1857 की क्रन्ति, स्वरुप, कारण और परिणाम ? 1857 ki kranti in hindi - 𝓗𝓲𝓼𝓽𝓸𝓻𝔂 𝓘𝓷 𝓗𝓲𝓷𝓭𝓲

1857 की क्रन्ति, स्वरुप, कारण और परिणाम ? 1857 ki kranti in hindi

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Last updated on April 10th, 2023 at 12:22 pm

1857 की क्रांति जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है। इस क्रांति से सम्बंधित अनेक प्रश्न हैं जो हमारे सामने अक्सर आते हैं , क्या यह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था? क्या यह सैनिक क्रांति थी ? क्रांति कहाँ से शुरू हुई ? क्रांति के प्रमुख नायक, क्रांति क्यों असफल हुई ? क्रांति का स्वरुप क्या था? आदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर इस लेख के माध्यम से दिया जायेगा। ये सभी प्रश्न आपको किसी एक लेख में नहीं मिलेंगे, लेकिन हम यह लेख इसीलिए लाये हैं ताकि आपको सम्पूर्ण और सही जानकारी एक ही लेख में मिल जाये।  

1857 ki kranti
1857 की क्रान्ति

 

विषय सूची

1857 की क्रन्ति, स्वरुप, कारण और परिणाम 1857 ki kranti in hindi

भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने व्यापारक गतिविधियों के साथ प्रवेश किया और साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति के कारण भारत की कमजोर राजनीतिक स्थिति का लाभ भी उठाया। ब्रिटिश लोगों की धनलोलुपता की कोई सीमा नहीं थी।

1857 की क्रांति कोई अचानक हुई क्रांति नहीं थी इसके बीज अंग्रेजों की 100 वर्ष की ( 1757-1857 ) नीतियों में छिपा था। इन सौ वर्षों में अंग्रेजों ने भारत के सभी वर्गों – रियासतों के राजाओं, जमींदारों, सैनकों, किसानों, मौलवियों , ब्राह्मणों , व्यापारियों को भयभीत  कर दिया।

      ऐसा भी नहीं है कि 1857 से पूर्व अंग्रेजों का कोई विरोध नहीं हुआ। समय-समय पर अनेक विद्रोह हुए जिन्हें कुचल दिया गया — वैल्लोर में 1806 में , बैरकपुर में 1824, फिरोजपुर में फरवरी 1842 में 34वीं रेजिमेंट का विद्रोह, 1849 में सातवीं बंगाल कैवेलरी और 64वीं रेजिमेंट और 22वीं रेजिमेंट N.I. का विद्रोह, 1850 में 66वीं N.I. का विद्रोह और1852 में 38वीं N.I. का विद्रोह आदि।

इसी प्रकार 1816 बरेली में उपद्रव हुए, 1831-33 का कोल विद्रोह, 1848 कांगड़ा, जसवार और दातारपुर के राजाओं का विद्रोह, 1855-56 में संथालों का विद्रोह। ये सभी विद्रोह ईस्ट इंडिया कम्पनी की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक नीतियों के कारण हुए। यही अग्नि धीरे-धीरे सुलगते हुए 1857 में विकराल रूप से धधक उठी और ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारतीय साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया।

1857 की क्रांति का स्वरूप 

       इतिहासकारों ने 1857 की क्रांति के स्वरूप के विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं 

यह एक सैनिक विद्रोह था – 

 इस विचार के प्रतिपादक सर जॉन लारेन्स और जान सीले हैं।  सर जान सीले के अनुसार 1857 का विद्रोह “एक पूर्णतया देशभक्ति रहित और स्वार्थी सैनिक विद्रोह था जिसमें न कोई स्थानीय नेतृत्व ही था और न ही सर्वसाधारण का समर्थन हासिल था।” उसके अनुसार “यह एक संस्थापित  

सरकार के विरुद्ध भारतीय सेना  विद्रोह था

 यह सही है कि यह विद्रोह एक सैनिक विद्रोह के रूप में आरम्भ हुआ लेकिन सभी स्थानों पर यह सेना तक सीमित नहीं था। सभी सैनिक भी विद्रोह में सम्मिलित नहीं हुए, बल्कि अधिकांश सैनिक सरकार के साथ थे। विद्रोही जनता के प्रत्येक  वर्ग से आये थे। अवध में इसे जनता का समर्थन प्राप्त था और इसी प्रकार बिहार के कुछ जिलों में ऐसा हुआ। 1858-59 के अभियोगों में सहस्रों असैनिक, सैनिकों के साथ-साथ विद्रोह के दोषी पाए गए तथा उन्हें दण्ड दिया गया। 

यह धर्मांधों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध था 

 यह मत एल. ई. आर. रीज का है उनका यह कहना कि “यह धर्मांधों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध था” से सहमत होना अत्यंत कठीन है।  विद्रोह की गर्मी में भिन्न-भिन्न धर्मों के नैतिक नियमों का लड़ने वालों पर कोई नियंत्रण नहीं था।दोनों दलों ने अपनी-अपनी ज्यादतियों को छिपाने के लिए अपने-अपने धर्म ग्रंथों का सहारा लिया।

अंततः ईसाई जीत गए ईसाई धर्म नहीं। हिन्दू और मुसलमान पराजित हो गए परन्तु हिन्दू और मुसलिम धर्म पराजित नहीं हुए। ईसाई धर्म प्रचारकों ने ईसाई धर्म के प्रचार के लिए अथक प्रयास किये पर ज्यादा सफलता नहीं मिली। यह न तो धर्मों का युद्ध था और न ही जातियों का युद्ध था। बल्कि यह एक देश के नागरिकों का विद्रोह था जो उन्होंने विदेशी शक्ति  विरुद्ध लड़ा। 

  यह बर्बरता तथा सभ्यता के बीच युद्ध था 

         टी. आर. होम्ज के अनुसार यह बर्बरता  सभ्यता के बीच युद्ध था।  यहाँ वह भारतीयों को बर्बर और अंग्रेजों को सभ्य बता रहे हैं। जबकि बर्बरता में दोनों ही पक्ष दोषी थे बल्कि अंग्रेजों ने तो क्रूरता की सारी हदें पार कर दी थीं। हडसन ने दिल्ली में अंधाधुंध गोली चलाई।

नील को इस बात का घमंड था कि उसने सैकड़ों लोगों को बिना मुकदमें के फांसी पर चढ़ा दिया। इलाहबाद में ऐसा कोई वृक्ष नहीं था जिस पर निर्दोषों को न लटकाया हो।

बनारस में गली में खेलते बच्चों तक को फांसी दी गई। रस्सल ने, जो लंदन टाइम्स का संवाददाता था, लिखा है कि मुस्लिम अभिजात वर्ग के लोगों को जीवित ही सूअर की कच्ची खाल में सी दिया गया और सूअर का मांस उनके गले में उतारा गया। सच्चाई ये है कि दोनों ही पक्ष प्रतिशोध लेने में मनुष्यता को भूल गए। अतः इस प्रकार के अत्याचार करने वाले सभ्य नहीं हो सकते। 

यह हिन्दू-मुस्लिम  षणयंत्र था 

     सर जेम्स आउट्रम और डब्ल्यू टेलर ने  विद्रोह को हिन्दू-मुस्लिम षणयंत्र का परिणाम बताया है। आउट्रम का विचार था कि “यह मुस्लिम षणयंत्र था जिसमें हिन्दू शिकायतों का लाभ उठाया गया।” 

 यह एक राष्ट्रीय विद्रोह था 

     बेंजमिन डिजरेली , जो इंग्लैण्ड  समकालीन रूढ़िवादी दल के एक   प्रमुख नेता थे, ने इसे एक “राष्ट्रीय विद्रोह” कहा है। उनका मनना है कि यह विद्रोह एक “आकस्मिक प्रेरणा नहीं था अपितु एक सचेत संयोग का परिणाम था और वह एक सुनियोजित और सुसंगठित प्रयत्नों का परिणाम था जो अवसर की प्रतीक्षा में थे…… साम्राज्य का उत्थान और पतन चर्बी वाले कारतूसों के मामले नहीं होते…… ऐसे विद्रोह उचित और पर्याप्त कारणों के एकत्रित होने से होते हैं।” 

       इसी प्रकार अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक The Great Rebellion में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि 1857 के विद्रोह का स्वरूप राष्ट्रीय था।  ( The Rebellion of 1857 was nation in character ) 

    वीर सावरकर ने भी इस विद्रोह को “सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम” ( Planned War of National Independence ) की संज्ञा दी है और यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि 1826-27, 1831-32, 1848 और 1854 के विद्रोह तो 1857 में होने वाले महान नाटक का एक पूर्वाभ्यास मात्र ही थे।  

इसके अतिरिक्त दो प्रसिद्ध इतिहासकार डा. आर. सी. मजूमदार और डा. एस. एन. सेन ने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं। लेकिन दोनों इस बात से सहमत हैं कि 1857 का विद्रोह सचेत योजना का परिणाम था और न ही इसके पीछे कोई कुशल और सिद्धहस्त व्यक्ति था। 

      केवल यह तथ्य कि नाना साहिब मार्च-अप्रैल1857 में लखनऊ गए थे और यह विद्रोह मई में आरम्भ हो गया, इस बात को प्रमाणित नहीं करता कि उन्होंने इस विद्रोह की योजना बनाई थी। 

     यह  कहना कि मुंशी अजीमुल्ला खां और रांगे बापू ने इस विद्रोह की योजना बनाई, भी सही प्रतीत नहीं होता। अजीमुल्ला खां कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के सामने बाजीराव द्वितीय को मिलने वाली पेंशन के लिए नाना साहब की ओर से पेश हुए थे और वापिस आते हुए तुर्की गए और फिर क्रीमिया के रणक्षेत्र में उमर पाशा को मिले।

इसी प्रकार रांगे बापू जी को सतारा को पुनः प्राप्त करने के लिए लन्दन भेजा गया था। दोनों व्यक्तियों का लन्दन जाना यह प्रमाणित नहीं करता कि उन्होंने षणयंत्र में भाग लिया था। 

   इसी प्रकार चपातियों और कमल के फूलों का भिन्न-भिन्न स्थानों पर भेजना किसी निश्चित बात को प्रमाणित नहीं करता। बहादुरशाह पर चलाये गए मुकदमे में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया था कि इस पूर्व आयोजित षणयंत्र  उसका हाथ था।  जो प्रमाण एकत्रित किए गए, उनसे अंग्रेज अधिकारियों को भी विश्वास नहीं हुआ।  वास्तव में उस मुकदमे में यह स्पष्ट हो गया  कि इस विद्रोह से बहादुरशाह को उतना ही आश्चर्य हुआ था जितना अंग्रेजों को। 

   इन दोनों विद्वानों में इस बात पर भी सहमति है कि उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में राष्ट्रवाद नाम की कोई चीज नहीं थी। विद्रोह के नेता राष्ट्रीय नेता नहीं थे।  बहादुरशाह कोई राष्ट्रीय सम्राट नहीं था।  उसे तो विद्रोही सैनिकों ने नेता बनने पर बाध्य कर दिया। 

   नाना साहब ने विद्रोह का झंडा तब उठाया जब उनका दूत लंदन से उसके लिए बाजीराव द्वतीय की पेंशन प्राप्त करने में असफल रहा। 

    इसी प्रकार झाँसी में झगड़ा उत्तराधिकार और विलय के प्रश्न पर हुआ और रानी का नारा “मेरा झाँसी दऊंगी नहीं।” निसंदेह रानी लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुई पर उसने यह स्पष्ट नहीं किया कि वह राष्ट्रहित के लिए लड़ रही थी। 

  इसी प्रकार अवध और बिहार में भी व्यक्तिगत उद्देश्यों की प्राप्ति की लड़ाई थी।  सामान्य जनता का समर्थन न के बराबर था। 

  आर. सी. मजूमदार इस विद्रोह को केवल सैनिक विद्रोह करार देते हैं। जिसका जिक्र उन्होंने अपनी पुस्तक Sepoy Mutiny and the Revolt of 1857 में किया है। डॉ. मजूमदार इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि “सैनिकों के  व्यवहार और आचरण में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे हम यह विश्वास करें अथवा स्वीकार कर लें कि वे देश प्रेम से प्रेरित हुए थे अथवा यह कि वे अंग्रेजों के विरुद्ध इसलिए लड़ रहे थे कि देश को स्वतंत्र करा सकें।”

       यहाँ डॉ. एस. एन. सेन का दृष्टिकोण श्री मजूमदार से भिन्न है।  उनका तर्क है की क्रांतियां प्रायः एक छोटे से वर्ग का कार्य होती हैं, जिसमें जनता का समर्थन होता भी है और नहीं भी होता। डॉ. सेन के अनुसार यदि “एक विद्रोह जिसमें बहुत से लोग सम्मिलित हो जाएँ तो उसका स्वरूप राष्ट्रीय हो जाता है।” दुर्भाग्य से भारत में अधिकतर लोग निष्पक्ष और तटस्थ रहे। इसलिए 1857 के विद्रोह को राष्ट्रीय कहना उचित नहीं। 

1857 के विद्रोह के कारण 

       अधिकांश इतिहासकार जिनमें एंग्लो-इंडियन और भारतीय दोनों ही शामिल हैं ने सैनिक असंतोष और चर्बी वाले कारतूसों को ही 1857 के विद्रोह का प्रमुख कारण माना है। परन्तु आधुनिक भारतीय इतिहासकारों के शोध से यह सिद्ध हुआ है की चर्बी वाले कारतूस ही इस विद्रोह के एकमात्र कारण अथवा सबसे प्रमुख कारण नहीं था.

इस विद्रोह के कारण जून 1757 के प्लासी के युद्ध से 29 मार्च 1857 को मंगल पांडेय द्वारा अंग्रेज एजुटेंट की हत्या तक के अंग्रेजी प्रशासन के 100 वर्षों के इतिहास में छिपे हैं। चर्बी वाले कारतूस और सैनिक विद्रोह तो केवल एक चिंगारी थी, जिसने उन समस्त विस्फोटक पदार्थों को जो राजनैतिक, सामजिक , धार्मिक और आर्थिक कारणों से एकत्रित हुए थे, आग लगा दी और वह दावानल का रूप धारण का गया 

 1857 के विद्रोह के राजनीतिक कारण –

  • लार्ड वैल्जली की सहायक सन्धि द्वारा कम्पनी ने भारतीय राज्यों पर क्षमताशाली नियन्त्रण स्थापित किया। 
  • लार्ड डलहौजी के व्यपगत के सिद्धांत ( doctrine of lapse ) ने नई विलय नीति को जन्म दिया जिसके अनुसार हिन्दू राजाओं से दत्तक पुत्र लेने का अधिकार छीन लिया गया। 
  • सतारा, जैतपुर , सम्भलपुर, बघाट, ऊदेपुर, झाँसी और नागपुर को व्यपगत के सिद्धांत के तहत अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया। 
  • तंजोर और कर्नाटक के नवाबों की राजकीय उपाधियाँ समाप्त क्र दी गईं। 
  • अवध को कुशासन का आरोप लगाकर विलय किया गया 
  • मुग़ल सम्राट की उपाधि समाप्त कर दी गई 
  • इस प्रकार हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही अंग्रेजों की निति से भयभीत थे। 

  1857 के विद्रोह के आर्थिक कारण 

        भारतीय रियासतों के विलय के बहुत से सामाजिक और आर्थिक प्रभाव हुए। भारत का अभिजात वर्ग शक्ति और पदवी से वंचित हो गया। नवीन प्रशासनिक व्यवस्था में उनके लिए वही प्राचीन सम्मान प्राप्त करना बहुत कठिन था, क्योंकि अधिकांश उच्च पद सिर्फ अंग्रेजों के लिए आरक्षित थे। 

  • सेना में भारतीय के लिए सबसे ऊँचा पद सूबेदार का था जिसका मासिक वेतन 60-70 रूपये मासिक था। 
  • असैनिक प्रशासन में सबसे बड़ा पद अमीन का था, जिसका वेतन 500 रूपये मासिक था। 
  • भूमिकर बहुत कड़ाई से एकत्रित किया जाता था। 
  • लगान समय पर जमा न करने पर जमीदारों की जमींदारी छीन ली जाती थी। 
  • ईस्ट इंडिया कम्पनी के राजनैतिक शक्ति के प्रयोग ने भारतीय हस्तशिल्प और व्यापार का सर्वनाश हो गया। 
  • कार्ल मार्क्स ने 1853 में ही लिखा था यह अंग्रेजी घुसपैठिया था जिसने भारतीय खड्डी (loom) को तोड़ दिया और चरखे का नाश कर दिया। अंग्रेजों ने भारतीय सूती कपडे को अंग्रेजी मंडियों से वंचित करना आरम्भ किया और फिर भारत में एक ऐसा मोड़ दिया कि सूती कपडे की मात्र भूमि को ही सूती कपडे से भर दिया। सूती कपडा उद्योग के नाश होने से कृषि पर बोझ बढ़ गया और अंत में देश अकिंचन हो गया।”

  1857 के विद्रोह के सामाजिक और धार्मिक कारण 

     समस्त विजेता जातियों  भांति अंग्रेज शासक विजित जनता के प्रति बहुत कठोर और धृष्ट ( arrogant ) थे। इसके अतिरिक्त वे रंगभेद की भावना से भी प्रेरित थे। वे भारतीयों को निम्न दृष्टि से देखते थे और हिन्दुओं को बर्बर और मुसलमानों को कटटरपंथी, निर्दयी और बेईमान समझते थे। 

  • भारतीयों को काले और सूअर की संज्ञा देते थे। अंग्रेज भारतीयों को अपमानित करने का कोई मौका न चूकते थे। 
  • शिकार पर जाते समय अंग्रेज पदाधिकारी और यूरोपीय सैनिक भारतीयों पर बलात्कार करते थे। अंग्रेज न्यायाधीश इन मामलों में साधारण सा दंड देकर छोड़ देते थे। 
  • अंग्रेजों का एक उद्देश्य भारतीयों को ईसाई बनाना भी था। जो भारतीय ईसाई बन जाते थे उन्हें पर्याप्त सुविधाएं दी जाती थीं। 
  • राम और मुहम्मद को गालिया दी जाती थीं। हिंदू देवी-देवताओं का अपमान किया जाता था। 
  • ईसाई मिशनरी लोगों को लालच देकर ईसाई बनाते थे। 
  • अतः भारतीयों को यकीन हो गया था कि अंग्रेज उनका धर्म और संस्कृति सब नष्ट कर देंगे, इसलिए भारतीयों में आक्रोश था। 

  1857 के विद्रोह के सैनिक कारण 

        बंगाल सेना का 60 प्रतिशत भाग अवध तथा उत्तर-पश्चिमी प्रान्त (उत्तर प्रदेश) से आता था और  उनमें से अधिकतर उच्च जातीय ब्रह्मण और राजपूत थे जो प्रायः उस अनुशासन को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे जिसमें उन्हें निम्नजातीय सैनिकों को समान माना जाये। सर चार्ल्स नेपियर को इन “उच्च जातीय” भाड़े के सैनिकों पर कोई विश्वास  नहीं था। 

  • भारतीय सैनिकों को विदेश भी भेजा जाता था और कोई अतिरिक्त भत्ता भी नहीं दिया जाता। 
  • था। 
  • जो भारतीय सैनिक विदेश सेवा से वापस आते थे उन्हें भारतीय समाज से वहिष्कृत कर दिया जाता था। 
  • भारतीय सैनिकों को अपनी वर्दी और जूतों का खर्चा खुद करना पड़ता था जबकि अंग्रेज सैनिकों को इसके लिए अतिरिक्त भत्ता दिया जाता था। 
  • 1856  में यूरोपीय और भारतीय  सैनिकों का अनुपात लगभग  1 : 5 था ( 238000 भारतीय और 45000 अंग्रेज सैनिक )

  1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण 

         1856 में सरकार ने पुरानी लोहे वाली बंदूक ‘ब्राउन बेस’ ( Brown Bess ) के स्थान पर नई एनफील्ड राइफल ( New Enfield Rifle ) को जो अधिक उन्नत थी, प्रयोग करने का फैसला किया। इस नई राइफल के प्रयोग का प्रशिक्षण डम-डम, अम्बाला और स्यालकोट में दिया जाना था। इस नई राइफल में कारतूस के ऊपरी भाग को मुंह से काटना पड़ता था। जनवरी 1857 में बंगाल  सेना में यह अफवाह फ़ैल गई कि चर्बी वाले कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी है।

यद्पि अंग्रेज अधिकारियों ने बिना जाँच के इसका खंडन कर दिया। मगर आगे जाँच में  तथ्य सही पाया गया कि “गाय और बैलों की चर्बी वास्तव में ही वूलिच शस्त्रागार ( woolwich arsenal ) में प्रयोग की जाती थी।” अब सैनिकों को विश्वास हो गया था कि चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग उनको धर्म भ्रष्ट करने का एक निश्चित प्रयत्न है। 

मंगल पांडे का विद्रोह 

      विद्रोह की चिंगारी 29 मार्च, 1857 को शुरू हुई, जब कलकत्ता के समीप बैरकपुर में तैनात 19वीं और 34वीं नेटिव इन्फंट्री ( देशज पैदल सेना ) के कुछ भारतीय सैनिकों ने बगावत कर दी और एक ब्राह्मण सैनिक मंगल पांडे ने दो अंग्रेज अफसरों की हत्या कर दी। बगावत को दवा दिया गया और मंगल पांडे को 8 अप्रैल 1857 को फांसी दे दी गई। 

1857 के विद्रोह का प्रारम्भ कहाँ से हुआ 

     1857 विद्रोह का प्रारम्भ 10 मई 1857 को मेरठ से हुआ जब 10 मई 1857 को मेरठ में तीसरी कैवलरी रेजीमेंट  सैनिकों ने चर्बीयुक्त कारतूसों को छूने से इंकार  कर दिया और खुलेआम बगावत  कर दी। 

1857 के विद्रोह का विस्तार 

     11 मई 1857 को विद्रोही मेरठ से दिल्ली पहुंचे और मुग़ल सम्राट बहादुरशाह जफर से नेतृत्व करने को कहा। विद्रोहियों ने 12 मई को दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया और बहादुरशाह द्वितीय का भारत का सम्राट घोषित कर सिया गया। 

      दिल्ली का हाथ से निकलना अंग्रेजों  के लिए एक धक्का था अतः अंग्रेजों ने पंजाब से सेनाएं बुलाकर दिल्ली पर आक्रमण किया विद्रोही बहुत वीरता से लड़े परन्तु सीमित संसाधनों के कारण अंत में हार गए। सितम्बर 1857 को दिल्ली अंग्रेजों के हाथ में गई, जॉन निकलसन वीरगति को प्राप्त हुआ। बहादुरशाह को गिरफ्तार कर उसके दो पुत्रों और पौत्र को खुलेआम गोली से उड़ा दिया गया। बहादुरशाह को रंगून निर्वासित कर दिया गया जहां 7 नवम्बर 1962 को उसकी मृत्यु हो गई। 

लखनऊ में विद्रोह 4 जून 1857 

     4 जून 1857 को लखनऊ में विद्रोह का आरम्भ हुआ। अवध के नवाब वाजिद अली शाह की रानी बेगम हजरत महल ने अपने 11 वर्षीय पुत्र बिजरिस कादर को नवाब घोषित कर दिया। भारतीय सैनिकों ने रेजीडेन्सी को घेर लिया जहां ब्रिटिश रेजिडेंट हेनरी लॉरेंस ने 2000 सैनिकों के साथ शरण ले रखी थी। हेनरी लॉरेंस को मार डाला गया।

नवम्बर 1857 को सर कॉलिन कैम्पबेल को मुख्य सेनापति बनाकर इंग्लैंड से लखनऊ में विद्रोह को दबाने के लिए भेजा गया। कैम्पबेल ने गोरखा सेना की मदद से मार्च 1858 को लखनऊ पर कब्ज़ा कर लिया बेगम हजरत महल नेपाल भाग गई और मौलबी अहमदुल्ला लड़ता हुआ मारा गया। 

कानपुर में विद्रोह 4 जून 1857 

           4 जून को द्वीतीय कैवेलरी और प्रथम नेटिव इन्फेंट्री ने कानपुर में बगावत  कर दी और सैकड़ों अंग्रेज पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को मार डाला। कानपूर में विद्रोह के नेता पेशवा बाजीराव द्वितीय का दत्तक पुत्र धोदू पंडित उर्फ़ नाना साहिब ने स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया।

नाना साहिब की सहायता तात्या टोपे ने की। लखनऊ पर कब्जे के पश्चात् कॉलिन कैम्पबेल ने कानपुर में विद्रोह का दमन किया और 6 दिसंबर 1858  को लखनऊ पर पुनः अधिकार कर लिया। नाना साहिब बचकर नेपाल चले गए। तांत्या टोपे झाँसी चले गए और रानी लक्ष्मीबाई से जा मिले। 

झाँसी में विद्रोह 

रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी में विद्रोहियों का नेतृत्व किया। लार्ड डलहौजी ने उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया था और हड़प नीति के तहत राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया था। रानी ने हर इसके खिलाफ अपील की पर कोई सुनबाई नहीं हुई। विद्रोह के समय रानी ने पुनः अंग्रेजों से बातचीत शुरू की और कहा कि अगर ब्रिटिश सरकार उसका राज्य लौटा दे तो वह अंग्रेजों का साथ देगी। मगर अंग्रेजों ने उनका यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। तब लाक्षीबाई ने विद्रोही सैनिकों का नेतृत्व स्वीकार कर लिया। 

झाँसी की रानी ‘मर्दानगी’ के साथ अंत तक लड़ी और युद्धक्षेत्र में लड़ते हुए 17 जून 1858 को वीरगति को प्राप्त हुई। जनरल ह्यूज रोज जिसने उन्हें पराजित किया , अपने दुर्जेय शत्रु के बारे में कहा था कि “यहाँ वह औरत सोई हुई है जो विद्रोह में एकमात्र मर्द थी”। तांत्या टोपे को एक विश्वासघाती की मदद से पकड़ा गया और 15 अप्रैल 1859 को फांसी दे दी गई।

बरेली में विद्रोह 

       बरेली में रुहेलखंड के भूतपूर्व शासक के उत्तराधिकारी खान बहादुर खान ने स्वयं को नवाब नाजिम घोषित कर दिया। 1859 के अंत तक बरेली पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया। खान बहादुर खान मारा गया। 

बिहार में विद्रोह 

    बिहार में आरा की विशाल जागीर के स्वामी अस्सी वर्षीय एक स्थानीय वृद्ध राजपूत जमींदार कुंवर सिंह ने विद्रोह का झंडा बुलंद किया। कुंवर सिंह ने सबसे लम्बे समय तक विद्रोह का संचालन किया। दस मास की लम्बी सफल लड़ाइयों के बाद युद्ध में मिले घावों के कारण कुंवर सिंह 9 मई1858 को शहीद हो गए। 

बनारस में विद्रोह का दमन कर्नल नील ने किया। इस प्रकार 1858 के अंत तक विद्रोह पूर्णतः दबा दिया गया। 

READ HISTORY OF 1857 REVOLT IN ENGLISH

1857 के विद्रोह की असफलता के कारण 

1- क्रांति का सम्पूर्ण भारत में न फैलना। पंजाब,ग्वालियर, बड़ौदा, सिंध, राजस्थान, सिखों, मराठों, राजपूतों, पूर्वी भारत दक्षिण भारत राजपुताना पूरी तरह अंग्रेजों के राजभक्त बने रहे। 

2- अंग्रेजों के पास अधिक संसाधन और सेना थी जबकि विद्रोही सीमित संसाधनों के साथ और लड़ रहे थे। 

3- यह विद्रोह मुख्यतः सामंतवादी था जिसमें कुछ राष्ट्रवादी तत्व विद्यमान थे। लेकिन सबके अपने -अपने स्वार्थ थे। 

4- सही नेतृत्व और संगठन का आभाव। विद्रोहियों में किसी प्रकार का तालमेल नहीं था। 

5- इस विद्रोह को बहुत काम जन-समर्थन प्राप्त था। 

6- अंग्रेजों के पास लॉरेंस बंधु, निकलसन, आउट्रम, हेवलॉक, एडवर्ड्स जैसे योग्य सेनापति थे। 

7- विद्रोहियों में अनुशासन की कमी थी। 

1857 की क्रांति के प्रमुख नायक 

  • सम्राट बहादुर शाह – दिल्ली 
  • नाना साहिब – कानपुर 
  • लक्ष्मीबाई – झाँसी 
  • बेगम हजरत महल – लखनऊ 
  • कुंवर सिंह – बिहार 
  • मौलवी अहमदुल्ला – अवध और रुहेलखंड 
  • शहजादा फिरोज शाह – मंदसौर ( मध्य-प्रदेश )
  • खान बहादुर खान-  रुहेलखंड 
  • तांत्या टोपे ( रामचंद्र पांडुरंग ) – कानपुर और झाँसी 


निष्कर्ष     इस प्रकार 1857 की क्रांति का अंत हुआ। ये पहली भयंकर चुनौती थी जिससे पार पाने में अग्रेजों को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। क्रंति यद्पि असफल रही लेकिन इसके परिणाम सकारात्मक रहे। इसने अंग्रेजों की नीतियों में परिवर्तन की आधारशिला रखी। भारतीयों में आजादी के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में 1857 की क्रांति ने पथप्रदर्शक का काम किया।

1857 के विद्रोह से संबंधित अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

Q-1857 का विद्रोह क्या था?

1857 का विद्रोह, जिसे भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध या सिपाही विद्रोह के रूप में भी जाना जाता है, भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक प्रमुख विद्रोह था जो 10 मई 1857 में प्रारम्भ हुआ और जून 1858 तक चला।

Q-1857 के विद्रोह किसने और किसके विरूद्ध किया ?

1857 के विद्रोह में भाग लेने वालों में मुख्य रूप से ब्रिटिश भारतीय सैनिक थे, जिन्हें सिपाहियों के रूप में जाना जाता था, जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में सेवा कर रहे थे, इसके आलावा भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के नागरिक, जिनमें रईस, किसान, कारीगर और मजदूर शामिल थे।

प्रश्न: 1857 की क्रांति क्या थी?

A: 1857 की क्रांति भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक बड़ा विद्रोह था।

प्रश्न: 1857 की क्रांति कब हुई थी?

A: 1857 की क्रांति 10 मई 1857 से जून 1858 तक हुई थी।

प्रश्न: 1857 की क्रांति की शुरुआत कहाँ से हुई थी?

ए: 1857 की क्रांति भारत के दिल्ली के पास एक शहर मेरठ में शुरू हुई थी।

प्रश्न: 1857 की क्रांति के नेता कौन थे?

A: 1857 की क्रांति के नेता भारतीय सैनिक, किसान और नागरिक थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया था।

प्रश्न: 1857 की क्रांति के प्रमुख कारण क्या थे?

A: 1857 की क्रांति के मुख्य कारण भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक शिकायतें थीं।

प्रश्न: 1857 की क्रांति के क्या परिणाम हुए?

A: 1857 की क्रांति के परिणामों में भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत और सीधे ब्रिटिश शासन की शुरुआत हुई।

प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल रही?

उत्तर: नहीं, 1857 की क्रांति भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के अपने तात्कालिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं हुई।

प्रश्न: 1857 की क्रांति का दूसरा नाम क्या है?

उत्तर: 1857 की क्रांति को भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के रूप में भी जाना जाता है।

प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति एक राष्ट्रव्यापी विद्रोह थी?

उत्तर: हां, 1857 की क्रांति एक व्यापक विद्रोह था जो भारत के कई क्षेत्रों में फैल गया था।

प्रश्न: 1857 की क्रांति के कुछ प्रमुख युद्ध कौन से थे?

A: 1857 की क्रांति की कुछ प्रमुख लड़ाइयाँ दिल्ली की घेराबंदी, लखनऊ की लड़ाई और झाँसी की लड़ाई थीं।

प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति का भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर कोई प्रभाव पड़ा?

ए: हां, 1857 की क्रांति को स्वतंत्रता के लिए भारत के बाद के संघर्ष के अग्रदूत के रूप में माना जाता है, क्योंकि इसने ब्रिटिश शासन के खिलाफ बाद के आंदोलनों को प्रेरित किया।

प्रश्न: अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति को कैसे दबा दिया?

ए: अंग्रेजों ने क्रूर सैन्य बल के माध्यम से 1857 की क्रांति को दबा दिया, जिसमें व्यापक हिंसा, निष्पादन और विद्रोहियों के खिलाफ विद्रोह शामिल थे।

प्रश्न: भारत पर 1857 की क्रांति के कुछ दीर्घकालिक प्रभाव क्या थे?

ए: भारत पर 1857 की क्रांति के कुछ दीर्घकालिक प्रभावों में बढ़ी हुई राष्ट्रवाद, राजनीतिक चेतना और स्व-शासन की मांग शामिल थी।

प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति के कारण अंग्रेजों ने भारत में कोई सुधार किया?

ए: हां, 1857 की क्रांति ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के अंत और ब्रिटिश क्राउन को सत्ता हस्तांतरण सहित ब्रिटिशों द्वारा कुछ सुधारों का नेतृत्व किया।

प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति में भारत के सभी धार्मिक समूहों के लोग शामिल थे?

A: हां, 1857 की क्रांति में भारत के विभिन्न धार्मिक समूहों के लोग शामिल थे, जिनमें हिंदू, मुस्लिम, सिख और अन्य शामिल थे।

प्रश्न: क्या 1857 की क्रांति का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई प्रभाव पड़ा?

A: 1857 की क्रांति ने भारत के कुछ हिस्सों में आर्थिक गतिविधियों को बाधित किया, लेकिन इसका सीधा असर उन पर नहीं पड़ा


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