गुप्तकाल को भारत में ब्राह्मण धर्म और हुन्दुओं के उत्थान का काल माना जाता है। गुप्तकालीन शासक अपने अदम्य शौर्य और शक्तिशाली सैन्य व्यवस्था के साथ कुशल प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी प्रसिद्ध थे। इस लेख में हम गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था के विषय में जानेंगे। लेख को अंत तक अवश्यaपढ़ें।
Gupta Administrative System in Hindi–गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था
अन्य राजतंत्र प्रणाली की भांति गुप्तकाल में भी राजा शासन/सत्ता का केंद्रबिंदु था। गुप्त सम्राटों ने महाराजाधिराज और परमभट्टारक जैसी भारी भरकम उपाधियाँ धारण की। राजा को प्रशासनिक कार्यों में सहयोग के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी। मंत्रिपरिषद के अधिकांश सदस्य उच्च वर्ग से ही होते थे। इन्हें अमात्य कहा जाता था। मंत्रिपद सामन्यतः अनुवांशिक ही होता था। एक ही मंत्री कई विभागों का मालिक होता था। उदाहरण के लिए हरिषेण चार पदों- खाद्यटपाकिक, संधिविग्रहिक, कुमारात्य एवं महादण्डनायक के पदों पर नियुक्त था। मंत्रियों को वेतन नगद एवं भूमिअनुदान के रूप में दिया जाता था।
गुप्तकालीन अभिलेखों में कुछ मंत्रियों के नाम इस प्रकार मिलते हैं-
पद का नाम | कार्य/दायित्व |
कुमारात्य | राज्य के उच्च पदाधिकारियों का विशिष्ट वर्ग अथवा प्रांतीय पदाधिकारी |
महासेनापति/महाबलाधिकृत | सेना का सर्वोच्च अधिकारी |
महादण्डनायक | युद्ध एवं न्याय का मंत्री |
महासंधिवग्रहिक | शांति एवं विदेश नीति का प्रमुख |
दण्डपाशिक | पुलिस विभाग का प्रमुख अधिकारी। इस विभाग के साधारण कर्मचारियों को चाट और भाट कहा जाता था। |
सर्वाध्यक्ष | राज्य के सभी केंद्रीय विभागों का प्रमुख अधिकारी |
महामंडाधिकृत | राजकीय कोष का प्रमुख अधिकारी |
ध्रुवाधिकरण | भूमिकर वसुक्ने वाला अधिकारी |
महाक्षपटलिक | राजकीय दस्तावेजों, तथा राज्ञाओं को लिखने और भू-अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी |
विनयस्थिक स्थापक | प्रमुख धर्माधिकारी, मंदिरों का प्रबंधक, और लोगों के नैतिक आचरण पर नजर रखने वाला। |
अग्रहारिक | दान विभाग का अधिकारी |
कार्णिक | भूमि अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाला जो महाक्षपटलिक के अधीन कार्य करता था। |
न्यायाधिकरण | भूमि संबंधी मामलों का निपटारा करता था। |
भटाश्वपति | घुड़सवार सेना का प्रमुख |
महापिलुपति | हाथी सेना का प्रमुख |
पुरपाल | नगर का प्रधान अधिकारी |
पुस्तपाल | कार्यालय के अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी |
भूमि अनुदान व्यवस्था तथा सामंतवाद का उदय
भूमि अनुदान की व्यवस्था महाकाव्य काल से चली आ रही थी। महाभारत में ‘भूमिदान प्रशंसा’ नामक अध्याय को जोड़ा गया। भूमिदान का सर्व प्राचीन उल्लेख पहली शताब्दी ईसा पूर्व के सातवाहन अभिलेख में मिलता है। पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व से भूमिदान की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा और छठी शताब्दी तक आते-आते यह पूर्ण रूप से स्थापित हो गई। अब सामंत बिना राजा की अनुमति भूमिदान करने लगे। डॉ० आर एस शर्मा ने इसे सामंतवाद के उदय का प्रमुख करना कहा है। अतः हम कह सकते हैं कि भारत में सामंतवाद का उदय गुप्तकाल के अंतिम समय लगभग छठी शताब्दी में हुआ।
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प्रांतीय प्रशासन
प्रशासनिक सुविधा के लिए गुप्त साम्राज्य को अनेक प्रांतों में विभाजित किया गया था। प्रान्त को देश, अवनि अथवा भुक्ति कहा जाता था। भुक्ति के प्रमुख को उपरिक कहा जाता था। उपरिक का पद हमेशा राजकुमारों और राजकुल से संबंधित व्यक्ति को ही दिया जाता था। सीमांत प्रदेशों के शासक गोप्ता कहे जाते थे।
जिला प्रशासन
भुक्ति का विभाजन कई जिलों में किया गया था जिसे ‘विषय‘ कहा जाता था। विषयपति इसका प्रमुख अधिकारी होता था। विषयपति का अपना अलग कार्यालय होता था। कार्यालय के अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी पुस्तपाल होता था। विषयपति की सहायता के लिए एक विषय-परिषद् होती थी। इसके सदस्य विषय महत्तर कहे जाते थे। विषय परिषद् में चार सदस्य होते थे—
नगर श्रेष्ठि | नगर के श्रेणियों का प्रधान |
सार्थवाह | व्यापारियों का प्रधान |
प्रथम कुलिक | प्रधान शिल्पी |
प्रथम कायस्थ | मुख्य लेखक |
नगर प्रशासन
प्रमुख नगरों का प्रबंध नगरपालिकाएं करती थीं। नगर के प्रमुख अधिकारी को पुरपाल कहा जाता था।
स्थानीय प्रशासन
जिलों का विभाजन तहसीलों में किया गया था। तहसीलों को ‘वीथि’ कहा जाता था। तहसीलों का विभाजन पेठ में किया गया था। जो ग्राम से ऊपर की इकाई थी। पेठ का विभाजन ग्राम में किया गया था।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थे। ग्राम का प्रशासन ग्रामसभा द्वारा किया जाता था। ग्राम सभा के प्रमुख को ग्रामिक या ग्रामपति कहा जाता था। ग्रामसभा के कुछ अन्य पदाधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते हैं- महत्तर, अष्ट कुलाधिकारी, ग्रामिक एवं कुटुम्बिन।
यहाँ सुविधा की दृष्टि से प्रशासनिक व्यवस्था को निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता है —
साम्राज्य
↓
देश, भुक्ति अथवा अवनि [प्रान्त]
↓
विषय [जिला]
↓
वीथि [तहसील]
↓
पेठ [ग्राम से बड़ी इकाई]
↓
ग्राम [सबसे छोटी इकाई]
अगर मौर्य प्रशासन और गुप्त प्रशासन की तुलना करें तो गुप्त प्रशासन मौर्यों की अपेक्षा अधिक विकेन्द्रीकृत था।
न्याय प्रशासन
गुप्तकालीन न्याय व्यवस्था के जानकारी हमने गुप्तकाल की प्रमुख रचनाओं-नारद स्मृति और बृहस्पति स्मृति से पता चलती है। यह गुप्तकाल ही था जिसमें प्रथम बार दीवानी तथा फौजदारी कानून भली-भांति परिभाषित किये गए और पृथक्कृत हुए। गुप्तकालीन अभिलेखों में न्याधीशों के लिए महादण्डनायक, दंडनायक, सर्वदण्डनायक आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। वैशाली तथा नालंदा से कुछ न्यायालयों की मोहरें भी प्राप्त हुई हैं। इन मोहरों के ऊपर न्यायाधिकरण, धर्माधिकरण तथा धर्मशासनाधिकरण अंकित हैं।
गुप्तकाल में व्यापारियों और व्यवसायियों के लिए अलग-अलग न्यायालय थे जो अपने सदस्यों के विवादों का निपटारा करते थे। समृति गांठों में ‘पूग’ था ‘कुल’ नामक संस्थाओं का उल्लेख मिलता है जो अपने सदस्यों के विवादों का निपटारा करते थे। ‘पूग’ नगर में रहने वाली विभिन्न जातियों की समिति होती थी। जबकि ‘कुल’ सामान परिवार के सदस्यों की समिति थी।
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फाहियान ने गुप्तकालीन न्याय व्यवस्था को बहुत लचीली बताया है तथा म्रत्युदंड का विधान नहीं था।
सैन्य व्यवस्था
गुप्तकालीन सैन्य व्यवस्था एक व्यवथित संगठन था। सेना के अधिकारी को ‘महाबलाधिकृत’ कहा जाता था। हाथी सेना के प्रमुख को ‘महापीलुपति’ तथा घुड़सवार सेना के प्रमुख को ‘भटाश्वपति’ कहा जाता था। सेना के लिए रसद पूर्ति करने वाले अधिकारी को ‘रणभंडागरिक’ कहा जाता था। प्रयाग प्रशस्ति में गुप्तकालीन कुछ अस्त्र-शस्त्रों के नाम दिए गए हैं जैसे- परशु, शर, शंकु, तोमर, भिन्दिपाल, नाराच आदि।
निष्कर्ष
इस प्रकार गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था एक सुव्यवस्थित प्रणाली के तहत संचालित थी। ग्राम से लेकर साम्राज्य अथवा देश की व्यवस्था को क्रमबद्ध तरीके से विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया गया था। राजा यद्यपि निरंकुश होता था पर वह जनता की भलाई के लिए कार्य करता था। न्याय व्यवस्था कठोर नहीं थी और मृत्युदंड नहीं दिया जाता था। यद्यपि अंग-भंग के प्रमाण मिलते हैं। आपको यह जानकारी कैसी लगी कमेंट करके बता सकते हैं साथ ही किसी त्रुटि के लिए भी हमने सन्देश भेज सकते हैं।