स्वतंत्रता पूर्व भारत में भाषाई मतभेदों का उदय | Language conflict in India

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स्वतंत्रता पूर्व भारत-भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भाषा का योगदान जाति और धार्मिक योगदान से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है।  वस्तुतः धर्म और जाति से अधिक भाषा ने क्षेत्रीय ढांचे की समरूपता को उभारने का आधार प्रदान किया है और इसी से क्षेत्रीय आंदोलन को आधार मिला है। विशेष रूप से स्वतंत्र भारत में उत्पन्न इन विवादों के बीज स्वतंत्रता से पूर्व के भारत में खोजे जा सकते हैं।

स्वतंत्रता पूर्व भारत-भाषाई मतभेद

ऐसे समाज में जहाँ अधिकतर लोग अशिक्षित थे, विदेशी राजनीति और प्रशासकीय ढांचे की विशिष्टता आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक नए शैक्षणिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक ढांचे का प्रारम्भ किया गया जिसमें शासकों की भाषा (अंग्रेजी) का ज्ञान आवश्यक हो गया। यह ज्ञान नए सामाजिक वर्गों का जन्मदाता बन गया।इसका क्षेत्र दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया, जिसने आंतरिक संबंधों को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाया।

नई भाषा के विकास के प्रभाव के परिणामस्वरूप भारतीय जनता एवं उसकी भाषा ( भाषाओँ ) को गहरा अघात पहुंचा। जो भाषा कभी शासन, संस्कृति और ज्ञान का महान यंत्र थी, अब केवल स्थानीय लोगों की आम बोलचाल की भाषा मात्र रह गई, जिससे भारी संख्या में जनता अपने शासकों के साथ-साथ देसी विशिष्ट वर्ग से भी अलग-थलग हो गई।किन्तु इस शताब्दी के प्रारम्भ में,इसी नए ज्ञान के कारण तिलक, गाँधी, टैगोर जैसे राष्ट्रवादी नेता आम जनता के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए अपनी राष्ट्रीय भाषा पर निर्भर रहे।

नई शिक्षा प्रणाली के फलस्वरूप नई राष्ट्रवादी चेतना  उत्पन्न हहुई जिससे स्थानीय भाषाओँ के विकास को बड़ी मदद मिली। यह प्रक्रिया दोहरी थी : एक ओर राष्ट्रवादीभावनाओं ने भाषाओँ को पुनर्जीवित किया और उनमें गौरव जागृत किया, दूसरी ओर स्थानीय भाषाओँ के साहित्य ने साम्राजयवाद-विरोधी भावना जनता में फैलाई।

विषेकर बंगला, मलयालम, तमिल, मराठी, उड़िया और हिंदी ने इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।किन्तु यह प्रक्रिया खुले सामाजिक अंतर्विरोध का स्रोत बनी। शोषण और दमन की समस्याएं सबके सामने उजागर हुईं तथा सामाजिक असमानताओं और दमन पर साहित्य द्वारा प्रकाश डाला गया।

स्थानीय भाषाओँ के साहित्य ने इन अंतर्विरोधों को अपना केंद्र बनाया और इनका प्रयोग विभिन्न सम्प्रदायों को संगठित और एकत्रित करने तथा औपनिवेशिक शासक से लड़ने की बजाय आपसी फुट डालने और मतभेद उत्पन्न करने के लिए किया।

इस प्रक्रिया ने भाषा, जाति, क्षेत्र और धर्म में परस्पर संबंध स्थापित करने का काम किया जिसका स्वरूप मुख्यतः स्थानीय विशिष्ट वर्गों और वहां के मतभेदों पर निर्भर था। भाषा आम जनता को उकसाने और शोषण करने का एक सशक्त यंत्र बन गई। बंबई और मद्रास प्रेसिडेंसी में भाषा गैरब्राह्मणों के आंदोलनों का वहां बनी जबकि पंजाब में सामाजिक वर्ग, जाति और धर्म के त्रिकोण द्वारा उदारवादी दृष्टिकोण का प्रचार किया गया था।

इस प्रकार इन क्षेत्रों में भाषा सामाजिक विरोधों का अखाडा बन गई जो स्वतंत्र भारत में भी जीवित रहे।  अन्य क्षेत्रों में से बंगाल में भाषा ने राजनीतिक और बुद्धिजीवी सचेतक का काम किया -उत्तर प्रदेश में उर्दू पर विवाद, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच संघर्ष का एक भाग समझा गया, जिससे राष्ट्रीय उद्देश्यों के बीच गहरा मतभेद उत्पन्न हो गया।

पंजाब में भाषाई मतभेद

पंजाब में भाषा का मुद्दा, धार्मिक मतभेदों के साथ जुड़ा हुआ है।  इस प्रकार भाषा और धर्म आपस में एक-दूसरे से बहुत अधिक जुड़े होने के कारण, यहाँ भाषा हुए साम्प्रदायिकता परस्पर मिल गए हैं। यद्यपि तीनों सम्प्रदायों -मुस्लिम, हिन्दू और सिक्ख समुदायों की भाषा पंजाबी ही थी, किन्तु उनमें धार्मिक ग्रंथों की लिपि को लेकर मतभेद उत्पन्न हुआ।  मुसलमानों के धार्मिक ग्रंथों की लिपि अरबी थी, हिन्दुओं की देवनागरी थी और सिक्खों की गुरुमुखी थी।

1920 के बाद धार्मिक चेतना पर आधारित आंदोलनों का संबंध एक गट विशेष के प्रभुत्व, धार्मिक सुधार और राजनीतिक आकांक्षाओं के साथ स्थापित हो गया। परिणामस्वरूप लोगों ने, चाहे वे कोई भी भाषा बोलते हों, अपने-आपको धर्म के आधार पर भाषा से जोड़ना शुरू कर दिया। पॉल ब्रास के अनुसार स्वतंत्रता पूर्व के भारत में भाषाई-मतभेद की दो अवस्थाएं थीं।  पहली अवस्था में अंग्रेजी और उर्दू को प्रांतीय स्कूलों और कोर्ट से हटाने का प्रयास किया गया।

उन्नीसवीं शताब्दी में हिंदी और पंजाबी बोलने वाले शहरी हिन्दुओं ने हिंदी आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। इस आंदोलन का उद्देश्य उर्दू को ( अरबी लिपि ) हटवाना था।  यह प कार्यालयों की भी भाषा थी तथा मुसलिम प्रभुत्व की स्थिति को दर्शाती थी, जबकि हिंदी राजनितिक आकांक्षाओं से संबंधित थी।

1882 में आर्य समाज द्वारा संचालित आंदोलन में भाषा और राजनीति का मिश्रण हो गया जिससे हिंदी-उर्दू के बीच विवाद और बढ़ा।  पंजाबियों की माँग थी कि हिंदी देवनागरी लिपि में उर्दू का स्थान प्राप्त करे। इसका अंजुमन-ए-इस्लामिया ने ने लाहौर विरोध किया क्योंकि इसे मुसलमानों के विकास में एक गहरा आघात समझा गया।

इसी सन्दर्भ में लाला लाजपतराय की भी यह कि भारतीय राष्ट्रवाद रुपी भवन के निर्माण में हिंदी नींव का कार्य करेगी तथा देवनागरी लिपि राजनीतिक जान-संगठन को मजबूत करेगी।

अतः सांस्कृतिक विकास और विचारों आदान-प्रदान के स्थान पर भाषा एक राजनीतिक मुद्दा बन गई। इसी कारण १९११ हुए 1931 के बीच हिंदी-भाषी जनसंख्या में भरी वद्धि हुई। 1911, 1921 और 1931 में लोगों को अपनी भाषा घोषित करने के लिए कहा गया जिसमें उनकी भाषा हिंदुस्तानी या पंजाबी पूछने स्थान पर यह पूछा गया कि वे मातृभाषा उर्दू बोलते हैं अथवा हिंदी। आर्यसमाज के द्वारा किये जा रहे राष्ट्रवादी प्रचार में भी हिंदी और संस्कृत के बीच संबंध स्थापित किया गया।  धीरे-धीरे पंजाब में हिन्दुओं की साहित्यिक भाषा हिंदी हो गई, जिसकी लिपि देवनागरी थी।

सर सैयद अहमद खान ने एक बार कहा था,

“मैं हिंदू और मुस्लिम दोनों को एक ही नजर से देखता हूं और उन्हें दुल्हन की दो आंखें मानता हूं। राष्ट्र शब्द से मेरा मतलब केवल हिंदू और मुस्लिम है और कुछ नहीं। हम हिंदू और मुसलमान एक साथ रहते हैं। एक ही सरकार के तहत एक ही मिट्टी के नीचे। हमारे हित और समस्याएं समान हैं और इसलिए मैं दोनों गुटों को एक राष्ट्र मानता हूं।”

बनारस के गवर्नर श्री शेक्सपियर से बात करते हुए, भाषा विवाद के गर्म होने के बाद, उन्होंने कहा, “मुझे अब विश्वास हो गया है कि हिंदू और मुसलमान कभी एक राष्ट्र नहीं बन सकते क्योंकि उनका धर्म और जीवन जीने का तरीका एक दूसरे से बिल्कुल अलग था।”

गांधी का हिन्दुस्तानी का विचार

हिंदी और उर्दू दोनों भाषाई और सांस्कृतिक रूप से भिन्न होते रहे। भाषा की दृष्टि से हिंदी ने संस्कृत से और उर्दू फारसी, अरबी और चगताई से शब्द बनाना जारी रखा। सांस्कृतिक रूप से उर्दू को मुसलमानों और हिंदी को हिंदुओं के साथ पहचाना जाने लगा।

1920 के दशक में इस व्यापक विचलन की गांधी ने निंदा की, जिन्होंने हिन्दी और उर्दू दोनों के पुन: विलय का आह्वान किया, इसे हिंदुस्तानी नाम दिया, जो नागरी और फारसी दोनों लिपियों में लिखा गया था। हालांकि वह हिंदुस्तानी बैनर के तहत हिंदी और उर्दू को एक साथ लाने के अपने प्रयास में विफल रहे, उन्होंने अन्य गैर-हिंदुस्तानी भाषी क्षेत्रों में हिंदुस्तानी को लोकप्रिय बनाया।

मुस्लिम राष्ट्रवाद

यह तर्क दिया गया है कि हिंदी-उर्दू विवाद ने भारत में मुस्लिम राष्ट्रवाद के बीज बोए। कुछ लोगों ने यह भी तर्क दिया कि सैयद अहमद ने विवाद विकसित होने से बहुत पहले अलगाववादी विचार व्यक्त किए थे।

भाषाई शुद्धतावाद

भाषाई शुद्धतावाद और पूर्व-इस्लामी अतीत की ओर उन्मुख होने के कारण, शुद्ध हिंदी के पैरोकारों ने कई फारसी, अरबी और तुर्किक ऋण शब्दों को हटाने की मांग की है और उन्हें संस्कृत से उधार के साथ बदल दिया है। इसके विपरीत, औपचारिक उर्दू स्थानीय भाषा हिंदुस्तानी की तुलना में कहीं अधिक फारसी-अरबी शब्दों का प्रयोग करती है।

अप्रैल 1900 में, उत्तर-पश्चिमी प्रांतों की औपनिवेशिक सरकार ने नागरी और फारसी-अरबी दोनों लिपियों को समान आधिकारिक दर्जा देने का आदेश जारी किया।  इस फरमान का उर्दू समर्थकों ने विरोध किया और हिंदी समर्थकों में खुशी का माहौल था। हालाँकि, यह आदेश अधिक प्रतीकात्मक था क्योंकि इसमें नागरी लिपि के अनन्य उपयोग का प्रावधान नहीं था। उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में फारसी-अरबी और स्वतंत्रता तक अवध पसंदीदा लेखन प्रणाली के रूप में प्रमुख रहे।

मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री सी. राजगोपालाचारी ने माध्यमिक स्कूल शिक्षा में हिंदी को अनिवार्य भाषा के रूप में पेश किया, हालांकि बाद में उन्होंने 1965 के मद्रास के हिंदी विरोधी आंदोलन के दौरान हिंदी की शुरूआत का विरोध किया और विरोध किया। बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रवादी आंदोलन के अनिवार्य अंग के रूप में देवनागरी लिपि का समर्थन किया।
कांग्रेस की भाषा नीति और स्वतंत्रता आंदोलन ने स्वतंत्र भारत की वैकल्पिक आधिकारिक भाषा के रूप में अपना दर्जा पक्का किया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिंदी को धार्मिक और राजनीतिक नेताओं, समाज सुधारकों, लेखकों और बुद्धिजीवियों ने समर्थन दिया और उस स्थिति को हासिल किया। 1950 में भारतीय संविधान की स्थापना के दौरान हिंदी को अंग्रेजी के साथ-साथ भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी गई थी।


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