Mughal Revenue System-भारत में मुग़ल वंश की स्थापना 1526 ईस्वी में बाबर द्वारा की गई था। यद्यपि बाबर एक कुशल योद्धा और शासक था लेकिन वह ज्यादा समय तक शान नहीं कर सका। हुमायूँ का शासन अनिश्चिताओं से घिरा रहा और वह एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा। मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था का वास्तविक और दूरगामी परिणाम हमें अकबर के समय से देखने को मिलते हैं। आज इस लेख में हम मुगलकालीन राजस्व व्यवस्था का मूल्यांकन करेंगे। क्या यह जनता के अनुकूल थी अथवा शोषणकारी थी?
Mughal Revenue System–मुग़लकालीन राजस्व व्यवस्था
मुग़लकाल में भूराजस्व व्यवस्था में राजस्व के स्रोतों के दो मुख्य साधन थे- केंद्रीय स्रोत और स्थानीय स्रोत। केंद्रीय आय के स्रोतों में कई मदें शाम,शामिल थीं जैसे – भू-राजस्व, टकसाल, चुंगी कर, उत्तराधिकारविहीन संपत्ति, उपहार, नमक कर, और व्यक्ति पर लगने वाला व्यक्ति कर अथवा पॉल-कर शामिल थे। भू-राजस्व सबसे महत्वपूर्ण कर था जो आय का एक मुख्य साधन था। वास्तविक फसल उत्पादन या फसल में राज्य की हिस्सेदारी को ‘खराज’ या माल [लगान, भूमिकर और चौथ] के रूप में एकत्रित किया जाता था।
मुगलकालीन भूमि विभाजन
मुग़ल साम्राज्य में भूमि को तीन श्रेणियों में विभानित था और यह विभाजन भूराजस्व के विभाजन के आधार पर था –
1- खालसा भूमि – प्रत्यक्ष रूप में वदशाह के नियंत्रण में रहने वाली भूमि।
2- जागीर भूमि – सरकारी कर्मचारियों को वेतन के बदले दी गयी भूमि।
3- सयूरगल भूमि – गरीबों को अनुदान के रूप में दी गई भूमि जिसे मदद-ए-मार्श भी कहा जाता था।
आइये अब एक-एक कर इन तीनों भूमि विभाजन की विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
खालसा भूमि
खालसा भूमि से प्राप्त होने वाली आय को सीधे शाही कोष में जमा किया जाता था, क्योंकि यह भूमि सीधे वदशाह के नियंत्रण में आती थी। यह राजकीय खर्चों के साथ शाही परिवार के खर्चों के साथ वादशाह के अंगरक्षकों एवं व्यक्तिगत सैनिकों और युद्ध की तैयारियों पर खर्च किया जाता था। अगर खालसा भूमि के क्षेत्रफल की बात करें तो यह सम्पूर्ण मुग़ल साम्राज्य का 20% था। 1573 ईस्वी में अकबर ने अपनी नई नीति के तहत जागीर भूमि को काम करके खालसा भूमि के विस्तार को बढ़ाने को फैसला किया।
इसके विपरीत जहांगीर ने अपने शासनकाल में खालसा भूमि का क्षेत्रफल घटाने का निर्णय लिया। परिवर्तन का यह क्रम चलता रहा और शाहजहां ने पुनः खालसा भूमि का विस्तार किया। लेकिन औरंगजेब ने अपने शासन के अंतिम दिनों में खालसा भूमि के अंतर्गत आने वाले भूक्षेत्रों को जागीरों के रूप में वितरित कर दिया।
जागीर भूमि-
राज्य के कर्मचारियों को उनके वेतन के बदले में जो भूमि दी जाती थी उसे जागीर भूमि कहा जाता था। केंद्रीय निगरानी में इस भूमि के हस्तांतरण प्रक्रिया को ‘पयबाकी’ कहा जाता था। इस भूमि का जो मालिक होता था उसे इस पर कर बसूलने का भी अधिकार प्राप्त होता था। लेकिन जब यह भूमि उसके नियंत्रण से निकल जाती थी तब इसका मालिकाना हक़ जागीरदारों के पास चला जाता था। ‘सावनिहनिगार’ नामक विभाग जागीरदारों पर नियंत्रण रखता था। यह विभाग जागीरदारों के क्रियाकलापों और अन्य गतिविधियों की सुचना विवरण सहित केंद को भेजता था।
सयूरगल भूमि
सयूरगल भूमि को मदद-ए- माश के रूप में भी जाना जाता था। यह भूमि एक प्रकार से ऐसे व्यक्तियों को दी जाती थी जो धार्मिक कार्यों में लगे होते थे। यह भूमि ‘मिल्क’ के रूप में जानी जाती थी और अधिकांशतः यह अनुत्पादक ही होती थी।
ध्यान दें- जहांगीर ने अपने शासनकाल में ‘अलतमगा’ जागीरे अनुदान में दी। इस प्रकार की जागीरें वंशानुगत होती थीं। ‘एम्मा’ जागीरे उलेमाओं और धार्मिक विद्वानों में वितरित की जाती थी।
यह भी पढ़िए– मुग़लकालीन चित्रकला अकबर से औरंगजेब तक
अकबर की भूमि-राजस्व नीति की समीक्षा
अकबर ही प्रथम मुग़ल शासक था जिसने सर्वप्रथम भूमि वंदोवस्त की और गंभीरता से ध्यान दिया। उसने एक कुशल भूमि कर व्यवस्था स्थापित करने का सफल प्रयास किया। अकबर को शेरशाह सूरी का अग्रगामी कहा जाता है और यह सही भी है क्योंकि शेरशाह द्वारा स्थापित भूमि और राजस्व व्यवस्था को अकबर द्वारा अपनाया गया। शेरशाह ने जिस भूमि पद्धति को प्रचलित किया वह ‘राई’ के नाम से जानी जाती है। अकबर ने इसी पद्धति के अनुसार राजस्व दरों का निर्धारण किया।
अकबर ने शेरशाह की भांति भूमि की सही तरह से माप-जोख कराई और भूमि के उत्पादन के अनुसार लगान की डर एक-तिहाई निश्चित कर दी। इस प्रकार अकबर ने शेरशाह द्वारा स्थापित राजस्व व्यवस्था को ही आगे बढ़ाया। यही नहीं प्रारम्भ में अंग्रेजी शासन ने भी इसी का अनुशरण किया।
अकबर जैसे ही वैरम खां के संरक्षण से मुक्त हुआ उसने भू-राजस्व व्यवस्था में परिवर्तन करने हेतु मुजफ्फर खां तुरबती एवं टोडरमल को अर्थ अथवा वित्तमंत्री के रूप में नियुक्त किया। टोडरमल ने भू-राजस्व के वास्तविक आंकड़े एकत्र करने हेतु ‘जमा-हाल हासिल’ नामक नया लेखा तैयार कराया। गुजरात विजय के पश्चात् अकबर ने 1573 ईस्वी में ‘करोड़ी’ नामक अधिकारी को पुरे उत्तर भारत के लिए नियुक्त किया। इस अधिकारी का मुख्य उद्देश्य इस क्षेत्र से एक करोड़ का राजस्व एकत्र करना था।
इस अधिकारी की सहायता के लिए ‘आमिल’ नामक कर्मचारी नियुक्त किये गए। ये अधिकारी कानूनगो द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों की जाँच भी कर सकते थे। वास्तविक उत्पादन, स्थानीय कीमतें और उत्पादन आदि पर इन अधिकारीयों ने जो विवरण प्रस्तुत किया उसी को आधार बनाकर 1580 ईस्वी में अकबर ने ‘दहसाला’ नामक नई प्रणाली को शुरू किया।
वित्तमंत्री टोडरमल की बंदोबस्त व्यवस्था
अकबर के सफल भूमि बंदोबस्त और राजस्व व्यवस्था के पीछे जिस वयक्ति का सबसे बड़ा योगदान है वह टोडरमल ही है। टोडरमल ने अकबर के शासनकाल के 10 वर्षों – 1571 से 1580 के बीच में एकत्र राजस्व के आधार की समीक्षा करके उसी औसत को आधार मानकर ‘आइन-एदहसाला’ को लागू किया। इस पद्धति के अनुसार राजा टोडरमल ने भिन्न-भिन्न फसलों पर कर का निर्धारण किया और यह कर नगद रूप में वसूल लिया जाता था।
यह कर कुल औसत जो निकला था उसका एक-तिहाई भू-राजस्व निर्धारित किया। आगे चलकर इस प्रणाली में सुधार किये गए और केवल स्थानीय कीमतों को आधार मानकर साथ ही वभिन्न कृषि वाले परगनों के हलकों में बांटा गया। अतः अब किसान को केवल स्थानीय कीमतों और उत्पादन के अनुसार कर का भुगतान करना था।
ध्यान दें- ‘आईने–दहसाला’ पद्धति को ‘टोडरमल बंदोबस्त‘ के नाम से भी जाना जाता है। इस पद्धति के अनुसार भूमि की पैमाईस हेतु 4 भागों में विभाजित किया गया था।
“अकबर के शासनकाल के दौरान लगान की दर वास्तविक उपज का लगभग एक-तिहाई नगद व अनाज के रूप में वसूल किया जाता था। अकबर ने एक ‘इलाही संवत’ भी चलाया जो सूर्य के आधार पर था। यही फसलों के लिए संवत के रूप में तय किया गया। इससे किसानों को अपना भूराजस्व समय से भुगतान करने में सुविधा हुई और मुग़ल शासन व्यवस्था को राजस्व अभिलेखों को तैयार करने में आसानी हुई।” ध्यातव्य है है कि लगान खेती में प्रयुक्त होने वाली भूमि पर ही वसूला जाता था।
यह भी पढ़िए– अकबर की राजपूत और धार्मिक नीति, दीन-ए-इलाही की स्थापना
भूमि की वैज्ञानिक पद्धति से नाम की शुरुआत
लगन का निर्धारण करने से पहले भूमि की सही से माप कराई जाती थी। अकबर ने 1587 ईस्वी में यानी अपने शासन के लगभग 31 वे वर्ष में ‘सिकंदरी गज’ जो सन की रस्सी से बना होता था और मौसम के अनुसार घटता बढ़ता रहता था को समाप्त कर दिया। इसके स्थान पर अकबर ने गज-ए-इलाही’ अथवा ‘इलाही गज’ का प्रचलन शुरू किया। यह गाल 33 इंच अथवा 41 अंगुल के बराबर था। यह तम्बू की रस्सी [तनब] एवं लोहे की कड़ियों [जरीब] से जुड़ा बांस से निर्मित था। अतः यह मौसम के अनुसार घटता-बढ़ता नहीं था और माप एक समान होती थी।
ध्यान दें – शाहजहां ने अपने शासनकाल में दो नई नापों को शुरू कराया-
प्रथम- बीघा-ए-इलाही और
द्वितीय- दिरा-ए-शाहजहाँनी जिसे बीघा-ए-दफ्तरी भी कहा जाता है।
औरंगजेब ने अपने शासनकाल के दौरान दिरा-ए-शाहजहाँनी का प्रचलन बंद कर दिया, यद्यपि बीघा-ए-इलाही का प्रचलन मुग़लकाल के अंतिम दिनों तक जारी रहा।
जाब्ती प्रथा क्या थी ?
हम कई बार जब मुग़लकालीन राजस्व व्यवस्था का अध्ययन करते हैं तब जाब्ती शब्द भी सामने आता है। यह जाब्ती प्रथा को अकबर के शासन के 15 वर्ष यानि 1570-71 वित्तमंत्री टोडरमल ने शुरू किया इसके तहत खालसा भूमि पर भू-राजस्व की नई प्रणाली शुरू हुई। इसके अंर्तगत भूमि की वास्तविक उत्पादकता और पैमाइश करने के बाद कर की दरें लागू की जाती थीं। इस प्रणाली के अंतर्गत आने वाले भूक्षेत्र बिहार, लाहौर, इलाहबाद, मुल्तान, दिल्ली, अवध, मालवा एवं गुजरात के थे। ध्यान दें कि इस प्रणाली में कर का निर्धारण दो भागों में किया गया-
प्रथम- तख्शीस और
द्वित्य – तहसील
वास्तविक वसूली के रूप में जाने जाने वाले कर थे। लगान निश्चित करते समय राजस्व अधिकारी द्वारा जो कागज़ दिया जाता था उसे ‘पट्टा’, ‘कौल’ या कौलकार कहा जाता था।
उपर्युक्त प्रणाली के तहत उपज के रूप में तय भू-राजस्व को नगद रूप में वसूलने के लिए विभिन्न फसलों को क्षेत्र के आधार नगदी-भू-राजस्व श्रेणी अथवा अनुसूची जिसे दस्तरूल अमल भी कहा जाता था के आधार पर निर्धारित की जाती थी। ख़ुम्स नामक कर जो सल्तनत काल में बसूला जाता था को मुग़लकाल में समाप्त कर दिया गया था, क्योंकि मुग़लकाल में सैनिकों को वेतन दिया जाता था।
अतः युद्ध के दौरान लूटी हुई सम्पत्ति में सैनिकों का कोई हिस्सा नहीं था। एक अन्य कर जिसे ‘पेशकश’ कहा जाता था, मुग़ल अधीनस्थ राजा एवं मनसवदारों द्वारा दिया जाता था। औरंगजेब ने एक फरमान द्वारा पेशकश का नाम ‘नज़र’ कर दिया। साथ ही सम्राट जो उपहार राजकुमारों को देता था उसे ‘नियाज’ एवं अमीरों के उपहार ‘निसार’ कहे गए।
लगान निर्धारित करने के अन्य उपाय
मुग़ल में ऐसी संपत्ति जिसका कोई वारिस नहीं होता था उसे सीधे राजकीय खजाने में जमा करा दिया जाता था। इस कानून को ‘राजगामिता कानून’ और शाही खजाने को ‘बैतुलमान’ कहा जाता था।
लगान निश्चित करने की अन्य प्रणालियों में बंटाई या गल्ला बख्सी जो फ़ारसी पद्धति थी मुग़ल काल की सबसे प्राचीन प्रचलित पद्धति थी। इस प्रणाली में किसानों के के लगन को नगद अथवा अनाज के रूप ेमन भुगतान करने का विकल्प होता था। यद्यपि सरकार का प्रथम प्रयास यही था कि कर को नगद रूप में ही वसूले। कुछ ऐसी फसलें थीं जिन पर कर केवल नगद रूप में ही वसूला जाता था जैसे – कपास, नील, गन्ना, सरसों, बीज, क्योंकि इन फसलपन को नगदी फसलों की श्रेणीं में रखा गया था।
इस पद्धति में खेती के विभाजन को आधार बनाकर कर निर्धारित किया जाता था। बंटाई के तीन प्रकार प्रचलित थी- प्रथम- खेत बंटाई, द्वितीय- लंक बंटाई और तृतीय रास बंटाई। इस पद्धति का प्रचलन मुख्य रूप से कश्मीर. काबुल और थट्टा में था। आपको बता दें कि मुग़लकाल में गन्ना, कपास, तिलहन और नील की खेती को ‘तिजारत फसल’ यानि व्यापारिक फसल भी कहा जाता था।
यह भी पढ़ सकते हैं– मुग़लकालीन राजस्व व्यवस्था
नस्ख प्रणाली क्या थी?
नस्ख प्रणाली का मुग़लकाल में बहुत प्रचलन था, परन्तु इसके संबंध में ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। अनुमानित रूप में कहा जा सकता है कि इस पद्धति में भूमि की माप या पैमाईश हर वर्ष नहीं होती थी। पटवारी अभिलेखों में जो माप दर्ज होती थी, उसी को आधार मान कार कर निर्धारित किया जाता था। इस पद्धति में कर तय करते समय ‘नस्क प्रणाली’ व फ़सल को धयान में रखकर निश्चित होता था। कर निर्धारण की इस अस्थाई प्रणाली को ‘कनकूत’ के नाम से भी जाना जाता था।
इलाही संवत का प्रचलन कब और किसने किया
सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान भूमि की वास्तविक उपज पर लगान लगभग एक-तिहाई भाग व अनाज के रूप में वसूला जाता था। अकबर द्वारा सूर्य को आधार मानकर इलाही संवत लागू किया गया है। यही ‘फ़सली संवत’ के रूप में जाना गया। इस संवत के द्वारा भू-राजस्व अदा में किसानों को आसानी हुई और तथा मुग़ल राजस्व अधिकारीयों को अभिलेख तैयार करने में सुविधा हुई। जहाँगीर ने भी अकबर की भूराजस्व व्यवस्था का अनुशरण किया, लेकिन वह अकबर के मुकाबलेकमजोर प्रबंधक साबित हुआ।
‘जाब्ती’ व्यवस्था’ को जहांगीर ने अधिक महत्व देते हुए अपरिवर्तित रूप में बेनेगल में भी लागू किया। भूमि को अनुदान के रूप में जागीरदारों में वितरित करने की प्रथा को जहांगीर ने ही प्रारम्भ किया ।
जहाँगीर की भू-राजस्व व्यवस्था को शाहजहाँ ने परिवर्तित करते हुए सर्वप्रथम ‘खालसा भूमि’ से प्राप्त, लगान की आय को ‘भू-राजस्व’ से प्राप्त होने वाली धनराशि से अलग कर दिया। अनुमानित रूप से शाहजहाँ ने अपने शासनकाल के दौरान लगान फसल की पैदावार के 33 प्रतिशत से 50 प्रतिशत के बीच वसूलना शुरू किया था।
शाहजहां ने लगान वसूलने के लिए ‘ठेकेदारी पद्धति’ को शुरू किया। मुग़ल शासकों में शाहजहाँ प्रथम शासक था, जिसने दक्षिण भारत भू-राजस्व व्यवथा में सुधार्रों को शुरू किया और इसमें मुर्शिद कुली ख़ाँ का सहयोग लिया गया। आपको बता दें कि दक्षिण का ‘टोडरमल’ मुर्शीद कुली ख़ाँ को ही कहा जाता था।
यह भी पढ़िए- अकबर का राष्ट्रीय सम्राट के रूप में मूल्यांकन (Akbar’s Assessment as a National Emperor)
मुग़ल काल कृषकों का वर्ग विभाजन
मुग़ल काल में पुरे देश में शराब, कपास एवं शोरा का उत्पादन होता था।
औरंगज़ेब ने अपने शासनकाल के दौरान ‘नस्ख प्रणाली’ को लागू किया। इसके साथ ही भू-राजस्व की राशि को उपज के अनुपात में आधा कर दिया गया। औरंगज़ेब के शासनकाल में जागीरदारी और ठेकेदारी (भूमि की) की पद्धति को बड़े पैमाने पर लागु किया गया। औरंगज़ेब को वैसे ही हिन्दू विरोधी कहा जाता है और उसके इस काम से यह सिद्ध भी होता है उसने हिन्दू राजस्व अधिकारीयों के बदले मुस्लिम अधिकारीयों को नियुक्त किया| मुग़लकालीन व्यवस्था में कृषकों की तीन श्रेणियों को निर्धारित किया गया-
खुदकाश्त किसान – ये ऐसे किसान थे जो उसी गाँव में कहती करते थी जहाँ के वे मूल निवासी थी। ये भूमि के अस्थाई मालिक थे। इन किसानों को ‘मलिक-ए-ज़मीन’ भी कहा जाता था।
पाहीकाश्त किसान – इस प्रकार के किसान किसी दूसरे गाँव में जाकर जीविकोपार्जन हेतु खेती करते थे। ऐसे किसान वहां अस्थाई रूप से झोपड़ी डालकर रहते थे।
मुजारियान किसान – ‘मुजारियान’ किसान बहुत कम भूमि पर खेती करते थे और इनका जीवन यापन बहुत कठोर था। ऐसे किसान खुदकाश्त किसानों की जमीन को किराये पर लेकर खेती करते थे। भूमिया वर्ग वंशानुगत भूमि के मलिक होते थे, गिरिसिया एक अन्य वर्ग भी था जिसे केवल ज़मीन संरक्षण का अधिकार दिया गया था। मुग़लकालीन ज़मीदारों को कृषि, मुकद्दमी, बिस्वी तथा भोगी के नाम से जाना जाता था।
मुग़लकालीन राजस्व व्यवस्था लगान फसल वास्तविक उत्पादन पर निर्धारित किया जाता था, लगान नगद रूप में वसूलने को प्राथमिकता दी जाती थी। दूर-दराज और पिछड़े क्षेत्रों से अनाज के रूप में भी वसूला जाता था।
राजपूताना, उड़ीसा तथा कश्मीर के क्षेत्रों में गल्ले के रूप में मालगुज़ारी वसूली जाती थी। किसानों को लगान के अतिरिक्त कई प्रकार कर अदा करने पढ़ते थे। जो अधिकारी खेतों की पैमाईश करता था उसे भी कर के रूप में एक दाम प्रति बीघा ‘जबिताना’ का भुगतान करना पड़ता था। प्रति बीघा की दर से ‘दहसेरी’ नामक एक अन्य कर का भी भुगतान किसान करते थे। इसके अतिरिक्त पशुओं, चरागाहों एवं बाग़ों पर भी सरकार कर बसूलती थी। अकाल अथवा आपदा के समय लगान वसूली में राहत दी जाती थी।
कृषि के प्रकार
आईना-ए-अकबरी में अबुल फज़ल ने रबी की 16 तथा ख़रीफ़ की 25 फ़सलों के बारे में जानकारी दी है।
फ़सलें | उत्पादन क्षेत्र |
---|---|
गन्ना | उत्तर प्रदेश, बंगाल और बिहार |
नील | उत्तर एवं दक्षिण भारत |
गेहूं | पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि |
अफीम | मालवा एवं बिहार |
चावल | मद्रास, कश्मीर आदि |
नमक | सांभर झील, पंजाब की पहाड़ी, गुजरात, सिंध आदि |
उत्पाद | स्थान |
---|---|
स्वर्ण | कुमायूँ पर्वत, एवं पंजाब की नदियों से |
लोह | देश के अनेक भागों से |
तांबा | राजस्थान और मध्य भारत |
लाल पत्थर | फ़तेहपुर सीकरी और राजस्थान |
पीला पत्थर | थट्ठा |
संगमरमर | जयपुर और जोधपुर |
हीरा | गोलकुण्डा और छोटा नागपुर |
मुग़लकालीन उद्योग-धंधे
जहाँगीर ने अमृतसर में ऊनी वस्त्र उद्योग की स्थापना की थी।
उद्योग | स्थान |
---|---|
रुई उत्पादन | सूती वस्त्र निर्माण |
सूती वस्त्र निर्माण | आगरा, बनारस, बुरहानपुर, पाटन, जौनपुर, बंगाल, मालवा |
रंगसाजी | अयोध्या (फैजाबाद) और ख़ानदेश |
रेशमी कपड़े | ढाका (बंगाल), लाहौर, आगरा, गुजरात |
ऊनी वस्त्र उद्योग | अमृतसर |
मुग़लकालीन व्यापार और वणिज्य
आयात | वस्तुयें |
---|---|
फ्राँस | ऊनी वस्त्र |
इटली और फ़ारस | रेशम |
फ़ारस | कालीन |
मध्य एशिया और अरब | अच्छी नस्ल के घोड़े |
चीन | कच्चा रेशम, सोना, चाँदी |
निर्यातक वस्तुएं | प्रमुख उपयोगकर्ता |
---|---|
सूती कपड़ा | यूरोप |
नील | |
अफीम | |
मसाले | |
चीनी | |
शोरा | |
काली मिर्च | |
नमक | |
निर्यात के महत्त्वपूर्ण स्थल मार्ग | लाहौर से काबुल एवं मुल्तान से कंधार |
महत्वपूर्ण बंदरगाह | चीन, नागापट्टम, चटगाँव, सोनारगाँव, चैल, बसीन |
प्रमुख अधिकारी | अधिकारी का नाम |
---|---|
बंदरगाह | शाह बन्दर |
व्यापारिक कर | 3.5 प्रतिशत |
मुग़लकालीन मुद्रा व्यवस्था
धातु के सिक्के | उपयोग | महत्व |
---|---|---|
सोने की मुहर | सोने का सिक्का | शाही अधिकार या प्रशासकीय संकेत |
चाँदी का रुपया | चाँदी का सिक्का | अर्थव्यवस्था का आधार |
तांबे का दाम | तांबे का सिक्का | लोकप्रिय मुद्रा |
सिक्का/जानकारी | विवरण |
---|---|
इलाही | सोने का सबसे प्रचलित सिक्का |
शंसब | सबसे बड़ा सिक्का |
राम और सीता की मूर्ति वाले सिक्कों का प्रचलन | अकबर द्वारा कराया गया |
सिक्कों पर लिखा शब्द | राम सिया राम |
चौधरी | टकसाल का अधिकारी |
केंद्रीय टकसाल से सिक्का ढलबाने का खर्च | 5 से 6 प्रतिशत शुल्क |
बाज की आकृति वाला सोने का सिक्का | अकबर की असीरगढ़ विजय के उपलक्ष में |
तांबे का दाम | दैनिक लेनदेन का सबसे छोटा सिक्का |
निस्सार | जहांगीर ने चलाया |
आना सिक्का | शाहजहां ने चलाया |
सर्वाधिक सिक्के ढलवाने वाला शासक | औरंगजेब |
सिक्कों पर अपनी आकृति छपवाने वाला शासक | जहांगीर |
सिक्कों पर अपने साथ नूरजहां का नाम लिखवाने वाला | जहांगीर |
रूपये का वजन (औरंगजेब के समय) | 180 ग्रेन |
एक रूपये में दाम | 40 |
सिक्कों पर कलमा अंकन | औरंगजेब ने किया |
मीर अब्दुल बाकी शाहबाई द्वारा रचित पद्य का सिक्कों पर अंकन | औरंगजेब ने कराया |
मुग़ल काल का सबसे प्रहकलित सिक्का | मुहर |
सिक्के का मूल्य | 1 रुपया |
अबुल फजल के अनुसार टकसालों की संख्या | सोने के सिक्कों की – 4, चांदी के सिक्कों की – 14, तांबे के सिक्कों की – 42 |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न/FAQs
प्रश्न: अकबर के शासनकाल में राजस्व प्रणाली का संछिप्त विवरण दीजिए?
उत्तर: मुगल काल में, भूमि राजस्व राजस्व उत्पादन का एक महत्वपूर्ण साधन था। यह भूमि कर नहीं, बल्कि उत्पादन और उपज पर आधारित कर था। ‘आइन-ए-अकबरी’ के अनुसार, भू राजस्व एक प्रकार का श्रेष्ठ भाव था, जिसे राजा को प्रजा की रक्षा और न्याय के लिए दिया गया था। मुगल शासन के दौरान, भू राजस्व के लिए ‘माल’ और ‘मालवाजिब’ जैसे पारसी शब्दों का उपयोग किया जाता था।
प्रश्न: अकबर के शासनकाल में भू राजस्व प्रणाली का मुख्य कौन था?
उत्तर: सही उत्तर टोडर मल है। अकबर के वित्त मंत्री के रूप में, राजा टोडरमल ने एक नई राजस्व प्रणाली, जब्त और एक कर प्रणाली, दहशाला लागू की। उन्होंने दस वर्ष 1570-1580 के युग में फसल की पैदावार और खेती की कीमतों का सावधानीपूर्वक सर्वेक्षण किया। एक सुसंगत राजस्व प्रणाली की स्थापना का श्रेय टोडरमल को जाता है।
प्रश्न: मुगल काल में कौन से सिक्के चलाए गए थे?
उत्तर: अपने शासन के प्रारंभ में अकबर ने ‘मुहर’ नामक एक सिक्का चलाया। ‘आईन-ए-अकबरी’ से ज्ञात होता है कि उसने (अकबर) ने लगभग 26 सोने, 9 चाँदी तथा 4 ताँबे के प्रकार के सिक्के चलाये । परन्तु इनमें से कई सिक्के अभी तक नहीं मिल पाये हैं । अकबर ने ‘रुपया’ नाम से चाँदी का सिक्का चलाया, जिसका वजन 178 ग्रेन था।
प्रश्न: मुगल काल में चाँदी के सिक्के को क्या कहते थे?
उत्तर: 16वीं शताब्दी में सुल्तान शेरशाह सूरी ने चांदी के सिक्के को रुपिया कहा और शेरशाह सूरी के बाद सभी मुगल बादशाहों ने मुद्रा का नाम रुपिया ही रखा।
प्रश्न: सवर्ण सिक्के जारी करने वाला प्रथम मुगल शासक कौन था?
उत्तर: अकबर एकमात्र मुगल सम्राट था जिसने सोने के सिक्कों के 26 प्रकार (किस्में) जारी किए थे।
प्रश्न: प्राचीन भारत का प्रथम सिक्का क्या था?
उत्तर: प्राचीन भारत में पंच चिन्हित सिक्कों को पुराण, कर्शापान या पान कहा जाता था, जिन्हें छठी शताब्दी ईसा पूर्व में खनन किया गया था।
प्रश्न: बाबर ने कौन सा सिक्का चलाया था?
उत्तर: मुगल सम्राट बाबर ने काबुल में शाहरुख नामक चाँदी का सिक्का तथा कंधार में बाबरी (चाँदी) सिक्का चलाया।
प्रश्न: मुगल अर्थव्यवस्था के लिए भू राजस्व प्रणाली क्यों महत्वपूर्ण था?
उत्तर: मुगलों के अधीन, भू राजस्व प्रणाली महत्वपूर्ण थी क्योंकि यह किसानों की अधिशेष उत्पादन को भू राजस्व के रूप में लेती थी, जो राज्य की मुख्य आय का स्रोत था।
प्रश्न: मुगल प्रशासन के लिए भू राजस्व का महत्व क्या था?
उत्तर: मुगलों के अधीन भू राजस्व की मुख्य विशेषता थी कि किसानों से उनका अधिशेष उत्पादन भू राजस्व के रूप में लिया जाता था, जो राज्य की मुख्य आय का स्रोत था।
प्रश्न: मुगल अर्थव्यवस्था के लिए राजस्व प्रणाली क्यों महत्वपूर्ण थी?
उत्तर: अर्थव्यवस्था के लिए राजस्व प्रणाली महत्वपूर्ण थी क्योंकि यह किसानों की अधिशेष उत्पादन को भू राजस्व के रूप में लेती थी, जो राज्य की मुख्य आय का स्रोत था।