साम्राज्यवाद और उसके सिद्धांत-Part 1

साम्राज्यवाद और उसके सिद्धांत-Part 1

Share This Post With Friends

Last updated on April 14th, 2023 at 07:07 am

साम्राज्यवाद एक सामाजिक सिद्धांत है जो एक व्यक्ति या समूह को एक शक्तिशाली राजा, सम्राट, या शासक द्वारा नियंत्रित करने की धारणा पर आधारित है। इस विचारधारा में, सत्ता और शक्ति की सीमा शासक द्वारा निर्धारित होती है और वे राज्य के सभी क्षेत्रों पर नियंत्रण रखते हैं। साम्राज्यवाद में शासक को सर्वोच्च अधिकार, प्राधिकार और प्रभुत्व होता है और वे राज्य की सुप्रीम अधिकारी होते हैं।

साम्राज्यवाद और उसके सिद्धांत-Part 1

साम्राज्यवाद और उसके सिद्धांत

साम्राज्यवाद ऐतिहासिक रूप से विभिन्न समयों और स्थानों पर प्राप्त हुआ है। ऐसे शासक और सम्राट जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्व थे जो विशाल राज्यों को नियंत्रित करते थे, जैसे कि रोमन साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य, ब्रिटिश साम्राज्य, और मुग़ल साम्राज्य। साम्राज्यवाद का उदय धर्म, समाज, और आर्थिक परिवेश के विभिन्न प्रकारों पर निर्भर करता है और विभिन्न धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक तांत्रिक विचारधाराओं को समर्थित करता है।

साम्राज्यवाद क्या है

 साम्राज्यवाद के मूल स्वरूप को समझने में दो बाधाएं हैं– पहली बाधा तो यह है कि एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों को स्वतंत्र हुए काफी समय बीत चुका है। अतः वहां के लोगों के प्रत्यक्ष औपनिवेशिक अनुभव और आज की प्रबल राष्ट्रीय भावना के बीच एक लंबा फासला आ गया है। एशिया तथा अमेरिका के देशों में स्वतंत्र होने के बाद जो शासन पद्धतियां अपनायी उन्होंने अपने देशवासियों में यह भावना भरने की कोशिश की कि साम्राज्यवाद तो बीते युग की चीज है।

उदाहरण के लिए भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक पूरी नई पीढ़ी का जन्म और विकास हो चुका है जिसका साम्राज्यवाद से कभी कोई सीधा संपर्क नहीं रहा। दूसरी बाधा औपनिवेशिक काल के बाद की विश्व परिस्थिति से उत्पन्न हुई है।

यूरोप की साम्राज्यवादी शक्तियों का विश्व-राजनीति पर प्रभाव कम होता गया है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से विभिन्न राष्ट्रों के बीच पारस्परिक समानता का वातावरण उत्पन्न हुआ है। अतः कई लोगों के लिए यह समझ पाना कठिन है कि आज भी साम्राज्यवाद दूसरों पर आधिपत्य कायम करने की एक जीवंत प्रक्रिया बन सकता है।

 परंतु यह दोनों बाधाएं वस्तुस्थिति की भ्रामक समझ पर आधारित हैं। पहली बात तो यह है कि साम्राज्यवाद ने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका की समाज-व्यवस्था को ऐसे आधारभूत क्षति पहुंचाई है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ दशकों में ही उसकी गहरी छाप को मिटा पाना असंभव है।

इसलिए यह बहुत जरूरी है कि साम्राज्यवाद को भलीभांति समझा जाए क्योंकि इसके बिना हम न तो अपने स्वतंत्रता संघर्ष के  वास्तविक स्वरूप को समझ सकते हैं और न ही वर्तमान राजनीतिक संस्थाओं की सही जानकारी हासिल कर सकते हैं। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि साम्राज्यवाद की सही समझ के अभाव में तो उत्तर-औपनिवेशिक ( post-colonial ) जन-समाजों के मानसिक गठन को भी नहीं समझा जा सकता। 

व्यवहार में अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व सर्वथा नए रूपों में प्रकट हुआ है और बड़े देशों पर निर्भरता में वृद्धि हुई है। हाल के वर्षों में नव- उपनिवेशवाद तथा आधिपत्य नई-नई कुटिल शक्लें धारण करके प्रकट हो रहा है।

हम आए दिन  देखते हैं कि दूसरे देशों पर कब्जा करके वहां कठपुतली (puppet) शासन स्थापित कर लिया जाता है, या चालबाजी करके उनकी नीतियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित किया जाता है, या फिर आर्थिक व सांस्कृतिक घुसपैठ द्वारा उनकी स्वतंत्रता का हनन किया जाता है। कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जहां दबे हुए या कमजोर राष्ट्रीय समूहों ने जागृत होकर आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग की है।

साम्राज्यवाद एक राजनैतिक और सामाजिक तंत्र है जिसमें एक व्यक्ति या एक समूह की अनियंत्रित और अधिकारी शक्ति द्वारा संचालित एक संचारवादी या संचारशून्य समाज का निर्माण करता है। इसमें शक्ति और नियंत्रण केवल एक ही व्यक्ति या समूह के हाथ में होता है जिसका प्रभुत्व दूसरों पर थोपा जाता है, और वे अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों से वंचित रहते हैं। साम्राज्यवाद एक ताक वाली आर्थिक और सामाजिक संरचना होती है जिसमें शक्ति, संसाधन और सुविधाओं की वितरण में असमानता होती है।

साम्राज्यवाद की प्रमुख विशेषताएँ:

    1. एकाधिकारवाद: साम्राज्यवाद में एक व्यक्ति या समूह की अनियंत्रित शक्ति होती है, जो समाज को नियंत्रित करती है और अन्य व्यक्तियों के अधिकारों को प्रतिबंधित करती है।

    2. समाज की असमानता: साम्राज्यवाद में संसाधनों, सुविधाओं और शक्ति की वितरण में असमानता होती है, जिससे समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को अलग-अलग स्तर पर विभाजित किया जाता है और कुछ वर्ग अधिक सत्ता और संसाधनों का हवाला रखते हैं, जबकि दूसरे वर्ग उनके नियंत्रण में रहते हैं और अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों से वंचित रहते हैं।
    3. प्रबल शासन और नियंत्रण: साम्राज्यवाद में सरकार या एक शक्तिशाली समूह अधिकारी शक्ति का एकाधिकार रखता है और लोगों की स्वतंत्रता और न्यायाधीशता पर प्रभुत्व रखता है। विचार, वाणी, प्रेस और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध हो सकता है।
    4. समाज नियंत्रण: साम्राज्यवाद में समाज की नियंत्रण और निरीक्षण की प्रक्रिया होती है जिसका उपयोग शक्तिशाली समूह या सरकार अपने हितों की प्राप्ति के लिए करता है। सामाजिक और राजनैतिक विचारों, धर्म, संस्कृति और व्यक्तिगत मतभेदों पर प्रतिबंध हो सकता है।
    5. अधिकारों की प्रतिबंधित करने वाली नीतियां: साम्राज्यवाद में विभिन्न वर्गों के लोगों की अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाली नीतियां होती हैं,
    6. समानता और न्याय की कमी: साम्राज्यवाद वाली समाज में समानता और न्याय की कमी हो सकती है। शक्तिशाली समूह या सरकार अपने हितों की प्राप्ति के लिए विभिन्न वर्गों के लोगों को विभिन्न रूपों में शोषित, निर्वंश या वंचित कर सकता है।
    7. विदेशी विस्तार: साम्राज्यवाद वाली सरकारें अक्सर विदेशी विस्तार की नीतियों पर आधारित होती हैं, जिसका परिणामस्वरूप विभिन्न वंशगत और संसारव्यापी सामरिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव हो सकता है।
    8. आपत्तिजनक प्रथाओं का समर्थन: साम्राज्यवाद वाली सरकारें अक्सर आपत्तिजनक प्रथाओं, जैसे कि आतंकवाद, संदिग्ध गतिविधियों और न्यूनतम व्यक्तिगत स्वतंत्रता को समर्थन कर सकती हैं, जो आम लोगों की सुरक्षा और सुरक्षा की स्थिति को प्रभावित कर सकता है।
    9. पर्यावरणीय प्रभाव: साम्राज्यवाद वाली सरकारें अक्सर पर्यावरणीय प्रभावों को ध्यान में नहीं रखती हैं और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यन्त उपयोग कर सकती हैं
    10. सामाजिक और आधारभूत मुक्तिहीनता: साम्राज्यवाद वाली सरकारें विभिन्न समाज और आधारभूत मुक्तिहीनता को प्रभावित कर सकती हैं, जैसे कि वैयक्तिक स्वतंत्रता, मानव अधिकार, मौलिक स्वतंत्रता और धार्मिक अल्पता।
    11. सामरिक स्थानांतरण: साम्राज्यवाद वाली सरकारें अक्सर विभिन्न क्षेत्रों और राज्यों के बीच सामरिक स्थानांतरण को प्रोत्साहित करती हैं, जो किसी एक क्षेत्र या समुदाय के विकास को प्रभावित कर सकता है।
    12. स्वामित्व और आत्मनिर्भरता: साम्राज्यवाद वाली सरकारें अक्सर स्थानीय विकास और स्वामित्व की प्रोत्साहना की बजाय विदेशी शासन और आर्थिक निर्भरता पर ध्यान केंद्रित कर सकती हैं, जो किसी समुदाय या राष्ट्र की आत्मनिर्भरता को प्रभावित कर सकता है।
    13. व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कमी: साम्राज्यवाद वाली सरकारें अक्सर व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कमी कर सकती हैं, जैसे कि विचार, वक्तव्य और धर्म स्वतंत्रता, जो व्यक्तियों की आज़ादी को प्रभावित कर सकती हैं

इसलिए साम्राज्यवाद का अध्ययन तीन कारणों से महत्वपूर्ण है

साम्राज्यवाद का ऐतिहासिक सार: आर्थिक प्रभुत्व

 साम्राज्यवाद लोगों पर बाह्य प्रभुत्व का एक रूप है। जब से विभिन्न समाजों या समुदायों ने संगठित हमलावरों से अपने आपको अलग करके देखना शुरू किया तभी से किसी न किसी रूप में उसका अस्तित्व माना जा सकता है। इसमें हमेशा से ही किसी विदेशी सत्ता की राजनीतिक अधीनता का भाव निहित है। पुराने जमाने में सैनिक अभियान द्वारा साम्राज्य विस्तार की प्रवृत्ति से उपनिवेशवाद का तत्व अस्तित्व में आया।

कुछ विजेता तो केवल आर्थिक लूटपाट में रुचि रखते थे जबकि कुछ अन्य यह चाहते थे कि मसाले, सोना, चांदी जैसी दुर्लभ चीजों की सप्लाई अपने देश को होती रहे। कई अपनी जाति, धर्म, सभ्यता तथा संस्कृति की श्रेष्ठता के बारे में इतने आश्वस्त थे कि दूसरे देशों पर अधिकार करके वहां अपनी सभ्यता संस्कृति को फैलाना उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। 

अपनी तकनीकी तथा संगठनात्मक श्रेष्ठता का उपयोग करते हुए इन साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपने अधीनस्थ उपनिवेशों पर तरह-तरह के नियंत्रण लगाने शुरू किए। इन नियन्त्रणों का उद्देश्य या तो बहुमूल्य धातुओं, मसालों, गुलामों आदि की सप्लाई को सुनिश्चित करना था, या गोरे लोगों को इन उपनिवेशों  में बसाना था, या फिर वाणिज्य तथा प्रतिरक्षा-संबंधी सुविधाएं प्राप्त करना था यह कार्य मूलतः व्यापारियों तथा योद्धाओं के सहयोग से पूरा किया गया।

इसे भी अवश्य पढ़ेंसाम्राज्यवाद और उसके सिद्धांत- भाग -2

 इन सभी तत्वों ने औद्योगिक क्रांति से पहले कम से कम दो शताब्दी तक वाणिज्यिक पूंजीवाद (mercantile capitalism) की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा किया।

साम्राज्यवाद का उदय Rise of imperialism

 इन प्रवृत्तियों की वजह से 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पूंजीवाद की आंतरिक तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन आया जिसके परिणामस्वरुप पूंजीवाद के एक नवीन चरण का आरंभ हुआ। यह चरण था साम्राज्यवाद। उस समय तक औद्योगिक पूंजी का महत्व पूरी तरह कायम हो चुका था।

1870 से आरंभ होने वाले दशक से कुछ अन्य प्रवृत्तियां उभरने लगीं यह प्रवृत्तियां थीं प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद का कमजोर होना तथा उनके स्थान पर एकाधिकार पूंजीवाद का विकास, वित्तीय अल्पतंत्रों (oligarchies) का उदय तथा उप निदेशकों को पूंजी का निर्यात और इन सबके परिणामस्वरुप औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा पूरे संसार में उपनिवेश हथियाने की होड़। पूंजीवादी विकास के इस विशेष चरण (अर्थात एकाधिकारिक पूंजीवाद) को लेनिन ने साम्राज्यवाद की संज्ञा दी है।  

 राजनीतिक प्रभुत्व का यह तत्व एकाधिकारिक पूंजीवाद से पहले, या यह कहें कि औपनिवेशिक शासन से औपचारिक मुक्ति के बाद भी अस्तित्व में था।  दूसरे देश के लोगों पर राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने की यह प्रक्रिया विभिन्न रूपों में तथा विभिन्न परिमाण में  अब भी कायम है। किंतु साम्राज्यवाद का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आर्थिक प्रभुत्व साम्राज्यवाद का मूल  ऐतिहासिक तत्व रहा है।

प्रभुत्व की परिभाषा में राजनीतिक अधीनता का भाव निहित है और अपने सभी ऐतिहासिक चरणों में साम्राज्यवाद के अंतर्गत यह अर्थ भी सम्मिलित रहा है। किंतु प्रभुत्व स्थापित करने की प्रेरणा इसे आमतौर पर आर्थिक शोषण से मिलती है हालांकि औपनिवेशिक प्रसार के कुछ उदाहरण ऐसे भी हो सकते हैं जिनमें कुछ अन्य कारक अधिक महत्वपूर्ण रहे हों।

 एकाधिकारिक पूंजीवाद से पहले के साम्राज्यवादी विकास के चरणों को कुछ लोग “पुराने साम्राज्यवाद” की संज्ञा देते हैं और 1870 के बाद के चरणों को नया साम्राज्यवाद ( new imperialism) कहते हैं। कुछ अन्य विद्वान पुराने चरण को “उपनिवेशवाद” ( Colonialism ) कहकर पुकारते हैं जिसका सीधा अर्थ है एक विदेशी क्षेत्र पर प्रत्यक्ष शासन के माध्यम से तरह-तरह के लाभ उठाना। इन लाभों में आर्थिक लाभ के साथ-साथ विदेशी जनसंख्या को विदेशी भूमि में बसाना भी शामिल है।

दूसरी ओर, साम्राज्यवाद प्रत्यक्ष रुप से औपनिवेशिक शासन का रूप ले भी सकता है और नहीं भी ले सकता, किंतु हर हालत में उसकी कोशिश यह रहती है कि एकाधिकारिक पूंजीवादी गतिविधियों से नए-नए क्षेत्रों में विस्तार की रक्षा की जा सके। कुछ उदाहरणों में यह भी संभव है कि साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के परंपरागत अंतर की पुष्टि न की जा सके। साथ ही अर्ध-उपनिवेशवाद नव-उपनिवेशवाद जैसे तत्वों से समस्या और भी उलझ गई है।

साम्राज्यवाद की परिभाषाएं Definitions of imperialism

साम्राज्यवाद शब्द अंग्रेजी के इम्पीरियलिज्म (imperialism) शब्द का अनुवाद है। स्वयं “इंम्पीरियलिज्म” शब्द लैटिन शब्द इम्पैरेटर (imperator) से आया है जिसका संबंध केंद्रीकृत सत्ता की अधिनायकवादी शक्तियों तथा प्रशासन की मनमानी पद्धतियों (arbitrary methods) से था।

“इम्पीरियलिज्म” शब्द का प्रयोग पहले- पहल फ्रांस में हुआ था।

19वीं सदी के चौथे दशक में नेपोलियन के विस्तारवाद के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया था और इसके बाद ब्रिटिश उपनिवेशवाद के संदर्भ में इसका प्रयोग किया जाने लगा। वास्तव में यह एक भावात्मक (emotive) शब्द है और इसका प्रयोग सैद्धांतिक शब्द के रूप में-कभी कभार ही किया जाता है।

एक राज्य जब किसी दूसरे राज्य के खिलाफ एक खास तरह का आक्रामक व्यवहार करता है तो उसे सूचित करने के लिए “साम्राज्यवाद” शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह व्यवहार सीधे-सीधे या तो औपचारिक प्रभुसत्ता (formal soveignty ) का रूप ग्रहण कर सकता है या फिर आर्थिक तथा राजनीतिक आधिपत्य के अन्य किसी रूप को। किंतु हर हालत में यह दो देशों के बीच आधिपत्य तथा अधीनता का संबंध व्यक्त करता है ।

 जब विभिन्न राजनीतिक विचारकों ने साम्राज्यवाद की धारणा का अध्ययन करना शुरू किया तो इन विचारकों के तीन संप्रदाय उभरकर सामने आए जिन्होंने अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार साम्राज्यवाद की व्याख्या की। ये संप्रदाय हैं— 

(क) उग्र उदारवादी संप्रदाय (radical liberal school) जिनके नेता जे०ए० हॉब्सन थे। हॉब्सन उन पहले विचारकों में थे जिन्होंने साम्राज्यवाद के सिद्धांत को पहले-पहल व्यवस्थित रूप में सामने रखा और इसे ही आगे चलकर लेनिन ने विकसित किया।

 (ख) मार्क्सवादी संप्रदाय- जिसके प्रमुख सूत्रधार रडाल्फ हिलफर्डिंग,कार्ल कॉट्स्की, रोजा लक्जेम्बर्ग तथा लेनिन हैं। और ऐतिहासिक संप्रदाय जिस के समर्थक थे जो सेवर रॉबिंसन गिले गरेना आदि।

(ग) ऐतिहासिक संप्रदाय- जिसके समर्थक थे जोसेफ़ शुमपेटर (Joseph Schumpeter ), रॉबिंसन (,Robinson) गैलेगर (Gallagher),  रेनर (Renner) आदि।

हॉब्सन का सिद्धांत Hobson’s theory       

हॉब्सन ने 1902 में प्रकाशित अपनी पुस्तक इंपिरियलिज्म: ए स्टडी (साम्राज्यवाद: एक अध्ययन) में पूंजीपति वर्ग के वित्तीय हितों को ‘साम्राज्यवादी इंजन के नियंत्रक’ की संज्ञा दी।  विदेशों में साम्राज्यवादी विस्तार का एक प्रमुख कारण था देशी विनिर्माण में पूंजी का अवरुद्ध हो जाना। घरेलू बाजार सीमित था क्योंकि काफी बड़ी संख्या में लोग निम्न आय-वर्ग के थे।

इसलिए वे सामान की बढ़ी हुई आपूर्ति की खपत नहीं कर सकते थे। बड़ी फर्में जोखिम उठाने तथा निरर्थक अति उत्पादन से बचती थीं। इन दोनों कारकों — आय के कुवितरण तथा इजारेदारी आचरण — का परिणाम यह हुआ कि अपने देश की सीमाओं के बाहर निवेश के नए अवसरों तथा नए बाजारों की तलाश की जाने लगी।

 इस प्रकार हॉब्सन ने एक ऐसे तत्व का पता लगाया जिसे उसने साम्राज्यवाद की “आर्थिक जड़” की संज्ञा दी। साथ ही उन्होंने राजनीतिक सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में ( जिसमें जाति-संबंध भी शामिल है ) साम्राज्यवाद द्वारा लाए गए परिवर्तनों की एक पूरी श्रृंखला की व्याख्या भी की।

  हॉब्सन ने यूरोपीय विस्तारवाद की व्याख्या करते हुए कहा कि यह आधुनिक पूंजीवाद में कुछ अल्प-उपभोगवादी प्रवृत्तियों ( under consumptionst tendencies) तथा विकास के उन्नत चरण (advanced stage) में पूरी प्रणाली के अंतर्गत कुछ अपसमायोजनों (maladjustments) जैसे हर राष्ट्रीय आय के असमान वितरण से उत्पन्न होने वाली बचत एवं उपभोग के बीच का असंतुलन—-का परिणाम है।

उनका विचार था कि यदि श्रमिकों की आय में वृद्धि करके किसी देश के उपभोग-स्तर को ऊंचा उठाया जा सके तो एक लंबे अरसे के लिए देश के अंतर्गत ही बाजार का विस्तार होगा और औपनिवेशिक विस्तार की आवश्यकता नहीं रहेगी। यही वह स्थल था जहां लेनिन का हॉब्सन के साथ गहरा मतभेद था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हॉब्सन जैसे उग्र-उदारवादी भी यह मानने को तैयार नहीं थे कि स्वयं पूंजीवाद ही साम्राज्यवाद के विस्तार के मूल में है। उनकी दृष्टि में यह मात्र एक उपसमायोजन (maladjustment) था जिसे यदि समझ लिया जाए तो ठीक किया जा सकता है। 

2. मार्क्सवादी दृष्टिकोण से साम्राज्यवाद Imperialism from marxist point of view

मार्क्सवादी संप्रदाय यह मानता है कि साम्राज्यवादी दर्शन पूंजीवादी प्रणाली में ही अंतर्निहित है और स्वयं इस प्रणाली का ध्वंस करके ही इसे समाप्त किया जा सकता है। हिलफ़र्डिग की केंद्रीय धारणा वित्तीय पूंजी की धारणा थी जिसमें बैंकों का तेजी से विस्तार होगा।

जहां मार्क्स बैंकों को औद्योगिक पूंजी (industrial capital) के अधीनस्थ (subordinates)  मानते थे, हिलफ़र्डिग उत्पादन में बैंकों की अहम भूमिका स्वीकार करते थे। उनकी दृष्टि में अपने व्यापक वित्तीय साधनों की वजह से बैंक, उद्योगों पर कारगर ढंग से अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकते थे और इजारेदारों को बढ़ावा दे सकते थे। ये इजारेदार कालांतर में उपनिवेशों में भी पहुंच सकते थे जिससे वे अपनी पूंजी का लाभप्रद रूप में निवेश कर सकें। इस प्रवृत्ति ने ही साम्राज्यवाद को जन्म दिया।

 रोजा लगजेम्बर्ग अपने समय की अग्रगण्य महिला मार्क्सवादी सिद्धांतकार थीं। उन्होंने अपनी पुस्तक पूंजी का संग्रह (Accumulation of Capital) में साम्राज्यवाद पर विचार किया है। उनके अनुसार पूंजीवाद की केंद्रीय समस्या थी प्रभावी मांग (effective demand) की कमी। मजदूरों को बढ़ी हुई मजदूरी नहीं मिलती थी और पूंजीपति उत्पादन की गति धीमी करने को तैयार नहीं थे। इसका अर्थ हुआ “अतिउत्पादन” (overproduction)और नए बाजारों की तलाश।

इसका एक और पहलू यह था कि साम्राज्यवाद पूंजीवादी संवृद्धि (capitalism growth) की एक अनिवार्य स्थिति थी। इसकी वजह यह थी कि पूंजीवादी संवृद्धि के लिए पूंजी का बराबर इकट्ठा होते जाना एकदम नामुमकिन था, जब तक गैरपूंजीवादी देशों में प्रभावी मांग पैदा न हो क्योंकि स्वयं अपने देश में तो मांग बढ़ेगी नहीं। मांग में यह वृद्धि गैर-पूंजीवादी देशों के उपनिवेशीकरण द्वारा ही संभव थी।

लेनिन के दृष्टिकोण से साम्राज्यवाद 

 लेनिन के साम्राज्यवाद-विषयक सिद्धांत पर विचार करने से पहले तीन प्रारंभिक बातें समझ लेनी चाहिए। पहली बात तो यह है कि लेनिन का “साम्राज्यवाद  : पूंजीवाद का चरमरूप” शीर्षक निबंध, जो उन्होंने 1916 में ज्यूरिख में अपने निर्वासन के दौरान लिखा था, स्वयं उन्हीं के शब्दों में ‘साम्राज्यवाद केआर्थिक सार’ के बारे में है। उन्होंने एकाधिकारिक पूंजीवाद को साम्राज्यवाद के आर्थिक आधार के रूप में ग्रहण किया। यह सिद्धांत साम्राज्यवाद से जुड़े हुए राजनीतिक तथा अन्य कारकों के महत्व को नजरअंदाज नहीं करता।

दूसरे, इस निबंध में लेनिन का मुख्य सरोकार विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच बढ़ती हुई स्पर्धा के मूल आधार का पता लगाना था जो 19वीं शताब्दी में काफी जड़े जमा चुका था और जिसके परिणामस्वरुप अंततः प्रथम विश्व युद्ध हुआ। इसलिए कुछ अन्य पहलुओं, जैसे साम्राज्यवाद के विकास, साम्राज्यवादी गतिविधियों के केंद्र लंदन तथा उसके उपनिवेशों के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उपनिवेशवाद के प्रभाव आदि के बारे में इस निबंध में खुलकर विचार नहीं किया गया।

तीसरे, जैसा कि इस निबंध के 1920 में प्रकाशित संस्करण के आमुख में लेनिन ने स्वयं कहा था, इस निबंध में बीसवीं शताब्दी के आरंभ में विश्व-पूंजीवाद के संश्लिष्ट (composite) चित्र को अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के साथ” प्रस्तुत किया गया है और बीसवीं सदी के पूंजीवादी विकास को समझने के लिए यह बहुत जरूरी है कि पहले इस संश्लिष्ट चित्र को समझ लिया जाए।

फिर भी, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूंजीवाद तथा अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में जो आधारभूत प्रवृत्तियां विकसित हुईं उनके संदर्भ में यह जरूरी हो जाता है कि लेनिन के निरूपण को कुछ आगे बढ़ाया जाए। किंतु जब तक एकाधिकार पूंजीवाद (monopoly) कायम है तब तक लेनिन का सिद्धांत साम्राज्यवाद की एक उपयोगी व्याख्या प्रस्तुत करता है।

 यह भी अवश्य पढ़ेंरुसी क्रांति का भारत पर प्रभाव

लेनिन के सिद्धांतों को संक्षेप में समझने के लिए हम उसके विचारों को प्रस्तुत करते हुए साम्राज्यवाद को भलीभांति जानने का प्रयास करेंगे–पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत प्रतिस्पर्धा के क्रम में छोटे पूंजीपति पीछे छूटते जाते हैं और बड़े पूंजीपति, जिन्हें अधिक पूंजी सुलभ है, आगे बढ़ते जाते हैं।

एक ही प्रतिष्ठान के लोग उद्दोगों के मालिक होने के साथ-साथ बैंकों के मालिक भी बन जाते हैं क्योंकि औद्योगिक निवेश के लिए वित्त की जरूरत पड़ती है और उद्दोगों से प्राप्त अधिशेष भी बैंकिंग पूंजी का अंग बन सकता है। यह प्रक्रिया और अधिक उत्पादन-क्षमता को जन्म देती है। इसके लिए बड़े पूंजीपति कच्चा माल प्राप्त करने के उद्देश्य से अपनी सरहदों से बाहर जाते हैं।

व्यापक परिणाम में वस्तुओं का उत्पादन करने पर वे पाते हैं कि इस माल की बिक्री के लिए देशीय बाजार छोटा पड़ता है इसलिए वे अपने माल की खपत के लिए उपनिवेशों की ओर उन्मुख होते हैं। कालान्तर में एक ऐसा चरण आता है जब उपनिवेशों में पूँजी का निर्यात अधिक लाभप्रद बैठता है क्योंकि वहां मजदूरी सस्ती होती है और कच्चे माल के स्रोत भी अपेक्षाकृत निकट ही होते हैं।

आर्थिक गतिविधि की इस प्रणाली को कायम रखने के मूल देश (मेट्रोपोलिटन स्टेट) का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन भी प्राप्त कर लिया जाता है। इस प्रक्रिया को तर्कसंगत तथा वैध रूप देनें के लिए कई तरह की सांस्कृतिक तथा शैक्षिक नीतियों को प्रोत्साहन दिया जाता है जिससे साम्राज्यवाद के लिए स्थानीय समर्थन-प्राप्त किया जा सके। एकाधिकार पूंजीवाद अपने देश से उपनिवेशों की तरफ इसी तरह आगे बढ़ता है। लेनिन ने इसी को ‘साम्राज्यवाद’ कत् नाम दिया।

      लेनिन के अनुसार साम्राज्यवाद के पाँच बुनियादी लक्षण थे। इन्हें उनके निबन्ध के सातवें खण्ड से उद्धृत किया जा रहा है। :

  1. “उत्पादन तथा पूंजी का संकेंद्रण इतने उच्च स्तर तक पहुंच गया है कि इसने विभिन्न क्षेत्रों में तरह-तरह के एकाधिकारों को जन्म दिया है जिनकी आर्थिक जीवन में निर्णायक भूमिका रहती है।
  2. औद्योगिक पूंजी के साथ बैंकिंग पूंजी का विलय और इससे वित्तीय पूंजी के आधार पर एक वित्तीय अल्पतंत्र (financial oligarchy) का सृजन।
  3. वस्तुओं के निर्यात के मुकाबले पूंजी के निर्यात का महत्व बहुत ज्यादा बढ़ जाता है।
  4. अंतर्राष्ट्रीय एकाधिकार पूंजीवादी संघों का निर्माण जो पूरे विश्व को परस्पर बांट लेते हैं। 
  5. बड़ी-बड़ी पूंजीवादी शक्तियों के बीच पूरी दुनिया का क्षेत्रीय विभाजन पूरा हो जाता है।”

 इस प्रकार कुल मिलाकर लेनिन ने यह कहा था कि साम्राज्यवाद पूंजीवादी विकास का वह चरण है जब एकाधिकार एवं वित्तीय पूंजी का प्रभुत्व स्थापित हो जाता है; जिसमें पूंजी के निर्यात को सुनिश्चित महत्व मिल जाता है; जिसमें पूरी दुनिया को अंतरराष्ट्रीय ट्रस्टों में बांटने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है; जिसमें प्रमुख पूंजीवादी शक्तियों के बीच संपूर्ण विश्व के विभाजन का चक्र पूरा हो जाता है।

लेनिन ने मार्क्स की अवधारणा को आगे बढ़ाया कि पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत पूंजी के संचयन का स्वरूप ऐसा होता है कि इसमें पूंजी कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों में संकेंद्रित होने लगती है। अपनी धारणा को और अधिक विकसित करने के क्रम में लेनिन ब्रिटेन, जर्मनी तथा अन्य पश्चिमी देशों में औद्योगिक विकास का अध्ययन किया और अपने सिद्धांत के हर पहलू के समर्थन में सांख्यिकी प्रमाण भी प्राप्त किए। इन सभी देशों में औद्योगिक संवृद्धि का परिणाम यह हुआ कि उत्पादन कुछ गिने-चुने व्यापारिक घरानों के हाथों में संकेत होता चला गया।

उत्पादन-संघों तथा ट्रस्टों का उदय संकेंद्रण की प्रक्रिया का एक रूप था। जब एकाधिकार बढ़ गया और छोटे व्यापारियों में, कारोबार बंद कर देने से, स्पर्धा कम हो गई तो उत्पादन का और अधिक समाजिकरण हुआ। प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) के समावेश से उत्पादन एक सामाजिक प्रक्रिया का रूप लेता गया और उसका निजी व्यवसाय वाला रूप लगातार कम होता गया।

अब उत्पादन को नियोजित करना था, बाजारों की मांग तथा पूर्ति को मापना था और नए-नए कौशलों का विकास तथा विस्तार करना था, किंतु ऐसी स्थिति में जहां उत्पादन का स्वरूप सामाजिक हो गया वहां विनियोग (appropriation) व्यक्तिगत या निजी स्वार्थों से ही प्रेरित रहा। http://www.histortstudy.in

स्वयं लेनिन के शब्दों में “उत्पादन के सामाजिक साधन कुछ गिने-चुने लोगों की निजी संपत्ति ही रहे। औपचारिक तौर पर मुक्त प्रतिस्पर्धा का सामान्य ढांचा ज्यों-का-त्यों कायम रहता है, और शेष जनसंख्या पर कुछ इजारेदारों (monopolists) का जुआ सैकड़ों गुना भारी, बोझिल तथा असहनीय हो जाता है।”https://studyguru.org.in -भाग दो का अध्ययन करने के लिए यहाँ क्लिक करें👉 Reading For Next Part Plz Click Here 

OUR OTHER IMPORTANT BLOGS PLEASE CLICK AND READ 

1-भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण-

2-ऋग्वैदिक कालीन आर्यों का खान-पान ( भोजन)

30-अशोक के अभिलेख


Share This Post With Friends

Leave a Comment

Discover more from 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading