) – यह बुद्ध का अनुयायी था। इसका आयुर्वेद का ज्ञान अत्यन्त उच्च कोटि का था। इसकी माता का नाम सालवती था जो राजगृह की गणिका थी। उसके जन्म के बाद सालवती ने उसे घेरे पर फेंक दिया था। वहां से विम्बिसार के पुत्र राजकुमार अभय ने इसे प्राप्त किया। लालन पालन के पश्चात् यह अध्ययन के लिये तक्षशिला भेजा गया जहां इसने आयुर्वेद का अध्ययन किया तथा नगर के चतुर्दिक घूम कर औषधि के पौधों का ज्ञान प्राप्त किया।

12. महाकश्यप – इसका जन्म मगध के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। महात्मा बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में होने वाली बौद्ध संगीति का सभापति बना।

बौद्ध धर्मानुयायी प्रमुख स्त्रियां

1. महाप्रजापति गौतमी – यह महाराजा शुद्धोधन की पत्नी और महात्मा बुद्ध की मौसी थी। आनन्द के कहने पर बुद्ध ने इन्हें संघ में दीक्षित करने का निर्णय लिया था और तभी से बौद्ध संघ में स्त्रियाँ भी भिक्षुणी बनने लगीं।

2. यशोधरा – बुद्ध की पत्नी यशोधरा ने प्रवज्या ग्रहण की तथा संघ के नियमों का अनुपालन किया।

3. नन्दा – यह महाप्रजापति गौतमी की पुत्री और बुद्ध की बहन थी इसने भी बुद्ध से दीक्षा प्राप्त की।

4. खेमा (छेमा) – यह बिम्बिसार की पत्नी थी इसने भी प्रवज्या ग्रहण किया।

5. आम्रपाली – यह वैशाली की गणिका थी जिसने बौद्ध धर्म स्वीकार किया।

6. विशाखा – यह अंग जनपद के भद्दीय ग्राम के श्रेष्ठि की पुत्री थी इसने अपने धन को दान में दिया था जिससे श्रावस्ती में पूर्वाराम विहार का निर्माण हुआ। बुद्ध प्रायः इसी बिहार में विश्राम करते थे। विशाखा बौद्ध संघ की संरक्षिका बन गई।

बुद्ध के समसामयिक विरोधी –

बुद्ध का चचेरा भाई देवदत्त उनका विरोधी था। उसने मगध सम्राट अजातशत्रु से भी उनका विरोध कराया परन्तु बाद में उनका शिष्य बन गया। मगध, अंग कोसल आदि के ब्राह्मणों ने बुद्ध का कड़ा विरोध किया। साण दण्ड, कूट दंत, कशिभरद्वाज आदि ब्राह्मणों ने बुद्ध का विरोध किया परन्तु कशिभरद्वाज ने बाद में बुद्ध के मत के प्रति अपना आकर्षण प्रदर्शित किया।

बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त

बौद्ध धर्म का मूल आधार चार आर्य सत्य हैं। ये हैं- दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध, तथा दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा ।

दुःख- बुद्ध के अनुसार जन्म भी दुःख है, जरा (वृद्धावस्था) भी दुःख है, मरण भी दुःख है। अप्रिय मिलन भी दुःख है, प्रिय वियोग भी दुःख है, संसार को दुःखमय देखकर ही बुद्ध ने कहा था ” सब्ब दुःख” अर्थात सभी वस्तुएं दुःखमय हैं।

दुःख समुदाय – दुःख समुदाय अर्थात् दुःख उत्पन्न होने के अनेक कारण हैं। सभी का मूल अविद्या (अज्ञान) और तृष्णा (ईर्ष्या ) है। तृष्णा से ही आसक्ति तथा राग का उद्भव होता है। रूप, शब्द, गंध, रस तथा मानसिक तर्क-वितर्क आसक्ति के कारण हैं। दुःख के कारणों को प्रतीत्य समुत्पाद (इसके प्राप्त होने से यह उत्पन्न होता है) कहा गया है। इसे हेतु परम्परा भी कहा जाता है। समुत्पाद के अन्तर्गत द्वादश निदान (बारह उपाय) की अभिव्यंजना की गई है जो एक-दूसरे को उत्पन्न करने के कारण है; ये हैं-

1. अविद्या

2. संस्कार

3. विज्ञान (चैतन्य)

4. नाम रूप

5. षड्यंतन (पाँच इन्द्रियो और मन का समूह)

6. स्पर्श

7. तृष्णा

8. वेदना

9 . उपादान (सांसारिक विषयों से लिपटे रहने की इच्छा)

10 . भव ( शरीर धारण करने की इच्छा )

11 . जाति (शरीर धारण करना)

12. जरा-मरण

जीवन चक्र के इन 12 कारणों में से प्रथम दो पूर्व जन्म से संबंधित हैं तथा अंतिम दो भावी जीवन से और शेष वर्तमान जीवन से सम्बन्ध रखते हैं। यह जीवन-मरण का चक्र ! साथ समाप्त नहीं होता। मृत्यु तो नवीन जीवन के प्रारम्भ होने के कारण मात्र है। इस हेतु का अन्त करने के लिए अविद्या का अन्त आवश्यक है और ज्ञान ही अविद्या का अन्त करके व्यक्ति को निर्वाण की ओर ले जाने में समर्थ है।

प्रतीत्य समुत्पाद बौद्ध दर्शन का मूल तत्व है। अन्य सिद्धांत इसी में समाहित है। बौद्ध दर्शन का क्षण-भंगवाद भी प्रतीत्य समुत्पाद से ही उत्पन्न सिद्धांत है।

दुःख निरोध- दुःख के निरोध या निवारण के लिए तृष्णा का उन्मूलन आवश्यक है। तृष्णा या इच्छा को त्यागना ही दुःख निरोध का मार्ग प्रशस्त करता है।

दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा -आष्टांगिक मार्ग ही दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा है।

आष्टांगिक मार्ग

1. सम्यक् दृष्टि- वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ध्यान करना सम्यक दृष्टि है।

2. सम्यक् संकल्प-आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखें।

3. सम्यक् वाक्- अप्रिय वचनों का परित्याग।

4. सम्यक् कर्मान्त- दान, दया, सत्य, अहिंसा आदि सत्कर्मों का अनुसरण ।

5. सम्यक् आजीव- सदाचार के नियमों के अनुकूल जीवन व्यतीत करना।

6. सम्यक् व्यायाम – विवेकपूर्ण प्रयत्न करना ।

7. सम्यक् स्मृति- सभी प्रकार की मिथ्या धारणाओं का परित्याग कर सच्ची धारणा रखना।

8. सम्यक् समाधि- मन अथवा चित्त की एकाग्रता |

आष्टांगिक मार्गों को तीन स्कन्धों में बाँटा गया है-

1. सम्यक् दृष्टि

2. सम्यक् संकल्प

3. सम्यक वाक्

प्रज्ञा
4. सम्यक कर्मान्त

5. सम्यक् आजिव

6. सम्यक व्यायाम

शील
7. सम्यक् स्मृति

8. सम्यक् समाधि

समाधि

आष्टांगिक मार्ग के अनुशीलन से व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर होता है। बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत अधिक सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करना या अत्यधिक काया-क्लेश में संलग्न होना दोनों को वर्जित किया है। उन्होंने इस सम्बन्ध में मध्यम प्रतिपदा (मध्य मार्ग) को अपनाया।

बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्वरवादी है। यह अनात्मवादी भी है, परन्तु पुनर्जन्म की हिन्दू एवं जैन धर्म की भाँति इसमें मान्यता है। इसी के कारण कर्मफल का सिद्धान्त भी तर्कसंगत होता है। मिलिन्दपन्हों में कहा गया है कि जिस प्रकार पानी में एक लहर उठकर दूसरे को जन्म देकर स्वयं समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार कर्मफल चेतना के रूप में पुनर्जन्म का कारण होता है।

बौद्ध धर्म में निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार तथा नैतिक जीवन पर अत्यधिक बल दिया गया है। दस शीलों का अनुशीलन नैतिक जीवन का आधार है। इन दस शीलों को शिक्षापद भी कहा गया है।

दस शील या शिक्षापद

1. अहिंसा

2. सत्य

3. अस्तेय (चोरी न करना)

4. अपरिग्रह (धन संचय न करना)

5. ब्रह्मचर्य

6. दोपहर के बाद भोजन न करना

7. व्यभिचार न करना

8. मद्य का सेवन न करना

9. आरामदायक शय्या का त्याग

10. आभूषणों का त्याग

बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। निर्वाण का अर्थ है दीपक बुझ जाना अर्थात् जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना। बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण इसी जीवन में प्राप्त हो सकता है। परन्तु महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही सम्भव है।

बौद्ध दर्शन की मुख्य विशेषताएं

1- बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है।

2- बौद्ध दर्शन अन्तः शुद्धिवादी है। इसके अनुसार सभी संस्कार व्ययधर्मा है। अतः अप्रमाद के साथ मोक्ष का संपादन करें।

3- बौद्ध दर्शन नितान्त कर्मवादी है। यहाँ कर्म का आशय कायिक, वाचिक एवं मानसिक चेष्टाओ से है।

4- बौद्ध दर्शन अनोश्वरवादी है।

5- बौद्ध धर्म का पुनर्जन्म में विश्वास है।

6- बौद्ध धर्म अनात्मवादी है, परन्तु बाद में इसकी एक शाखा सामित्य ने आत्मा को माना है। बौद्ध धर्म में मानव व्यक्तित्व पंच स्कन्धों (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) से निर्मित बताया है।

बौद्ध संघ

बौद्ध धर्म में संघ का महत्वपूर्ण स्थान है। यह त्रिरत्न का एक अनिवार्य अंग है। कर्म के त्रिरत्न हैं- बुद्ध, धम्म एवं संघ। सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश देने के बाद बुद्ध ने पांच ब्राह्मण शिष्यों के साथ संघ की स्थापना की। इसके बाद यश नाम का व्यापारी संघ का सदस्य बना। बौद्ध संघ का संगठन गणतांत्रिक प्रणाली पर आधारित था।

संघ में प्रवेश पाने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग और न्यूनतम आयु 15 वर्ष होना अनिवार्य था। माता-पिता की आज्ञा के बिना कोई भी व्यक्ति इसमें प्रवेश नहीं पा सकता था अस्वस्थ, शारीरिक विकलांग, ऋणी, सैनिक और दासों का संघ में प्रवेश वर्जित था।

संघ की सभा में प्रस्ताव को नत्ति या वृति कहा जाता था, जबकि प्रस्ताव पाठ को अनुसावन कहते थे। बहुमत से पारित प्रस्ताव भूमस्किम कहा जाता था। किसी भी प्रस्ताव पर मतभेद को अधिकरण कहा जाता था।

मतभेद पर मत विभाजन (मतदान) होता था। मतदान गुल्लक (गुप्त) तथा विवतक (प्रत्यक्ष) दोनों प्रकार से होता था। सभा में बैठने की व्यवस्था करने वाला अधिकारी आसन प्रज्ञापक कहलाता था। इसकी बैठक के लिए न्यूनतम उपस्थिति (कोरम) 20 थी। जब किसी विशेष अवसर पर सभी भिक्षु-भिक्षुणियां धर्मवार्ता के लिए एकत्रित होकर धर्मवार्ता करते थे तो उसे उपोसथ कहते थे।

संघ में प्रविष्ट होने को उपसम्पदा कहा जाता था। गृहस्थ जीवन का त्याग प्रवज्या कहलाता था। प्रवज्या ग्रहण करने वाले को श्रामणेर कहते थे। श्रामणेर किसी आचार्य से शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उपसम्पदा या भिक्षुपद का अधिकारी बन जाता था। इसके लिए उसे 20 वर्ष की आयु का होना आवश्यक था। श्रामणेरों को 10 शिक्षाओं का पालन करना पड़ता था, जिसे शिक्षापद कहा जाता था।

बौद्ध धर्म के अनुयायी दो वर्गों में बंटे हुए थे-

1. भिक्षु, भिक्षुणी

2. उपासक, उपसिकाएं

गृहस्थ जीवन में रहकर ही बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों को उपासक कहा जाता था.

बौद्ध संगीतियाँ

बौद्ध धर्म के विकास में चार बौद्ध संगीतियों की प्रमुख भूमिका रही है। इन समितियों का आयोजन धार्मिक साहित्य की रचना एवं संकलन के लिए किया गया था।

प्रथम बौद्ध संगीति

स्थान राजगृह की सप्तपर्णी गुफा
अध्यक्ष महाकस्सप
शासक अजातशत्रु
समय 483 ई०पू०

महात्मा बुद्ध की मृत्यु के तुरन्त बाद 483 ई०पू० में राजगृह की सप्तपणी गुफा में यह बौद्ध संगीति आयोजित हुई।

इस समय मगध का सम्राट अजातशत्रु था। आनंद और उपलि इस सभा में उपस्थित थे। इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन हुआ तथा सुत्त और विनय नाम के दो पिटकों में विभाजित किया गया। आनन्द तथा उपालि क्रमशः धर्म और विनय हे प्रमाण माने गए।

द्वितीय बौद्ध संगीति

स्थान वैशाली का बालुकाराम विहार
अध्यक्ष सुबुकामी
शासक कालाशोक
समय 283 ई०पू०

महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 100 वर्ष बाद 283 ई०पू० में कालाशोक के समय में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ। इसकी अध्यक्षता सुबुकामी ने की।

इस संगीति में बौद्ध भिक्षुओं में कुछ बातों, जैसे दोपहर भोजन के बाद विश्राम करना, खाने के बाद छाछ पीना, ताड़ी दीना, गद्देदार बिस्तर का प्रयोग, सोने-चाँदी का दान लेना आदि को लेकर मतभेद हो गया। जो

लोग इस परिवर्तन के पक्ष में थे, वे महासांघिक या सर्वास्तिवादी (पूर्वी भिक्षु या वज्जिपुत्र) कहलाए। इसके अनुसार जीव 9 धर्मों से निर्मित है। इनकी मान्यता थी कि दृश्य जगत के सारभूत अंश पूर्णतः क्षणिक नहीं हैं, अपितु अव्यक्त रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं। इनका नेतृत्व वैशाली में महाकस्सप ने किया।

जो लोग परिवर्तन के विरोधी थे, स्थविर अथवा चेरावादी (पश्चिमी भिक्षु) कहलाए। इनका नेतृत्व उज्जैन में महाकच्चायन ने किया। बौद्ध संघ का यह विभेद बढ़ता गया तथा कालान्तर में दोनों सम्प्रदाय अठारह उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गए।

तृतीय बौद्ध संगीति

स्थान पाटलिपुत्र
अध्यक्ष मोगलपुत्तितस्य
शासक अशोक
समय 247 ई०पू०

महात्मा बुद्ध की मृत्यु के 236 वर्ष बाद 247 ई०पू० में पाटलिपुत्र के अशोकाराम विहार में अशोक के शासनकाल में तृतीय बौद्ध संगीति आयोजित हुई। इसमें अभिधम्म नामक तीसरा पिटक जोड़ दिया गया तथा इस पिटक का ग्रंथ कथावत्तु का संकलन किया गया। इस संगीति में स्थविर सम्प्रदाय का ही बोलबाला था।

चतुर्थ बौद्ध संगीति

स्थान कश्मीर का कुण्डलवन
अध्यक्ष वसुमित्र
उपाध्यक्ष अश्वपोष
शासक  कनिष्क
समय 102 ई०

महात्मा बुद्ध की मृत्यु के 585 वर्ष बाद 102 ई० में कनिष्क के शासनकाल में कश्मीर के कुण्डलवन अथवा जालंधर में चतुर्थ बौद्ध संगीति (पार्श्व के कहने से आयोजित की गई। इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की जबकि उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। इस सभा में महासंधिकों का बोलबाला इस संगीति में विभाषाशास्त्र नामक एक अन्य ग्रंथ की रचना हुई। इसी समय में बौद्धों ने संस्कृत को एक भाषा के रूप में अपना लिया।

इसी समय बौद्ध धर्म स्पष्ट रूप से हीनयान तथा महापान नामक दो सम्प्रदाय विभाजित हो गया। हीनयान में वस्तुतः स्थविरवादी तथा महायान में महासंधिक थे।

हीनयान और महायान

हीनयान महायान
हीनयान का शाब्दिक अर्थ है- निम्न मार्ग। ये लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को मूलरूप में बनाए रखना चाहते थे। हीनयान को ‘श्रावक यान’ भी कहते हैं। श्रावक उस व्यक्ति को कहा जाता है जो जीवन के क्लेश से त्रस्त होकर निर्वाण पथ पर अग्रसर होता है। महायान का शाब्दिक अर्थ है- उत्कृष्ट मार्ग। इसे ‘बोधिसत्वयान’ भी कहते हैं ये लोग बैद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शो में समय के साथ परिवर्तन अथवा सुधार चाहते थे।
हीनयान में बुद्ध को एक महापुरूष माना जाता था। महायान में बुद्ध को देवता माना जाता था।
हीनयानी मूर्तिपूजक नहीं थे। महायानी मूर्तिपूजक थे (बुद्ध की मूर्तियों को निर्मित करने का प्रथम श्रेय पहली शताब्दी ई० में मथुरा कला को दिया जाता है।)
हीनयान का आदर्श अर्हत् पद को प्राप्त करना था। जो व्यक्ति अपनी साधना से निर्वाण प्राप्त करते हैं उन्हें अर्हत् कहा जाता है। परन्तु निर्वाण के बाद उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। हीनयान व्यक्तिवादी धर्म है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिए। महायान का आदर्श बोधिसत्य है। बोधिसत्व मोक्ष प्राप्ति के बाद भी दूसरे परन्तु प्राणियों की मुक्ति का निरन्तर प्रयास करते हैं।
हीनयान में माँस खाना वर्जित है। महायान में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था।
हीनयानी कोई तीर्थ नहीं मानते। महायानी नगर तीर्थों को मानते हैं- लुम्बिनी, बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर
 इसका उद्देश्य समस्त मानव जाति का कल्याण है। महायान में पर सेवा तथा परोपकार पर बल दिया गया है।
हीनयान के ग्रंथ सामान्यतः पालिभाषा में हैं। हीनयानियों का प्रचार दक्षिण भारत, लंका, बर्मा और थाईलैंड में हुआ। महायान के ग्रंथ सामान्यतः संस्कृत भाषा में हैं। महायानियों का प्रचार-प्रसार उत्तर भारत, चीन, तिब्बत, जापान, कोरिया में हुआ।

बोधिसत्व का अर्थ

महायान का आदर्श बोधिसत्व है। बोधिसत्व ऐसे व्यक्ति हैं जो निर्वाण प्राप्त कर चुके हैं परन्तु अन्य लोगों के निर्वाण में सहायता करने के लिए आते हैं। ये मानव अथवा पशु किसी रूप में भी हो सकते है। प्रमुख बोधिसत्व निम्नलिखित हैं-

1. अवलोकितेश्वर – यह प्रधान बोधिसत्य हैं। इसे पद्मपाणि (हाथ में कमल लिए हुए) भी कहते है। इसका प्रधान गुण दया है।

2. मंजुश्री – इनके एक हाथ में खड्ग तथा दूसरे हाथ में किताब रहती है। इनका प्रमुख कार्य बुद्धि को प्रखर करना है।

3. वज्रपाणि- ये कठोर बोधिसत्व है तथा पाप एवं असत्य के संहारक है। इन्हें हाथ में बज्र लिए हुए प्रदर्शित किया गया है।

4. क्षतिग्रह- ये शुद्ध स्थानों के अभिभावक है।

5. अमिताभ- इन्हें संसार के अधिपति के रूप में दर्शाया गया है।

6. मैत्रेय– ये भावी बोधिसत्व है (कलश धारी) ।

हीनयान के सम्प्रदाय

हीनयान दो सम्प्रदायों वैभाषिक एवं सीमान्तिक में विभाजित हो गया।

1. वैभाषिक-विभाषाशास्त्र पर आधारित होने के कारण इसे वैभाषिक कहा गया। इस मत की उत्पत्ति मुख्य रूप से कश्मीर में हुई। वैभाषिक, चित्त तथा वाह्य जगत के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं; परन्तु इस मत के अनुसार वाह्य जगत का ज्ञान केवल प्रत्यक्ष से ही सम्भव है। इसी कारण इस मत को वाह्य प्रत्यक्षवाद भी कहते है। इस मत के मुख्य रूप में चार आचार्य हुए- धर्मत्रात, घोषक, वसुमित्र और बुद्धदेव ।

2. सौत्रान्तिक- इस मत का मुख्य आधार सुत्त पिटक है। अतः इसे सौत्रान्तिक कहा जाता है। सौत्रान्तिक चित्त तथा वाह्य जगत के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, परन्तु यह नहीं मानते कि जगत का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से सम्भव है। इनके अनुसार वाह्य जगत की वस्तुओं का जो हम अनुभव करते हैं वह हमारे मन के विकल्प मात्र है।

इस मत के साहित्य बहुत कम मिलते हैं। ह्वेनसांग के अनुसार कुमारलाल इस मत है आदि प्रवर्तक थे।

महायान के सम्प्रदाय –

हीनयान की भाँति ही महायान भी दो शाखाओं माध्यमिकवाद एवं विज्ञानवाद में विभाजित हो गया।

शून्यतासप्तति, विग्रहव्यावर्तनी जैसे ग्रंथो की रचना की।

1. माध्यमिकवाद या शून्यवाद – इस मत के प्रवर्तक नागार्जुन है। इन्होंने माध्यमिककारिका, शून्यतासप्तति, विग्रहव्यावर्तनी जैसे ग्रंथों की रचना की।

इस मत को सापेक्षवाद भी कहा जाता है, जिसके अनुसार प्रत्येक वस्तु किसी न किसी कारण से अपन्न हुई है। नागार्जुन ने प्रतीत्य समुत्पाद को ही शून्यता कहा है।

इस मत के दूसरे प्रभावशाली प्रचारक इनके शिष्य आर्यदेव थे। इन्होंने चतुःशतक नामक ग्रंथ लिखा। अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों में चन्द्रकीर्ति, शान्तिदेव एवं शान्तिरक्षित प्रसिद्ध थे।

2. विज्ञानवाद या योगाचार-इस मत की स्थापना ईसा की तीसरी शताब्दी में मैत्रेय या मैत्रेयनाथ ने की थी। असंग तथा बसुबन्धु ने इसका विकास किया। यह मत चित्त अथवा विज्ञान को ही एक मात्र सत्ता मानता है। इसी कारण इसे विज्ञानवाद कहा जाता है। योग तथा आचार पर विशेष बल देने के कारण इसे योगाचार भी कहते हैं।

असंग के छोटे भाई वसुमित्र जीवन के अन्तिम काल में इस मत के अनुयायी हुए। उन्होंने अपनी पुस्तक विज्ञप्तिमात्रता सिद्धि में योगाचार की विस्तृत व्याख्या की है।

अन्य प्रमुख सम्प्रदाय

वज्रयान सम्प्रदाय- बौद्ध धर्म में छठीं शताब्दी ई० में अनेक दोष आने शुरू हो गए। जिसके फलस्वरूप वज्रयान नामक नए सम्प्रदाय का उदय हुआ। इसमें बुद्ध की अनेक पत्नियों की कल्पना की गई है जिनमें तारा, चक्रेश्वरी देवी आदि प्रमुख है।

यह सम्प्रदाय मूलतः बंगाल और बिहार में प्रचलित था इसका सबसे अधिक विकास 8वीं शताब्दी में हुआ। इसके सिद्धान्त मंजुश्री मूल कल्प तथा गुह्या समाज नामक ग्रंथों में मिलते है। गुह्य समाज का रचयिता असंग को माना जाता है।

कालचक्रवान –10वीं शताब्दी में वज्रयान से ही कालचक्रयान की उत्पत्ति हुई। मंजुश्री को इसका ‘प्रवर्तक माना जाता है। इसके सर्वोच्च देवता श्रीकालचक्र थे। इस सम्प्रदाय में मानव शरीर को ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है कालचक्रतन्त्र और विमलप्रभाटीका इस सम्प्रदाय के दो प्रमुख ग्रंथ हैं।

सहजयान- बंगाल में इस सम्प्रदाय की स्थापना दसवीं शताब्दी में हुई। इसमें वज्रयान, कालचक्रयान आदि की रूढ़िवादिता का विरोध किया गया। इसमें मूलतः चर्यापदों अथवा भक्तिगीतों पर जोर दिया गया है।

बौद्ध साहित्य

बौद्ध साहित्य को त्रिपिटक कहा जाता है। यह पालि भाषा में रचित है। ये त्रिपिटक सुत्तपिटक, विनय पिटक एवं अभिधम्म पिटक के नाम से जाने जाते हैं।

सुत्तपिटक-सुत्त का अर्थ धर्म उपदेश होता है। इस पिटक में बौद्ध धर्म के उपदेश संग्रहीत हैं। यह पाँच निकायों में विभाजित हैं-

(1) दीर्घ निकाय- बुद्ध के लम्बे उपदेशों का संग्रह। इस पर बुद्धघोष ने सुमंगलवासिनी एवं ग्रामंतपासादिका नामक टीका लिखी।

(2) मिज्झमनिकाय – छोटे उपदेशों का संग्रह ।

(3) संयुक्त निकाय- बुद्ध की संक्षिप्त घोषणाओं का संग्रह। इसी का भाग धर्मचक्र प्रवर्तन सुत्त है। इसमें मज्झिम प्रतिपदा एवं आष्टांगिक मार्ग का उल्लेख है।

(4) अंगुत्तर निकाय– बुद्ध के 2 हजार से अधिक संक्षिप्त कथनों का संग्रह। इसी में सोलह- महाजनपदों का भी उल्लेख हैं

(5) खुद्दक निकाय- इसमें कई ग्रंथ आते है। खुद्दक पाठ, धम्मपदं, उदान, सुत्तनिपात, विमानवत्थु, भत्तवत्यु, धेरीगाथा, जातक आदि। जातकों में बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियाँ संगृहीत हैं। कुछ जातक ग्रंथ बुद्ध काल की राजनैतिक स्थिति का भी वर्णन करते हैं।

विनय पिटक- इसमें भिक्षु और भिक्षुणियों के संघ एवं दैनिक जीवन सम्बन्धी आचार-विचार, नियम संगृहीत है। इसके निम्नलिखित भाग हैं-

1. पातिमोक्ख (प्रतिमोक्ष)- इसमें अनुशासन सम्बन्धी विधि-निषेधों तथा उसके भंग होने पर किए जाने वाले प्रायश्चित्तों का वर्णन है।

2. सुत्त विभंग- इसमें पातिमोक्क्ख के नियमों पर भाष्य प्रस्तुत किए गए हैं। इसके दो भाग हैं महाविभंग तथा भिक्खुनी विभंग। प्रथम में बौद्ध भिक्षुओं तथा द्वितीय में भिक्षुणियों के लिए विधि-निषेध दिये गए हैं।

3. खन्धक- इनमें संघीय जीवन सम्बन्धी विधि-निषेधों का विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता हैं।

4. परिवार- इसमें विनय पिटक के दूसरे भागों का सारांश प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

अभिधम्म पिटक- इस पिटक में बौद्ध दार्शनिक सिद्धांतों का वर्णन है। यह प्रश्नोत्तर के रूप है। इसके अन्तर्गत सात ग्रंथ सम्मिलित हैं-

धम्मसंगणि विभंग, धातु कथा, युग्गल पंचति, कथावत्थु, यमक तथा पट्ठान। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कथावत्थु है। इसकी रचना तृतीय संगीति के अवसर पर मोग्गलिपुत्त तिस्स द्वारा की गई थी।

बौद्ध धर्म के अन्य प्रमुख ग्रंथ

1. जातक कथाएं-इनकी संख्या 549 है। इसमें बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएं है भारतीय कथा साहित्य का यह सबसे प्राचीन संग्रह है। यह पालि भाषा में है।

2. अट्ठ कथाएं –ये त्रिपिटकों के भाष्य के रूप में लिखी गई है। सुत्त पिटक की अट्ठ कथा महा अट्ठक है। विनय पिटक की अट्ठ कथा कुरुन्दी है। अभिधम्मपिटक अट्ठ कथा मूल रूप से सिंहली भाषा में महापच्चरी है। बुद्ध घोष ने इनका मागधी में अनुवाद किया।

3. निदान कथा -विभिन्न ग्रन्थों से बुद्ध के जीवन सम्बन्धी छिटपुट घटनाओं का संग्रह करके बुद्ध का जीवन चरित्र सर्वप्रथम निदान कथा में मिलता है। इसके तीन भाग निम्नलिखित है-

(i) दूर निदान- इसमे बुद्ध के पूर्व जन्मों का विवरण है।

(ii) अविदूर निदान- इसमें बोधिसत्वों से पुनः पृथ्वी पर जन्म लेने के आग्रह करने की कथा का वर्णन है।

(iii) सान्तिक निदान– इसमें बौद्ध धर्म में सर्वप्रथम दीक्षित होने वालों का वर्णन है।

दीपवंश एवं महावंश- मुख्य रूप से इसमें सिंहलद्वीप (श्रीलंका) का इतिहास है। पालि भाषा में लिखित इस ग्रंथ से मौर्य इतिहास की भी कुछ जानकारी मिलती है।

मिलिन्दपन्हो- इस ग्रंथ में यूनानी राजा मिनेण्डर और बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच वार्तालाप का वर्णन है। इसके रचयिता नागसेन हैं। यह पालिभाषा में लिखित है।

संस्कृत भाषा के बौद्ध ग्रंथ

बुद्धचरित – इस महाकाव्य की रचना अश्वघोष ने की। इसमें महात्मा बुद्ध के जीवन का सरल एवं सरस विवरण प्राप्त होता है। यह बुद्ध के गर्भस्थ होने से प्रारम्भ होता है तथा अशोक के समय तक का विवरण प्रस्तुत करता है।

सौन्दरानन्द-इस महाकाव्य में बुद्ध के सौतेले भाई सौन्दरानंद के बौद्ध धर्म ग्रहण करने का काव्यात्मक वर्णन है। यह भी अश्वघोष की रचना है। इसमें सौन्दरानन्द की पत्नी सुन्दरी की वेदनाओं का भी सुन्दर वर्णन है।

सारिपुत्र प्रकरण- यह अश्वघोष द्धारा रचित एक नाटक है जिसमें सारिपुत्र के बौद्ध मत में दीक्षित होने का विवरण है।

वज्र-सूची- यह अश्वघोष द्वारा रचित एक उपनिषदीय ग्रंथ है। यद्यपि इसमें वर्णित वर्ण-व्यवस्था के भीषण खण्डन के कारण इसे एक अन्य बौद्ध विद्वान एवं दार्शनिक धर्मकीर्ति की रचना मानी जाती है।

महावस्तु-संस्कृत भाषा में लिखित यह ग्रंथ में बुद्ध के जीवन वृत्त से सम्बन्धित है। यह हीनयान सम्प्रदाय का ग्रंथ है, लेकिन इसमें महायान की विशेषताएं दिखाई पड़ती है।

विशुद्धिमग्ग- बुद्धघोष द्वारा रचित यह हीनयान सम्प्रदाय का ग्रंथ है।
अभिधम्म घोष- इसकी रचना वसुबन्धु ने की।

महायान के ग्रंथ

ललित विस्तर- संस्कृत में लिखित यह बौद्ध ग्रंथ बुद्ध के जीवन की सुवर्णित गाथा है। इस ग्रंथ का उपयोग एडविन अर्नाल्ड ने बुद्ध के जीवन पर एक महाकाव्य ‘The light of Asia’ लिखने में किया।

सधर्म पुण्डरीक- यह संवादों की दीर्घ श्रृंखला है।

वज्रच्छेदिका – इसमें आत्मज्ञान सम्बन्धी लेख है।

सुखावती व्यूह- इसमें अमिताभ एवं उनके स्वर्ग का वर्णम है।

कुरण्ड व्यूह- इसमें अवलोकितेश्वर की महानता का वर्णन है।
अष्ट सहस्रिक प्रज्ञापारमिता- इसमें बोधिसत्व की आध्यात्मिक पूर्णताओं का वर्णन है।

प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान एवं दार्शनिक –

200 ई० पू० से 700 ई० के बीच बहुत से सुविख्यात बौद्ध सन्त एवं विद्वानों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने बौद्ध दर्शन और धर्म के विकास में पर्याप्त योगदान किया इनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित थे।

1. अश्वघोष – ये कनिष्क के समकालीन एक प्रतिभा कवि, नाटककार, संगीतकार, विद्वान एवं तर्कशास्त्री थे। उन्होंने भगवान बुद्ध के जीवन चरित्र का वर्णन करने वाले प्रथम ग्रन्थ ‘बुद्धचरितम’ की एक महाकाव्य के रूप में रचना की। उन्होंने बुद्ध का यशगान करते एवं वीणा बजाते हुए देश के विभिन्न नगरों एवं ग्रामों की यात्रा की और देश के विभिन्न भागों में बौद्ध धर्म का प्रचार किया।

2. नागार्जुन – ये आन्ध्र के सातवाहन राजा यज्ञ श्री गौतमी पुत्र (166-196) के मित्र एवं समकालीन थे। इन्होंने बौद्ध दर्शन के माध्यमिक विचार धारा का प्रतिपादन किया जिसे सामान्यतयाः ‘शून्यवाद के नाम से जाना जाता है।

3. असंग एवं वसुबन्धु – ये दोनों भाई थे और प्रथम शताब्दी ई० के पंजाब के प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु थे। असंग अपने गुरू मैत्रेयनाथ द्वारा स्थापित योगाचार या विज्ञानवाद सम्प्रदाय के महत्वपूर्ण आचार्य थे। वसुबन्ध की महानतम कृति अभिधम्म कोश को बौद्ध धर्म का विश्वकोश माना जाता है।

4. बुद्धघोष – 5वीं शताब्दी ई० के पाली भाषा के महान विद्वान थे। इनकी लिखित पुस्तक विशुद्धिमग्ग’ हीनयान सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है।

5. बुद्धपालित और भावविवेक-ये दोनों 5वीं शताब्दी में नागार्जुन द्वारा प्रतिपादित शून्यवाद के महत्वपूर्ण भाष्यकार थे।

6. दिङ्गनाग- 5वीं शताब्दी के यह बौद्ध धर्म के तर्क शास्त्र के प्रवर्तक के रूप में सुविख्यात – हैं। उन्होंने तर्कशास्त्र पर लगभग 100 ग्रन्थ लिखे उन्हें प्रायः मध्यकालीन न्याय के जनक के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है।

7. धर्मकीर्ति- 7वीं शताब्दी के महान बौद्ध नैयायिक थे, ये सूक्ष्म दार्शनिक चिन्तक तथा भाष वैज्ञानिक थे उनकी रचनायें परवती बौद्ध धर्म के ज्ञान मीमांसात्मक चिन्तन में शीर्षस्थ मानी जाती है उनकी अद्वितीय प्रतिभा को स्वीकार करते हुये डा० स्ट्रेच वात्सको ने ‘भारतकान्त’ बताया है।

बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण

1. महात्मा बुद्ध का आकर्षक एवं प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व।

2. बौद्ध धर्म की सरलता।

3. पालिभाषा का प्रयोग।

4. चारों वर्णों का समर्थन।

5. राजकीय संरक्षण।

6. बौद्ध संघ का योगदान।

7. तत्कालीन व्यापारियों एवं साहूकारों द्वारा उदारतापूर्वक दान

बौद्ध धर्म के पतन के कारण

1. बौद्ध संघ में विभेद तथा उसके अनुयायियों का विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित होना।

2. बौद्ध धर्म द्वारा कर्मकांडों और अनुष्ठानों को अपनाना।

3. संस्कृत को भाषा का माध्यम बनाना।

4. बौद्ध विहारों में विलासिता एवं व्यभिचार ।

5. पुष्यमित्र शुंग आदि शासकों की बौद्ध धर्म के प्रति कठोर प्रतिक्रिया ।

6. ब्राह्मण धर्म में सुधार।

7. स्त्रियों का संघ में प्रवेश – एक समय बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा था- “यदि विहारों में स्त्रियों का प्रवेश न हुआ होता तो यह धर्म हजार वर्ष तक टिकता। लेकिन जब स्त्रियों को प्रवेशाधिकार दे दिया गया तो अब यह केवल पाँच सौ वर्ष टिकेगा।”

8. तुकों के आक्रमण- बख्तियार खिलजी ने 1203 ई० में आक्रमण कर नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया।

जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म की तुलना

महावीर और बुद्ध दोनों समकालीन थे। दोनों के धर्मोपदेशों में अनेक समानताएं पाई जाती हैं। दोनों ने ही अपना धर्मोपदेश निःसंकोच इस मान्यता के साथ प्रारम्भ किया कि यह संसार दुख से भरा है और मनुष्य के मोक्ष यानि निर्वाण का अर्थ है कि जीवन-मरण के शाश्वत चक्र से उसकी मुक्ति। दोनों ने ही अपने बुनियादी सिद्धान्तों को उपनिषदों से ग्रहण किया। दोनों ने ही ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया।

दोनों ने ही शुद्ध और नैतिक जीवन विशेषतया जीव दया या अहिंसा पर बल दिया। दोनों ने इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य के भावी जन्मों पर उसके सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रभाव पड़ता है और अन्ततः उसे निर्वाण प्राप्ति इन्हीं कर्मों पर निर्भर करती है।

दोनों ने अपने धर्म का उपदेश आम लोगों की भाषा में दिया और अन्त में दोनों ने ही संसार को त्याग देने के विचार को प्रोत्साहन दिया और भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के संघ का गठन किया, लेकिन हम उन दोनों के ऐतिहासिक उद्‌भव में उनकी अपनी-अपनी विशिष्टताएं पाते हैं।

मोक्ष या निर्वाण तथा कुछ अन्य विषयों में भी उनकी आधारभूत धारणाओं में अन्तर पाया जाता है। उदाहरण के लिए आत्मा के विषय में जैनों की संकल्पना बौद्धों की संकल्पना से भिन्न है। दूसरे, जैन धर्म ने यति धर्म तपस्या पर अधिक बल दिया और बड़ी कठोरतापूर्वक उसका पालन किया, जबकि बुद्ध ने इसकी निन्दा की और अपने शिष्यों से मध्यममार्ग का अनुसरण करने को कहा।

इसके अलावा बुद्ध ने बाहर निर्वस्त्र होकर जीवन जीने की पद्धति की भर्त्सना की और प्राणियों के प्रति अहिंसा की जैन अभिवृत्ति बौद्धों के मुकाबले बहुत अतिवादी थी।

यह कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म 500 वर्षों के भीतर विश्व के अन्यान्य भागों में तेजी से फैल गया किन्तु जैनधर्म भारत की सीमा से बाहर कभी नहीं फैला। दूसरी ओर बौद्ध धर्म अपने उद्गम के देश भारत में बहुत कुछ मिट गया। लेकिन जैन धर्म का भारत में अब भी जोर है और काफी बड़े जनसमुदाय पर उसका प्रभाव एवं वर्चस्व स्थापित है।


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