दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था-केंद्रीय, प्रांतीय, सैन्य, न्याय, भूमि कर व्यवस्था | The Administrative System of Delhi Sultanate in Hindi

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Delhi Sultanate सल्तनत, दिल्ली सल्तनत की स्थापना 1206 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा स्थापित दास वंश से शुरू होती है और इसका अंत 1526 लोदी वंश के पतन से होता है। जब हम दिल्ली सल्तनत के शासकों कीशासन व्यवस्था को देखते हैं तो ऐसे तमाम अधिकारी थे जो अलग-अलग पदों पर कार्य करते हुए अपनी जिम्मेदारियां निभाते थे। यद्यपि सुल्तान सत्ता का एकमात्र स्रोत होता था और मुख्यतः वह निरंकुश ही होता था। उलेमा और ख़लीफा भले ही सीधे सत्ता में दखल न देते हों पर उनके आदेशों को सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता था। आज इस लेख में हम सल्तनत कालीन शासन व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले सभी विभागों के बारे में जानेंगे जैसे केंद्रीय अधिकारी, प्रांतीय अधिकारी, सैन्य और राजस्व विभाग जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करेंगे। लेख को अंत तक अवश्य पढ़े।

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दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था- दिल्ली सल्तनत की स्थापना 1206 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा स्थापित दास वंश से शुरू होती है और इसका अंत 1526 लोदी वंश के पतन से होता है .उलेमा और ख़लीफा भले ही सीधे सत्ता में दखल न देते हों पर उनके आदेशों को सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता था।

Delhi Sultanateदिल्ली सल्तनत की शासन व्यवस्था का स्वरूप

दिल्ली सल्तनत की शासन व्यवस्था एक धर्मसापेक्ष यानी धर्म पर आधारित थी और इस्लाम धर्म ही राज्य का स्वीकार्य धर्म था। सुल्तान इस्लाम को आगे बढ़ने और दूसरे धर्मों को नीचा दिखाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। यदयपि उलेमा यहां पैतृक नहीं होते थे पर राज्यों के मसलों में प्रभावशाली दखल देते थे। सुल्तान लोगों को इस्लाम में परिवर्तित करते थे मगर भारत में फिर भी वह आंशिक रूप से ही सफल हुए। दारुल-हरब [काफिर देश-गैर मुस्लिम] को दारुल इस्लाम [इस्लामी देश] में बलदना ही सुल्तानों का लक्ष्य था।

खलीफा की भूमिका

प्रारम्भिक इस्लामिक राज्य चाहे विश्व के किसी भी कोने में स्थापित हुए हों उनका एकमात्र अर्वोच्च नेता या अधिपति खलीफा ही होता था। मगर बढ़ते साम्रज्यों के कारण यह असम्भव हो गया कि प्रत्येक राज्य का अधिपति खलीफा हो। दुर्दांत मंगोल सरदार हलाकू ने अंतिम खलीफा का अंत करके खलीफा के महत्व को हमेशा के लिए समाप्त करने का प्रयास किया मगर उसके बाद भी यह प्रणाली चलती रही।

सच तो यह है कि दिल्ली के सुल्तान खुदको खलीफा का सहायक मनाकर ही गद्दी पर बैठते थे। खलीफा का नाम सिक्कों पर अंकित कराया जाता और उसके नाम का खुत्बा पढ़वाया जाता। सल्तनत के दो सुल्तानों ने खलीफा की सत्ता को मानने से इंकार दिया, अलाउद्दीन खिलजी और कुतुबुद्दीन मुबारक ने स्वयं खलीफा की उपाधि धारण कर्ली। यद्यपि में खलीफा की सत्ता नाममात्र ही थी। क्योंकि दिल्ली के किसी भी सुल्तान ने खलीफा को कभी कोई महत्व नहीं दिया।

दिल्ली सल्तनत में सुल्तान की भूमिका

सुल्तान ही दिल्ली सल्तनत का एकमात्र सर्वोच्च अधिपति होता था। सुल्तान ही सभी शक्तियों का निरंकुश उपभोगी था। सुल्तान का चयन उलेमा, अमीर और सरदार मिलकर करते थे। लेकिन यह सब एक दिखावा मात्र होता था क्योंकि सुल्तान का पर युद्ध और ताकत से प्राप्त होता था और जो विजयी होता था वही सुल्तान के पद पर बैठता था। सुल्तान का पद पैतृक होता था पर या हमेशा नहीं होता था क्योंकि जलालुद्दीन खिलजी ने अपने को पहले ही गद्दी पर बैठा लिया और उलेमाओं, सरदारों और अमीरों का भी समर्थन प्राप्त कर लिया।

सुल्तान कानून बनाते समय शरियत का ख्याल रखता था। सुल्तान की तलवार ही राज्य में शांति वयवस्था बनाये रखने का एकमात्र जरिया थी। लेकिन सुल्तान से यह भी अपेक्षा की जाती थी कि वह जनता के जानमाल की रक्षा करेगा। राज्य को चोर डाकुओं से मुक्त रखेगा और रास्तों को सुरक्षित रखेगा। सुल्तान इस्लाम के सरंक्षण और विकास के लिए सदा तत्पर रहता था। इस्लाम के विरोधियों के विरुद्ध जिहाद [पवित्र युद्ध] करना सुल्तान का कर्तव्य था।

सरदार व अमीरों की भूमिका

दिल्ली सल्तनत में सरदारों और अमीरों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती थी और कोई भी सुल्तान इन्हें नाराज नहीं करना चाहता था। सरदार व अमीरों के पर वंशानुगत होते थे। ये सरदार व इस्लाम की पवित्रता में विश्वास करते थे मगर सुल्तान के चरित्र के साथ ही इनका भी चरित्र बदल जाता था। सुल्तान की आज्ञा का पालन ये लोग तभी तक अमीर करते थे जब तक उन्हें लगता था कि सुल्तान अपने कर्तव्यों का पालन सही से कर रहा है। लेकिन ये लोग वही करते थी जिसमें इनका लाभ हो।

प्रांतीय व स्थानीय प्रशानिक व्यवस्था


वजीर की भूमिका

वजीरों को मंत्री भी कहा जाता है। एक बड़ी प्रसिद्ध अरबी कहावत है कि “सबसे वीर मनुष्यों को शास्त्रों की आवश्यकता होती है और सबसे बुद्धिमान शासक को मंत्रियों की।” इसी सिद्धांत का पालन दिल्ली सल्तनत के सुल्तान भी करते थे और वजीरों के पदों पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी। दिल्ली सॉनेट में वजीरों के चार पद थे- वजीर, आरिज-ए-मुमालिक, दिवान-ए-इंशा और दिवान-ए- रसालत। कुछ अवसरों पर नायब या नाइब-ए-मुमालिक के पदों का भी सृजन देखा गया। बाद में सदर-ए-सुदूरदीवान-ए-क़ज़ा के पदों का भी सृजन किया गया। इस तरह दिल्ली सल्तनत के अधीन छह वजीर थे। शाही हरम का अधिकारी वजीर से कहीं ज्यादा शक्तियों का मालिक होता था।

आइये अब इनके बारे में विस्तार से जानें

वजीर Wazir – मुख्यमंत्री के पद को वज़ीर कहा जाता था। वज़ीर और सुल्तान ही मुख्यतः जनता के बीच रहते थे। दिल्ली सल्तनत में दो प्रकार के वज़ीर होते थे जिनमें विशेष असीमित हुए सिमित शक्तियों वाले। वज़ीर का पर इतना शक्तिशाली होता था कि कई बार सुल्तान को भी इनके आगे झुकमना पड़ता था। वज़ीर ही राज्य के धन शक्ति का अर्जन करते थे। कारखानों, पशुओं और राज्य के लेखा-जोखा रखना वज़ीर का कार्य होता था। मुख्यतः वज़ीर केंद्रीय वित्त विभाग का अध्यक्ष था और यह राज्य के समस्त क्षेत्र का प्रमुख था। मुख्यतः इसके कार्यों में शामिल था —

  • असैनिक सेवकों की नियुक्ति और निरिक्षण करना।
  • भूमिकर संग्रहण के लिए ठेकेदारों का संगठन करना।
  • व्यय के स्रोतों में पूर्ण नियंत्रण रखता था।
  • सरकार के विभिन्न विभागों के खातों की जाँच करना।
  • स्तानीय अधिकारीयों द्व्रारा अनुचित व्यय को रिकवर करना।
  • वेतन वितरण व पदों का विभाजन करना।
  • विद्वानों और निर्धनों को आर्थिक मदद करना।

खान जहाँ मकबूल के अलाबा सभी वज़ीर उत्तम चरित्र और सुसंस्कृत रहे।

दीवान-ए-रिसालत – Diwan- i- Risalat- इसके पद के विषय में बहुत मतभेद हैं। डॉ. कुरैशी का मत है कि यह धार्मिक मामलों को देखता था और विद्वानों और पवित्र मनुष्यों को आर्थिक सहायता प्रदान करता था। लेकिन डॉ. हबीबुल्ला का मत है कि यह विदेश मंत्री था और विदेशों से संबंध और पात्र व्यवहार का काम देखता था। कूटनीतिक रिश्तों को बनाये रखने के लिए राजदूतों को अन्य देशों में भेजता था। विदेशी मेहमानों और राजदूतों का स्वागत करता था। हबीबुल्ला के मत को ही अधिकांश लोगों ने स्वीकार किया है।

सदर-उस-सुदूर-Sadr- Us-Sudur- अक्सर यह पद दीवान-ए-क़ज़ा के साथ एक ही व्यक्ति को मिलता था। यह इस्लाम के विषयों का जानकर होता था और इस्लाम के नियमों को लागु करना प्रमुख कार्य था। मुसलमान लोग इस्लाम का सही से पालन करते हैं या नहीं उन पर निगरानी रखना इसका कार्य था। इसको सुल्तान बहुत सा धन देता था जिसे यह विद्वानों, पुरोहितों, धर्मात्माओं में वितरण करता था और ये सभी सिर्फ मुस्लमान ही होते थे। हिन्दू विद्वानों या पुरोहितों को कुछ महत्व न था। यह ध्यान रखना जरुरी है कि दीवान-ए-क़ज़ा का अध्यक्ष काजी-ए-मुमालिक था जिसे काजी-ए-कुजात भी कहा जाता था।

दीवान-ए-इन्शा-Diwan-i-Insha- इसका संबंध शाही- पत्रव्यवहार से था। इसे गुप्त रहस्यों का कोष कहा गया है और शायद सही ही कहा गया है। इसका अध्यक्ष ‘दबीर-ए-खास होता था जो राज्य का गोपनीय लिपिक था। इसके अधीन बहुत से सहायक दबीर होते थे। राज्य का प्रत्येक पत्र इसके विभाग से होकर गुजरता था।

बारिद-ए-मुमालिक-Barid-i-Mumalik- राज्य के समाचार स्रोतों का अध्यक्ष होता था। इसका प्रमुख कार्य राज्य में घटने वाली किसी भी घटना का व्योरा एकत्र करना था। इसके अधीन कई उप बारिद होते थे जो नियमित रूप से केंद्रीय कार्यालय को सूचनाएं देते थे। मुख्यतः सरकारी अधकारियों, वित्तीय व्यवथा , कृषि की दशा, सिक्कों की शुद्धता, जैसे विषयों की गोपनीय सूचना सुल्तान तक पहुँचाना महत्वपूर्ण कार्य थे।

वकील-ए-दार Wakil-Dar- यह शाही हरम यानि अंतपुर का अधिकारी था। यह रनवास के सभी कार्यों का नियंत्रण रखता था। सुल्तान के व्यक्तिगत कर्मचारियों के वेतन-भत्तों का निक्शन निरीक्षण रखता था। इसके नियंत्रण में शाही भोजनालय से लेकर अस्तबल और सुल्तान की संताने भी रहती थीं। सुल्तान तक पहुँचने के लिए इसी से मिलना पड़ता था।

नायब-उल-मुल्क-Naib-I-Mulk- यह पद एक अमीर को दिया जाता था जिसे नायब-उल-मुल्क कहा जाता था। यह पद सुल्तान के चरित्र और व्यक्तित्व के अनुसार परिवर्तित होता रहता था। यह सैनिक विभाग का अध्यक्ष होता था। केंद्रीय प्रशासित क्षेत्रों का प्रबन्धन यही देखता था। सुल्तान की अनुपस्थिति की दशा में एक सरदार को नायब-ए-गायबात चुना जाता था। वह राज्य में सुल्तान के प्रतिनिधि के तौर पर कार्य करता था।

दीवान-ए-आरिज- Diwan-i-Ariz- यह युद्ध मंत्रालय का प्रमुख अधिकारी और अध्यक्ष था। यह सेना के रखरखाव और सैनिकों की भर्ती करता था। वेतन निर्धारण करता था। युद्ध अभियान के समय समस्त तैयारियां यही करता था। यद्यपि सुल्तान एक सेनापति नियुक्त करता था पर लेकिन सेना का चुनाव दीवान-ए-आरिज ही करता था। यह उस माल की उगाही पर नज़र रखता था जो सेनापति की उपस्थिति में वितरित किया जाता था। दीवान-ए-आरिज को “धर्म के लिए लड़ने वालों की जीविका का साधन” ठीक ही कहा गया है।

यह अब तक हमने केंद्रीय व्यवस्था का अवलोकन किया अब हम प्रांतीय व स्थानीय प्रशसनिक व्यवस्था का अध्ययन करेंगे।

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प्रांतीय व स्थानीय प्रशानिक व्यवस्था

दिल्ली सल्तनत की कोई प्रामाणिक प्रशासकीय व्यवस्था नहीं थी। तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत में सैनिक ही आदेशकर्ता होते थे जिन्हें ‘इक्ता’ कहा जाता था। प्रत्येक इक्ता के ऊपर ‘मुक्ति’ होते थे। अलाउद्दीन खिलज़ी के अधीन तीन प्रकार के प्रान्त या इक्ता होते थे – प्रथम पुराने इक्ता, दूसरे नवविजित प्रान्त जो सैनिक प्रन्ताध्यक्षों के अधीन होते थे जिन्हें वालिस कहा जाता था और तीसरे हिन्दू सामंती रियासते।

प्रांतस्थान
बदायूंउत्तर प्रदेश
बिहारबिहार
दिल्लीदिल्ली
देवगिरिदौलताबाद, महाराष्ट्र
द्वार-समुद्रकोकण क्षेत्र, महाराष्ट्र
गुजरातगुजरात
हाँसीहरियाणा
जाजनगरगुजरात और महाराष्ट्र का बहुमंजिला राज्य
कलानौरहरियाणा
कन्नौजउत्तर प्रदेश
कड़ामध्य प्रदेश
कुट्टुरमतमिलनाडु
लाहौरपाकिस्तान
लखनौतीउत्तर प्रदेश
माबारउत्तर प्रदेश
मालवामध्य प्रदेश
मुल्तानपाकिस्तान
अवधउत्तर प्रदेश
सामनाहरियाणा
सेहवानहरियाणा
सिरसुतीहरियाणा
तेलंगआंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और महाराष्ट्र
उचहरियाणा

प्रांताध्यक्ष

आजके राज्यपालों के सामान ही प्रांताध्यक्ष होते थे। इसका कार्य लोगों की रक्षा करना उनके ऋणों को देखना और सिपाहियों, सेवकों , योद्धाओं और लिपिकों की देखरेख करना था। व्यापारियों और खुले मार्गों की रक्षा करना भी उसकी जिम्मेदारी थी। न्याय का ख्याल रखता था व शोषित और पीड़ितों को दबंगों से बचाता था। दीवान-ए-वजारत के काम की देखरेख यही करता था। लोकाधिकारियों के कार्यों का निरीक्षण करना और कृषकों को अवैध उगहियों से बचाना इसी का कार्य था।

साहिब-ए-दीवान

प्रत्येक प्रान्त के लिए एक साहिब-ए-दीवान की नियुक्ति होती थी। इसकी नियुक्ति वजीर की सिफारिस पर सुल्तान करता था। यह एक कुशल कोषाध्यक्ष होता था। इसका कार्य था की यह बहीखातों को रखे और इसका वास्तविक विवरण सुल्तान को भेजे। इसी के आधार पर वजीर मुक्ती की सहायता से बही-खातों को दुरुस्त करता था। ख्वाजा को प्रांताध्यक्ष के अधीन रखा गया। लेकिन ख्वाजा की रिपोर्ट पर प्रांताध्यक्ष को पदमुक्त किया जा सकता था।

शिक

तेरहवी शताब्दी तक इक्ता के नीचे कोई भी प्रशसकीय इकाई नहीं थी लेकिन चौदहवीं शताब्दी में प्रांतों का विभाजन शिक़ों में कर दिया गया। यह निश्चित नहीं कि यह प्रत्येक प्रान्त में हुआ। मुहम्मद तुगलक ने दक्षिण के प्रान्त को चार शिक़ों में बाँट दिया गया था। शिक के प्रधान को शिकदार कहा जाता था। कुछ खास मौकों पर यह सैनिक अधिकारी के रूप में भी कार्य करता था। क्षेत्र में शांति व्यवस्था बनाये रखना इसी के ऊपर था।

परगना

शिक के निचे की इकाई परगना थी। मोरलैण्ड ने इसे छोटे कस्बे के समान बताया है। इसका मतलब कि यह कुछ गाँव का एक समूह था। इब्नबतूता ने इसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया है –“ये लोग 100 ग्रामों के समूह को ‘सदी’ का नाम देते है।” इब्नबतूता हिंदपट सदी का जिक्र करता है जिसे दिल्ली के निकट इंद्रपस्थ परगने का समरूप माना जा सकता है। सदी का प्रयोग सरकारी अभिलेखों में नहीं मिलता था। स्रोतों से पता चलता है कि गांव का प्रबंध हिन्दुओं के हाथों में होता था। गांव में पंचायतों के माध्यम से विवादों का निपटारा होता था। गांव के लोग अपने मामलों को स्वयं सुलझा लेते थे और सुल्तान को इनके मामलों में हस्क्षेप की आवश्यकता नहीं पड़ती थी।

सल्तनतकालीन अर्थव्यवस्था का स्वरूप


सल्तनतकाल में अर्थव्यवस्था का स्वरूप सुन्नी विद्वानों की हनीफा ज्ञानशाखा का अर्धसिद्धांत पर निर्भर था। इस्लामिक राज्य की आय के दो साधन होते थे धार्मिक लौकिक। धार्मिक करों का भुगतान केवल मुस्लमान करते थे जिसे ‘जकात’ कहा जाता था। इस कर का भुगतान व्यक्ति अपनी क्षमतानुसार सोने. चांदी, पशु और वस्तु के रूप में कर सकता था। किसी वस्तु के वजन पर लगा कर सम्पत्ति का 1/4 भाग होता था। जकात केवल उस संपत्ति पर लगता था जिस पर काम से कम एक वर्ष का मालिकाना हक़ हो। जकात एक पृथक कोष में जमा होता था।

धर्म से अलग लिए जाने वाले कर सम्पूर्ण गैर मुस्लिम जनता से वसूले जाते थे जो जजिया, इसके अतिरिक्त व्यापारी कर, खानों पर कर, युद्ध क्षतिपूर्ति कर, व कोषागारों पर कर आदि। इस्लामी कानून के अनुसार इन करों को दरें 1/10 से 1/12 से अधिक नहीं हो सकती थीं।

जजिया कर

यह कर केवल गैर मुसलमानों से वसूला जाता था। यह कर गैर मुस्लिम जनता का सैन्य सेवा से मुक्त रखने और उनके जान माल की रक्षा के बदले लिए जाता था। एक तरह से यह मुस्लिम राज्य में रहने का कर कहो या जुर्माना था।

जजिया कर स्त्रियों, बच्चों, भिक्षुओं, साधुओं, अपंगों और अंधों पर नहीं लगाया जाता था।

” दिल्ली सल्तनत का एकमात्र सुल्तान फीरोज तुगलक था जिसने ब्राह्मणों पर भी जजिया कर लगाया।” इसका काफी विरोध हुआ और इनके करों का भुगतान धनी हिन्दुओं द्वारा किया गया। जब सुल्तान के सामने यह विवाद आया तो उसने केवल धनी ब्राह्मणों पर 10 टंकों की जगह 50 जीतल कर निर्धारित कर दिया गया। जजिया कर के लिए हिन्दू जनता को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया। प्रथम श्रेणी में 48 दरहम, द्वितीय श्रेणी पर 24 दरहम और तृतीय श्रेणी पर 12 दरहम का कर लगाया गया।

  • आयातीय माल पर 1/40 भाग जकात के रूप में लिया जाता था। घोड़ों पर यह 5% था।
  • गैर मुस्लिम व्यापारिओं से आयात कर दोगुना वसूला जाता था।
  • सिकंदर लोदी ने आनाज से जकात हटा दिया था और फिर इसे कभी किसी सुल्तान ने नहीं लगाया।
  • युद्ध क्षतिपूर्ति पर लगने वाले कर या अर्थदण्ड को घनीमाह कहा जाता था।
  • क़ानूनी रूप से लूटमार कर एकत्र किया धन सैनिकों में बाँट दिया जाता था और 1/5 भाग सुल्तान के कोष में जमा किया जाता था।
  • सुल्तान व सेनापति को लूट के माल से इच्छानुसार अपना समान या वास्तु प्राप्त करने का अधिकार था।
  • जो लूट का हिस्सा राज्य को दिया जाता था वह ‘खम्स’ कहा जाता था।
  • खम्स को इस्लाम के विरुद्ध उलटा लागु किया जाने लगा और 1/5 भाग सैनिकों के हिस्से में और 4/5 भाग राज्य के हिस्से जाने लगा।
  • खुदाई में प्राप्त खजाने का 1/5 भाग राज्य को मिलता था।
  • यदि कोई मुस्लमान वारिस रहित मरता था तो उसकी समस्त सम्पत्ति राज्य की हो जाती थी। लेकिन इसी दशा में हिन्दू की सम्पत्ति सिर्फ हिन्दू को दी जाती थी।
नियम / विधिविवरण
जकातआयातीय माल पर 1/40 भाग
घोड़ों पर जकात5%
गैर मुस्लिम व्यापारियों से आयातदोगुना वसूला जाता था।
आनाज से जकातसिकंदर लोदी ने हटा दिया था।
युद्ध क्षतिपूर्ति पर लगने वाला करघनीमाह कहा जाता था।
लूटमार कर धन सैनिकों में बाँटा जाता1/5 भाग सुल्तान के कोष में जमा किया जाता था।
लूट के माल से अपना समान प्राप्त करनासुल्तान और सेनापति का अधिकार था।
खम्सलूट का हिस्सा, 1/5 भाग राज्य को दिया जाता था।
खम्स का उल्टा लागू किया जाना1/5 भाग सैनिकों के हिस्से में, और 4/5 भाग राज्य
के हिस्से जाने लगे।
खुदाई का खजाना1/5 भाग राज्य को मिलता था।
वारिस रहित मरने पर सम्पत्तिमुस्लमान की समस्त सम्पत्ति राज्य की,
वारिस रहित हिन्दू की सम्पत्तिसिर्फ हिन्दू को दी जाती थी।

सल्तनतकालीन भू-राजस्व व्यवस्था का स्वरूप


सल्तनत की आय के साधन में भू-राजस्व सबसे बड़ा स्रोत था। भूमि के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है जिनमें –

1- खालिस प्रदेश
2- इक्ता में विभाजित भूमि जो कुछ वर्षों अथवा आजीवन मुक्ति लोगों के पास होती थी।
3- ऐसी भूमि जो हिन्दू सरदारों के पास होती थी और वे सुल्तान की सत्ता को स्वीकार कर लेते थे।
4- मुस्लिम संतों और विद्वानों को उपहार में दी गई भूमि।

खालिस भूमि- यह भूमि सीधे सुल्तान अथवा राज्य के नियंत्रण वाली होती थी। लेकिन सुल्तान किसानों के बजाय स्थानीय भू-राजस्व अधिकारीयों के माध्यम से कर की उगाही करता था।

प्रत्येक तहसील में एक आमिल या भू-राजस्व लिपिक रहता था जो चौधरियों और मुकद्दम लोगों से भू-राजस्व वसूलता था। चौधरियों और मुकद्दम ही किसानों से कर वसूलते थे।

इक्ता में लगे भू-राजस्व की उगाही की जिम्मेदारी मुक्ति पर थी, जो अपना हिस्सा काटकर बाकि रकम केंद्रीय खजाने में जमा करा देता था।

ख्वाजा नामक अधिकारी मुक्तियों पर नियंत्रण और निगरानी रखता था।

वक़्फ़ घोषित भूमि और इनाम में दी भूमि कर मुक्त होती थी।

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अलाउद्दीन खिलजी ने ऐसी सब भूमि को जब्त कर लिया जो इनाम, इदारत, या वक़्फ़ के ररूप में दी गई थी। हिन्दू मुक़ददमों, खुतो, और चौधरियों को वे सभी कर फिरसे देने पड़े जिनसे उन्हें मुक्त रखा गया था।

अलाउद्दीन ने राज्य की मांग को उपज के 1/2 भाग तक बढ़ा दिया। इसके अतिरिक्त गृहकर, और चरागाह कर भी लगा दिए।

गयासुद्दीन तुगलक ने कठोरता काम की लेकिन उपज कर 1/2 बनाये रखा। उसने मुकद्दमों, खुतों चौधरियों को उनकी अपनी भूमि से कर-मुक्त कर दिया। उसने तय किया कि किसी भी इक़्ते से राज्य की मांग वर्ष में 1/10 या 1/11 से अधिक नहीं होगी।

मुहम्मद तुगलक ने दोआब में राज्य की मांग 5% तक बढ़ा दी। कृषि विभाग के रूप में दिवान-ए-कोही की स्थापना की गई।

फीरोज तुगलक ने तकवी ऋणों को रद्द कर दिया। उसने समस्त खालिस भूमि में स्थायी रूप से राजस्व की दरें निश्चित कर दीं। उसने 24 करों को बापस ले लिया। उसने केवल 5 कर लगाए – खिराज, खम्स, जजिया, जकात और सिंचाई कर। उसने कृषि की प्रगति के लिए नहरें और कुँए खुदवाये। उद्यान और फसलों की प्रगति की ओर ध्यान दिया।

दिल्ली के सुल्तानों ने समय-समय पर भू राजस्व की दरों में परिवर्तन किया। इस्लाम के अनुसार खिराज उपज के 1/10 और 1/5 के बीच होना चाहिए। दास वंश के समय 1/5 भाग ही रहा। किन्तु अलाउद्दीन ने 1/2 तक वसूला और बाद में यही दर बनी रही। बाद में शेरशाह सूरी ने 1/3 भाग राजस्व वसूला।

भूराजस्व वसूली में लगे अधिकारी भी राजस्व वसूली में सुल्तान को गुमराह करते थे। इस अधिकारीयों का वेतन राजस्व वसूली से प्राप्त रकम से ही किया जाता था।

सुल्तनत काल में जल कर

मुस्लिम शासक उस जल पर कोई कर नहीं वसूलते थे जो सीधे राजकीय नहरों से दिया जाता था। फीरोज तुग़लक़ ने अपने व्यक्तिगत धन से नहरों का निर्माण कराया और 10% कर वसूल किया। इन नहरों से जिन किसानों ने कृषि के लिए जल लिया उन्हें उपज का 1/5 भाग कर देना पड़ा।

कृषि सुधर और प्रगति के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने दीवान-ए-अमीर या दीवान-ए-कोही की स्थापना की जिसकी जिम्मेदारी कृषि भूमि का विकास और फसलों की दशा सुधारना था।

जो कसाई लोग गाय का मांस बेचते थे उनसे 12 जीतल की दर से ‘जज्जारी’ कर वसूल किया जाता था।

उपहार कर

आय का एक अन्य स्रोत उपहार कर था जो सुल्तान प्रजा से वसूलता था। यह कर उन लोगों पर लगता था जो सुल्तान से मिलने आते समय कोई उपहार लाते थे। घोड़े, ऊंट, शस्त्र सोने व चांदी के वर्तन और बहुमूल्य पत्थर जैसी वस्तुएं राजा को कर के रूप में दी जाती थीं। इब्न बतूता बताता है कि “वजीर/प्रधानमंत्री ने सुल्तान को [मुहम्मद तुगलक] सोने व चांदी के वर्तन दिए और साथ में एक चिकनी मिटटी के तीन घड़े भी दिए जिसमें एक में लाल व दूसरे में रत्न और तीसरे में मोती भरे थे।” उपहारों की प्रथा मुग़ल काल से जारी रही।

सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था का स्वरूप


भारत की हिन्दू जनता ने कभी भी सल्तनत के शासन को स्वीकार नहीं किया था और वे कभी भी विद्रोह कर देते थे। इस समस्या से निपटने के लिए एक सुव्यवस्थित सेना जरुरी थी। सुल्तानों ने एक बड़ी और प्रशिक्षित सेना की व्यवस्था की। सेना में चार प्रकार के सैनिकों को रखा गया –

क्रमांकप्रकारविवरण
1स्थायी सैनिकसुल्तान के निजी सेना में रखे गए सैनिक।
2प्रांताध्यक्षों और सरदारों की सेवा में रखे सैनिकस्थानीय प्रांतों के अधिकारियों या सरदारों की सेवा में रखे गए सैनिक।
3भर्ती सैनिकयुद्धकाल में प्रयोग के लिए भर्ती किए गए सैनिक।
4जिहाद या पवित्र युद्ध में लड़ने वाले स्वयंसेवकधार्मिक युद्धों में लड़ने के लिए तैयार स्वयंसेवक सैनिक।
5हश्म-ए-कल्बसुल्तान के सैनिक।
6खसाह-खैलसुल्तान की सेवा में रहने वाली सैन्य टुकड़ी।
7अफ़वाज-ए-कल्बशाही आदेशित सैनिक।
  • अलाउद्दीन खिलजी प्रथम सुल्तान था जिसने स्थायी सेना रखना शुरू किया। और नगद वेतन देने का चलन शुरू किया।
  • इसमें प्यादा सेना यानी पैदल सैनिक और 4,75,000 घुड़सवार सेना थी।
  • युद्ध के समय सेनाएं दीवान-ए-आरिज के अधीन होती थीं।
  • सेना में उलेमा और मौलवी रखे जाते थे जो हिन्दुओं के विरुद्ध सैनिकों में कट्टरपन भरते थे।

सेना

  • दिल्ली की सेना एक मिश्रित सेना थी जिसमें तुर्की, ताजिक, फ़ारसी, मंगोल, अफगान, अरबी, अबीसीनिया, भारतीय मुस्लमान और हिन्दुओं से मिलकर बानी थी।
  • सेना में पैदल, घुड़सवार और हाथी सेना होती थी।
  • घुड़सवार सैनिक के पास दो तलवारें, एक कटार, एक तुर्की कमान और अच्छी किस्म के तीर होते थे। कभी कभी गदा भी दी जाती थी।
  • अच्छी नस्ल के घोड़ों के लिए अरब, तुर्किस्तान और रूस के बीच घोड़ों का व्यापर होता था। अलाउद्दीन की सेना में 70000 अच्छी नस्ल के घोड़े थे।

पैदल सेना

प्यादा सेना को पायस कहा जाता था जिनमें अधिकांश गरीब हिन्दू, दास,या निम्न जातीय हिन्दू, होते थे जो घोड़े नहीं रख सकते थे। ये धनुर्विद्या में निपुण होते थे।

हाथी सेना

  • बलबन का मनना था कि युद्ध क्षेत्र में एकहाथी 500 घोड़ों के बराबर होता है।
  • हाथियों पर सुल्तान का एकाधिकार होता था और उसकी बिना आज्ञा के कोई भी हाथी नहीं रख सकता था।
  • शहनाह-ए-फील नामक अधिकारी हाथियों की व्यवस्था में लगा होता था।

युद्ध के समय विष लगे तीर, भालों, और आग लगाने वाली वस्तुओं, लथखए और बारूद गोले व अन्य धमाके करने वाली वास्तव का प्रयोग किया जाता था।

सेना का संगठन दशमिक पद्धति से किया गया था जिसमें-

सैन्य विभागसंख्याअधीन रहने वाले अधिकारी
सर-ए-खैल10सिपहसालार
सिपहसालार10प्रत्येक अमीर
अमीर10प्रत्येक खान
खान10

समय समय पर सल्तनत सुलतानों ने सेना की संख्या घटाई बधाई –

सुल्तानघुड़सवार सेना
अलाउद्दीन खिलजी4,75,000
मुहम्मद तुगलक9,00,000
कैकुबाद1,00,000
फिरोज तुगलक90,000

सेना का वेतन और भत्ते

समय-समय पर वेतन व्यवस्था में परिवर्तन होता रहा-

अधिकारीटंके प्रति वर्ष
सुसज्जित अहवरोही सेना (अलाउद्दीन के समय)234
मुहम्मद तुगलक (घुड़सवार सेना)500
खान100,000
अमीर30,000 – 40,000
सिपहसालार20,000
छोटे अधिकारीयों1,000 – 10,000
  • राज्य की और से वेतन नगद दिया जाता था।
  • सेना में जासूस भी रखे जाते थे।

सल्तनतकालीन न्याय व्यवस्था

न्याय व्यवस्था के संबंध में सल्तनत के शासक कोई निश्चित व्यय व्यवस्था स्थापित करने में असफल रहे। दीवान-ए-क़ज़ा के सहयोग से न्याय व्यवस्था का काम किया जाता था। सुल्तान साथ में दीवान-ए-मजालिस की भी सहायता सुल्तान द्वारा ली जाती थी। दीवान-ए-सियासत नामक न्य विभाग मुहम्मद तुग़लक़ द्वारा बनाया गया।

  • दीवान-ए-मजलिस का अध्यक्ष अमीर-ए-दाद होता था। ऐसा सिर्फ सुल्तान की अनुपस्थिति में होता था।
  • मुहम्मद तुग़लक़ प्रत्येक सोमवार और गुरुवार को जनता दरबार लगाकर स्वयं शिकायते सुनता था।
  • दीवान-ए-मुमालिक न्याय के मामलों में सुल्तान की सहायता करता था।
  • सुल्तान जब जनता दरबार में अनुपस्थित होता था तब हाजिब लोग शिकायतें सुनते थे।
  • प्रन्ताध्यक्षों की अदालतें – अदालते-ए-मजलिस कही जाती थी और उसकी सहायता काजी या साहिब-ए-दीवान करते थे।

दीवान-ए-क़ज़ा, सियासतमजालिस के विभागों से सम्पर्क रखता था, वास्तव में वह दीवानी के मुकदमों को देखता था।
क़ज़ा का संबंध साधारण विधि से था।
सियासत और मजालिस का सम्बन्ध प्रशसकीय विधि से था।
दीवान-ए- क़ज़ा का प्रधान काजी-ए-मुमालिक होता था। यह काजी-ए-कुजात और सदर-उस-सुदूर भी कहा जाता था।
मुहम्मद तुग़लक़ के समय काजी को 26000 टंके वार्षिक वेतन मिलता था।

इब्न-बतूता को मुहम्मद तुग़लक़ ने दिल्ली का काजी नियुक्त किया था। उसे ‘हमारा स्वामी व संरक्षक’ जैसे शब्दों से सम्बोधित किया।

प्रत्येक नगर में एक काजी होता था।

अमीर-ए-दाद- इसका संबंध भी न्याय से था। सुल्तान की अनुपस्थिति में दरबार-ए-मजलिस का प्रमुख यही होता था। मुहम्मद तुग़लक़ ने अमीर-ए-दाद को 50000 टंके वेतन दिया। इसका प्रमुख कार्य मस्जिदों की देखभाल, पुलों, सार्वजनिक इमारतों, नगर की दीवारों, व द्वारों की देखभाल करना व उनकी मरम्मत कराना था।

दिल्ली के सुल्तानों ने न्याय के मामले में बहुत ऊँचे आदर्श भी प्रस्तुत किये जैसे बलबन ने एक प्रांताध्यक्ष को ऊँचा जुरमाना लगाकर दण्डित किया क्योंकि उसने शराब के नशे में किसी की हत्या कर दी थी। मुहम्मद तुग़लक़ स्वयं काजी की अदालत में प्रतिवादी के रूप में उपस्थित हुआ था। जब निर्णय तुग़लक़ के विरुद्ध गया तो उसने जुर्माना लगाने का आग्रह किया। जब सुल्तान दरबार में आता था रो सिर्फ काजी को अपनी गद्दी से नहीं उठना होता था।

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सल्तनतकालीन पुलिस व्यवस्था

राज्य को चोर-डाकुओं से सुरक्षित रखने के लिए पुलिस की व्यवस्था थी। पुलिस के दैनिक कार्यों को कोतवाल नामक अधिकारी पूरी करता था। कोतवाल की चकल्दी रात्रि के समय गस्त पर निकलती थी। कोतवाल जनता के सहयोग से भी अपने कर्त्तव्यों को पूर्ण करता था। रजिस्टर में प्रत्येक निवासी का व्योरा दर्ज होता था। अलाउद्दीन खिलज़ी ने विद्रोही के परिवार को भी सजा देने की प्रथा शुरू की।

निष्कर्ष

इस लेख में हमने सल्तनत काल की प्रशासनिक व्यवस्था से संबंधित विभागों, केंद्रीय विभाग, सैन्य विभाग, न्याय व्यवस्था, प्रांतीय व्यवस्था भूमिकर व्यवस्था पर विस्तार से चर्चा की। उम्मीद है आपको यह जानकारी पसंद आएगी और आपको प्रतियोगिताएं में आने वाले सल्तनतकालीन प्रश्नों को हल करने में मददगार साबित होगी। अगर यह जानकरी आपको पसंद आये तो इसे अपने मित्रों के साथ साझा करें और हमारा उत्साहवर्धन करने के लिए कमेंट में अपनी प्रतिक्रिया भी दें। धन्यवाद


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