सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों का धार्मिक जीवन

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सिंधु घाटी सभ्यता-विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक हड़प्पा सभ्यता अथवा सिंधु सभ्यता का महत्व हमारे वर्तमान जीवन से गहराई से जुड़ा है। हमारे धार्मिक विश्वास और संस्कृति के अनेक पहलुओं की झलक हमें सिंधु सभ्यता में देखने को मिलती है। यद्यपि उनके धार्मिक विश्वास कुछ प्रवृत्ति में प्राकृतिक चीजों से जुड़े थे और वर्तमान के देवी-देवताओं से कोई सीधा संबंध नहीं दिखाई देता मगर हिन्दू धर्म के प्रारम्भिक लक्षण हमें सिंधु सभ्यता में ही देखने मिलते हैं। इस लेख में हम सिंधु सभ्यता के लोगों के धार्मिक जीवन और विश्वास के विषय में अध्ययन करेंगे।

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सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों का धार्मिक जीवन

सिंधु सभ्यता का धार्मिक जीवन

सिंधु सभ्यता के धार्मिक जीवन के विषय में लिखित साक्ष्यों का पूर्णतः आभाव है, केवल पुरातात्विक साक्ष्य के आधार इसके स्वरूप का अनुमान लगाया जाता है। सैन्धव सभ्यता के विभिन्न पुरास्थलों से प्राप्त होने वाली मिट्टी की मूर्तियाँ, पत्थर की छोटी मूर्तियों, पत्थर निर्मित लिंगो, योनियों, मुहरों, मुद्रांकों तथा मृदभाण्डों पर अंकित आकृतियों और कतिपय विशिष्ट प्रकार के भवनों एवं स्मारकों के अध्ययनों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है।

प्रत्येक धर्म के दो पक्ष होते हैं क्रिया पक्ष और सिद्धान्त पक्ष। धर्म के क्रिया पक्ष में धार्मिक कर्मकाण्ड, घार्मिक अनुष्ठान तथा धार्मिक विश्वास आते हैं। सिद्धान्त पक्ष में उस धर्म की दार्शनिक मान्यताओं का समावेश होता है। पुरातात्विक साक्ष्य धर्म के केवल क्रिया पक्ष पर ही प्रकाश डालते हैं, उनसे सैद्धान्तिक पक्ष पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता।

हड़प्पावासी एक ईश्वरीय सत्ता में विश्वास रखते थे। जिसके दो रूप थे परम पुरुष और परम नारी। इस द्वन्द्वात्मक धर्म का उन्होंने विकास किया।

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मातृदेवी की पूजा

सिंधु सभ्यता में मातृशक्ति की पूजा सर्वप्रधान थी। सबसे अधिक नारी की मृण्मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। हड़प्पा से प्राप्त एक आयताकार मुहर में स्त्री के गर्भ से निकलता पौधा दिखाया गया है। यह सम्भवतः पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और इसका निकट सम्बन्ध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा होगा इसलिए मालूम होता है कि हड़प्पाई लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते हड़प्पा सभ्यता थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे, जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस की पूजा करते थे।

मातृदेवी की पूजा- सिंधु सभ्यता में मातृशक्ति की पूजा सर्वप्रधान थी। सबसे अधिक नारी की मृण्मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। हड़प्पा से प्राप्त एक आयताकार मुहर में स्त्री के गर्भ से निकलता पौधा दिखाया गया है।

इसी मुद्रा के दूसरी तरफ एक पुरुष हाथ में हँसिया लिए हुए खड़ा है और पास में ही एक स्त्री हाथ उठाए हुए बैठी है। मार्शल ने इसे पृथ्वी देवी को बलि दिए जाने का उदाहरण कहा है। केदार नाथ शास्त्री ने इसे मातृदेवी की उपासना का चित्र नहीं माना है बल्कि कहा है कि यह नरक का चित्रण है। अभी इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

सैन्धव सभ्यता में मातृ देवी की पूजा के सम्बन्ध में यह तथ्य उल्लेखनीय है कि मातृ देवी की उपासना सम्भवतः सिन्ध और पंजाब के क्षेत्रों तक ही सीमित थी क्योंकि राजस्थान और गुजरात के क्षेत्रों से नारी मृण्मूर्तियाँ अभी तक प्राप्त नहीं हुई हैं।

पशुपति पूजा

सैन्धव सभ्यता में पशुपति पूजा भी प्रचलित थी। मैके को मोहनजोदड़ो से एक मुहर प्राप्त हुई है जिसमे सींग वाले त्रिमुखी पुरुष को एक सिंहासन पर योग मुद्रा में बैठे हुए दिखाया गया है। उसके दाहिने तरफ एक हाथी एवं एक बाघ और बायीं तरफ एक गैंडा तथा एक भैंसा खड़े हुए दिखलाये गए हैं, जिसमें से एक खण्डित अवस्था में है। देवता के ऊपर 7 अक्षरों का एक अभिलेख है, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। जॉन मार्शल ने इसे शिव का आदिरूप कहा है। परन्तु एच० सी० रायचौधरी इससे सहमत नहीं हैं।

पशुपति पूजा-सैन्धव सभ्यता में पशुपति पूजा भी प्रचलित थी। मैके को मोहनजोदड़ो से एक मुहर प्राप्त हुई है जिसमे सींग वाले त्रिमुखी पुरुष को एक सिंहासन पर योग मुद्रा में बैठे हुए दिखाया गया है।

हड़प्पा से प्राप्त मुद्रा में एक तरफ एक पेड़ के मचान पर एक पुरुष बैठा हुआ है और नीचे बाघ का चित्र अंकित है दूसरी तरफ एक त्रिशूल का चित्र और उसके सामने एक बैल का चित्र अंकित है। इस आकृति को भी शिव का रूप माना गया है।

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लिंग एवं योनि पूजा

हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा लोथल आदि सैन्धव पुरास्थलों से चमकीले पत्थरों पर निर्मित कतिपय ऐसे पुरावशेष प्राप्त हुए हैं जिनका समीकरण लिंग से किया गया है। कालीबंगा से एक ऐसी मिट्टी की पट्टिका मिली है जिसमें एक साथ लिंग एवं योनि के प्रतीक बने हैं।’ मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा से पत्थर, काँचली मिट्टी, शंख आदि से बने हुए चक्र भी बड़ी संख्या में मिले हैं। प्रत्येक चक्र के मध्य भाग में एक छेद हैं, कुछ चक्रों पर पेड़ों एवं पशुओं के साथ-साथ नग्न नारी आकृतियों का अंकन भी मिलता है।

कुछ विद्वानों का अनुमान है कि सैन्धव लोग प्रकृति की प्रजनन शक्ति के रूप में लिंग एवं योनि की पूजा करते थे, परन्तु प्रसिद्ध पुराविद एच० डी० साँकलिया इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार तथा कथित लिंग गलियां एवं नालियों में पड़े हुए मिले हैं। यदि इनका धार्मिक प्रयोजन होता तो इनको कमरों में स्थापित मिलना चाहिए। जार्ज एफ० डेल्स का भी ऐसा ही मत है।

लिंग एवं योनि पूजा- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा लोथल आदि सैन्धव पुरास्थलों से चमकीले पत्थरों पर निर्मित कतिपय ऐसे पुरावशेष प्राप्त हुए हैं जिनका समीकरण लिंग से किया गया है।

पशु-पूजा

सैन्धव सभ्यता के अनेक पुरास्थलों से प्राप्त मुहरों, मुद्रांकनों, ताम्न पट्टों आदि पर पशुओं का अंकन मिलता है। इसके अतिरिक्त मिट्टी पत्थर तथा धातु की बनी हुई पशुओं की कतिपय मूर्तियाँ मिली हैं। इन पशुओं को पौराणिक (काल्पनिक) एवं सामान्य (वास्तविक) दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। पौराणिक पशुओं में एक ही धड़ में कई पशुओं के सिर लगे हुए मिले हैं।

पशु-पूजा - सैन्धव सभ्यता के अनेक पुरास्थलों से प्राप्त मुहरों, मुद्रांकनों, ताम्न पट्टों आदि पर पशुओं का अंकन मिलता है।

मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर में जो संश्लिष्ट पशु आकृति है उसके तीन सिर हैं, जिनमें से जार के दो सिर बकरे के हैं और नीचे का तीसरा सिर भैंसे का है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक ताम्रपदर में एक पशु का शरीर बना है जिसका सूँड हाथी का है किन्तु सिर सींग युक्त बैल का है। वास्तविक पशुओं में कूबड़ वाला बैल, भैंसा, हाथी, गैंडा, बाघ, हिरण, भेंड़ा, घड़ियाल आदि का अंकन प्राप्त होता है।

उत्तरवर्ती काल में इन जानवरों ने भिन्न-भिन्न हिन्दू देवताओं के वाहन का रूप ले लिया जैसे- शिव का वाहन नन्दी (बैल), दुर्गा का वाहन सिंह, यम का वाहन भैंसा तथा इन्द्र का वाहन हाथी। अनेक पशुओं के आगे प्रायः एक पात्र अथवा नाँद बना हुआ मिलता है। मार्शल के अनुसार पशुओं की पूजा शक्ति के रूप में होती रही होगी।

नाग पूजा

पुरातात्विक साक्ष्यों से सिन्धु सभ्यता के धार्मिक जीवन में नाग पूजा के प्रचलन का भी संकेत मिलता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर एक देवता के दोनों ओर एक-एक नाग बिठाए गये हैं। सैन्धव सभ्यता के मृदभाण्डों के कतिपय ठीकरों पर भी साँप का अंकन है। लोयल से प्राप्त तीन ठीकरों पर दो-दो साँपों के चित्र बने हुए मिले हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक ताबीज पर एक नाग को एक चबूतरे पर लेटा हुआ दिखलाया गया है। अर्नेस्ट मैके का अनुमान है कि चबूतरों पर नागों को दूध पिलाया जाता रहा होगा।

नाग पूजा - पुरातात्विक साक्ष्यों से सिन्धु सभ्यता के धार्मिक जीवन में नाग पूजा के प्रचलन का भी संकेत मिलता है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर एक देवता के दोनों ओर एक-एक नाग बिठाए गये हैं।

वृक्ष-पूजा

सैन्धव सभ्यता के मुहरों एवं मृदभाण्डों पर पीपल, बबूल, नींबू, नीम, खजूर, ताड़, केले के पौधों आदि का चित्रण मिलता है। मार्शल के अनुसार सैन्धववासी वृक्षों की पूजा दो रूपों में करते थे जीवन्त रूप में तथा प्रकृति रूप में। मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा में एक पीपल के पेड़ की दो टहनियों के बीच से एक पुरुष आकृति निकलते हुए दिखाया गया है। इसकी पूजा जीवन्त रूप में की जाती थी। इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से ही प्राप्त एक अन्य मुद्रा में एक आदमी झुका हुआ है तथा एक वृक्ष को जल चढ़ा रहा है, इसे प्रकृति रूप में पूजा किए जाने का साक्ष्य माना जाता है।

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जल-पूजा

मोहनजोदड़ो से एक विशाल स्नानागार प्राप्त हुआ है। इसका तल पक्की ईटों से बना था। पास के कमरे में बड़ा सा कुआँ है। मार्शल ने अनुमान लगाया है। कि यह विशाल स्नानागार सार्वजनिक धार्मिक स्नान के लिए रहा होगा ।

जल-पूजा - मोहनजोदड़ो से एक विशाल स्नानागार प्राप्त हुआ है। इसका तल पक्की ईटों से बना था। पास के कमरे में बड़ा सा कुआँ है। मार्शल ने अनुमान लगाया है। कि यह विशाल स्नानागार सार्वजनिक धार्मिक स्नान के लिए रहा होगा ।

सिंधु सभ्यता में योग

सिन्धु सभ्यता में योग की परम्परा का धार्मिक महत्व था। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर एक पुरुष की आकृति पद्मासन योग की मुद्रा में है। योग की एक दूसरी मुद्रा का अंकन मोहनजोदड़ो से उपलब्ध पत्थर की एक मूर्ति में मिलता है। जिसमें आधी खुली आँखें नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित है। इस मुद्रा को शाम्भवी मुद्रा से सम्बन्धित किया जा सकता है।

सिंधु सभ्यता में योग-सिन्धु सभ्यता में योग की परम्परा का धार्मिक महत्व था। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर एक पुरुष की आकृति पद्मासन योग की मुद्रा में है।

मूर्ति पूजा

सिन्धु सभ्यता के किसी भी पुरास्थल के उत्खनन से मन्दिर के साक्ष्य नहीं मिले हैं। मोहनजोदड़ो के दो-तीन भवनों को व्हीलर मन्दिर मानते हैं। राजस्थान में स्थित कालीबंगा और गुजरात में विद्यमान लोथल के उत्खनन से अग्निकुण्ड और अग्नि-वेदिकाएं प्राप्त हुई हैं। कालीबंगा के दुर्ग टीले पर जो अग्नि कुण्ड मिला है, उनमें पशुओं की हड्डियाँ, सींग, एवं राख मिली है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजस्थान और गुजरात के क्षेत्रों में अग्नि पूजा तथा यज्ञ का प्रचलन था।

मूर्तिपूजा-सिन्धु सभ्यता के किसी भी पुरास्थल के उत्खनन से मन्दिर के साक्ष्य नहीं मिले हैं। मोहनजोदड़ो के दो-तीन भवनों को व्हीलर मन्दिर मानते हैं।

सैन्धव सभ्यता में मूर्ति पूजा प्रचलित थी। इसके उदाहरण मोहनजोदड़ों से प्राप्त एक मुहर पर अंकित देवता की आकृति एवं देव प्रतिमाओं के साथ ही साथ अनेक सैन्धव पुरास्थलों से उपलब्ध मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ हैं। मैके के अनुसार कुछ मृण्मूर्तियों पर धुएँ के निशान है, यह सम्भावना है कि इन मूर्तियों के सामने पूजा के लिए कोई वस्तु जलायी गई होगी जिसके फलस्वरूप ये निशान पड़ गए हैं। दक्षिण भारत की कुछ मूर्तियों के हाथों में तैल-पात्र बने हुए मिलते हैं जिनके जलने के परिणामस्वरूप ये मूर्तियाँ काली पड़ गई हैं। परन्तु यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत की ये मूर्तियाँ काफी बाद की हैं।

सूर्य पूजा

मोहनजोदड़ो से प्राप्त मुहरों, चित्रकारियों तथा मद्भाण्डों पर स्वास्तिक के प्रमाण प्राप्त हुचे हैं। यह हिन्दुओं, जैनों और बौद्धों में समान रूप से पवित्र प्रतीक माना जाता है जोकि सूर्य पूजा से सम्बन्धित है।

अग्नि पूजा

गुजरात, राजस्थान और हरियाणा के पुरास्थलों से बहुत सी अग्निवेदियाँ अथवा अग्निकुण्ड पाये गये हैं। कालीबंगा, लोथल और बनवाली में अनेक ऐसी अग्निवेदिकाएं पायी गयी हैं जिनका सम्भवतः यज्ञ-वेदिकाओं के रूप में प्रयोग किया जाता था।

भूत-प्रेत में विश्वास

सैन्धव सभ्यता से बड़ी संख्या में ताबीज मिले हैं। इससे अनुमान लगाया जाता है कि वे भूत-प्रेत, जादू-टोना आदि में विश्वास करते थे।

सिंधु सभ्यता में अन्त्येष्टि संस्कार

सिन्धु सभ्यता के अन्त्येष्टि संस्कार की विधियों से उनके पारलौकिक जीवन में विश्वास की पुष्टि होती है। अन्त्येष्टि संस्कार की तीन विधियाँ प्रचलित थीं-पूर्ण समाधीकरण, आंशिक समाधीकरण एवं दाह संस्कार। कब्रिस्तान (समाधि क्षेत्र) नगरों में बस्ती से बाहर होते थे।

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1. पूर्ण समाधीकरण

यह समाधीकरण सबसे अधिक प्रचलित था। इस समाधीकरण में पूरे मृत शरीर को दफनाया जाता था। शव को सामान्यतः उत्तर-दक्षिण में लिटाकर हाथ पीछे ऊपर की और मोड़ दिए जाते थे और पैर के घुटने मोड दिए जाते थे। शव के साथ उनके उपयोग की अन्य वस्तुएं यथा बर्तन, आभूषण, दीप, कंघी, शीशा, आदि भी रख दी जाती थी। इससे उनके पारलौकिक जीवन में विश्वास की पुष्टि होती है। हालाँकि उत्तर-दक्षिण दिशा में शव दफनाने की प्रथा प्रचलित थी, किन्तु उसके अपवाद भी मिलते हैं। कालीबंगा से एक शव दक्षिण- उत्तर दिशा में, लोथल से पूर्व-पश्चिम दिशा में और रोपड़ से पश्चिम-पूर्व दिशा में प्राप्त हुई है।

रोपड़ की एक कब्र में मालिक के साथ कुत्ते को भी दफनाया गया था। लोथल में एक कंकाल के साथ बकरे की सींग और हड्डियाँ रखी हुई मिली हैं। लोथल से तीन युग्म समाधियों और कालीबंगा से एक युग्म समाधि के साक्ष्य मिले हैं।

2. आंशिक समाधीकरण

इस समाधीकरण में मृत शरीर को जंगली जानवरों और चिड़ियों के लिए कुछ दिन के लिए खुला छोड़ दिया जाता था और बची हुई हड्डियों तथा कपाल आदि को दफना दिया जाता था। ऐसी आंशिक समाधिकरण के उदाहरण बहावलपुर के स्थल से मिलते हैं। वर्तमान में पारसी समुदाय में भी इसी प्रकार के अन्त्येष्टि क्रिया के प्रमाण मिलते हैं। हड़प्पा के उत्खनन से एक ऐसी समाधि मिली है जिसमें शव को लकड़ी के ताबूत में रखकर दफनाया गया था यह किसी विदेशी व्यक्ति की कब्र मालूम पड़ती है।

3. दाह-संस्कार

संस्कार की यह क्रिया भी हड़प्पा संस्कृति में प्रचलित थी। मोहनजोदड़ो एवं सुरकोटडा से कतिपय कलश शवाधान के प्रमाण भी मिले हैं। इस प्रकार के शवाधान में शव को जलाने के बाद बचे-खुचे अवशेषों तथा राख को मृद्भाण्डों में भरकर दफना दिया जाता था। इन कलशों के अन्दर मृत व्यक्ति के अवशेषों के अतिरिक्त मिट्टी के बर्तन, मनके, हाथी दाँत के टुकड़े, चूड़ियाँ, पशुओं की अस्थियाँ, चिड़ियों-मछलियों की प्रतिमाएं पाई गई हैं।

इन कलशों में सामान्यतः मानत अस्थियां नहीं पायी गई है। इन कलशों को मार्शल तथा मैके ने प्रतीकात्मक समाधियाँ माना है, लेकिन व्हीलर तथा पिग्गट जैसे विद्वानों ने, मानव अस्थियाँ न मिलने के कारण इन्हें शोक-पिट कहा है।

निष्कर्ष

इस लेख के माध्यम से हमने सिंधु सभ्यता में प्रचलित मान्यताओं और संस्कारों के विषय में जाना। हिन्दू धर्म के प्रचलित संस्कार और मान्यताओं के प्राथमिक दर्शन हमें सिंधु सभ्यता में ही देखने को मिलते हैं। हमें गर्व है की हम भारतीय विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता के वंशज हैं।


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