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भारत में प्रारम्भ में आने वाले यूरोपीय व्यापारी एक नई सभ्यता और संस्कृति के ध्वजवाहक थे। इन यूरोपीय व्यापारियों में ब्रिटिश व्यापारियों ने भारत को कहीं ज्यादा प्रभावित किया। इस ब्लोग्स में हम ‘ब्रिटिश उपनिवेशवाद का भारतीय शिक्षा पर प्रभाव’ का अध्ययन करेंगे। भारत आने वाले यूरोपियन व्यापारियों के तौर-तरीके भारतीयों से बिलकुल भिन्न थे। इनका व्यापारिक संगठन और व्यावसायिक आचरण भारतीय जनमानस से एकदम भिन्न था। आइये इस लेख के माध्यम जानते हैं कि इन औपनिवेशिक शासकों का भारत की शिक्षा व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा ?
ब्रिटिश उपनिवेशवाद
भारत में यूरोपीय लोगों का आना तब शुरू हुआ जब 1498 में एक पुर्तगाली नाविक वास्को-डी गामा भारत पहुंचा। वह 20 जुलाई 1498 को भारत के राज्य केरल के कोझिकोड जिले के कालीकट ( काप्पड़ गांव ) पहुंचा। वह पहला यूरोपीय था जिसने भारत के लिए समुद्री मांग की खोज की और भारत की भूमि में प्रवेश किया। इसी के साथ यूरोपीय देशों के लिए समुद्री मार्ग खुल गया और वे एक के बाद एक भारत में व्यापार करने आने लगे। इन यूरोपियन की सामाजिक पृष्ठभूमि, नैतिकता, रीती-रिवाज़, धर्म, संस्कृति और बौद्धिक दृष्टिकोण भारतीयों से बिलकुल भिन्न था।
यूरोपीय व्यापारियों और मिशनरियों के आगमन से भारतीयों के साथ उनके संपर्क ने एक नई सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया का श्रीगणेश किया। उत्तरोत्तर पूर्व-पश्चिम बीच बढ़ते व्यापारिक संबंधों ने भारतीयों को परिवर्तन की गंगा में डुबो दिया। 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय के साथ बंगाल से अंग्रेजों ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया। उसके बाद जो हुआ उसने लगभग 190 वर्षों तक भारत की राजनीति, सामाजिक जीवन और अर्थव्यवस्था तथा संस्कृति पर पाश्चात्य प्रभाव की छाप छोड़ी।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद का भारतीय शिक्षा पर प्रभाव
औपनिवेशिक शासकों ने अपने शासन को सुचारु रूप से चलाने और उसे स्थायित्व देने के उद्द्श्यों से भारत में सुधारों की प्रक्रिया प्रारम्भ की। यद्पि इन सुधारों का उद्देश्य भारत का उद्धार नहीं बल्कि भारतीयों को औपनिवेशिक शसकों के सहयोगी के रूप में तैयार करना था। भारत में क़ानून का निर्माण,सड़क,संचार,रेल संचालन ने सम्पूर्ण भारत को जोड़ दिया। भारत के उत्पादक संसाधनों के लिए उद्योगों को शुरू किया गया, एक नवीन शिक्षा प्रणाली प्रारम्भ की गयी साथ ही सार्वजानिक स्वास्थ्य सुधार के लिए प्रयत्न किये गए।
इन नए शासकों के सुधार कार्यक्रमों ने भारतीयों को बहुत प्रभावित किया। सभी प्रान्त के लोग एक दूसरे के सम्पर्क में आये , जाति व्यवस्था की कठोरता कम होने लगी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था टूटने लगी साथ ही संयुक्त परिवार भी बिखरने लगे। धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में पुनरुत्थान और पुनर्जागरण आंदोलन प्रारम्भ हुए। लोगों में जागृति आयी, नए युवा वर्ग ने अंधविश्वासों को त्याग दिया।
उच्च शिक्षा के लिए भारतीयों ने समुद्र पार जाना शुरू कर दिया। उच्च शिक्षा प्राप्त युवा यूरोप की क्रांतियों से प्रभावित होकर देशभक्त बनकर स्वतंत्रता आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे। हम संक्षेप में ब्रिटिश शासकों की नीतियों के फलस्वरूप भारतीय शिक्षा, संस्कृति और सामाजिक जीवन में आये परिवर्तनों और उसके प्रभावों का अध्ययन करेंगे।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद का भारतीय शिक्षा प्रणाली पर प्रभाव
प्राचीन भारतीय शिक्षा स्वतंत्र थी, शक्तिशाली शासक भी विश्वविद्यालय की शिक्षा में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। संस्कृत में शिक्षा प्रदान की जाती थी, शिक्षा धार्मिक एवं धर्मनिरपेक्ष ज्ञान दोनों रूप में उपलब्ध थी। मुसलमानों के आगमन से भारत की शिक्षा-व्यवस्था पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा और शिक्षा का दायित्व अब भी राज्य का नहीं था। प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण पाठशालाओं एवं मदरसों में पंडित और मौलवियों द्वारा दी जाती थी।
उच्च हिन्दू शिक्षा विद्यालयों, आश्रमों, चतुष्पाठी आदि संस्थाओं में दी जाती थी , जिनमें ब्राह्मण अत्यंत साधारण जीवन व्यतीत करते हुए विधि, अध्यात्म और दर्शन का अध्ययन करते थे। शेष जातियों के लिए उच्च-शिक्षा धार्मिक आधार पर प्रतिबंधित थी। हिन्दू विद्यालयों में स्त्रियां, निम्न जातियां तथा कृषक शिक्षा से बंचित थे। इस प्रकार अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में शिक्षा पर ब्रह्मणों का एकाधिकार था। इस शिक्षा में ब्राह्मणों का ही गुणगान था।
इसके विपरीत मुसलिम जनता में उच्च शिक्षा पर किसी वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं था। कोई भी मुसलमान मदरसे में पढ़ सकता था। सम्पूर्ण उच्च शिक्षा का माध्यम अरबी भाषा ( विदेशी भाषा ) थी, क्योकि कुरान अरबी भाषा में रची गई थी।
हिन्दू और मुसलिम शिक्षा के विषय में ओ. मेले ( O. Malley ) ने बहुत तार्किक टिप्पणी की है “दोनों व्यवस्थाओं ( हिन्दू और मुसलिम ) में काफी समानता थी। उनका माध्यम ऐसी भाषा या भाषाएँ थीं जो साधारण जनता के लिए विजातीय थीं। दोनों की शक्ति का स्रोत धर्म था अपरिवर्तनशील सत्ता पर आधारित होने के कारण दोनों ही स्वतंत्र खोज की भावना को हतोत्साहित करते थे और परिवर्तन के विरुद्ध थे। परन्तु एक क्षेत्र ऐसा था जिसमें दोनों में भारी अंतर था — जहां हिन्दू विद्यालय समुदाय के एक विशिष्ट वर्ग के लिए बनाये गया थे, मुसलिम मदरसे उन सभी के लिए खुले थे जो ईश्वर और एक पैग़म्बर मुहम्मद में विश्वास करता है।”
भारतीय शिक्षा की दुर्दशा पर ब्रिटिश काल के प्रथम सुधार आयोग साइमन की रिपोर्ट में कहा गया ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ भारतीय शिक्षा की दशा शोचनीय थी। मुद्रित पुस्तकों का आभाव था। पाश्चात्य शिक्षा का अभी प्रचलन नहीं हुआ था। शिक्षा सभी के लिए नहीं थी और महिलाओं के लिए तो बिलकुल भी नहीं।
भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए मुख्य रूप से तीन संस्थाएं उत्तरदायी थीं — ईसाई मिशनरी प्रचारक, ब्रिटिश सरकार और प्रगतिशील भारतीय। भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रारम्भ करने का मुख्य कारण क्या था ? इसका उत्तर मैकाले के इस कथन से मिलता है “एक ऐसा वर्ग जो रक्त और वर्ण से तो भारतीय हो परन्तु नैतिकता और बौद्धिकता में,अभिरुचि और विचारों से अंग्रेज हो।” कुछ विद्वान कहते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा उद्देश्य सस्ते क्लर्क पैदा करना था।
ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रारंभिक प्रयास
ईस्ट इंडिया कंपनी जो कि एक व्यापारिक कम्पनी थी। अतः प्राम्भिक काल में शिक्षा पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। फिर भी कम ही सही लेकिन कुछ प्रयास किये गए जैसे–
- 1780 में कलकत्ता मदरसा खोला गया।
- 1791 में बनारस में संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना हुयी।
- 1813 के चार्टर एक्ट में भारतीय ज्ञान और सहित्य को प्रोत्साहन हेतु एक लाख रुपए वार्षिक की राशि निश्चित गयी।
- 1817 में हिन्दू महाविद्यालय ( बाद में प्रेसीडेंसी कॉलेज ) की स्थापना।
वुड्स का शिक्षा-सम्बन्धी घोषणा पत्र (1854) और भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ
1854 का वुड्स एजुकेशनल डिस्पैच एक नीति वक्तव्य था जिसने औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में शिक्षा प्रणाली में महत्वपूर्ण बदलावों का प्रस्ताव दिया था। प्रेषण उस समय भारत के राज्य सचिव सर चार्ल्स वुड द्वारा लिखा गया था, और इसका भारत में शिक्षा के विकास पर स्थायी प्रभाव पड़ा। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में वुड्स के घोषणा-पत्र का बहुत महत्व है, क्योंकि आगे चलकर यही भारतीय शिक्षा पद्धति का आधार स्तम्भ बना। इस घोषणा पत्र अनुसार–
घोषणापत्र के कुछ प्रमुख प्रस्ताव इस प्रकार हैं:
शिक्षा का विस्तार: वुड ने पूरे भारत में शिक्षा के विस्तार का प्रस्ताव रखा, खासकर उन लोगों के लिए जिनकी शिक्षा तक सीमित पहुंच थी। उनका मानना था कि शिक्षा सामाजिक और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है।
शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी: वुड ने सिफारिश की कि स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना चाहिए। उनका मानना था कि अंग्रेजी शिक्षा भारतीयों को आधुनिक ज्ञान तक बेहतर पहुंच प्रदान करेगी और उन्हें ब्रिटिश शासकों के साथ प्रभावी ढंग से संवाद करने में मदद करेगी।
विश्वविद्यालयों की स्थापना: घोषणापत्र में कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव था। ये विश्वविद्यालय विभिन्न विषयों में डिग्री प्रदान करेंगे और उन्नत अनुसंधान और छात्रवृत्ति के अवसर प्रदान करेंगे।
एक लोक सेवा आयोग का निर्माण: वुड ने सरकारी पदों के लिए उम्मीदवारों की भर्ती और चयन के लिए एक लोक सेवा आयोग के निर्माण की सिफारिश की। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि सरकारी पदों के लिए केवल सबसे योग्य और सक्षम व्यक्तियों का चयन किया जाए।
तकनीकी शिक्षा: घोषणापत्र में इंजीनियरिंग, कृषि और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में शिक्षा प्रदान करने के लिए तकनीकी स्कूलों की स्थापना का प्रस्ताव था। इसका उद्देश्य भारत में कुशल पेशेवरों की कमी को दूर करना था।
कुल मिलाकर, 1854 का वुड का शैक्षिक डिस्पैच भारत में शिक्षा के आधुनिकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, लेकिन इसकी भी अपनी सीमाएँ थीं। उदाहरण के लिए, अंग्रेजी शिक्षा पर जोर देने के परिणामस्वरूप देशी भाषाओं और संस्कृतियों की उपेक्षा हुई। फिर भी, इस घोषणापत्र का प्रभाव आज भी भारतीय शिक्षा प्रणाली में महसूस किया जा सकता है।
1- भारतीय शिक्षा-व्यवस्था का उद्देश्य भारत में पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार और सरकार के लिए प्रशिक्षित सेवक प्राप्त करना था।
2- महाविद्यालय स्तर पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो।
3- माध्यमिक स्तर पर शिक्षा अंग्रेजी और आधुनिक भारतीय भाषाओँ दोनों में दी जाये।
4- आधुनिक भारतीय भाषाओँ को भविष्य में शिक्षा का माध्यम बनाने के उद्देश्य से प्रोत्साहित किया जाये।
5- स्त्रियों और सामान्यजन तक शिक्षा का उत्तरदायित्व सरकार संभाले।
6- इस योजना को मूर्त रूप देते हुए सरकार ने प्रत्येक प्रान्त में सार्वजनिक निर्देशक और निरीक्षक तथा उपनिरीक्षकों को नियुक्त कर दिया
7- 1857 में कलकत्ता, मद्रास और बंम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई।
भारत का गवर्नर कलकत्ता विश्वविद्यालय और मद्रास तथा बम्बई के प्रांतीय गवर्नर अपने-अपने प्रान्त के विश्वविद्यालयों के कुलपति बने। तीनों विश्वविद्यालयों में से प्रत्येक में कला,
विज्ञानं, विधि, चिकित्सा और इंजीनियरिंग संकाय रखे गए।
* 1847 में रुड़की और 1856 में कलकत्ता में तकनीकी महाविद्यालय खोले गए।
हंटर शिक्षा आयोग 1882
1882 में लार्ड रिपन ने सर विलियम हंटर की अध्यक्षता में एक शिक्षा आयोग गठित किया। इस आयोग ने निम्नलिखित सिफारिशें कीं —
1- प्राथमिक अथवा उच्चतर शिक्षा संस्थानों को दी जाने वाली सहायता राशि बढ़ा दी जाये।
2- निजी संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाये।
3- प्राथमिक शिक्षा पर और अधिक ध्यान दिया जाये तथा सहायता राशि बढ़ा दी जाये।
सरकार ने हंटर आयोग की सभी सिफारिशें स्वीकार कर ली गई।
इस प्रकार प्राथमिक स्तर पर शिक्षा भारतीय भाषाओँ के माध्यम से और माध्यमिक तथा उच्चतर स्तर पर अंग्रेजी माध्यम से दी जाती थी। भारत में रोजगार का एकमात्र साधन या रास्ता अंग्रेजी ही थी, स्पष्ट है कि सरकारी विभाग में नौकरी की अनिवार्य शर्त अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा का ज्ञान था। 19वीं शताब्दी में हिन्दुओं का रूख अंग्रेजी शिक्षा की तरफ तेजी से बढ़ा मगर मुसलिम जनता ने इसे इस्लाम के विरुद्ध माना। अतः मुसलमान सरकारी नौकरी पाने में असमर्थ रहे बाद में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सर सैयद अहमद खां के प्रयासों से मुसलमान पाश्चात्य शिक्षा की तरफ उन्नमुख हुए।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में महिला शिक्षा की तरफ भी कुछ सकारत्मक कदम उठाये गए। ईसाई मिशनरियों ने इस ओर सबसे पहले शुरुआत की उसके बाद कुछ कुलीन भारतीयों ने भी रूचि दिखाई। लेकिन अधिकांश भारतीय और ईस्ट इंडिया कम्पनी भी उदासीन रहे। लेकिन प्रगतिशील भारतीयों विशेषकर राजा राममोहन राय तथा ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, दक्कन शिक्षा समाज आदि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके बाद स्त्री शिक्षण संस्थाओं और छात्राओं की संख्या में लगातार बृद्धि होने लगी।
पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव के महत्व को इंगित करते हुए सर हेनरी कॉटन ने लिखा “अंग्रेजों ने भारत को एक अमूल्य वरदान दिया जिसने भारतीय जनमानस की विभिन्न शक्तियों और वर्गों को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। अंग्रेजी शिक्षा ने विभिन्न प्रांतीय भारतीयों को एक सामान्य भाषा प्रदान की और उसे बृहत्तर विश्व के साथ जोड़ दिया। विश्व के विभिन्न भागों की, चाहे चीन हो अथवा मिस्र, रूस हो या आयरलैंड, घटनाओं का सीधा प्रभाव भारतीय जनता पर दर्शनीय रहा”।
अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के शुरू होने से भारतीयों ने यूरोप के साहित्य को पढ़ा। यूरोप के वैज्ञानिक, लोकतान्त्रिक, भौतिकी, जीवविज्ञान, रसायन विज्ञान पठन का प्रारम्भ हुआ। बेकन, डार्विन, स्पेंसर, लॉक, गॉडविन, जे. एस. मिल, एडम स्मिथ, न्यूटन, रस्किन, रसेल इत्यादि को पढ़ने का मौका मिला।
अंग्रेजों को उम्मीद थी कि अंग्रेजी शिक्षा से एक शताब्दी की अवधि में भारत पूर्णतः एक बदला हुआ रष्ट्र बन जायेगा। धर्म के क्षेत्र में क्रन्तिकारी परिवर्तन होगा और हिन्दू रष्ट्रवाद का स्थान यूरोपीय विज्ञान को प्राप्त होगा। ज्ञान और शक्ति जनता के हाथ में होगी जो धार्मिक और सामाजिक सुधारों में सहयोग देंगे। जागरण के कारण शिक्षित भारतीय ब्रिटिश शासन के प्रति बफादार होंगे।
इस का काल में बैद्धिक पुनर्जागरण वास्तव में हुआ भी, समाज-सुधार के आंदोलन प्रारम्भ हुए, जाति-प्रथा के विरुद्ध भी आंदोलन हुए लेकिन इसका कोई बहुत ज्यादा आसान नहीं हुआ।
20 अक्टूबर 1931 को रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ इंटरनेशनल अफ़ैयर्स, लंदन में बोलते हुए गाँधी जी ने कहा कि “भारत इस समय उससे कहीं ज्यादा अशिक्षित है जितना वह 50 अथवा 100 वर्ष पूर्व था। लंदन विश्वविद्यालय की पद्धति पर जिन विश्वविद्यालयों की स्थापना भारत में की गयी थी वे ज्ञान के मंदिर नहीं थे, उनका कार्य केवल परीक्षाओं का आयोजन करना और उनमें सफल उम्मीदवारों को उपाधियाँ प्रदान करना था। संबद्ध महाविद्यालयों के के विषय-निर्धारण का अधिकार उन्हें प्राप्त था परन्तु उनकी अध्यापन-प्रणाली पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था।”
भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव
भारत में दी जाने वाली सम्पूर्ण शिक्षा- व्यवस्था का एक ही उद्देश्य निर्धारित था — निर्धारित अंग्रेजी पुस्तकों के माध्यम से निर्धारित विषयों का अध्ययन करना जिससे उपाधि प्राप्त की जा सके। परीक्षा में सफलता को शिक्षा के साथ उलझा दिया गया और शिक्षा तथा सामजिक आवश्यकताओं के बीच संबंध नहीं था। भारत की औद्योगिक और आर्थिक आवश्यकताओं तथा शिक्षा में कोई तालमेल नहीं रहा, क्योंकि शिक्षा पूरी तरह साहित्यिक और अव्यावसायिक थी। व्यावसायिक और तकनिकी शिक्षा के आभाव में शिक्षा केवल बेरोजगारी का एक साधन मात्र थी।
अंग्रेजी शिक्षा भारतीय संस्कृति-सभ्यता से बिलकुल भिन्न थी। भारत का एक विकृत रूप पेश किया गया और ब्रिटिश विजेताओं की गौरवगाथाओं को पेश किया गया। इन सबसे उपजे असंतोष के कारण जामिया मिलिया, कशी विद्यापीठ, विश्वभारती और गुजरात विद्यापीठ इत्यादि की स्थापना हुयी। रवीन्द्रनाथ टैगोर और स्वामी विवेकानंद ने प्राचीन भारतीय आदर्श को पुनर्जीवित करने का विचार प्रकट किया।
औपनिवेशिक उच्च शिक्षा का भारतीय जनमानस पर प्रभाव
उच्च शिक्षा के के लिए विदेशी भाषा का प्रयोग सदैव असुविधाजनक रहा। वर्षों तक तो भाषा पर अधिकार करने के प्रयत्न किये जाते हैं और अंत में अपूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है क्योंकि अध्ययन की भाषा वह नहीं होती जो विचारों की भाषा होती है। इस असुविधा का वर्णन करते हुए आर. एन. गिलक्राइस्ट ने एक शिक्षा-अधिकारी को उद्धृत किया है: “इससे पहले कि एक औसत छात्र बोलता अथवा लिखता है, उसे मन-ही-मन संज्ञाओं और क्रियाओं की खोज में रहना पड़ता है। इस प्रकार अनेक विचार अभिव्यक्ति से पहले ही समाप्त हो जाते हैं”
पंडित मदनमोहन मालवीय, गाँधी जी और आर्य समाज अंग्रेजी शिक्षा के धर्म-निरपेक्ष चरित्र को भारत के लिए हानिकारक मानते थे क्योकि वह भारतीय मानस के, जो अनिवार्यतः धार्मिक है, के विरुद्ध थी। भारत में प्राचीन काल से ही धार्मिक और नैतिक शिक्षा को सदैव पूर्ण शिक्षा का अभिन्न अंग मन गया है। भारतीयों में नैतिकता की कमी और चरित्रपतन को अंग्रेजी शिक्षा का परिणाम बतया है।
औपनिवेशिक शिक्षा का भारतीयों पर सकारात्मकप्रभाव
अतः स्पष्ट है कि अंग्रेजी शिक्षा-प्रणाली ने प्राचीन परम्पराओं और स्थापित विश्वासों या कहें कि अंधविश्वासों को कमजोर किया और एक नई सभ्यता और संस्कृति का मार्ग प्रशस्त किया। शिक्षित भारतीयों में एक जिज्ञासा तथा आलोचना की भावना देखने को मिली और विभिन्न विद्यालय और महाविद्यालय राष्ट्रवाद के केंद्र बन गए जहां छात्र राष्ट्रीय संगठनों तथा उग्रवादी समूहों के गठन की शिक्षा प्राप्त करके निकले।
एक छात्र ने अपने पिता से कहा ‘यदि उनकी शवयात्रा में जाते हुए उसे राजनीतिक जुलूस किला तो वह बिना हिचकिचाहट के शवयात्रा छोड़कर जुलूस में शामिल हो जायेगा’ इस कथन से हम उस समय के राष्ट्रीय उफान का अंदाजा लगा सकते हैं।
स्वतंत्रता, राष्ट्र-प्रेम और आत्मोत्सर्ग की भावनाओं ने एक क्रन्तिकारी मानशिकता को जन्म दिया परन्तु साथ ही शिक्षा छोटे से वर्ग तक सीमित रही जन-शिक्षा का गंभीर प्रयत्न नहीं किया गया। परिणामस्वरूप शिक्षित भारतीय सामान्य जनमानस से कटते गए।
निष्कर्ष
इस प्रकार औपनिवेशिक शिक्षा-नीति वास्तव में एक व्यापक सांस्कृतिक नीति का अंग थी जिसका उद्देश्य भारतीयों को यह महसूस कराना था कि वे सांस्कृतिक दृष्टि से पश्चिम के लोगों की तुलना में पिछड़े और असभ्य हैं। इसने भारतीयों के भाषाई, धार्मिक, प्रजातीय, जातिगत तथा जनजातीय अंतरों को तूल देकर उनमें फूट डाली और उन्हें आपस में लड़ाने की कोशिश की। इन क्षेत्रों के लोग अब तक गौरव और आत्मसम्मान का जीवन जीते आ रहे थे किन्तु अब अचानक ही उनका सामना बंदूकों और मशीनों से लैस श्वेत लोगों से हुआ जो प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उससे कहीं आगे थे।
धीरे-धीरे यह सांस्कृतिक प्रभाव अन्य क्षेत्रों में फैलता चला गया। सम्पूर्ण प्रभाव को फ्रांज फैनन ( Franz Fanon ) ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘दुनिया के बदकिस्मत लोग’ ( The Wretched of the Earth ) में ‘उपनिवेशित (Colonialized) लोगों के मानस पर घातक प्रहार’ की संज्ञा दी है।
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