रेडक्लिफ सीमा रेखा: स्वतंत्रता और खूनी खेल

रेडक्लिफ सीमा रेखा: स्वतंत्रता और खूनी खेल

Share This Post With Friends

रैडक्लिफ़ सीमा रेखा, जिसे रैडक्लिफ़ रेखा के रूप में भी जाना जाता है, भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा विभाजन रेखा को संदर्भित करती है जिसे अगस्त 1947 में ब्रिटिश वकील सर सिरिल रैडक्लिफ़ द्वारा खींचा गया था। यह सीमा रेखा भारत और पाकिस्तान के विभाजन की प्रक्रिया के दौरान खींची गई थी। ब्रिटिश भारत, जिसने दो अलग-अलग राष्ट्रों, भारत और पाकिस्तान का निर्माण किया, और इस क्षेत्र में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंत को चिह्नित किया।

रेडक्लिफ सीमा रेखा: स्वतंत्रता और खूनी खेल

रैडक्लिफ़ सीमा रेखा

रैडक्लिफ रेखा को अलग-अलग हिंदू-बहुसंख्यक और मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों को बनाने के इरादे से धार्मिक जनसांख्यिकी के आधार पर तैयार किया गया था। रेखा ने ब्रिटिश भारत को दो भागों में विभाजित किया: डोमिनियन ऑफ इंडिया, जिसका उद्देश्य हिंदू बहुमत के साथ एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होना था, और डोमिनियन ऑफ पाकिस्तान, जिसकी कल्पना मुसलमानों के लिए एक अलग धार्मिक राज्य के रूप में की गई थी। रेडक्लिफ रेखा भारत और पाकिस्तान के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा बन गई जब दोनों देशों ने 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की।

रैडक्लिफ रेखा खींचने की प्रक्रिया जल्दबाजी में की गई थी और इसमें विस्तृत सर्वेक्षण का अभाव था, जिसके परिणामस्वरूप एक जल्दबाजी और विवादास्पद सीमांकन हुआ, जिसने कई मुद्दों को अनसुलझा छोड़ दिया, जिसमें जम्मू और कश्मीर, पंजाब और बंगाल की रियासतों की सीमाओं पर विवाद शामिल थे।

ब्रिटिश भारत के विभाजन के परिणामस्वरूप व्यापक हिंसा, सांप्रदायिक दंगे और बड़े पैमाने पर पलायन हुआ, जिससे इतिहास में सबसे बड़ा और सबसे खूनी मानव प्रवासन हुआ, जिसमें लाखों हिंदू, मुस्लिम और सिख अपने-अपने देशों में प्रवास करने के लिए नई खींची गई सीमा को पार कर गए। . रैडक्लिफ रेखा तब से भारत और पाकिस्तान के बीच वास्तविक सीमा बनी हुई है, और दोनों देशों के बीच एक विवादास्पद मुद्दा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप वर्षों से कई संघर्ष और विवाद हुए हैं।

रेडक्लिफ सीमा आयोग तथा पंजाब में नरसंहार

रेडक्लिफ सीमा आयोग और पंजाब में नरसंहार दो परस्पर जुड़ी हुई ऐतिहासिक घटनाएं हैं जो 1947 में ब्रिटिश भारत के विभाजन के दौरान हुई थीं।

रैडक्लिफ सीमा आयोग की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत और पाकिस्तान के नव निर्मित राज्यों के बीच की सीमाओं को निर्धारित करने के लिए की गई थी, जो ब्रिटिश शासन के अंत के बाद बनने वाले थे।

ब्रिटिश वकील सर सिरिल रैडक्लिफ को धार्मिक बहुल क्षेत्रों सहित विभिन्न जनसांख्यिकीय और प्रशासनिक कारकों के आधार पर सीमाएं बनाने का काम सौंपा गया था। हालाँकि, आयोग को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जैसे सटीक डेटा की कमी, कम समय सीमा और राजनीतिक दबाव, जिसने कार्य को बेहद कठिन बना दिया।

पंजाब में नरसंहार ब्रिटिश भारत के विभाजन के दौरान पंजाब क्षेत्र में फैली व्यापक सांप्रदायिक हिंसा और रक्तपात को संदर्भित करता है। जैसा कि रेडक्लिफ सीमा आयोग ने सीमाओं को खींचा, इसके परिणामस्वरूप पंजाब क्षेत्र का दो भागों में विभाजन हुआ, जिसमें पश्चिमी भाग पाकिस्तान का हिस्सा बन गया और पूर्वी भाग भारत का हिस्सा बन गया। इसने नई खींची गई सीमाओं के पार हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों के बड़े पैमाने पर पलायन को बढ़ावा दिया, क्योंकि लोगों ने अपनी धार्मिक पहचान के साथ गठबंधन करने वाले देश में जाने की मांग की।

पंजाब के विभाजन में सांप्रदायिक दंगे, नरसंहार और जबरन धर्मांतरण सहित हिंसा की भयानक घटनाएं हुईं। बड़े पैमाने पर हत्याएं, बलात्कार और लूटपाट के साथ धार्मिक समुदायों पर क्रूर हमले हुए।

दोनों पक्षों, हिंदुओं और सिखों ने एक तरफ और मुसलमानों ने एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा की, जिसके परिणामस्वरूप सैकड़ों हजारों लोग मारे गए और लाखों लोग विस्थापित हुए। पंजाब के विभाजन के दौरान हुई हिंसा के पैमाने और तीव्रता को मानव इतिहास के सबसे खूनी अध्यायों में से एक माना जाता है।

रैडक्लिफ सीमा आयोग द्वारा जल्दबाजी में खींची गई सीमाएँ और पंजाब में इसके परिणामस्वरूप हुई हिंसा के परिणामस्वरूप अत्यधिक मानवीय पीड़ा और सामाजिक उथल-पुथल हुई।

इसने लाखों लोगों के विस्थापन का नेतृत्व किया, धार्मिक समुदायों के बीच गहरी दुश्मनी पैदा की, और इस क्षेत्र के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा। रेडक्लिफ सीमा आयोग के फैसलों और पंजाब में नरसंहार के निशान आज भी महसूस किए जाते हैं, और वे भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास और राजनीति को आकार देना जारी रखते हैं।

भारत पाकिस्तान के मध्य सीमा रेखा का निर्धारण

इन सीमाओं का निर्धारण करने के लिए अंग्रेजी सरकार ने न्यायमूर्ति ‘रेडक्लिफ’ की अध्यक्षता में एक सीमा आयोग नियुक्त किया जिसका काम हिंदू तथा मुस्लिम बहुसंख्या वाले परंतु संलग्न प्रदेशों अथवा ग्रामों का मानचित्रों पर निर्धारण करना था। परंतु केवल जनसंख्या को ही ध्यान में नहीं रखना था, अन्य तत्व जैसे संचार साधन, नदियों तथा पहाड़ों आदि को भी ध्यान में रखना था। दुर्भाग्य से आयोग को कई सीमा बंधनों में कार्य करना था।

पहला था समय की कमी। अर्थात न्यायमूर्ति रेडक्लिफ को केवल 6 सप्ताह मिले अर्थात 15 अगस्त तक ही निर्णय लिया जाए, अधिक से अधिक दो अथवा तीन दिन अधिक में यह कार्य होना था। दूसरे उन्हें यह कार्य प्रांतीय सरकारों द्वारा प्रस्तुत किए गए आंकड़ों तथा मानचित्रों के आधार पर यह निर्णय देना था। मानचित्र कई बार स्थानीय नौकरशाही के कौशल से सर्वथा अशुद्ध थे, विशेषकर इसलिए कि पंजाब तथा बंगाल दोनों प्रांतों में मुसलमानों की संख्या अधिक थी तथा 1900 के उपरांत इन दोनों प्रांतों में मुसलमान अधिकारी अधिक थे और उन्होंने आंकड़े मनमाने ढंग से प्रस्तुत किए।

रेडक्लिफ की अनभिज्ञता

कई ग्राम ‘बेचिराग’अर्थात यहां कोई नहीं बसता यह कहकर पाकिस्तान में सम्मिलित कर दिए जबकि वास्तव में वहाँ हिंदू बहुसंख्या में थे। अधिकारी वर्ग को उस समय तक पूर्ण रूप से सांप्रदायिक रंग में रंगा जा चुका था, इससे यह आशा ठीक नहीं थी कि वे न्याय करेंगे अथवा होने देंगे। न्यायमूर्ति रेडक्लिफ को भी भारत के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। समय था केवल 6 सप्ताह।

आयोग ने महत्वपूर्ण स्थान निर्धारित किए और फिर सीमा निर्धारण के लिए इन स्थानों को जोड़ने के लिए रेखा खींच दी। जब यह रेखा वास्तविक रूप से ग्राम से ग्राम तक खींची गई तो देखा कि यह रेखा कई बार छोटे-छोटे ग्रामों के बीच से गुजरती थी अथवा रेल तथा स्थल मार्गों के बीच से गुजरती थी और कई बार तो यह घरों के बीच से गुजरती थी।

नहरों का स्रोत एक राज्य में तथा नहर दूसरे राज्य में, ग्राम एक ओर तथा चारागाह दूसरी ओर, मार्ग तथा संचार साधन पूर्णतया अस्त-व्यस्त और जनता के लिए अनेकों अदृश्य समस्याएं विद्यमान थी” लेखक को स्मरण है कि पाकिस्तान बनने के उपरांत लगभग दो-तीन माह तक डलहौजी नगर से अमृतसर नगर ( यह दोनों नगर भारतीय पंजाब में थे) से टेलिफोन पर बात करने के लिए लाइन पहले डलहौजी से लाहौर (पाकिस्तान में) लेनी पड़ती थी और फिर लाहौर से अमृतसर लेनी पड़ती थी। क्योंकि डलहौजी नगर से अमृतसर सीधी लाइन नहीं थी।

भारत का बंटवारा और संप्रदायिक दंगे

 15 अगस्त 1947 के उपरांत सीमा के दोनों और हिंसा भड़क उठी यह कहना कठिन है कि पहल किसने की। संभवत: यह सब कलकत्ते में हुई अगस्त 1946 की सीधी कार्यवाही का परिणाम था। सिक्ख मुसलमानों को दोषी ठहराते थे और मुसलमान सिक्खों तथा हिंदुओं को। शीघ्र ही समर्थ पंजाब जलने लगा।

लाहौर में  मुसलमान अफसरों ने नगर में कर्फ्यू लगा कर हिंदू बाजारों को आग लगा दी। (जून 1947 ) हिंदू सिक्ख तथा मुसलमानों के हथियारबंद दस्ते चारों ओर घूम रहे थे तथा एक दूसरे की निहत्थी जनता पर अत्याचार कर रहे थे जिनका वर्णन असंभव है। जिलाधिकारी बेबस थे क्योंकि सीमा सुरक्षा दल अपने सहधर्मियों पर गोली चलाने से मना ही कर देते थे।

 जनसंख्या की अदला बदली

 अगस्त माह के नरसंहार विभित्सता तथा अत्याचारों ने दोनों देशों की सरकारों को यह स्वीकार करने पर बाध्य कर दिया कि पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पंजाब में हिंदू और मुसलमानों का एक साथ रहना असंभव है। और दोनों ने जनता की अदला-बदली मान ली। नगरों से तो लोग रेलगाड़ी में बैठकर सीमा पार कर सकते थे किंतु ग्रामीण क्षेत्रों से तो निकलना लगभग असंभव था। अतएव यह लोग बड़े-बड़े समूह बनाकर भारतीय सेना की सहायता से भारत आए। यह संसार के इतिहास में वह अध्याय जो न देखा गया और न सुना गया था अर्थात संपूर्ण अल्पसंख्यकों का देशांतरण।

भारत सरकार के एक रपट में शरणार्थियों के देश छोड़ने का विवरण इस प्रकार दिया गया है—-

“भारत-पाकिस्तान सीमा के पास के नगरों तथा ग्रामों के गैर- मुसलमान, भारत में बड़ी संख्या में 1947 के अगस्त माह के अंत और सितंबर के आरंभ से ही कुछ छोटे-छोटे असंगठित दलों में आने आरंभ हो गए थे।

पीछे जब पाकिस्तानी सेना ने (मुस्लिम) दलों की सहायता आरंभ कर दी तो यह लोग बड़े- बड़े समूहों में (30,000 से 40,000 तक) लायलपुर तथा मिण्टगुमरी के उपजाऊ क्षेत्रों से 150 मील की पैदल यात्रा पर चल पड़े। 18 सितंबर से 29 अक्टूबर तक, 42 दिनों में 24 गैर मुस्लिम समूह जिनकी कुल मानव संख्या 8,49,000 थी, भारत आए। इन काफिलों में सैकड़ों बैलगाड़ीयाँ और पशु की साथ थे।

शरणार्थियों के भारत आगमन से उत्पन्न समस्याएं—-

इन चलते हुए समूहों ने भारतीय सरकार के लिए अनगिनत दुरूह तथा जटिल समस्याएं पैदा कर दी। जब अन्न की कमी हो गई तो भारत सरकार को वायु सेना के द्वारा अन्न तथा चीनी भेजनी पड़ी। वायुयानों ने अमृतसर तथा दिल्ली से जड़ांवाला, लायलपुर, चूड़खाना, ढाबा सिंह वाला, बल्लोंकी नहरस्रोत (Headworks) तथा भाई फेरू की उड़ानें भरीं।

दवाइयां, टीके तथा डाक्टरों तथा वायुयानों द्वारा भेजे गए। एक फील्ड एंबुलेंस यूनिट गए विंड को भेजा गया ताकि शरणार्थियों को भारत में आने से पूर्व टीके ( inoculate) लगाए जा सकें। मार्ग में इन समूहों पर प्रायः आक्रमण होते रहते थे और कई बार अत्याधिक जान की हानि होती थी।

बच्चों तथा स्त्रियों का अपहरण हो जाता था तथा पाकिस्तानी सरकारी अफसर तथा सेना इन लोगों की अनाधिकृत तलाशियां भी ले लेते थे और जो थोड़ा बहुत धन होता था वह भी छीन लेते थे। इन्हें केवल मनुष्य का ही नहीं प्रकृति का भी प्रकोप सहना पड़ा। खुले आकाश के नीचे रहना महावृष्टि ( 21-25 सितंबर ) इत्यादि ने अपना अपना पथ- कर लिया। लोग सैकड़ों की संख्या में मर गए परंतु कारवां चलता रहा।” जब समूह चल रहे होते थे तो किसी के पास शवों को भी ठिकाने लगाने का समय नहीं होता था, रोने धोने की तो बात ही मत सोचो।

रेलवे की भूमिका—-

रेलवे ने इन शरणार्थियों को इधर से उधर ले जाने का एक बहुत ही सराहनीय कार्य किया। एक अनुमान के मुताबिक 23 लाख शरणार्थी इधर से उधर ले जाए गए। 1947 के नवंबर माह के अंत तक शरणार्थियों की आवाजाही लगभग समाप्त हो गई थी। और एक अनुमान के अनुसार 80 लाख लोग सीमा पार कर भारत आए।

सहस्र लड़कियां बलपूर्वक दोनों क्षेत्रों में रख ली गई थीं। कई युवतियों ने कुएं में छलांग लगाकर जान दे दी थी। इन अपहृत लड़कियों को वापस लाकर उनके अभिभावकों को सौंपने का कार्य भारतीय तथा पाकिस्तानी पुलिस और सैनिक दल शांति स्थापित होने के2-3 वर्ष उपरांत भी करते रहे। 

परंतु इस अथाह मानव को खाना खिलाना, कपड़े देना, पुनः स्थापन करना और ग्रामीण श्रमिकों, भूमिहीन कामगारों तथा नगरवासियों को काम धंधे में लगाना एक ऐसी समस्या थी जो कही-सुनी नहीं जा सकती थी। पाकिस्तान से आने वाले हिंदू और सिक्ख प्रायः छोटे व्यापारी थे और यहां से जाने वाले प्रायः श्रमिक और हस्तशिल्पी थे। दोनों वर्गों को नए देश में काम मिलना काफी कठिन था क्योंकि यहां तो पहले ही से उनके वर्ग के लोग काम कर रहे थे। लाखों लोग दिल्ली आए तथा भारत के अन्य भागों में बस गए।

इन  शरणार्थियों ने जहां-जहां वे गए विशेषकर दिल्ली, हरियाणा तथा पश्चिम उत्तर प्रदेश की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और जातीय तत्वों को एक नई दिशा दी।  केंद्रीय सरकार ने एक नया विभाग पुनर्वास ( रिहैबिलिटेशन ) का गठन किया और  शरणार्थियों अथवा पाकिस्तान से  उजड़ कर आए लोगों की सहायता तथा उनकी समस्याओं को सुलझाने के लिए काम किया मुसलमान जो संपत्ति और भूमि छोड़ कर गए थे उसको इन में बांटा इस भीम का कार्य में बरसो लग गए तथा सरकार का करोड़ों का व्यय हुआ।


Share This Post With Friends

Leave a Comment

Discover more from 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading