ऋग्वैदिक काल: ज्ञान विज्ञान और कृषि | Rig Vedic kaal ka gyan,vigyan

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ऋग्वैदिक आर्य ताम्र-युग के अंत में थे, कृषि उनके जीवन का मुख्य आधार थी और पशुपालन उनका प्रमुख व्यवसाय था। ‘ऋग्वैदिक काल का ज्ञान -विज्ञान Rig Vedic Periodology’ उस समय कपडा बुनना या खेती के प्रकार अथवा दैनिक जीवन सम्बन्धी कार्यों में वह अपने ज्ञान का प्रयोग करते थे। भले ही उनका ज्ञान और विज्ञान आज जैसा नहीं था लेकिन समय-काल और परिस्थिति के अनुसार पर्याप्त था। आइये इस लेख के माध्यम से हम अपने वैदिक पूर्वजों के ज्ञान और विज्ञान के विषय में जानते हैं 

ऋग्वैदिक काल

ऋग्वैदिक काल प्राचीन भारतीय इतिहास में प्रारंभिक वैदिक काल को संदर्भित करता है, जो लगभग 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व तक का है। इसका नाम चार वेदों में सबसे पुराने और सबसे महत्वपूर्ण ऋग्वेद के नाम पर रखा गया है, जिसे भारतीय सभ्यता और हिंदू धर्म का सबसे पुराना स्रोत माना जाता है।

ऋग्वैदिक काल के दौरान, एक ग्रामीण और खानाबदोश जीवन शैली प्रचलित थी, जिसमें पशु-पालन प्राथमिक व्यवसाय था। समाज को जनजातियों में विभाजित किया गया था, जिन्हें जन या गण के रूप में जाना जाता था, और जनजाति के प्रमुख को राजन के रूप में जाना जाता था। अर्थव्यवस्था वस्तु विनिमय और व्यापार पर आधारित थी, कौड़ी के गोले को मुद्रा के रूप में इस्तेमाल किया जाता था।

ऋग्वैदिक समाज में धर्म ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और ऋग्वेद में इंद्र, अग्नि, सोम और वरुण सहित विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित भजनों, प्रार्थनाओं और मंत्रों का संग्रह है। बलिदान, पशु बलि सहित, धार्मिक प्रथाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे।

ऋग्वैदिक काल में भी जाति व्यवस्था का उदय हुआ, जिसमें ब्राह्मण (पुजारी) सबसे ऊंची जाति और शूद्र (मजदूर) सबसे नीचे थे। क्षत्रिय (योद्धा) और वैश्य (व्यापारी) अन्य दो जातियाँ थीं।

ऋग्वैदिक काल भारतीय इतिहास में वैदिक युग की शुरुआत का प्रतीक है, जो लगभग 600 ईसा पूर्व तक चला था। यह प्राचीन भारत में महत्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिवर्तन का समय था और इसने हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति के विकास की नींव रखी।

ऋग्वैदिक काल में कृषि

कृषि- हम सब जानते हैं की नवपाषाण काल में कृषि का विकास हो चुका था और हड़प्पावासियों को भी कृषि का सम्पूर्ण ज्ञान था। हड़प्पावासियों का स्थान लेने वाले आर्यों का भी मुख्य व्यवसाय कृषि था। 

ऋग्वैदिक आर्य हल का उपयोग करते थे, और सीरा ( नदों, हल ) का भी  है आर्यों का मुख्य धन गाय-घोड़े और भेड़-बकरियां थीं। वामदेव कहते हैं–

        “इंद्र ने वृत्त को मरकर पहले की उषाओं, शरदों और रुधि सिन्धुओं  किया। चारों तरफ बाँधी गयी सीरा को पृथ्वी  बहने के लिए मुक्त कर किया || ८ || 

 सीरा यहाँ  को कहा गया है।  नदी और हराई दोनों को सीरा कहकर सम्बोधित कहा गया है, उनके आकार की समानता के कारण ऐसा कहा गया। 

    बुध सौम्य भी सीरा ( हल की हराई ) के बारे में कहते हैं  ( १० | १०१ )–

      “सीरा को  जोड़ो, जुए ( बैल के कन्धों  वाला भाग ) को फैलाओ। यहाँ( इस ) स्थान में बीज बोओ।  और स्तुति ( प्रार्थना ) से  भरपूर अन्न पैदा हो। पास पाकी फसल में हसुये ( फसल काटने वाले ) पहुंचे। ||३ || “

      ” कवि सीरा को जोड़ते हैं, जुये को अलग करते हैं।  देवों के लिए सुन्दर स्त्रोत के साथ धीर हैं || ४ || 

  ‘ पशु-प्याऊ बनाओ, रस्सी ( बरहा ) जोड़ो। पानी वाले गड्डे ( छोटा तालाब ) से हम ससेचन करते ( उसे ) निरन्तर सींचें || ५ || 

   “पशुओं का प्याऊ तैयार है, ससेचन ( के लिए ) जलवाले अक्षय कुँए ( अवत ) में सुवरत्र ( बरहा, रस्सा ) है || ६ || 

   “घोड़ों को तृप्त करो, हित (वस्तु ) पाओ, स्वस्ति के सत्ज बहन करने वाले रथ तैयार करो।  द्रोण भरके पत्थर के चक्के वाले असंत्रकोश- (मान बंधे ) युक्त कुंड को मनुष्यों के पीने के लिए भरो || ७ || 

ऋग्वैदिक काल में कुँए का महत्व

     पंजाब जैसे भूक्षेत्र में उस समय खेती के लिए और आदमियों-पशुओं के पीने के लिए पानी आज की तरह ही कुओं से ही मिलता था। पानी स्वाभाविक स्वयंज और खनित्रिय ( खोदकर निकले ) दो प्रकार होते थे।  यश वासिष्ठ के कथन से ज्ञात होता है || ७| ४९ )

   “जो जल दिव्य था खनित्रिय अथवा जो  उत्पन्न बहते हैं।  जो समुद्रार्थ शुचि पवित्र जलदेवियाँ हैं, वह  रक्षा करें || २ ||

भरद्वाज भी कुँए ( केवट ) का उल्लेख करते हैं ( ६ | ५४ )—

    “हमारी गायें नष्ट नं होवें, हमारी ( गायें ) मरी न जाएँ ( वह ) कुँए में ना गिरें।बिना हानि के ( गोष्ठ ) आवें || ७ || 

गृत्समद भी कुएं ( उत्स ) का उल्लेख करते हैं ( २ | १६ )

   “तुम शत्रुनाशक हो, युद्ध में नाव की तरह हम तुम्हारे पास जाते हैं, सवन में ब्रह्मा के स्तोत्र-वचन साथ जाते हैं। हमारे इस वचन को अच्छी तरह जानो। हम कुँए की तरह इंद्र को धन से सिचेंगे || ७ || 

ऋग्वैदिक कालीन कुल्या ( छोटी नहर या पानी का स्रोत )

पुराने समय में और आज भी कुल्या या ( कूल ) छोटी-बड़ी  नहरों को कहते हैं, लेकिन उस समय कुल्या का अर्थ कूल या तटवाली था, जो नदी या नहर दोनों का नाम था। कृष्ण आंगिरस कहते हैं (१० | ४३ )–

   “जैसे जल सिंधु की ओर बहते हैं,कुल्या ह्रद की ओर बहती है, वैसे ( ही ) सोम इंद्र की ओर ( बहै ) । इसके तेज को यज्ञशाला में ब्राह्मण उसी तरह बढ़ाते हैं, जैसे दिव्य दाता द्वारा ( भेजी ) वृष्टि जौ को बढ़ाती है || ७ || 

भौम आत्रेय भी कुल्या का उल्लेख करते हैं ( ५ | ८३ ) —-

    “हे पर्जन्य, महान कोश मेघ को उठाकर सींचो।  रुकी हुयी कुल्या पूर्व की ओर बहें।  घी ( जल ) से द्दौ और पृथ्वी को भिगो दो, धेनुओं ( गायों ) के लिए सुन्दर प्याऊ हो ( जाये ) || ८ || 

ऋग्वैदिककालीन वास्तुकला

 यद्पि आर्य एक ग्रामीण सभ्यता जे जुड़े थे और न ही उनके साथ सिंधु सभ्यता का नगरों का अस्तित्व का कोई लक्षण मिलता है, पर हमें ज्ञात है , कि सिंधु-उपत्यका के निवासी मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे अच्छी तरह बने-बसे शहरों में रहा करते थे। इसका अर्थ यह नहीं कि वैदिक आर्य केवल घुमन्तु पशुपालक ही थे।  वह कृषक भी थे और अपने पशुओं की अनुकूलता देखकर गावों में रहते थे। 

उनके ग्रामों में दम,शाला, कुटी ही नहीं, बल्कि खम्बे वाली और हर्म्य जैसी इमारतें भी थीं।  हर्म्य यद्पि पीछे राजप्रासाद को कहा जाता था, पर वशिष्ठ के कथन ( ७| ५६ ) से ऐसा मालूम नहीं होता —-

   “मरुतगण घोड़ों की तरह सुन्दर गति वाले हैं, उत्सवदर्शी मनुष्यों की तरह शोभन है। वे हर्म्य में स्थित शिशुओं की तरह शुभ्र और क्रीड़ाप्रिय बछड़ों की तह जलधारक हैं || १६ || 

 सहस्रस्थूण हज़ार खम्बों वाले हाल का उल्लेख श्रुतविधि आत्रेय की ऋचा में है (५ |६२ )

   “हे मित्र-वरुण, सुकृत ( यज्ञ ) में दानशील हो यजमान के अन्न की रक्षा करो।  क्रोध-रहित तुम दोनों राजा, हज़ार खम्बों वाले गृह हो धारण करो। || ६ || 

ऋग्वैदिककालीन कालचक्र ( वर्ष और महीनों की गणना )

ऋग्वेद में सातों दिनों का उल्लेख नहीं है। बारह राशियां तो ग्रीक लोगों के संपर्क में आने के बाद हमरे यहाँ ली गईं।  आज भी किसान सौर वर्ष की आवश्यकता अच्छी तरह अनुभव करते हैं,पर वर्षाकाल को बहुत पुराने समय की तरह ही नक्षत्रों से गिनते हैं।  आद्रा से हस्त तक के काल को वह वृष्टि ( बरसात ) का समय मानते हैं, और उसी के अनुसार फसलों को बोते भी हैं।  आर्य मासों ( महीनों ) को जानते थे। 

   १ – मास — शुनःशेष विश्वामित्र ( अजीगर्त-पुत्र ) . बारह महीनों का उल्लेख करते हैं (१ | २४ ) —

     “व्रतधारी वरुण प्रजा वाले बारह महीनों को जानते हैं और जो अधिक मास होता है, उसे (भी) जानते हैं || ८ ||| 

  २ – ऋतु – कुछ ऋतुएं भी उस वक़्त मानी जाती थीं, यह कण्वपुत्र प्रगाथ की ऋचा (८ | ५२ ) से ज्ञात होता है —

      “हे इंद्र ( तुम ) यज्ञ ऋतु वाले प्रकाशमान  ( हो ), हे शूर, ऋचाओं से हम तुम्हारी स्तुति करते हैं।  तुम्हारे साथ हम विजयी होंगे || १ || 

  भरद्वाज शारद और हिम ( हेमंत ) ऋतुओं का उल्लेख करते हैं (६ | २४ )—

   “शरदों और महीनों की तरह जिसे ( वह ) जरा-युक्त नहीं बनाते, दिन इंद्र को कृश नहीं करते।  स्तोमों और उक्थों से प्रशंसा किये जाते इस वृद्ध इंद्र का शरीर बढ़े || ७ || “

( ६ | २४ )—

  “हे इंद्र, युद्ध में स्तोता की रक्षा के लिये यत्नवान हो। नजदीक या दुर वाले भय से उसकी रक्षा करो।  घर में, अरण्य में, शत्रुओं से ( उसकी ) रक्षा करो। हम सुन्दर वीर पुत्रों वाले हों, सौ हिमों ( तक ) आनंद करें || १० ||”

अपने साथ ही वसंत का ज्ञान आर्य सप्तसिंधु में लाये थे।  उनके बाहरी जाति-भाई रुसी वसंत को व्यस्ना, शारद को खालद और हिम को जिम कहते हैं।  यहाँ केवल उच्चारण का अंतर है।  इस प्रकार इन तीनों ऋतुओं को सप्तसिंधु में पूर्व की तरह ही माना जाता था।  नारायण ऋषि वसंत, ग्रीष्म और शारद का उल्लेख करते हैं ( १० | ९० )–

    “जब देवों ने पुरुषरूपी हवि से यज्ञ किया तो उसका घी वसंत हुआ, ईंधन ग्रीष्म और हवि शरद || ६ || 

    कल्पित ऋषि यक्षनाशन प्रजापति भी ऋतुओं के बारे में कहते हैं ( १० | १६१ ) —

       “बढ़ते हुए सौ शरद, सौ हेमंत और सौ वसंत तुम जियो, इंद्र-अग्नि-सविता-बृहस्पति शतायुरूपी हवि से इसे फिर प्रदान करें || ४ || 

   संवतसर ही पहले वर्ष का नाम था, वर्ष तो बहुत बाद में वर्षा से बनाया गया।  दीर्घतमा उचथ्य-पुत्र कहते हैं ( १ | १४० ) —

       “द्विजन्मा अग्नि तीन प्रकार के अन्न को खाते हैं, यह खाया हुआ ( अन्न ) फिर संवतसर में बढ़ता है।  अभीष्टप्रद अग्नि एक जीव्राः से बढ़ते हैं, दूसरी से दूसरों को हटाकर वनों को नष्ट करते हैं || २ |”

 ३ – नक्षत्र – नक्षत्रों का आर्यों को ज्ञान था, जैसे ( फाल्गुणी ) (१० | ८५ | १३ ) मघा, ( पूर्वा ), अर्जुनी, ( उत्तरा ) अर्जुनी, 

ऋग्वैदिककाल में माप और तौल

  वैदिक काल में तौल के लिए किसी तराजू का इस्तेमाल नहीं होता था, बल्कि खास आकर के बर्तनों का इस्तेमाल होता था, जैसा कि  आज भी हिमालय में और तमिलनाडु में सेई, माना, पाथी आदि के रूप में इस्तेमाल होता है। खारी और द्रोण बहुत पुराने नाप थे। वामदेव इसका उल्लेख करते हैं ( ४ | ३२ )–

   “हम इंद्र से जोड़ने वाले हज़ार ( रथ ) घोड़े और सौ सोम की खारियां मांगते हैं || १७ ||”

    द्रोण के बारे में बुध सौम्य की ऋचा ( १० | १०१ | ७ ) को भी हम पहले ही जान चुके हैं। यह दोनों ही भार-माप के बड़े हैं, इनसे छोटे पसर या दूसरे माप भी रहे होंगे। 

   माप अंगुल का उल्लेख नारायण ने किया है (१० | ९० )–

   “वह सहस्र_शिर, सहस्र-नेत्र पुरुष भूमि को चरों तरफ घेर रहे होंगे दस अंगुल से अधिक होकर खड़ा हुआ || १ ||”

   अंगुल और योजन के बीच में हस्त और धनुष के माप आते हैं, जो समय रहे होंगे, क्योंकि योजन का उल्लेख कक्षीवान ( १ | १२३ ) ने किया है —

      “उषा जैसी आज, वैसी कल वरुण के दीर्घ धाम का सेवन करती है। निर्दोष एक-एक उषा तुरंत तीस योजन ( तक जा ) कार्य करती है || ८ ||”

        ( १० | ८६ | २० ) ऋचा में भी योजन है। 

वैदिक काल में  संख्या ज्ञान

ऋग्वेद में संख्या का अंत अयुत ( दस हज़ार ) से किया गया है।  उसके बाद दस, शत, या सहस्र लगाकर  जाता होगा।   उल्लेख ऋचाओं में निम्न प्रकार हुआ है —

एक दो उभ ( ६ | ३० ) —

पराक्रम के लिए फिरसे बढ़े अकेले जरा-रहित इंद्र धन देते हैं || १ || 

   “इंद्र द्दौ( आकाश ) और पृथ्वी का अतिक्रमण करते। हैं उनका आधा ही उभै ( दोनों ) द्दौ और पृथ्वी के बराबर है || १ )”

(६ | २७ )

पार्थवों का सम्राट अभ्यवर्ती चायमान धनवान है। हे अग्नि, बुध  सहित रथ और बीस  गायें यह दोनों  मुझे प्रद्सन करें || ८ ||”

एक और दो —भरद्वाज ( ६ | ४५ )—

    “हे वृत्रहन्ता तुम हम जैसों के एक और  रक्षक हो। || ५ ||”

प्रथम ––वशिष्ठ ( ७ | ४४ )—

  “तेज  दिधिक्र ( है, वह ) प्रथाम रथों के आगे होता है || १४ ||”

तीन,चार,सात,नौ,दस –गृत्समद ( २ | १८ ) :

    “तब नया प्रातः हुआ, चार जूआ ( पत्थर ) सात रश्मि ( छन्द ) वाले नवीन रथ ( यज्ञ ) को जोड़ा।  दस पात्र (वाले ) मनुष्य के लिए स्वर्गप्रद वः स्त्रियों और स्तुतियों द्वारा प्रसिद्ध  हुआ || १||”

प्रथम, द्वितीय, तृतीय —गृत्समद  ( २ | १८ )

  “वह यज्ञ इस इंद्र के लिए  प्रथम, और द्वित्य और तृतीय स्वान में पर्याप्त हुआ।  वह मनुष्य के लिए शुभ लानेवाला है || २ ||”

चार – प्रतिरथ (५४७) :

चार ( ऋत्विज ) कल्याण-कामना से ( हवि ) धारण करते हैं, दस ( दिशाएं ) गर्भस्थ सूर्य को प्रेरित करती हैं।  तीन प्रकार की इसकी श्रेष्ठ किरणें सद्द्य: द्दौ के अंत तक विचरण करती है।  || ४ || 

पांच –– वशिष्ठ ( ७ | १५ ) : 

    “जो युवा कवि गृहपति घर-घर में पंचजनों के सामने बैठता है ||२ ||”

विश्वामित्र ( ३ | २७ ) :

  “हे शतऋतु इंद्र, पांचों जनों में तेरा इन्द्रत्व है, ( इसलिए ) उन्हें हम तुम्हारा समझते हैं || १९ ||”

साठ, हज़ार — वसिष्ठ ( ७ | १८ )

  “गौ चाहने  वाले अनु और द्रुह्यु, के साथ सौ छ हज़ार साठ और छ वीर सो गए। यह सब इंद्र के वीर्य के काम हैं || १४ ||”

सात –– भारद्वाज ( ६ | ७४ ) :

  “हे सोम-रूद्र, असुर संबंधी बल हमें दो।  यज्ञ तुम्हे प्राप्त हो। घर-घर में  सात रत्न धारण करते हमारे दोपायों के कल्याणकारी होओ || १ ||”

आठ — हिरण्यस्तूप ( १ | ३५ ) :

  “पृथ्वी की आठों ( दिशाएं ) तीनो ( धन्वों ) सप्त सिन्धुओं को प्रकशित किया।  सुनहली औंखों वाले सविता देव यजमान को श्रेष्ठ रत्न देने आये || ८ ||”

नौ, नब्बे — वसिष्ठ ( ७ | १९ ) :

   “हे वज्रहस्त, तुम्हारे ( पास ) वह बल है, कि तुमने तुरंत नब्बे और नौ पूर्व को नष्ट किया।  रहने के लिए सौवी का रक्खा, वृत्र नमुचि को मारा || ५ ||”

दस —– गृत्समद  ( २| १८ ) :  आ’दस अरित्र वाली नाव” || १ ||”

ग्यारह-– सूर्य ( १० | ८५ ) :

  “हे वर्षक इंद्र, इसे तुम सुपुत्रा सुभगा करो। इसमें दस पुत्र धरो, और पति को ग्यारहवां करो || ४५ ||”

बारह-– वामदेव ( ४ | ३३ ) ;

  “बारह नक्षत्रों में अगोपनीय सूर्य के आतिथ्य में ऋभु प्रश्नतापूर्वक रहते हैं।  सुखक्षेत्र करते, सिन्धुओं ( नदियों ) को बहाते मरुभूमि में वनस्पतियां और नाचे की ओर जल को ले जाते हैं || ७ ||”

  चौदह— सघ्रि वैरूप ( १० | ११४ || :

  “इसकी चौदह दूसरी महिमाएँ हैं, सात धीर उसे वाणी से सम्पादित करते हैं।  ( सर्वत्र ) व्याप्त उस मार्ग को कौन कहे, जिससे कि छाने हुये सोम को पिटे हैं || ७ ||”

पंद्रह-– १५ सघ्रि वैरूप ( १० | ११४ ) : 

  “हज़ार प्रकार के पंद्रह-पंद्रह हज़ार उक्थ हैं, जितनी द्दौ और पृथ्वी ( हैं ), उतने ही वह भी ( हैं ) हज़ार बार हज़ार ( उसकी ) महिमा है, जितना ब्रह्म  व्याप्त है, उतनी ही वाणी || ८ ||”

अठारह— गृत्स्मद ( २ | १८ ) :

   “हे इंद्र, बुलाये गए तुम दो,चार छ:, आठ , दस घोड़ों के साथ सोम पीने के आओ।  हे सुयज्ञ, यह सोम छना हुआ है।  इसे ख़राब न करो || ४ ||”

२०, ३०, ४०, ५०, ६०, ७०, ८०, ९० –गृत्स्मद ( २ | १८ ) : 

  “हे इंद्र, सुन्दर रथवाले उत्तम गति वाले बीस, तीस, चालीस,पचास, साठ, सत्तर घोड़े जुते ( रथ से ) सोमपान के  लिए आओ || ५ ||”

   “अस्सी, नब्बे, सौ  घोड़ों से बहन किये आओ।  हे  इंद्र, यह  सोम तुम्हारे वास्ते पात्रों ( वर्तनों ) में रक्खा  है || ६ ||”

१०००, १००००, — सोभरि  ( ८ | २१ ) : 

  “राजा ( चित्र ) अन्य राजाओं का सरस्वती के तीर ( किनारा ) पर मेघ जैसे वृष्टि द्वारा वैसे हज़ार और (  गौवें )  || १८ ||”

   निष्कर्ष– ऋग्वैदिक काल की  गणनाओं के देखने से ज्ञात होता है, की उसमें सशोत्तर — एकादस, द्वादस, आदि __ क्रम का अनुशरण किया गया था।  दशक संख्या सप्तसिंधु के आर्यों को मालूम थी; लेकिन, नाप तौल में उन्होंने अपने से पहले वाले सिंधु-सभ्यतावसियों का अनुसरण किया, जिसके कारण ही नाप-तौल चार सोलह आदि के कर्म से पीछे माना गया। इसी प्रकार भवन भी विशाल रहे होंगे। 


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