इतिहास में हल्दी घाटी का युद्ध इतिहास में अत्यंत महत्व का है। यह युद्ध अकबर ( मुग़ल ) और महाराणा (राजपूत ) प्रताप के मध्य लड़ा गया। इस युद्ध के विषय में अनेक किवदतियाँ प्रचलित हैं। लेकिन इस ब्लॉग में हम ऐतिहासिक आधार पर हल्दी घाटी के युद्ध के कारणों, परिणामों पर चर्चा करेंगें। तो आइये शुरू करते हैं हल्दीघाटी के युद्ध की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि।
हल्दी घाटी का युद्ध और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
अकबर और राजपूत
अकबर ने बहुत शीघ्र ही यह बात समझ ली थी कि उसे अगर अपने साम्राज्य को स्थायी और मजबूत आधार देना है तो राजपूतों को दुश्मन के बजाय दोस्त बनाना होगा। अकबर ने राजपूतों से सुलह की नीति अपनाई। इसी सुलह नीति अपनाते हुए अकबर ने 1562 में जयपुर के राजा बिहारीमल की बड़ी पुत्री से विवाह किया। 1570 में उसने बीकानेर और जैसलमेर की राजकुमारियों से विवाह किया। 1584 में उसने अपने बेटे सलीम ( जहांगीर ) का विवाह राजा भगवान दास की बेटी से किया।
मेवाड़ और अकबर
अकबर की राजपूतों के साथ सुलह की नीति में अधिकांश राजपूतों ने सहयोग किया और अकबर के साथ मित्रता और वैवाहिक सबंधों के द्वारा उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु मेवाड़ ने अकबर की शक्ति और उसकी नीति की अवहेलना की। फलस्वरूप अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण करने का फैसला लिया और 1567 में आक्रमण कर दिया।
अकबर ने मेवाड़ के विरुद्ध आक्रमण क्यों किया
अकबर की मेवाड़ के विरुद्ध युद्ध की नीति के पीछे क्या करना थे इस पर कई लोगों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं —
1- अबुल फज़ल का कहना है कि अकबर का उद्देश्य राणा की उद्दण्डता और अहम्मन्यता से भरे घमंड को कुचलना था, जो उसे बड़े किलों और पहाड़ों को रखने के कारण था।
2- निजामुद्दीन और बदायूनी का मत है कि आक्रमण का कारण यह था कि 1562 में राणा ने मालवा के शासक बाज बहादुर का स्वागत किया था और अकबर उसे इस कारण से दण्डित करना चाहता था।
3-वी. ए. स्मिथ का मत है कि अकबर को आर्थिक और राजनीतिक कारणों ने युद्ध के लिए प्रेरित किया।
4- सर वुल्जले हेग का मनना है कि सभी राजपूत राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी और केवल मेवाड़ ही अलग था जिसने अधीनता स्वीकार नहीं की थी। अतः अकबर को यह मंजूर नहीं था कि राजस्थान में में कोई राज्य स्वतंत्र रहे।
5- डॉ. शर्मा का मत है कि “पूर्व पक्ष इतिहास के गंभीर तथ्यों से सिद्ध नहीं होता। अक्टूबर 1567 में चित्तौड़ पर आक्रमण करने से पूर्व केवल एक ही कुलीन राजपूत ने उसके साथ गठ-बंधन किया था और वो था अम्बर का कछवाहा परिवार (1562 ). मुख्य राजस्थान में घेरा डालने से पूर्व अकबर ने केवल एक महत्वपूर्ण किले किया था, मेड़ता ( 1562) , जोधपुर, बीकानेर जैसलमेर के बड़े राज्यों ने अकबर के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने का कोई संकेत नहीं दिया था। तो सत्य यह है कि अकबर चित्तौड़ को जीतकर अन्य राजपूत शासकों को आसानी से हरा देगा। और अकबर की सोच सही थी।
अकबर ने राजपूतों की राजनीतिक और मानसिक स्थिति को अच्छे से समझा। चित्तौड़ के पतन के साथ ही 2 या 3 वर्षों के अंदर रणथम्भौर ( 1569 ), जोधपुर ( 1570 ), बीकानेर (1570 ) और जैसलमेर (1570) के शासकों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।
इसके अतिरिक्त अकबर को उदयसिंह राणा पर आक्रमण करना इसीलिए आवश्यक हो गया, जैसा कि अबुल फज़ल कहता है, क्योंकि शक्तिसिंह राणा का दूसरा पुत्र जो तब अकबर के यहाँ नौकरी करता था, सितम्बर 1567 में अकबर द्वारा उपहास से नाराज होकर धौलपुर से बिना छुट्टी लिए भाग आया था और पिता को सुचना दी कि अकबर उसके देश पर आक्रमण की तैयारी कर रहा है। अतः अब आवश्यक था कि अकबर इस बात को सत्य सिद्ध करे कि वह मजाक नहीं कर रहा था।
अकबर का मेवाड़ पर आक्रमण
उस समय ,मेवाड़ पर राणा उदयसिंह शासन करता था जो एक अयोग्य और कायर शासक था। अकबर के आक्रमण करते ही वह जयमल पर युद्ध की जिम्मेदारी छोड़कर भाग निकला। अकबर ने बहुत कोशिशें की मगर किले पर अधिकार नहीं कर पाया। अंत में उसने किले में सुरंग मार्ग से घुसने की कोशिश की और सुरंग में विस्फोट करा दिया। इस क्रम में जयमल अकबर की गोली का शिकार हुआ। 8000 राजपूत मारे गए। 1568 में चैत्तौडग़ढ़ पर मुग़लों का अधिकार हो गया।
अकबर की रणथम्भौर विजय (1569 )
इसके बाद अकबर ने रणथम्भौर पर अधिकार किया। रणथम्भौर पर सुरजन हाड़ा का शासन था। 1569 में उसने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और मुग़लों की सेवा में चला गया।
अकबर की कालिंजर विजय (1569 )
अकबर ने मजनूखां को कालिंजर पर अधिकार करने भेजा। कालिंजर के शासक ने बिना किसी संघर्ष के 1569 में आत्मसर्पण कर दिया।
जोधपुर पर अधिकार
जोधपुर राजा मालदेव के पुत्र चन्द्रसेन ने नागौर में अकबर की शरण किन्तु शीघ्र ही यह मित्रता टूट गई। उसने अकबर की अवहेलना की और सिवाना के पर्वतीय दुर्ग में चला गया। जोधपुर को जीतकर बीकानेर के राजा को दे दिया बदले में बीकानेर के राजा ने अपनी बेटी का विवाह अकबर से कर दिया।
उदयसिंह की मृत्यु और राणा प्रताप का शासक बनना
1572 में उदयसिंह की मृत्यु हो गई और महाराणा प्रताप उसका उत्तराधिकारी बना। उत्तराधिकार प्राप्त होते ही महाराणा प्रताप ने चित्तौड़ को मुग़लों से छीनने का प्रण किया।
महाराणा प्रताप कहा करते थे कि “राणा सांगा और मेरे बीच की पीढ़ी में उदय सिंह का जन्म नहीं हुआ होता तो राजपूतों में कोई भी तुर्क नहीं ठहर पाता।”
महराणा प्रताप का परिचय
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 में हुआ था उसके प्रारम्भिक जीवन के विषय में ज्यादा जानकारी नहीं है। गद्दी पर बैठते समय उसका अपने छोटे भाई जगमल से झगड़ा हुआ था। जगमल उदयसिंह की प्रिय पत्नी का पुत्र था। मगर 1572 में महाराणा प्रताप गद्दी पर बैठने में सफल रहा। उसके पास उस समय न राज्य था न राजधानी। साढ़े 4 साल तक मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्रों में भटकते रहे। इस दौरान वह उस क्षेत्र की सारी जानकारी एकत्र करते
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महाराणा प्रताप और मानसिंह
राजपूतों के इतिहास में मानसिंह और महाराणा प्रताप के बीच झगड़े का भी विवरण मिलता जो इस प्रकार था –एक बार मानसिंह महाराणा प्रताप से उदयसागर झील के किनारे भेंट करना चाहते थे। राजा मानसिंह के सम्मान में एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया गया किन्तु राणा उसमें उपस्थित नहीं हुए। इस पर नाराज होते हुए मानसिंह ने कहा- “यदि राणा मेरे साथ भोजन नहीं करेंगे तो और कौन करेगा ?”
महाराणा प्रताप ने अपनी अनुपस्थिति पर कहा कि ‘जिसने अपनी बहन-बेटियां मुसलमानों से ब्याह दी हों उसके साथ कैसे भोजन कर सकते हैं।’ इस पर मानसिंह ने कहा “आपके मान की रक्षा के लिए ही हमने अपना सम्मान गँवा दिया और अपनी बहन-बेटियां तुर्कों को सौंप दी। यदि तुम विपत्ति में ही रहना चाहते हो तो रहो। इस देश में अब तुम नहीं रह सकते।”
राजा मानसिंह ने मंडप से निकलते हुए कहा ( तब महाराणा प्रताप भी सामने थे ) “यदि मैं तुम्हरा गर्व चूर-चूर न कर दूँ तो मेरा नाम मानसिंह नहीं।” महाराणा प्रताप से सिर्फ इतना कहा “मुझे हर समय मुठभेड़ करने में बड़ी प्रसन्नता होगी।”
हल्दी घाटी का युद्ध
अब तक हम यह जान चुके हैं कि अकबर के सामने अपना सर झुकाने से इंकार कर चुके महाराणा प्रताप अब अकबर के सामने एक मुख्य चौनौती थे। महाराणा प्रताप और मुग़ल सेनाएं पहली बार 1576 में हल्दीघाटी के मैदान आमने-सामने थे।
मुग़ल सेना का नेतृत्व राजा मानसिंह और आसफखां ने किया। इस युद्ध महाराणा प्रताप की पराजय हुई। महाराणा प्रताप की सेना में ३०००० सैनिक थे। युद्ध बहुत भयंकर हुआ और महाराणा ने बहुत बहादुरी से युद्ध लड़ा मगर अंत में घायल होकर उन्हें युद्ध मैदान से भागना पड़ा।
हल्दी घाटी का युद्ध किसने जीता
हल्दीघाटी के युद्ध के विषय में हार-जीत के रूप में कह सकते हैं कि यह एक अनिर्णायक युद्ध था क्योंकि राजा मानसिंह महाराणा प्रताप को न तो कैद कर सका मेवाड़ को अधीन कर सका। महाराणा प्रताप ने भागकर गोकुंदा के पश्चिम में कोलियारी के स्थान परे रात्रि विश्राम किया। 18 जून 1576 के बाद महाराणा ने अपनी नीति में परिवर्तन कर दिया।
अकबर इस युद्ध के बाद मानसिंह से नाराज हुआ क्योंकि मानसिंह ने महराणा का पीछा नहीं किया था और न ही प्रदेश को लूटा। अकबर ने मानसिंह, आसफखां और काजीखां को कुछ समय के लिए दरबार से बाहर निकल दिया।
हालांकि भारतीय इतिहास में अब तक लड़ी गई सबसे छोटी लेकिन सबसे महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक। हल्दीघाटी के महाकाव्य युद्ध का उपयुक्त विवरण नीचे दिया गया है-
मान सिंह ने युद्ध में 50000 से अधिक पुरुषों की सेना की कमान संभाली। महाराणा प्रताप युद्ध के लिए सभी प्रासंगिक संसाधनों, पुरुषों और सहयोगियों से रहित थे। इससे अकबर का यह विश्वास और मजबूत हुआ कि इस लड़ाई को जीतने से उसकी टोपी में एक और पंख जुड़ जाएगा।
महाराणा प्रताप की सेना का नेतृत्व किसने किया
यह बात बहुत रोमांंचक है कि जहाँ अकबर की सेना का नेतृत्व एक हिन्दू मानसिंह कर रहा था तो महाराणा प्रताप की सेना का नेतृत्व एक मुसलमान हाकिम खान सुर ( अफगान ) कर रहा था। महाराणा ने कई छोटे-छोटे हिन्दू और मसलमान राज्यों को एकत्र किया था।
वीर महाराणा प्रताप और उनकी सहायक सेना मुग़लों के छक्के छुड़ा दिए थे। लेकिन मुग़लों की विशाल सेना के सामने वे जयादा देर नहीं टिक पाए।
हल्दीघाटी के युद्ध का परिणाम
इस युद्ध के विषय में हम कह सकते हैं कि —
इस युद्ध में राजपूतों ने और मुग़लों ने पुरे दमखम से युद्ध लड़ा। कुछ मुग़ल सैनिक तो डर से युद्ध मैदान से भी भाग गए थे।
मेवाड़ सेना ने गति खो दी थी और उनके सैनिक एक-एक करके गिरने लगे थे। महाराणा प्रताप डटे रहे और अपने घोड़े चेतक के साथ मान सिंह से लड़ते रहे।
हालाँकि, मान सिंह और उसके लोगों द्वारा लड़ाई के दौरान वह गंभीर रूप से घायल हो गया था। राणाप्रताप मुगल सेना से बच निकले और उनके भाई सक्ता ने उन्हें बचा लिया। इस बीच, मान सिंह ने मान सिंह झाला की हत्या कर दी, उन्हें राणा प्रताप समझकर। वह यह जानकर चौंक गया और हैरान था कि उसने राणा प्रताप के एक भरोसेमंद व्यक्ति को मार डाला था। अगली सुबह जब वह मेवाड़ सेना पर हमला करने के लिए लौटा, तो युद्ध के मैदान में कोई नहीं था।
महराणा प्रताप की मृत्यु
हल्दीघाटी में परास्त होने के बाद भी महाराणा ने मुग़लों से अपनी मातृभूमि ( मेवाड़ ) को मुक्त करने के प्रयत्न जारी रखे। चित्तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर अपना समस्त मेवाड़ का राज्य प्राप्त कर लिया। स्वयं अकबर भी महाराणा का प्रशंसक था।
1597 ईस्वी में महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई। महारणा की मृत्यु के बाद अमरसिंह ने मुग़लों युद्ध जारी रखा। 1599 में राजा मानसिंह और राजकुमार सलीम के नेतृत्व में मेवाड़ पर मुग़ल सेना ने आक्रमण किया। अमरसिंह परास्त हुआ और उसके राज्य को बुरी तरह लूटा गया।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अकबर और महाराणा प्रताप के बीच होने वाला मुक़ाबला बराबरी पर छूटा। यद्यपि महारणा प्रताप और अकबर का कभी सीधा सामना नहीं हुआ फिर भी अकबर महाराणा की वीरता की प्रशंसा करता था। राजपूत भले ही निडर और वीर थे मगर आपसी प्रतिद्विंदिता के कारण कभी एक होकर दुश्मन का मुक़ाबला नहीं कर पाए।
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